हरदर्शन सहगल की आत्मकथा - डगर डगर पर मगर : अंतिम भाग

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" ... एक साहित्‍यिक कार्यक्रम में मुझे अध्‍यक्षता / मुख्‍य अतिथि के रूप में बुलाया था और जैसा कि होता है, एक करोड़पति को भी। अभी हम मं...

" ... एक साहित्‍यिक कार्यक्रम में मुझे अध्‍यक्षता / मुख्‍य अतिथि के रूप में बुलाया था और जैसा कि होता है, एक करोड़पति को भी। अभी हम मंच पर नहीं बैठे थे। उन्‍होंने बात-चीत शुरू कर दी- तो आप ही सहगल साहब हैं। आप को लिखने का शौक कब शुरू हुआ। न जाने मुझे क्‍या हुआ। मैं चिढ़ गया। बोला क्‍या यह शौक है ? उन्‍होंने जवाब में वही कहा-हां शौक ही तो होता है। अब की बार मैंने सहज होकर पूछा- क्‍या आप शौकिया सांस लेते हैं। शौकिया खांसते हैं। शौकिया गुस्‍सा होते है। अगर ‘हां‘ तब में भी शौकिया लिखता हूं, वरना लेखन मेरे जीवन का अंग है। कई लोग मुझ से पूछते हैं कि आपने लिखना कब से शुरू किया ? तो मेरा उत्त्‍ार होता है- जब दो साल का था तभी से लिख रहा हूं..." -- इसी संस्मरण से

डगर डगर पर मगर

(आत्‍मकथा)

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हरदर्शन सहगल

पिछले भाग 3 से जारी...

भाग 4 (अंतिम)

जब मैं अपना पहला उपन्‍यास 'सफेद पंखों की उड़ान‘ लिख रहा था, तो मेरी बड़ी बिटिया कविता कॉलेज से घर (रेलवे क्‍वार्टर) पहुंचते ही साइकिल को बरामदे में खड़ा करने के बाद, कपड़े भी नहीं बदलती। जाकर उपन्‍यास को पढ़ती कि कितना कैसे आगे बढ़ा है। इससे मैं बहुत सतर्क हो गया था कि कुछ पृष्‍ठ तो लिख डालूं ताकि बिटिया को निराशा न हो। इस छोटे से (112 पृष्‍ठों के) उपन्‍यास को पूरा करने के लिए मैंने बीच बीच में छुटि्‌टयां भी लीे। फिर दो महीने के अंदर प्रेस कापी तैयार कर ली थी। और छपने को अभिव्‍यंजना दिल्‍ली को भेज दिया था। जहां से मेरे दो कहानी संग्रह 'मौसम‘ और 'टेढ़े मुंह वाला दिन‘ पहले छप चुके थे। इधर डॉ मेघराज शर्मा बीकानेर का तकाजा था कि हम इसे 'धरती प्रकाशन‘ से फौरन निकाल देंगे। कृपया दिल्‍ली से वापस मंगवा कर हमें दे दीजिए। वायदे के अनुसार उन्‍होंने (प्रुफ की काफी अशुद्धियों के साथ), तुरंत छाप डाला था। डॉ मेघराज का प्रकाशन, आगे बढ़ नहीं पाया। मुझे पैसा नहीं मिला पर उस पर 'रागेय राघव‘ पुरस्‍कार मिला। इसका जिक्र पहले कर आया हूं।

यह सब आगे आगे आगे की बातें आपसे आप शुरू हो जाती हैं। शुरूआती साहित्‍यिक दौर के कुछ अंश, बीकानेर के, तो कुछ गाजियाबाद के, लिख आया हूं। गाजियाबाद की बिलकुल युवा पीढ़ी, धीरे धीरे या कहें फुर्ती से विलुप्‍त सी होती गई। एक स्‍तंभ की भांति रह गए श्री से․रा․ यात्री। और भी जरूर कुछ रहे होंगे, जिनसे मेरा परिचय न था। न ही यात्री जी ने किसी से करवाया। मैं यात्री जी ही का ही होकर रह गया। हमारे घर के पिछवाड़े बिलकुल करीब यात्री जी का कॉलेज पड़ता है, जहां पर वह पढ़ाते थे। मुझ पर तो हमेशा बालपन या बालापन या बालमन आज भी सवार रहता है। घर पहुंचा सामान पटका। भाग भाग कर सुसारिलियों के घर, बहन जी के घर, भाई साहब के घर। जल्‍दी जल्‍दी। सब कोई खिलाना पिलाना चाहते, पर कहां पर कितना खा लूंगा। भाग खड़ा होता और यात्री जी के कॉलेज। 'बहुधा‘ का प्रयोग यात्री जी के हित में करूंगा। बहुधा यात्री जी मिल भी जाते। बड़े प्रसन्‍न भाव से पूछते-कब आए। कुछ दिन तो रहोंगे ना। कब तक यहां हो। ठीक है- मैं आकर मिलता हूं। चाय पिओगे।

- चार बार पी चुका।

- एक बार और हमारे साथ सही। दुनिया भर का हाल। अरे एक तुम्‍हारे यहां कोई श्रीगोपालाचार्य हैं उन्‍होंने न्‍यायमूर्ति जैसे उपन्‍यास लिखे हैं। लाजवाब। उनको मेरी बधाई देना। चन्‍द्र भी तो वहीं रहता है। हमारा ․․․․․․․․․․(कोई गालीनुमा संबोधन) यार है। बहुत पुराना यार। उसे मेरी नमस्‍ते कहना। मैंने बड़े नामी एडवोकेट श्रीगोपालाचार्य जी से बीकानेर पहुंचकर यात्री जी का अभिवादन/प्रशंसा प्रेषित की।

- कौन से․रा․ यात्री हम तो नहीं जानते।

अब मैं उस बड़ी, साथ ही सरल शख्‍सियत से क्‍या कहूं कि आप क्‍या, बीकानेर वाले ज्‍़यादातर लेखक, (चन्‍द्र जी वगैरह को छोड़कर) अपने सिवा किसी को नहीं जानते। बीकानेर के भी सिर्फ उन लेखकों को जानते हैं जो उनसे महफिलों वगैरह में रूबरू होते रहते हैं। उनके पठन से नहीं, बल्‍कि उनकी शक्‍लों से उन्‍हें पहचानते हैं।

यह वकील श्रीगोपालाचार्य तथा बैंक अधिकारी श्री सुमेरसिंह दइया, हर शाम को ही 'सूर्य प्रकाशन मन्‍दिर‘ की शोभा बढ़ाते, बतियाते रहते थे। बिस्‍सा जी से चाय पीते रहते थे। इन दोनों ने सूर्य प्रकाशन से अपनी बहुत सारी पुस्‍तकें छपवा रखी थीं।

मैं और श्री सांवर दइया हंसा करते थे कि बिस्‍सा जी रायल्‍टी तो देते नहीं। यह उसी पैसे की एवज में बिस्‍सा जी से ज्‍़यादा से ज्‍़यादा चाय पीकर हिसाब चुकता करते हैं। घर जाकर ये लोग जरूर हिसाब लगाते होंग कि आज कितने की चाय पी आए और रायल्‍टी का कितना पैसा वसूल हो गया।

राजस्‍थानी को समर्पित विद्वान लेखक श्रीलाल नथमल जोशी जी का एक किस्‍सा सुनाता हूं। वे बी․जे․पी․ वाले कला एवं संस्‍कृति संस्‍थान के सर्वोसर्वा थे। पिछले ही वर्ष 88 साल की आयु में दिवंगत हुए। अंत तक खूब सक्रिय रहे। उनसे डॉ․ आशा भार्गव कांग्रेस कार्यकर्त्री के घर, किसी खिलाने पिलाने (पिलाने का अर्थ आप लोग 'उस पीने‘ से कतई न लगाएं प्‍लीज़, यहां यह दौर दौर ः नहीं चलता) वाली गोष्‍ठी में श्री जोशी जी से संवाद हुआ। मैंने जोशी जी से देश में छपने वाले लेखकों के विषय में चर्चा छेड़ने की गुस्‍ताखी कर डाली। स्‍पष्‍ट उत्त्‍ार मिला। मैं किसी को नहीं जानता। मैंने हंस कर कहा जोशी जी आप मुझे भी नहीं जानते होते, अगर मैं बीकानेर में न रहता होता। मुझे जानने का दूसरा कारण भी मैं जानता हूं। रेलवे के कारण। वे भी रेलवे में ही कर्मचारी थे।

अभी बीकानेर पर कहने को बहुत कुछ पड़ा है। फिलहाल पड़ा रहने दीजिए। हां यात्री जी, यात्री जी। याद आया। यात्री जी ही की वार्ता कर रहा था और 'बहुधा‘ शब्‍द का इस्‍तेमाल कर रहा था। बहुधा यात्री जी कॉलेज में दिखाई न देते तो स्‍टाफ रूम जा कर या प्रिंसिपल साहब से दरियाफ्‍त करने की कोशिश करता- यात्री जी कहां हैं ?

- भई यात्री जी तो यात्रा पर निकले हुए हैं। कुछ पता नहीं।

- आएं तो कृपया बता दें कि सहगल साहब बीकानेर से आए हुए हैं।

- हां अगर वापस आ गए तो जरूर बता देंगे।

कई बार मैं छोटे भाई बृजमोहन की, वही हमारी संयुक्‍त साइकिल, जिसका इतिहास पहले लिख आया हूं , उठा लेता और यात्री जी के घर बड़ी तेजी, उत्‍साह से जा पहुंचता। तब तक घरों में फोन लगे नहीं थे। यात्री जी मिल गए तो ठीक नहीं तो अपने आने का संदेशा छोड़ आता। हमारे मुहल्‍ले आर्य नगर, जहां यात्री जी का काॅलेज है, और यात्री जी के घर, कवि नगर का फ़ासला बहुत अधिक दूरी का है, पर यात्री जी हमेशा हर जगह ''पैदल दो टांगों पर सवार‘‘। कहते है- साइकिल सीखी ही नहीं। रिक्‍शा का हर रोज़ का किराया कौन भरे। भले ही कड़ाके की गर्मी हो। धूप धूल हो। रात का अंधेरा हो। यात्री जी हमेशा अकेले पैदल आते जाते, दिखलाई देंगे। मेरे बड़े भाई साहब उनसे कहते- यात्री जी वह सुनसान इलाका है। गुंडागीरी राहज़नी भी होती हैं। यात्री जी उत्त्‍ार देते- मुझे कौन लूटेगा। उनमें से कोई मेरा स्‍टूडेंट भी तो हो सकता है। कुछ कलैक्‍टर बने हैं तो कुछ लुटेरे भी तो बने हैं। बस एक दो मिनट किसी से डायलॉग करने का मौका अगर मुझे मिल जाए तो फिर मुझे कोई लूट नहीं सकता। वैसे भी भले आदमी जानते हैं कि इसके पास है ही क्‍या।

मेरे आने का समाचार पाते ही यात्री जी चिरपरिचित गंभीर, मुस्‍कराहट लिये फौरन हमारे यहां हाजिर। फौरन नहीं आ पाए तो शाम तक ज़रूर ज़रूर, आकर, हम सब घर वालों से बड़ी आत्‍मीयता के साथ घुल मिल-जाते। एक घर में मैं अगर नहीं मिला तो दूसरे घर दूसरे घर नहीं मिला तो तीसरे घर तीसरे, नहीं तो चौथे। बच के जाएगा कहां। यात्री जी हमारे सभ्‍ाी घरों, मेन, ससुराल, बड़े भाई साहब, कृष्‍ण बहनजी, सभी घरों को और सदस्‍यों को अच्‍छी तरह से जानते हैं। बहन जी के मकान से बाहर, दाएं तरफ की दीवार अक्‍सर टूटी मिलती है, जिससे विद्यार्थियों को कॉलेज पहुंचने का शार्टकट मिल जाता है। पर इससे हमारे घर वालाें को परेशानी होती है। यात्री जी से कहलवा, कहलवा कर प्रिंसिपल द्वारा मैं इस रास्‍ते को बंद कराता रहता था। पर दीवारों की नियिति ही 'टूटना‘ है। इस 'दीवार-दर्शन‘ से सभी परिचित होंगे। दिन के उजाले में पाटिए। रात के अंधेरे में ध्‍वस्‍त। दुनियां में कौन सा क्षेत्र है, जहां आदमी शार्टकट अख्‍तियार कर, मंजिल पर नहीं पहुंचना चाहता।

