सुरेश सर्वेद की कहानी - अंतर्मुखी

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अंतर्मुखी की आंखें जिस सड़क पर टिकी थी वह व्यस्त सड़क नहीं थी.पांच दस मिनट के अंतराल में एकाध गाड़ी फर्राटे मारते निकल जाती.उस सड़क में अंतर्मु...

अंतर्मुखी की आंखें जिस सड़क पर टिकी थी वह व्यस्त सड़क नहीं थी.पांच दस मिनट के अंतराल में एकाध गाड़ी फर्राटे मारते निकल जाती.उस सड़क में अंतर्मुखी की आंखें क्षितिज को खोज रही थी.क्षितिज अंतर्मुखी का न रिश्तेदार था न प्रेमी बस उनमें सामान्य जान पहचान थी.इसी बहाने उनकी मुलाकात अक्सर हो जाया करती थी.जब भी वे मिलते घण्टों बतियाते पर उन्हें कितना समय निकल गया इसका एहसास नहीं होता. उन्हें लगता - अभी कुछ ही क्षण गुजरे हैं.उनमें इतनी अंतरंगता आ गयी थी कि एक दूसरे से दूर होते ही वे परेशानी महसूस करते.

जाने आज सुबह से ही अंतर्मुखी को ऐसा क्यों लगने लगा था कि क्षितिज आयेगा.अंतर्मुखी बार बार खिड़की के पास खड़ी हो जाती और सड़क की ओर नजरें दौड़ाती पर हर बार उसके हाथ मायूसी लगती.वह हर बार खिड़की के पास से अलग होते समय सोचती कि वह अब खिड़की के समीप नहीं आयेगी मगर पल दो पल बाद वह स्वयं को पुनः खिड़की के समीप पाती.अब उसे स्वयं पर क्रोध आने लगा था.वह बड़बड़ा उठी -मैं क्यों क्षितिज का इंतजार कर रही हूं । उसे आना होगा तो आयेगा.अचानक उसका मन प्रफुल्लित हो उठा.आँखें चमक उठी.उसने देख लिया था - क्षितिज उसके घर की ओर आ रहा है.वह दरवाजा खोलने दौड़ी.चाह तो रही थी कि दरवाजा खोल दे मगर वह अपने उतावलेपन को उजागर करना नहीं चाहती थी.वह इंतजार करने लगी - क्षितिज के द्वारा घंटी बजाने का.जैसे ही क्षितिज ने डोर बेल बजायी. अंतर्मुखी ने दरवाजा खोल दिया.क्षितिज ने मुस्करा कर कहा - कहीं तुम मेरी ही प्रतीक्षा तो नहीं कर रही थी....?

- मैं भला तुम्हारी प्रतीक्षा क्यों करने लगी......? अंतर्मुखी झूठ बोल गयी.

दोनों भीतर आये.क्षितिज को कुर्सी में बैठने कह वह चाय बनाने जाने लगी कि टेबल पर रखा कीमती गमला डगमगा कर गिरने को हुआ.गिरते हुए उस गमले को बचाने दोनों के हाथ एक साथ बढ़े.और उनके हाथ आपस में चिपक गये.हाथों के स्पर्श से उनके शरीर में स्पंदन हुआ.उनकी चाहत थी - हाथ ऐसे ही चिपके रहें.अनायास उनमें झिझक उत्पन्न हुई.उन्होंने अपने - अपने हाथ खींच लिए.क्षितिज ने कहा - आज तो मुझे कुछ खाने की इच्छा हो रही है.

- मैं पुलाव बना लाती हूँ .....। अंतर्मुखी पुलाव बनाने चली गयी.

