हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 12 वीं किश्त

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वसीयत – १२ (उपन्यास)

हरीन्द्र दवे - भाषांतर : हर्षद दवे.

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फोन की घंटी बजी.

अमिन ने फोन उठाया, फोन में आवाज सुनाई दी: ‘हलो, आप अमिन साहब हैं?’

‘हां.’

‘मैं बैंगलोर से पंजाबी एसोसिएशन का प्रमुख महिपालसिंह बोल रहा हूँ.’

‘बोलिए, वोट केन आई डू फॉर यू?’

‘अमिन साहब, एज अ पंजाबी मुझे लगता है कि आप को अब पृथ्वीसिंह को न्याय दिलाना चाहिए.’

अमिन की भौहें तन गईं. उन्होंने कहा: ‘साहब, हम कभी मिले नहीं, इसलिए मैं फोन अविवेक से रख नहीं देता, परन्तु आप इस विषय में एक शब्द भी आगे बोलेंगे तो फिर आप से बात नहीं करूँगा.’

‘अमिनसाहब, गुस्सा मत हो जाइए. हमारी कौम के यतीम युवक का सवाल है इसलिए मैंने सोचा कि आप से कहूँ.’

‘देखिये भाई___’ नाम याद करने की कोशिश करते हुए अमिन ने कहा, ‘देखिये, आप जो भी हो वह सिंह, आप को पूरा पूरा इख्तियार है कि आप पृथ्वीसिंह के पास जा कर वकालतनामा बदलवा सकते हैं. फिर केवल मोहिनी देवी के वसीयत के एक्जिक्यूटर की हैसियत से मुझे जो कुछ भी करना होगा, करूँगा. यहाँ बैंगलोर में हम कौम को ध्यान में रखकर बात नहीं करते: मैं गुजरात का हूँ, शेफाली कर्नाटक से है; उसके बैरिस्टर उडीसा से हैं. स्वयं डॉ. दिवाकर पंडित यु.पी. के थे. मोहिनीदेवी और पृथ्वीसिंह पंजाब से हैं. इसलिए किसी एक कौम या प्रदेश के लोग दूसरी कॉम या प्रदेश के लोगों के सामने दावा कर रहे है ऐसा ख़याल दिमाग से निकाल दीजिए और आइन्दा ऐसे फोन मत करना.’

अमिन ने फोन नीचे रख दिया, परन्तु उनके होंट दृढता से भींचे हुए थे. सुबह के अखबारों में मुलजिम के द्वारा की गई कबूलियत की खबर प्रकाशित हुइ थी. ह्त्या सवेरे पांच बजे के बाद उस ने की ऐसा भी उस कबूलातनामे में था. पुलिस समक्ष दिए गए बयान को अदालत में झूठा साबित भी किया जा सकता है और खूनी अदालत में मुकर जाये यह भी संभव है. फिर भी पृथ्वी के वकील होने के नाते उन्हें कुछ तो करना ही चाहिए. अब क्या किया जाए इस के बारे में विचार कर रहे थे कि यह पंजाबी सज्जन का फोन आ गया. अमीन ने अपने सहायक से बैरिस्टर मोहंती को फोन लगाने के लिए कहा.

‘मोहंती, अब बात विल्कुल स्पष्ट है. डॉ. दिवाकर पंडित की मौत रात के दो बजे से सुबह के पांच बजे के बीच कभी भी हुई हो सकती है. परन्तु मोहिनीदेवी की ह्त्या सुबह के पांच बजे के बाद हुई है. कोंफ्रेंस बुलाकर हमें सारी जायदाद पृथ्वी को मिले ऐसा फैसला कर लेना चाहिए.’

मोहंती ने विस्मित होते हुए कहा: ‘अमिन, यदि मैं आपकी आवाज पहचानता नहीं होता तो मैं मान ही नहीं पाता. आप को क्या हो गया है? अभी तो पुलिस के सामने दिया गया स्टेटमेंट ही बाहर आया है. केस चलने के बाद ही सबकुछ प्रमाणित हो सकता है. उस के पहले जायदाद का बंटवारा कैसे हो सकता है?’

‘मोहंती, मैं पृथ्वी के हित का रखवाला हूँ. मुझे लगता है कि हत्यारे की कबूलियत पर्याप्त है. अदालत की लंबी चौड़ी प्रोसीजर खत्म हो तब तक हमें इन्तजार करने की क्या जरूरत है? फोन पर इस के बारे में बात करने के बजाय हम आज कोंफ्रेंस ही रख दें तो?’

‘अभी शाम के पांच होने को है,. आज ही मिलना जरूरी है क्या?’

‘हाँ, संभव हो तो अभी हाल.’

‘अमिन, व्हाय आर यूं इन हरि? इतनी जल्दी क्यों कर रहे हैं?’

‘मोहंती, इस के बारे में फिर कभी बात करेंगे. आज तो हम मिलकर यह सोचते है कि पृथ्वी को उसका हक क्यों नहीं दिया जाये?’

‘या फिर क्यों दिया जाए?’ मोहंती ने हँसते हुए कहा.