कई बार सुबह सवेरे यात्री जी घर आ पहुंचते। चलों वहां या दिल्‍ली, घुमा लाएं। मैं फौरन तैयार। माताजी के मुंह से निकलता- अब इसका कोई भरोसा नहीं, कब लौटे। मुझसे अक्‍सर कहतीं- तू हमसे मिलने अाता है या यात्री जी से।

मेरी थ्‍योरी 'एक पंथ दो काज‘ वाली रहती। यदि यात्री जी गाजि़याबाद से कहीं बाहर होते तो (इनकी फितरत में यात्राएं, नए पुराने लोग, ठिकाने) मैं अपने गाजि़याबाद के कार्यक्रम में, यदि संभव होता तो कुछ रद्‌दोबदल कर लेता।

मैं बचपन को छोड़कर, बिना कंपनी कहीं भी आने जाने से परहेज रखता हूं। और किसी खास लेखक के पास जाकर रूबरू नहीं हुआ। एक बार यात्री जी मुझे हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स बिल्‍डिंग ले गए थे। वहां पर एक मिनट के लिए उश्‍क जी से बात हुई थी। श्‍याम मनोहर जोशी सीढि़यों में मिले थे। 'सुख‘ की कोई अश्‍लील सी परिभाषा समझा गए थे। पांच मिनट के लिए हिमांशु जोशी। दस मिनट के लिए वीरेन्‍द्र सक्‍सेना से साक्षात्‍कार हुआ था। इसके बाद इन लोगों से कभी नहीं मिल पाया सिवाए, वीरेन्‍द्र सक्‍सेना के। चलते फिरते कभी रमेश रंजक भी मिले थे।

यात्री जी ने लिखा भी हैं, बताया भी है कि लेखक बनने से पूर्व ही, वे सब बड़े लेखकों से घनिष्‍ठ हो लिये थे। मेरे और यात्री जी के अलग अलग पहलुओं/रास्‍तों के परिणामों के नफा-नुकसानों की, परिणामों की मीमांसा पाठक स्‍वयं कर लें।

मेरा निष्‍कर्ष वही है कि कोई अगर चाहे भी तो दूसरे की तरह नहीं बन सकता। यात्री जी दो दो महीनों तक अश्‍कजी के पास इलाहाबाद, कसौली वगैरह रह आते थे। बम्‍बई की साहित्‍यिक यात्राएं, लखनऊ, कानपुर, बरेली, भोपाल और न जाने कहां कहां की गोष्‍ठियों समारोहों में पैसे की तंगी के बावजूद जा पहुंचते थे। शिमला, गिरीराज कुशोर के यहां आदि। फिर विभूति नारायण राय जहां जहां, यात्री जी वहां वहां। कोई जगह नहीं छोड़ी। अपनी अपनी आदत सोच की बात है। मुझे भी कई प्रशंसकों के पत्र दूरदराज से आते रहे कि आएं, हमें भी सेवा का मौका दें। उनका आभार व्‍यक्‍त किया और बस। श्री मालचंद तिवाड़ी, जब श्रीडूंगरगढ़ रहते थे तो उनके घर कई लेखक काफी रोज/महीने तक भी रूके थे। वह ज़माना था कि मालचंद मुझे आदर्श लेखक भला इंसान मानते थे। उनके सभी पत्र मेरे पास महफूज पड़े हैं। उनकी दिली ख्‍वाहिश थी कि मैं भी बेशक लंबे समय तक उनके यहां रहूं। मैंने उत्त्‍ार दिया- मैं किसी पर भार बनकर नहीं रह सकता। - भार कैसा ? हमारा सौभाग्‍य होगा। आपसे कुछ सीखने को मिलनेगा। उनकी रगों में लेखक बनने का नया नया जोश, हिलोरें मार रहा था। मैं एक बार सुबह से शाम तक के लिए उनके यहां गया था। उन्‍होंने, चेतन स्‍वामी (अब डॉ) ने गर्मजोशी से स्‍वागत किया। रवि पुरोहित, बजरंग शर्मा, सत्‍यदीप आदि आदि कई लेखकों की मौजूदगी में एक गोष्‍ठी हुई। मैंने अपनी उन्‍हीं दिनों लिखी दो कहानियां सुनाईं और पूछा कैसी लगीं। मालचंद झट बोले- हें सहगल साहब मैं, और आपकी कहानियों पर कोई टिप्‍पणी करूं ? मैंने विनम्रतापूर्वक संकोच भाव से कहा- हर लेखक की कहानी में कुछ कमियां तो रहती ही हैं। शाबाश! एक नए लेखक ने मेरी एक कहानी की, एक भूल की ओर इंगित किया। मैं फौरन कंविंस हो गया। उसे सुधारा। दोनों ही कहानियां बड़ी पत्रिकाओं में छपी थीं। बहुत बाद में मालचंद तिवाड़ी ने मेरी समग्र कहानियों पर बड़ा आलेख लिखकर 'हंस‘ में छपवाया था।

मेरी मुलाकात और आत्‍मीयता विभूति नारायण राय (तत्‍कालीन डी․आई․जी․, बी․एस․एफ़․) के साथ उनके बीकानेर के पदस्‍थापन पर ही हुई थी। फिर क्‍या था। दिन में दो दो तीन तीन फोन। दूसरे तीसरे दिन उनकी कार जीप मेरे दरवाजे़ पर। मेरा भी उनके बंगले पर जाना अक्‍सर होता। अपना काम निकलवाने के लिए कई लोग मुझसे, सिफारिश करवाने लगे थे। बहुत दिलदार हैं राय साहब। कोई भी लेखक हो उससे हिलमिल जाने वाले। कहते भी कि अगर हम अफ़सरी को चिपकाए फिरें तो फिर किसी लेखक से कैसे मिल सकते हैं।

जहां जहां राय साहब, निरीक्षण को बीकानेर से बाहर जाते, उनके साथ मात्र दो कर्मचारी होते एक जीप ड्राइवर एक बंदूक से लैस अंगरक्षक। इन दोनों से राय साहब नियमों के तहत (प्रोटोकोल) बात कर नहीं सकते थे। लंबे सफर में टूटी सड़कों, रेतों पर हिचकोले खाती जीप में पढ़ भी नहीं सकते थे। मज़ाकिया स्‍वाभाव के राय साहब बोर होने से बचने के लिए चाहते कि मैं भी उनके संग हो लूं। श्रीकरणपुर, श्रीगंगानगर, खाजूवाला आदि तीन चार जगहाें, मैं गया भी। वहां पर राय साहब की शानोशौकत। सारी सड़कें झांडि़यों से सुशोभित। सारा स्‍टाफ़ अटनशैन। पर राय साहब नाम मात्र का सैल्‍यूट लेते और किनाराकश हो जाते। हर एक की फ़रियाद सुनते और फौरन समाधान कर देते। बड़े कर्मचारियों की शिकायतें भी सुनते जो अपने मातहतों की कामचोरी का विवरण करते थे। तब उन्‍हें दया भाव रखने का सुझाव देते कि ये बेचारे छोटे कर्मचारी फिर भी अनुशासन के तहत आपके घर का काम भी कर देते हैं। दूसरे महकम्‍मों में ज़रा जा कर देखो।

दिन का शानदान डिनर। शाम को लॉन में कुर्सियां रखकर पीने पिलाने के दौर। मेरे लिए लेमन।

मेरे एक इशारे पर उनका सारा स्‍टाफ हाजि़र।

मैंने यह सब गाजियाबाद जाकर बड़े भाई साहब को बताया था कि वहां पर हमारी बहुत इज्‍़ज़त होती है। भाई साहब हंसने लगे- नादान, इज्‍़ज़त तो इससे भी बढ़ चढ़कर मंत्रियों के सेवकों, धोबियों, नाइयों आदि की भी होती है।तू तो पढ़ा लिखा है। यह कौन सी इज्‍़ज़त हुई।

उसी क्षण मुझे अपनी असलीयत, हीनता भाव का बोध हो आया। वास्‍तव में, मैं अगर बी․एस․एफ․ बंगले, संस्‍थानों में कदम भी रखना चाहूंगा तो पुलिस के जवान मुझे दूर से भगा देंगे।

इसके बाद मैं राय साहब के साथ किसी भी टूर पर नहीं गया। हां जब तब वह फोन करते करते यह कहकर फोन काट देते कि बाकी की बात आपके मेरे यहां आने पर होगी। इतनी मुहब्‍बत। तो फौरन चला भी जाता। कभी राय साहब पूछ लेते- कहीं जा तो नहीं रहे हैं। हम आ रहे हैं। वे सपत्‍नीक आ जाते। दो चार बार, अपने ससुर साहब, बच्‍चों के साथ भी आते रहे। गाने सुनने के भी बेहद शौकीन-लगाओ वही सहगल वाला- 'हाय किस बुत की मुहब्‍बत में गिरफ्‍तार हुए‘ आदि। राय साहब के साथ उन, दो एक वर्षों की बातों की फेहरिस्‍त बहुत लंबी है। कई कई पृष्‍ठ न रंगे। अतः विराम देता हूं।

लेकिन एक बात बहुत स्‍पष्‍ट है। हाय हरजाई। क्‍या मजाल कि यहां से जाने के बाद, मेरे किसी एक पत्र का भी उत्त्‍ार दिया हो। एक दो बार वापस बीकानेर आए तो रास्‍ते से फोन किया कि हम दो घंटे में पहुंचने वाले हैं। खाना अाप ही के यहां खाएंगे।

एक बार मेरी किसी किताब 'शायद‘, 'सरहद पर सुलह‘ का भव्‍य आयोजन बीकानेर की संस्‍था ने किया। इस संस्‍था के सर्वोसर्वा श्रीलाल नथमल जोशी तथा डॉ वत्‍सला पांडेय थीं। उसमें पूना से डॉ मालती शर्मा, गाजि़याबाद से, से․रा․ यात्री, जोधपुर से डॉ सूरज पालीवाल, दिल्‍ली से राय साहब और पुस्‍तक प्रकाशक अजय कुमार भी आए थे। तीन दिन तक खूब गहमागहमी रही थी। फिर तू कौन और मैं कौन ?

यह शब्‍द मैं राय साहब को लेकर लिख रहा हूं। दरअसल राय साहब के मिलने वालों का दायरा ही इतना बड़ा है कि 'किसे भूलूं किसे याद रखूं। ऊपर से इतना बड़ा पद। अक्‍सर मुझसे भी कहा करते- सहगल साहब! ज़रा घूमा फिरा कीजिए। चलिए हमारे साथ दिल्‍ली के तमाम लेखक लेखिकाओं से मिलवा लाएं। डॉ महेश शर्मा, पूर्व सांसद भी यही कहते। मगर․․․․․․। वे राय साहब जहां गए उसी के हो लिये। हां यात्री जी तो उनके खर्चे पर मारिश्‍यस तक हो आए। यात्री जी या सूरज पालीवाल जैसे उनके पास कभी भी कहीं भी पहुंच जाते हैं, तो गले लगाते हैं। मैं भी पहुंचता तो निश्‍चित रूप से मुझे भी गले लगाते। इसमें कोई संदेह नहीं। पर मैं जाऊ तब ना। मैं किसी से अपनी वैसी आवभ्‍ागत, मेहमान नवाज़ी से बाज आया। जो दूसरों के पद के कारण हासिल होती हो। भाई साहब का कहा वह वाक्‍य कभी नहीं भूला। हां कॉलेज के कोर्स में एक चैप्‍टर भी था। 'हाऊ टु बी, ए, एम पी‘ चौराहे पर खड़ा सिपाही, एम․पी/मंत्री जी को सैल्‍यूट मारता है। ड्राइवर समझता है। पुलिस वाले मुझे सैल्‍यूट दे रहे हैं। तौबा। यह भी कदरे सच है कि उनके लेखन की कद्र, उनके पद के कारण ही कुछ ज्‍़यादा है। बीकानेर के लेखक भी मुझे इसी कारण राय साहब से दूरी बनाएं रखने को कहते। तू बड़ा लेखक है या राय साहब ?