वापस आयी तो अंतर्मुखी के हाथ में पुलाव की प्लेट थी.पुलाव की प्लेट लेते समय क्षितिज ने जानबूझकर अंतर्मुखी के हाथ को स्पर्श किया.क्षण भर की सुखद अनुभूति से अंतर्मुखी सिहर उठी.वह पुलाव खाने लगा. अंतर्मुखी आनंदित थी. उसने पूछा - क्षितिज, पुलाव स्वादिष्ट है न ?

- कोई खास नहीं....।

अंतर्मुखी को झटका लगा.उसने सोचा था- क्षितिज पुलाव चख कर प्रशंसा के पुल बांध देगा.क्षितिज के वाक्यों से वह कुढ़ गयी.बोली - मैंने मर खप कर स्वादिष्ट पुलाव बनाया और तुमने मेरी तारीफ न करके एक झटके में अस्वीकार दिया ?

- अंतर्मुखी, तुम दिन - दिन आत्मप्रशंसक बनती जा रही हो यह किसी भी स्थिति में उचित नहीं.तुम्हारी झूठी प्रशंसा करुं यह मेरी आदत में शामिल नहीं.

अंतर्मुखी तिलमिला गयी. उसका क्रोध उफना उठा.वह उठ खड़ी हुई. क्षितिज ने उसे रोकना चाहा. अंतर्मुखी झटके के साथ भीतर चली गयी.उसी समय अंतर्मुखी के पिता पंकज आये.क्षितिज को अकेला देखकर पूछा -तुम यहाँ अकेले बैठे हो.अंतर्मुखी घर में नहीं है क्या ?

- जी, वह भीतर है....। क्षितिज का उत्तर था.

पंकज भीतर आये.उन्होंने देखा -अंतर्मुखी के चेहरे पर प्रसन्नता की आभा नहीं है. उसमें तनाव और क्रोध है.उन्होंने कहा - बैठक में क्षितिज अकेला बैठा है. और तुम ....।

- तो मैं क्या करुं ?

पहले तो क्षितिज को देखकर अंतर्मुखी चहकती थी.उनकी मुलाकात सामान्य होती थी. वे घण्टों बैठकर वार्तालाप करते पर पंकज ने कभी उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया.आज जब अंतर्मुखी के मुंह से रुखा शब्द निकला तो पंकज को संदेह होने लगा.उसका संदेह तो तब और पुख्ता हो गया जब क्षितिज बिना बताए लौट गया.उसे लगने लगा कि निश्चय ही अंतर्मुखी और क्षितिज के बीच आंतरिक संबंध है.

क्षितिज के चले जाने के बाद अंतर्मुखी की छटपटाहट बढ़ गयी.वह बड़बड़ा उठी -मुझे क्षितिज से रुखा व्यवहार नहीं करना था. मैंने क्षितिज को जाने से क्यों नहीं.... पर सारा दोष मेरा ही तो नहीं.क्षितिज भी तो मुझे मना सकता था.जब वह कल आयेगा तो डटकर लड़ूंगी

जब तक क्षितिज और अंतर्मुखी में सामान्य व्यवहार चल रहा था तब तक पंकज ने इनकी ओर झांक कर देखने की आवश्यकता भी नहीं समझी.असामान्य व्यवहार ने उनमें संदेह उत्पन्न कर दिया था.वे अंतर्मुखी की एक एक गतिविधि पर ध्यान देने लगे.दूसरे दिन अंतर्मुखी क्षितिज की प्रतीक्षा कर रही थी.पंकज अनदेखा कर सब कुछ देख रहे थे.

अंतर्मुखी के परिवर्तित व्यवहार ने क्षितिज के मन को आघात पहुंचाया था.उसने निश्चय किया था कि वह अंतर्मुखी के घर नहीं जायेगा पर वह अंतर्मुखी के घर की ओर चल पड़ा.

