अंशुल त्रिपाठी की कहानी - छायानट

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अंशुल त्रिपाठी छायानट “इन हादसों की सत्‍यता बरकरार रखने के लिए कहानी में आये चरित्रों के नाम में किसी फेरबदल की आवश्‍यकता नहीं समझी गयी। य...

अंशुल त्रिपाठी

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छायानट

“इन हादसों की सत्‍यता बरकरार रखने के लिए कहानी में आये चरित्रों के नाम में किसी फेरबदल की आवश्‍यकता नहीं समझी गयी। यदि इस कहानी की कोई घटना, व्‍यवहार या चरित्र किसी के जीवन से मिलते हुए लगे, तो वो भी खुद को इस कहानी का एक पात्र समझें, क्‍योंकि यहां खुद कहानीकार भी अपने उसी रूप में मौजूद है जैसा कि वो है या होना चाहता है।”

(1)

“रिंदे-खराबे-हाल को जाहिद न छेड़ तू”

रात काफी हो गयी है आज शाम ही से मैं अपने भीतर भटक रहा हूँ और वो है कि मुझे मेरी ही डायरी में अनावृत पाकर हर्फ-ब-हर्फ मुझे पढ़े चली जा रही है। ... इतनी जल्‍दी क्‍या-क्‍या समझ लेना चाहती हो फिजा। छोड़ो इसे, मैंने डायरी उसके साथ में बन्‍द करते हुये कहा�

तुम्‍हारे शहर बनारस के मुहल्‍लों के नाम बड़े रोचक हैं- कबीर चौरा, लहुराबीर, लंका, रथ यात्रा...

और तुम्‍हारी इस डायरी में लिखी लड़कियों के नाम - नताशा, तनु, आबिदा, वैशाली, संज्ञा, परवीन और ये शी., कु., प्र., ...

तुम इसे लेकर बेकार परेशान हो

परेशान कहां हूँ? बस पढ़ रही हूँ। तुम्‍हें और तुम्‍हारे सम्‍बन्‍धों को

“बस एक परिचय सा था। इन सबसे”

“शायद लगाव”

“लगाव या प्रेम या फिर...”

या फिर क्‍या, मैंने ऐश-ट्रे बगल सरकाते हुये कहा- तुम कुछ नहीं जानती फिजा इनमें से दो की माँ नहीं थी, तीन बचपन से ही घर से दूर हास्‍टल में थीं, एक का किशोर-वय में ही रेप हो गया था और...

और सबके ‘कॉलर-बोर' उभरे हुये थे, सब टेढ़ी माँग निकालती थीं, सबके हाथों की नसें हल्‍के हरे रंग की , झलकती हुई सी थी, सबमें एक ‘इस्‍लामिक-टच' था। सब तुम्‍हारे साथ किसी भी हद तक जाने को तैयार थी। मैं नहीं कह रही हूँ तुम्‍हारी डायरी कह रही है और ये सारे शब्‍द महल लगाव के नहीं हैं, ये शब्‍दावली प्रेम की है- कवि। ... उन दिनों हर सत्र में दो-तीन प्रेम तो करते ही थे तुम। जुलाई-अगस्‍त में क्‍लास शुरू, पे्रम शुरू, अप्रैल के आखिर तक परीक्षाओं के साथ ही प्रेम खत्‍म फिर गर्मियां, मई-जून में लाईब्रेरी और वहाँ एक नये तरह का प्रेम- हॉस्‍टल की बौद्धिक लड़कियाँ और तुम... कभी भावुक विलास तो कभी बौद्धिक।

ऐसा कुछ भी नहीं था फिजा, मुझे कुछ तो कहने दो...

