भूपिंदर सिंह की कविताएँ

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त्रैवृक्षी कतिपय उच्चाकांक्षाओं की, दो दर्जन दुष्प्रारब्धों  की कार्यशाला अपूर्ण वैयक्तिकियों का वहां गुंथन था यायावर पराचेष्टाओं का भी सभ...

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त्रैवृक्षी

कतिपय उच्चाकांक्षाओं की, दो दर्जन दुष्प्रारब्धों  की कार्यशाला

अपूर्ण वैयक्तिकियों का वहां गुंथन

था यायावर पराचेष्टाओं का भी सभासदन

श्वानझुंडों का रम्य वो निसर्ग

वल्मीकों की सहज प्रसूति,  

और इन पर उपजा त्रिवृक्ष

तीन प्रौढ़ वृक्षों की न्यायिका
इनमें विमुद इक देव की मान्यता का जीवन

होम में लभ्य-लिप्सा की चुपडन, भाग्यस्थ पिप्पलाद का भी वास्तु शमन

अनवरत पौरुष का निवेश, पुरुष -निष्क्रम का भी सदा आवर्तन

तीन ही स्तम्भ चरित्र, तीन दलवत

इतिहास इक, इक जड्साक्षी कार्यकाल और वर्तमान इक इतिहासातुर

कब हो दुष्ट निवारण, कब हो सिद्ध घृत-यग्न

इतिहास नहीं सक्षम

न ही वर्तमान को बोधन

अनुष्ठान पर्यन्त अबोध मैं भी तो कालखंड

नहीं सिद्धि दायित्व, ना ही भावनाओं का आरोपण

मूक हूँ ,इतर हूँ,रचना से ,भूतित्व से

नहीं प्रतिभागी किसी नियति का, परिणाम का

प्रतिबद्ध घटनावलोकन और उल्लेखन का बस

तटस्थ भी और पर्याप्त विरत    

घटनावलोकन और उल्लेखन बस

 

वेदना

इतने सुभग कब मानव तुम

भाव जगे

और तारा टूटे

कहाँ सती यह काजल रेखी

अश्रु झंझा में बह ना जाय

कंकर - पत्थर से पट जाय

ऐसा सिन्धु पुरातन होगा

कौन गढ़े प्राचीरें ऐसी

अश्रु चपल जो लांघ न पाएं

 

मिन्दर

उन भूरी आँखों से परे तब भी वही नीयत झांकती होती

यदि इनपर फास्टट्रैक का चश्मा जड़ा होता

उन तेल लगे या शायद बग़ैर तेल लगे बालों पर

तब भी कोई मुनासिब फ़ब्ती कासी जा सकती थी

अगर वो किसी धनाढ्य के सर पर उपजे होते

कैंची-कट वो कृष्कायी मूंछें और अफसरों के मुखमंडलों पर

यथास्थिति स्वीकार कर ली जाती हैं

वो बाबा रंग की कमीज़ जो रोज़ धुलती हो

या शायद बिना धुले ही पहनी जाती रही हो

यदि किसी नवाबजादे के धड पर टंगी कॉलेज पहुँचती

तो बहुत संभव है के इन-वोग सिम्बल बन जाती

गहरी शनिश्चरी नीलिमा लिए वो गमछा किसी सिनेतारक के गले पर झूलता

तो किसी माल सेल्ज़मैन के गले को भी कसता शायद

(वैसे का वैसा ही उलब्ध करवाने के लिए )

किसी मतवाले हाथी की तरह अपनी बात पर ठहर जाना शायद कुछ के लिए बहस करना हो

परंतु उसका प्रतिरक्षण करना बहुधा एक श्रेष्ठ गुण भी माना जाता है ,

वो ठीक-ठाक सा एक स्वस्थ व्यक्तित्व ही तो है

जो खुश दीखता है

संतुष्ट तो आज है भी कौन ?

पास की ही चुंगी वाली चौंकी पर ही  वो

मनमर्जी की मजूरी करता है

अनपढ़ा, अनसुना सा सापेक्षता का नियम/सिद्धांत समाजशास्त्र में भी रहा होगा

कभी कदाचित

जभी तो लौकिक मापदंड सापेक्ष होते आये हैं

अगर वो गाँठ का पूरा होता,

अगर वो एक मजदूर न होता

अगर वो भी एक सभ्रांत कुल का होता

तो मिन्दर, महिंदर या शायद महेंद्र होता !

 

अज्ञात निलय

वह सभी जो ज्ञात न रहा ,ज्ञात था या ज्ञात होना है अभी ,

सुप्त जागृत या अन्यथा मिलेगा अज्ञात के निलय में?