अंतर्मुखी ने क्षितिज को देखा तो प्रसन्नता से खिल उठी .तत्क्षण ही उसके चेहरे में बदलाव आ गया.उसकी धड़कन बढ़ गयी. शरीर कांपने लगा.चेहरे पर आतंकित होने का भाव उभर आया.क्षितिज ने चौखट पर कदम रखा. उसने अंतर्मुखी को देखकर मुस्काना चाहा ही था कि अंतर्मुखी एक झटके के साथ उठी और भीतर चली गयी.क्षितिज को शॉक पहुंचा.वह उल्टे पैर लौट गया.

क्षितिज के आते तक तो अंतर्मुखी प्रतीक्षा करती और सोचती रहती कि आज क्षितिज पर बरसूंगी.कहूंगी - मैं तुमसे बात नहीं करती तो तुम तो बात कर सकते हो न ? मैं तुम्हें सदैव मनाती हूं तो क्या तुम मुझे एक बार नहीं मना सकते...? लेकिन क्षितिज को सामने पाकर वह वहां से भाग खड़ी होती.

वस्तुतः इस प्रकार का व्यवहार उच्चाकर्षण के कारण हो रहा था. दोनों में मित्रता थी मगर अचानक मतभेद होने से दूरियाँ बढ़ती चली गयी.

एक दिन दूर से ही क्षितिज ने अंतर्मुखी और हंसमुख को हंस हंस कर बातें करते देखा.वह छटपटा उठा.इच्छा तो हुई कि अंतर्मुखी को हंसमुख से बात करने से रोके पर ऐसा कर पाना उसके लिए संभव नहीं था.क्षितिज की आंखों के सामने बिजली कौंधी और प्रेरणा का चेहरा नाच उठा......।

प्रेरणा से उसकी गहन मित्रता थी.उनका आपस में घुलमिल कर उठना बैठना होता था.वे एक दूसरे से मिलने को तत्पर होते न मिलने पर विचलित.प्रेरणा ने क्षितिज के साथ जीवन जीने का विचार किया था.क्षितिज भी यही चाहता था.किंतु वे अपनी बात खुलकर नहीं कह सके स्पष्ट बातों के अभाव में उनकी इच्छा प्रकट नहीं हो पायी. इससे प्रेरणा में नैराश्य और हीनता आ गयी.वह समझने लगी - क्षितिज मात्र दिखावा करता है.वह किसी दूसरे को अपनी जीवन संगिनी बनायेगा. इस विचार के साथ प्रेरणा स्वयं को उपेक्षित समझने लगी.प्रेरणा तीव्र उत्तेजना का शिकार हो गयी.संवादहीनता ने उनके मध्य दरार पैदा कर दी.स्थिति यहाँ तक पहुंची कि जो भी उससे प्यार जताता उसके लिए वह समर्पित हो जाती.

प्रेरणा जब भी किसी को समर्पित होती तो इसकी सूचना क्षितिज को अवश्य देती.यह अपने मन क ी कुढ़न को कम करने का प्रयत्न था मगर इसके दुष्परिणाम स्वयं भोग रही थी - अनेक गंभीर रोगों को आमंत्रित करके.प्रेरणा जब भी सूचित करती क्षितिज विक्षिप्त हो जाता.वह विचलित मन की पीड़ा को कम करने शराब का सहारा लेने लगा.

लगातार शराब सेवन से दुष्परिणाम सामने आने लगे - उसके शरीर में जर्जरता आती गयी.वह जीवित होकर भी शव तुल्य हो गया.ऐसा भी समय आया जब उसमें घूंट भर शराब पीने की शक्ति नहीं रह गयी.

क्षितिज शराब की दुनिया से उबरा तो उसे प्रेरणा के संबंध में पता चला कि अति उत्तेजना और समर्पण के कारण वह सिफलिस रोग की शिकार हो गयी.वह कहाँ गई पता करने पर भी जानकारी नहीं मिली.

