सुरेश सर्वेद की कहानी - असहाय

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असहाय दादा - परदादा का समय और था। तब सौ दो सौ एकड़ जमीन हुआ करती थी। दस नौकर चाकर पलते थे। पर अब वह समय कहाँ रह गया था। एकड़ - दो एकड़ करके...

असहाय

दादा - परदादा का समय और था। तब सौ दो सौ एकड़ जमीन हुआ करती थी। दस नौकर चाकर पलते थे। पर अब वह समय कहाँ रह गया था। एकड़ - दो एकड़ करके जमीन बिकती गई और समय वह भी आया जब उनके हिस्से में मात्र दो एकड़ जमीन रह गयी। इसे खून का ही असर क्यों न कहा जाये कि दो एकड़ जमीन के मालिक होते हुए भी शिवनारायण सिंह उर्फ शिव अपने को किसी मालगुजार से कम नहीं समझता था। और समझे भी क्यों नहीं, उसके हिस्से में जो जमीन आयी थी या फिर यूं कहा जाये कि बेचने के बाद जो जमीन रह गयी थी वह उपजाऊ थी और प्रति एकड़ बीस क्विंटल धान तो हो ही जाया करता था ऊपर से मेढ़ में अरहर और धान के बाद खेत में चना तथा मसूर की फसलें हो जाया करती थी। इतना उसके परिवार के खाने पीने के लायक पर्याप्त था। खेती खुद करता था। परिवार के लोग बिदक जाते थे। फसलें बोने से मिंजाई तक उसे मजदूरों का सहारा लेना पड़ता था। लेकिन इसका उसे गम नहीं था क्योंकि परिवार में दो छोटे - छोटे बालक और एक पत्नी के साथ वह स्वयं। मजदूरी बांटने के बाद भी उसके हिस्से में उतना अन्न बच जाता जिससे उसके परिवार का गुजर बसर आराम से हो जाया करता था।

' डूमर खेत ' में बैठकर जब उसकी नजरें आसपास के खेतों में दौड़ती तो उसे अपने पूर्वजों पर क्रोध आता। विषाद उसके चेहरे पर अंकित हो जाता जिन जमीनों को वह ताकता वह जमीनें कभी उन लोगों की हुआ करती थी। पर पूर्वजों की कामचोट्टेपन के कारण दूसरों की हो चुकी थी। शिव सोचता - काश, ये जमीनें आज भी मेरी होती तो मैं अन्न उपजाकर पूरे गांव में अपना सत्ता चलाता। फिर अपने को तसल्ली देने की नीयत से मन ही मन कह उठता - अब भी मैं कहां कमजोर हूं, किसी का सुनता नहीं। जो मेरी मर्जी में आती है वही करता हूं। आज भी तो मैं रइसो से कम जीवन निर्वहन नहीं करता। शिव के मन में तो कई - कई बार यह भी बातें आयी कि साल दो साल कुछ बचत कर थोड़ी - थोड़ी खेती लेते चला जाऊंगा पर यह कहां संभव था। खेती के अतिरिक्त और भी तो कोई आय का श्रोत नहीं था। हां, उसे अपने कोमल - कोमल बालको पर विश्वास था कि वे जवानी की दहलीज पर कदम रखने के बाद उसके कदम से कदम मिलायेंगे और कुछ मिहनत कर दो चार पैसा लायेगे। उससे कुछ बचत संभव हो पायेगी।

बच्चे घूटने के बल चलने के बाद पैरों पर चलना शुरू किया। दो लड़के परम और धरम। बच्चों की प्राथमिक शिक्षा को देखकर शिव को लगा था - निश्चित उसके सपने साकार होंगे। बच्चे प्राथमिक से मिडिल स्कूल गये और मिडिल की बोर्ड परीक्षा पार करके हाइ स्कूल में दाखिल हो गये। बच्चे बढ़े, पढ़ाई के खर्चे बढ़े पर आमदनी जहां की तहां थी। फिर भी शिव ने हार नहीं मानी। उसने निश्चय कर लिया था कि बच्चों को पढ़ा लिखाकर अच्छी नौकरी में लगवा देगा। कुछ दिनों परेशानी आयेगी। फिर परेशानी खत्म हो जायेगी। बच्चे नौकरी लग कर कमायेंगे। खर्च के बाद पैसा बचेगा जिससे जमीन खरीद कर वह अपनी चाहत पूरी कर लेगा।

