कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -93- अनिता अतग्रेस की कहानी : " गीता हो या सीमा...कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता...."

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"आ ज फिर तुम इतनी देर से आई गीता? तुम्हारी तो रोज़ की यही आदत हो गयी है, मैं बोल-बोल कर थक गयी ! अब तो मुझे भी टोकने में शर्म आने लगी ...

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"आज फिर तुम इतनी देर से आई गीता? तुम्हारी तो रोज़ की यही आदत हो गयी है, मैं बोल-बोल कर थक गयी ! अब तो मुझे भी टोकने में शर्म आने लगी है पर  तुम्हें कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता..." , सीमा, दर्द की दवा की गोली गटकते हुए.., खीजी हुई गुस्से भरी आवाज़  में बोले जा रही थी ! उसे बुखार सा महसूस हो रहा था, सिर और हाथ-पैरों में बेहद दर्द हो रहा था...! अचानक उसने देखा, रोज़ कोई न कोई बहाना बनाने वाली गीता आज चुपचाप झाड़ू लेकर सामने आ खड़ी हुई और पूछ्ने लगी, "किधर लगाऊं पहले?" उसे जैसे सीमा की बातें सुनाई ही नहीं दी ! सीमा भी कड़े स्वर में बोली, " मेरे कमरे में..."  और पैर पटकती हुई अपने कमरे की तरफ चल दी ! आज सीमा भी बहुत चिड़चिड़ाई हुई, गुस्से में थी ! पीछे पीछे गीता भी आ गयी ! चुपचाप झाड़ू लगाने लगी !

     सीमा एक पढ़े-लिखे, सभ्य, शालीन, उच्च मध्यमवर्गीय छत्तीस (३६) वर्षीया महिला थी ! उसके पति का अपना निजी व्यवसाय था, जिसके सिलसिले में उन्हें अक्सर शहर से बाहर जाना पड़ता था ! उनके एक ही बेटी थी, जो दूसरे शहर में  कॉलेज में पढ़ाई कर रही थी ! सीमा अकेले घर में ऊब जाती थी ! वह संकोची स्वभाव वाली एक संभ्रांत महिला थी ! किटी पार्टियों, गप्पें हांकने और बिन मतलब की खरीदारी में समय बिताना उसे बिल्कुल नहीं भाता था !  इसलिए उसने भी अपने पति के ऑफीस में काम करना शुरू कर दिया था ! इससे उसके पति का भी थोड़ा हाथ बँट जाता था...और सीमा का भी मन लगा रहता था ! गीता उनके यहाँ झाड़ू-पोछा व बर्तन धोने का काम करती थी !

      कुछ देर तो सीमा खुद ही गुस्से में भिनभिनाई सी इधर उधर सामान हटाने के बहाने उठा-पटक करती रही.. !  गीता की चुप्पी देखकर उसको और भी गुस्सा आया ! उसने फिर कुछ बोलने के लिए मुँह खोलना ही चाहा कि तभी उसकी नज़र गीता की कलाई पर पड़ी ! देखा, तो उसपर चोटों के निशान थे ! तब उसे ध्यान आया कि पिछले कुछ दिनों से गीता लंगड़ा कर भी चल रही थी !

              कुछ पल वो गीता को देखती रही...होगी कोई तीस-पैंतीस वर्षीया, साँवली मगर तीखे नैन-नक्श वाली औरत...जो अपने पति और छः (६) बच्चों वाले भरे-पूरे परिवार की ज़िंदगी को बेहतर बनाने की धुन में खुद ही जीना भूली हुई सी लगती थी ! दूसरों के घर और चौका-बर्तन चमकाने की हुज्जत में अपनी उम्र से दस वर्ष बड़ी लगने लगी थी ! दुबली-पतली मरी हुई सी काया, बिखरे हुए बाल, सूखा हुआ चेहरा.....हाँ! माँग में सिंदूर, माथे पर बिंदी, हाथों में चूड़ियाँ और पैरों में बिछुए-पायल ज़रूर चमकते रहते थे ! सीमा अपने ख़यालों से बाहर आई...! गीता अभी भी चुपचाप बेमन से इधर-उधर झाड़ू चला रही थी ! अब सीमा से रहा न गया ! आख़िर उसने पूछ ही लिया,

" ये क्या हुआ? तुम्हारी कलाई पर चोटों के निशान कैसे?"
गीता ने हल्के से सिर उठाया, बोली, "कुछ नहीं दीदी , बस चोट लग गयी !"
सीमा बोली, "ऐसे कैसे चोट लग गयी वो भी इस तरह ? और तुम्हारा गाल भी सूजा हुआ है ! हुआ क्या आख़िर?"
'कुछ नहीं' बोलने के इरादे से सिर हिलाते हिलाते गीता की आँखों में आँसू आ गये ! सीमा को अब मामला कुछ गंभीर लगा !

