तेजेन्द्र शर्मा विशेष : मैं और मेरा समय

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   (तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक ब...

   (तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक  शुभकामनाएं - सं.)

मैं और मेरा समय.......

- तेजेन्द्र शर्मा

मेरा जन्म जगरांव (पंजाब) में हुआ। जगरांव या पंजाब से मेरा इतना ही नाता है कि मैं वहां पैदा हुआ और अपने जीवन के पहले नौ वर्ष पंजाब के अलग अलग शहरों में बिताए - जहां जहां मेरे पिता का तबादला होता रहा। अपनी कहानी ‘काला सागर’ में मैंने केन्द्रीय पात्र विमल महाजन के मुंह से कहलवाया है, “जगरांव में दो महान् लोगों ने जन्म लिया है, ... दूसरे का नाम है लाला लाजपत राय!”

मैं हमेशा एक सोच में डूब जाता हूं, जब कभी कोई मुझसे पूछता है, “तेजेन्द्र भाई, आपका गांव कौन सा है? ” मैं कभी किसी गांव में नहीं रहा। मेरी स्कूल, कॉलेज और विश्विद्यालय की पढ़ाई दिल्ली में हुई। इस तरह मेरा गांव तो दिल्ली ही कहलाएगा। इसके बाद मैंने इक्कीस साल तक एअर इंडिया की नौकरी बंबई में रह कर की (मैं अपने शहर को आज भी मुंबई नहीं कह पाता)।

यानि कि मैं पूरी तरह से एक शहरी उत्पाद हूं। इसीलिये मेरी कहानियों में गांव नहीं आता। क्योंकि अगर मैं गांव के बारे में लिखूंगा, तो वह एक तरह का झूठ हो सकता है। मुझे गांव की राजनीति, खेती, किसान, साहूकार, ट्रैक्टर, फ़सल आदि की कोई समझ नहीं है। मगर मैं शहर की संरचना से ख़ासी हद तक वाक़िफ़ हूं। निम्न-मध्य वर्ग, मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग की सोच को मैं समझता हूं। मैंने इक्कीस वर्ष तक एअरलाईन में फ़्लाइट परसर के पद पर नौकरी की है। यानि कि मेरे अनुभव क्षेत्र में वे मज़दूर भी आते थे जो कि येन केन प्रकारेण किसी भी तरह खाड़ी देशों में काम करने जाते थे। ब्रिटेन और अमरीका जाने वाले भारतीय प्रोफ़ेशनल लोगों से भी मेरी मुलाक़ात होती थी। मुंबई के फ़िल्मी सितारों और राजनेताओं से भी मेरा वास्ता रहा। प्रधानमंत्री राजीव गांधी के लिये चुने गये विशेष कर्मीदल का मैं एक महत्वपूर्ण सदस्य था। यानि कि मेरा अनुभव क्षेत्र हिन्दी की मुख्यधारा के लेखकों और आलोचकों से एकदम अलग था। मुझे उनके अनुभव क्षेत्र का ज्ञान नहीं था और मेरे अनुभव क्षेत्र में उन सबका ज्ञान ख़ासा सीमित था।

मुझे याद पड़ता है कि 1959 में जब हम मौड़ मण्डी नामक छोटे से स्टेशन के साथ लगे घर में रहते थे, वहां बिजली नहीं थी। स्टेशन पर बिजली थी किन्तु अभी तक घरों में नहीं पहुंची थी। रेडियो चलाने के लिये बड़ी सी कार बैटरी जैसी एक बैटरी इस्तेमाल में लाई जाती थी। दिल्ली एकदम अलग ही दुनियां का अजूबा थी। 1961 में अपने स्कूल में पहली बार टेलिविज़न सेट देखा। ब्लैक-एण्ड-व्हाइट फ़िलिप्स का बड़ा सा टी.वी. सेट जो कि ऊंचे से स्टैण्ड पर रखा रहता था। बच्चे आपस में बात किया करते थे, “बेटा तुम्हें कुछ नहीं पता। अब मुहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर टी.वी. सेट के पीछे आकर खड़े हो जाया करेंगे और गाने गाया करेंगे।”

दिल्ली आने के बाद भी बहुत दिनों तक मेरी मां अंगीठी जला कर और स्टोव में पम्प मार मार कर खाना बनाती रही। अभी भाप इंजिन रेलगाड़ियों को खींच रहे थे और डीज़ल इंजिन शुरू हो गये थे। दिल्ली की सड़कों पर एम्बैसेडर, फ़िएट और स्टेण्डर्ड नाम की कारें दिखाई देती थीं।

मैं जब पांचवीं में पढ़ता था तो मेरे स्कूल के इर्द गिर्द कोई बाउण्डरी की दीवार नहीं थी। उसी स्कूल के बाहर बैठा करता था सुदर्शन नाई। उसके पास दुकान के नाम पर बस एक पुरानी सी कुर्सी, एक मेज़ और धुंधला पड़ता शीशा था। एक ऐसी चारपाई रखी रहती जिसकी हालत अपने मालिक की हालत की ही तरह खस्ता हुआ करती थी। मैं वहां बाल कटवाने जाया करता था। हालांकि मुझे बहुत बुरा लगता था कि सुदर्शन नाई सिर्फ़ मशीन से बाल काटता था जबकि बाबूलाल नाई कैंची से कटिंग करता था। मगर फिर भी मेरे बाऊजी हमेशा सुदर्शन लाल से ही बाल कटवाते थे। सुदर्शन नाई की चारपाई पर नवभारत टाइम्स और प्रताप (उर्दू) समाचार पत्र रखे रहते थे। उसके सभी ग्राहक वहां बैठकर राजनीति पर चर्चा किया करते थे। कांग्रेस और जनसंघ सबकी ज़बान पर रहते। इसी माहौल से मेरी कहानी ‘एक ही रंग’ का जन्म हुआ। सुदर्शन नाई उस कहानी का मुख्य पात्र है।

मेरा प्राइमरी स्कूल अंधा मुग़ल क्षेत्र में था। बाद में सेकण्डरी स्कूल भी वहीं था। मैं सब्ज़ी मण्डी रेल्वे कालोनी से पैदल चल कर स्कूल जाया करता था। बाउजी को दिल्ली में पहले किशन गंज, उसके बाद सब्ज़ी मण्डी, वापिस किशन गंज, फिर लाजपत नगर की रेल्वे कालोनियों में रहने के लिये फ़्लैट अलॉट हुए। हम भी बार बार उनके साथ साथ घर बदलते रहे। बाउजी की ख़ासियत ही उनकी कमज़ोरी भी थी। बाउजी ज़रूरत से ज़्यादा ईमानदार व्यक्ति थे। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनकी बाईं बाज़ू में गोली लग गई थी। बाऊजी की चरम ईमानदारी के कारण महीने की चौबीस या पच्चीस तारीख़ को मां जा कर अपनी चचेरी बहन (सुमित्रा मासी), के यहां से पांच रुपये उधार ले आया करती थीं, जो उन्हें पगार आते ही वापिस कर दिये जाते। मुझे याद है कि वर्ष 1961 में मेरे जन्मदिन पर कुल सवा रुपया ख़र्च हुआ था। बाऊजी की यह छवि मेरी बहुत सी कहानियों में दिखाई देती है। ‘पासपोर्ट का रंग’ कहानी के बाऊजी का पूरा चरित्र मैंने अपने बाऊजी पर आधारित किया है जबकि मेरे बाऊजी मेरे ब्रिटेन प्रवास करने से बहुत पहले ही स्वर्गवासी हो गये थे।

बाऊजी की सोच अपने पिता यानि कि मेरे दादाजी के साथ कभी मेल नहीं खा पाई। दोनों में हमेशा छत्तीस का आंकड़ा बना रहता। दादाजी को शिकायत थी कि बाऊजी ने कभी बड़े पुत्र की भूमिका सही ढंग से नहीं निभाई। जबकि बाऊजी एक देशभक्त जवान थे जिनके लिये अपने परिवार से बढ़ कर भारत की स्वतंत्रता थी। बाऊजी गर्म दल के सदस्य थे। तीन अंग्रेज़ों को ज़िन्दा जला देने का आरोप लगा था उन पर। दादाजी वकीलों के चक्कर काटते रहे। उन्हें ग़ुस्सा इस बात का था कि उनका पुत्र पढ़ाई लिखाई छोड़ कर देशप्रेमियों के चक्कर में पड़ गया था। उनका दूसरा ग़ुस्सा इस बात पर भी था कि कांग्रेसी गले में मालाएं पहन कर जेल गये और आज़ादी के बाद कोटे परमिट ले कर पेंशनें भी पक्की करवा लीं। मगर उनके पुत्र ने ईमानदारी का जो राग अलापना शुरू किया तो उसे बन्द ही नहीं किया। ज़ाहिर सी बात है कि जिन पुत्रों ने दादाजी की बात मानी थी और पढ़ाई करके ऊंचे पद हासिल किये थे, दादाजी का प्यार उनके और उनके पुत्रों के प्रति अधिक ममतामय था। दादाजी से दूसरे पोते पोतियों को तो मिलते भेंट और खिलौने, जबकि मेरे पल्ले आते केवल वादे। उन्होंने मुझे एक बार साइकिल और घड़ी ले कर देने का वादा किया था। किन्तु वे मेरे देनदार के रूप में ही इस दुनियां से चलाना कर गये। मेरे पहले कहानी संग्रह ‘काला सागर’ में मेरी कहानी ‘कड़ियां’ इसी थीम पर आधारित थी।

