दिनकर कुमार का कविता संग्रह - लोग मेरे लोग

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लोग मेरे लोग दिनकर कुमार     और मैं सोचा करता था निहायत सरल शब्द होंगे पर्याप्त। जब मैं कहूं, क्या है हरेक का दिल जरूर चिंथा-चिंथा होगा...

लोग मेरे लोग

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दिनकर कुमार

 

 

और मैं सोचा करता था
निहायत सरल शब्द
होंगे पर्याप्त।
जब मैं कहूं, क्या है
हरेक का दिल जरूर चिंथा-चिंथा होगा।
कि तुम डूब जाओगे
अगर तुमने लोहा न लिया
वह तो तुम देख ही रहे हो।
-बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

 

 

मां और बाबूजी के लिए

 


अनुक्रम

अपनी आवाज में    1
सारा देश रियल इस्टेट    2
एक एंटेलियो होता है    3
इस विज्ञापन जगत में तुम कहां हो मनुष्य    5
मुझे अभाव से डर नहीं लगता    6
अपनी ही संतानों की    7
अरे ओ अभागे    8
मुझे मत उछालो    9
मैं अन्ना हूं मैं अन्ना नहीं हूं    10
वेनिस का सौदागर    12
कभी-कभी ऐसा भी होता है    14
तुम प्रजा हो तुम क्या जानो    15
आवारा पूंजी के उत्सव में    16
स्विस बैंकों तक बहने वाली खून की नदी में    18
अपनी शामों को बंधक रखकर    19
टुच्ची दुनियादारी से जब फुरसत मिल जाएगी    20
मेरी उदासी को किसी साज पर बजाया जाता    21
ग्वांतानामो    22
रूपट मर्डोक    23
जलबंदी    25
वर्ष का क्रूरतम महीना होगा मई    26
वह जो फेसबुक का साथी है    28
पी. साईंनाथ के साथ    29
शहर में जीना    30
एक दिन बचेगा    31
बारिश उतर रही है    32
दासता की जंजीर    33
जीवन का कोलाज    34
अतिमानव बनने की धुन में    35
रुग्ण समाज क्या देगा किसी को    36
बाढ़ और आंसू में डूबे हुए    37
ज्ञान के साथ बलात्कार करने के बाद    38
मुल्क की सबसे बड़ी पंचायत में    39
बाजार सबको नचाता है    40
रूहुल अली को मैंने देखा था    41
मोमबत्ती जुलूस में जो शामिल हैं    42
वे जो हमें नायक की तरह नजर आते हैं    43
जो भ्रष्ट हैं    44
जश्न मनाने के बाद    45
कवि चुप था    46
प्रिय ऑक्टोपस    47
घृणा के साथ सहवास संभव नहीं    48
मूर्तियों के शहर में    49
नाचघर    50
जीवित रहने का प्रस्ताव    51
तलाश    52
गुवाहाटी की शाम    54
इन दिनों    55
युद्ध    56
टीन की छत    58
डायनासोर    59
यह जो प्रेम है    60
जगजीत सिंह को सुनने के बाद    61
वे दंगाप्रिय ईश्वर के उपासक हैं    62
अपहरण    63
भूख मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी    64
भूपेन हजारिका    65
शीतल पेयजल पीता है सूरज    67
भय जब दस्तक देता है    69
खुशी प्रायोजित की जाएगी    71
नृशंसता के जंगल में    73
पोवाल दिहिंगिया    74
एकता कपूर का ककहरा    75
करुणा बचाकर रखो    77
प्रिय भूख, तुम नहीं जीतोगी    78
दुनिया की सबसे हसीन औरत    ७९
आइए हम जनहित याचिका दायर करें    80
सूनी हवेलियां    81
जंगल में अकेले    82
देव प्रसाद चालिहा    84
धरती की तबियत ठीक नहीं है    86
हथेली    87
परिचय    89
मेरे सतरंगे सपने    91
सोमालिया में जेन फोंडा    92
स्कूल में गोलीबारी    93
प्रवासी मजदूर भजन गाते हैं    94
लुभावने वादों का पार्श्वसंगीत    95
बर्बर भी करते हैं शांतिपाठ    96
जिंदा रहते हैं सपने    97
सपनों का शिलान्यास    98

 

 

अपनी आवाज में

अपनी आवाज में चाहता हूं कुछ असर पैदा हो
जो कहूं तुम्हारे दिल को छू जाए
मेरी भर्राई आवाज की अनकही पीड़ा
तुम्हारे कलेजे तक संप्रेषित हो जाए।

चाहता हूं थोड़ी सी करुणा तुलसीदास जैसी
मेरी आवाज में भी घुल जाए
जिसे सुनते ही तुम्हारे भीतर हूक सी उठे
जिसे व्यक्त करने से अधिक
महसूस किया जाए

चाहता हूं थोड़ा सा लहू गालिब की तरह
मेरी आंखों से भी टपके
दुनियादारी की उलझी पहेली को झटक कर
मस्त फकीरी की राह पर मेरे कदम बढ़े

अपनी आवाज में चाहता हूं कुछ असर पैदा हो।

 

सारा देश रियल इस्टेट

सारा देश रियल इस्टेट
मानचित्र पर क्यों रहें
धान के लहलहाते हुए खेत
कल कल बहती हुई नदियां
ताल-तलैया, झील-पोखर
हरियाली का जीवन

सारा देश रियल इस्टेट
उन्हें उजाड़ने की आदत है
वे उजाड़कर दम लेंगे
फसल की जगह फ्लैट उगाएंगे
एक्सप्रेस वे बनाएंगे
रिसॉर्ट और फन सिटी बसाएंगे

सारा देश रियल इस्टेट
कैसी माटी किसकी माटी
कैसी धरती कैसी माता
कैसा देश किसका तंत्र
भूमाफिया का देश
बिल्डर का तंत्र
बाकी प्रजा रहे दीन-हीन
उनके अधीन उनके अधीन।

 

एक एंटेलियो होता है

हर धनपिशाच के सपने में
एक एंटेलियो होता है
वह निचोड़ लेना चाहता है
मजबूर आबादी का खून और दीवारों
की सजावट करना चाहता है
वह चूस लेना चाहता है प्रजा के हिस्से का
सारा भूजल
और अपने बगीचे के आयातित फूलों को
सींचना चाहता है

हर धनपिशाच के सपने में
एक एंटेलियो होता है
वह गरीबों के मानचित्र पर एक समृद्धि का टापू
बसाना चाहता है
समस्त संसाधनों की चाबी अपनी मुट्ठी में बंद कर
फोर्ब्स पत्रिका के मुखपृष्ठ पर
अपनी तस्वीर छपवाना चाहता है

हर धनपिशाच के सपने में
एक एंटेलियो होता है
जिसे वह संसार का आठवां आश्चर्य
बनाना चाहता है
जिसकी अश्लील बनावट पर वह इतराना चाहता है
जिसके अनगिनत कक्षों में वह किसी प्राचीन सम्राट की तरह
अपना हरम सजाना चाहता है
दास-दासियों की फौज रखना चाहता है

हर धनपिशाचा के सपने में
एक एंटेलियो होता है।


इस विज्ञापन जगत में तुम कहां हो मनुष्य

इस विज्ञापन जगत में तुम कहां हो मनुष्य
कहां है अभाव में थरथराती हुई तुम्हारी गृहस्थी
जीवन से जूझते हुए कलेजे से निकलने वाली गाहें
कहां हैं रक्तपान करने वाली व्यवस्था का चेहरा

अगर है तो केवल है सिक्कों की खनखनाहट
अघाई हुई श्रेणी की ऐय्याशियों की सजावट
झूठी घोषणाओं को ढकने के लिए अमूर्त चित्रांकण
कोढ़ियों और भिखारियों की पृष्ठभूमि में पर्यावरण का रेखांकन
एलसीडी स्क्रीन पर झिलमिलाती हुई वस्तुएं
किस्त में कारें किस्त में फ्लैटें किस्त में
उपलब्ध हैं समस्त महंगे सपने सौदागर बन गए हैं बहेलिए
कदम-कदम पर बिछाए गए हैं जाल
चाहे तो इसे हादसा कहो या कहो खुदकुशी
तुम्हारी अहमियत कुछ भी नहीं मरोगे तो मुक्ति मिले या न मिले
आंकड़े में शामिल जरूर हो जाओगे

इस विज्ञापन जगत में तुम कहां हो मनुष्य
हिंसक पशुओं को देख रहा हूं गुर्राते हुए रेंगते हुए
गिड़गिड़ाते हुए यह कैसी क्षुधा है जिसकी भट्ठी में
समाती जा रही है जीवन और प्रकृति की समस्त सहज भावनाएं
नष्ट होती जा रही है सहजता-संवेदना
पसरता जा रहा है अपरिचय का ठंडापन
इस विज्ञापन जगत में तुम कहां हो मनुष्य ।

 

मुझे अभाव से डर नहीं लगता

मुझें अभाव से डर नहीं लगता
न ही घबराता हूं मैं जीवन के झंझावातों से
न ही रौंद सकता है बाजार मुझे अपने नुकीले पहियों से
मुझे तंत्र की चालाकियां समझ में आती हैं
मैं हर आश्वासन में छिपे झूठ को पढ़ सकता हूं
मुझे डर नहीं लगता बेरोजगारी से विस्थापन से
मुझे धनपशुओं की मुस्कराहट से डर लगता है

मैं विपदा की कलाई मरोड़ सकता हूं
ठोकर खाकर गिरकर संभल सकता हूं
वक्त के बेरहम खरोचों से धीरे-धीरे उबर सकता हूं
मैं उदास रातों में भी सबेरे का गीत गुनगुना सकता हूं
सफर की यंत्रणा के बीच भी संभाल कर रख सकता हूं सपनों को
मैं जमाने का तिरस्कार सहकर भी साबूत बचा रह सकता हूं
मैं इस अमानवीय धरती पर
मानवता की पवित्र भावनाओं को कलेजे में सहेजकर रख सकता हूं
फिर भी मुझे धनपशुओं की उदारता से डर लगता है।

 

अपनी ही संतानों की

अपनी ही संतानों की हत्या करेगा लोकतंत्र
क्योंकि शर्म छिपाने के लिए अब उसके पास
संविधान की कोई धारा नहीं बची रह गई है
उसके धूर्त और वाचाल वकीलों के पास
बचे नहीं रह गए हैं असरदार तर्क
बेअसर हो गए हैं उसके सारे प्रलोभन
उसके झूठे वादों पर रह नहीं गया है
किसी को भी ऐतबार

अपनी ही संतानों की हत्या करेगा लोकतंत्र
क्योंकि संतानों के असुविधाजनक सवालों का
कोई संतोषजनक जवाब उसके पास नहीं है
वह पंचतंत्र के न्याय को उचित ठहराने की
कोशिश करते-करते नाकाम हो चुका है
वह ताकतवर वर्ग की बंधक बनकर इस कदर
लाचार हो चुका है कि अपनी ही संतानों के प्रति
उसके मन में रह नहीं गई है दया-ममता

अपनी ही संतानों की हत्या करेगा लोकतंत्र
जिन संतानों के भविष्य को संवारने की
जिम्मेदारी लोकतंत्र की ही थी
जिन संतानों को बराबरी का हक देने का
वादा कभी लोकतंत्र ने ही किया था
जिन संतानों ने उम्मीद भरी नजरों से उसकी तरफ देखा था और
उसकी परिभाषा पर भरोसा किया था।

 

अरे ओ अभागे

अरे ओ अभागे
छोटे-छोटे हाथों से कैसे पकड़ोगे आकाश
कैसे उठाओगे
दुःख की शिला को
फिर कैसे चल पाओगे तनकर