       उसने अपनी आवाज़ में मुलायमियत लाते हुए फिर से अपना सवाल दोहराया ! गीता भी जैसे अंदर से बुरी तरह भरी हुई थी, दो मीठे बोलों का सहारा पाकर बोल पड़ी... "अब क्या बताऊँ दीदी ! ये तो रोज़ का ही चक्कर है..! दिन भर बाहर काम करो, झाड़ू-पोछा बर्तन करो, घर पहुँचो तो घर के सारे काम मुँह बाए मेरे लिए ही पड़े रहते हैं... ! आदमी और बच्चों के कपड़े धो, बरतन धो, खाना पकाओ, सबको खिलाओ... ! उस सबके बाद इतना.... थक जाती हूँ कि खुद खाना खाने का भी दिल नहीं करता ! बिस्तर पर जब गिरती हूँ तो होश नहीं रहता..." गीता अपनी धुन में बोले जा रही थी.... 

तभी सीमा बीच में बोली,"ये सब तो पता है, मगर ये चोटों के निशान कैसे हैं?"
एक गहरी साँस लेकर गीता बोली , "ये ? ये 'इनाम' समझ लीजिए  दीदी !"
सीमा को कुछ समझ नहीं आया ! वो बोली, "इनाम...? मतलब?" इसपर गीता बोली...
"जाने दीजिए न  दीदी, क्या करेंगी जानकर ? औरतों की क़िस्मत में भगवान ने यही इनाम तो रक्खा है ! ख़ासकर मुझ जैसी औरतों की क़िस्मत में... जिन्हें न पढ़ना नसीब होता है, न ही अपनी इच्छा से जीना ! छुटपन में ही अम्मा-बाबू ने ब्याह कर दिया और छुट्टी पा गये ! इसके बाद मैं जियूँ या मरूँ...किसी की बला से !" कहते कहते वो सुबक सुबक कर रोने लगी !
    सीमा  ने उसे ढाँढस बँधाना चाहा...मगर आज गीता का बाँध जैसे टूट गया था...! वो फिर बोलने लगी.. " अगर मुझे भी माँ बाप ने थोड़ा पढ़ने-लिखने दिया होता...तो आज मैं कोई ढंग का काम कर रही होती ..., इज़्ज़त की जिंदगी जी रही होती.. और किसी ढंग के आदमी से के संग ब्याही गयी होती... जो मेरी कही बात तो समझने की कोशिश करता, मुझे इंसान तो समझता.. न कि ऐसे सराबी (शराबी)-कबाबी के साथ....."

          इसके पहले कभी सीमा ने गीता के मुँह से अपने पति के लिए ऐसी बातें नहीं सुनीं थीं... इसलिए उसे कुछ आश्चर्य हुआ ! एक बार वह  गीता को लेने सीमा के घर भी आया था... सीमा को वह बहुत तमीज़दार आदमी लगा था, जो पहले तो सीमा के सामने आने से ही कतरा रहा था...पर जब सामने आना ही पड़ा...तो नज़रें झुकाए-झुकाए सीमा के एक-आध सवाल का जवाब दिया था ! मगर आज तो... सीमा ने महसूस किया.... गीता की बातों और नज़रों में अपने पति के लिए घोर नफ़रत झलक रही थी...!

     सीमा की आँखों में अभी भी वही एक प्रश्न था...'ये चोटें कैसे?'

गीता फिर बोलने लगी..." दीदी! साहब आपका कितना ख़याल रखते हैं, आपसे कितनी इज़्ज़त से बात करते हैं.. ,आपकी कितनी बात मानते हैं... इसीलिए ना, क्योंकि आप भी उनके जैसे ही पढ़ी-लिखीं हैं, ऑफिस जातीं हैं...!" गीता की रोती हुई आँखों में एक कातर सी लालसा छलकने लगी थी... !

सीमा चुपचाप सुने जा रही थी ! उसको जैसे गीता की ये बात पसंद नहीं आई... उसने गीता की बात बीच में काटकर फिर हल्के से पूछा.... , "मगर इन चोटों का इस सब से क्या लेना-देना?"

गीता को जैसे एक बार फिर अपने दर्द का एहसास हो आया..!

