प्रमोद भार्गव का आलेख - ऑटिज्‍म : बीमारी से मुक्‍ति की पहल

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ऑटिज्‍म ः बीमारी से मुक्‍ति की पहल प्रमोद भार्गव कहने को तो राष्‍ट्र्रीय और अंतरराष्‍ट्र्रीय मंचों पर कहा जाता है कि स्‍वास्‍थ्‍य बुनियादी ...

ऑटिज्‍म ः बीमारी से मुक्‍ति की पहल

प्रमोद भार्गव

कहने को तो राष्‍ट्र्रीय और अंतरराष्‍ट्र्रीय मंचों पर कहा जाता है कि स्‍वास्‍थ्‍य बुनियादी मानवाधिकारी है। पर हकीकत यह है कि आम भारतीय के लिए इस अधिकार को हसिल करना आसान नहीं है। स्‍वास्‍थ के लिए यह स्‍वस्‍थ चिंतन की बात है कि राष्‍ट्र्रीय सलाहकार परिषद की अघ्‍यक्ष सोनीया गांधी ने इस सच्‍चाई को सार्वजनिक मंच ‘दक्षिण एशियाई आँटिजम नेटवर्क' द्वारा दिल्‍ली में आयोजित सम्‍मेलन में न केवल स्‍वीकारा,बल्‍कि इसे सुधारने की दिशा में पहल करने पर जोर दिया। यह सम्‍मेलन ऑटिज्‍म रोग से पीडि़त बच्‍चों की स्‍थिति सुधारने के लिए आयोजित था। सोनिया ने माना कि देश में कई तरह की पहल और नीतिगत बदलाव के बावजूद स्‍वास्‍थ लाभ हासिल कराने के परिप्रेक्ष्‍य में एक ऐसी लोकनीति बनाने की जरूरत है,जिससे जन्‍मजात अशक्‍तों को मदद मिल सके। क्‍योंकि पर्याप्‍त संस्‍थागत तंत्र के सहयोग के अभाव में अभी भी मानसिक रूप से अशक्‍त लोग अपने अधिकारों से वंचित हैं। हालांकि यहां यह सवाल उठता है कि जिम्‍मेबारी समझ लेने और सहानुभूति जताने भर से कुछ हासिल होने वाला नहीं है? वे देश की सत्‍ता में सबसे ज्‍यादा शक्‍तिशाली महिला हैं, लिहाजा जरूरी है कि वे कोई ऐसी ठोस पहल करें, जिससे अशक्‍तों को जन्‍म से जुड़ी विकृति से मुक्‍ति मिले।

शारीरिक, मानसिक और अन्‍य जन्‍मजात विकारों से ग्रस्‍त लाचारों के लिए अखिल भारतीय स्‍तर पर कई योजनाएं लागू हैं। अनेक पीडि़तों को लाभ भी मिल रहा है। किंतु बच्‍चों के प्राकृतिक रूप से विकास में बाधा डालने वाले विकारों में ऑटिज्‍म नामक मानसिक रोग एक ऐसा रोग है,जिसका न तो आसानी से उपचार स्‍वास्‍थ्‍य केंद्र्रो पर उपलब्‍ध है और न ही इस रोग के बाबत अभी पर्याप्‍त जगरूकता है। जबकि एक अनुमान के मुताबिक देश में करीब 80 लाख बच्‍चे इस रोग की असामान्‍य पीड़ा से जूझ रहे हैं। इसलिए वाकई इस दिशा में एक लोकनीति को वजूद में लाने की जरूरत है।

हालांकि करीब ड़ेढ़ साल पहले ढाका में ऑटिज्‍म पर केंद्रि्रत एक अंतरराष्‍ट्र्रीय सम्‍मेलन हो चुका है। इसमें ऑटिज्‍म की बीमारी से पीडि़त बच्‍चों के स्‍वास्‍थ सुधार की दिशा में पहल करते हुए नौ प्राथमिक कार्यों को चिन्‍हित भी किया गया था। भारत सहित दक्षिण पूर्व एशिया के सभी सदस्‍य देशों ने इस धोषणा पत्र पर सहमति भी जताई थी। लेकिन यह दुर्भाग्‍यपूर्ण है कि इस अंतरराष्‍ट्र्रीय सम्‍मेलन में आम सहमति के ड़ेढ साल गुजर जाने के बावजूद बच्‍चों के कुदरती विकास में अड़चन बनने वाले विकारों से निपटने के कोई उपाय धरातल पर नहीं आए। जाहिर है ढाका घोषणा-पत्र की उपलब्‍धि कागजी खानापूर्ति भर रही। हालांकि अब ऑटिजम्‍म रोग चिकित्‍सा क्षेत्र के लोगों के लिए कोई अनजाना रोग नहीं है। रोग की पहचान और निदान से जुड़े कई अध्‍ययन, खोजें व तकनीकें सामने आ गईं हैं। जरूरत है रोग की पहचान व उपचार की एक व्‍यावहारिक योजना बनाकर उसे देश भर में अमल में लाया जाए। इससे ऑटिज्‍म से प्रभावित लोगों व उनके परिजनों में समझ व जागरुकता पैदा होगी और वे रोगी को भगवान व भाग्‍य के भरोसे नहीं छोड़ेंगे। दरअसल ऑटिज्‍म रोग, एक मानसिक बीमारी है, जिसमें बच्‍चे या तो किसी बात पर ध्‍यान नहीं लगा पाते अथवा लंबे समय तक किसी एक ही चीज में उलझे रहते हैं। कुछ मामलों में बच्‍चों में खुद को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्‍ति भी पनपते देखी गई है। ये बच्‍चे दीवार से सिर पीटते अथवा घरेलू धारदार औजारों से हाथ-पैर काटते देखे गए हैं। इसीलिए इस बीमारी को मानसिक विकृति भी माना जाता है। ऐसे बच्‍चों के उपचार की दृष्‍टि से कई किस्‍म की दवाईयां दिए जाने के बावजूद कोई लाभ नहीं मिलता। मिलता भी है तो लंबे समय तक असरकारी नहीं रहता। ऐसे में यदि बच्‍चे में खुद को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्‍ति पनप गई है तो अभिभावकों को यह बड़ी चिंता का कारण बन जाती है। अनुसंधानों से पता चला है कि दिमाग के तंत्रिका तंत्र यदि किसी दुर्घटना का शिकार हो जाता है तो ऑटिज्‍म की बीमारी पनप सकती है। गर्भवती महिलाओं को उचित पोषाहार न मिल पाने से ही नवजात शिशु इस रोग से ग्रस्‍त हो जाता है।