इतने बड़े-बड़े सपने आंखों में लेकर
तुच्छता की धरती पर
कब तक करते रहोगे
छोटी-छोटी बातों के लिए समझौते
कब तक अंधेरे के भार से दबकर
सहन करते रहोगे विवशता की ग्लानि

अरे ओ अभागे
विचलित कर देने वाले परिवेश में
कैसे संभालोगे
संवेदनाओं की गहरी
करुणा की दृष्टि
सीने में धड़कती हुई चाहत।


मुझे मत उछालो

मुझे मत उछालो सराहना के झूले पर
कहीं हो न जाए मुझे झूठा गुमान
कहीं बिगड़ न जाए मेरा संतुलन
कहीं मैं मुग्ध न हो जाऊं अपने आप पर

अगर दे सकते हो तो दो थोड़ा सा अपनापन
मेरे थके हुए वजूद को थोड़ी सी छाया
मेरे नम सपनों को थोड़ी सी धूप
उदासी की घड़ियों में दो मीठे बोल

मुझे मत उछालो सराहना के झूले पर
कहीं मैं भूल न जाऊं अपनी राह
कहीं मैं भ्रमित होकर पड़ाव को ही न मान लूं मंजिल
कहीं ओझल न हो जाएं मेरे आदर्श

मुझे मत उछालो सराहना के झूल पर।


मैं अन्ना हूं मैं अन्ना नहीं हूं

मैं अन्ना हूं मैं अन्ना नहीं हूं
मैं कभी देश भक्ति का अवतार बनना चाहता हूं
कभी देश को कुतर जाना चाहता हूं चूहा बनकर
अवसरवाद की सीढ़ियों पर चढ़कर
अपने समस्त भ्रष्ट आचरण को
तर्क संगत साबित करना चाहता हूं
कभी भीड़ में तख्ती उठाकर
नारे लगाना चाहता हूं कभी बिल में दुबककर
चुपचाप तमाशा देखना चाहता हूं

मैं अन्ना हूं मैं अन्ना नहीं हूं
मैं इसलिए अन्ना हूं क्योंकि
मैं तस्वीर बदलना चाहता हूं
मैं इसलिए अन्ना नहीं हूं
क्योंकि जानता हूं
इस तरह तस्वीर बदल नहीं सकती
टोपी लगाकर तख्ती उछालकर
रातों-रात तमाम शातिर लोग
हृदय परिवर्तन का दावा नहीं कर सकते

मैं अन्ना हूं मैं अन्ना नहीं हूं
मैं इसलिए अन्ना हूं क्योंकि
मैं दशकों की पीड़ा को व्यक्त करना चाहता हूं
मैं झूठ के चेहरे से मुखौटे को
उतार देना चाहता हूं
मैं इसलिए अन्ना नहीं हूं
क्योंकि जानता हूं
लिजलिजी भावुकता से कोई फर्क नहीं पड़ सकता
त नो किसानों की आत्महत्या रुक सकती है
न तो लोकतंत्र अपनी ही संतानों की
हत्या करना रोक सकता है।

 

वेनिस का सौदागर

वेनिस का सौदाकर मेरा पीछा करता है
शायद तुम्हारा भी
उसके होंठोें पर खेलती रहती है हर पल
एक क्रूर मुस्कराहट जिस मुस्कराहट में
लहराता रहता है एक अदृश्य चाबुक
इसी चाबुक से वह मुझे डराना चाहता है
बात-बात पर
छीन लेना चाहता है मेरे शरीर का रक्त और मांस
मेरे सीने का समस्त ऑक्सीजन

वेनिस का सौदागर मेरा पीछा करता है
बहुरुपिए की तरह
मेरी दिनचर्या के हरेक मोड़ पर
वह टकरा जाता है मुझसे
वह मेरी हरेक सांस पर नजर रखता है
मेरी छोटी-छोटी खुशियों की भी
कीमत निर्धारित करता है और फिर
चक्रवृद्धि ब्याज के तराजू पर तौलता है
मेरी वजूद मेरी औकात

वेनिस का सौदागर मेरा पीछा करता है
मैं उम्मीद करता हूं कि एक दिन
उसके भीतर भी करुणा का जन्म होगा
एक दिन संवेदना धो डालेगी उसकी समस्त क्रूरता को
मगर युगों-युगों से वह वेश बदलकर
सीधे-सरल लोगों का रक्त पीते-पीते
इस कदर नृशंस बन चुका है कि
अब उसके सीने में दिल की जगह
धड़कता है सिक्का
वह जब स्वयं मनुष्य नहीं रहा तो
हम सबको कैसे मनुष्य समझ सकता है।

 

कभी-कभी ऐसा भी होता है

कभी-कभी ऐसा भी होता है
धूप की तरह उजली मुस्कराहट
धो देती है हमारे भीतर के जहर को
किसी की आंखों में कौंधने लगते हैं
लाखों सितारे और
हमारे भीतर मिटने लगता है
उदासी का अंधेरा

कभी-कभी ऐसा भी होता है
सभाकक्ष में गूंजती हुई तालियां
किसी अपरिचित की गर्मजोशी में सराबोर
सराहना की बोली सुनकर
भाप की तरह उड़ने लगता है
तुच्छता का बोध

कभी-कभी ऐसा भी होता है
जब पृथ्वी उदारता के साथ
एक टक देखती है हमें
केवल संकेतों से आश्वस्त करती है
कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है
कि तुम बिलकुल अकेले नहीं हो।

 

तुम प्रजा हो तुम क्या जानो

तुम प्रजा हो तुम क्या जानो
क्या होता है संविधान
क्या होता है राजदंड
सता की देवी का चुंबन
राजकोष का सम्मोहन
तुम प्रजा हो तुम क्या जानो
क्या लोकतंत्र क्या लूटतंत्र
केवल राज करेगा ताकतवर
कागज पर रोती आजादी
अंधियारे में छिपते सत्यपुरुष
संसद में केवल खलनायक
तुम पूजा हो तुम क्या जानो
कोई क्यों देगा तुमको हक
देश में इज्जत से जीने का
तुम तो केवल हो ऐसी सीढ़ी
जो सिंहासन तक पहुंचती है
तुम प्रजा हो तुम क्या जानो
तुम सीधी हो तुम भोली हो
ये धूर्त भी हैं चालाक भी हैं
वे क्रूर भी हैं ऐय्याश भी हैं
वे हिंसक पशुओं के वंशज हैं
तुत प्रजा हो तुम क्या जानो।

 

आवारा पूंजी के उत्सव में


आवारा पूंजी के उत्सव में दबकर रह जाती है
कमजोर नागिरकों की सिसकी
असहाय कंठ की फरियादें
वंचित आबादी की अर्जी

आवारा पूंजी के पोषक मंद मंद मुस्काते हैं
कुछ अंग्रेजी में बुदबुदाते हैं
शेयर बाजार का चित्र दिखाकर आबादी को धमकाते हैं
कहते हैं छोड़ो जल-जमीन
नदियां छोड़ो जनपद छोड़ो
झोपड़पट्टी से निकलो बाहर
बसने दो शॉपिंग माल यहां
रियल इस्टेट का स्वर्ग यहां
यह कैसी भावुक बातें हैं
अपनी जमीन है मां जैसी

आवारा पूंजी के साये में
कितना बौना है लोकतंत्र
कितना निरीह है जनमानस

आवारा पूंजी के साये में
पलते-बढ़ते अपराधीगण
अलग-अलग चेहरे उनके
अलग-अलग हैं किरदारें
बंधक उनकी है मातृभूमि
उनके कब्जे में संसाधन

कैसे कहें आजाद हैं हम?

 

स्विस बैंकों तक बहने वाली खून की नदी में

स्विस बैंकों तक बहने वाली खून की नदी में
थोड़ा खून मेरी धमनियों का भी है
थोड़ा मेरे पूर्वजों का
थोड़ा मेरे ग्रामीणों का
थोड़ा मेरे शहर के निवासियों का
थोड़ा-थोड़ा खून एक अरब भाई-बहनों का

यह खून की नदी इतनी साफ-साफ नजर आती है
फिर भी जांच आयोग बनाने को लेकर
पंजे लड़ाने लगती है
न्यायपालिका से कार्यपालिका
बयानों का शोर मचाकर
नदी के होने न होने का
संशय पैदा किया जाता है

जबकि इस नदी को इस खून की नदी को
मैं उसी तरह महसूस कर सकता हूं
जिस तरह महसूस की जाती है हवा
बारिश धूप चांदनी
लालच की लपलपाती जुबान
कत्लगाह में खून से सराबोर हथियार
गुलाम बनाने वाली निगाहों की सिकुड़न
अभावग्रस्त चेहरे की बेचैनी।

 

अपनी शामों को बंधक रखकर

अपनी शामों को बंधक रखकर
न जाने कितनी अनुभूतियों से वंचित हो गया हूं
जब मैं शाम की परी को आंचल लहराते हुए
देख सकता था
जब मैं अमलतास के पेड़ों पर खिले आग के रंग
के फूलों को अंधरे में दहकते हुए देख सकता था

अपनी शामों को बंधक रखकर
प्रेक्षागृह के अंधरे में बैठकर नाटक का उपभोग करने से
वंचित हो गया हूं
कॉफी हाउस में सिगरेट के धुएं के बीच
जीवंत बहस का हिस्सा बनने से
वंचित हो गया हूं

अपनी शामों को बंधक रख कर
कांच के पिंजड़े में वातानुकूलन यंत्र की घरघराहट
सुनते हुए
तुच्छ सुविधाओं कं खोखलेपन पर
अपने आप से ही सवाल करते हुए
किसी पंछी की तरह मुक्त गगन में
उड़ने का ख्वाब देख रहा हूं।

 

टुच्ची दुनियादारी से जब फुरसत मिल जाएगी

टुच्ची दुनियादारी से जब फुरसत मिल जाएगी
मैं हरियाली से मिलने
नदियों से बातें करने
मौसम की बांह पकड़कर
एक दिन चला जाऊंगा

निर्मल जल के दर्पण में
आकाश की रंगत देखूंगा
चिड़ियों की बोली सुन-सुनकर
सूखे पत्तों पर चलते हुए
वीरानी का मंजर देखूंगा

टुच्ची दुनियादारी से जब फुरसत मिल जाएगी
जब कुछ कम हो जाएगी
सीने के भीतर जलन की अनुभूति
जब झुंझलाहट की वजह से
विकृत हुए मेरे चेहरे पर
सहजता रखेगी अपनी हथेली
जब यंत्र की पोशाक को फेंककर
किसी शिशु की तरह
पीछे मुड़े बिना
एक दिन चला जाऊंगा।

 

मेरी उदासी को किसी साज पर बजाया जाता

मेरी उदासी को किसी साज पर बजाया जाता
तो कुछ तो बोझ हल्का होता
कुछ तो जीवित रहने के समर्थन में
निर्मित होता वातावरण
कुछ तो घट जाती अमानवीयता

नहीं तो कर्कश दिनचर्या का बेरहम बर्ताव
अनवरत जारी रहता है
स्वार्थ की सूली उठाकर लपकते रहते हैं
शुभचिंतक चेहरे
अगवा किए गए शासनतंत्र के नियमों को ही
बताया जाता है धर्मग्रंथों की तरह पावन-पवित्र
अर्द्धसत्यों का नगाड़ा बजता रहता है चतुर्दिक
खुशहाली का विज्ञापन चील की तरह
झपटता रहता है अपनी चोंच में दबाने के लिए