एक घंटे के बाद सब डॉ. पंडित के विशाल ड्रोइंग रूम में इकठ्ठे हुए थे. कृष्णराव, शेफाली, पृथ्वीसिंह, मोहंती, अमिन एवं उनके सहायक धाराशास्त्रिओं का इन में समावेश हो जाता था. एक नया पात्र ऐसी चर्चा में पहली ही बार शरीक हुआ था. वे थे डॉ. उमेश मिश्र. अब तक वे हमेशा परदे के पीछे ही रहे थे. बैरिस्टर मोहंती और अमिन दोनों उसे निष्पक्ष व्यक्ति मानकर उसे कोई भी कार्य करने के लिए कहने में झिझकते नहीं थे. उमेश को देखकर दोनों को विस्मय हुआ.

‘डॉक्टर, आप भी आखिर इस में आ गए?’ मोहंती ने पूछा.

‘मैंने उन्हें गुलाया है,’ कृष्णराव ने कहा, ‘कहीं मेरी समज में कुछ ना आये तो समझाने के लिए.’

‘पृथ्वी,’ अमिन ने कहा, ‘तुझे मुझ पर भरोसा है कि तू और किसी को बुलाना चाहता है?’

‘मेरा है कौन?’

पृथ्वी के शब्दों में छलक रही हताशा एवं करूणा देखकर अमिन का ह्रदय भर आया. ‘पृथ्वी, मैं हूँ, तब तक तेरे सारे हित सुरक्षित है.’

‘अमिन, आज इतनी जल्दी यह कोंफ्रेंस बुलाने की क्या वजह है? अभी सारे सवालात सुलझे नहीं हैं.’ मोहंती ने पूछा.

‘बैरिस्टर साहब, मुझे लगता है कि अब कोई भी प्रश्न अनसुलझा नहीं रहा. मोहिनीदेवी का हत्यारा पकड़ा गया है. उस ने सबकुछ क़ुबूल कर लिया है. यह कबूलियत स्वतः स्पष्ट है. ह्त्या सवेरे पांच बजे के बाद हुइ है. इस का मतलब यह हुआ कि डॉ. दिवाकर पंडित की मौत के समय मोहिनीदेवी जीवित थी. इसलिए डॉ.पंडित की वसीयत के अनुसार उनकी संपत्ति का मोहिनी देवी के हिस्से में आता हिस्सा मोहिनीदेवी के वारिस को मिलना चाहिए. बेवजह अदालत के दरवाजे खटखटाकर पैसे बर्बाद करने से क्या फ़ायदा? यहाँ सब समझदार लोग हैं. लेट अस कम टू टर्म्स – समाधान की बातें तय कर लेते हैं.’

‘अमिन साहब,’ कृष्ण राव यह सुनते ही उत्तेजित हो गए.

‘कृष्णराव, आप शांत रहिये. पहले मुझे अमिन के साथ बैठकर सब समझ लेने दो.’ बैरिस्टर मोहंती बीच में आए, ‘अमिन, आप जो कह रहें हैं उस में आंशिक सत्य है. मुलजिम ने पुलिस बयान में क़ुबूल किया है. परन्तु अभी उस के ऊपर मुकद्दमा चलाना बाकी है. न्याय की दृष्टि से वह सिर्फ संदेहास्पद व्यक्ति है. पुलिस के सामने दिए गए बयान का अदालत के सामने कोई मतलब नहीं.’

‘इतना ही नहीं, बैरिस्टर साहब, वह आदमी जिस विश्वास के साथ समय बताता है उसे देखते हुए यह सिद्ध होता है कि किसीने उसे उकसाया है. यह सब एक षड्यंत्र है.’ डॉ. उमेश मिश्र ने कहा.

‘डॉक्टर साहब, आप सर्जन छूरी चलते चलाते क़ानून की बारीकियों में कहाँ से प्रवीण हो गए? कोई आदमी केवल खेल के लिए क़त्ल करे और पृथ्वीसिंह के फायदे के लिए कबूलियत करे ऐसा हो सकता है क्या?’ अमिन ने पूछा.

‘जब करोड़ों की संपत्ति का सवाल हो तो कुछ भी हो सकता है साहब.’

‘आप असल बात जानते नहीं. दिल्ली के बैंक की डकैती में यह आदमी पकड़ा गया है. उस ने की हुई कबूलियत के अनुसार उसने छिपाई राशि भी बरामद हो चुकी है. पूछताछ करने पर भरतपुर के पुलिस अधिकारी को अचानक ही यह आदमी मोहिनीदेवी की ह्त्या में शरीक हुआ हो ऐसे सुराग मिले. आप ऐसा कहना चाहते है कि जिसे करोड़ों की जायदाद मिलनेवाली हो उस व्यक्ति अपने फायदे के लिए ही दिल्ली के बैंक में डकैती की योजना करे?’

अमिन के इस प्रश्न के सामने उमेश सन्न रह गया. तत्काल उस के पास कोई उत्तर नहीं था.

‘शेफाली, तुम्हारा क्या ख्याल है?’ मोहंती ने पूछा.