पढ़ाई करते करते मेरा आत्मविश्वास लगभग घमण्ड बनता जा रहा था। दसवीं क्लास में हिसाब के पेपर में फ़ेल हो गया। साल मारा गया। पिताजी का तबादला शिमला के पास शोघी स्टेशन पर हो गया था। वे वहां के स्टेशन मास्टर बना दिये गये थे। भला एक फ़ेल हुए लड़के को शिमला के अच्छे स्कूल में दाख़िला मिलता भी तो कैसे। मेरे एक मित्र थे जो कि मेरे बाऊजी के भी मित्र थे - ईश्वर स्वरूप भटनागर। उन्होंने बाऊजी से बात की और मुझे वापिस दिल्ली ले आए। यहां उन्होंने मेरा दाख़िला प्रेसिडेन्टस एस्टेट स्कूल में करवा दिया। मैं एक बार फिर एक नये स्कूल में हीरो बन गया। पढ़ाई में मूलतः अच्छा था ही। अंग्रेज़ी मेरा प्रिय विषय था। मेरी आवाज़ बचपन में खासी सुरीली थी, एक्टिंग का शौक़ था। स्कूल के लिये बहुत से कप और शील्ड जीत कर लाया। भटनागर जी के जीवन पर आधारित दो कहानियां मैंने लिखीं - ‘दंश’और ‘रिश्ते’।

जब स्कूल का ज़िक्र आ ही गया है तो बताता चलूं कि मेरा यह स्कूल एक को-एजूकेशनल स्कूल था। यहां लड़के और लड़कियां इकट्ठे पढ़ा करते थे। मेरे साथ दसवीं में एक लड़की पढ़ती थी नाज़िमा, वह मुझे छेड़ा करती थी। मैं उन दिनों खासा सीधा सादा सा लड़का हुआ करता था। वह आते जाते मुझ पर फ़िकरे कसा करती थी। एक बार मैं प्रिंसिपल के कमरे में जा खड़ा हुआ, “सर नाज़िमा मुझे छेड़ती है। रिमार्क्स पास करती रहती है।” मेरी रोंदू सी आवाज़ सुन कर प्रिंसिपल ने ज़ोर का ठहाका लगाया, “अबे छेड़ती है तो छिड़। मर्द का बच्चा बन। आजके बाद ऐसी शिकायत ले कर आया तो मुर्गा बना दूंगा। समझे! ” अपनी लन्दन जा कर लिखने वाली कहानियों में मेरी कहानी ‘टेलिफ़ोन लाईन’ की मुख्य पात्रा मेरी इसी स्कूली मित्र नाज़िमा के चरित्र पर आधारित है।

मेरे बाऊजी सिगरेट बहुत पीते थे। दिन भर में साठ से सत्तर सिगरेट और वह भी फ़िल्टर के बिना, सादी सिगरेट। लाल रंग का पैकेट होता था। नाम शायद वर चक्र या वीर चक्र हुआ करता था। हमारे घर में एक सौ पैकेट का बंडल आया करता था। 1967 की मुझे एक घटना याद आती है। बाऊजी ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और कहा, “काका, तूं हुण पंद्रह सालां दा हो गया हैं। ऐहो उमर होंदी है जदों बच्चा सिगरेट पीनी शुरू करदा है। मेरे तों ज़्यादा कोई नहीं जाणदा कि सिगरेट किन्नी बुरी चीज़ है। काका, अज तों मैं सिगरेट पीणी छोड़ रिहा हां, ताकि तैनूं सिगरेट पीण तो रोक सकां।” बाऊजी की बात दिल पर कुछ ऐसा असर कर गई कि मैंने जीवन में कभी सिगरेट का स्वाद नहीं चखा।

बाऊजी का तबादला वापिस दिल्ली हो गया। अब स्थिति ख़ासी अजीबो-ग़रीब थी. रेल्वे अधिकारियों का कहना था कि आप शोघी (शिमला) वाला घर खाली करिये ताकि आपको दिल्ली में घर अल्रॉट किया जा सके। और बाऊजी का कहना था कि आप मुझे घर अलाट करें तो मैं शोघी वाला घर खाली करूं। इसी उहापोह में क़रीब 6 से 7 महीने गुज़र गये। इस दौरान बाऊजी ने अपने किसी मित्र के घर एक कमरा किराए पर ले लिया। उसी कमरे में मैं, बड़ी बहन, छोटी बहन, मां और बाऊजी सभी रहते थे। उसी कमरे के एक कोने में मां खाना बनाती थी। वहीं सोते भी थे। गरमी के दिनों में तो बाहर सहन में सोने से समस्या सुलझ जाती किन्तु जैसे ही थोड़ी ठण्ड बढ़ी तो पांचों लोग एक ही कमरे में सोने को बाध्य। शोघी वाले घर का किराया रेल्वे बाऊजी की पगार में से काट रही थी और यहां मालिक मकान को किराया देना होता। रात को सवा नौ बजे पढ़ने का समय होता और वही समय होता हमारी मकान मालकिन का रेडियो पर हवा महल और बाद में पुराने गाने सुनने का। अभी घरों में टेलिविज़न आम बात नहीं थी। पूरी कालोनी में बस एक या दो टीवी ही सुनाई देते थे। जब मकान मालकिन हवा महल का नाटक और पुराने फ़िल्मी गीत सुनती, मैं रोशनारा बाग़ की स्ट्रीट लाईट के नीचे बैठ कर पढ़ाई करता। यानि कि मेरी ज़िन्दगी में भी वे रोमांटिक पल गुज़रे जो कि हिन्दी सिनेमा के नायक के साथ गुज़रते हैं। बस फर्क़ इतना ही था कि मेरे जीवन पर कभी कोई फ़िल्म नहीं बनी।

ग्यारहवीं पास करने का बाद मैंने स्वयं यह निर्णय लिया कि आगे पढ़ाई नहीं करूंगा। पहले नौकरी फिर पढ़ाई। इसलिये आई.टी.आई. निज़ामुद्दीन में स्टेनोग्राफ़ी में दाखिला ले लिया। हमारे यहां दो तरह के वज़ीफ़े मिला करते थे। एक ग़रीबी का और एक क्लास में अव्वल आने का। मन ही मन फ़ैसला कर लिया कि यह 10 रुपये महीने का वज़ीफ़ा मुझे ही जीतना है। यानि कि साल भर के पूरे एक सौ बीस रुपये। क्लास में आम तौर पर प्रथम मैं ही आता था और मेरे बाद थी तीन लड़कियां। उनके नामों में भी गडबड़ हो जाती थी - एक सुनीता चावला, दूसरी निर्मल टण्डन और तीसरी निर्मल चावला। इन्हीं में से एक से बात करते हुए महसूस हुआ कि मैं बड़ा हो गया हूं। क्योंकि उससे बात करते समय कुछ कुछ होता था। अभी डिप्लोमा पूरा होने में 2 महीने का समय बाक़ी था कि मुझे अपनी पहली नौकरी भी मिल गई। राजश्री पिक्चर्स, चान्दनी चौक में स्टेनो टाइपिस्ट - पगार रू. 200 मात्र। मेरे आई.टी.आई. के प्रशिक्षकों - ओमर अफ़जल ख़ान एवं डी.पी. वाधवा ने एक प्रस्ताव रखा कि मैं पढ़ाई तो पार्ट-टाइम क्लास में करूं, लेकिन मुझे हाज़िरी फ़ुल-टाइम की दी जाएगी। मेरे लिये तो यह जैसे आकाश से आशीर्वाद की वर्षा थी। मेरा साइकलिंग अभियान शुरू हो गया - किशन गंज से चांदनी चौक तक साइकिल पर, शाम को वहां से निज़ामुद्दीन साइकिल पर, रात को निज़ामुद्दीन से किशन गंज वापिस साइकिल पर। यह साइकलिंग का जो दौर शुरू हुआ तो मेरे एम.ए. पूरा करने तक चलता ही रहा। उस नौकरी की एक ही बात है जो भूले नहीं भुलाई जा सकती, मेरे बॉस का कहना, “मिस्टर शर्मा आपके टाइपराइटर की आवाज़ नहीं आ रही, इसका मतलब है कि आपके पास काम नहीं है। आइये और डिक्टेशन ले लीजिये।”