मेरी उदासी को किसी साज पर बजाया जाता
मोमबत्ती की तरह ही पिघल जाती स्याह रंग वाली जड़ता
कुछ तो शर्म करता कायर दिमाग
छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए
अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रखते हुए
जीवित रहने की अनिवार्य शर्त समझौते को बताकर
तिल-तिलकर मरते हुए
मेरी उदासी को किसी साज पर बजाया जाता।

 

ग्वांतानामो

ग्वांतानामो एक दुःस्वप्न है मानवता के लिए
शक्ति के अहंकार की उल्टी करता हुआ एक देश
अपनी विकृतियों को ही न्याय का नाम देता है
नृशंसता की हदों को लांघते हुए
वह चाहता है उसके डर से
थरथर कांपने लगे पृथ्वी
उसकी अनुमति से बहे हवा
उसकी मर्जी के बगैर न उगे न डूबे सूरज

नहीं तो अलग-अलग देशों के अनगिनत नागरिक
निर्दोष होते हुए भी महज संदेह के आधार पर
क्यों सड़ते रहे हैं ग्वांतानामो में
क्यों उनके सिर को पानी में डालकर
झटके दिए जाते रहे हैं
क्यों उनके बदन में खतरनाक दवाओं का प्रयोग
किया जाता रहा
क्यों उन्हें मनुष्य की जगह
प्रयोगशाला का चूहा समझा जाता रहा है
क्यों ठुकराई जाती रही है उनकी न्याय की अर्जी

ग्वांतानामो एक दुःस्वप्न है मानवता के लिए
जहां सर्वशक्तिमान परखता है अपनी बर्बरता को
जिस तरह बहेलिया पकड़ता है पक्षी को
जिस तरह शिकारी खेलता है शिकार के साथ
जिस तरह नाजियों के यातना गृहों में तड़पती थी मानवता
ग्वांतानामो एक दुःस्वप्न है मानवता के लिए।

 

रूपट मर्डोक

रूपर्ट मर्डोक शार्मिंदा नहीं हैं
उन्हें तो केवल भरोसा है ऊंची पगार वाले विश्वस्त वकीलों पर
जो प्रत्येक आरोप का कानूनी जवाब ढूंढ़ सकते हैं
जो उनके जघन्य कृत्यों को भी
छिपा सकते हैं पूरे पृष्ठ के माफीनामे के परदे में
भले ही किसी बालिका के अपहरण और नृशंस हत्या के मामले में भी
चटखारे लेकर खबरें बेचने के लिए
दुनिया के इस मीडिया मुगल ने लांघ दी हो नैतिकता की हदें
इराक में मारे गए सैनिकों के परिजनों के आंसू भी
टेबलॉयड के सनसनीखेज मसाले बनकर
बरसाते रहते हैं पॉण्ड-डॉलर सिडनी से सैन फ्रांसिस्को तक

कोई कह दे उन्हें लालची अबरपति
मुंह पर फेंक दे ब्रिटिश संसद के भीतर झागदार शेविंग क्रीम
रूपर्ट मर्डोक को अपने किसी कृत्य पर अफसोस नहीं है
लालच को ही ईंधन बनाकर उन्होंने विश्वविजय करने के लिए
दौड़ा रखा है मीडिया का अश्वमेघ घोड़ा
किसी भी कीमत पर लालच की भूख शांत करने के लिए
वे मानवीय संवेदनाओं के साथ करते हैं खिलवाड़
शाही परिवार से लेकर आम आदमी तक
अपने निजी सुख-दुःख को गोपनीय नहीं रख पाया है
क्योंकि रूपर्ट मर्डोक हैकिंग और रिश्वत के हथियार से
तोड़ते रहे हैं समस्त मर्यादाएं
पचास देशों में आठ सौ कंपनियों के मालिक
अपनी पांच अरब की दौलत से संतुष्ट नहीं
आम आदमी की तकलीफों को बिकाऊ बनाकर
रिश्तों को भावनाओं को उत्पाद बनाकर
रूपर्ट मर्डोक को तसल्ली मिलती है

इसीलिए तो
रूपर्ट मर्डोक शार्मिन्दा नहीं हैं।

 


जलबंदी

अभिजात्य का तमाशा बन गया है
महलनुमा मकानों के भीतर मट मैला पानी
पानी में शराब की खाली बोतलें तैरती हुईं
कूड़ेदान का सारा कचरा
नालियों की सारी गंदगी ड्राइंगरूम में

जीवन की स्वभाविक गति ठिठक गई है
संवेदनशूल्य धनपशुओं के चेहरे पर
चिंता की लकीरें नजर आने लगी हैं
सारा ताना-बाना बिखरने लगा है
लॉन की सजावट नजरों से ओझल हो गई है
मटमैले पानी ने रंग-बिरंगे फूलों को ढक दिया है

अभिजात्य का तमाशा बन गया है
कुछ ही घंटों की बारिश के बाद
हफ्ते भर तक कैद रहे हैं नकचढ़े नागरिक
टीवी के कैमरे के सामने भौंकते हुए
नगर निगम को फटकारते हुए
अपने अभिनय को भूलकर
लगभग गिड़गिड़ाते हुए।

 

वर्ष का क्रूरतम महीना होगा मई


(कोलकाता में भू-माफिया के हाथों मारे गए अपने चचेरे भाई दिनेश के लिए)

वर्ष का क्रूरतम महीना होगा मई
किसने सोचा था
किसने सोचा था धूप की तीक्ष्णता के साथ
घुल जाएगी मृत्यु
मृत्यु का कोई रंग नहीं होगा
कोई तापमान नहीं होगा
न उसके सीने में होगी करुणा न दया
न ही उचित-अनुचित का विवेक

वर्ष का क्रूरतम महीना होगा मई
किसने सोचा था
किसने सोचा था फिर रचा जाएगा चक्रव्यूह
महाभारत के करुण पात्र की तरह
किसी को चारों तरफ से घेरकर
बनाया जाएगा असहाय
किसी के रक्त को पीने के लिए
नृशंस सफेदपोशों के बीच होगा अनुबंध

वर्ष का क्रूरतम महीना होगा मई
किसने सोचा था
किसने सोचा था महानगर के पास नहीं रहेगी आत्मा
दर्शकों के पास नहीं होगी सहानुभूति
देखते ही देखते कोई बन जाएगा बेजान
जिसकी राह देखते रहते थे अबोध चेहरे
जिसके हौसले से संचालित होता था जीविका का रथ
किसने सोचा था
वह शतरंज की बाजी का एक मोहरा बनकर
मृत्यु के सामने हार जाएगा।

 

वह जो फेसबुक का साथी है

वह जो फेसबुक का साथी है
किसी मशीन की तरह
या किसी बहुरुपिए की तरह
वह अपनी कुंठाएं उड़ेलता है
जब वह बिलकुल अकेला होता है
कुछ भद्दी गालियां देते हुए कल्पना करता है
कि इस तरह बदल जाएगा समूचा तंत्र

वह जो फेसबुक का साथी है
बनावटी है उसकी भावनाएं
वह जब करुणा की बातें करता है
उसके सीने में सुलगती रहती है घृणा
वह जब प्रेम दर्शाना चाहता है
जाहिर हो जाती है उसकी आत्मदया

वह जो फेसबुक का साथी है
देखते ही देखते वह नजर आने लगता है
बेजान बिजूका की तरह
उसकी आकृतियां गड्डमड्ड होने लगती हैं
वह बुद्धि विलास को ही समझता है क्रांति
वह मदिरापान करने के बाद
दार्शनिक बन जाता है
जीवन में पिट जाने पर कायर बन जाता है
वह उतना ही खोखला है
जितना कोई बेजान डिब्बा हो सकता है
वह उतना ही संवेदनशून्य है
जितना कोई यंत्र हो सकता है।

 

पी. साईंनाथ के साथ

उनकी आंखें हैं सुलगती हुई लपटों की तरह
इन लपटों में समाई है विसंगतियों की धरती
उनकी तिरछी मुस्कराहट तीखे व्यंग्य की तरह
सीधे चुभ जाती है व्यवस्था पर काबिज धन पशुओं के कलेजे में

उन्हें वश में करने के लिए व्यवस्था की तरफ से
कितनी तरकीबों को आजमाया जाता है
कभी थाली में परोस दिया जाता है पद्म भूषण
कभी किसी मलाईदार समिति में आने का न्यौता
उन्हें वश में करने के सारे प्रयास निरर्थक
साबित हो जाते हैं ऐसे तमाम प्रयासों के बाद
और भी बढ़ जाती है उनकी तल्खी
और भी बढ़ जाती है मारक क्षमता
जब वे किसानों की आत्महत्या को प्रोत्साहित
करने वाले तंत्र को नंगा कर देते हैं
जब वे कार्पोरेट के दलाल के रूप में किसानों की
जमीन हड़पने वाले शासकों की कलाई खोल देते हैं
जब वे विकास का विज्ञापन प्रचारित करने वाले प्रभुओं को
आदमखोर पिशाच के रूप में चौराहे पर खड़ा कर देते हैं

वे लगते हैं किसी पीर-फकीर की तरह
जो जानता हो सारे दुःखों का मूल क्या है
जो जानता हो किस लोकतंत्र के साथ असल में
किस तरह का फर्जीवाड़ा हुआ है
और जो सच बोलते हुए रक्तलोलुप ताकतवर वर्ग की
किसी भी धमकी की परवाह नहीं करता हो
जिसे प्यार है केवल जनता से
केवल देश की मिट्टी से
जो शब्दों को कर सकता है बारूद के रूप में रूपांतरण।

 

शहर में जीना

शहर मे जीना
यंत्रणाओं की अंधी सुरंग में
अनवरत यात्रा करने की तरह है
अपरिचय के जंगल में अपने आपको
आदमखोरों के आक्रमण से बचाते हुए
कदम बढ़ाने की तरह है


शहर में जीना
कदम-कदम पर छोटी-छोटी बातों के लिए
समझौता करना है
महंगाई हो या सड़कें बदहाल हों
लोडशेडिंग हो सा पेयजल का संकट
रक्तपिपासु मकान मालिक हों या
मिलावटी दूध बेचने वाले
सबके सामने नतमस्तक होना है

शहर में जीना
झिलमिलाते हुए बाजार की रोशनी में
अपने अभाव की पैबंद को
छिपाकर रखना है
अपनी छोटी-छोटी जरूरतों को
अनिश्चितकाल तक
स्थगित रखना है।

 

एक दिन बचेगा

एक दिन बचेगा समाज का मलाईदार वर्ग ही
शहर के इस मुख्य इलाके में
बाकी सारे कमजोर लोगों को
दूर-दराज की बस्तियों में जाकर
बिल्लियों के डर से बिलों में दुबके चूहों की तरह
जीने की आदत डालनी होगी

वे कहते हैं विकास के लिए इतना त्याग
तो करना ही पड़ता है
ऐसे नहीं हासिल हो जाता महानगर का दर्जा
ऐसे ही नहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी तिजौरी
खोलकर राजकोष की रक्षा करती हैं
ऐसे ही नहीं भूमाफिया से लेकर राजनेता तक
जी-जान से तैयार करते हैं अपना गिरोह

एक दिन बचेगा डार्विन के सिद्धांत वाला ताकतवर वर्ग ही
समस्त सुविधाओं पर काबिज होकर
उसकी सेवा करने के लिए भले ही
गुलामों की प्रजाति रहेगी मलीन बस्तियों में
दया की मोहताज बनकर
मतदाता सूची में दर्ज नाम बनकर।

 

बारिश उतर रही है

बारिश उतर रही है
भीतर घुलती जा रही है हरियाली
जागता जा रहा है उजलापन
मिट्टी की महक फैलती जा रही है
रोम-रोम में सोंधी-सोंधी