नीचे रसातल, ऊपर गगन ,बीच धरती तो ज्ञात है ही

किसी कथा वर्णन की कुछ पंक्तियाँ अनसुनी फिर भी रह गयी थीं?

निलय अज्ञात में फिर भी फर्श का तुलनात्मक बिम्ब बिछा होगा,

टिकी होती होंगी बिना गुरुत्व के छत वहां ?

दीवारों के परे से ज्ञात क्यूँ न झाँक पाता होगा ,

वहां भी भित्तियां, परदे रुकावट का काम करते हैं ?

ज्ञात ज्ञातत्व निवृति पाकर यहाँ चिरविश्रांति पाते होंगे,

अथवा ज्ञात कई ज्ञातत्व प्राप्ति को तप किया करते होंगे?

किस अधीक्षक वा सत्ता के निलय वह वश होगा ?

ईश्वर तो हो नहीं सकता के स्वयं ज्ञात है ,

काल भी नहीं के उसका भी नाम है

भित्त्तियों पर ? कोने में ? में महाकाल का चित्र मान्य होगा ?

जिसके महाप्रलय आयोजन से नवाज्ञात  सृजन होते या

समकक्ष उसका अजान कोई पाषाणों के अभाव में अमूर्त नटराज तांडव करता होगा ?

क्या मूक कोई अज्ञात वह गुंजन करता होगा ,अथवा

क्या बतियाते होंगे अज्ञात वर्ण आगामी रणनीति ?

आयें कोई शब्द वहां से तो विज्ञप्ति का आयोजन हो

अन्वेषण किया जाये उनका अथवा अपना समर्पण किया जाए

वहीँ छिपे होंगे वे कारण अथवा कारण छिपा होगा

तरंगित किया है जिसने हर मन वा मानस को

रचना प्रत्येक जिससे जुडी स्पंदित है

जिसके चलते विषाद भरा है चिराव्सादी हर मन में

क्यों नैराश्य अग्रणी है थोथी आशा के बोलों पर

ये छेड़ कहाँ तक की है

ये दौड़ कहाँ पर थमती है

किसने बाँध यंत्रणा में रचना से उपहास किया ?

यदि कभी आये वह जो इस सनातन समर का प्रणेता है

तो इसपार उसे युद्धापराधी ही माना जाये

जबतक ये प्रश्न अनुत्तरित रहें

अभियोग उसी पर चलता रहे अनवरत

एवं अक्षुण

आव्रजन की पर्ची ? यदि कोई है तो उसे इसपार तो ज़ब्त किया जा सकता है

रहने दिया जाय तब तक अज्ञात निलय को उस एक 'अज्ञात' बिना

सूना ?....मौन ? या जैसा भी विधित हो !

 

रावण

विजातीय संघर्षण की पृष्ठभूमि

और वर्गीय महत्वाकांक्षाओं का मानस

इनमे उपजा इक पुंसत्व

सर्वथा चरम विशेषणों से विनिर्मित

कल्पान्तर अतीत रचना

कल्पनास्पृश्य पौरुष

विद्वत विज्ञात

देवपर्यंत अजित पराक्रम

रुद्रतोषण  बाहुक

पराकाष्ठाओं के संकुचे मचान का तथापि

अल्प संभाव्य था और दोहन

अवनयन नियत है परम के चरमोपरांत

सहोत्पाद है दर्प भी शक्ति की लब्धि का

और स्खलन का सहज उपस्कर

पाया खलत्व कालपर्यंत यथा पटकथा- नीत था

रीतबद्ध है उपनायक का खलत्व मर्दन यद्यपि

दशमी दहन का नहीं एकाकी

कृतित्वों का भी पर्याय रावण

 

इक मैं विमना उभयचारी

भैरवी की, भेरियों की उपेक्षा में जागकर

देव-जागरण से भी पहले की आरती मांगकर

सोया कभी वा अकलेवित उदर लिए भी कभी

अर्धगंतव्य को प्रयाण नियत

परिचित मुखड़ों के अपरिचयों की बस में

अरण्य धब्बों की और

धूम्रशिख चिमनियों की ओर

भूमि की ओर वहीँ जहाँ अपराहन होता है

नीलिम -कालिम अक्षरों की

वर्ण-लडियां बुनती हैं

अप्राप्य की घोषणाएं व असहमति की मंत्रणाये भी

विचाराधिव्यय कदा दिवस-व्यतीति के प्रकरण हैं

अन्यगंताव्यार्ध दिवस दीर्घा के पार खड़ा

पुनः लौटने को इसी प्रदेश एक निशा के उसपार सुबह

रुक्ष प्रतिवेदनों, पूर्वांकित टिप्पणों की मेज़ पर

गंतव्य है लौटना दीर्घ प्रतीक्षारत आलय को

सुशान्ति की लिपटन को  समीक्षाओं की शैया पर

निशांत के उसपार ही प्रायः विकल्प मिलता है

व्युतरोही अरुण सा वृद्ध है उत्साह अभी

संध्या रश्मियों सी वर्धमान हैं अपेक्षाएं भी

आज भी अपूर्ण रहने दो प्रस्तावित  

निशांत के पार ही प्रायः विकल्प मिलता है

उसी ओर चलें तुम वर्णन ! क्लांत मन  ....