जब मैं मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि मेरे व्यक्तित्व के विकास में चार महिलाओं और दो पुरुषों का बहुत महत्वपूर्ण हाथ है। पहली महिला है मेरी मां। मेरी मां ने मुझे सिखाया है कि अभावों में भी चेहरे पर कैसे मुस्कुराहट क़ायम रखी जा सकती है। कम से कम रिसोर्सों र्से भी कैसे बेहतरीन नतीजे हासिल किये जा सकते हैं। मेरे पास दो ही कमीज़ें होती थीं और दो ही निक्करें। किन्तु मैं क्लास का सबसे साफ़ सुथरा बच्चा कहलाता था। क्योंकि मेरे कपड़े रोज़ धुले और इस्त्री किये होते। क्लास के लड़के मुझे किसी बहुत अमीर घर का बच्चा समझते थे। मां स्वयं कुछ खाये या न खाये, मेरे लिये घर की बेस्ट चीज़ें बचा कर रखती थी। और जब बाऊजी से मार पड़ती थी तो वह आधे से अधिक मार अपनी पीठ पर ले लेती थी।

दूसरी महिला थी मेरी हरजीत दीदी। दरअसल उससे मेरा कोई सग़ा रिश्ता नहीं था। वह मेरे दोस्त हरदीप की बहन थी। हरदीप और मैं पांचवी कक्षा में इकट्ठे पढ़ते थे। हरजीत दीदी हम दोनों से चार चार साल बड़ी थीं। जब बैंक ऑॅफ़ इंडिया में नौकरी लगने के पश्चात मैंने बी.कॉम में दाखिला लिया तो दीदी ने ही मुझे इंग्लिश ऑॅनर्स की पढ़ाई करने को प्रेरित किया। उनका मेरे प्रति स्नेह देख कर उनके भाई तक को जलन होने लगती थी। उनके व्यक्तित्व की ख़ासियत यह थी कि उन्हें मेरे घर के सभी सदस्य दीदी कह कर ही बुलाते थे। इसमें मेरी मां और बाऊजी भी शामिल थे। मैंने अपनी पहली लिखी अंग्रेज़ी की पुस्तक उन्हें ही समर्पित की थी। मेरी कहानी ‘मुट्ठी भर रोशनी’ की नायिका सीमा का व्यक्तित्व काफ़ी हद तक दीदी पर आधारित था।

मेरे अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने से जिस व्यक्ति को सबसे अधिक दुःख हुआ, वे थे ईश्वर स्वरूप भटनागर। भटनागर साहब ने मुझे शिमला से दिल्ली ला कर एक वर्ष अपने साथ रखा था। वे एक तलाक़शुदा व्यक्ति थे जो अपने एक छोटे भाई एवं 2 बहनों एवं माता पिता के साथ हैमिल्टन रोड कश्मीरी गेट में रहते थे। उनकी एक बहन अपने पति का घर छोड़ कर वहां आ बैठी थी। उस बहन को मेरा वहां रहना बहुत अखरता था। भ्रटनागर साहब ने एक बार बाऊजी को पत्र लिखा था - भाई साहब, जब मैं काके को सुबह बस्ता उठा कर स्कूल जाते देखता हूं तो आपके प्रति मन से धन्यवाद निकलता है कि आपने मुझे औलाद का सुख महसूस करने का मौका दिया है। भ्रटनागर साहब मेरी दो कहानियों के नायक बने - ‘दंश’ एवं ‘रिश्ते’। मेरी हिन्दी फ़िल्मों में रुचि एवं समझ का लगभग पूरा का पूरा श्रेय भटनागर साहब को ही जाता है। मैनें उनके साथ सुबह के शोज़ में जगत, मिनर्वा, कुमार और मोती सिनेमा में 1940 व 1950 के दशक की बहुत सी ब्लैक एण्ड व्हाइट फ़िल्में देखीं। वे हमेशा मुझे वकील बनाना चाहते थे। मेरे साहित्य प्रेम ने उन्हें बहुत निराश किया था। दरअसल वे स्वयं अपने घर के हालात के कारण वक़ालत नहीं कर पाए थे। अपने अधूरे सपने मुझमें पूरे होते देखना चाहते थे। मगर........

इंदु जब मेरे जीवन में आई, उस समय मैं लड़कियों में खासा लोकप्रिय था। यूनिवर्सिटी की कुछ लड़कियां तो मुझे लेकर आपस में लड़ भी लेती थीं। इंदु को देख कर लगा कि बस मेरे जीवन की नैया के लिये यही साथी सही साथी है। सादी, सुन्दर और समझदार - यह थी इंदु। हम दोनों ने जात पांत की दीवार लांघ कर शादी की थी। इंदु के दिमाग़ का फ़ोकस बिलकुल क्लीयर था। उसे घर शब्द के सही मायने मालूम थे। उसने मुझे तराशा, संवारा और हिन्दी का कहानीकार बनाने के साथ साथ एक बेहतर इन्सान बनाया। इंदु जैसे लोग दुनिया में विरले ही पैदा होते हैं जिनकी ख़ूबियां गिनाते गिनाते पन्नों पर पन्ने भरे जा सकते हैं। हम दोनों ने अपने जीवन का संघर्ष मुंबई में इकट्ठे शुरू किया था। एक एक चीज़ पैसे जोड़ जोड़ कर ख़रीदी थी। वह उधार से चीज़ें ख़रीदने में विश्वास नहीं रखती थी। क्रेडिट कार्ड के विरुद्ध थी वह। मुझे उसने दीप्ति और मयंक जैसे प्यारे बच्चे दिये। मेरी कहानियों की पहली पाठक वही होती थी। मुझे भाषा के तौर पर हिन्दी का अधिक ज्ञान नहीं था। इंदु मेरी कहानियों की भाषा भी सुधारती और थीम की प्रस्तुति में भी सहायता करती। जब मेरा दूसरा कहानी संग्रह ढिबरी टाइट प्रकाशित हुआ तो इंदु मुंबई के नानावटी अस्पताल में दाख़िल थी। उस किताब का समर्पण कुछ यूं लिखा था - इंदु के लिये, जो मेरी पत्नी होने के बावजूद मेरी मित्र है। मुझे लगता है कि यह एक पंक्ति इंदु के पूरे वजूद को समझने के लिये बहुत आवश्यक है। इंदु की बीमारी के दौरान बहुत से ऐसे अनुभव हुए जो मेरी भिन्न भिन्न कहानियों में देखे जा सकते हैं। इंदु के व्यक्तित्व के अलग अलग पहलू ‘कैंसर’, ‘अपराध बोध का प्रेत’, ‘ईंटों का जंगल’, ‘भंवर’, ‘रेत का घरोंदा’, ‘पासपोर्ट का रंग’ आदि कहानियों में महसूस किये जा सकते हैं। इंदु के साथ मुझे ब्रिटेन, अमरीका, सिंगापुर, ऑॅस्ट्रेलिया, मॉरीशस, हाँगकाँग, टोकियो आदि स्थानों पर जाने का मौक़ा मिला। बच्चों का जन्मदिन मनाने का उसका अपना तरीक़ा था। ग्यारह किलो चावल और ग्यारह किलो अरहर की दाल के ग्यारह पैकेट बनवा कर ग़रीबों में बांट देती थी। यह ग्यारह कभी इक्कीस भी हो जाता मगर तरीक़ा यही रहता। उसका कहना था कि जो लोग पहले से ही गैस और अपच के मारे हों उनको दावत देने का क्या फ़ायदा। दावत तो उनकी होनी चाहिये जो सुबह उठें तो उन्हें पता न हो कि रात का खाना मिलेगा या नहीं। इंदु हमें 1995 में छोड़ कर गईं और उसी वर्ष से इंदु शर्मा कथा सम्मान की शुरूआत हुई। जब इंदु की मृत्यु हुई उसका सिर मेरी गोद में था। उल्टी सांसें क्या होती हैं, मैंने देखा और महसूस किया।

मुंबई में जब मेरी बेटी दीप्ति का जन्म हुआ था तो ज़िन्दगी ने एक नया अनुभव दिया था। उस मांस की सचमुच की गुड़िया ने जैसे मुझे दीवाना बना दिया था। मैं पागलों की हद तक प्यार करता था उससे। उसकी कोई भी इच्छा पूरी करना जैसे मेरा पहला कर्तव्य होता था। उसके पैदा होने से चार वर्ष तक के सारे रिकॉर्ड हमने जोड़ कर रखे - कब पहला शब्द बोला, कब पहला कदम चली, कब पहला दांत निकला, कब पहली दाढ़ निकली इत्यादि इत्यादि। जब मयंक - मेरा पुत्र पैदा होने वाला था तो मैंने इन्दु से कहा था, “इन्दु मैं दीप्ति को इतना प्यार करता हूं, भला होने वाले बच्चे के साथ मैं कैसे न्याय कर पाऊंगा? मुझे नहीं लगता कि मैं किसी और को प्यार भी कर सकता हूं! ” इंदु ने हमेशा की तरह परिपक्व अंदाज़ में कहा था, “आने वाला बच्चा ख़ुद ही आपसे अपना प्यार ले लेगा।” और ठीक यही हुआ भी। जब इन्दु गईं तो दीप्ति सोलहवें वर्ष में थी और मयंक ग्यारहवें।

