संजीव शर्मा की कविताएँ

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आह्वान बादल आ धरती पर तोड़-फोड़ कर डालें दूषित तन प्रदूषित इच्छा सबके हृदय उछालें बादल आ धरती पर तोड़-फोड़ कर डालें, तुम बरसो कड़काओ झंझा आग ल...


आह्वान

बादल आ धरती पर

तोड़-फोड़ कर डालें

दूषित तन प्रदूषित इच्छा

सबके हृदय उछालें

बादल आ धरती पर

तोड़-फोड़ कर डालें,

तुम बरसो कड़काओ झंझा

आग लगा दो सारे जग को

पेड़ उखाड़ो, छतें उड़ा दो

मैं तोड़ूं नदी-नाले

बादल आ धरती पर

तोड़-फोड़ कर डालें,

कुंठित मन है काँपते पर्वत

धरती पर है मद का आतंक

क्षीण हुये निस्वार्थ के कब्जे

द्वार टूटते मैं से डरकर

पथ हैं सूने दिशा अंधेरी

क्रंदन करता पत्थर-पत्थर

पीड़ित उठ विश्वास पलट दे

रक्त से भर दे प्याले

बादल आ धरती पर

तोड़-फोड़ कर डालें,

नर है नराधम, नारी निर्व्रत

पुण्य पाप में हुआ अनवरत

सत् का सम्भ्रम दूर हो गया

शेष रह गया शोषित का मन

रचकर दंगे की रचना को

अब विनाश अपना लें

बादल आ धरती पर

तोड़-फोड़ कर डालें,

सुरभित संध्या हो गई कलुषित

प्राण हो गया निर्बल-निश्चल

भूख हो गई घर-घर स्थित

कंचन काया हो गई विकृत

नंगे पेड़ हैं खोखले रिश्ते

सूने रस्ते उजड़े से मन

हिंस्र-हिंस्रतर हो गये बंधन

आ, धरती के तन पर उभरे

फोड़ दें अब सब छाले

बादल आ धरती पर

तोड़-फोड़ कर डालें,

सत्य मरा निर्वासित होकर

गति रूक गई बाधित होकर

अंधकार ने करी तपस्या

और छीनकर प्राण पथिक के

फैलाया दुर्भेद अंधेरा

नहीं मिटा पाएंगे वैभव इनका

चाहे छलनी कर लें छाती

व्यर्थ होंगी सब सत्य की चालें

बादल आ धरती पर

तोड़-फोड़ कर डालें,

हम भी नहीं समर्थ कि सारी

कालिख अपने अंग पोत लें

इतनी भी सामर्थ्य नहीं कि

चुटकी भी भर पायें बल को

ये अभेद, अजेय, अमिट हैं

पराधीन न इनकी नियति

ये हैं दुर्भिक्षों के यार

मुक्ति है इनसे, संहार

हम दोनो नियति-सार मिटाकर

मन के डर आ आज निकालें

बादल आ धरती पर

तोड़-फोड़ कर डालें ।

 

सड़क पर पड़े लोग

दाग जो लग गया सीने पे मिटा लो उसको

मौका है गिर गया जो फिर से उठा लो उसको

मर्ज है इनका गरीबी नहीं है दवा कोई

गम है रक्तिम उस कहर से बचा लो इनको

मौत के पास चला आया भटककर साइल १ भिखारी

खिज्र दो रास्ता अपना सा बना लो उसको २ पैगम्बर

गर्द में लिपटे जमींदोज इंसानों की हालत ३ नष्ट

देखकर कहता है दिल याँ से निकालो इनको

मैं हूँ मज़बूर मेरे हाथ भी हो गए पंगु

हश्र के हाथ मिटे हैं कोई हंसा लो इनको ४ क़यामत

खुशबुएँ आज भी मिल जायेंगीं बीमार-बेज़ार

कैद से बेबसी की कोई निकालो इनको

अश्र भी रोता है चीखती है बिजलियाँ भी ५ बादल

सौदा है जान का कोई तो संभालो इनको

मांगते-मांगते दो घूँट ये फ़ना हो गए है

आग है इनके दिलों में भी जला लो उसको

चाहे तो रौंद दो चाहे बनाओ मोहरे-बिसात ६ शतरंज

और गर चाहो तो माथे से लगा लो इनको

दर्द होता है इन्हें भी होते हैं ये भी दुखी

थाम लो हाथ मरे से हैं जिला लो इनको .

--

नयी सुबह

यूं न मायूस हो

न राह देख मृत्यु की

बन के किस्मत

जो अँधेरा खड़ा है

दीये की रौशनी ही

बनकर उश्शाक

आखिर उसे मिटाएगी

उस तरफ देख

नई सुबह बांह फैलाये

फिर चली आई है

तुझे गले लगाने को

रात जो बाकी है

वो भी गुजर जाएगी

अब यूं न मायूस हो

और सजा नए सपने

नई सुबह तुझे भी जगमगाएगी

फूल-कलियाँ तुम्हारी बांहों में

ओस की बूँदें

स्वागत में बिछी जाएँगी

रश्मियाँ छोड़कर अपने

पिता के आँचल को

तुम्हारे गालों को

छू-छूकर खिलखिलायेंगी

रात बीतेगी तो

होगा सवेरा खुशियों का

और दिन गायेगा फिर से

ख़ुशी के गीतों को .