इसमें दो राय नहीं कि बड़ा पद, बड़ा लेखक भी बनाता है। बड़े बड़े प्रकाशक हाज़री भरते हैं।

साहित्‍य, चिंंतन, नकार, स्‍वीकार, ज्‍़यादा से ज्‍़यादा, हर क्षेत्र के ज्ञान अभिज्ञान को जज्‍़ब कर लेने की लालसा, आदमी को कहां से कहां पहुंचाती है। कभी वह अति उत्‍साह से भर कर, पूरी दुनियां को अपनी मुट्‌ठी में भर सकने में, अपने आप को सक्षम समझने लगता है तो कभी क्‍या, फ़ौरन उन्‍हीं उत्‍साह वाले क्षणों से ज़रा आगे बढ़ते ही, अवसादग्रस्‍त हो उठता है। हीन ग्रंथियां उसे आ घेरती हैं। वह दूसरों के मुकाबले अपने को एक बोने के रूप में देखने लगता है। कुछ तो उसे स्‍वयं अपनी अक्षमता का बोध सताता है और बहुधा इसके लिए दूसरों को कोसता है। मन ही मन गालियां देता है, जो उसकी राह में आड़े आ रहे हैं। स्‍वयं बौने होने के बावजूद बड़ी सफ़ाई से, बड़ी चालाकी और भोलेपन के नाटक से योग्‍यों को आगे नहीं आने देता। दूसरों का बना बनाया काम ध्‍वस्‍त करने में रस लेता है। सारा मज़ा किरकिरा कर देता है। ऐसे विचारजगत में अलग किस्‍म के शातिरों की दुनियां का बोलबाला है। दरअसल यह व्‍यक्‍ति का अंतर-संसार द्वंद्व युद्ध भी होता है जो निरंतर चलता रहता है। और उसे परेशान सा किए रहता अनिश्‍चय संदेह में जीने को आदमी अभिषप्‍त प्रायः है ः-

इस दिल की हालत क्‍या कहिए

जो शाद भी है, नाशाद भी है।

अपनी ऐसी ही समस्‍याओं, शंकाओं और जीवन की निरथकताओं का कच्‍चा चिट्‌ठा कभी मैंने समाधान हेतु डॉ․ रामेश्‍वर दयालु अग्रवाल को लिख भेजा था और यह भी लिख भेजा था कि बरेली के उसी साइकलोजीकल ब्‍यूरो में जाकर उनसे भी मंत्रणा कर देखें।

दरअसल यह मेरी बचपन की प्राब्‍लम रही है, जिसका समाधान कोई भी मनीषी मेरे लिए नहीं कर पाया। कुछ आम जनों का जवाब होता। मस्‍त बनकर रहो। बुद्धू बनकर रहो। किसी चीज़ में माथापची करो ही मत। जो हुआ अच्‍छा ही हुआ। जो हो रहा है अच्‍छा ही हो रहा है। जो आगे होगा अच्‍छा ही होगा (गीता) यानी सब कुछ ऊपर वाले के हाथ में छोड़कर खुद बेफिक्र हो जाओ। मैं पूछता हूं - फिर तुम प्रयास पर प्रयास क्‍यों करते हो। क्‍यों अप्रोचें लड़ाकर पैसा खिला खिलाकर अपना काम किसी भी तरह निकलवा लेने के लिए दिन रात पागल क्‍यों हुए जाते हो। छोड़ दो ना सब कुछ भगवान पर। जो होना होगा- जो जाएगा। तुम्‍हें किसकी चिंता। जब सब कुछ ऊपर वाले के हाथ में है। मनुष्‍य तो उसकी कठपुतली मात्र है। क्‍या हमारे इन प्रवचनाें तर्कों का उन पर केाई असर पड़ता है ? तब कैसे हम पर उन ज्ञानियों, मनीषियों के उपदेशों का असर रंग ला सकता है ?

प्रो․ अग्रवाल जी का लंबा पत्र आया था कि साइकलोजीकल ब्‍यूरों वालों के पास जाने की ज़रूरत नहीं। जीवन-लक्ष्‍य और शांति प्राप्‍त के लिए तीन रास्‍ते ज्ञान, भक्‍ति, कर्म बताए थे। इन तीनेां में भक्‍ति मार्ग सामान्‍य व्‍यक्‍ति के लिए आसान बताया था। जीवजगत, आत्‍मा परमात्‍मा जीवन-लक्ष्‍य की विस्‍तृत व्‍याख्‍या की थी। कई संतों महात्‍माओं के प्रवचनों को समझने अनुशीलन करने के और ग्रंथों का स्‍वाध्‍याय करने जैसे सुझाव दिए थे। गीता को सर्वश्रेष्‍ठ ग्रंथ बताया था।

मैंने लिखा था कि इनको पढ़ने से तो मुझसमें उल्‍टा, अनास्‍था जाग्रत होती है। मेरे और तकोेर्ं के आगे जैसे उन्‍होंने भी हथियार डाल दिए थे। (शायद पहले भी लिख चुका हूं ) - कि जब तुम खुद ही अपनी सहायता नहीं करना चाहते तो कोई दूसरा तुम्‍हारी सहायता कैसे कर सकता है। यह तो कोई उत्त्‍ार न हुआ। जब स्‍वामी रामकृष्‍ण परमहंस, अपनी आत्‍मा को विवेकानंद के शरीर में उंडेल कर उन्‍हें महाज्ञानी बना सकते थे तो बाकी मनीषी, जिज्ञासुओं के साथ ऐसा क्‍यों नहीं कर सकते ?

तब वे पात्र सुपात्र का वर्णन करने लगते हैं। फिर सोचता हूं कि क्‍या मेरे प्रोफेसर साहब भी जीवन से कभी संतुष्‍ट रहे। बीवी बच्‍चों को वे संतुष्‍ट न रख सके तो प्रतिक्रिया स्‍वरूप स्‍वयं भी असंतुष्‍ट रहे। अपनी कार्यशैली की मंद गति से भी असंतुष्‍ट रहे। मित्रों की दग़ाबाज़ी से भी नाराज़। इत्‍यादि। और अंत में ब्रेन हैमरेज से मृत्‍यु। यह सब आखिर क्‍या है।

2-2-70 को कमला को सैन्‍ट्रल स्‍कूल नं․ एक बीकानेर में एस यू पी डब्‍लयू टीचर की नौकरी मिल गई। हम सब और मेरे मित्रगण, कुछ ईष्‍यालुयों को छोड़कर, बहुत खुश हुए हमारी खुशी का आपार नहीं था। आगे चलकर जब पता चला था कि यह भी हमारे साथ एक प्रकार की ज्‍़यादती हुई है। प्राइमरी ग्रेड मिला था। जबकि टी जी टी ग्रेड मिलना चाहिए था। तब फिर असंतुष्‍टि। फिर संघर्ष। कई पापड़ बेले कई कई वर्षों की जद्‌दो जहद के पश्‍चात अंततः टी जी टी ग्रेड डेट अॉफ अपाइंटमेंट से एरियर सिहत लेकर रहे। फिर बहुत खुश हुए। कमला की पे पहले से ही कुछ मुझसे अधिक थी। अब और शानदार हो गई।

यह भी एक बड़ा जीवनदर्शन है। आपका मारा हुआ हक आपको वापस मिल जाए (चेखव की कहानी 'धन्‍यवाद‘) आपकी खोई हुई कोई वस्‍तु आपको वापस प्राप्‍त हो जाए। जर्मन लेखक का इसी विषयवस्‍तु पर लिखा बड़ा उपन्‍यास (साइकिल चोर)।

कमला की सर्विस लगते ही बधाइयों की बौछार हुई थी। इतना बड़ा सेमी गोवर्नमेंट (एटोनिमस बॉडी)­ स्‍कूल और इतना अच्‍छा ग्रेड। इसके सामने राज्‍य सरकार की नौकरी क्‍या है। (जो, कभी सरकारी क्षेत्रवाद नीतियाें के कारण हमें नहीं मिली थीं)

अशोक आत्रेय ने कहा था- अब तो हमें चाय के साथ नाश्‍ता भी मिला करेगा।

अब देखिए तमाशा। पहला तमाशा तब हुआ था जब एक दिन अचानक वही मेरा अफ़सर डी․एस․टी․ई․ मेरे कमरे में आया था। डी एस से झाड़ तो खा ही चुका था (शायद उनसे ज़रूर वायदा भी कर आया होगा) मुझसे बोला- हो गया। आप कहना मानकर बीकानेर आ गए। अब आपको वापस रेवाड़ी भिजवा देते हैं। मैंने कहा- अब क्‍या ज़रूरत है। यही जम गया हूं। हर बार उखड़ना (उजड़ना) नहीं चाहता।

एक साथी बोला- इन्‍होंने तो यहां ज़मीन भी खरीद ली है।

दूसरे साथी ने कहा- इनकी मिसेज की सेंट्रल स्‍कूल में सर्विस लग गई है।

- कांग्रच्‍यूलेशन। हें हें करता हुआ, डी एस टी ई वापस चला गया।

इसी प्रकार का दूसरा तमाशा मई 1970 में हुआ। रेवाड़ी से मि․ खानचंद बत्रा ने दिल्‍ली ट्रांसफर करा ली थी। अतः रेवाड़ी में यहां बीकानेर से किसी एक की ट्रांसफर रेवाड़ी होनी लाजमी थी। मैं छोटे छोटे बच्‍चों, कमला की सर्विस, लिखने पढ़ने आदि के कारण बहुत व्‍यस्‍त हो चला था। बस अपनी रूटीन की छह घंटों की ड्‌यूटी निभाई और घर वापस। मुझे दफ्‍़तर खास तौर से दफ्‍़तर की राजनीति का कोई पता नहीं रहता था। और न शुरू से किसी राजनीति (चाहे वह साहित्‍य की ही क्‍यों न हो) की खैर खबर नहीं रहती थी। कोई भी व्‍यक्‍ति रेवाड़ी जाना नहीं चाहता था। ऐसे में भाई लोगों ने चुपचाप मेरा ही ट्रांसफर करा देने की चाल चल डाली। उस मंडली में एक तेज तरार्र लड़का प्रेमप्रकाश मेरा हितैषी था। उसने सारी पोल मुझे बता डाली।

मैंने कहा- न तो मैं जूनियर मोस्‍ट हूं। न सीनियर मोस्‍ट। और न ही मेरा यहां लांगर स्‍टे है। मेरा ट्रांसफर कैसे हो सकता है। कहने लगा। तुम्‍हारे ट्रांसफर आर्डर हो चुके हैं। संभलना हो तो संभल लो। एक दो दिन में तुम्‍हें आर्डरज थमा दिए जाएंगे। बाकी सबने अपने अपने जैक लड़ा रखे हैं। तुझे ही बलि का बकरा बनाया जा रहा है। यहां रूल्‍ज़-रेगुलेशन को पूछने वाला कोई नहीं।