इक मैं विमना उभयचारी

 

उत्तरपद

श्रेष्ठतम पद है अल्पप्राय

विप्लव- भावी सिंहासन

संधान अधिश्रम

और स्थिति अल्पजीवन

उत्तरपद हैं अधियुक्त

शक्ति और सुश्री से विपन्न

जन्मजात विकर्षण को प्रशिक्षित

आकर्षण योग्य नहीं मंडल

पृष्ठभूमि जिनसे से है

सांख्यिकी जिनसे से है

शक्ति से अदर्प पद

यद्यपि अधिपरिमित

गतिमान हैं जड़ नहीं

प्रवाह अपितु, उन्मत लहर नहीं

सम्मान और अलंकरण के नहीं

निष्प्रभ अविशेषताओं के

श्रेष्ठेतर उपमेयों के अधिकारी

विध्यान और विस्म्ररणाभ्यस्त

आत्म्गुन्थित, आत्मगर्वी हम उत्तरपद !

 

घीस

समष्टि के आदितम चरणों का परायण

तत्वमूल के विहित गुणों का जमा था मिश्रण।

रचना की एक विमा के सुदूर बिंदु पर, 

क्लेश हुआ अन्तःनिसर्ग का विधित प्रकृति से।

विपथन यह उपजा कैसे सर्वत्र विस्मय नितांत।

अभी तो वस्तुनिष्ठ ही थे सब विवरण

निर्देशों पर स्वत्व कैसे पाया फिर निर्दिष्ट ने ? 

'घर्षण' -परिकल्पना से इतर त्रिविमीय जो निर्माण हुआ,

स्वतंत्र पद इक की आकांक्षा में घर्षण ने उत्पात किया।

विलग संवर्ग का प्रणेता वह स्वघोषित,

गति से प्रशस्ति से विजातीय, विरुद्ध जो।

आदिम क्षणों में ही पा गया प्राधिकरण

अपरिवर्तनीय रचना चरण पर विप्लव आयोजन

भौतिकीय गुणामेलन थे प्रयाण पर

प्रकृति के निदेशन से परिवर्तन था अक्षम

विधान में विहित था उपपथ कदाचित

घर्षण को जो भूति में मात्रा का उपमान मिला

विप्लव फलतः निर्दमित रहा अपरिवर्तनीय एवम।

नवसृजित भूत-फलकों के युग्मक सर्वत्र जो दृष्टिमान

सौहार्द नहीं अपितु किण्वित घीस के आलिंगन से

स्थिति,काल व गति सबका,

स्पर्श ,दृश्य,रस का भी नियमन

घीस कर ,खीझ कर करता पदार्थ व मन।

घर्षण रुद्ध प्रायः गति एवं प्रशस्ति भी

वेग के, त्वरण के प्रवाह के समान्तर /असमान्तर

घर्षण की, घीस की जड़ता व रोधन

दुषव्याप्त, प्रवाहारुद्ध हैं कालानंत से।

 

अनार्येश्वर

सभ्यता के प्राधिकरण से भी

शिष्टता की अभिकल्पना से पहले

आदिजनों के 'अस्पृश्य ' के नामांकन से बहुपूर्व

प्राक्जनों की अर्ध्पक्व मान्यताओं में नित रहता

सुघड़ मूर्तित्वों की आवश्यकता /

विज्ञान से भी पूर्व अतीव

फल्लुस पिंड में रमता वह

दस्यु-संघ जो आर्य संज्ञा के

मलिन पूजकों उन से वह पूजित

आखेटन से चौरकर्म से

तर्पण करते उदराग्नि को

उन के उदकान्जुलों के बदले

हेयजन्मना उन पुरुखों का

क्षेम निर्वहन था करता

किंचित भावार्द्र पर्ण -फलों के

आस्वादन के बंधन भर में

उनकी वामना मंदिराओं में छोड़ शैल-शुभ्र वो रहता

ऐसा देव अनार्येश्वर वह

आर्यागम के पहले से ही

रूद्र ,शंकर के नामकरण से

और नवागंतुक सम्मिलन से

पराभव से,उनके हमपर

उनके श्रेष्ठ आरोपण से पहले

किंचित भावार्द्र पर्ण -फलों के

आस्वादन के बंधन भर में

वामना- मंदिराओं में

छोड़ शैल-शुभ्र था रहता

 