क्षितिज में अब गंभीरता आ गयी थी.वह शतरंज का प्रेमी तो था ही.अतः मन बहलाने पुनः शतरंज खेलने लगा.लगातार शतरंज खेलते खेलते उसमें दक्षता आ गयी.वह प्रतियोगिता में भाग लेने लगा.......।

सहसा क्षितिज विचारों से उबरा.अंतर्मुखी और हंसमुख अब तक एक दूसरे से बात करके हंस रहे थे.क्षितिज के समक्ष प्रश्न खड़ा हुआ -मैं प्रेरणा के जीवन में नायक बनने आया था पर संवादहीनता के कारण खलनायक बन गया.क्या अंतर्मुखी के जीवन में भी खलनायक बन जाऊंगा ?

क्षिजित एक नीम वृक्ष के तले खड़ा हो गया.उसने अपनी पीड़ा को कम करने आँखें बंद कर ली.उसकी व्यथा से द्रवित होकर नीमवृक्ष रो पड़ा.उसने आँसुओं की बूंदे गिराई .

क्षितिज के मन में कई प्रश्न हिलोरें मार रहे थे- क्या प्रेरणा की तरह अंतर्मुखी भी गर्त में चली जायेगी ?क्या उसका भी भविष्य अंधक ार में भटक जायेगा..... नहीं, नहीं , अब ऐसा कदापि नहीं होगा.मैं अंतर्मुखी का मित्र या हितैषी नहीं बन सका तो खलनायक या दुश्मन भी नहीं बनूंगा.अब किसी भी स्थिति में दुखांत कहानी की पुनरावृत्ति नहीं होगी.

क्षितिज के विचारों को नीम के वृक्ष ने भी सहमति दी.उसने अपनी डालियों को हिलाकर सद्भावना के पत्ते बरसाये.साथ ही क्षितिज को खुश्बूदार हवाएँ दीं.

वहाँ से क्षितिज सीधे सीमांत के घर गया.वह उसका मित्र था. सीमांत ने मुस्करा कर क्षितिज का स्वागत कि या.कहा - मैं जानता हूँ, तुम कहाँ से आ रहे हो ?

- हाँ मित्र, मैं अंतर्मुखी के ही घर से आ रहा हूँ .

- अंतर्मुखी के घर से आ रहे हो फिर भी निराश....? सीमांत ने कहा.

क्षितिज ने गहरी साँस भरते हुए कहा - अंतर्मुखी, सुन्दर - सुशील और भोली है. पता नहीं वह कैसे व्यक्ति की जीवन संगिनी बनेगी ?

- क्षितिज, ये तुम क्या कह रहे हो....?

सीमांत की आंखें आश्चर्य से फट गयी.उसने तो अब तक यही समझा था कि - क्षितिज और अंर्तमुखी का संबंध गहरा है और वे आपस में मिलकर जीवन यापन करेंगे.पर यहाँ तो क्षितिज का वाक्य इन विचारों का विरोध कर रहा था.क्षितिज ने आगे कहा - जो भी अंतर्मुखी से जुड़ेगा उसका परिवार सदैव सुखी और शांत रहेगा.......। क्षितिज थोड़ा रुका. कहा - सीमांत तुम अंतर्मुखी को अपनी जीवन संगिनी चुन लो.

इस वाक्य से सीमांत सकते में आ गया.क्षितिज ने आगे कहा - तुम आश्चर्य में न पड़ो,मैं और अंतर्मुखी मित्र थे अभिन्न मित्र.हम निश्छलता से सुख दुख बांटते थे.मेरा उसका लांछित संबंध बिल्कुल नहीं रहा.

सीमांत ने क्षितिज के हृदय में झाँक कर देखा - वास्तव में वह निर्मल था.