सुनकर मैं दंग रह गया। मुझसे ज्‍़यादा परेशान, कमला। रात भर नींद नहीं आई। सुबह स्‍कूल के लिए मुझे बिना कुछ कारण बताए जल्‍दी निकल गई।

रास्‍ते में सिविल लाइन में डी․एस․टी․ई․ का बंगला पड़ता था। पहले वाला अफ़सर ट्रांस्‍फर पर जा चुका था। अब कोई नया लगा था। कमला सीधी उसके बंगले में जा पहुंची। साइकिल को एक ओर स्‍टेंड पर खड़ा किया। डी․एस․टी․ई․ बरामदे में खड़ा शेव बना रहा था। सुबह सवेरे किसी अंजान लेडी को देखकर हड़बड़ा गया। कमला ने संक्षेप में शुरू से अब तक की हकीकत बयान कर डाली। सुनकर कहने लगा। आप दोनों सैंट्रल गार्वनमेंट कर्मचारी हो। मि․ सहगल की ट्रांस्‍फर तो रूल्‍ज के मुताबिक होना गलत है।

- लेकिन, सर सुना है आर्डर तो हो चुके हैं।

- आप जाकर मि․ सहगल से कहें, लंबी छुट्‌टी पर चले जाएं। मैं मंजूर कर लूंगा।

ऐसा ही हुआ। मैं दो महीने की छुट्‌टी पर रह कर, लिखता पढ़ता, घर की देखभाल करता रहा। बीच बीच में दफ्‍़तर के हालात का जायजा भी लेता रहा। वहां जैसे तूफ़ान आया हुआ था। हर वक्‍त यही ट्रांस्‍फर के चर्चें। पूरी मंडली प्रेमप्रकाश के पीछे पड़ गई- तूने यह सारा भेद सहगल को बताकर हमारा सारा खेल बिगाड़ दिया। प्रेमप्रकाश ने उत्त्‍ार दिया- यह तो गौ हत्‍या होती। वह ठहरा सीधासादा पढ़ने-लिखने वाला आदमी। अपने काम से काम रखने वाला। ड्‌यूटी आवर्ज के अलावा दफ्‍़तर में जमघट में शामिल होकर राजनीति नहीं करता। क्‍या यही उसका कसूर है। अब हर कोई ट्रांस्‍फर की मार से बचने के लिए कोई न कोई तिकणम लगाए हुए मुस्‍तैद। एक दूसरे की आलोचना निंदा। हल्‍की हल्‍की अंदर से दुश्‍मनी।

मैंने जीवन में कई बार अनुभव किया है। कोई लाख आपका अपना हो, (अपवादों को छोड़ दें) जब आपस में हित टकराते हैं, तो एक दूसरे के दुश्‍मन से बन जाते हैं।

देा महीने बाद मि․ बाहुद्‌दीन ख़ान को रेवाड़ी ट्रांस्‍फर कर दिया गया। बाकियों की सांस में सांस आई। मैंने भी क्‍लर्क के कहने से ड्‌यूटी रिज्‍़यूम कर ली कि खतरा टल गया है।

एक बात यह भी थी कि जब रेवाड़ी में रहते हुए मुझे रेलवे क्‍वार्टर मिलने वाला था तो मुझे बीकानेर ट्रांस्‍फर कर दिया गया। अब यहां बीकानेर आकर वापस अपना नाम क्‍वार्टर की प्रियार्टी लिस्‍ट में िलखवाया था। और फिर से नंबर आने को था तो फिर रेवाड़ी धकेला जा रहा था।

खैर अब 19-7-70 को रेलवे क्‍वार्टर T-62/C रेलवे मालगोदाम के पीछे क्‍वार्टर मिल गया और मैं वहीं बस गया। अग्रवाल क्‍वार्टर और रेलवे क्‍वार्टर की दूरी बहुत ही कम है। बहुत सा हल्‍का सामान ताे महल्‍ले के बच्‍चे ही उठा उठाकर ले गए; मानों उन्‍हें कोई खेल मिल गया है। बाकी का सामान गाड़े वाले ने सिर्फ दो फेरों में पहुंचा दिया। इस क्‍वार्टर से तो 'जयहिन्‍द‘ और भी एकदम करीब हो गया। साथ ही नागरी भंडार लाइब्रेरी। साथ ही सब्‍जी मंडी है। लाइने पार की। टूटी दीवार फांदी और इन तीनों जगहों या कुछ और आगे सज्‍जनालय कोटगेट जाना हो तो भी साइकिल की कोई खास जरूरत नहीं। कस्‍बानुमा बहुत कम आबादी वाला शहर बीकानेर तेरी जय हो। आज इस सारे के सारे इलाकों में हद से ज्‍यादा भीड़। स्‍कूटर कारें। रास्‍ते जाम। महानगर का भ्रम पैदा करता है। तो भी बीकानेर से, कही पहले वाला कस्‍बाई-बोध खत्‍म नहीं हुआ। प्रिंसिपलों, बड़े बड़े डाक्‍टरों, ओहदेदारों, पुराने दंभरहित संस्‍कार वाले महानुभाव मौजूद हैं। यह बड़ी हस्‍तियां ऐसे ही किसी कॉलेज के बाहर की सीढि़यों, गली के किसी कोने या चौकों के बड़े बड़े पाटों (तख्‍तपोशों) पर बड़े सहज भाव से बैठी गपशप लड़ाती मिल जाएंगी। शहर भर की खबरें 'पाटा गजट‘ कहलाती हैं।

हां कुछ सालों से नई नई कॉलोनियों और माल्‍ज के जाल फैल जाने से थोड़ा थोड़ा बदलाव आने लगा है। मुझे ठंड बचपन ही से खूब सताती आई है। पहले पेशावर फ्रंटियर अफगानिस्‍तान जैसे इलाके फिर उससे कुछ कम ठंड वाले पंजाब प्रांत फिर उससे और कम यू․पी․ में ठंड झेली है। जवानी के जोशोखरोश में आराम से झेलता गया। अब तो बीकानेर में दिसंबर जनवरी में भी लगातार घूप में नहीं बैठा जाता। यह मेरी बढ़ती उम्र के लिए एक तरह का वरदान है।

मेरे सबसे बड़े बेटे विवेक का, तथा उससे छोटी बेटी कविता का जन्‍म तो जब मेरी पोस्‍टिंग रेवाड़ी में थी तो गाजि़याबाद में हुआ था। वे दोनों बड़े मजे से पंजाबी बोलना सीख गए थे। तीसरे नंबर पर बेटे अजय का जन्‍म बीकानेर के पी․बी․एम․ हास्‍पीटल में, जब हम अग्रवाल क्‍वार्टरों में रहते थे, हुआ था। वह भी जैसे तैसे पंजाबी सीख गया, लेकिन सबसे छोटी बेटी शिल्‍पी का जन्‍म रेलवे क्‍वार्टर बीकानेर में हुआ। वह पूरी तरह माई (काम वाली) के हाथों पली। वह पंजाबी नहीं बोल सकती थी। किसी मुलाकात के दौरान दिल्‍ली मे ंडॉ․ महीप सिंह जी से इस विषय में बात हुईं तो कहने लगे। पंजाबी तो आनी ही चाहिए। जिस व्‍यक्‍ति को जितनी ज्‍़यादा भाषाएं आती हैं, उसका महत्‍व अधिक आंका जाता है। उसे किसी तरह से पंजाबी सिखाओ।

अभी शिल्‍पी छोटी थी। मेरे सामने किसी भी चीज की डिमांड रखती (यह ला दो। वह ला दो) तो मैं कहता- पंजाबी बोलकर मांगोगी तो जरूर ला दूंगा। इस तरह बड़ी मुश्‍किल से वह पंजाबी सीख तो गई, पर उसकी पंजाबी वाली टोन नहीं है। हम बड़े लोग भी पंजाब की उस ठेठ टोन में कहां बात कर पाते हैं, जो लुधियाना, अमृतसर, जालंधर आदि वालों की है। चार पांच बार डॉ सुखजोत (संपादक अन्‍यथा) से फोन पर बात हुई तो मैंने कहा- आहा बोली में क्‍या मिठा स्‍वर है। इसे सुनकर कानों को तृप्‍ति मिलती है। इस बचपन की बोली को मन तरसता है।

हर बोली का अपना मिज़ाज होता है। उसमें रस घुला होता है। राजस्‍थानी में भी इस रस की कमी नहीं। मेरे सारे बच्‍चे तो इसे अपने संगियों के साथ मजे़ से सीख गए। पर न जाने क्‍यों मैं संकोचवश, कुछ कुछ जानते हुए भी, बोल नहीं पाता। अगर लिखने भी लग जाता तो काफी कुछ हासिल कर जाता। ज्‍़यादातर प्रांतीय भाषाओं में, हिन्‍दी की भांति कम्‍पीटीशन, टफ नहीं हुआ करता। पूरे एक वर्ष में हिन्‍दी में छपी पुस्‍तकों की संख्‍या और प्रांतीय भाषाओं में छपी पुस्‍तकों की संख्‍या में, ज़मीन आसमान जितना अंतर है। मेरे परम मित्र स्‍व․ सांवर दैया ने पहले हिन्‍दी में लिखा। फिर सारी स्‍थितियों का मूल्‍यांकन कर राजस्‍थानी में लिखने लगे। खूब लिख लिया। नाम हुआ। महत्‍व बढ़ा। अब उनके नाम से राजस्‍थानी साहित्‍य अकादमी, बीकानेर 'सांवर दइया, पैली पोथी‘ पुरस्‍कार भी देती है।

जहां तक मेरा अपना मूल्‍यांकन है, वह इस प्रकार से है कि जो लोग अंग्रेजी से हिन्‍दी में आए, और जो हिन्‍दी से राजस्‍थानी में आए, उनमें बेहतर लिखने की समझ पैदा हुई।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपनी ठेठ भाषा में, बिना विश्‍व, क्‍या राष्‍ट्रीय भाषा, को बिना पढ़े मौलिक सृजन करते चले जाते हैं तथा प्रांतीय स्‍तर पर ही अपनी पहचान बना लेते हैं।

एक मजेदार घटना सुनाता हूं। यहां बीकानेर के राजस्‍थानी में केन्‍द्रीय साहित्‍य अकादमी से पुरस्‍कृत लेखक स्‍व․ मूलचंद प्राणेश की एक कहानी सांवर दइया ने, जबानी मुझे सुनाई थी। कहने लगा- देखो कितने अच्‍छे कथ्‍य की कहानी है।

सुनकर मैंने कहा- है। लेकिन यह तो चुराई हुई कहानी है। जबकि मैं किसी की कहानी को अपने नाम से छपवाना, जूठन खाने जैसा समझता हूं। बताऊं यह किसकी कहानी है। यह किसी अफरीकी देश के लेखक की है। लेखक का नाम इसलिए भी याद रह गया कि वह मेरे वाला नामसा है। 'दर्शन आग़ा‘।

सुनकर सांवर दइया जैसे आगबबूला हो गया। कहने लगा-तो ये लोग चोरी करते हैं।

मगर दूसरे दिन फिर सांवर दइया से सामना हुआ तो बोला-सहगल साहब। मैंने बहुत दिमाग खराब किया और इस नतीजे पर पहुंचा कि यह चुराई हुई कहानी नहीं है।

-कैसे ? मैंने जिज्ञासवश पूछा तो उसी टोन में बोला ये सब लोग, कुछ पढ़ते तो हैं नहीं। चुराएंगे कहां से ? यह बस संयोग, चिंतन, सृजन वश हो गया। विचारों का मिलान। यानी नकल के आरोप तो सिर्फ हमारे यहां के साहित्‍य के, बड़े दिग्‍गजों पर, लगते ही रहते हैं, जो ज्‍़यादा भाषाओं के ज्ञाता होते हैं, जिनकी खूब प्रशंसा होती है और कभी कभी मट्‌टी पलीद भी होती रहती है।