क्‍या कहने दूँ, तुम खुद को ‘जस्‍टीफाई' नहीं कर सकते।

मैं करना भी नहीं चाहता। बात सिर्फ इतनी है कि शुरू से ही मुझे अकेलेपन से चिढ़ थी, जो ‘कवि' होने के बाद बढ़ती ही चली गयी। उसी बीच मैंने गालिब को पढ़ा, मीर और शमशेर को पढ़ा, तो लगा प्रेम ही है, जिसके बिना मैं अधूरा हूँ। मुझे प्रेम करना चाहिये और सच मानो फिजा महज सांद्रता और पे्रम की ताजमहली-परम्‍परा की अगली कड़ी बनने के चक्‍कर में मैं एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी फिर तीसरी से चौथी लड़कियों तक भटकता रहा।

‘भटकता रहे'

हाँ भटकता ही तो रहा था जिसमें ये सिलसिला बढ़ता ही चला गया। -मुझे ये तो बहुत बाद में पता चला कि इन तारीखों में अपनी विशुद्ध-संकल्‍पना में पे्रम संभव ही नहीं। आज का प्रेम समायोजन का एक छल-गणित है। एक गफ़लत भरा समझौता है। बस।

तुम ऐसा सोचते हो।

नहीं ऐसा समझने पर मजबूर हूँ।

तुम कहना ये चाहते हो कि बीते सात वर्ष में इनती लड़कियों से प्रेम करके तुम ये जानने की कोशिश करते रहे कि प्रेम क्‍या है और अंत में वो निकलता है�‘समायोजन का एक छल-गणित।' क्‍या मजाक है, कवि, जरा तुम अपनी ही डायरी का ये अंश देखो-

“बहुत देर तक बात करने के बाद हम चुप हो गए, मौन का संप्रेषण भी आगे लम्‍बा नहीं चल सका फिर तो कुछ भी जाहिर करने का एक ही तरीका था� स्‍पर्श।”

-3 अगस्‍त 1995

ये तुम्‍हारे पहले प्रेम की शुरूआत थी, जिसके अंत के बारे में तुम्‍हारा लिखना है�

“मैं हरामजिंदगी के नजरिए से ही सोचता हूँ, लेकिन उसका भी अपना एक स्‍तर है- यदि मेरी वजह से किसी का कोई सिस्‍टम बिगड़ रहा है तो मैं अपनी पूरी गणित तत्‍काल वहीं छोड़ देने के पक्ष में हूँ।”

-9 अप्रैल, 1996

तुम्‍हें नहीं पता फिजा ये सब किस मनःस्‍थिति में लिखा गया है....

चलो छोड़ो, मैं यही मान लेती हूँ कि ये बहुत सारी चीजों के खिलाफ किशोरावस्‍था की एक तीखी प्रतिक्रिया है, लेकिन इन सबके सात वर्ष बाद यानी मुझसे मिलने के लगभग तीन महीने बाद तुम लिखते हो-

“काश जरा सी समझदारी से तुमने काम लिया होता, मुझे हाथों की चूड़ियाँ बेवजह आगे-पीछे करने को कोई शौक नहीं है और न ही तुम्‍हारी शक्‍ल देखते हुए बैठे रहने का कोई नशा है, और टेलीविजन पर यूँ ही चैनल बदलते रहने का तो खैर कोई मतलब ही नहीं होता। हाँ ‘संज्ञा' मुझे तुम्‍हारी देह में - शायद - कोई दिलचस्‍पी नहीं है। मैं तो बस खुद को बचाना चाहता था, इसलिए तुम्‍हारे इतने करीब आ गया, लेकिन अनिश्‍चित आकर्षण के सहारे जीवन तो नहीं गुजारा जा सकता। तुम्‍हें अपनी पक्षधरता तो स्‍पष्‍ट करनी ही होगी। मेरा क्‍या है मैं तो चला जाऊँगा शायद हमेशा के लिए भी।

जो भी हो, आज इस अध्‍याय को यहीं खत्‍म कर रहा हूँ... ये सब खुद को ‘डिफेन्‍ड' करने का एक बहाना भी हो सकता है।”

-13 सितम्‍बर 2002

देख रहे हो तुम अभी पिछले साल तक कैसे-कैसे अन्‍तर्विरोध में जीते आये हो तुम, और ये जो पल्‍ला छुड़ाकर बच निकलने की तुम्‍हारी कवायद हैं न, ये और कुछ नहीं- वही सात साल पीछे के हरामजदगी के नजरिये का स्‍पष्‍ट स्‍वीकार है। अब क्‍या शेष रहता है कहने को। और क्‍या समझने को।

(2)

‘दिल ने भी मेरे सीख लिये हैं चलन तमाम'