बारिश उतर रही है

भले ही अभी कुछ मजबूरियां हैं
भले ही धीमी है कदमों की रफ्तार
भले ही इन दिनों
दुनियादारी के शिकंजों में हूं
किसी पशु के जबड़े में कैद
शिकार की तरह

बारिश उतर रही है

अतीत की पगडंडी पर
जिस तरह भीगते हुए उल्लास से
तरोताजा हो जाता था
किसी की हथेली को थामकर
पहाड़ी रास्तों पर चढ़ जाता था
वह क्षण जाग रहा है
अभी भी भीतर जाग रहा है

बारिश उतर रही है।

 

दासता की जंजीर

एक अदृश्य दासता की जंजीर में
जकड़ा हुआ है हम सभी का जीवन
भले ही हमें लगता है हम सन् सैंतालीस से स्वाधीन हैं
हमें एक पवित्र पुस्तक ने दिया है
बराबरी का हक अपने भाग्य को निर्धारित करने का हक
परंतु उसी पवित्र पुस्तक को एक अदृश्य तहखाने में
कैद कर रखा गया है
उस पवित्र पुस्तक में दर्ज आदर्श-वाक्यों को अपहृत कर
दस्युओं ने बदल डाली हैं परिभाषाएं
सफेदपोश दस्युओं ने अपनी सुविधा के हिसाब से
गढ़ लिया है लोकतंत्र का मतलब

कितने निरीह हैं नागरिकगण
एक ऐसे सड़े हुए तंत्र के तहत जिन्हें
जीने के लिए मजबूर किया गया है
जिन्हें विरोध करने का कोई हक नहीं दिया गया है
कहा गया है चुपचाप सहते रहना है
दासता के दंशों को
निचोड़ते रहना है बदन से लहू को
ताकि सफेदपोश दस्युओं का वैभव कायम रहे
एक पुश्त से लेकर सात पुश्तों तक।


जीवन का कोलाज

बीच में है कांच की दीवार
इस पार है मनहूसियत, बेबसी
और दुनियादारी का व्यापार
उस पार है शाम की रंगीनियां घर लौटते
परिंदे जिंदगी की रफ्तार

यहीं से देखकर खुश होता हूं खुद को
तसल्ली देता हूं
जीने के लिए कभी-कभी
तुच्छताओं से घिर कर भी
साबूत बचाकर रखना पड़ता है
महान कोमल सपनों को
तुच्छताओं के बीच भले ही
विवश होता है शरीर बंदी की तरह
मन रहता है सदा स्वाधीन
विचरण कर सकता है अनंत वेग के साथ
दुनिया के कोने-कोने में
साबूत बचाकर रख सकता है
एक बेहतर सवेरे की उम्मीद

बीच में है कांच की दीवार
इस पार है अपनी चुनी हुई कैद
और जीविका का आधार
उस पार है अपार संभावनाएं
जोखिम की दोधारी तलवार।

 


अतिमानव बनने की धुन में

अतिमानव बनने की धुन में
क्या-क्या नहीं गंवाया मैंने

हरियाली और इंद्रधनुष के दृश्य खो गए
कितने सपने आंखों से ओझल हो गए
किसी मोड़ पर जीवन का उल्लास खो गया
मेले में लुट जाने का अहसास रह गया

अतिमानव बनने की धुन में
क्या-क्या नहीं गंवाया मैंने

अंधी दौड़ में होगा भी तो क्या होगा हासिल
पत्थर की नगरी में जज्बातों की लाश पड़ी है
हिंसक पशुओं के घेरे में जीवन यापन
जहां नियम है इक-इक सांस की अग्रिम कीमत

अतिमानव बनने की धुन में
क्या-क्या नहीं गंवाया मैंने

थोड़ी सी राहत मिल जाती थोड़ा सा मैं दम ले लेता
सिक्कों की मायानगरी से इक दिन मैं बाहर हो जाता
नकली रिश्ते-नातों से इक दिन छुटकारा मिल जाता
बाजारों का शोर न होता मौसम मेरी बांह थामता

अतिमानव बनने की धुन में
क्या-क्या नहीं गंवाया मैंने।

 

रुग्ण समाज क्या देगा किसी को

रुग्ण समाज क्या देगा किसी को
कायदे से वह छिपा नहीं पाता अपने घाव
उसकी विकृतियों की सड़ांध फैली है चारों तरफ
अंतर्विरोधों से झुका हुआ है उसका माथा
अपने खोखलेपन की पीड़ा से छलछला उठी है उसकी आंखें

रुग्ण समाज क्या देगा किसी को
किसी दंगे की आग में जलाई जा रही स्त्री की
मदद नहीं करेगा बल्कि दूर से देखेगा तमाशा
किसी स्त्री को निर्वस्त्र कर मोबाइल से तस्वीर
उतार रही भीड़ के साथ पैशाचिक ठहाके लगाएगा

रुग्ण समाज क्या देगा किसी को
किसी भूखे व्यक्ति को चोर बता कर
सामूहिक पिटाई करते हुए हत्या कर देगा
लेकिन अपने सुरक्षित घेरे में सम्मानजनक आसन पर
बिठाकर रखेगा शोषकों को हत्यारों को

रुग्ण समाज क्या देगा किसी को।

 

बाढ़ और आंसू में डूबे हुए

बाढ़ और आंसू में डूबे हुए जनपद को इंतजार है
आएगी राहत करुणा की पोशाक पहनकर
राजधानी में किल्लत है करुणा की
संवेदना का जलाशय सूख चुका है
गिद्धों ने घोर लिया है अनुदानों को

बाढ़ और आंसू में डूबे हुए जनपद को इंतजार है
किसी दिन शुरू होगा अन्न का उत्सव
भूखे बच्चों के होठों पर लौटेगी संतुष्टि
धरती और आसमान के बीच
खड़ा हो सकेगा रैन बसेरा

बाढ़ और आंसू में डूबे हुए जनपद को इंतजार है
कि विकास की परिभाषा पर किसी दिन
शुरू होगी बहस पूछा जाएगा क्या विकास का मतलब
विनाश होता है क्या कारपोरेट घरानों की बिजली के लिए
जनपद की जल समाधि अनिवार्य शर्त होती है।


ज्ञान के साथ बलात्कार करने के बाद

ज्ञान के साथ बलात्कार करने के बाद
शिक्षा माफिया पुकारता है
आओ मध्यवर्ग निम्न मध्यम वर्ग की संतानों
हम तुम्हारे भविष्य को सुनहरा बनाएंगे
तुम्हें ऐसी पट्टी पढ़ाएंगे
कि तुम मनुष्य बनो या न बनो
ज्ञान पिशाच जरूर बन जाओगे

ज्ञान के साथ बलात्कार करने के बाद
विज्ञापन की पालकी पर सवार हो जाता है शिक्षा माफिया
अपनी जेब से निकालता है डिग्रियां और नौकरियां
नौकरियां और डिग्रियां
उसके एक पहलू में मुस्कराते रहते हैं राजनेता
दूसरे पहलू में गिड़गिड़ाते रहते हैं नौकरशाह

विज्ञापन की पालकी हवा में उड़ती हुई
किसी छत विहीन जर्जर सरकारी पाठशाला के
प्रांगण में उतरती है
शिक्षा माफिया के संदेश का सीधा प्रसारण
करते हैं सारे टीवी चैनल
वह कहता है कि अब ज्ञान की कोई जरूरत नहीं
केवल
ज्ञान पिशाचों की जरूरत है

ज्ञान के साथ बलात्कार करने के बाद
शिक्षा माफिया के चेहरे पर कौंधती है भेड़िए की मुस्कान।

 


मुल्क की सबसे बड़ी पंचायत में

मुल्क की सबसे बड़ी पंचायत में
जारी रहती है नूरा-कुश्ती
महंगाई पर बहस के दौरान अघाए हुए चेहरोें पर
मुस्कराहट रहती है जबकि बाजार में जाकर
हर आम नागरिक को अपने सीने में नश्तर
चुभने का अहसास होता है जहां राशन का
इंतजाम होने पर दवा का इंतजाम नहीं होता
दवा का इंतजाम होने पर कपड़े का इंतजाम नहीं होता
जहां रोज सवेरे उठते ही बदल जाते हैं वस्तुओं के दाम
जहां मुनाफाखोरों की गोद में बैठकर खाद्य मंत्री
महंगाई को बताते हैं विकास की अनिवार्य शर्त

मुल्क की सबसे बड़ी पंचायत में
जारी रहती है नुरा-कुश्ती
जहां गैर जरूरी हास्य-विनोद में उलझे हुए पंच गण
डिजाइनर पोशाकों में सज-धजकर
लोकतंत्र-लोकतंत्र का फूहड़ खेल खेलते रहते हैं
जबकि मुल्क के सुलगते हुए सवाल
अनुत्तरित ही रह जाते हैं
कि किस तरह आधी से ज्यादा आबादी बीस रुपए से भी
कम आमदनी पर जी रही है
किस तरह पूरी आबादी के हिस्से पर कुंडली मारकर बैठ गए
मुट्ठी भर धनपशु
किस तरह मायूसी के अंधेरे में सुलगने लगती है गुस्से की आग
ऐसे तमाम सवालों से बेखबर पंचगण
बनावटी विरोध बनावटी क्रोध
बनावटी बयान बनावटी जवाब।

 

बाजार सबको नचाता है

बाजार सबको नचाता है अपने इशारे पर
कहता है निरर्थक है भावना-संवेदना
असली चीज है खनखनाता हुआ सिक्का
इसे हासिल करने के लिए बेच दो
जो कुछ भी है तुम्हारे पास बेचने लायक
अगर बेचेने लायक कुछ भी नहीं है
तो बाजार कहता है तुम्हें भूमंडलीकरण के सवेरे में
जीवित रहने का कोई हक नहीं है

बाजार सबको नचाता है अपने इशारे पर
इसीलिए तो खोखले हो रहे हैं मानवीय रिश्ते
बढ़ती जा रही है गणिकाओं की तादाद
बढ़ते जा रहे हैं संवेदनशून्य चेहरे
यंत्र की तरह दौड़ती-भागती भीड़
बाजार के इशारे पर जीना
बाजार के इशारे पर मरना।

 

रूहुल अली को मैंने देखा था

रूहुल अली को मैंने देखा था
सबसे पहले टीवी के परदे पर
उसके हाथ में एक बैनर था जिस पर
लिखा था- हमसे जबरन हमारा घर मत छीनो

सात वर्षीय रूहुल अली उस भीड़ में
सबसे आगे खड़ा था जो न्याय की गुहार लगाने के लिए
शासक के दरवाजे तक आई थी
इस भीड़ में शामिल हर नागरिक के घर को तोड़ दिया गया था
किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को विशाल भूखंड प्रदान करने के लिए

जब विरोध प्रदर्शन के दृश्य का सीधा प्रसारण
किया जा रहा था तभी चारों तरफ धुआं फैल गया
चीख-पुकार मच गई
और कुछ देर के बाद साल साल का रूहुल अली
बेजान पड़ा था
उसके सीने से बह रहा था खून
किसी पुलिस अधिकारी ने सर्विस रिवॉल्वर से
बिल्कुल करीब से उसे गोली मार दी थी

फिर मैंने शासक को सफाई देते हुए देखा था
कि रूहुल अली वास्तव में बंगलादेशी घुसपैठिया था
और उसके पिता ने सरकारी जमीन पर कब्जा कर
झोपड़ी बना ली थी और उसे गोली गलती से लग गई थी।

 