स्वप्न के सागर में गोते खाते वह सुखद भविष्य की कल्पना में खोया रहता मगर पुत्रों को पढ़ाई करानी थी। गांव में हाई स्कूल थी नहीं, उसे बच्चों को शहर भेजना पड़ा। शहर की खर्चों से वह अब तक अनभिज्ञ था। उसे जरूरत भी क्या थी - शहर के खर्चों के संबंध में ज्ञान प्राप्त करने का। वह गांव में खुश था। शहर की दहलीज पर वह तभी कदम रखता जब खेत की फसलें घर में आती उसमें से कुछ बेंचकर साल भर के किराना सामान भरने का अवसर आता। फिर तो वह साल भर शहर की ओर मुड़कर भी नहीं देखता था पर स्थिति अब बदल चुकी थी। बच्चे चौबीसों घण्टे शहर में रहने लगे थे। किराये के मकान लिया गया था। बीच - बीच में शिव भी जाकर रूक जाया करता था। उसकी सोच यही थी कि बच्चों को जिस उद्देश्य से भेजा गया है वह उद्देश्य से भटक न जाये। पर बच्चे भी ईमानदार निकले पढ़ने के मामले में और वे पढ़ाई में सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ते चले गये। बच्चों की पढ़ाई का क्रम जैसे बढ़ता गया वैसे ही शिव के खर्चे का क्रम बढ़ता चला गया। आवक जहां के तहाँ थी। शिव पर खर्च का अतिरिक्त भार जब जब आता। उसकी परेशानी उसके चेहरे पर अंकित हो जाती। उसकी परेशानी की रेखाएं पढ़ कर उसकी पत्नी निराशा कहती - क्या बात है, आज आप बहुत परेशान दिख रहे हैं ?

- मैं परेशान कहां हूं ....। शिव सच छिपाने प्रयास करता मगर छिपा पाने में सफल नहीं हो पाता। अंततः उसे अपनी पत्नी से सारे बातें कहनी ही पड़ती।

निराशा भी आयी थी भरे पूरे परिवार से। उसके पिताजी गांव का मालगुजार था। दो भाई थे, दोनों अफसर थे। वह कहती - मैं अपने मायका से ले आती हूं। बच्चे जब कमाने लगेगें तो वापिस कर देंगे। पर वह साफ मना कर देता। उसके शरीर में पुस्तैनी मालगुजारी का खून दौड़ने लगता। पत्नी भी जानती थी - शिव अपने कथन के पक्के हैं। स्वाभिमानी है और भूखे मर जायेगा पर किसी के सामने हाथ नहीं फैलायेगा खास करके अपने ससुर में। वह चुप हो जाती।

आमदनी यथावत थी और खर्च सुरसा की तरह मुंह फैलाए जा रहा था। खींचतान कर उसने बच्चों को हाई स्कूल तक की शिक्षा दिलवा पाया। अब वह हाथ उठा देना चाहता था पर बच्चों के सुनहरे भविष्य और अपनी चाहत पूरी करने की ललक के सामने वह नतमस्तक था अतः चाह कर भी हाथ नहीं उठाया। पर हाथ नहीं उठाने से न उसकी आमदनी बढ़ सकती थी और न हीं आवक में वृद्धि हो सकती थी। उसने राह तलाशने का प्रयास किया। पर जहां स्वाभिमान अड़ंगा पैदा करें वहां कहां रास्ता मिलेगा। एक तरफ वह जमीन बढ़ाने ... नहीं, नहीं ... बाप दादा द्वारा खोयी जमीन को वापस पाने व्याकुल था तो दूसरी तरफ स्वाभिमान को नीचे नहीं आने देना चाहता था। स्थिति बिलकुल गडमड थी। उसके विकास के पथ के दो ही विकल्प थे प्रथम या तो वह जमीन बेंचकर अपने बच्चों को भरपूर शिक्षा दिलवा दे या फिर अपने ससुराल वालों के सामने एक याचक के समान खड़ा होकर स्वाभिमान को धता बता दे। इसके अतिरिक्त उसके पास और कोई तीसरा विकल्प था ही नहीं।