शेष रहता है फिजा लाओ इधर दो डायरी। मैंने डायरी पलटते हुए एक सिगरेट सुलगाई औरउसका एक अंश पढ़ने लगा-

“जीवन में बड़े लक्ष्‍य को पाने के लिए तुम्‍हें कुछ करना होगा, साहस को बुलाओ, उत्‍साह को बुलाओ, ज्ञान के पास जाओ, वो पुल बनाओ जो तुम्‍हें ‘वर्तमान' तक पहुँचाए।

तुम्‍हें वर्तमान पर विजय पानी है। और इतना तय है कि आत्‍मविश्‍वास के बिना ये सब संभव नहीं।”

-2 जनवरी 1994

और जानती हो तुम मैं बहुत बाद में ये निश्‍चित कर सका कि आत्‍मविश्‍वास तो प्रेम से आता है। सिर्फ पे्रम से।

और तुम सात वर्षों और बारह लड़कियों की गुणा-गणित से आत्‍मविश्‍वास बटोरने लगे। यही न।

नहीं बात पूरी होने दो। दरअसल चाहने और न करने के बीच की जो बुजदिली है, वो हमें मृत्‍यु की ओर ले जाती है- और मैं ऐसी मौत नहीं मरना चाहता था। मुझे स्‍थायी और चटख रंगों की तलाश थी, जबकि मुझे ये दृढ़ शक था कि कोई भी मुझे ‘समूचा' नहीं पा सकता शायद इसीलिए मैं भी किसी को पूरा का पूरा नहीं पा सकता।

हां, क्‍योंकि तुम सब खण्‍डित थें

नहीं। क्‍योंकि हम सब जानते थे कि अपनी विशुद्ध संकल्‍पना में प्रेम संभव ही नहीं, क्‍योंकि इस क्रय करने की क्षमता किसी भी व्‍यक्‍ति में नहीं है । इसलिए जो, जहाँ, जितना भी सुंदर और उपयोगी है, उसे वहाँ से उतना लिया जा सकता है, जबकि ये लेना सहमति पर निर्भर हो किसी और तरीके पर नहीं। आशय यह कि परस्‍पर वे अपेक्षाएं जरूर पूरी की जा सकती हैं, जिनके बीच कोई ‘नैतिक-बोध' आड़े न आता हो।

तुम शब्‍दों से अनावश्‍यक खेल रहे हो, इस कवि-चमत्‍कार भर ही ये दुनिया नहीं है। खैर छोड़ो। वैसे तुम्‍हारी इन परस्‍पर अपेक्षाओं का नियंता कौन होता था- ‘सिर्फ तुम दोनों'।

नहीं हमारा ‘निरर्थकता-बोध'। दूर जहाँ तक भी चीजें निरर्थक और उदासीन हैं, हम अपनी ‘अपेक्षित-दुनिया' को फैला लेते थे।

आश्‍चर्य है कवि! तुम जो कह रहे हो यदि ठीक वैसा ही सोचते और करते भी हो- तो यहाँ से तो प्रेम को और सान्‍द्र होना चाहिए, चीजें और पास आनी चाहिए, लेकिन तुम लोगों के बीच तो विलगाव आता था। एक-दूसरे से जल्‍दी-से-जल्‍दी अलग होने के रास्‍ते बनते थे।

इतनी देर से यही तो मैं तुम्‍हें समझा रहा हूँ फिजा कि जब हमें ये पता चलता है कि कोई भी व्‍यक्‍ति किसी के अस्‍तित्‍व को उसके अंतिम बिन्‍दु तक स्‍वीकार कर ही नहीं सकता, क्‍योंकि उसके ‘पूरे पन' पर उसका अधिकार है, ही नहीं, क्‍योंकि उसे वही अच्‍छा लगता है जो सुन्‍दर और उपयोगी है, तो भीतर एक खीझ पैदा होती है- “अधूरे अधिकारों के साथ किसी के पास रहना उससे अलग हो जाने से ज्‍यादा त्रासद है।”

तुम्‍हारा मतलब ले-देकर पे्रम अधिकारों का मामला है। ये वर्चस्‍व की एक लड़ाई है- समर्पण की नहीं। यही कहना चाहते हो न।