‘अंकल, मेरे पल्ले यह कुछ भी नहीं पड रहा. मैं मेडिकल स्ट्यूडन्ट हूँ. मैं अपने बलबूते पर मेरी पहचान बना सकती हूँ. यह संपत्ति, वसीयत, बंटवारा, साजिश में मुझे दिलचस्पी नहीं है. हम सब यहाँ किसलिए समय बर्बाद कर रहे है यही मेरी समझ में नहीं आ रहा है.’

‘बेरिस्टरसाहब, शेफाली नादान है. वह अपने हित को समझ नहीं पा रही है. अभी अमिन साहब क्यों हम सबको परेशान करना चाहते हैं इस का जवाब पाना चाहिए.’ कृष्ण राव ने कहा.

‘जवाब आप को देना है, कृष्ण राव. यहाँ नहीं देंगे तो अदालत में देना पड़ेगा. पृथ्वी का कोई नहीं है ऐसा मानकर आप उस की उपेक्षा नहीं कर सकते. मोहिनीदेवी ने अपनी वसीयत का अधिकार मुझे सौंपा है कि उस का सही रूप से अमल हो.

‘अमिन साहब, आप अभी धमकी की भाषा में बात कर रहे हैं. आतंकवादिओं के मुकद्दमे लड़ते लड़ते कहीं आतंकवादी तो नहीं हो गए हैं?’ डॉ. मिश्र ने कहा.

‘आप के कहने का मतलब क्या है?’ अमिन के शब्दों में रोष छलक रहा था.

‘जो कहा है वही. इस से बिलकुल ज्यादा कुछ नहीं.’

‘मतलब? बैरिस्टर, आप के मुवक्किल के मित्र कौन सी भाषा में बात करते हैं ये सोच सकते हैं आप?’

‘डॉ. मिश्र,’ मोहंती कहने जा रहे थे परन्तु कृष्ण राव और उमेश दोनों एकसाथ चिल्ला रहे थे. उसी शोर शराबे में मोहंती के शब्द डूब गए. ‘आप को क्या हक है?’ ‘आप ऐसा कैसे बोल सकते है?’ ‘ये सब आतंकवादी है.’ जैसे शब्द जोर जोर से बोले जाने लगे. उमेश ने सब से ऊंची आवाज में कहा, ‘बैंक लूट कर एक आतंकवादी ने मोहिनीदेवी की ह्त्या की, वसीयत पर बेबुनियाद दावा कर रहा है एक आतंकवादी.’

‘आप पृथ्वी को आतंकवादी कैसे कह सकते है?’ अमिन ने चीखते हुए कहा.

‘साहब, खूनी पकड़ा गया पृथ्वी के अमृतसर जाने के बाद. उस का कोई कनेक्शन होना चाहिए.’

‘स्टॉप इट एंड गेट आउट,’ अमिन ने खड़े होते हुए कहा. ‘बैरिस्टर, आप के मुवक्किल के सारे गवाहों को बाहर निकालिए. मेरा मुवक्किल मेरे साथ अकेला है. आप भी शेफाली के साथ बैठिये. ऐसी भाषा में बोलनेवाले के साथ मैं भविष्य में किसी भी प्रकार का कान्फ्रेंस रखना नहीं चाहता.’

बैरिस्टर मोहंती ने मिश्र को हलका उपालंभ दिया. ‘डॉक्टर उमेश मिश्र ऐसी भाषा बोलेंगे तो मैं यह केस छोड़ दूंगा. शेफाली और पृथ्वी को ही बोलने देना चाहिए.’

‘किस लिए?’ उमेश पूछने गया, उतने में अमिन के ध्यान में आया: ‘शेफाली और पृथ्वी कहाँ हैं? हमारी बहस चल रही थी तब अभी तक तो वे दोनों यहीं पर थे. कहाँ गए?’

कृष्ण राव भी बोल उठे: ‘कहाँ गए दोनों?’

पूरी चर्चा के दौरान चुपचाप बैठे सहायक धाराशास्त्रिओं में से एक ने कहा कि, ‘ बहस चल रही थी तब दोनों मुस्करा रहे थे. अभी गहमा गहमी हुइ तब दोनों चुपचाप उठ कर करीब करीब साथ ही चले गए.’

कृष्ण राव दरवाजे की ओर दौड़े. बाकी सब रात के फ़ैल रहे साये के बीच शांत व स्तब्ध हो गए.

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रात आगे बढ़ रही थी. कृष्ण राव कभी चौखट के पास तो कभी बंगले के दरवाजे तक जा कर लौट जाते थे. कृष्ण राव की पत्नी राजम्मा चिंता में थी. साढ़े नौ के टकोरे की घंटियाँ सुनाई दी. ‘अब तो हद्द हो रही है.’ कृष्ण राव ने कहा, ‘इस लड़की का कुछ करना पड़ेगा.’

डॉ. उमेश मिश्र स्कूटर पर आये. ‘मैं सब दूर घूम के आ गया. बाग में, सिनेमाघर के बाहर. दूसरे शो में से निकलनेवाले या अंतिम शोमें सिनेमा देखने आनेवाले लोगों पर भी नजर डाली. कहीं नहीं दिखे.’