ले देकर उसने बच्चों को कालेज में दाखिला करवाया। अब न चाहते हुए भी उसके सिर पर कर्ज का बोझ चढ़ता चला गया। खेत की फसल आयी और लिए कर्ज का जब चुकता किया तो उसके घर अन्न कम मात्रा में आयी। चार छै माह बाद घर में अन्न के दाने नहीं होने का आभास होने लगा। अब शिव की परेशानी बढ़ गई। उसे दिन में तो चैन था ही नहीं, रात भी उसकी बेचैनी में कटती थी। एक दिन उसकी पत्नी निराशा ने फिर आशा भरी निगाहें उस पर डाल कर बोली - मैं तो अब भी कहती हूं, अपनी मायका से मैं अभी उधारी में ले आती हूं। बच्चे नौकरी लगेंगे तो कर्जा छूट देगे और फिर वह मेरी मायका है। कर्ज पटा भी नहीं पाये तो कोई हमारी छाती पर मूंग दलने नहीं आयेगा।

पत्नी को समझाते हुए शिव ने कहा - कर्ज तो कर्ज होता है निराशा। उसे तो चुकता करना ही पड़ता है। किसी का कर्ज लेकर न देना कर्जदार के साथ नहीं अपने साथ अन्याय करने जैसा है।

- आप अपने सदविचार मेरे समक्ष नहीं रख रहे हैं, आप अपने स्वाभिमान को मेरे सामने परोस रहे हैं। मुझे यह कतई बर्दाश्त नहीं कि आप दूसरों के कर्ज तले दब कर दिनरात परेशानी को अपने अंग से लगाये रखे रहो। माना कि आज भी आप मेरी मायका से कर्ज लेना नहीं चाहते तो दूसरों के लिए कर्ज को कैसे चुकाएगे। कोठी में अन्न खत्म होने के कगार पर है। बच्चों के फीस भरने का समय हैं। कर्ज हम पर चढ़ ही गया है। फिर कर्ज लेगे तो छूटेगें कैसे ?

- तुम्हारा कहना ठीक है पर कोई न कोई रास्ता निकलेगा ही।

- कहां से निक ल जायेगा रास्ता ?

- जमीन बेंच दूंगा ....।

निराशा अवाक रह गयी। टकटकी बांधे अपने परेशान, हताश पति को देखती रह गई। शिव ने कहा - हां, मैं अपनी जमीन बेंच दूंगा, पर ससुराल में हाथ नहीं फैलाऊंगा। उपकार नहीं लूंगा किसी का ?

- इसमें उपकार कैसा ? क्या दूसरों से कर्ज लेते हो तो वे उपकारी हो गये। यदि नहीं तो मेरी मायका से कर्ज लेने के बाद वह उपकार की श्रेणी में कैसे आ जायेगा। मेरी मायका मेरा घर परिवार है, आपका घर परिवार है। जब दूसरों से कर्ज लेना उपकार नहीं तो अपनों से कर्ज लेना कैसे उपकार हो जायेगा ... ?

निराशा के मुंह से आज तक इतनी बातें कभी नही निकली थी पर आज उसके मुंह से निकली बातों ने शिव को विचारने विवश कर दिया। वह समझने का प्रयास करने लगा कि निराशा ने जो कुछ कहा उसमें कितनी सच्चाई है ? वास्तव में दूसरों से लिया कर्ज यदि उपकार नहीं तो फिर अपनों से लिए कर्ज हम कैसे उपकार मान बैठते हैं ? एक अकाटय सच उसके समक्ष खड़ा हुआ - अपने जब कर्ज देता है तो उसकी नीयत में कर्जदार के अतिरिक्त उपकार करने की भावना रहती है और जब दूसरे कर्ज देता है तो वह उपकारी बनकर नहीं अपितु सिर्फ कर्जदार बनकर देता है। शिव कर्जदार और सिर्फ कर्जदार से कर्ज लेना पसंद कर रहा था न कि कर्जदार और उपकारी की भावना रखने वाले से। यही वजह थी कि वह चाह कर भी ससुराल से कर्ज लेना नहीं चाह रहा था।