मोमबत्ती जुलूस में जो शामिल हैं

मोमबत्ती जुलूस में जो शामिल हैं
उन्हें अच्छी तरह पता है कि
तस्वीर बदलने वाली नहीं है
रातों-रात होने वाला नहीं है कोई परिवर्तन
मुर्दे की तरह जीनेवाले नागरिकों के सीने में
एक ही झटके में पैदा नहीं होने वाली है आग की लपटें
नींद से जागते ही प्रभु वर्ग का
हृदय परिवर्तन नहीं होने वाला है
संभव ही नहीं है कि भेड़िए
शिकार पर पाबंदी लगाने के लिए नियम बनाएं
संभव ही नहीें है कि इस मुल्क का परजीवी वर्ग
रक्तपान की परंपरा को वर्जित कर दे

मोमबत्ती जुलूस में जो शामिल हैं
उन्हें अच्छी तरह पता है कि
उन्हें टीवी पर दिखाया जाएगा
जो उन्हें करीब से जानते हैं वे गाली देते हुए कहेंगे
वह देखो मिलावट खोर, तस्कर, माफिया, अपराधी
भ्रष्टाचार के खिलाफ जुलूस में
मोमबत्ती जला रहा है।

 

वे जो हमें नायक की तरह नजर आते हैं

वे जो हमें नायक की तरह नजर आते हैं
असल में वे प्रेशर कुकर की सीटी की
भूमिका निभा रहे होते हैं
हमें लगता है कि वे हमारे हितोें की चिंता में
आमरण अनशन कर रहे हैं
डिजाइनर पोशाक में सज-धजकर
असंख्य टीवी कैमरों के सामने आग उगल रहे हैं
बदरंग तस्वीर को पूरी तरह
बदल देने का दावा कर रहे हैं

वे जो हमें नायक की तरह नजर आते हैं
असल में वे हमारे असंतोष की आग पर
बर्फ रखने की भूमिका निभा रहे होते हैं
वे हमारा ध्यान अनर्गल प्रलापों की तरफ
केंद्रित करना चाहते हैं
ताकि हम पूछ न सकें कोई असुविधाजनक सवाल
ताकि हमें अंधेरे में रखकर
वे लोग हमारे जीवन के साथ खिड़वाड़ करने की
साजिशों को अंजाम देते रहें

वो जो हमें नायक की तरह नजर आते हैं
असल में वे खलनायकों की मदद करने में जुटे रहते हैं।

 

जो भ्रष्ट हैं

जो भ्रष्ट हैं वे बनाते हैं
आदर्श आचार संहिता
बताते हैं हमें यही है जीने का सलीका
तय करते हैं कायदे-कानून

ये सत्य को कभी रोशनी में
आने देना नहीं चाहते
इसीलिए अंधेरे को कायम रखने के लिए
खुफिया एजेंसियां
जांच आयोग
शासन-प्रशासन के बेरहम तंत्रों का
किया जाता है प्रयोग

वे पहले हमारे भोजन में जहर मिलाते हैं
फिर जांच आयोग बिठाते हैं
वे हमारे हिस्से की तमाम बुनियादी चीजें छीन लेते हैं
और फिर हमारी हिफाजत करने का
आश्वासन देते हैं।

 

जश्न मनाने के बाद

जश्न मनाने के बाद बेसुध होकर
सो रहा है जनपद
गणिकाओं ने उतार दिए हैं मुखौटे
और थकान की बांहों में समाकर
सो रही हैं गहरी नींद में
फुटपाथों पर जाग रहे हैं ठिठुरते हुए भिखारी
गलियों में सर्दी को कंधे पर उठाकर
चहलकदमी कर रहे हैं चौकीदार

जश्न मनाने के बाद बेसुध होकर
सो रहा है जनपद
रात भर धन पशुओं का नाच जारी रहा
जारी रही आतिशबाजी
पानी की तरह बहती रही शराब
कैलेंडर बदल गया रात के बारह बजे
आ गया नया साल
बाजार का आदेश था
इसलिए उत्सव का आयोजन
इसीलिए केक पेस्ट्री चाकलेट
रंग-बिरंगे बल्बों की सजावट

थकी हुई गलियों में फैली हुई वीरानी
नाच घरों में फैला हुआ सन्नाटा
अब अंधेरा छंटने के बाद देखेंगे
क्या सचमुच तस्वीर बदल गई है।

 


कवि चुप था

कवि चुप था
भले ही घुटने को महसूस कर रहा था
भीतर ही भीतर
किसी तूफान का सामना कर रहा था
फिर भी कवि चुप था

जीवन की तुच्छताओं में घिरी हुई थी
सृजन की आग
जब वह रचना चाहता था मधुर गीत
भौतिकवाद का दबाव बढ़ता जा रहा था
खुरदुरे यथार्थ के दंश से
लहूलुहान होती जा रही थी संवेदना

कवि चुप था
विवशताओं से लड़ा रहा था पंजा
किसी पंक्षी की तरह बटोर रहा था दाना
जुटा रहा था तिनकों को
मौन की शक्ति को महसूस कर रहा था
इसीलिए
एक अर्से से कवि चुप था।


प्रिय ऑक्टोपस

प्रिय ऑक्टोपस
तुम निचोड़ते हो मेरी धमनियों से
बूंद-बूंद लहू
और उगलते हो
जूठन ऑक्सीजन
जिनको मैं ग्रहण करता हूं
और मरते-मरते
बच जाता हूं

मेरी छटपटाहट
मेरी बेचैनी
आंखों की तरलता
आहत संवेदना
तुम्हें हृदय परिवर्तन के लिए
प्रस्तुत नहीं कर सकती

तुम्हारी पकड़ के विरुद्ध
मेरी समस्त शक्ति
भीतर ही भीतर
घुमड़कर रह जाती है
मेरे सुन्न हो रहे अंगों में
तुम्हारे ठंडे स्पर्श
की अनुभूति बची रहती है।

 


घृणा के साथ सहवास संभव नहीं

घृणा के साथ सहवास संभव नहीं
संभव नहीं है
अपनी इच्छाओं के खिलाफ
कीट-सा जीवन जीना

आदेशों-अध्यादेशों में गुम
हो चुका है भविष्य और
बीमा के किस्तों में बंट चुके हैं
सपने

अपनी आवाज भी लगती है
अजनबी की आवाज
अपनी परछाई भी लगती है
शत्रु की परछाई

इसी तरह बुनते हैं जाल
इसी तरह अपने वजूद को
बंदी बनाते हैं हम
जीवन को उज्ज्वल बनाने के लिए

घृणा के साथ सहवास संभव नहीं
और वनवास के सारे
रास्ते बंद हैं
घृणा के आलिंगन में
कोमल भावनाओं का जीवित रहना
संभव नहीं है।

 

मूर्तियों के शहर में

मूर्तियों के शहर में सन्नाटा है
शायद इन मूर्तियों को गढ़ने वाले शिल्पी का आह
शहर को लग गई है

कैसी विचित्र मूर्तियां हैं इस शहर में
भ्रष्ट दलालों की मूर्तियां
भ्रष्ट राजनेताओं की मूर्तियां

कुछ मूर्तियां वेश्याओं की हैं
कुछ मुर्तियां धार्मिक ठेकेदारों की
कुछ मूर्तियां चमचों की

संगमरमर से बनी मूर्तियों की
गरदनें दंभ से अकड़ी हुई हैं
आंखों में है वहशीपन

मूर्तियों के शहर में
सत्य की समाधि है
अहिंसा की समाधि है

मूर्तियों के शहर में
गणतंत्र की लाश है
जिसे चील-कौवे नोच रहे हैं।

 

नाचघर

नाचघर में घुटन का माहौल है

बासी संगीत की धुन पर नाचती
नर्तकी थकी-थकी-सी है
पीली रोशनी मध्यम है
नर्तकी बीमार सी लग रही है

नाचघर में तंबाकू का धुआं फैला हुआ है

वे जो दर्शक हैं उनके चेहरे
एक जैसे सपाट हैं
वे रिक्शा खींचने वाले मजदूर हैं
या दफ्तर के बाबू हैं
नाचघर में जिस्म की गंध है
वे गोश्त को चबा रहे हैं
नर्तकी के शरीर के गोश्त को
निगाहों से माप-तौल कर रहे हैं

नाचघर में विषाद का माहौल है

जिंदगी की शाम काटने वाले
दर्शकों का मन नाच में नहीं
घर में सुलग रहे चूल्हे
और भूखे बच्चों पर टिका हुआ है।

 

जीवित रहने का प्रस्ताव

नहीं समझा पाऊंगा विषाद की वजह क्या है
सुविधाओं के बिल में दुबके रहो
बंकर में छिपे रहो युद्ध में जुटे राष्ट्र की तरह
सुनते रहो देववाणी
गमलों के फूलों की खुशबू से बौराते रहो

फूल मुरझा रहे हैं जल खाद और रोशनी के अभाव में
बच्चे मर रहे हैं अनाज दवा देखभाल के अभाव में
विकलांगता फैलती जा रही है शरीर में दिमाग में
धमनियों में समाता जा रहा है विषैला धुआं

सुरक्षित रहो किले के भीतर
जारी करते रहो बयान आलीशान शयनकक्ष में लेटकर
कैसे समझ सकते हो
खुले आसमान के नीचे बारूद और बरसात
महंगाई और राजनीति की मार झेलने वाली आबादी
किस विषाद नामक बीमारी को झेल रही है

दबोचकर रखो हमारे हिस्से की धूप
भरे रहें तुम्हारे भंडार नियंत्रित रहे मौसम
चलती-फिरती लाशों को मत समझाओ
प्रेम की परिभाषा
डार्विन का सिद्धांत

हमें लड़ने दो अपने छोटे-बड़े मोर्चों पर
हमें मरने दो खड़े-खड़े
हमारी लाशों की सीढ़ी पर चढ़कर
आएगा एक पवित्र भविष्य।


तलाश

मैं बहुत दिनों से तलाश कर रहा हूं
कोई मुझसे सवाल करता
कि मेरा असली ठिकाना कहां है
कैसा मौसम है वहां
कैसे हैं सूरज-चांद-सितारे
कैसी औरतें हैं वहां
कैसे हैं रीति-रिवाज
कैसी है लोकगीत की धुन
कि कबसे मैं दुःख और सुख की
पहचान करने लगा था
कि कबसे अकेलापन और अंधेरा
मुझे भाने लग था
कि मेरी पसंद का रंग कौन-सा है
मेरी पसंद का फूल कौन-सा है
वह कौन-सी कहानी है
जिसे मैं पसंद करता हूं
कि मेरा पहला प्यार कैसा था
कैसा था पहला चुंबन
कब मैं पहली बार किसी के साथ
बारिश में भीगा था
कब मैंने वसंत का स्पर्श किया था
मेरी आदतें कैसी हैं
कब मैं खुश होता हूं
कब मैं दुःख से घायल होता हूं
मेरी मुस्कराहट कैसी है
मेरी लंबाई क्या है
मेरा वजन कितना है
कैसी पोशाक मुझे पसंद है
क्या-क्या खाना मुझे अच्छा लगता है
फुरसत के पलों में मैं क्या करता हूं

मैं बहुत दिनों से तलाश कर रहा हूं
कोई मुझसे सवाल करता।

 

गुवाहाटी की शाम

गुवाहाटी की शाम
मेरे भीतर समा जाती है
विषाद की तरह
भूरे रंग के बादल
मंडराते रहते हैं
और नारी की आकृति की
पहाड़ी मानो
अंगड़ाई लेती है

गुवाहाटी की शाम
सड़कों पर दौड़ते-भागते लोग
साइरन की आवाज
और दहशत से पथराए चेहरे
एक डरावना सपना
अवचेतन मन में
उतरने लगता है
नश्तर की तरह