बिल्‍कुल नहीं, मुझे खीझ इस बात की है कि ये केवल अधूरे समर्पण की लड़ाई है-सुन्‍दर और उपयोगी के प्रति समर्पण। बस।

ये सब तुम्‍हारी अपनी सीमा भी तो हो सकती है।

खामोशी से मैंने सिगरेट की राख ऐश-टे्र में गिराई और अपनी भंगिमा बदल ली।

(3)

“जाहिद ने मेरा हासिल-ए-इमा नहीं देखा”

उसकी चहलकदमी मुझे अपने कमरे में अच्‍छी नही लग रही थी लेकिन मैं अपने तई कोई बात शुरू नहीं करना चाहता। उधर उसकी बेचैनी भी सब्र-तलब नहीं थी...

अच्‍छा तुम्‍हारी इन सब हरकतों में तुम्‍हारे कवि-पन की कितनी दखल है उसने जरा तल्‍खी से पूछा।

कभी सोचा नही।

मैं बताती हूं। किन्‍ही सर्दियों की शुरूआत में तुम इस डायरी में लिखते हो-

“और इस तरह हम जुड़ गए या इस तरह हम अलग हो गए- इस इलाहाबादीपन से निकलना होगा। ये रास्‍ते भले ही कहीं जाते हो लेकिन इनसे होकर कहीं जाया नहीं जा सकता। खुद को इस टूटने-जुड़ने पाने-छोड़ने में खर्च करके कुछ होने वाला नहीं। इससे ऊपर उठने की भी जरूरत नहीं, जरूरत है इससे अलग होने की- एकदम तटस्‍थ होने की।”

-अक्‍टूबर की एक शाम।

यहां तक तो ठीक है कवि लेकिन इसी पेज पर कुछ हाशिए के बाद जो कुछ तुमने लिखा है, उसका क्‍या-

“फिर भी, अपनी रचनात्‍मक ऊर्जा को बनाये रखने के लिए नित नए उपक्रम तो तलाशने ही होंगे।”

-अक्‍टूबर की वही शाम।

मुझे लगता है ये उपक्रम यही हैं जिनसे तुम्‍हारी डायरी भरी पड़ी है। यही नहीं, मुझे शायद ये भी लगता रहा है कि कवि ऐसे ही होते हैं- हमेशा एक संभावना में जीते रहने की चेष्‍ठा करने वाले सौन्‍दर्यवाची व्‍यक्‍ति बस।

मैंने सिगरेट का एक गहरा कश खींचकर कहा- दरअसल फिजा सौन्‍दर्य की एक वस्‍तुवादी सत्ता होती ही है। ये ‘वस्‍तु' ही सौन्‍दर्य का आश्रय है और रचनात्‍मक जीवन का एक स्रोत भी। और इस नुक्‍ते से प्रेम को दो आत्‍माओं की निर्विकल्‍प उपलब्‍धि का नैरन्‍तर्य कम से कम मैं तो नहीं मानता।... ये सम्‍मोहन से परे की दुनिया कतई नहीं है, और सम्‍मोहन प्रत्‍यक्ष का ही संभव है...

अब आगे तुम कहाने देह ही प्रत्‍यक्ष है और जिसका साक्षात्‌ हो वही शाश्‍वत है, इसलिए देह ही सत्‍य है, लेकिन कवि, जो अमूर्त है वो कल्‍पनातीत भी हो ऐसा जरूरी नहीं, मन हर कुछ का एक आकार गढ़ लेता हैऔर इस संसार में जो कुछ भी कल्‍पनातीत नहीं है, उससे प्रेम किया जा सकता है।

तुम्‍हारा मतलब हमारे सारे प्रेम-व्‍यापार कल्‍पित होने चाहिए- पीछे कमर तक के लम्‍बे और सुलझे हुए बाल लिए एक छरहरी काया घंटो आपके पास बैठकर चली जाय, फिर आप रहस्‍यवादियों की तरह पहले उसकी वायवीय सत्ता को अपने सामने साकार करिए और फिर उसमें डूबिए-उतराईये। यही न।