निराशा समझा - समझा कर थक गई पर शिव ने उसकी एक न मानी। शिव ने बच्चों की पढ़ाई व घर के अन्य खर्चों के लिए पहले आधा एकड़ जमीन बेचा फिर आधा एकड़ और फिर एक अवसर ऐसा आया कि उसकी कुल सम्पत्ति जो दो एकड़ जमीन के रूप में थी उसके हाथ से खिसक गई। पर इसका लाभ यह हुआ था कि बच्चे ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और नौकरी में भी चले गये। बच्चों की नौकरी लगते ही शिव ने राहत की सांस ली थी। उसने समस्याओं के बादल छंटने का अनुभव किया था। उसकी सोच थी- बच्चे, नौकरी से मिले तनख्वाह में से कुछ तो बचाकर देगा। उसी में से कुछ बचा - बचाकर पहले उन जमीनों को वापस लेगा जो उसने बेची फिर उन जमीनों को भी वापस ले लेगा जिन्हें उनके बाप दादा ने बेची। बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए उन्होंने उनकी शादी भी कर दी ताकि बच्चों को खाने पीने में तकलीफ न हो। समय चक्र चलता चला गया। बच्चे कुछ दिनों तो तनख्वाह में से कुछ रूपए भेजते रहे फिर धीरे - धीरे कटौती हुई और अब शिव को पैसों के लिए बच्चों को स्मरण पत्र लिखना पड़ता था। पहले बड़े लड़के ने मंहगाई की दुहाई देते हुए राशि भेजना बंद किया फिर छोटे ने। अब शिव को अपना सपना चरमराते दिखाई देने लगा। निराशा के कहने पर ही उसने अपने दोनों पुत्रों को एक दिन अपने पास बुलाया। दोनों लड़के आये। शिव ने कहा - तुम लोग पैसा देना बंद कर दोगे तो हम लोग क्या खा पीकर जियेंगे। हमारी खोयी हुई जमीन कैसे वापस मिल पायेगी।

- आप समझते क्यों नहीं,बढ़ती मंहगाई के इस युग में हमारी तनख्वाह हमें ही नहीं पूर पाती तो हम आपको कहां से भेजे ?

शिव को एक झटका लगा ऐसा झटका जिसका उसे अंदाज नहीं था। उसने अपने आपको सम्हालते हुए कहा - ये तुम लोग क्या कह रहे हो, तुम लोग ही ऐसी बातें करोगे तो मैं कहां टिक पाऊंगा।

- भाई ने ठीक ही तो कहा है। छोटे ने मुंह खोला - हम लोगों के भरोसे आपने अपना सपना साकार करने की सोची भी कैसे ?

- तुम लोगो के वर्तमान में मैं अपना सब कुछ इसलिए खोता रहा ताकि तुम लोग मेरा भविष्य बन सको।

- यानि आप हमारे कर्जदार बनकर हमारे वर्तमान में इसलिए खर्च कर रहे थे ताकि हम भविष्य में आपको उस कर्ज का वापसी मय ब्याज करें।

शिव कभी सोच भी नहीं सका था कि उसके अपने बच्चे इतनी उच्चस्तरीय घटिया बातें करेंगे। शिव मामले सुलझाने की फिराक में था पर वातावरण से ऐसा कहीं नहीं लग रहा था कि आपसी सुलह से मामला सुलझ जायेगा।

- मां - बाप बच्चों को इसलिए पाल पोंस कर बड़े करते है ताकि भविष्य में वे उनके सहारा बने। मगर तुम लोग तो हमें बेसहारा करने की ठान ली है ऐसा लगता है। पर याद रखो, हमने जैसे इतना दिन तक अपना जीवन जीये हैं, भविष्य में भी जी लेगें। चलो जी, अब इनसे कभी सहयोग की बात मत करना ....।

जो शिव कभी किसी के सामने झुकने का नाम नहीं लेता था। अपने स्वाभिमान को ताक में नहीं आने देता था वह आज अपने खून के सामने ही झुक गया था। उसकी अकड़ तार - तार हो गयी थी। स्वाभिमान चरमरा गया था। वह वहां से उठा और चल पड़ा उस खेत की ओर जो अब उनकी नहीं रह गई थी। डूमरखेत की मेढ़ में खड़ा हो कर उसने दूर - दूर अपने पूर्वजों द्वारा बेची जमीन को निहारा। दूर - दूर तक फैली जमीनें उसे चिल्ला - चिल्ला कर कहने लगी - हमें कब मुक्त करोगे ? .... पर शिवनारायण सिंह उर्फ शिव असहाय हो चुका था ... पूरी तरह असहाय। वह घुटनों के बल ' डूमर खेत ' की मेढ़ पर बैठ गया। सिर को धरती पर टिका फफक कर रो पड़ा ....।

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रचनाकार: सुरेश सर्वेद की कहानी - असहाय
सुरेश सर्वेद की कहानी - असहाय
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