राजम्मा की परेशानी बढ़ी. कृष्ण राव भीतर ही भीतर काफी झुँझला रहे थे. किसी की समझ में न आये ऐसी बडबडाहट वे मन ही मन में कर रहे थे. राजम्मा ने उमेश से कहा: ‘भाई, फिर एकबार देख आओ, शायद वे हमारे नर्सिंग होम में ही हों, या बैरिस्टर साहब के वहां या अमिन साहब के वहां भी वे पहुंचे गए हो.

उमेश फिर एक बार गया.

दस बज गए. अब कृष्ण राव के गुस्से में चिंता मिली. लड़की ने कुछ ऐसा वैसा तो नहीं किया होगा? उस के चेहरे पर संदेह का बादल छा गया. मन ही मन वे पृथ्वी पर गुस्सा निकाल रहे थे. शेफाली के लिए गुस्से के साथ चिंता भी थी. साथ ही साथ ‘सब ठीक ठाक निपट जाये’ इस के लिए तिरुपत्ति की मनौती भी वे मानने लगे थे.

इतने में गाडी कम्पाउंड में प्रविष्ट हुई. कृष्ण राव चौखट पर ही खड़े थे. उन की भौंहें तंग हुईं. शेफाली और पृथ्वी गाडी से उतरे. दोनों ने गाडी के पास खड़े खड़े कुछ बातें की. शेफाली व पृथ्वी के चेहरे रात के अँधेरे में स्पष्ट रूप से नजर नहीं आ रहे थे. परन्तु उन्होंने पूरे एक मिनट तक बातें की. फिर पृथ्वी बंगले के अपने शयनकक्ष की तरफ गया. शेफाली घर की ओर आगे बढ़ी. कृष्ण राव की आवाज लगभग फटी जा रही हो उस प्रकार से वे चीखे: ‘शेफाली, तूं ये क्या कर रही है?’

पिताजी अतिशय गुस्से में हैं यह शेफाली देख पाई फिर भी उस के चेहरे पर शान्ति छाई रही. उसने स्थिर दृष्टि से पिता की ओर देखा. शेफाली की जलाती हुई दृष्टि से कृष्ण राव चौंके: ‘जवाब क्यों नहीं दे रही?’

शेफाली घर में आई, कुर्सी से हाथ टिका कर खड़ी रह गई, फिर स्वस्थ आवाज से पूछा: ‘किस बात का जवाब चाहिए आप को?’

‘तेरे इस बेहया व्यवहार का.’

‘मैंने कौन सा बेहया व्यवहार किया है? प्लीज पप्पा, आप शांत हो जाइए, आप बेवजह गुसा कर रहे हैं.’

‘नहीं, आज तो तुझ से जवाब पा कर ही रहूँगा.’

माँ बीच में बोली ‘ज़रा सांस तो लेने दो बच्ची को, वह आई नहीं कि बरस पड़े?’

‘तू चुप रहे. तुझे माँ कि हैसियत से अपनी बेटी को नियंत्रण में रखना है. जो तूं नहीं कर रही वह मुझे करना पड़ रहा है.’

‘मैं शेफाली से बात कर लूंगी. उसे खाना खा लेने दो.’

‘अब तक क्या वह भूखी रही होगी? उसने तो अपने उस रिश्तेदार के साथ नाश्ता कर लिया होगा. तूं भूखी रही अब तक. और मैं चिंता करता रहा भूखे पेट.’

‘पप्पा, आप खाना खा लीजिए. मुझे भूखे पेट सो जाने की आदत है. मुंबई में होटल में कई बार कोलेज के प्रैक्टिकल्स में देरी हो जाए और मेस में भोजन का समय खत्म हो जाए तब पानी पी कर मैं सो जाती थी. मैं ऐसा मान लूंगी कि मैं अपने पिता के यहाँ नहीं, बल्कि हॉस्टल में हूँ.’

‘बेटी ऐसा बोल रही है?’ मैं का ह्रदय द्रवित हो उठा. ‘चल, हम भोजन कर लेते हैं.’

‘नहीं, माँ. आज में खाना नहीं ले पाऊँगी. मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि मैं यहाँ आई तब मुझे हँसते हुए बुलाने के बजाय आप चिंता में और गुस्से में क्यों हैं?’

‘जवान बेटी के बाप को बेटी देर से आये तब कितनी फिकर होती है उसका पता तुझे कैसे चल सकता है?’

‘पप्पा, मैं क्या पहली बार देर से आई हूँ? कई बार मैं दस-साढ़े दस बजे आई हूँ. क्या मैं देर से आई इस बात पर एतराज है आप को? मैं नहीं मानती.’

कृष्ण राव चौंके. शेफाली की बात सही थी. वह कई बार देर से घर आती थी. कोलेज लाइब्रेरी में भी वह देर तक पढ़ती थी. रात दस बजे लाइब्रेरी की बत्ती बंद करने के समय ही वह बाहर निकलती. फिर भी उस ने शेफाली के बारे में कभी चिंता नहीं की थी.

‘आज मैं पृथ्वी के साथ गई इसलिए आप चिंतित थे, सही बात है न पप्पा?’

‘हाँ, तुझे मालूम नहीं है कि वह बदमाश तुझे भरमा रहा है. वह तेरी संपत्ति हथिया लेना चाहता है.’