बाऊजी इंदु से दो वर्ष पूर्व 1993 में हमें छोड़ गये थे। बाऊजी को दिल की बीमारी थी। दिल के मसल कमज़ोर हो गये थे। डा. पुरी का कहना था कि बाऊजी की बीमारी को कार्डियोमायोपैथी कहते हैं। मुझ से जुड़े दो सबसे करीबी लोगों को सबसे भयंकर बीमारियां थीं। एक को कैंसर और दूसरे को दिल की बीमारी। बाऊजी से बहुत सी चीज़ें विरासत में मिली थीं। एक सच बोलना; बेख़ौफ़ सच बोलना; सच बोल कर नुक़सान उठाना; ईमानदारी का बोझ सिर पर उठाए रखना; साहित्य रचना करना; और हर काम को मेहनत से करना। बाऊजी से जो नहीं सीख पाया वह था हाथ का काम। बाऊजी साइकिल, रेडियो और घर की कोई भी चीज़ ठीक कर लेते थे। उन्होंने अपनी बीमारी के दौरान भी अपने नये बनाए कमरे के लिये एक दरवाज़ा ख़ुद बनाया। जो काम मेरे बाऊजी नहीं करते थे वह मैं कर लेता था - जैसे घर के छोटे छोटे काम - खाना बनाना, बरतन साफ़ कर लेना, सफ़ाई कर लेना। बाऊजी बहुत ग़ुस्से वाले थे। शायद उस ज़माने के पिता ऐसे ही होते होंगे। मैंने बचपन में बहुत मार खाई उनसे। मगर वही बाऊजी अपनी अप्रोच में बिल्कुल मॉडर्न थे। उन्होंने ख़ुद ही बताया था कि उनको एक अंग्रेज़ औरत से इश्क हो गया था। किन्तु अपने पिता को उस रिश्ते के लिये नहीं मना पाए। अंततः मेरी मां से ही शादी हो गई। जिस दिन बाऊजी और मां की शादी थी उसी शाम महात्मा गांधी की हत्या हो गई।

जिस व्यक्ति का प्रभाव मेरे व्यक्तित्व पर बाद के दिनों में पड़ा वे हैं लन्दन के कॉलिंडेल क्षेत्र की काउंसलर श्रीमती ज़कीया ज़ुबैरी। उम्र में मुझ से एक दशक बड़ी, ज़कीया जी ने मुझे कमिटमेंट की नई परिभाषा सिखाई। उनका कथा यू.के. का काम के प्रति जो लगाव है उसे आम आदमी समझ नहीं पाएगा। ब्रिटेन में हिन्दी और उर्दू भाषाओं के बीच की दूरी कम करने में जुटी हैं ज़कीया जी। उनका मानना है कि ऐसा कोई काम है ही नहीं जो हम नहीं कर सकते। पैसे की समस्या कभी किसी अच्छे काम को होने से नहीं रोक सकती। ज़कीया जी के माध्यम से मेरे लेखन को उर्दू के पाठकों तक पहुंचने का ज़रिया मिला। मेरी तेरह कहानियों को उर्दू में अनूदित करवा कर उन्होंने पुस्तकाकार में प्रकाशित करवाया। फिर मेरी सोलह कहानियों का ऑॅडियो सी.डी. बनवाया। इंदु शर्मा कथा सम्मान के आयोजन के साथ पूरी तरह से जुड़ गई हैं। वे मेरी बेटी दीप्ति की गार्जियन एंजिल भी बन गई हैं। दोनों में बेपनाह विश्वास एवं मुहब्बत है। ज़कीया जी के माध्यम से मुझे लंदन में बसे मुस्लिम एवं पाकिस्तानी समाज के साथ मेलजोल बढ़ाने का अवसर मिला। मैंने उनके पति की जीवनी अंग्रेज़ी में लिखी जो कि ब्लैक एण्ड व्हाइट के नाम से प्रकाशित हुई। ज़कीया जी की दुनियां से हुए परिचय ने ही ‘एक बार फिर होली’, ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’, ‘तरकीब’, ‘होमलेस’, जैसी कहानियां लिखने की प्रेरणा दी। आम तौर पर हिन्दी लेखक मुस्लिम थीम पर क़लम उठाने से डरते हैं। किन्तु ज़कीया जी ने यह भी सिखाया कि जिस काम का फ़ैसला कर लिया, उसे पूरा करके ही दम लो।

इंदु की मृत्यु के बाद मैंने घर के हालात के मद्देनज़र नैना जी से विवाह किया। दीप्ति और मयंक को इंदु जी मेरे पास छोड़ गई थीं। नैना जी का पहले विवाह से एक पुत्र है रिकी (ऋत्विक)। रिकी आजकल वारिक विश्वविद्यालय से गणित में डिग्री की पढ़ाई कर रहा है। पढाई में बहुत होशियार है। हमने प्रयास किया कि यह एक परिवार बन जाए। किन्तु हम दोनों ही इस प्रयास में विफल हो गए। कभी कभी दो अच्छे लोग मिल कर अच्छी तरह इकट्ठे नहीं रह पाते।

ब्रिटेन में बसने के बाद से मेरे लेखन में एक निश्चित बदलाव आया। मेरी कहानियों के थीम बदलने लगे। इंदु शर्मा कथा सम्मान के सिलसिले में पढ़ना भी काफ़ी पड़ा और सम्मानित कथाकारों के साथ एक संवाद भी स्थापित हुआ। ब्रिटेन की हिन्दी कविता एक दो अपवादों को छोड़ कर अभी अपनी पहचान समझने में लगी थी और कहानी लेखन तो एकदम शैशव काल में था। कविता के मुक़ाबले मेरी अपनी रुचि कथा लेखन में कहीं अधिक है। इसलिये कथा यू.के. के माध्यम से कथागोष्ठियों का आयोजन शुरू किया गया। आज कम से कम दस लेखक ऐसे हैं जिनके कहानी संग्रह या उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। मेरी अपनी कहानियों में ब्रिटेन में बसे भारतीय या फिर यहां के स्थानीय गोरे समाज का चित्रण अपनी जगह बनाने लगा।

मेरी शुरूआती कहानियां सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं। क्योंकि जीवन मे कुछ न कुछ ऐसा घटित होता रहता है जो लेखक को क़लम उठाने के लिये प्रेरित भी करता है और मजबूर भी। किन्तु उन कहानियों में भी घटना से कहीं अधिक महत्वपूर्ण रही हैं उन घटनाओं की मारक स्थितियां। फिर वह चाहे काला सागर थी या ढिबरी टाइट या फिर कड़ियां या एक ही रंग। मेरी कहानियों में एक अंडरकरंट महसूस किया जा सकता है कि आज की दुनिया में रिश्ते अर्थ से संचालित होते हैं। यह मेरी 80 और 90 की कहानियों में तो महसूस किया जा ही सकता है, आज की मेरी कहानियां भी इस थीम से अछूती नहीं हैं। कहीं अन्याय होता नहीं देख सकता। अपने आप को कमज़ोर के साथ खड़ा पाता हूं। हालांकि मानता हूं कि दर्द सबका एक सा होता है।

मुझे अपनी दो कहानियां इस मामले में बहुत प्रिय हैं कि उन कहानियों के किसी भी पात्र से मैं परिचित नहीं हूं। न ही स्थितियां मेरी देखी हुई थीं।

देह की कीमत अपनी कुछ अन्य कहानियों के साथ मेरी प्रिय कहानियों में से एक है। इस कहानी की एक विशेषता है कि मैं इस कहानी के किसी भी चरित्र के साथ परिचित नहीं हूं। लेकिन मैं तीन महीने तक एक एक किरदार के साथ रहा और उनसे बातें कीं और उनकी भाषा और मुहावरे तक से दोस्ती कर ली।

एम.ए. में मेरे एक दोस्त पढ़ा करते थे - नवराज सिंह। वह उन दिनों टोकियो में भारतीय उच्चायोग में काम कर रहे थे। टोकियो से दिल्ली फ़्लाईट पर आते हुए उनकी मुलाक़ात मुझ से हुई। उन दिनो मैं एअर इंडिया में फ़्लाइट परसर के पद पर काम कर रहा था। बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे तीन लाईन की एक घटना सुना दी, "यार की दस्सां, पिछले हफ़्ते इक अजीब जही गल्ल हो गई। ओह इक इंडियन मुण्डे दी डेथ हो गई। उसदा पैसा उसदे घर भेजणा सी। घर वालियां विच लडाई मच गई कि पैसे कौन लवेगा। बड़ी टेन्शन रही। इन्सान दा की हाल हो गया है।'