प्रतीक्षा

स्तब्ध खड़ा वह सीमेंट का बिजली वाला खम्भा

गड्ढों की खिडकियों से झांकती रोड़ी

तो कहीं काई की कालीन

सालों से वही ढीली तारें

दूर दराज के गाँव तक बिजली की तस्करी कर रहीं

मंदिर खम्भे से अत्यधिक ऊँचा

संभवत गाँव का सर्वोच्च सोपान

मंदिर उसकी देवी/भगवान अपने पदानुरूप खम्भे ज्यादा ही ऊँचे

खम्भा किसी विस्मित अवस्था में खड़ा है जैसे

किसी शीर्षस्थ कर्मी के सम्मुख खड़ा हो चतुर्थ श्रेणी कर्मी

चुंगी का दफ्तर जो खम्भे की अर्धनग्न छाया के बल पर ग्रीष्म-वृष्टि आदि सब झेल रहा है

और खंभ के पैरों पर किसी क्रांतिप्रिय प्रशासनिक अधिकारी के विभाग में नवागम की प्रतीक्षा कर रहा है

दफ्तर वैसे ही उपेक्षित पड़ा वर्षों से

यथा किसी व्यसनी शराबी की पत्नी नए वस्त्राव्रण को पाने की प्रतीक्षा में

रोज़ उसकी लताड़ पा रही

अन्दर बैठा अनमना नौसिखिया कर्मी भी तो उसपार वैसे कृपामुदित नहीं दीखता

जैसे पर्त्यक्ता किसी सुन्दर्देहा को कोई लोलुप प्रशंसा की मुद्रा में निहार ले

कंभे की लाईट फ्यूज़ हो गयी वैसे ही जैसे रिटायर्ड बाप को छोड़ जाते हैं सेटल्ड बच्चे

कई कर्मी आकर चले गए

यह नया भी यही सोच रहा है की कब

यह भी छोड़ इस जीर्णयौवना को वैसे ही चला जाएगा जैसे ही नयी सुरूपा

कोई नौकरी पा जाएगा

किसी सुव्यवस्थित से खिड़की-किवाड़ वाले चौबारे में बैठेगा

किसी नवपरिणित दुल्हे सा ,जिसने अपनी बुढ़ियाती रम्या को छोड़ दिया है

गिरिजा के घंटे पर आराम को बैठे पंछी ज्यूँ उड़ जाते हैं

त्यूं ही आते -जाते रहे हैं अफसर -बाबू यहाँ भी

अपकर्ष अवस्था है यह संभवतः यह

सुना है नयी सड़क का प्रस्ताव पारित होने को है

सड़क तो तब रौंद ही डालेगी क्लान्तिप्राप्त खम्भे को

खम्भे ने भी मंदिर के अधीक्षक देवता के सम्मुख मूक गुहार लगायी तो है

इसकी इच्छा भी रूप परिवर्तन की है

छोड़कर पुरातन -उपेक्षित देह यह सर्जिकल चेंज चाहता है

तब यह मेटल्ड रोड बन जाएगा ...रास्ते के रोड़ी-पत्थर में पीसकर

एक बीएससी ग्रेजुएट कर्मी ने इसके नीचे खड़े होकर कहा था

की उर्ध्वाधर स्थिति से क्षैतिज अवस्था अधिक सुखपूर्ण है

उसकी परपरिपेक्षी अर्ध्पक्व भौतिकी संवाद ने मुमुक्षु खम्भे के

काई-आवृत अदृष्ट कानों को मानों बरगला दिया था

कर्मी चला गया था कुछ ही दिनों बाद....

...पर अबकी बार खम्भा भी ट्रांसफर चाहता है

विभागीय उपेक्षा से ...नाराज़ आधिकारियों के आवागम की प्रक्रिया को देखने की बाध्यता से ....

...उस लोहे की कील से जो इसके उखड़ते सीमेंट को कुरेदती है जब-२ बूढ़े चपरासी के जूते की एड़ी

इसपर आकर टिक जाती है

ज्यूँ ही वो इसके सहारे खड़े होकर अपने घुटने की दर्द को इसके सहारे से कम करने की कोशिश करता है

इस इकत्तीस को सुना है ट्रांसफर-बैन उठ जाएगा

यह अधिकारी भी शायद तब्दील हो जाएगा

चपरासी के महीने के करीब की अर्न-लीव सेंक्शन हो जाएगी

और किसी नए अधिकारी के आने से पहले

शायद खम्भा भी

अपना स्थान छोड़ चुका होगा !

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रचनाकार: भूपिंदर सिंह की कविताएँ
भूपिंदर सिंह की कविताएँ
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