‘संपत्ति? मेरे पास मेरे व्यक्तित्व को छोड़ के ओर कोई संपत्ति नहीं है. ये संपत्ति की रट लगाये आप क्यों बैठे है? वकील, सोलिसिटर, कोर्ट-कचहरी इन सब का क्या मतलब है?’

‘बेटी,’ कृष्ण राव ने सोचा शेफाली को समझाने का यह उत्तम मौक़ा है, ‘अभी तुम बेशुमार दौलत की वारिस हो. कोई भी आदमी तेरे करीब आ जायेगा. तेरी मम्मी से पूछ, उसे तेरा व्यवहार पसंद है?’

‘फिर मेरे व्यवहार की बात आई? माँ, ऐसा क्या है मुझ में जो आपको पसंद नहीं?’

‘बेटी, विधर्मी आदमी, विल्कुल अज्ञात, हम उस के कुल को जानते नहीं, इस के साथ इतना मेलजोल क्यों बढ़ाएँ, तूं सारे शहर में उसके साथ घूमती फिरे यह अच्छा नहीं लगता.’

शेफाली की आँखें चमक उठीं.

‘पप्पा, आप भी क्या इसी मेलजोल के बारे में कहना चाहते है?’

‘शेफाली, इस तरह व्यंग में बोलने की जरूरत नहीं. तेरी माँ ज्यादा पढ़ी नहीं है. मैं भी तेरे जितना होशियार नहीं. परन्तु हम तेरी भलाई के बारे में ही सोचते हैं. तू जरा सोच... कहाँ सर्फ बकालत का ग्रेज्युएट पंजाबी लड़का, कहाँ तेरे ही फिल्ड में एम. एस. पास डॉ. उमेश मिश्र! लंबा, सुन्दर, गोरा...’

‘चपल, सौम्य, चंचल... आप कहें तो अभी और भी विशेषण मैं जोड़ सकती हूँ. परन्तु उसकी बात यहाँ क्यों कर रहे हैं?’

‘मैं और तेरी माँ दोनों की इच्छा है कि तूं ऐसे अच्छे लड़के के साथ शादी कर ले तो अच्छा रहेगा. अन्यथा, तेरी दौलत देखकर इतने सारे पतंगे तेरे इर्दगिर्द घूमने लगेंगे कि तू घबडा जाएगी. पृथ्वी को भी तेरी दौलत में ही दिलचस्पी है.’

‘डॉ. उमेश मिश्र मेरी दौलत के बगैर शादी के लिए राजी हो जायेगा?’

‘उसे दौलत से क्या लेना-देना?’

‘उसे कहिये कि यह नर्सिंग होम और डॉक्टर अंकल की ओर से मिलनेवाली राशि का हरेक पैसा में दान में दे देनेवाली हूँ. यह आउट हाउस जैसे ही किसी छोटे से घर में रहकर मैं मेरा जीवन बीताना चाहती हूँ. यह गाडी और यह शानो शौकत चार दिनों की चांदनी की तरह है जिसका मैंने उपभोग कर लिया. डॉक्टर होने के बाद साइकिल पर बैठकर ही मैं अस्पताल जाऊंगी, फिर उनको मेरे में कितनी दिलचस्पी रहेगी?’

कृष्ण राव एक पल के लिए सन्न से रह गए. वे स्वस्थ हो कर कुछ कहे उसके पहले शेफाली ने आगे कहा: ‘आज पृथ्वी की माँ ज़िंदा होती तो उसे यह नहीं कहती कि बेटे, तू भरमाना मत. यह लड़की तेरे पीछे नहीं, तुझे मिलनेवाले है उस पैसे की दीवानी है?’

‘शेफाली,’ कृष्ण राव जोर से चीख पड़े.

‘पप्पा, आप सच्ची बात से चौंकिये मत. मैं अब नादान नहीं रही, मेरा अभ्यास अभी अधूरा है. पृथ्वी के साथ मैं घूमने जाऊं उसका मतलब यह नहीं कि मैं उसके साथ शादी करना चाहती हूँ. आप मेरे लिए दूल्हा ढूंढ के लाएं और मैं उसी से ब्याह कर लूंगी ऐसा भी नहीं मान लेना. मेरे भविष्य के बारे में मैं ही निर्णय लूंगी.’

शेफाली का मिजाज देखकर कृष्ण राव कुछ डर से गए.

तब शेफाली ने कहा: ‘आपने मुझ से ये क्यों नहीं पूछा कि मैं कहाँ गई थी? किस के साथ गईं थी, केवल यह बात ही क्या इतनी हद तक महत्त्व रखती है?’

‘कहाँ गई थी?’

‘पृथ्वी के साथ गुरुद्वारा गई थी...’

‘गुरुद्वारा? अच्छा तो बात धर्मांतर तक जा पहुंची है?’

‘पप्पा,’ शेफाली ने सख्त आवाज में कहा, ‘वहां मैं कीर्तन सुन रही थी. इश्वर के कीर्तन में समय कैसे बीत गया इस बात का ख्याल न मुझे रहा, न पृथ्वी को! रागी वहां अलग अलग पद गा रहा था. धर्म में मुझे तो कोई अंतर नहीं दिखाई दिया. आप को सुनना है एक पद? गुरु अर्जुनदेव ने गाया है:

किन बिधि मिलै गुसाई,

मेरे राम राई...!