कम से कम एक कवि तो ऐसा कर ही सकता है- या फिर रचनात्‍मक ऊर्जा के नित नए उपक्रम ऊष्‍ण ही होने चाहिए- ‘सृजनरत ऊंगलियों के लिए एक मांसल पृष्‍ठ जिस पर मात्राएं बिठाकर जीवन के समीकरण सीखें जायं।'

बिल्‍कुल। ‘साहित्‍य जीवन की पुनर्रचना है और देह के नकार से जीवन संभव नहीं।'

‘और सिर्फ देह के स्‍वीकार से भी नहीं।' वैसे कवि, इस स्‍वीकार का मापदण्‍ड क्‍या है।

एकदम वही-‘तुम्‍हारे तथाकथित प्रेम को उसकी सान्‍द्रता में जानने की उत्‍सुकता।'

‘ये बोध कभी मुझे क्‍यों नहीं हुआ।'

‘तुम झूठ भी बोल सकती हो।' सिगरेट को ऐश टे्र में मसलते हुए मैंने कहा।

‘कवि'!!!

मैं... मैं गलत भी हो सकत हूँ।

तुम गलत हो न हो लेकिन तुम्‍हारे प्रयोग जरूर गलत हैं। तुमने ‘सुख' और ‘आनंद' को एक समझा है, जबकि सुख ऐंन्‍द्रिक है और आनंद बौद्धिक। आनंद के लिए मनुष्‍य की अतृप्‍त शारीरिक इच्‍छाओं का होना अनिवार्य नहीं है, जबकि सुख मुख्‍यतः इन्‍ही इच्‍छाओं की तृप्‍ति का परिणाम है- आनंद स्‍थायी है और सुख क्षणिक, आनंद एक मानसिक अनुभूति है जो...

... जो अन्‍ततः जीवन और जगत संबंधी व्‍यक्‍ति के अपने दृष्‍टिकोण पर निर्भर है और यही बात सुख पर भी लागू होती है। ये कहते हुये मैंने एक बिना जली हुई सिगरेट अपनी ऊंगलियों में दाब ली।

मतलब तुम किसी परिभाषा को सार्वभौमिक नहीं मानते।

एकदम नहीं। परिभाषाएं हमारे दृष्‍टिकोण पर निर्भर हैं, और ये दृष्‍टिकोण वैयक्‍तिक होते हैं जो कि इन तमाम परिभाषाओं के निहितार्थ को बदलते हुए- या कहे कि हमारे पक्ष में करते हुए- हमारे अहं की तुष्‍टि करते हैं...

...और ये बदले हुए निहितार्थ तुम्‍हारे निर्णयों को एक आधार देते हैं... मैं ठीक कह रही हूँ न ...।

मैंने सिगरेट जलाने की जरूरत नहीं समझी।

‘मैं ठीक कह रही हूँ न।' उसने अपने शब्‍द दोहराए।

हाँ शायद। वैसे मेरे सारे निर्णय मेरी ‘अंतः पे्रेरित नैतिकता' पर निर्भर होते हैं।

तुम्‍हारी अंतः प्रेरित नैतिकता! जो किसी दंड के भय या पुरस्‍काल के प्रलोभन से परिचालित नहीं होती। जिसका अपना कोई दर्शन नहीं है।

अपने स्‍वतंत्र व्‍यक्‍तित्‍व का सम्‍मान करने में किसका भय और कैसा प्रलोभन। मैं एक ऐसे नश्‍वर भौतिक तत्‍व में विश्‍वास करता हूँ, जो विस्‍तार के कारण कुछ स्‍थान घेरता हो जिसमें ठोसपन तथा घनत्‍व के कारण कुछ भार होता हो, जो प्रतिरोध करता हो, जिसमें गति पायी जाती हो- और ये सब केवल देह में संभव है, किसी वायवीय सत्ता में नहीं। तुम कह सकती हो यही मेरा दर्शन है- “जिसमें सच्‍ची जीवन-अनुभूति के लिए कुछ भी वर्जित नहीं है।”

इतना कह कर मैं खामोशी से सिगरेट को वापस डिब्‍बे में डालते हुए उसे देखता रहा।

(4)

“दिल से मेरी शिकस्‍तें उलझी हैं”

क्‍या हुआ, क्‍या सोच रही हो फिजा?