नए अध्‍ययनों से पता चला है कि यह रोग कृमि संक्रमण की देन है। इसी नजरिए से ऑटिज्‍म पीडि़त बच्‍चों पर प्रयोगशालाओं में इस कृमि संक्रमण को दूर करने के लिए कृमि उपचार किया जा रहा है। इस रोग के निदान के लिए टाइचुरिस सुइस नामक कृमि की भूमिका पर अनुसंधान चल रहा है। ऐसे ही एक प्रयोग के तहत ऑटिज्‍म से ग्रस्‍त बच्‍चे को प्रयोगशाला में कार्यरत चिकित्‍सकों की सलाह पर टाइचुरिस सुइस के 2500 अण्‍डे प्रति सप्‍ताह देने का सिलसिला शुरु किया गया। कुछ ही दिनों में इस बच्‍चे के आचरण एवं रोग संबंधी लक्षणों में अकल्‍पनीय सुधार देखने में आया। उसके अतिवादी आचरण और खुद को हानि पहुंचाने की प्रवृत्‍ति में आश्‍चर्यजनक परिवर्तन हुआ हो देखने में आया।

चिकित्‍सा क्षेत्र में कृमियों द्वारा उपचार किए जाने की दिशा में अयोवा विश्‍वविद्यालय में बड़े पैमाने पर शोध किए जाकर इलाज की नई-नई तकनीकें ईजाद की जा रही हैं। लेकिन भारत समेत अन्‍य विकासशील देशों में ऐसे दुर्लभ चिकित्‍सा अनुसंधान नहीं हो रहे हैं, यह चिंताजनक पहलू है। इसके उलट हमारे चिकित्‍सा महा विद्यालयों एवं अनुसंधान केंद्रों में उपचार के लिए लाए गए बच्‍चों पर गैर कानूनी तरीके से चिकित्‍सा परीक्षण करके उन्‍हें तिल-तिल मरने को भगवान भरोसे छोड़ा जा रहा है। सूचना के अधिकार के तहत प्राप्‍त एक जानकारी के मुताबिक अकेले दिल्‍ली के सफदर जंग अस्‍पताल में बीते पांच साल के भीतर करीब 8250 बच्‍चों की मौंतें हुईं। इनमें से 3000 नवजात थे। यहां यह गंभीर और हैरान करने वाली बात है कि इनमें से ज्‍यादातर मौतें अवैध दवा परीक्षणों के दौरान हुईं।

दरअसल हम जिस लोक मान्‍यताओं और व्‍यवहार वाले समाज में रहते हैं, उसमें सामान्‍य रुप से स्‍वस्‍थ और बौद्धिक रुप से समृद्ध व्‍यक्‍ति को ही समाज की सहज स्‍वीकार्यता मिलती है। मामूली सी शारीरिक या मानसिक विकृति वाले लोगों को आसानी से उपहास का पात्र मान लिया जाता है। इसलिए ऐसे लोगों को शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना एक साथ झेलते रहने की लाचारी से गुजरना होता है। इस सामाजिक भेदभाव के कारण कई माता-पिता ऐसे बच्‍चों का लालन-पालन पर उचित ध्‍यान नहीं देते। जाहिर है, ये बच्‍चे जीवन की दौड़ उपेक्षित किए जाने की वजहों से पिछड़ जाते हैं। साफ है यह विडंबना समाज और कानून दोनों ही स्‍तरों पर बरकरार है। ऐसे निशक्‍तों के लिए कारगर नीतियां बनाना और उनको व्‍यवहार में लाना सरकार की प्राथमिकताओं में सबसे निचले पायदान पर है। इस लिहाज से जरुरी है कि स्‍वास्‍थ्‍य सुरक्षा से जुड़ी लोकनीतियां अशक्‍तों के लिए तो बनें ही, आर्थिक रुप से उन कमजोरों के लिए भी बनें, जो धनाभाव के चलते अनजाने में ही दवा परीक्षण के शिकंजे में आ जाते हैं। यदि ऐसा होता है तो देश के अशक्‍तों की समाज में सुविधा व सम्‍मानजनक स्‍थिति बन सकती है

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प्रमोद भार्गव

लेखक/पत्रकार

शब्‍दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी मप्र

मो 09425488224

फोन 07492 232007

लेखक प्रिंट और इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्‍ठ पत्रकार है।

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. Autism is not curable till date through medical science . But it is curable through grapho yoga. Grapho Yoga has developed its own technique to control, eliminate and make a healthy body and mind .
    There are imbalances of secretion of hormones in such children suffering from autism.The needful glands are activated and it starts working .
    Do visit for detail:
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रचनाकार: प्रमोद भार्गव का आलेख - ऑटिज्‍म : बीमारी से मुक्‍ति की पहल
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