कोई ऐसा सन्तु सहज सुखदाता,

मोहि मारगु देइ बताई.

‘गोस्वामीजी से राम कहाँ मिलेंगे यह पूछने में यदि धर्म बदल जाता हो तो मुझे इस में कोई एतराज नहीं.’

‘होगा बेटी, बस तूं भरमा नहीं रही यही काफी है.’ माँ ने कहा, ‘चल, अब नाराजगी छोड़ दे और भोजन करने आ जा.’

‘पृथ्वी भी भूखा ही है. उसे खाने के लिए बुला लाऊं?’

‘महाराज उसे उसके कक्ष में ही खाना पहुंचा देगा.’ कृष्ण राव ने मुश्किल से अपने मिजाज को बस में रखा. इतने में उमेश अंदर आया.

‘लीजिए, यह उमेश आया. वह भी आज शाम से तुझे ढूँढने में भूखा ही फिर रहा है.’

उमेश ने पसीना पोंछते हुए कहा: ‘सारा बैंगलोर छान मारा और मेडम यहाँ आ गई हैं.’

फिर शेफाली का मिजाज पलटा: ‘मेरे लिए बैंगलोर छान मारने को आप को किसने कहा था?’

‘मैंने.’ कृष्ण राव ने कहा.

‘बेटे, मैंने ही कहा था. मुझे आज सचमुच तेरी चिंता सताती थी.’

‘ठीक है. अब उन को हर शाम मुझे ढूँढने का काम सौंपना पप्पा, आप को भोजन में कंपनी चाहिए न? लीजिए यह उमेशभाई आ गए.’ और फिर उमेश की ओर देखते हुए कहा: ‘मम्मी-पप्पा आज अकारण ही घबडा गए. चलिए, पप्पा के साथ कुछ खा लो.’ कहकर वह बाहर निकल गई.

‘तूं कहाँ जा रही है?’

‘आपको कंपनी तो मिल गई है. पृथ्वी अकेला होगा. उसे महाराज ने भोजन की थाली भेजी या नहीं यह देखती हूँ. यदि नहीं भेजी हो तो मेरी थाली भी वहां बंगले के बरामदे में पृथ्वी के साथ लगाएं ऐसा कहती हूँ.’ कह कर शेफाली किसी के भी जवाब को सुने बगैर बंगले की ओर चली गई. कृष्ण राव, उमेश और माँ तीनों उसे जाते हुए देखते रहे. किसी में भी उसे रोकने की हिमत नहीं थी.

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बैंगलोर के कैदखाने में भारी तंगदिली फैली हुई थी. सब के चेहरे पर तनाव था. नयालचंद अलग अलग लोगों को अलग अलग आदेश दे रहा था.

‘सादे भेष में आप में से कुछ आदमी अदालत के कम्पाउंड में और कुछ अदालत खंड में उपस्थित रहना. अदालत खंड में आप को केवल प्रेक्षक के रूप में रहना है और आसपास कोई आपत्तिजनक तत्व नहीं है न, इस बात का ख्याल रखना है.’ एक दल को सूचना देने के बाद कुछ देर बाद वह अकला पड़ा तब मन ही मन में सोचने लगा: न्यायाधीश मान गए होते तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. इस कैदी की सुरक्षा करनी इसलिए जरूरी है कि उस के जरिये काफी अपराधों की टोह मिलने की संभावना है ऐसी बहस के बावजूद न्यायाधीश ने कहा था: ‘यह आखिरी मुहलत दे रहा हूँ. सात दिन के बाद मुलजिम को चार्जशीट के साथ अदालत में पेश करना होगा. जेलखाने में अदालत बिठाने की आवश्यकता नहीं लग रही.’ न्यालचंद के कुछ तर्क करने पर: ‘आप इतने सारे आदमी मिलकर एक आदमी की सुरक्षा का प्रबंध नहीं कर पाएंगे क्या? अगले बृहस्पतिवार को मुलजिम को अदालत में ही पेश करना पड़ेगा.’

न्यायाधीश इतना कहकर चले गए. न्यायाधीश को ऐसा लग रहा था कि जेलखाने में अदालत बिठाने से मुलजिम को न्याय दे पाना मुश्किल है. अदालत के मुक्त माहौल में ही वह अपनी जबान खोल सकता है. मुलजिम खुद को जेलखाने के क्षेत्र से बाहर ले जाने के विचार मात्र से कांपता था. परन्तु न्यायाधीश का निर्णय स्पष्ट था: ‘मुलजिम की राय क्या है यह महत्वपूर्ण नहीं है. मुलजिम पुलिस से क्या कहता है यह भी महत्वपूर्ण नहीं है. मुलजिम अदालत में क्या कहता है और जो कहता है वह सच है ऐसा प्रमाणित करनेवाले सबूत कौन से है केवल यही महत्त्वपूर्ण है.’

न्यालचंद को मुलजिम चंद्रसेन का डर सही लग रहा था. उसके ऊपर दो-एक धमकीभरे फोन आ चुके थे.