गुवाहाटी की शाम
स्मृतियों में
बारिश की फुहारों सी
लगती है
जब भीगते हुए
गुनगुनाते हुए उम्र की पगडंडी पर
सरपट दौड़ना अच्छा लगता था।

 

इन दिनों

मनुष्यता भी गिरवी रख दी
और समय पर चुकाते रहे
चक्रवृद्धि ब्याज

गणित के कलाकार ने
सफाई से बांधी है
जीवन की डोर

अर्थशास्त्र का पत्थर सीने पर
रखकर कहा जा रहा है
आजादी के गीत गाओ

सपनों की लाश हासिल करने के लिए
रिश्वत मांगेंगे देवता
या गिरवी रखनी पड़ेगी भावना

मुल्क के कानून को मानो या
दंड भुगतो या निर्वासित होकर
जियो- यही प्रावधान है

कब सिया था होठों को
तारीख याद नहीं
याद है
सुई की तीखी चुभन
और लहू का स्वाद।

 

युद्ध

तर्कों के बिना ही
हो सकता है आक्रमण
युद्ध की आचार संहिता
पढ़ने के बावजूद
निहत्थे योद्धा की
हो सकती है हत्या

अदृश्य युद्ध में स्पष्ट नहीं होता
दोनों पक्षों का चेहरा
सिर्फ धुएं से ही
आग की खबर मिल जाती है
गिद्ध
मृतकों की सूचना दे देते हैं

अनाथ बच्चों के हृदय में
युद्न समा जाता है
हृदय को पत्थर बनने में
अधिक समय नहीं लगता

असमय ही विधवा बनने वाली
स्त्रियों के चेहरे पर
राष्ट्रीय अलंकरण के बदले में
मुस्कान नहीं लौटाई जा सकती

गर्भ में पल रहा शिशु भी
अदृश्य युद्ध का एक
पक्ष होता है
युद्ध राशन कार्ड से लेकर
रोजगार केंद्र-मतदाता सूची
खैराती अस्पताल-राहत शिविर तक
हर जगह हर रोजमर्रा की जरूरत की
चीजों में घुला-मिला रहता है

युद्ध का स्वाद
समुद्र के पानी की तरह
खारा होता है।

 

टीन की छत

सुबह निश्छल बच्ची की तरह
हल्के से छूती है
जगाती है

पंछियों का पदचाप
टीन की छत से छनकर
कानों तक पहुंचता है

खिड़की से झांकता है
जाना-पहचाना आग का गोला
टीन की छत के नीचे ही
नवरस की अनुभूति करता हूं
कभी वेदना से हाहाकार कर उठता है
हृदय
कभी आनंद से उछलने लगता है
हृदय
टीन की छत पर बारिश का संगीत
सुनते हुए
विषादग्रस्त रातों में भी
रोमानी अनुभूतियों सें सराबोर
हो जाता हूं
कि इस बुरे वक्त में भी
आसमान और धरती के बीच
एक स्नेहमय आंचल
सिर पर है।

 


डायनासोर

उन्हें नष्ट होना पड़ता है
परिवेश-समय-भूगोल से जो
संतुलन नहीं बना पाते
उनके जीवाश्म रखे जाते हैं
अजायबघरों में
उन पर शोध किया जाता है

वे लुप्त हो गए
धरती के तापमान के साथ
तालमेल नहीं रख पाने के कारण
वे अतीत के विस्मृत पृष्ठ बन गए

वे लुप्त हो जाएंगे
वे नष्ट हो जाएंगे
जो सत्य को लेकर
आदर्श को लेकर
जीवन मूल्यों को लेकर
पूरी मानवीय गरिमा के साथ
जीना चाहेंगे

एक दिन इस अमानवीय धरती पर
डायनासोर की तरह
उनके जीवाश्म ही बचे रहेंगे।


यह जो प्रेम है

शाम भी घायल हुई थी
बांसुरीवादक के विषाद से
बादलों ने रोककर जाहिर किया
अपना मातम
किसी की राह देख रही थी
रात
जिसे बिछाकर सो गया था
भिखारी
धुएं से सराबोर आबादी
के बीच भी
बचा हुआ था जीवन
हर मोर्चे पर चोट खाने के
बावजूद भी
आदमी भूल नहीं पाया था
प्रेम।


जगजीत सिंह को सुनने के बाद

वायलिन का स्वर बरसता रहता है
अवसाद की लंबी रातों में
मधुर दिनों की स्मृतियां
बचपन का सावन
यौवन का चांद
प्रियतमा का मुखड़ा
बिछोह की पीड़ा

वायलिन का स्वर बरसता रहता है
और मैं भीगता रहता हूं
पिघलता रहता हूं
पथराई हुई आंखें नम हो जाती हैं
संवेदना की सूखी हुई धरती
उर्वर बन जाती है।

 

वे दंगाप्रिय ईश्वर के उपासक हैं

वे दंगाप्रिय ईश्वर के उपासक हैं
इसीलए इतनी असहिष्णुता
इतनी बर्बरता
इतना रक्तपात
धर्म की घृणा मिश्रित व्याख्याएं

वे दंगाप्रिय ईश्वर के उपासक हैं
उनकी उपासना
इहलोक में स्वार्थों को सिद्ध करना है
उनकी उपासना है
सिंहासन और पदाभिषेक की
गुप्त राह

वे दंगाप्रिय ईश्वर के उपासक हैं
शिकारी जानवर के वंशज
रक्तपान करना जिनका
आदिम स्वभाव है
विषवमन करना जिनका
दैनन्दिन कर्म है।

 

अपहरण

कोमल भावनाओं का अनजाने में ही
हृदय के चौराहे से अपहरण किया गया
फिरौती के रूप में मांगा जा रहा है
सबसे हसीन सपना

चेतावनी दी गई है
सपने नहीं दिए गए तो
कोमल भावनाओं का वध किया जाएगा

कोई फायदा नहीं रपट लिखवाने से
कोई फायदा नहीं थाने में
सो रही है पुलिस राजधानी में धुत्त पड़ी है सरकार

रिक्त हृदय को सांत्वना दे पाना
संभव नहीं
सांत्वना देने का रिवाज
प्रतिबंधित हो चुका है

अपहरणकर्ताओं का कोई नाम नहीं होता
कोई चेहरा नहीं होता
हृदय नहीं होता
हृदय में संजोकर रखी गई कोमल भानवाएं नहीं होतीं

सूखे कुएं की तरह अपने हृदय को लेकर
कहां जाऊंगा मैं कहां जाऊंगा।

 

भूख मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी

भूख मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी
उसके होंठ सूख चुके होंगे
और अंतड़ियों में ऐंठन
शुरू हो गई होगी

खाली बरतन आपस में
उदासी बांट रहे होंगे
स्टोव के पास उपेक्षित पड़ा होगा
किरासन का खाली पीपा

अंधेरे में कोई आकृति
हिलती होगी
तो भूख की आंखों में
चमक आ जाती होगी
मैं जानता हूं वह
कितनी निढाल हो गई होगी
आशा और निराशा के बीच
मुझे सोच रही होगी

मेरे लौटने पर
मुझसे लिपट जाएगी
जन्म-जन्मान्तर की प्रेमिका की तरह
आरंभ होगा अन्न का उत्सव।

 

भूपेन हजारिका

बेचैनी मांझी की पुकार सुनता हूं
नदियों-सागरों-महासागरों को
लांघकर
आती हुई दर्दभरी पुकार

बैशाख की रातों में चुपके से
पलते हैं कुछ मीठे सपने
कांसवन जैसा अशांत मन
वोल्गा से गंगा तक
मेघना से ब्रह्मपुत्र तक
दौड़ाता रहता है यायावर को

वह जो आदमी के भविष्य का
गीत है
वह जो अल्पसंख्यकों को सुरक्षा
का वादा है
वह जो पूस की रात में ठिठुरते
किसी गरीब की चीख है
वह जो प्रेम में न पाने की टीस है
मेरे हृदय में प्राचीन लोकगीत की तरह
वह स्वर धड़कता है

जीवन की रेल में तीसरे दर्जे के
मुसाफिरों के आंसू शब्द में
परिवर्तित होते हैं
प्यार के दो मीठे बोल की तलाश में
एक पूरी उम्र बीत जाती है

बेचैन मांझी की पुकार सुनता हूं
समाज परिवर्तन के लिए
संगीत एक हथियार है
कहीं बुदबुदाते हैं पॉल रॉबसन-
‘वी आर इन द सेम बोट ब्रदर!
वी आर इन द सेम बोट ब्रदर!!
वी आर इन द सेम बोट ब्रदर’!!!


शीतल पेयजल पीता है सूरज

बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नया प्रतिनिधि
सूरज
डूबने से पहले शीतल पेयजल पीता है
और चांद
एक बोतल की शक्ल में उभर आता है

बच्चे गाते हैं
विज्ञापन के गीत
उछलते हैं- नाचते हैं
अजीब-अजीब आवाज के साथ

एक खुशहाल देश को
प्रायोजित किया जाता है
किस कदर गद-गद होता है
अंग्रेजी में लिपटा हुआ देश

शेयर बाजार के दलालों के फूले हुए चेहरे
पाप और पुण्य की सिकन को
कभी महसूस नहीं कर सकते
जीने की जरूरी शर्त बन गई है
धूर्त होने की कला

गरीबी की रेखा की ग्लानि से
ऊपर उठकर उधार की समृद्धि
तिरंगे पर फैल जाती है
कूड़ेदानों में जूठन बटोरते हुए बच्चों
और अधनंगी औरतों के बारे में
कोई विधेयक पारित नहीं होता
ठंडे चूल्हों को सुलगाने के बारे में
न्यायपालिका के पास
कोई विशेषाधिकार नहीं है

बाजारू बनने की होड़ में बिकाऊ
बना दिया गया है सूरज को
चांद को धरती को
मनुष्य की गरिमा को।

 

भय जब दस्तक देता है

भय जब दस्तक देता है
शयनकक्ष में
रातभर जागता है विवेक

चिड़ियों की तरह
लोग बुनते हैं घोंसले
बच्चों को सिखाते हैं
दाने चुगना

धूप और बारिश
की मार झेलते हुए
एक स्वतंत्र देश में
गुलाम बनकर जीते हुए
दैत्यों के चरणों में
शीश झुकाते हुए
मतपेटियों में अंगूठा काटकर
बंद करते हुए
लोग
ईश्वर और भाग्य को
दोष देते हैं
जन्मकुंडली के ऊपर
कुंडली मार कर बैठे
शनि और राहु को
कोसते हैं
नीलम-गोमेद-पन्ना-पुखराज
घोड़े के नाल की
अंगूठी पहनते हैं

भय जब दस्तक देता है
कायर दिमाग सोचता है
पलायन का रास्ता।

 

खुशी प्रायोजित की जाएगी

खुशी प्रायोजित की जाएगी
ठंडे चूल्हे के पास बैठी हुई
एक बीमार औरत
मुस्कराएगी

विदेशी कार से उतरेगी
एक गदराई हुई औरत
और बनावटी फूल
बीमार औरत को सौंपकर
नववर्ष की शुभकामनाएं देगी

हताश चेहरे जादुई शीशे में
खिले हुए नजर आएंगे
सरकार जादुई शीशे
मुफ्त बंटवाएगी

असफलताओं की खाई में
एक उत्सव का दृश्य होगा
मरघट जगमगा उठेंगे
खोमचे वाले बेचेंगे सपने

जिन्हें नींद नहीं आती
जो देश के बारे में
इतिहास के बारे में
भूगोल के बारे में
अर्थनीति के बारे में
अधिक सोचते रहते हैं
उन्हें अफीम चाटने के लिए दिया जाएगा
पदवियां दी जाएंगी
पुरस्कार दिए जाएंगे