मैंने 'नई कहानियां‘ में छपे, बीकानेर रिपोतार्ज, में बीकानेर को एक मस्‍त शहर के रूप में प्रस्‍तुत किया है। यहां के बड़े बड़े कई बुद्धिजीवी बस अपने में ही में मस्‍त हैं। अपना जैसा भी लेखन है, जैसे वही सब कुछ है।

एक बुजुर्ग (85 से ऊपर के) बड़े सरल स्‍वभाव के अति शालीन ग्रामीण प्रवृति के धनी श्री अन्‍नाराम 'सुदामा‘ हैं। खूब लिखा है; राजस्‍थानी में। अब तक भी लिखते ही चले जा रहे हैं। बिना छपने, न छपने की परवाह किए। वे डॉ․ मेघराज के पिताश्री हैं। वही मेघराज जिन्‍होंने 'धरती प्रकाशन‘ चलाया था। इसलिए भी खास तौर से कि मुख्‍यतः अपने पिता की पांडुलिपियों को पुस्‍तक का रूप प्रदान कर सकें। सुदामा जी को कई पुरस्‍कार/सम्‍मान भी प्राप्‍त हो चुके हैं। वे ठेठ राजस्‍थानी परिवेश में ढले पले हैं। इसलिए वे ठेठ ग्रामीण, ग्रामीण चिंतक, उन बेकसूर अनपढ़ सीधे सादे मुंह में जबान न रखने वाले शोषित वर्ग का दर्द मर्म पहचानने वाले, उनके प्रतिनिधि रचनाकार हैं। उनकी पहचान राजस्‍थान में ही रही। बाद में उन्‍होंने कुछ बड़े उपन्‍यास हिन्‍दी में भी लिखे। उन्‍हें परखवाने (विश्‍ोषकर उनकी हिन्‍दी) डॉ मेघराज मेरे पास भी लाते रहे।

हिन्‍दी में छपने से, उनका, खास तौर से 'आंगन नदिया‘, 'अज हूं दूरी अधूरी‘ की दूर दराज़ के इलाकों में चर्चा हुई (हालांकि दोनों में कई स्‍थलों पर एक दूसरे का दुहराव है। सीमित जमीन के कारणवश तथा शायद मोटे उपन्‍यास बनाने के मोहवश) इनमें से एक पर उन्‍हें राज․ साहित्‍य अकादमी का (हिन्‍दी का) सर्वोच्‍च, 'मीरा पुरस्‍कार‘ भी प्राप्‍त हुआ। तब सुदामा जी के मुंह से बरबस निकला कि काश मैंने अपना सारा साहित्‍य शुरू से ही हिन्‍दी में लिखा होता। हर कोई लेखक मन से यही चाहता है कि उसे विशाल पाठक वर्ग मिले। सराहे।

एक बात, मेरे जीवन में यह भी रही कि मुझमें नए नए नगर देखने उनमें रमने की लगन बचपन से ही रही। अमूमन मेरे साथ कहना चाहिए मेरे मन में एक जिज्ञासा सी बलवती हो उठती है कि अगर मैं यहां या उस जगह या इस गली, या इस हवेली, मुहल्‍ले में रहता होता तो मुझे कैसे कैसे आभास होते। और कुछ अनदेखी जगहों को कल्‍पनाओं के सहारे, जानने समझने खोजने की लालसा भी बनी रहती है। गाड़ी किसी छोटे स्‍टेशन पर रूकी, एक आदमी अपना सामान समेटता हुआ, सामने किसी रेलवे क्‍वार्टर में घुस गया या अाउटर सिगनल की ओर या स्‍टेशन-बाहर सामने की किसी गली में चला गया तो सोचता हूं कि अगर मैं भी इस शहर में इन्‍हीं गलीकूचों क्‍वार्टरों में रहता होता तो मेरा परिवेश, मेरी सोच मेरा रहन-सहन कैसा होता। और उनका प्रभाव मेरे लेखन पर कैसा पड़ता।

बता आया हूं जहां जहां छोटे जीजाजी रहे, मैं भी वहां वहां पहुंचा। लगभग वह सारी छावनियां स्‍टेशन मैंने देख लिये। इसी तर्ज पर जहां जहां कमला के सैमिनार लगे, ड्‌यूटियां लगीं, उन में से कई जगहें मैंने और मेरे परिवार ने देख लीें।

मेरी सबसे छोटी बिटिया अभी मुश्‍किल से दो महीने की थी कि कमला का सैमेनार 15 दिनों का, अजमेर में 'ओरंटेशन‘ कॉलेज में आयोजित हुआ। 17-8-72 से 31-8-72 तक का। दो समस्‍याएं पैदा हुईं। छोटी सी नन्‍ही बच्‍ची को संभालने की। दूसरी रहने की। क्‍योंकि हम सपरिवार वहां जा रहे थे। पहली समस्‍या का समाधान तो यह निकाला कि चंपा बाई जो शिल्‍पी की देखभाल करती थी, को साथ चलने को राज़ी कर लिया। उसका टिकट खरीदा। हमारा रेलवे-पास तो था ही। छोटे बच्‍चों विवेक (अशु), कविता, शिल्‍पी, अजय को स्‍कूल से छुट्‌टी दिलवा दी। और तैयारी प्रारम्‍भ। लेकिन दूसरी समस्‍या वहां पर रहने की ?

मैंने, ईश्‍वर चन्‍दर सिंधी हिन्‍दी के उस समय के चर्चित लेखक जो सारिका में खूब छपते थे, को पोस्‍टकार्ड डाल कर पूछा कि क्‍या हमारे अजमेर में ठहरने की कोई व्‍यवस्‍था हो सकती है। उत्त्‍ार मिला। मैं कोई मदद नहीं कर सकता। उर्स के दिन हैं। धर्मशालाएं वगैरह सब भरी पड़ी हैं। ऐसे में इबादत करने वाले पर्यटकों की भरमार होती है। सभी लोग खुद अपने मकान के बड़े हिस्‍सों को मुंह मांगे किराए पर दे देते हैं। पैसे की खातिर, खुद, अपने ही घर में कोनों में सिमट कर गुज़ारा कर लेते हैं। ऐसे में कोई मकान होटल किराए पर मिलना भी मुश्‍किल है। चलो एक बात हुई। उस वक्‍त के लेखक कम से कम पत्रों के उत्त्‍ार तो दिया करते थे। आज के हमारे बहुत से लेखक अकड़ कर कहते हैं हम पत्रों का उत्त्‍ार देना अपनी हतक समझते हैं। कुछ कहते हैं अपने आप ही अगले को समझ लेना चाहिए कि हम इन कामों में रूचि नहीं रखते। एक बार कानपुर से कहानी भेजने का प्रस्‍ताव आया था। मैंने कोई कहानी भेज दी। कोई उत्त्‍ार नहीं। कई पत्र लिखे। न कोई उत्त्‍ार, न छपी हुई कहानी प्राप्‍त हुई। मैंने फोन मिलाया तो जनाब, तथाकथित संपादक राजेन्‍द्र राव साहब जी का उखड़ हुआ स्‍वर सुनाई दिया- अपने लेखन का स्‍केल ऊंचा कीजिए। भले आदमी! तूने ऐसे घटिया आदमी से कहानी, अपने शानदार लैटर पैड पर लिखकर मंगवाई ही क्‍यों ? चलो हो लिया। कहानी वापस कर देते। पत्र ही लिख देते। फोन ही कर देते। यह आज के ऊंचेपन का नमूना है।

वैसे आजकल सभी संपादक पत्र न भेजकर, फोन से ही काम चला रहे हैं।

ईश्‍वर चंदर का ज़माना, फोन का जमाना नहीं था। शालीनता का जमाना था अतः उसने उत्त्‍ार तो दिया था। बात जब पत्रों और संपादकों की चल निकली है तो पहले धैर्यपूर्वक, आपको, अपनी चिंता से भी अवगत कर दूं कि पत्रों के न रहने से कोई भी लेखक संपादक अपनी जिम्‍मेवारी से सीधा अपने को मुक्‍त पाता है ''नहीं नहीं फोन पर मैंने ऐसा तो नहीं कहा था। आप कुछ गलत समझ गए होंगे। रेकार्ड रहित, मुक्‍त विचरण, बिना पासपोर्ट, वीजा घूम रहे हैं। ''अरे भई कह दिया होगा।‘‘ अब मॉफी मांगे लेते हैं। पर असली चिंता अपनी जगह। साहित्‍य के पत्रों वाले इतिहास के विलुप्‍त हो जाने की है, जिन्‍हें आज हम बड़े बड़े लेखकों के संपादकों, लेखकों को लिखे गए, तत्‍कालीन समय को समझने में सहायक पाते हैं। शोधार्थी भी उनसे लाभान्‍वित होते हैं। अब तक पिछली पीढ़ी वालों के पत्र, पत्रिकाओं के मोटे मोटे अंकों में, किताबों में छप रहे हैं। आज के लेखकों को इस रूप में कौन पढ़ पाएगा।

मेरे पास मम्‍बई के कर्मठ युवा लेखक रमा शंकर का पत्र आया था कि आपके पास तो लेखकों के खूब पत्र होंगे। हम ऐसे आपके पत्रों के आदान-प्रदान को पुस्‍तक रूप में छापना चाहते हैं।

मैंने उत्त्‍ार दिया-भैया मेरे पास तो आज तक भी ऐसे पत्र बड़े बड़े लिफाफों में भरे पड़े हैं; पर कल को तुम लोग क्‍या करोगे। क्‍या दोगे।

कोई फोन आता है-सहगल साहब, आपका पत्र मिल गया। थोड़ा समय बचाने के लिए यह फोन कर रहा हूं। यानी पहले के बड़े से बड़ा लेखक यथा विष्‍णुप्रभाकर, रामदरश मिश्र आदि निकम्‍मे, निट्‌ठले थे। मेरे पास हसन जमाल साहब के सबसे ज्‍यादा पत्र हैं। इन्‍हीें को आधार बनाकर (बिना कभी हसन जमाल देखे) उस पर शानदार लेख वक्‍त ज़रूरत छपवा दिया था।

''अब मुझे अपनी थोड़ी भड़ास निकालने की भी इजाजत अता फरमाएं। इस भड़ास को मेरा 'सत्‍य‘ (और कुछ दूसरों का भी) समझ कर ताइद करने की मेहरबानी करेंगे। इसी लिए मैंने अपने आत्‍म कथ्‍य में यही शब्‍द लिखे हैं कि मैं बचपन में लेखकों को कोई आकाशीय, देवतुल्‍य श्‍ाक्‍ति समझता था। पर जब धीरे धीरे कुछ बड़े लेखकों से पाला पड़ा तो पाया, बेशक वे अपनी मित्र मंडली में विशिष्‍ट कहलाते हैं पर शिष्‍ट नहीं हैं वे। वही बात उन सब के नामोल्‍लेख कर उन्‍हें महत्त्‍व देना, और अपने को आत्‍म पीडि़त दर्शाना होगा। फिर भी कुछ नाम तो चाएंगे ही। जिन्‍होंने लिस्‍ट बना रखी है कि इन इनको छापना है। इन इन को नहीं। इससे बेहतर तो वाइड सर्कुलेशन वाली अच्‍छा पैसा देने वाली पत्रिकाएं होती हैं जो निष्‍पक्ष भाव से सिर्फ रचना पर ध्‍यान देती हैं। पर हमारे लघु पत्रिकाओं तथा कथित संपादक नाक भौं सिकोड़ते हैं। हूं व्‍यावसायिक।