अपनी बात कह कर नवराज तो दिल्ली में उतर गया। लेकिन मेरे दिल में खलबली मचा गया। मैं उस परिवार के बारे में सोचता रहा जो अपने मृत पुत्र से अधिक उसके पैसों के बारे में चिन्तित है। उन लोगों के चेहरे मेरी आंखों के सामने बनते बिगड़ते रहे। मैंने अपने आसपास के लोगों में कुछ चेहरे ढूंढने शुरू किये जो इन चरित्रों में फ़िट होते हों। उनका बोलने का ढंग, हाव-भाव, खान-पान तक समझता रहा। इस कहानी के लिये फ़रीदाबाद के सेक्टर अट्ठारह और सेक्टर पन्द्रह का चयन भी इसी प्रक्रिया में हुआ। मुझे बहुत अच्छा लगा जब सभी चरित्र मुझसे बातें करने लगे; मेरे मित्र बनते गये।

इस कहानी की विशेषता यह रही कि घटना का मैं चश्मदीद गवाह नहीं था। घटना मेरे मित्र की थी और कल्पनाशक्ति एवं उद्देश्य मेरा। यानि कि कहानी की सामग्री मौजूद थी। बस अब उसे काग़ज़ पर उतारना बाकी था। जब मेरी जुगाली पूरी हो गई तो कहानी भी उतर आई पन्नों पर।

ठीक इसी तरह क़ब्र का मुनाफ़ा एक चुटकुले की तरह मुझे सुनाई गई कि एक पति ने अपनी पत्नी के लिये एक क़ब्र एक पॉश किस्म के क़ब्रिस्तान में बुक करवा दी। जब अगले वर्ष पत्नी का जन्मदिन आया तो पति ने मज़ाक में कहा कि तुमने पिछले जन्मदिन के तोहफ़े का तो अभी तक इस्तेमाल नहीं किया, फिर भला नया तोहफ़ा दे कर क्या करूंगा। उन्हीं दिनों मैंने एक विज्ञापन देखा जिसमें लाश के बेहतरीन मेक-अप के सामान का ज़िक्र था। मैं हैरान हुआ कि बाज़ारवाद लाश को भी बख़्शने को तैयार नहीं है और उसके मेकअप तक को व्यापार बनाने पर तुला है। फिर मैंने देखा कि एक वित्तीय संस्था से जुड़े अधिकारी किसी नये धन्धे के बारे में अपने मित्र से ज़िक्र कर रहे थे। और मैं सोच रहा था कि क़ब्र में पैर लटकाए ये लोग आराम क्यों नहीं करना चाहते। नादिरा के किरदार के लिये मुझे ज़कीया जी का व्यक्तित्व एकदम सटीक लगा। बस हो गया कहानी के लिये मसाला तैयार। कुल मिला कर एक ऐसी कहानी तैयार हुई जो कि बाज़ारवाद की कड़ी पड़ताल करती है। इस कहानी को रचना समय के संपादक हरि भटनागर ने पिछले साठ वर्षों र्की बीस बेहतरीन हिन्दी कहानियों में शामिल किया।

एक मज़ेदार बात यह है कि इन दोनों कहानियों को पढ़ने और सुनने के बाद पाठकों ने इन कहानियों की तुलना प्रेमचन्द की ‘कफ़न’ के साथ की फिर चाहे यह कहानियां लन्दन में पढ़ी गईं या फिर दिल्ली, फ़रीदाबाद, बरेली, यमुना नगर, शिमला या भोपाल में। मुझ से पूछा जाता है कि मेरे प्रिय लेखक कौन हैं। मेरा जवाब एक ही होता है कि मुझे न तो अंग्रेज़ी में और न ही हिन्दी में कोई एक लेखक पसन्द है। मुझे दरअसल रचनाएं पसन्द हैं जैसे जगदम्बा प्रसाद दीक्षित का ‘मुर्दाघर, हिमांशु जोशी का ‘कगार की आग’, पानू खोलिया का ‘सत्तर पार के शिखर’, राही मासूम रज़ा का ‘टोपी शुक्ला’, असग़र वजाहत का ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या.. ’ आदी रचनाएं मुझे पसन्द हैं। मैं आज भी मानता हूं कि यदि नरेन्द्र कोहली महाभारत पर उपन्यास लिखने के स्थान पर अपने समाज से जुड़े विषयों पर कहानियां ही लिखते तो हमें बेहतर रचनाएं पढ़ने को मिलतीं चाहे उनके बैंक बैलेंस में पैसे कम जाते। आज वे केवल पौराणिक रचनाओं को दोबारा लिखने वाले रचनाकार के रूप में कुछ ख़ास किस्म के पाठकों में लोकप्रिय हैं। उनकी ‘परिणति’ और ‘कहानी का अभाव’ कहानियां मुझे आज भी प्रभावित करती हैं। अपनी पीढ़ी के लेखकों में मुझे उदय प्रकाश की ‘तिरिछ’, स्वयं प्रकाश की ‘क्या तुमने कभी सरदार भिखारी देखा है’, अरुण प्रकाश की ‘भैया एक्सप्रेस’, हरि भटनागर की ‘सिवड़ी रोटियां’, अखिलेश, देवेन्द्र और मनोज रूपड़ा की कुछ कहानियां मुझे पसन्द हैं। युवा पीढ़ी के कहानीकारों में मुझे ऋषिकेश सुलभ, अल्पना मिश्र, मनीषा कुलश्रेष्ठ, पंखुड़ी सिन्हा, अजय नावरिया, संजय कुंदन आदि से श्रेष्ठ साहित्य की अपेक्षाएं हैं।

लेखक तेजेन्द्र शर्मा के साथ एक समस्या तो हमेशा से लगी रही। मुझे हमेशा मार्क्सवाद विरोधी व्यक्ति समझा गया। जब मुंबई में रहता था तब भी तथाकथित वामपन्थी लेखकों के कोप का भाजन बनना पड़ता। यहां तक घोषित कर दिया जाता कि तेजेन्द्र शर्मा के पास राजनीतिक दृष्टि नहीं है इसलिये उनका लेखन सशक्त नहीं हो सकता। मेरे पारिवारिक मित्र प्रो. जगदम्बा प्रसाद दीक्षित तक यही सोचते रहे। मैंने एक बार प्रश्न भी किया, “दीक्षित जी, यदि मेरा राजनीतिक दृष्टिकोण आपके दृष्टिकोण से अलग हो, तो क्या आप यह मान लेंगे कि क्योंकि मेरा एक राजनीतिक दृष्टिकोण है, इसलिये मेरा लेखन स्तरीय है? ... मैं जानता हूं कि ऐसा नहीं होगा। क्या यह तानाशाही नहीं है कि आप मुझे वामपन्थी न होने का दण्ड दे रहे हैं और मेरे लेखन को लेखन ही नहीं मान रहे? ” दरअसल मेरा विरोध हमेशा छद्म-मार्क्सवादी लेखकों के व्यवहार से रहा है, न कि मार्क्सवाद से।

यहां तक तो फिर भी ठीक था। मुश्किल तो तब हुई जब मुझे आर.एस.एस. से जुड़ा व्यक्ति घोषित कर दिया गया। मुझे आर.एस.एस. की तो उतनी भी जानकारी नहीं जितनी की मार्क्स की है। मैं तो लन्दन आने वाले अपने साहित्यकार मित्रों को मार्क्स की क़ब्र दिखाने भी ले जाता हूं, जो कि लन्दन के एक पूंजीपतियों के इलाक़े में बनी है। फिर भला यह अफ़वाह कैसे फैल गई कि मैं आर.एस.एस. समर्थक हूं या कट्टर हिन्दूवादी हूं? दरअसल हुआ यूं कि लन्दन में बसने के बाद इंदु शर्मा कथा सम्मान को अंतर्राष्ट्रीय कर दिया और पहला सम्मान चित्रा मुद्गल जी को दिया उनके उपन्यास आवां पर। उसके बाद मैं पुरवाई पत्रिका का संपादक बन गया। बस दो और दो को जोड़ कर मैं बन गया आर.एस.एस. समर्थक। मेरी कोई भी कहानी पढ़े बिना मेरे नाम को भगवे कपड़े पहना दिये गये। और मुझसे सवाल किया जाने लगा, “भाई तेजेन्द्र शर्मा, जब तुम हो भगवाधारी, तो भला असग़र वजाहत, संजीव, विभूति नारायण राय जैसे लोगों को सम्मानित कैसे करते हो? और मुख्य अतिथि के तौर पर गिरीश करनाड, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित और रवीन्द्र कालिया को कैसे बुला लेते हो? ” मुझे नहीं लगता कि मेरे लिये ऐसे सवालों के जवाब देना ज़रूरी है।

जब अपनी हिन्दी साहित्य की यात्रा के बारे में सोचता हूं तो पाता हूं कि पहले जासूसी उपन्यास पढ़े। फिर डा. धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता। यह उपन्यास करीब सतरह या अठारह बार तो पढ़ा ही होगा। वहां से नरेन्द्र कोहली की दीक्षा तक सफ़र तय किया। उस किताब से बहुत प्रभावित हुआ था और उसकी तुलना मिल्टन की पैराडाइज़ लॉस्ट से करते हुए अंग्रेज़ी में एक लम्बा सा पत्र लेखक को लिख डाला। क्योंकि स्कूल कॉलेज में हिन्दी न के बराबर ही पढ़ी थी। इसलिये हिन्दी के क्लासिक कवियों से परिचय नहीं हो पाया।