वो बोली, "यही तो बात है दीदी ! सारे दिन काम में मर-खप के, मेरा सरीर (शरीर) भी तो आराम चाहता है....मगर घर में अगर आदमी का कहा न मानो...तो यही 'इनाम' तो मिलता है ! कल रात उसी से झड़प हो गयी ! एक तो देरी से घर आता है, उसको खिला कर ही मैं खाती हूँ.! मगर इत्ते (इतने) पर भी मुए को एक दिन को भी चैन नहीं ! उसे तो बस... " बोलते बोलते फिर गीता की हिचकियाँ बँध गयीं...

" अब मैं कैसे कहूँ आपसे दीदी! मुझे तो बोलते हुए भी सरम (शर्म) आती है.."

         अब सीमा को भी कुछ कुछ उसकी बातों का मर्म समझ आ रहा था!

गीता ने फिर बोलना शुरू किया...  "उसे मुझसे, मेरी थकान, मेरी इच्छा से कोई मतलब नहीं, बस निगोडे मरे को सरीर (शरीर) ही नोचने को चाहिए..... चाहे वो थका हारा मुझ जैसा मुर्दे समान ही क्यों न हो..."

गीता ने लाज-शर्म की सारी दीवारों से बाहर आकर बोलना शुरू कर दिया था...
"कल रात मैनें मना कर दिया तो ज़बरदस्ती करने लगा ! मुझे भी गुस्सा आ गया ! मैनें भी हाथ पैर चलाए कि आज तुम्हारी एक नहीं मानूँगी....इसी में हाथापाई हो गयी, बच्चे भी जाग गये, रोने लगे !  इसपर उसने मुझे और पीटा..."ये देखिए....."
कहते हुए  उसने अपनी पीठ दिखाई, उसपर भी नील पड़े हुए थे !
"तीन चार रोज पहले मुझे इत्ती जोरों का धक्का दिया कि घुटने पर चोट लग गयी ! इसीलिए इतने दिनों से लंगड़ा कर चल रही हूँ ! दर्द के मारे पूरा बदन टूटा जा  रहा है...
क्या करूँ मैं?
औरत हूँ तो क्या, इंसान नहीं हूँ मैं ?
मेरी इच्छा, मेरी मजबूरी, मेरा सरीर (शरीर).....क्या इसपर भी मेरा कोई हक नहीं है....? "

कहकर वो फूट-फूट कर रोने लगी ! गीता की आवाज़ में अब आक्रोश व विद्रोह साफ़ झलक रहा था...!     
             फिर कुछ पलों बाद खुद ही आँसू पोंछकर बोली, "जाने दो दीदी ! आप लोग बड़े, समझदार, पढ़े-लिखे लोग हैं..., मैं भी कहाँ आपको इस गंदे कीचड़ के दलदल में घसीट रही हूँ... ! अब तो मुझे आदत पड़ गयी है...!"

फिर जैसे कुछ बड़बड़ाते हुए बोली..., "मगर मैनें भी ठान लिया है... अब बर्दास्त (बर्दाश्त )  नहीं करूँगी... !" और वो फिर  झाड़ू लगाने लगी !

               सीमा पर तो जैसे सन्नाटा छा गया ! उसका पूरा शरीर ठंडा सुन्न पड़ गया था ! उसका सिर घूमने लगा था....और जलता हुआ बदन... ठंडे पसीने में नहा गया था...! गीता की बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था ! किसी तरह उसने खुद को संभाला !  दर्द की दवाई का पत्ता अभी भी उसके हाथ में था...! उसने एक गोली उसमें से निकाली और गीता की ओर बढ़ाकर बोली.....
  " ये खा लो ! दर्द में कुछ आराम मिलेगा.........."

इसके बाद सीमा ने अपने कुर्ते की बाहें हल्के से ठीक की ! आज उसने भी बंद गले का , पूरी बाँह का कुर्ता पहना हुआ था ! किसी को पता नहीं चला.....'गीता हो या सीमा...कोई  ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता !'


गीता के सवाल....सीमा के जवाब थे..............................

COMMENTS

BLOGGER: 8
  1. न जाने कितनी सीमायें इसी तरह अपनी चोट छुपाये जी रही हैं ....मार्मिक

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    1. वंदना जी...हार्दिक धन्यवाद !

      हटाएं
    2. बेनामी4:29 pm

      shahyad aap bhul rahi hai jo bardasht kar rahi thi unka naam geeta tha aapne galti se unka naam seema likh diya

      हटाएं
  2. Dr. madhu sandhu ji.... हार्दिक धन्यवाद !

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -93- अनिता अतग्रेस की कहानी : " गीता हो या सीमा...कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता...."
कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -93- अनिता अतग्रेस की कहानी : " गीता हो या सीमा...कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता...."
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