गिरीराज किशोर ने मेरी स्‍वीकृत कहानी बिना टिप्‍पणी के लौटा दी। पूछ बैठा तो, चलो जवाब मिला-आपसे किसी और बढि़या सी कहानी की उम्‍मीद करते हैं। पूछो, घटिया थी तो स्‍वीकृति पत्र क्‍यों भेजा था।

एक दोस्‍त ने राज़की बात कही-बेशक और कुछ श्रेष्‍ठ भेजकर देख लो। जब उन्‍होंने तुम्‍हें न छापने का फैसला ही कर लिया है तो कुछ भी नहीं छापेंगे। पक्‍की बात है। उनकी मित्र मंडली ने उनके सामने लिस्‍ट प्रस्‍तुत कर दी होगी कि सिर्फ इन इन को ही छापना है। बाकियों को खारिज करना है। उठने नहीं देना है। मुझे हंसी आ गई क्‍या 'अकार‘ जैसी पिद्‌दी पत्रिका में छपने से मैं आकाश को छू आऊंगा। ऐसी पत्रिकाओं के (बिना पढ़े भी) गुणगान इनके मित्रगण ही गाते रहते हैं। पत्रिका वह जिसका वाइड सर्कूलेशन हो। आम जनता की धड़कन का अंग बने। मात्र बोद्धिको भर की होकर न रह जाए।

मैं साहित्‍य क्षेत्र में होते हुए भी, साहित्‍य, साहित्‍यकारों के असली मकसद से नादान, सोचता हूं, शायद ऐसी ऐसी ही पत्रिकाओं के ज़रिए साहित्‍य का इतिहास लिखा जाना हो जो पत्रिकाएं अपवाद स्‍वरूप ही कहीं सहज उपलब्‍ध हों। यदि ऐसी पत्रिकाएं कहीं भूले भटके किसी बुक स्‍टाल पर पड़ी भ्‍ाी हों तो आम पाठक, पत्रिका का शीर्षक ही देखकर बिदक जाएं- यह सब मैंने अपने छोटे आलेख ''हिन्‍दी पत्रिकाओं के विरोधाभासी स्‍वर‘ (शेष जुलाई सितंबर 2010) में लिखा है। अच्‍छी खासी प्रतिक्रियाएं मिली थी। दया दीक्षित ने लिखा था कि पढ़कर, ''हंसी रोके नहीं रूकती है।‘‘

कभी मेरे पुराने मित्र अजय ने मुझे जयपुर बुला भेजा था। अचानक अशोक आत्रेय जयपुर की सड़कों पर टकरा गया। कहने लगा-चलो चलकर मणि मधुकर से मिलवा लाता हूं। मेरी जिज्ञासा जागृत हो उठी-हां हां वे 'अकथ‘ नाम की पत्रिका भी तो निकालते हैं ना। मैंने भी एक कहानी भेज रखी है। मिलकर पूछ आते हैं। अशोक ने कहा-गलती की। वह छापेगा ही नहीं।

मणि मधुकर जी साहब बाकायदा किसी 'बड़े‘ संपादक के रूप में प्रकट हुए। मैंने अपनी कहानी के बारे में पूछा तो ज़रा और बढि़या एक्‍टिंग के साथ, ऊंचे हो गए-मुझे ध्‍यान नहीं। मैं अपने पी․ए․ से पूछूंगा। उसने चाय पानी तक को न पूछा। हम वापस चले आए। अशोक हंसने लगा-पी․ए․ ? 'अकथ‘ शायद डेढ़ अंक निकाली और बंद। लो इतिहास तो बन ही गया।

लखनऊ के एक बड़े नामी गिरामी संपादक हैं। सदा मित्र लोग उनके लेखन के कसीदे काढ़ते नहीं थकते। उनकी पत्रिका का भी बड़ा चमत्‍कारी नाम है। होगा। मैं कब इनकार करता हूं। मैं भी एक कहानी भेज बैठा। यात्री ने वही घोषणा कर दी कि क्‍या मजाल जो तुम्‍हारी कहानी छाप दे। चलो बाबा न छापे। पर मेरे पत्रों का कुछ उत्त्‍ार तो दे। चलों उत्त्‍ार भी न दे। लौटा तो दे। मेरे मित्र रतन श्रीवास्‍तव उनके लखनऊ कार्यालय जा पहुंचे। बड़ी सज्‍जनता से पेश आए। कहने लगे सहगल साहब की कहानी जरूर अच्‍छी रही होगी। मेरे मित्र (शायद क्‍लास फैलो भी) डॉ आमोद (संपादक 'तत्‍सम‘) ने भी लिखा था। खुद भी आए थे। कहानी देखेंगे। कोई उनसे पूछे कलयुग की लिखी कहानी, क्‍या सतयुग में देखेंगे।

हेमंत कुकरेती माने हुए कवि कहलाते हैं। पत्रिका निकालने से पूर्व खूब ही बढि़या लैटर पैड छपवाया। उसी उच्‍च कोटि के लेटर पैड पर मुझ नाचीज को लिख भेजा। पत्रिका निकालने जा रहा हूं। आपके बिना अंक अधूरा रहेगा (जैसे शब्‍द) मैंने कहानी भेज दी। हेमंत जी मौन। तंग आकर मैंने फोन का लाभ (चार पांच रूपए का नुकसान) उठाया।

- तबीयत अपनी (या घर वालों की) बिगड़ गई थी। पहला अंक तो निकल चुका है। आपकी कहानी बहुत अच्‍छी है। अगले अंक में देंगे। हाय वह अगला अंक। न नींद आई न तुम आए। तुम्‍हारी याद ही आई। जब तब हेमंत जी का नाम पढ़ने सुनने को मिलता है। मुझे अपनी वह 'कहानी‘ याद आ जाती है। मुझे लगता है केवल लैटर पैड ही छपा था। कोई पत्रिका नहीं छपी होगी।

ये तो कुछ बड़े नाम, चर्चित नाम हैं। टटपुंजिए नाम भी बहुतेरे हैं। पर छोडि़ए। पटना से कोइर् मरिया जी और उनके खासमखास (क्‍या करना नाम याद करके) 'जन विकल्‍प‘ निकाल रहे थे। कहानी विशेषांक के लिए कहानी मंगवा भेजी। मैंने भी जिद पकड़ ली कई कई किस्‍म की इबारतों से अलंकृत पत्रों का खजाना पेश करता रहा। एक दो फोन भी किए घर वालों ने कहा बाहर गए हुए हैं। जब आए तो बता देना सहगल साहब का फोन था। मगर चूं तक नहीं। मुझे लगता है ये सब ऐसे लोग दरअसल 'स्‍थितिप्रज्ञ‘ की श्रेणी में बने रहते हैं। मान अपमान गुणगान (यदि गाली भी दो)का इनके हाथी जैसी मोटी खाल पर कोई असर नहीं होता। अंबाला वाले स्‍वामी वाहिद काजमी ने भी ऐसों की खूब खबर ली है। अपने बड़े लेख में 'लेडीज फर्स्‍ट‘ लिखकर पहले मेहरू निस्‍सा परवेज की करतूतों का खुलासा किया है। वही बात कि ऐसे बड़े लेखक/संपादक/विद्वान बहुत महीन महीन मुस्‍करा कर अगले को उसके अज्ञान 'हीनता बोध‘ का एहसास कराते रहते हैं। अगर दोनों आमने-सामने हों तो। ऐसे में मेरा जैसा भला कह सकता है सिवाए इसके तुम को तेरा घर मुबारक․․․․․․․․․․।

इससे भी बढ़कर ये तथाकथित संपादक जो, पाप करते हैं वह, रचना को न छापना। न लौटाना। या अगर बहुतेरी मिन्‍नत समाजत के बाद लौटाएंगे भी, ताे रचना को बिगाड़ कर, थोड़ा इधर उधर से फाड़कर, ताकि अगला उसे दूसरी जगह भी न भेज सके। हो सकता उनके मन में भय भी हो कि इसके छपने से अगला, उन्‍हें पछाड़कर कहीं आगे न निकल जाए।

एक मजेदार किस्‍सा गाजियाबाद के उन्‍हीं युवा लेखकों की कारगुजारी का सुनाना चाहता हूं। उन पट्‌ठों ने कोई पत्रिका छापने की घोषणा कर डाली। छपास के भूखे लेखकों की क्‍या कभी कमी रही है ? आनन फानन में ढेरों रचनाएं खिदमते ऐडिटर आने लगीं। जरा गौर फरमाएं 'पट्‌ठो‘ शब्‍द का इस्‍तेमाल दोबारा कर रहा हूं, जबकि मुझे नई उम्र की इन नई नस्‍लों को निहायत ज़हीन कहना चाहिए था तो इन पट्‌ठों/जहीनों (जिस शब्‍द को पसंद न करें, कृपया काट दें) ने सारी की सारी रचनाओं पर स्‍याही डाल दी। कुछ पेजों पर गलतियों के निशाने देे मारे कुछ पेजों को थोड़ा थोड़ा फाड़कर रचनाएं लौटा दीें।

वजह पूछी गई तो मासूमों ने जवाब दिया कि यह सब हमारे साथ हो चुका है। उन्‍हें इस बात से मतलब न था कि किन्‍हों ने उनके साथ ऐसा सुसुलूक किया था और वे बदला किस से ले रहे हैं। तब मुझे दिल्‍ली कैंट के एक बड़ी उम्र के रेलवे ए․एस․एम․ की याद ताज़ा हो आई। बड़ी शेखी से सम्‍य स्‍टाफ को अपनी परिपक्‍व बुद्धि का परिचय दे रहे थे, ''मैंने तो पूरा बदला चुका लिया था।‘‘ खुलासा होने पर पता चला कि जनाब एएसएम बनने से पहले टीचर हुआ करते थे। और सारे बच्‍चों को बेदर्दी से पीटा करते थे। वजह वही कि हमने भी अपने टीचरों से खूब मार ख्‍ााई थी। इसे कहते हैं अपनी सरजमीं की विरासत को कायम रखना। इसी संदर्भ में विभाजन के इतिहास पर नज़र डालें। किन मुसलमानों ने किन हिन्‍दुओं को मारा; बदला लिया दूसरे मुसलमानों से। इसी प्रकार किन हिन्‍दुओं ने किन मुसलमानों को मारा लूटा और बदला लिया दूसरे हिन्‍दुओं से।

एक बात और․․․․․․․․ कई संपादक का रचना के साथ लेखक का पता टेलीफोन नं․ नहीं छापते। पता नहीं उनके मन में भय व्‍याप्‍त है कि कोई दूसरा संपादक भी उनसे रचनाएं न मंगवाने लगे। पाठक उनके गुणगाान गाकर उनकी बुद्धि को बर्स्‍ट/भ्रष्‍ट न कर दें। या वे समझते हैं कि वे ऐसे ऐसे बड़े नामी गिरामी लेखकों को छापते हैं जिनके पते पाठकों को मुंह जबानी रटे पड़े हैं।

पहले जब 'राजस्‍थान पत्रिका‘ हमारी खूब कहानियां छापा करती थी तो पते भी छापती थी। हमें 15, 20 प्रशंसा पत्र प्राप्‍त हो जाया करते थे। इससे (शायद कुढ़ कर) उन्‍होंने पते छापने बंद कर दिए। एक प्रकाशक अनुराग प्रकाशन के किशन चन्‍द जी ने किताब पर ही से मेरा तथा दूसरों के पते ही उड़ा दिये तो नमन के प्रकाशक नितिन गर्ग ने 'समर्पण‘ को साफ़ कर दिया। पांडुलिपि प्रकाशन ने मेरे उपन्‍यास 'टूटी हुई जमीन- में जी भर कर प्रूफ और दूसरी अशुद्धियों को बढ़ावा दिया, जबकि पांडुलिपि टाइप करा कर जांच कर भेजी थी। यहां तब तक अपना ज्ञान भी उंडेल दिया मुहम्‍मद अली जिना को हसन अली कर दिखाया। मॉफ करें थोड़ा बहक गया हूं। थोड़ा और बहकने दीजिए।