जब इंदु ने मुंबई में डा. देवेश ठाकुर के मार्गदर्शन में पीएच.डी शुरू की तभी मुझे हिन्दी उपन्यास से जुड़ने का अवसर मिला। मैंने हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, हिमांशु जोशी, जैनेन्द्र कुमार, राही मासूम रज़ा, मन्नू भण्डारी, आदि के उपन्यास पढ़े। कुल सौ के लगभग अवश्य पढ़े होंगे। मुझे जगदीश चन्द्र और पानू खोलिया के लेखन ने बहुत प्रभावित किया। मुझे आज भी लगता है कि जगदीश चन्द्र के लेखन का सही अवलोकन नहीं हो पाया है। शायद वे किसी गुट विशेष से नहीं जुड़े थे। उनका हर उपन्यास एक क्लासिक उपन्यास है और पंजाब के ग्रामीण जीवन की तस्वीर खींच कर रख देते हैं। पानू खोलिया का उपन्यास सत्तर पार के शिखर मुझे आज भी याद आता है।

जब पहली कहानी लिखी थी, प्रतिबिम्ब; तो इंदु उसे पढ़ कर बहुत हंसी थी। उसने कहा कि यह कैसी भाषा है। सोचते अंग्रेज़ी में हो और लिखते हिन्दी में हो। खाली ‘हैं’ लगा देने से अंग्रेज़ी हिन्दी नहीं बन जाती। उसने मुझे मूलमंत्र दिया था कि पंजाबी में सोचो और हिन्दी में लिखो। आंख मूंद कर उसकी बात का अनुसरण शुरू कर दिया। आहिस्ता आहिस्ता अंग्रेज़ी और पंजाबी हाशिये पर होती गईं और मैं सपने भी हिन्दी में देखने लगा। यह कहानी नवभारत टाइम्स के रविवारीय संस्करण में प्रकाशित हुई थी। जब सारिका और धर्मयुग में पहली कहानियां प्रकाशित हुईं तो लगने लगा कि अब लेखक बनता जा रहा हूं।

एअर इंडिया में परसर की नौकरी के कारण मेरी अधिकतर कहानियां विदेश के पांच-सितारा होटलों में लिखी गईं। ईंटों का जंगल कहानी तो हवाई जहाज़ में एक ही सिटिंग में लिखी गई। हुआ यूं कि मुझे दिल्ली से फ़्रैंकफ़र्ट सुपरन्यूमरी क्रू के रूप में जाना था। यानि कि यूनिफ़ॉर्म तो पहननी थी किन्तु विमान में काम नहीं करना था। इससे एअरलाइन को हमारे लिये वीज़ा लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। विमान में दाख़िल होने के बाद मैंने अपनी कमीज़ बदली और फ़र्स्ट क्लास की एक सीट पर बैठ कर अपना राइटिंग पैड निकाल लिया। करीब नौ घन्टे लम्बी उड़ान में तरह तरह के व्यवधान आने के बावजूद फ़्रैंकफ़र्ट पहुंचते पहुंचते मेरी कहानी का पहला ड्राफ़्ट पूरा हो चुका था। ऐसे ही बेघर आंखें कहानी लन्दन से मुंबई जाते हुए पूरी की थी। एक सिटिंग में कहानी पूरे करने के कुछ लाभ भी हैं तो कुछ दिक्कतें भी हैं। फ़ायदा तो यह होता है कि स्पाँटेनियटी और काँटीन्युइटी बनी रहती है। कमी यह हो सकती है कि कहानी को अपने आप आगे बढ़ने का मौक़ा नहीं मिलता और कहानी जैसी सोची जाती है वैसी ही लिखी भी जाती है।

‘कड़ियां’ कहानी मेरी एक ऐसी कहानी है जिसका अंत पहले लिख लिया था। क्योंकि यह मैंने स्वयं महसूस किया था। मेरे दादाजी ने मुझे दसवीं पास करने के बाद एक साइकिल ले कर देने का वादा किया था और ग्यारहवीं पास करने के बाद एक घड़ी ले कर देने का वादा भी कर दिया। किन्तु मेरा उधार उतारे बिना ही एक सड़क दुर्घटना में उनकी मौत हो गई। मैं आज भी उनको बेनेफ़िट ऑॅफ़ डाउट देता हूं कि अगर उनकी दुर्घटना में मौत न हो जाती तो शायद मेरा उधार उतार देते। किन्तु सच यही था कि मेरा उधार चुकता किये बिना ही वे दुनियां छोड़ गये थे। जब उनके अंतिम संस्कार के लिये निगम बोध घाट गया था तो कुछ महसूस किया था जो कि दिमाग़ के किसी कोने में छप सा गया था। बस एक दिन वही ख़्याल शब्दों में उतर आया और मैंने कहानी शुरू करने से पहले ही उसका अन्त लिख लिया, “पापा ने चिता का चक्कर लगाया और चिता को अग्नि दी। अब दादाजी से कभी मुलाक़ात नहीं हो पाएगी। क्या राज की सारी निराशाएं भी चिता के साथ ही जल जाएंगी? शोले ऊपर उठने लगे। एकाएक राज को लगा कि चिता में से एक साइकल निकली और शोलों के ऊपर स्थिर हो गई। कुछ ही क्षणों में साइकल का एक पहिया घड़ी बन गया और दूसरा पहिया पापा का मुंडा हुआ सिर। दोनों पहिये घूमने लगे। घड़ी मुंडा हुआ सिर, साइकिल! .... राज से देखा नहीं गया। उसने मुंह फेर लिया।”

हिन्दी साहित्य में एक प्रवर्ति जो मुझे परेशान करती है वह है दूसरे किसी के लेखन की तारीफ़ न कर पाना। यहां तारीफ़ भी यह देख कर की जाती है कि अमुक लेखक किस गुट का है। या फिर उसकी तारीफ़ करके मैं उसे कैश कैसे कर सकता हूं। हर लेखक अपने लेखन को ले कर आत्म-मुग्ध रहता है। जिस खुले दिल से मैं ब्रिटेन के कुछ लेखकों की रचनाओं की श्रेष्ठता स्वीकार करते हुए उनकी तारीफ़ कर देता हूं, मुझे हैरानी होती है कि बहुत से वरिष्ठ लेखक ऐसा नहीं कर पाते।

मुझे साहित्य में राजनीति कभी न तो समझ आई और न ही पसन्द है। राजनीति के लिये पैम्फ़लेट तो लिखे जा सकते हैं, साहित्य नहीं। जब हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो पाते हैं कि महान् साहित्य किसी राजनीतिक विचारधारा का मोहताज नहीं था। दरअसल जब हम किसी एक राजनीतिक विचारधारा के दबाव में साहित्य रचना करते हैं तो साहित्य एकरस सा होने लगता है। वरना क्या बात है कि निराला ‘राम की शक्ति पूजा’ भी लिख सकते हैं, ‘सरस्वती वंदना’ भी और उसके साथ साथ ‘...वो पत्थर तोड़ती भी?’ जबकि आज का साहित्य भ्रष्टाचार, मज़ूदर, किसान और बाज़ारवाद से ऊपर नहीं उठ पाता। शेक्सपीयर का शाइलॉक सही पूछता है कि क्या किसी यहूदी को दर्द नहीं होता जब उसे चोट लगती है? यानि कि चोट लगने पर दर्द एक सा होता है चाहे आप समाज के किसी भी वर्ग से सम्बन्ध रखते हों। हमें दर्द और समस्याओं का वर्गीकरण नहीं करना चाहिये। साहित्य की कोई सीमाएं तय नहीं करनी चाहिये। देखिये आजकल राजे रजवाड़े तो रहे नहीं। इसलिये कोई भी लेखक राजाओं की कथाएं तो नहीं ही लिखेगा। जो लिखेगा, साहित्य प्रेमी उसे माफ़ नहीं करेंगे।

विदेशों में यदि प्रवासी भारतीय अपने धर्म और कल्चर की तरफ़ ध्यान देते हैं तो यह भगवा या हरे झण्डे का चक्कर नहीं होता। यह होता है अस्मिता का सवाल। यदि हम अपने बच्चों को हिन्दी पढ़ाना चाहें, तो वह केवल मन्दिरों में ही पढ़ाई जाती है। हम उन्हें अपने धर्म के बारे में इसलिये बताते हैं ताकि वे केवल पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण ही न करते रहें। हम चाहे बम्बइया फ़िल्मों का कितना भी मज़ाक क्यों न उड़ा लें, सच तो यह है कि विदेशों में भारत की मिट्टी से जुड़े रहने में किसी भी साहित्य से कहीं अधिक योगदान इन फ़िल्मों का है। हमारा प्रयास रहता है कि घर में भी हिन्दी टेलिविज़न चैनल के माध्यम से हमारी भाषा की गूंज सुनाई देती रहे। समस्या यह भी है कि भारत के लेखक और आलोचक विदेश में बसे भारतीयों की समस्याओं से परिचित नहीं हैं और प्रवासी लेखकों को भी उसी कसौटी पर कसने का प्रयास करते हैं जिससे कि वे भारत के लेखकों को कसते हैं।