‘ये सोचने का नहीं कुछ करने का वक्‍त है।'

मैं समझा नहीं। वैसे कुछ और जानना हो तो मुझसे पूछ लो... मैं निरूत्तर नहीं हूँ और न ही निरूपाय। मेरी आत्‍म सीमा बहुत बड़ी है। वहाँ मुझे किसी की भी जरूरत नहीं- वहाँ मैं अपनी अनुपलब्‍धियों में भी पूर्ण हूँ और खुश भी... तुम बैठो मैं तुम्‍हारे लिए एक चाय बनाकर लाता हूँ...

मैं चाय का पानी गैस-चूल्‍हे पर चढ़ाकर वापस आ गया। वो पता नहीं क्‍या खोजने में लगी थी... मेज की दराजों में, बिस्‍तर के नीचे, आलमारियों मेें, हर जगह... पता नहीं क्‍या... मैंने धीरे से उठकर रेडियो ऑन कर दिया और खिड़कियाँ खोल दीं।

बाहर क्‍या देख रहे हो, उसने धीरे से कहा। रोज की तरह तुम्‍हारी ‘लेखकीय-सुबह' हो आयी है, दिन के ग्‍यारह बजे हैं, जाओ तुम्‍हारे कॉफी हाऊस जाने का वक्‍त हो गया है।

नहीं आज कॉफी हाऊस नहीं जाऊँगा, आज ये तय हो जाना चाहिए कि तुम मुझसे चाहती क्‍या हो?

... तुम दे ही क्‍या सकते हो मुझे...

मतलब!

... कल रात तुम पूंछ रहे थे न - मुझे कैसा लग रहा है हफ्‍तों बाद ये सब...

हाँ... तो?

तुम्‍हें क्‍या लगता है तुम सेक्‍स भी मुझे ‘प्रदान' करते हो, एकदम एक -)षि' की तरह...

... नहीं, वो तो...

वो तो सुबह की न्‍यूज का खुमार था, है न- “बीते दिनों नीता अंबानी के जन्‍म दिन पर मुकेश ने उसे 232 करोड़ रूपये का जेट विमान दिया।”

क्‍या कह रही हो तुम... मैंने खीझते हुए उससे पूछा।

यही कि उसने ‘दिया' और तुमने ‘प्रदान' किया ... औश्र ये सब तुम मुझे बता रहे हो उस वक्‍त कि जब वॉल स्‍ट्रीट का दिवाला निकल रहा था और अचानक इस देश में छप्‍पन खरब पति हो गए थे...

ये सब बाते बेमानी हैं...

तुम्‍हारे लिए होगीं मेरे लिए नहीं है... मुझे झुरझुरी होती है जब ये सब बातें चलती हुई बस में मेरी नजरों से होकर गुजरती हैं... मुझे एकदम नहीं भातीं यहाँ-वहाँ मिलती आधी मुडी हुई कमीज़ की बाहें या उनका पीछा करती हुई ‘डियो' की खुशबू...

... वक्‍त्‍ बोझिल हो कहा था, उसके पास हजारो बातें थीं मुझसे कहने को...इस वक्‍त कॉफी हाऊस न जाने का मेरा निर्णय मुझे गलत लग रहा था... लाईट बड़ी देर से नहीं थी.... इधर कमरे से कोई ऑक्‍सीजन खींच रहा था... शायद ये रूक-रूक कर इनवर्टर से चलता हुआ पंखा... मैं अपना सब कुछ समेट लेना चाहता हूँ यहाँ से ...

... यहाँ से भी?

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3, एच. शिवकुटी,

इलाहाबाद - 4

मो. 09984200422

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. akhileshchandra srivastava11:20 am

    Anukul Tripathi ji ki rachana CHAYANUT bade dhiraj aur vishwas se sath poora padha jo mere dhiraj ka bhi imtihan tha ki shayad isme koyi kam ki baat mil jaye ya lekhak ka ise likhne ka prayojan spasht ho jaye par poora padhne par bhi hanth kuch nahi aya

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: अंशुल त्रिपाठी की कहानी - छायानट
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