पृथ्वीसिंह स्वयं जहां त्यागी से मिला था उसी जगह के बारे में उसने न्यालचंद को बताया था. परन्तु वहां पर कोई भी नहीं रहता था. आसपास के लोगों ने कहा कि कभी कोई वहां आ कर दो तीन दिन ठहर कर चला जता है. उसी जगह की तलाशी लेने पर वहां कोई सीख से सम्बंधित सबूत नहीं मिला था. वहां श्री ग्रन्थ साहब की एक भी कापी नहीं थी. परन्तु आलमारी में आर्यसमाज के द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ थे. फिर भी पृथ्वीसिंह इस बात पर अटल रहा था कि वह चंद्रसेन के साथी त्यागी को वहीँ पर मिला था. पृथ्वी यह जानना चाहता था कि उस की माँ का हत्यारा ह्त्या करने के लिए कैसे प्रेरित हुआ. परन्तु पृथ्वी के द्वारा दी गई जानकारी से कोई सुराग नहीं मिल रहा था. गुरुद्वारा में किसी को वृद्ध रणजीतसिंह के बारे में पता नहीं था.’यहाँ तो रोज हजारों हिंदू सीख आते है. उन में से कौन तुझे मिला था यह हम कैसे बता सकते है?’ ऐसा जवाब पृथ्वी को मिला. जवाब बिलकुल स्पष्ट था. किन्तु इन सब से न्यालचंद का काम और भी मुश्किल हो रहा था.

दो दिन पहले ही पहरेदारों ने उससे कहा कि जेलखाने के बाहर दो चार संदेहास्पद व्यक्ति नजर आए थे. परन्तु उनको आवाज दें उस के पहले वे नौ दो ग्यारा हो गए. इस के बाद कोई दिखाई नहीं दिया था. दो एक पत्रकारों ने जेलखाने एवं नयालचंद से मुलाक़ात करने की कोशिश की भी तब भी न्यालचंद ने किसी से भी मिलने से इनकार कर दिया. जेलखाने के सत्ताधारी भी अपने कैदी की सुरक्षा के बारे में चिंतित थे. कोई भी अनधिकृत आदमी जेलखाने में दाखिल न हो जाय ऐसी कड़ी निगरानी रखी गई थी.

सात दिन से मुलजिम को जेलखाने से कैसे ले जाया जाए इस पर विचार किया जा रहा था. मार्टिन को बुलावा भेजा था, क्यों कि भरतपुर से जिन परिस्थितियों में से गुजरकर मुलजिम यहाँ आया इस के सम्बन्ध में भी न्यायाधीश कैफियत लेनेवाले थे.

ठीक ग्यारह बजे मुलजिम को अदालत में पेश करना था. सवेरे जल्दी उठ कर न्यालचंद तमाम प्रबंध करने में जुट गया था. अब मार्टिन के आगमन की प्रतीक्षा में था.

वह एक के बाद एक सब इंस्पेक्टरों को कहाँ कहाँ पोजीशन लेनी है इस के बारे में सूचना दे रहा था. तब ‘एक कैदी को अदालत में पेश करने के लिए इतना इंतजाम, इतनी चिंता क्यों करें?’ ऐसा विस्मय कईयों को होता था. ‘आप में से कुछ को तो यहाँ जेलखाने में ही रहना है.’ जब न्यालचंद ने ऐसा कहा तब मुलजिम को बाहर ले जाने के बाद जेलखाने में अतिरिक्त गश्त रखने की उनकी सलाह सब को लगभग मूर्खता के प्रदर्शन करने जैसी लगी थी. परन्तु सत्ता के आगे सयानापन नहीं चलता ऐसा दो एक सब इन्सपेक्टर भीतर ही भीतर बडबडा के शांत हो गए और उन्हें चंद्रसेन की खाली कोठरी के आसपास भी पहरा देने की आज्ञा को शिरोधार्य करना पडा.

‘मुलजिम अदालत में गया है इसलिए यहाँ का सुरक्षा प्रबंध कम कर देने पर घुसपैठिये क्या कुछ नहीं कर सकते, मुलजिम की सुनसान कोठरी में टाइम बम भी रख सकते है.’ न्यालचंद ने कहा था.

ठीक दस बजे मार्टिन आ गया. न्यालचंद को राहत मिली. ‘साला, सारा बंदोबस्त हो जाने के बाद मेहमान की तरह आता है?’ उसने हँसते हुए कहा.

‘यार, वहां भी सब के सब उल्लू के पट्ठे हैं. किसी समजदार आदमी को सौंप कर ही आ सकता हूँ. आजकल ख़तरा बढ़ गया है. परन्तु मुझे यहाँ तक क्यों बुलाया गया है यह तो बता?’

‘क्या करता? न्याय अंधा है ऐसा तो सब कहते है, अब उस में हमें भी अँधेरे में तीर चलने पड़ते हैं.’

‘न्याल, मैं जरा फ्रेश हो लूं. कोर्ट में ग्यारह बजे ही पहुंचना है न ?’