 

बचपन

सोचते हैं अब बच्चे

हम युवा न हों

है भला बचपन हमारा

निर्द्वंध हैं निर्बंध हैं

ग्लानियों के कुंठाओं के

रौंदे नहीं हैं

खेलते हैं मस्त हैं

झूमते हैं

त्रस्त नहीं हैं

भय सहमकर दूर हैं

हमें बचपन भला.

 

बेकाम

अस्तित्वहीन अज़नबी

अनछुए अनजाने हम

कर नहीं पाए तपस्या

बन नहीं पाए तपस्वी

ढोंग ने हमको

अधर में लटका दिया

काम ने हमको निकम्मा कर दिया,

मद विभूति बन

खड़ा होता था जब

तोड़कर पर्वत बना देता था घर

मद मेरे संतोष को न ठग सका

चाहे मैं बेकाम होके रह गया.

बेकामगार हम नहीं समाज है

इस व्यवस्था ने हमको छला

हम नहीं छल पाए अपने आप को

बेकामगारी लगती है अपनी मगर

ये हमारी नहीं सत्य की है

पास पैसा हुनर नहीं

नौकरी कर सकते हैं हम

या रो सकते हैं अपने आप को .

 

आजादी

उजडी हुई बस्तियों के उजाले

बिगडी हुई दास्‍तानों के इन्‍सां

अंधेरे में सिमटे मकानों की हलचल

रोते-कलपते सडक के किनारे

आजादी में देखे थे हमने जो सपने

यही अब उनमें से बाकी बचा है ।

श्रम में तपे बालकों की उदासी

सडक पर भटकते जवानों के चेहरे

दिनभर की कालिख लुटेरों की साथी

बेकारी में पनपा अँधेरे का आतंक

आजादी में देखे थे हमने जो सपने

यही अब उनमें से बाकी बचा है ।

व्‍यापारों में छल नौकरी में मक्‍कारी

धनिकों की इच्‍छा गराबों का शोषण

मेहनत के बदले में दो सूखी रोटी

कुर्सी के बदले में नोटों की गड्डी

आजादी में देखे थे हमने जो सपने

यही अब उनमें से बाकी बचा है ।

चुनावों पे वादों की लम्‍बी कतारें

गरीबों को कंबल, नशेडों को बोतल

अनोखे स्‍वप्‍न हैं दिलों को दिलासा

मगर जीतकर मद में मदहोश होना

आजादी में देखे थे हमने जो सपने

यही अब उनमें से बाकी बचा है ।

ठंड में सिमटते सडक के किनारे

बरसात में पुल के नीचे का रोना

गर्मियों में तपिश से बिलबिलाते

हँसते हैं वैभव के ऊँचे धरों पर

आजादी में देखे थे हमने जो सपने

यही अब उनमें से बाकी बचा है ।

गरीबों का पाताल में जाके धँसना

अमीरों का ऊँची बुलंदी को छूना

पश्चिम की अंधी नकल के ये मारे

दगा कर रहे हैं अपने करम से

आजादी में देखे थे हमने जो सपने

यही अब उनमें से बाकी बचा है ।

नहीं आज बाकी बची है सच्‍चाई

बीते हुये युग हुआ भाई-चारा

किताबों की बातें पडोसी से मिलना

कथाओं में कायम है मेहमानवाजी

आजादी में देखे थे हमने जो सपने

यही अब उनमें से बाकी बचा है ।

दिखाये क्‍यों तुमने हजारों के सपने

दिया क्‍यों हमें बेबसी का निकमपन

आजादी क्‍या केवल तुम्‍हारे लिये थी

हडप डाले तुमने शहीदों के सपने

आजादी में देखे थे हमने जो सपने

यही अब उनमें से बाकी बचा है ।

क्‍यों हक छीन लिया हमारी खुशी का

बनाया न धर क्‍यों हमारे लिये भी

हमारे लहू का भी है लाल ही रंग

सीने में रहता है दिल भी हमारे

आजादी में देखे थे हमने जो सपने

यही अब उनमें से बाकी बचा है ।

नफरत के पेड जो बोये थे पहले

फल लग रहे हैं अब उनपर अनोखे

टूटे या सूखे गुलिस्‍तां का माली

अपने ही .हक में हुआ है परेशां

आजादी में देखे थे हमने जो सपने

यही अब उनमें से बाकी बचा है

--

संजीव शर्मा

2750 रामनगर शाहदरा दिल्‍ली

मोबाइल नं 9868172409

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रचनाकार: संजीव शर्मा की कविताएँ
संजीव शर्मा की कविताएँ
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