मंदिरों की विदेशों में एक सांस्कृतिक भूमिका रहती है। जैसे यदि एक कवि सम्मेलन किसी किराये के हॉल में किया जाए तो पहले तो हॉल का किराया भरना पड़ता है फिर नाश्ते पानी का ख़र्चा अलग होता है। लन्दन में दिल्ली की तरह चाय और बिस्कुट का नाश्ता दे कर काम नहीं चलता। जबकि मंदिर अपने हॉल में मुफ़्त कवि सम्मेलन करवा देता है और कवियों एवं श्रोताओं को पूरी भोजन भी करवा देता है। यह मंदिर की सकारात्मक भूमिका है। मंदिर वाले यह नहीं पूछते कि आपके कवियों या श्रोताओं में से कितने हिन्दू हैं, कितने मुसलमान या सिख।

वहीं एक महत्वपूर्ण समस्या यह भी है कि अमरीका, ब्रिटेन, युरोप या खाड़ी देशों के लेखक पहली पीढ़ी के प्रवासी हैं। अभी हमें तलाश है दूसरी या तीसरी पीढ़ी के प्रतिनिधियों की जिनका जन्म किसी पश्चिमी सभ्यता वाले देश में हुआ हो और वह हिन्दी में साहित्य रचना करे। इसलिये प्रवासी साहित्य में नॉस्टेल्जिया एक महत्वपूर्ण अंग बन गया है। पहली पीढ़ी का प्रवासी अपने नये समाज को न तो समझ ही पाता है और न ही उसका हिस्सा बन पाता है। इसलिये जहां मॉरीशस, सुरीनाम या फ़िजी के हिन्दी साहित्य में जिस शिद्दत से वे देश उभर कर आते हैं, उस तरह पश्चिमी देशों के हिन्दी साहित्य में ऐसा नहीं हो पाता। दरअसल यहां के हिन्दी लेखक ब्रिटेन और अमरीका में रह कर भी भारत का साहित्य रचते हैं। वे वहां का हिन्दी साहित्य नहीं रचते।

विदेश में बसे हिन्दी लेखक यदि प्रयास करें तो हिन्दी को एक नया मुहावरा दे सकते हैं। उन्हें अपने अपनाए हुए समाज को सच्चे अर्थों र्में अपनाना होगा। कई लेखक बस सड़क का नाम या बिल्डिंगों के रंग बता कर दिखाने का प्रयास करते हैं कि वे अमुक देश की कहानी लिख रहे हैं। दरअसल हमें उस देश के सरोकार समझने होंगे, वहां की सामाजिक स्थितियों को जानना होगा। जब यह सब हमारी कहानियों कविताओं में आएगा, तभी हम उस देश का हिन्दी साहित्य लिख रहे होंगे। होना यह चाहिये कि ब्रिटेन के हिन्दी लेखन से हमें ब्रिटेन की एक तस्वीर दिखाई दे और वहां के सरोकारों से हमारा परिचय हो।

मैंने अपनी कहानियों में तो ब्रिटेन के जीवन को दिखाने की कोशिश की ही है; अपनी कविताओं एवं ग़ज़लों में भी यह संभव करने का प्रयास किया है। मेरी प्रतिनिधि ग़ज़ल में ब्रिटेन अपने प्रवासियों को कहता है, ‘जो तुम न मानो मुझे अपना, हक़ तुम्हारा है / यहां जो आ गया इक बार, वो हमारा है। ये घर तुम्हारा है इसको न कहो बेगाना / मुझे तुम्हारा तुम्हें अब मेरा सहारा है।’ इसी तरह जब मैं अपने शहर हैरो के बदलते चरित्र को देखता हूं तो परेशान हो जाता हूं। हैरो-वासियों के बारे में कहा जाता है कि उनकी नाक ऊंची रहती है। मेरी छोटी बहर की ग़ज़ल कहती है, ‘नाक ऊंची थी शहर की मेरे / यह अचानक इसे हुआ क्या है? / बाग़ में जिसने बना डाले भवन / तय करो उसकी फिर सज़ा क्या है।’ टेम्स नदी के आसपास के माहौल को देखते हुए ज़ाहिर है कि गंगा नदी का ख़्याल आता है, ‘बाज़ार संस्कृति में नदियां नदियां ही रह जाती हैं / बनती हैं व्यापार का माध्यम, मां नहीं बन पाती हैं।’

मेरी कहानियों में संवादों का ख़ासा इस्तेमाल होता है। बहुत सी बातें मैं स्वयं न बोल कर अपने पात्रों के माध्यम से कहलवाता हूं। इसमें मेरा ‘शांति’ टेलिविज़न सीरियल लेखन बहुत काम आता है। मैं फ़िल्म या टेलिविज़न के लेखन को दोयम दर्जे का लेख नहीं मानता। मेरे लिये यह लेखन बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यही लेखन ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के साथ संवाद स्थापित करता है। मेरे शांति के एपिसोड करोड़ों दर्शकों ने देखे। वहां मैं अपने लेखन के साथ प्रयोग भी करता था। जैसे एक बार दिनेश ठाकुर ने कहा कि तेजेन्द्र भाई मेरे हर एपिसोड में कम से कम एक डॉयलॉग ऐसा लिखा करो जैसे राजकुमार टाइप - लार्जर दैन लाइफ़ - जिसे लोग याद रखें। मैं सरल भाषा में सादे संवाद भी लिखता था और बीच बीच में लार्जर दैन लाइफ़ भी।

जब टेलिविज़न सीरियल की बात आ गई है तो अपना रेडियो, टी.वी. और फ़िल्मों का अनुभव भी याद आने लगा है। रेडियो से मैं शायद 1972 में जुड़ा था - पहले युववाणी के माध्यम से और फिर एक ड्रामा वॉयस के रूप में। सत्येन्द्र शरत, दीनानाथ और कुमुद नागर (नागर जी के सुपुत्र) के साथ बहुत से रेडियो नाटक किये। फिर स्कूल टेलिविज़न दिल्ली में अंग्रेज़ी पढ़ाने के लिये कलाकार के रूप में काम किया। मुंबई आकर सीरियल लेखन और फ़िल्मों में अदाकारी का अनुभव भी हुआ। अन्नु कपूर के साथ एक फ़िल्म की थी अभय जो कि ऑॅस्कल वाइल्ड की कहानी कैंटरविल घोस्ट पर आधारित थी। फ़िल्म में मेरे पुत्र मयंक की चाइल्ड हीरो की भूमिका थी। वैसे उसमें नाना पाटेकर, मुनमुन सेन और बेंजामिन गिलानी भी थे। नाना पाटेकर को नज़दीक से देखने और समझने का मौक़ा मिला। मैं एक महीना राज पीपला में फ़िल्म के लिये रहा। इन्दु भी कुछ दिन वहां रही मगर तबीयत ख़राब होने के कारण दीप्ति के साथ वापिस मुंबई चली आई। मैंने देखा कि नाना भीतर से बहुत डरा हुआ इन्सान है। इतना बड़ा कलाकार होने के बावजूद जब उसने मेरे पांच लाइनों के डायलॉग को हथिया लिया और अनु कपूर बस बेबस देखता रह गया, तब मैंने पहली बार अनुभव किया कि फ़िल्मों में बड़ा कलाकार किस तरह मनमानी करता है। जिस तरह नाना ने स्क्रिप्ट फेंक कर ज़मीन पर मारा इससे अनुभव और भी कड़वा हो गया। इस फ़िल्म की डबिंग भी एक अलग किस्म का अनुभव था।

हम सब यह मान कर चलते हैं कि पश्चिमी देशों में सभी धनाढ्य लोग बसते हैं। आम आदमी इन देशों में भी होता है जो सप्ताह में चालीस घन्टे नौकरी करता है, शनिवार को ओवरटाइम करता है। मॉर्गेज का भुगतान करते करते उसकी कमर टूटने लगती है। उसके घर की हर चीज़ उधार ले कर ख़रीदी गई होती है। वह आम आदमी भी उतना ही परेशान है जितना कि भारतीय गांव या महानगर का आम आदमी। मेरी कहानियों में ब्रिटेन के आम आदमी के दर्शन होते हैं।