‘मार्टिन, तू आ तो सही. मैं कैदी को ले कर ज़रा जल्दी पहुँचने के बारे में सोच रहा हूँ. यदि कोई हमला करना चाहे तो टाइम के सन्दर्भ में उसे ‘बीट’ किया जा सके.’ कह कर न्यालचंद ने जेलखाने में, न्यायाधीश से अंतिम रिमांड के बाद जो भी हुआ वह मार्टिन को समजाया. फिर फोन को एक ओर रख कर मार्टिन को केबिन की खिड़की के पास बुलाया. कोई भी खिड़की के बहार से अंदर की बात सुन पाए उतना करीब नहीं है इस बात की तसल्ली की.

‘क्यों ? कोई फोन टेप कर लेगा ऐसा डर है?’

‘क्या मालूम. सावधानी बरतनी अच्छी बात है. मैं तुझे अपना व्यूह समजाना चाहता हूँ.’

मार्टिन के साथ धीमी आवाज में अपनी पूरी योजना बताई. इस के बाद न्यालचंद ने कहा: ‘तूं अब फ्रेश हो कर तैयार हो जा. थोड़ी देर हो जाए तो भी कोई गल नहीं. मैं मुलजिम के साथ पहुँच जाता हूँ.’

न्यालचंद ने तुरंत सीनियर सब इन्सपेक्टर को बुला के कहा: ‘अभी दस बजकर बीस मिनट हुए हैं. कैदी को जिस बंद जीप में ले जाना है, जीप को ठीक उस की कोठरी के पास ले लो. मैं उस जीप के साथ ही जाऊंगा.’

कोठरी के दरवाजे के पास जीप का पिछलावाला दरवाजा खुले उस प्रकार से जीप रखी. कहीं से भी कोई कुछ न कर पाए इस प्रकार से कोर्डन करवा लिया. हाथों और पैरों में जंजीर से जकड़े हुए कैदी को कुर्सी के साथ बांधकर ही पुलिस ने उसे जीप में चढाया. दूर से भी कैदी को कोई निशाना ना बना पाए इस के लिए यह सावधानी बरती गई थी. दो पुलिस अंदर बैठे. न्यालचंद आगे बैठा. आगे और पीछे दो दो जीपें और चार के करीब मोटर साइकिलें थीं.

समूचा जुलूस अदालत के कम्पाउंड में दाखिल हुआ. यहाँ जीप को एकदम सीढियों से सटाकर रखीं गईं.

पहले न्यालचंद उतरा. पीछे की जीप में से उतरे पुलिस से उसने कहा: ‘पीछे से दरवाजा खुले तब तूं वहीँ पर रुके रहना.’ दूसरी तरफ वह स्वयं खडा रहा. अंदर से दरवाजा खुला.

दरवाजे के पास ही कुर्सी में कैदी बंधनग्रस्त स्थिति में था.

सहसा एक धमाका हुआ. चारों ओर धुंआ फ़ैल गया. टियर गैस छोड़ी हो ऐसा लगा. क्या हुआ इस का ख्याल आए उस के पहले ही स्टेनगन से दनादन गोलियाँ छूटी. हवामें से जैसे कोई आया हो ऐसा लगा. अदालत के कम्पाउंड में पार्क की हुए एक गाडी एकदम तेज रफतार से निकल गई. उस के पीछे पुलिस की दो मोटरसाइकिलें निकलीं, परन्तु गाडी कहाँ, कौन सी दिशा में गई उस का ख्याल किसी को नहीं रहा.

‘साहब, मैंने भरे हुए रिवाल्वर के साथ एक आदमी को पकड़ा है.’ एक पुलिस ने कहा. न्यालचंद ने देखा कि वह प्लेन क्लोथ में अपना ही आदमी था. ‘बेवकूफ यह हमारा ही आदमी है. पहचानता नहीं?’ झुंझलाते हुए उसने कहा.

‘परन्तु उस के हाथ में___’

‘पुलिस के पास रिवाल्वर नहीं होता तो क्या फूल होता? इडियट...’ कहकर न्यालचंद ने बाद में अपने साथ आये सबइंस्पेक्टर से कहा:

‘हमलावरों के पीछे लगे मोटर साइकिलवालें सफल हो न हो पर मैं जीता हूँ.’

‘कैसे?’

न्यालचंद ने दरवाजा पूरा खोल दिया. कुर्सी से बंधे शख्स को गोली से छलनी कर दिया गया था. परन्तु उस के जिस्म से खून नहीं, घास एवं कागज़ के गोले निकले थे. सिर्फ उस कुर्सी के पीछे रहे दो पुलिस में से एक के कंधे पर गोली हल्के से छूते हुए निकल गई थी. कुर्सी पर मुलजिम नहीं था, उस का डमी था.

जख्मी पुलिस के कंधे पर रूमाल की पट्टी कसते हुए न्यालचंद ने कहा: ‘इतनी हिफाजत एवं सतर्कता के बावजूद हमलावर भाग निकले और तुझे चोट पहुंची इतनी मेरी हार है. परन्तु अब न्यायाधीश की समाज में आएगा कि कैसे खतरनाक मुलजिम के साथ हमारा पाला पडा है!’

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रचनाकार: हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 12 वीं किश्त
हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 12 वीं किश्त
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