दुनिया देखेगी
खुशी के दमकते चेहरे
दूरदर्शन के सीधे प्रसारण में
इंटरनेट पर
अंग्रेजी पत्रिकाओं के
रंगीन आवरण पृष्ठों पर।


नृशंसता के जंगल में

नृशंसता के जंगल में
करुणा की नदी सूख जाती है
सड़कों पर सड़ती रहती है
मानव देह
लावारिश लाशों को
जमीन में गाड़ दिया जाता है
बिहू नर्तकी की चीख
वीरानी में गुम हो जाती है

वापस लौटती हैं
घोषणाएं
निरंकुश घोषणाएं
सुनते-सुनते आबादी
पत्थर की तरह जड़ हो गई है
राजपथ से गुजरती रहती है
अर्थियां
सेना की गाड़ियां
राजनेताओं का काफिला

नृशंसता के जंगल में
यंत्रणा के साथ जीवन
पशुओं की तरह गुर्राते हुए
नोचते हुए खसोटते हुए
बिना सोचे-विचारे
गुजरता रहता है।

 

पोवाल दिहिंगिया


(जाह्नू बरुवा की फिल्म ‘सागरलै बहुदूर’ देखने के बाद)

मांझी के सपने खो जाते हैं
दिहिंग नदी की जलधारा में
जो ब्रह्मपुत्र में मिलती है
सागर तक पहुंचती है

वर्षा से पहले स्तब्ध प्रकृति
मांझी के चेहरे का रंग
नीला पड़ जाता है
सर्पदंश से पीड़ित मरणासन्न व्यक्ति की तरह

हेमिंग्वे का बूढ़ा आदमी
समुद्र किनारे से वेष बदलकर
कब आया दिहिंग किनारे हाट में
उसने नाम रख लिया
पोवाल दिहिंगिया

चप्पू चलाता है तो तनती हैं
चेहरे की शिराएं
बांसुरी की तान सुनकर
आहत होता है पहाड़ भी

नदी और पुल
पुल और सूनी नाव
मांझी और उसकी कुटिया
पराजय और विषाद
और
जूझते रहने की निरंतरता...।

 

एकता कपूर का ककहरा

एकता कपूर को क से प्रेम है
क कमाल का अक्षर है
जो विज्ञापन का सोना बरसाता है
दर्शकों की तादाद बेहिसाब बढ़ता है

एकता कपूर का ककहरा
समूचा मध्यवर्ग रट रहा है
इस ककहरे में कोई
संवेदना नहीं है
कोई समस्या नहीं है
कोई वेदना नहीं है

इस ककहरे में जीवन एक
अंतहीन उत्सव है
इस उत्सव में छल-कपट की
सीढ़ियों पर चढ़कर कामयाबी हड़पने वाले
निर्मम किरदार शामिल हैं
इस उत्सव में डिजाइनर पोशाकों में
शौकिया सिंथेटिक आंसू बहाने वाली गदराई स्त्रियां शामिल हैं

एकता कपूर का ककहरा पढ़कर
मध्य वर्ग अपने लिए जीने की शैली
विकसित कर रहा है
इस नई शैली में परिवार का मतलब
एक कुरुक्षेत्र का मैदान है
इन नई शैली में जीवन का मतलब
केवल और केवल वैध-अवैध तरीके से
पैसों को अर्जित करना रह गया है

एकता कपूर के ककहरे में
इतनी संपन्नता है जो
हमें आतंकित करती है
हमारे इर्द-गिर्द की पीली उदास बीमारी
अभाव की मार झेलती दुनिया
एकता कपूर के ककहरे में शामिल नहीं है।

 

करुणा बचाकर रखो

करुणा बचाकर रखो
आपातकाल के लिए
अंग्रेजी पत्रिकाओं के चमकते
रंगीन पृष्ठों पर
लहूलुहान तस्वीरें
तुम्हें हिला नहीं सकतीं
रेंगते हुए
घिसटते हुए लोग और
उनकी चीख से
पिघलती नहीं
तुम्हारे भीतर संवेदना
इर्द-गिर्द की खामोशी
हताशा से झुलसे हुए चेहरे
तुम्हें सोचने के लिए
विवश नहीं कर सकते

बचाकर रखो करुणा
मुनाफे का सौदा करते वक्त
किसी को
गुलाम बनाते वक्त
काम आएगी करुणा।

 

प्रिय भूख, तुम नहीं जीतोगी

प्रिस भूख, तुम नहीं जीतोगी
तुम्हारी क्रूरता का
तुम्हारी संवेदनशून्यता का
एक-एक वार व्यर्थ जाएगा

तुम्हारा घिनौना स्पर्श
छीन सकता है मेरे बच्चों के
होठों की पवित्र हंसी
विषाद के विषैले धुएं से
धुंधली बना सकती हो
तुम हमें भींच सकती हो
कुपोषण के जबड़े में
घोल सकती हो
हमारी मीठी नींद में
तेजाब

प्रिय भूख तुम नहीं जीतोगी
हमेशा की तरह
तुम पराजित होगी
और शुरू होगा
अन्न का उत्सव।

 

दुनिया की सबसे हसीन औरत

दुनिया की सबसे हसीन औरत
गरीबी की रेखा पर चढ़कर
मुस्कराती है
ठंडे चूल्हे की तरह सर्द है
उसके होंठ
असमय ही वृद्धा बन जाने वाली
बच्ची से मिलती है
उसकी आंखें

दुनिया की सबसे हसीन औरत
हमें बताएगी
भूख लगने पर रोटी नहीं मिले
तो केक खा लेना
प्यास लगने पर
शुद्ध पेयजल नहीं मिले
तो कोल्ड ड्रिंक्स पी लेना

दुनिया की सबसे हसीन औरत
हमारी नींद की गुफा में
समा जाती है
हमारे सबसे हसीन सपनों को
बटोरती है
और गायब हो जाती है।


आइए हम जनहित याचिका दायर करें

आइए हम जनहित याचिका दायर करें
करुणा के बारे में
जो पहले रहती थी सबके हृदय में
जो बहती थी धमनियों में
जो हमारे जीवन का हिस्सा थी
जो आज गुम होती जा रही है

आइए हम जनहित याचिका दायर करें
भावना के बारे में
जो पहले छलछलाती थी आंखों में
धड़कती थी अनुभूतियों के संग-संग
जो मानवीय गुणों को बचाती थी
जो आज गुम होती जा रही है

आइए हम जनहित याचिका दायर करें
प्रेम के बारे में
जो पहले एक पवित्र अनुभूति का नाम था
जो अपरिचित हृदयों को जोड़ता था
जो जीवन को उज्ज्वल बनाता था
जो आज नीलाम होता जा रहा है

आइए हम जनहित याचिका दायर करें।


सूनी हवेलियां

कस्बे की अधिकतर हवेलियां सूनी हैं
इनका सूनापन तंग गलियों में
विलाप करता है
कोई परदेशी इस तरफ क्यों नहीं आता

किसी हवेली में हैं सौ कमरे
और पांच सौ झरोखे
हवादार मुंडेर
जहां बैठा है कबूतरों का समूह
किसी हवेली में रहती है
एक अकेली स्त्री
जो या तो विधवा है
या जिसका पति वर्षों से नहीं लौटा

उस अकेली स्त्री के सामने
हवेली की भव्यता
धुंधली नजर आने लगती है
सूनी हवेली भी अकेली स्त्री बन जाती है।

 

जंगल में अकेले

जो लोग जंगल की ओर चले गए
वे न तो वैरागी थे
न ही थी उनकी उम्र इतनी
कि वे अध्यात्म की प्यास
बुझाने के लिए कहीं निकल सकें

वे अभी ठीक से
जवान भी नहीं हुए थे
ठीक से देखा भी नहीं था
जीवन को

अभी तो उनकी उम्र फूलों से
नदियों से खेतों से फसलों से
प्यार करने की थी
अभी तो उन्हें करना था
अपनी पसंद की लड़की से
प्रेम निवेदन

जो लोग जंगल की ओर चले गए
उनके गुस्से को नहीं समझा गया
उनकी कठोरता के पीछे
छिपे कोमल हृदय की कोई
परवाह नहीं की गई

उनके पवित्र सपनों को कुचला गया
नियमों के नाम पर
लालफीताशाही में लिपटी व्यवस्था के नाम पर
उनकी बातों को बकवास कहकर
हवा में उड़ा दिया गया

वे जंगल में आज भी सोचते हैं
अपने सपने के समाज के बारे में।


देव प्रसाद चालिहा

देव प्रसाद चालिहा को आप नहीं जानते
और अगर जानते भी हैं
तो आप मानेंगे नहीं कि
देव प्रसाद चालिहा को आप जानते हैं

अपने बच्चे भी जान नहीं पाए
देव प्रसाद चालिहा को
पत्नी भी नहीं जान पाई
दोस्त और रिश्तेदार भी नहीं जान पाए
कार्यालय के सहकर्मी भी
अनजान ही रहे

प्रशासन को भी देव प्रसाद चालिहा की
जानकारी नहीं मिली
अखबारों में चुनाव और घोटाले के बीच
खून और खेल के बीच
एक सर्द खबर के रूप में
उपस्थित था वह शख्स
देव प्रसाद चालिहा

कल ऐसा भी हो सकता है
कि आप बन जाएं
देव प्रसाद चालिहा या फिर
मैं बन जाऊं
देव प्रसाद चालिहा या
समूचा देश बन जाए
देव प्रसाद चालिहा

जिस तरह कार्यालय में विषपान
कर छटपटाता रहा वह शख्स
उसी तरह हम सभी
एक-एक कर छटपटाते रहें
एड़ियां रगड़कर मरते रहें
अपना आदर्शों और सिद्धांतों के साथ
अपनी भूख और अपनी शर्म के साथ
अपने दायित्व और अपनी विवशता के साथ
राजकोष पर कुंडली मारकर बैठे रहे सांप
तीन महीने तक वेतन न मिले और
आंखों के सामने अन्न के लिए मचलें बच्चे
जीवन हो मृत्यु से भी बदतर
एक गाली की तरह
जहां बिकना ही हो जीने का एकमात्र रास्ता

चूंकि पशु नहीं बना
इसीलिए कहलाया देव प्रसाद चालिहा
चूंकि बिका नहीं
इसीलिए कहलाया देव प्रसाद चालिहा
और जो भी इस रास्ते पर चलेगा
कहलाएगा देव प्रसाद चालिहा।


धरती की तबियत ठीक नहीं है

धरती की तबियत ठीक नहीं है
इसीलिए बात-बात पर
झुंझला उठती है
अकारण ही मुंह फुला लेती है
किसी बात का गुस्सा
किसी बात पर उतारती है

धरती की तबियत ठीक नहीं है
इसीलिए हवा आहिस्ता बहती है
गुमसुम परिंदे पंख नहीं फड़फड़ाते
नदियां उदासी के साथ
फुसफुसाती हैं

धरती की तबियत ठीक नहीं है
इसीलिए हमलोग
अकारण ही गुर्राने लगे हैं
घृणा के कांटे हमारी देहों में
उगने लगे हैं
संशय के अंधेरे ने
जीवन की गरिमा छीन ली है।


हथेली

विषाद से भीगे चेहरे
रखना चाहता हूं
हथेली
पराजय से झुके हुए कंधों पर
रखना चाहता हूं
हथेली