तीन चार बार मैंने कुछ लेखकों को, उनकी उत्‍कृष्‍ट रचनाएं पढ़कर उन्‍हें, C/o (मार्फत) संपादक प्रशंसा पत्र लिखे। क्‍या मजाल जो संपादकों ने उन तक उन्‍हें पहुंचाने की जहमत उठाई हो।

एक तरफ हम ढोल पीट पीट कर चाय के प्‍याले में तूफान लगाने की कोशिश करते हैं कि सरकार आम जनता को साहित्‍य, संस्‍कृति से दूर रखना चाहती है तो दूसरी तरफ हम स्‍वयं अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत महसूस क्‍यों नहीं करते कि हम स्‍वयं लेखक प्रकाशक संपादक क्‍या क्‍या गुल खिला रहे हैं। बहुत थोड़े प्रकाशक ऐसे रह गए हैं, जो पांडुलिपि को ढंग से पढ़कर, प्रूफ देख-दिखवाकर, किताबों के उचित प्रचार प्रसार में रूचि दिखाते हैं। मगर बहुत ज्‍़यादा तादाद में ऐसे हैं जो पांडुलिपि को गले में पड़ी, किसी बला की तरह उतार कर बोरों में भर कर बेचने को रवाना कर देते हैं। सिर्फ एक उदाहरण हाजि़र है। समरसेट मॉम की किताब मेरे सामने है। खूबसूरत से रंगीन आवरण पर मोटे मोटे शीर्षक से लिखा है शौतान (शैतान की जगह) में खुदा। अंदर ठीक लिखा है। यह तो है विश्‍व प्रसिद्ध लेखकों के साथ। दूसरों की कैसे ऐसे तैसी करते होंगे। कल्‍पना, करने को नहीं कह रहा, खुद आप ध्‍यान दे सकते हैं। अंदर अनुवाद की भाषा लचर। थोड़ा सजग पाठक अनुवाद पढ़कर ही समझा लेता है कि लेखक के साथ न्‍याय नहीं हुआ। प्रकाशक किसी भी ऐरे गैरे भाषा के लाल बुझकड़ को पकड़कर प्रति पृष्‍ठ मामूली राशि देकर अनुवाद करवा डालता है। या लेखक से पैसा लेकर जितनी हो सके, उतनी घटिया छपाई कर करवा कर पुस्‍तक निकाल देता है। बाल साहित्‍य का हाल तो पूछिए ही मत। बस, नहीं तो और लंबी हांकता चला जाऊंगा।

हो सकता है यह अध्‍याय जीवनी जैसी विधा में अनावश्‍यक लगे परन्‍तु ये तमाम चीजें मेरी जिंदगी के साहित्‍य के सरोकारों गहरा रिश्‍ता रखती हैं।

अपने थोड़े महत्‍वपूण्‍ार् विभाजन पर लिखे उपन्‍यास 'टूटी हुई जमीन‘ का संक्षेप में उल्‍लेख करते हुए, ऐसी बेहूदी पर ध्‍यान खेंचने वाली बातों को खत्‍म करता हूं।

'टूटी हुई जमीन‘ (प्रकाशक पांडुलिपि प्रकाशन दिल्‍ली) में सैकड़ों अशुद्धियां हैं। पहली ही लाइनों में मां की ममत्‍वपूर्ण दृष्‍टि को 'महत्‍वपूर्ण‘ दृष्‍टि लिखा गया है। ऐसे ही मुहम्‍मद अली जिना को शायद अहमद बना दिया है। ऐसे में जानकार पाठक लेखक की बुद्धि को कोसेंगे।

प्रकाशक ने इसके कई संस्‍करण निकाल लिये। मेरे लाख सिर पटकने पर भी सुधार नहीं किया। पहले संस्‍करण की थोड़ी रकम बड़ी मुश्‍किल से यात्री जी के द्वारा भिजवाई। उसके बाद एक और कहानी संग्रह 'मिस इंडिया ः मदर इंडिया‘ उन्‍होंने चन्‍द्र जी की देखरेख में कुछ अच्‍छा निकाला। दोनों के पैसों के लिए बार बार, नेताओं की तरह आश्‍वासन दिए चले आ रहे हैं ''चिन्‍ता न करें।‘‘ और पुस्‍तकें भेजें। यार लोग कहते हैं। इसी में शुक्र करो-तुम्‍हारी किताबें छप जाती हैं। पैसे तो नहीं देने पड़ते।

अब बस। मैं खुद यह सब लिखते हुए बोर होने लगा हूं। मेरे से बहुत सीनियर बुजुर्ग लेखकों का भी कमोबेश यही हाल है। कुछ बता देते हैं। कुछ मारे शर्म के चुप्‍पी मार जाते हैं।

फिर ऐसी विपरीत स्‍थितियों में क्‍यों लिखता हूं। बस लिखा जाता है। जब लिखा जाता है तो पत्रिकाओं में छपने को भेज देता हूं। छपने पर उन्‍हें पुस्‍तकाकार रूप में देखने का मोह जागृत हो जाता है। (शोध विद्यार्थियों का भी कुछ भला हो जाता है) सेाच आती है जब प्रकाशक हमारी किताबों से खा-बना रहे हैं तो हम भी उनसे कुछ चाहने की गुस्‍ताखी कर बैठते हैं। बहुत थोड़े हमारे प्रकाशक इस दिशा में ईमानदारी बरतते हैं। हाल ही में प्रभात प्रकाशन दिल्‍ली ने मुझे अग्रिम रायल्‍टी दी है। पर बकाया सारे माल (?) की खपत कैसे होगी। जो कुछ हो लिया सो ठीक।

अरे कहां से कहां भटक गए थे, मेरे दोस्‍त श्री हरदर्शन सहगल साहब। तेरी लंबी हांकने की बुरी आदत नहीं जाएगी। तू बात कर रहा था अजमेर जाने की। याद दिला दूं। तुम्‍हारी मिसेस का अजमेर में, उर्स के दिनों में सैमिनार होना था। चल बता फिर क्‍या हुआ।

सॉरी सॉरी वही बता रहा था। तो सुनिए। बात तो अजमेर जाने की कर रहे थे। समस्‍या विकट हो चली थी। ऐसे में हमारे वायरलैस के साइफर ओपरेटर श्री मदन मोहन शर्मा को जरा सी भनक पड़ गई। मेरे पास आए। बोले-आपको शायद पता नहीं, अजमेर में मेरे खुद का मकान है। नीचे वाला पोर्शन अपने लिए खाली रख छोड़ा है। ऊपर किराएदार हैं। मैं अभी किराएदार के नाम पोस्‍टकार्ड डाले देता हूं। आप जितने रोज़ भी रहें, आपका अपना घर है। मुझे मनमांगी मुराद मिल गई। उन्‍होंने एक कागज पर सविस्‍तार पता-रास्‍ता दर्शाते हुए लिखकर मुझे थमा दिया।

बीकानेर से अजमेर के लिए गाड़ी न तब (1972 में­) सीधी चलती थी और न आज 2011 में ही। बस, एक सिर्फ चंद दिनों महीनों के लिए चली थी। थोड़ा रोचक प्रसंग है। आगे बताऊंगा। रास्‍ते में․․․․․․․ स्‍टेशन पर रात के समय गाड़ी बदलनी पड़ती है। खैर सवेरे नौ दस बजे के करीब हम सब अजमेर पहुंच गए। तमाम रास्‍ते रिक्‍शे तांगे ठसा ठस उर्स के कारण भरे हुए थे। मैंने तांगे वाले को, कागज निकालकर कहा, वहां पर पहुंचा दो। तांगे वाले ने हमें किसी मोड़ पर उतार दिया कि आगे संकरी गलियां हैं। भीड़ है। मकान तक नहीं पहुंचा सकता। मैंने परिवार वालों को एक स्‍थान पर खड़ा कर दिया कि इतने भारी बक्‍शों, बिस्‍तरों समेत सबका जाना उचित नहीं। पहले मैं अकेला जाकर मकान ढूंढ़ आऊं। मैं रास्‍ते भूलने में शुरू ही से काफी माहिर हूं। कहां का कहां जा पहुंचता हूं (बहुत किस्‍से हैं) अपने डुप्‍लैक्‍स के एक जैसे ब्‍लाकों में आगे पीछे हो जाता हूं। इससे ज्‍यादा मैं अपनी तारीफ नहीं कर सकता। आप कहीं मुझे 'फिलासफर साहब‘ का दर्जा अता न करने लगें। बेशक चढ़ती जवानी में अरस्‍तु सुक्रांत जैसों से आगे निकल जाने की सोचता रहा हूंगा।

मैं बार बार उस स्‍थान को घर घर को परख रहा था कि कहीं आती बार बिछड़े हुए परिवार को आसानी से ढूंढ़ लूं। सारे रास्‍तों में भी मोड़ों के दुकानदारों के बोर्ड पढ़ता, आखिरकार मंजिले मकसूद तक जा पहुंचा। किराएदार ने बतया कि मदन मोहन जी के खत अपने से ठीक दो रोज पहले हमने तीर्थ यात्रियों को निचला पोर्शन किराए पर उठा दिया है। अब उन्‍हें निकाला तो नहीं जा सकता। इन दिनों सभी मकान वाले खुद तंग जगह में रह कर खूब पैसा कमा लेते हैं। सो हमने भी मालिक मकान का भला चाहा। कोई बात नहीं। आप एक बार परिवार को ले आएं। फिर कुछ और इंतजाम करने की कोशिश करेंगे।

मैं उसी प्रकार पूरी सतर्कता बरतते हुए, परिवार को, वापस ढूंढ़ निकालने में कामयाब हो गया। कमला को सारी स्‍थिति बताकर पूरे परिवार और चम्‍पा बाई को वापस उसी मकान में ले गया। परिवार वालों ने छत पर ही एक बहुत ही छोटा सा कमरा दिखया। आगे एक टैरिस पड़ती थी। वहां खड़े हो जाओ तो दुनिया भर की रौनक के नजारे देखते रहो। कहा-अगर इतने भर में आप लोग गुज़ारा कर सकें तो देख लें। वैसे काफी दूरी पर एक आलीशान बंगला भी आपको मिल सकता है। एक बार उसे भी देख आएं। नहीं तो यह जगह तो कहीं गई नहीं। उस परिवार में एक जोशीला युवक था-शायद बेरोजगार खाली-बोला चलिए। उसने अपनी साइकिल निकाल ली। मैंने एक साइकिल किराए की ले ली। कमला को पीछे बिठाया। बंगला वास्‍तव में रहने लायक था। देखकर मजा आ गया। मगर था सुनसान में। राशन पानी स्‍टोव के लिए मट्‌टी का तेल कैसे बार बार बाजार जाकर लेकर आ सकेंगे। बंगले से आगे कॉलेज पड़ता था जहां सैमीनार होना था। वह तो और भी सुनसान जगह। आयोजकों को कमला ने रिजम्‍पशन रिपोर्ट दी। और समस्‍या बताई।

- मैडम कोई बात नहीं। आपके परिवार के रहने के लिए एक दो कमरे खाली करवा देंगे। पर खाना तो आप अकेली को ही मिलेगा। पांच मील की दूरी से कैसे बार बार सामान लाद लाद कर लाएंगे। छोटे बच्‍चे भी साथ हैं तो किसी वक्‍त भी रात सवेर किसी चीज की ज़रूरत पड़ सकती है।