इंदु शर्मा कथा सम्मान के लंदन आने के बाद मेरे अनुभव क्षेत्र में बहुत बढ़ोत्तरी हुई। मुझे यहां के भारतीय उच्चायोग से बहुत सहयोग मिला। श्री पी.सी. हलदर, श्री राजतवा बाग़ची, डा. गिरीश करनाड, श्री पवन के वर्मा, श्री आसिफ़ इब्राहिम, मोनिका मोहता, अनिल शर्मा, राकेश दुबे एवं आनन्द कुमार का साथ हमारे सम्मान को ब्रिटेन में स्थापित करने में खासा सहायक सिद्ध हुआ है। राकेश दुबे के माध्यम से लॉर्ड तरसेम किंग ने हिन्दी के इस अकेले अंतर्राष्ट्रीय सम्मान को हाउस ऑॅफ़ लॉर्ड में प्रतिष्ठित कर दिया और इसमें हैरो से ब्रिटेन के गृह राज्य मंत्री टोनी मैक्नल्टी का संरक्षण भी मिला। एअर इंडिया के साथ साथ भारतीय वित्तीय संस्थाएं स्टेट बैंक, बैंक ऑॅफ़ इंडिया, बैंक ऑॅफ़ बड़ोदा, भारतीय जीवन बीमा निगम, एवं इंडिया टूरिज़्म आदि हमारे काम में हमारे साथ आ खड़े हुए। हमने इस काम में अपने इलाक़े के हलवाई, नाई एवं मन्दिर तक से सहयोग लिया। हम अपने सम्मान के साथ यहां के आम आदमी को जोड़ना चाहते थे। ज़कीया ज़ुबैरी जी के माध्यम से हबीब बैंक ज़्यूरिख़ भी हमारे कदम से कदम मिला कर चलने लगा है।

कथा सम्मान के मुंबई से लन्दन आ जाने के बाद मुझे सूरज प्रकाश एवं मधु भाभी के वजूद का अहसास बहुत शिद्दत से हुआ। दोनों ने पूरे कमिटमेंट के साथ कथा यू.के. के भारतीय फ़्रन्ट को संभाला हुआ है। दोनों बिना किसी स्वार्थ के शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से इस महायज्ञ के साथ जुड़े हैं। गीतांजलि बहुभाषीय समाज एवं डा. कृष्ण कुमार का सहयोग पिछले नौ वर्षों से लगातार मिलता रहा है। वर्ष 2008 से वरिष्ठ पत्रकार श्री अजित राय ने कथा सम्मान के साथ जुड़ कर इसे पूरे भारत में नये सिरे से स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। अजित राय ने केवल इतना ही नहीं किया। उन्होंने मेरे लिखे साहित्य को लंदन में रह कर पढ़ा और उसे नये सिरे से भारत के आलोचकों, साहित्यकारों एवं नाटककर्मियों को भी पढ़ने पर मजबूर किया।

इंदु शर्मा कथा सम्मान की स्थापना भी विशेष हालात में हुई। मैं जगदम्बा प्रसाद दीक्षित को लेकर डा. धर्मवीर भारती के घर गया था। इससे पहले यह दोनों वरिष्ठ जन कभी एक दूसरे से नहीं मिले थे। वहीं पंद्रह मिनट की बातचीत के दौरान डा. भारती ने सम्मान की राशि ग्यारह हजार रुपये एवं कथा सम्मान का नाम एवं चालीस वर्ष की आयु-सीमा भी तय कर दी। वे मान भी गये कि पहला इंदु शर्मा कथा सम्मान वे स्वयं कार्यक्रम में उपस्थित हो कर देंगे। पूरे मुंबई में सब जानते थे कि भारती जी किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेते ही नहीं। किन्तु वे आये, गीतांजलिश्री को सम्मानित किया और क़रीब चालीस मिनट तक धाराप्रवाह बोले। मुंबई के साहित्य-प्रेमियों के लिये यह एक नया अनुभव था। कार्यक्रम ठीक समय पर शुरू हुआ और ठीक ही समय पर ख़त्म भी हो गया। हिन्दी जगत के लिये यह भी एक नया अनुभव था । कुछ लोग तो कार्यक्रम के समाप्त होते होते पहुंचे। मुंबई में हमारे मुख्य-अतिथियों एवं अध्यक्षों की सूची देख कर सम्मान की प्रतिष्ठा का अंदाज़ हो सकता है। उनमें भारती जी के अतिरिक्त ये नाम शामिल थे कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मनोहर श्याम जोशी, ज्ञान रंजन, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, कन्हैया लाल नंदन, गोविन्द मिश्र, कामतानाथ।

कभी कभी ख़ुशियां अचानक कहीं से चली आती हैं। उस ख़ुशी का मज़ा भी कुछ अलग ही होता है। मुझे याद पड़ता है कि भारतीय उच्चायोग, लन्दन में कार्यरत मेरे एक मित्र थे विकास स्वरूप। उन दिनों लन्दन में टीवी पर एक प्रोग्राम आता था - हू वुड बी ए मिलियनेयर। जिसमें एक मेजर को खांसी के माध्यम से सवाल का जवाब देने में सहायता करने का आरोप लगा। इसी थीम को लेकर विकास के दिल में अंग्रेज़ी में एक उपन्यास लिखने की योजना बनी। विकास ने उस थीम के बारे में मुझसे बातचीत की। कई बार हमारी उस मैन्युस्क्रिप्ट को ले कर बातचीत होती रही। मुझे याद पड़ता है कि मैंने विकास को कहा था, “विकास जी, जो उपन्यास आप लिख रहे हैं, इसमें बेस्टसैलर होने की सभी ख़ूबियां हैं। आप इसे साहित्य समझने के चक्कर में मत पड़ियेगा। यह उपन्यास आपको शीर्ष के पाप्युलर लेखकों की कतार में ला खड़ा करेगा।” बातें चलती रहीं और एक दिन विकास का उपन्यास क्यू अण्ड ए के नाम से प्रकाशित हो गया और लन्दन के नेहरू केन्द्र में उसका विमोचन भी हुआ। मुझे याद आया कि उससे एक साल पहले विकास ने इंदु शर्मा कथा सम्मान में सक्रिय भाग लिया था। और मैंने उसे कहा था कि लो भाई अब तो हिन्दी के मंच पर तुम्हारा विमोचन हो गया। जब उपन्यास को मैंने खोल कर देखा तो पाया कि विकास ने उस उपन्यास के लेखन में सहायता के लिये मुझे भी धन्यवाद कहा था। आज वही उपन्यास जब दुनियां की बेहतरीन फ़िल्म स्लमडॉग मिलिनेयर के नाम से पुरस्कार पर पुरस्कार जीत रही है, मुझे यह सोच कर अच्छा लगता है कि इस उपन्यास के लेखन के साथ किसी न किसी रूप में मैं भी जुड़ा था।

यह थोड़ी अजब सी स्थिति है कि मैं कथा सम्मान प्राप्त साहित्यकारों में से केवल दो एक से ही समारोह के बाद भारत में मिल पाया हूं। भाई असग़र वजाहत से ज़रूर अच्छी मित्रता हो गई है। होता कुछ यूं है कि मैं अधिकतर सम्मानित साहित्यकारों से पहली बार लंदन के हवाई अड्डे पर ही मिलता हूं। और यहां लन्दन में सूरज प्रकाश उनकी देखभाल करते हैं। मेरे साथ उनका कोई ख़ास जुड़ाव हो ही नहीं पाता। कभी कभार किसी समारोह में मुलाक़ात हो जाती है। वर्ष 2008 में जब इंडिया इंटरनेशनल सेन्टर में मेरा कहानी पाठ था, तो शायद पहली बार ऐसा हुआ कि नासिरा शर्मा, असग़र वजाहत और प्रमोद कुमार तिवारी इकट्ठे उस कार्यक्रम में मौजूद थे। हरनोट साहब की सादग़ी हमेशा उनकी ईमेल के माध्यम से मुझ तक पहुंचती रहती है।

यह सच है कि जब कभी एक लेखक के तौर पर हमारे काम को पहचान मिलती है तो उसका सुख अलग ही होता है। मैं उन लेखकों में से नहीं हूं जो कहते हैं कि मैं स्वांतः सुखाय लिखता हूं। मैं चाहता हूं कि मेरा लिखा एक एक शब्द प्रकाशित हो, उसे लोग पढ़ें और उस पर प्रतिक्रिया भी दें। मेरा लिखा विद्यार्थी स्कूलों में पढ़ें, कॉलेज में पढ़ें। मैं सम्मानों के बारे में यह नहीं कहता कि फलां सम्मान मिलने से मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे एक आम पाठक का पत्र भी अच्छा लगता है; एक साथी लेखक की प्रतिक्रिया या सुझाव भी अच्छा लगता है; किसी वरिष्ठ लेखक या आलोचक की शाबाशी भी अच्छी लगती है। मेरे निकट लेखन केवल अपने भीतर का सत्य खोजने का नाम नहीं है। मेरे लिए लेखन का अर्थ है अपने पाठक के साथ संवाद स्थापित करना।

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रचनाकार: तेजेन्द्र शर्मा विशेष : मैं और मेरा समय
तेजेन्द्र शर्मा विशेष : मैं और मेरा समय
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