चाहता हूं चट्टान की तरह
मेरी हथेली
रोक ले
अंधरे को
आंखों में समाने से पहले

चाहता हूं हथेली पकड़कर
डूबने वाला
किनारे तक पहुंच जाए

तितली की तरह सुख को
रखना चाहता हूं
हथेली में बंद करके

पंखुड़ियों की तरह टीस को
हथेली पर फैलाकर
महसूस करना चाहता हूं

अपनी धरती को रखकर
अपनी हथेली पर
मैं मग्न रह सकता हूं

छूकर देखो इसे
हथेली नहीं
मेरा हृदय।

 

परिचय

हवा ने बीज से नहीं पूछा था
उसकी जाति के बारे में
उसके प्रांत के बारे में
उसकी मातृभाषा के बारे में
और हवा
बीज को उड़ाकर ले आई थी

बीज मिट्टी के साथ
घुल-मिल गया था और
एक फूल के पौधे के रूप में
अंकुरित हुआ था

हवा की तरह चिड़िया भी
बीज से नहीं पूछती
निर्धारित प्रपत्र के प्रश्न
हवा की तरह चिड़िया भी
बीज से नहीं मांगती
सच्चे-झूठे प्रमाण-पत्र

और मनुष्य जड़ की तलाश में
उन्मादित हो जाता है
अतीत के मुर्दाघर में भटकता है
हवा की तरह
चिड़िया की तरह
और मिट्टी की तरह
सहज नहीं रह जाता

खून के लाल रंग को भूलकर
पीले और नीले
काले और भूरे रंग के भ्रम में
पंचतंत्र का शेर बन जाता है
मेमने पर पानी गंदा करने का
आरोप लगाता है
मेमने की सफाई सुनकर
उसके पूर्वज को दोषी बताता है
और मेमने को दंडित करता है।

 

मेरे सतरंगे सपने

मैं खोई हुई चीजों की तलाश में निकला था
सरसों के फूलों से छिपे खेतों ने चुराए थे
बचपन के कुछ पीले सपने

मैंने पहली बार जाना कि पीलापन
सिर्फ बीमार चेहरों का रंग ही नहीं होता
पीलापन इंद्रधनुष का भी हो सकता है
और फूलों का भी

जलकुंभी से लदे पोखर ने चुराए थे
बचपन के कुछ हरे सपने

हमने बार-बार डुबकी लगाकर पानी के भीतर
जलपरी की तलाश की थी
उस सुरंग की तलाश की थी
जो जाती थी सोने-चांदी के देश में

मैंने नीले आकाश और धुंध की सफेदी के बीच
नीले और सफेद सपनों की तलाश की

मेरे सतरंगे सपने
गांव से लेकर शहर तक
बिखरे हुए थे और मुझसे आंखें मिलाकर
पूछ रहे थे-
टूटने का कोई दर्द भी होता है?


सोमालिया में जेन फोंडा

सोमालिया में दम तोड़ते हुए एक बच्चे का
हाथ थाम लिया है जेन फोंडा ने
जेन फोंडा बच्चे की आंखों में
मौत की परछाई को पहचानने की कोशिश कर रही है
और मौत को तेजी से बढ़ते हुए देख रही है

जेन फोंडा के चेहरे पर दुःख है
यह दुःख हॉलीवुड की फिल्मों से
अगल किस्म का दुःख है
छायाकारों का झुंड इस क्षण को
कैमरे में कैद कर रहा है

प्रति मिनट मरने वाले पंद्रह बच्चों में
वह बच्चा भी शामिल है
जिसका हाथ जेन फोंडा ने थाम रखा है
कुछ ही सेकेंड में सर्द होकर लुढ़क जाएगा
उस बच्चे का कोमल हाथ।


स्कूल में गोलीबारी

वीडियो गेम की काल्पनिक दुनिया में
वे रचते थे असली नजर आने वाले किरदारों को
माउस की क्लिक के सहारे वे नष्ट करते थे
अपने ही किरदारों को
उन्हें खून बहते हुए देखकर
तनिक भी डर नहीं लगता था

डर उन्हें लगता था अंधेरे से
अकेलेपन से रिश्तों के खोखलेपन से
माता-पिता के असंभव सपनों पर सवार होकर
वे जिस सफर पर निकले थे
वह सफर किसी मंजिल पर नहीं पहुंचता था

पैसे के क्रूर परिवेश ने पैदा होने के बाद ही
धुन की तरह नष्ट करना शुरू कर दिया था
उनके भीतर की संवेदनशीलता को
उन्होंने प्रतिशोध का पाठ सीखा था
परिवार से समाज से देश और दुनिया से
इसीलिए उन्होंने वीडियो गेम की काल्पनिक दुनिया की तरह
असली जीवन में भी जब अपने ही सहपाठी को
गोली मारी तो वे तनिक भी डरे नहीं।


प्रवासी मजदूर भजन गाते हैं

प्रवासी मजदूर भजन गाते हैं
शाम ढलते ही सड़क के किनारे अर्द्ध निर्मित मंदिर में
एक मजदूर की सधी हुई उंगलियां
पुराने हारमोनियम पर दौड़ती रहती हैं
एक मजदूर ढोलक बजाता है
और बाकी मजदूर तालियों की थाप के साथ
सुर में उड़ेलते रहते हैं प्राण

प्रवासी मजदूर भजन गाते हैं
‘कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ...’
‘की लए के शिव के मनायब हे
शिव मानत नाहीं...’
ऐसे कई गीत जो गांव में चलते वक्त
वे स्मृतियों की गठरी में बांधकर ले आए थे

प्रवासी मजदूर भजन गाते हैं
और दिन भर बहाए गए पसीने की टीस
भूलने की कोशिश करते हैं
अगली सुबह जिंदगी से दो-दो हाथ करने के लिए
अपने आपको तैयार करते हैं।


लुभावने वादों का पार्श्वसंगीत

लुभावने वादों का पार्श्वसंगीत बज रहा है
कड़वा यथार्थ तीखी धूप बनकर आबादी को
झुलसा रहा है
अजीब दौर है जब इठलाती हुई झूठ चल रही है
राजमार्गों से होकर गरीबों की झोपड़ियों तक
झूठ की यात्रा का सीधा प्रसारण हो रहा है
गदगद होकर शासकगण कह रहे हैं
यही सच है प्रजागण, जिसे तुम झूठ
समझ रहे हो असल में यह झूठ नहीं है
उसका जन्म होता है चुनावी घोषणाओं के गर्भ से
उसे योजनाओं की पालकी में झुलाया जाता है
सोने की लंका में लाड़-प्यार के साथ पाला जाता है

लुभावने वादों का पार्श्वसंगीत सम्मोहक होता है
धीरे-धीरे लुप्त होने लगती है आम आदमी की स्मृतियां
वह भूल जाता है पुराने वादे पुराने विश्वासघात
प्राकृतिक आपदा राष्ट्रहित का सौदा घपलों की खाई में
गिरने वाली आकृतियां रक्तपात की आग में घी डालने वाले हाथ
वह फिर आशा की कश्ती पर हिचकोले खाने लगता है
रटने लगता है चुनाव के नए नारे कतार में खड़ा हो जाता है
भीख की तरह कंबल या साड़ी हासिल करने के लिए।


बर्बर भी करते हैं शांतिपाठ

बर्बर भी करते हैं शांतिपाठ
पहनते हैं मानवता का मुखौटा
मानवीय सहायता की हामी भरते हैं
सरहद पर रोक देते हैं अनाज
दवा, कपड़ों से भरे हुए वाहनों को
बर्बर जब आक्रमण करते हैं तो
कहते हैं इंसाफ कर रहे हैं
स्कूलों, अस्पतालों और रिहाइशी इलाकों पर
बम बरसाते हुए वे तर्क देते हैं
कि उनकी चेतावनी सुनी नहीं गई
इसीलिए वे आक्रमण रोकने का अनुरोध
नहीं सुनते है
टीवी फुटेज में बच्चों के शवों के ढेर को
देखती रहती है दुनिया
बच्चे जो भविष्य के निर्माता थे
युद्ध के स्मारक बन जाते हैं
बर्बर पहले उन्हें जीने की
अनुमति नहीं देना चाहते
बर्बर की बर्बरता पर कोई
सवाल नहीं खड़ा होता।


जिंदा रहते हैं सपने

विद्रोह को कुचल दिया जाता है
लेकिन जिंदा रहते हैं सपने
सपनों का कोई मुख्यालय नहीं
न ही छिपने के लिए बंकर
न ही भागने के लिए कोई गुप्त मार्ग

जब अन्याय फहराता है जीत का पताका
वंचित के सीने में बीज की तरह
अंकुरित होता है सुलगता हुआ सपना
जब अन्याय विद्रोह की छाती पर पैर रखकर
घोषणा करता है कि अब
खत्म हो गई हैं सारी चुनौतियां
खामोश हो गए हैं प्रतिवादी स्वर
उसी समय किसी बच्चे की मुट्ठी तन जाती है
आंखों में विद्रोह समा जाता है

विद्रोह को कुचल दिया जाता है
लाशें बिछा दी जाती हैं खेतों में खलिहानों में
नदी और सागर को लाल कर दिया जाता है
विद्रोहियों के रक्त से
नए सिरे से जन्म लेता है विद्रोही
प्राचीन सपने को कलेजे से लगाकर
आदेश या अध्यादेश मानने से
वह इंकार कर देता है।


सपनों का शिलान्यास

सपनों का शिलान्यास किया जाता है
श्रीमान अथवा सुश्री के कर-कमलों को कष्ट देते हुए
मंचित किया जाता है पूर्व निर्धारित पाखंड अथवा प्रहसन
दर्शक किराए के होते हैं अथवा
डंडे के जोर पर जुटाए गए होते हैं
तालियों का समय तय होता है कि किस पंक्ति के बाद
बजेगी कितनी देर तक तालियां
नारों का समय तय होता है किस मुखड़े पर मुस्कराहट देखने के बाद
दोहराए जाएंगे नारे

सपनों का शिलान्यास किया जाता है
श्रीमान अथवा सुश्री को अमरत्व की खुशफहमी दिलाने के लिए
योजनाओं की सवारी तंत्र की सुरंग में गुम हो जाती है
शिलान्यास के स्थान पर उग आते हैं जंगली पौधे
लोगों की प्रतीक्षा खत्म होने का नाम नहीं लेती
शिलान्यास की परिघटना के बावजूद
निर्मित नहीं हो पाता सपने का शिल्प
पृष्ठभूमि में धकेल दिए जाते हैं श्रीमान अथवा सुश्री
मिटा दिए जाते हैं पत्थर पर लिखे गए अक्षर।

 

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दिनकर कुमार

जन्म     :    5 अक्टूबर, 1967, बिहार के दरभंगा जिले के एक छोटे से गांव ब्रहमपुरा में।
कार्यक्षेत्र    :    असम
कृतियां    :    तीन कविता संग्रह, दो उपन्यास, दो जीवनियां एवं असमिया से पैंतालीस पुस्तकों का अनुवाद।
सम्मान     :    सोमदत्त सम्मान, जस्टिस शारदाचरण मित्र स्मृति भाषा सेतु सम्मान, जयप्रकाश भारती पत्रकारिता सम्मान एवं शब्द भारती का अनुवादश्री सम्मान।
संप्रति    :    संपादक, दैनिक सेंटिनल (गुवाहाटी)
संपर्क     :    हाउस नं. 66, मुख्य पथ, तरुणनगर-एबीसी, गुवाहाटी-781005    (असम), मो. 09435103755,
ई-मेल : dinkar.mail@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. वाह बहुत बढ़िया.....
    तसल्ली से पढ़ी जायेंगी सभी रचनाएँ..

    शुक्रिया
    अनु

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: दिनकर कुमार का कविता संग्रह - लोग मेरे लोग
दिनकर कुमार का कविता संग्रह - लोग मेरे लोग
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