क्षितिज को इस बार अंतर्राष्ट्रीय शतरंज स्पर्धा के लिए चुना गया था.उसे स्पर्धा में शामिल होना था मगर अंतर्मुखी के भविष्य की चिंता उसे खाये जा रही थी.वह अंतर्मुखी को समझाने उसके घर जा पहुंचा.अंतर्मुखी, क्षितिज क ो देखते ही भागने को हुई कि क्षितिज ने उसकी दोनों बाहों को कस कर पकड़ लिया.अंतर्मुखी भयभीत हो गई. वह थर - थर कांपने लगी.वह स्वयं को छुड़ाने झटकारने लगी.क्षितिज ने उसे जोर से झकझोरा और कहा - मेरी बात सुनो....।

क्षितिज की आवाज में रोष था.अंतर्मुखी का छटपटाना रुक गया.क्षितिज ने कहा - मैं तुमसे अभद्र व्यवहार करने नहीं, तुम्हें सावधान करने आया हूं.मैं स्वीकारता हूं कि तुम्हारा हंसमुख या किसी दूसरे से आंतरिक संबंध नहीं .तुम पवित्र हो.... पर तुम उस स्थिति पर पहुँच चुकी हो जहाँ तुम्हें कोई सम्मिलन के लिए उत्साहित करेगा तो तुम समर्पित हो जाओगी.इससे बचने का यही उपाय है कि प्रणयप्रार्थी के शब्दों को दिमाग में लेते हुए न अत्यधिक उत्तेजित होना और न ही नर्वस.अपितु उसे स्थिर बुद्धि से टाल देना..... और हां,हंसमुख विवाहित है. उसके बच्चे हैं.उससे मिलना जुलना उचित नहीं.....।

अंतर्मुखी अवाक थी जबकि क्षितिज को संतुष्टि थी कि उसने अपनी बात रख दी.वह स्पर्धा में भाग लेने चला गया.

उस दिन हंसमुख भी अंतर्मुखी के घर आया.वह अन्य दिनों की तरह सामान्य था.उसके दिमाग में किसी प्रकार की चंचलता या गर्माहट नहीं थी.घर में अंतर्मुखी अकेली थी.एकांत वातावरण ने हंसमुख को उत्साहित किया.वह अंतर्मुखी से सम्मिलन का निवेदन कर बैठा.एक क्षण तो अंतर्मुखी अति उत्तेजना के कारण नर्वस हो गयी. वह समर्पित होती कि क्षितिज की चेतावनी याद आ गयी.उसकी अंतर्चेतना जाग उठी.उसने शांत स्वर से हंसमुख को समझाया - हंसमुख , तुम विवाहित हो.अपने पत्नी बच्चों के साथ सुखी रहो. मुझे भी अपना भविष्य बनाना है.

इस वाक्य ने हंसमुख के ज्वार को ठंडा कर दिया.वह चुपचाप लौट गया.

क्षितिज शतरंज स्पर्धा से लौटकर सीमांत से मिलने गया.वहाँ अंतर्मुखी थी.उसे देख क्षितिज के विश्वास मिश्रित आश्चर्य से पैर ठिठके. उसकी दृष्टि टेबल पर रखी तस्वीर पर गयी.उसमें सीमांत और अंतर्मुखी का एक साथ खिंचाया चित्र था. उसने स्थिति स्पष्ट कर दी कि अब वे दोनों एकात्म हो गये हैं.

अंतर्मुखी ने क्षितिज का आत्मिक स्वागत किया. लगा कि वह क्षितिज की ही प्रतीक्षा में हो और क्षितिज अपने कथनानुसार आ गया हो. अंतर्मुखी ने कहा - वास्तव में हंसमुख आया था.मैंने उसे समझा कर लौटा दिया.सच कहूँ - तुम्हारे कथन ने ही मुझे बचाया है....।

उसने क्षितिज पर दृष्टि डाली.वह आभार व्यक्त कर रही थी.

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सुरेश सर्वेद,

तुलसीपुर, राजनांदगांव, छ.ग.

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रचनाकार: सुरेश सर्वेद की कहानी - अंतर्मुखी
सुरेश सर्वेद की कहानी - अंतर्मुखी
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