हम वापस आ गए। कमला काे पंद्रह दिन तक की किराए पर, साइकिल दिलवा दी। और उसी परछती में ही घर बसा लिया। परछती न कहो इसको। यह तो फ्‍लाइंग चेम्‍बर था। एक कोने में चम्‍पा बाई खाना बनाती। सीढि़यों से नीचे उतर कर नहाते धोते। विवेक, कविता, अजय, शिल्‍पी को खिलाते। टैरिस से सभी तरह के नज़ारे देखते। मैं वहीं बैठा हुआ किताबें पढ़ता। कभी कुछ लिख लेता। घर से बाहर कदम रखते ही, रौनक का रंग हृदय में समा जाता। खिलौने वाले, बाजे वाले, बांसुरी की धुन बजाते, बासुरी वाले। चाट गोल गप्‍पे खिलाने वाले। औरतों के श्रृंगार के सामान लिये घूमते फिरते बच्‍चे नौजवान वृद्ध। ले लो; ले लो। खिदमत में हाजि़र। जैसे मुफ्‍त में बांट रहे हों। हरे कांच की चूडि़यां कमला के लिये ले आया। कमला ने नापसंद कीं यह तो गांव वालियों सी हैं। मेरा दिल टूटा। मैंने चूडि़यां तोड़ डालीं। मेरी और कमला की पसंद कभी भ्‍ाी जिंदगी भर मेल नहीं खाई। जब यह खरीदारी करने दुकान में जाती है। मैं अक्‍सर दुकान से बाहर खड़ा रहता हूं। कहीं चीज़ को लेकर दामों को लेकर टोकाटाकी ने हो जाए। पैसा लुटाती है तो लुटाती रहे। महारानी जी किसी तरह खुश रहे। ''जो तू चाहे, जैसा चाहे वही रूप धरूंगी‘‘ वाली मीरा इससे कोसों दूर है। चीजों के चुनाव और परखने के मामले में मैं 'अनाड़ी सैयां‘ हूं। चलो तेरी रज़ा मेरी खुदा। मान जा। नाराजगी का कहर न ढा।

दिल लगाने के लिए और भी है कुछ मुहब्‍बत के सिवा। पर बिना मुहब्‍बत तो आम आदमी का काम नहीं चलता।

कमला साइकिल दौड़ाती हुई, सुबह सवेरे क्‍लासें अटैंड करने निकल जाती। कमला के बिना मैं क्‍या करूं। इस नन्‍हीं सी कोठरी में। हां कुछ देर नन्‍हीं सी गुडि़या (शिल्‍पी) को गोदी में गुदगुदाता। हंसाता। खेलता। उसकी हरकतों पर मुग्‍ध होता। बाकी बड़े बच्‍चे भी कौनसे बड़े बच्‍चे थे। सारे छोटे छोटे मेरे मन के दुलारे। उनकी अंगुलियां थामें बाजार से जो मांगे दिलवा लाता। खिला लाता। कुछ खाने को, चम्‍पा बाई के लिए भी ले आता। मगर आखिर कितनी देर तक इन गलियों को नवाजता।

मैं गलियों, बाजारों फिर कुछ चौड़ी सड़कों पर दौड़ लगाता हुआ रेलवे स्‍टेशन जा पहुंचता।

वायरलैस अॉफिस का पता लगाया। वायरलैस स्‍टाफ से जा मिला- मैं भी बीकानेर का एक वायरलैसी हूं। उन्‍होंने बड़ी गर्मजोशी से खुशआमदेद कहा। बैठाया चाय पिलाई। परिचय बढ़ाया। उस वक्‍त बीकानेर और अजमेर अलग अलग रेलवेज, डिविजनों में पड़ते थे। (आज दोनों एक में समा गए हैं) एक दूसरे के स्‍टाफ वर्किंग आवर्ज शिफ्‍ट वगैरह की जानकारी का आदान प्रदान हुआ। मैंने उन्‍हें बताया। मैं कहानी लेखक भी हूं। ईश्‍वर चन्‍दर मनोहर वर्मा भी तो रेलवे में हैं। उनसे मिलना है। उनमें से एक मेरे साथ चल पड़ा। लाइनों में से गुजरते हुए बड़ी बिल्‍डिंग में जा पहुंचे। यह रेलवे का बहुत बड़ा अकाउंट्‌स अॉफिस था। ऊपर की मंजिल में दोनों महारथी अकाउंटेंटस, जो मूलतः लेखक थे, साइड बाई साइड बैठे हुए, काम करते हुए नहीं, कहानियां लिखते हुए मिले। वाह खूब दफ्‍तर में कहानी लेखन शॉप खोल रखी है। काश मुझे भी ऐसा कोई खुशनुमा दफ्‍तर नसीब हुआ होता।

ईश्‍वर चन्‍दर से खतो किताब तो हो ही चुकी थी। उसने झट से पहचान की मोहर लगा दी। और मकान न दिलवा पाने के कारणों का खुलासा करने लगा। मैंने कहा अब इस टापिक काे छोड़ो। बताओं क्‍या लिख रहे हो। उसने दराज खोली। कुछ खाली कागजों के ऊपर कहानियों के शीर्षक लिखे पड़े थे।

- हें ऐसे लिखते हैं आप। पहले शीर्षक बाद में कहानी। जबकि हम जैसे कहानी पूरी कर चुकने के बाद कई दिनों तक उचित/श्रेष्‍ठ शीर्षक की तलाश में भटकते फिरते हैं।

-नहीं, पहले शीर्षक लिख लेने से कहानी लिखने में बहुत आसानी हो जाती है।

खैर यह तो अपने अपने तौर तरीके हैं जिसे जो ठीक लगे वैसा ही करे। पर पहले कहानी का शीर्षक, थीम, रूपरेखा बना लेने से कहानी लिख पाना बेशक आसान तो हो सकता है पर कहानी में जो, अपने को टटोलने, नई राहों की खोज-प्रक्रिया और गहराई अपेक्षित है, वह मेरे जैसे के हिसाब से 'कहानी में नदारद‘ हो जाती है।

इतने में मनोहर वर्मा भी हमारे बीच आ बैठा। उसे इस प्रकार के डिस्‍कशन में खास रूचि नहीं थी। वह मूलतः बाल लेखन करता था। इसी में उसकी खासी पैठ थी। डींग मारने लगा-जैसे लेखकों को संपादकों की ज़रूरत होती है। उसी प्रकार संपादकों को भी हम लेखकों की ज़रूरत होती है। हम तो उन्‍हें धमका भी देते हैं कि हम भी आपकी इमेज खराब कर सकते हैं।

मैं इन दो महान लेखकाें से मिलकर कृतकृत स्‍नान में नहा कर तरोताज़ा हो उठा। बाद में भी इनके यहां, और रेलवे वायरलैस आफिस जाता रहा। बस उस वक्‍त यही दो लेखक मेरी नज़र में थे। ईश्‍वर चंदर, कमलेश्‍वर जी की नजर में चढ़े हुए थे। उन्‍होंने वास्‍तव में कुछ बहुत अच्‍छी कहानियां लिखी थीं- 'न मरने का दुःख‘ और 'एक पेशेवर गवाह‘ कहानियां मुझे अब तक झझकोरती हैं। ईश्‍वर चन्‍दर सिंधी में भी लिखा करते थे। मैंने पूछा था कि क्‍या सिंधी पत्रिकाओं में संपादक भी कुछ पे करते हैं तो जनाब ने जवाब दिया। बिलकुल नहीं। मगर हां सिंधी के पाठक बड़े कद्रदां होते हैं। वे कभी कभी हमारी कहानी पर खुश होकर कुछ रूपए मनीआर्डर से भेज देते हैं। सुनकर मुझे बहुत अच्‍छा लगा, जहां हिन्‍दी पाठक प्रशंसा करने में भी कंजूसी बरतते हैं वहां सिंधी के पाठक किस तरह से अपने लेखकों को प्रोत्‍साहित करते हैं, ऐसी मिसाल फिर कभ्‍ाी किसी भी अन्‍य भाषा के पाठकों के बारे में सुनने को नहीं मिली। इतना ज़रूर सुना कि महाराष्‍ट्र, केरला, बंगाल के पाठक अपने बड़े लेखकों की वंदना करते हैं। यह भी कौन सा कम है। पर हिन्‍दी के पाठक । सुभानअल्‍लाह । अपने महल्‍ले में भी कोई नहीं जानता। बात ठीक भी है। वे दरअसल पाठक होते ही नहीं मात्र, असली मायनों में फकत पड़ोसी होती हैं। उनमें से चंद एक पड़ोसी-धर्म भी निभाते हैं और कुछ बिना वजह किसी के लेखक होने से कुछ कुछ कुढ़ते भी रहते हैं।

मेरा, अजमेर वाली परछती (फ्‍लाइंन चैंबर) में क्‍या काम। नहा धोकर नाश्‍ता करके वहां से छूट निकलता। दिन भर हर मकाम पर धमा चौकड़ी मचाए फिरता। शिल्‍पी की पैदाइश के फौरन बाद लालगढ़ (बीकानेर) बड़े हास्‍टिपल से वैस्‍काटमी का आपरेशन करवा लिया था। सफलता की जांच नहीं हो पाई थी। सो अजमेर के रेलवे हास्‍पिटल में एक दिन उसी निकम्‍मेपन के आलम में घूमते घुमाते पूछते पुछाते जा पहुंचा। कार्ड दिखाया। नर्स एक ओर ले गई। शाम को आकर रिपोर्ट ले जाने को कहा। शाम केा फिर जा पहुंचा तो उसी नर्स ने 'फिट‘ का सर्टीफिकेट जबानी दे दिया। मन में थोड़ा संशय बना रहा। बीकानेर लौटने के बाद फिर लालगढ़ हास्‍पिटल चला गया। डाक्‍टर नहीं था। नर्स मुझे ऊपर अॉपरेशन थ्‍येटर ले गई। उसने जांच के बाद आश्‍वस्‍त किया। जाकर अपनी मिसेस से कहना, अब तुम्‍हें मुझसे तो केाई खतरा नहीं। इस वाक्‍य के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। जरा दिमाग दौड़ा कर देखे तो।

मैं अजमेरी लेख्‍ाकों से तो मिल ही चुका था। अब बारी थी संपादकों से मिलने की। वन प्‍लस वन। टू इन वन। प्रकाश जैन और उनकी पत्‍नी दो संपादक मिलकर 'एक‘ बहुत चर्चित पत्रिका 'लहर‘ निकाला करते थे। अब तो कई वर्षों से बंद है जमाना गुजरा। कोई खोज खबर नहीं, प्रकाश जी तो स्‍मृति शेष हो चुके हैं। पर उनका, उनकी पत्रिका 'लहर‘ का नाम आज भी बड़े आदर के साथ लिया जाता है। पिछले महीनों ही किसी लेख में पढ़ने को मिला कि उसमें एकदम उत्‍कृष्‍ट रचनाएं छपा करती थीं- आगे लिखा है कि कोई देखकर बताए कि अगर उन अंकों में कोई भी निम्‍न श्रेणी की रचना छपी हो। मेरी कहानी 'छलावा‘ उस में शुरूआती दौर में छपी थी। इस से मैं थोड़ा तन गया- क्‍या वास्‍तव में मैं भी शुरू ही से अच्‍छा लिखा करता था। मधुरेश जी ने कैरियर, 'लहर‘ ही से प्रारंभ किया था। मधुरेश जी ने यहां तक लिखा है, जिन्‍हें, प्रकाश जैन खूब चाहते थे, उनके विरूद्ध लिखा तो भी प्रकाश जी ने बड़ी उदारता से उसे छाप दिया। इक वह भी संपादक थे, इक यह भी संपादक है। जिनका ख्‍़ाुलासा कर आया हूं कि इन्‍होंने एक लिस्‍ट तैयार कर रखी है कि इन इनको लिफ्‍ट देनी है। छापना है (भले ही कूड़ा लिखें) और इन इनको कतई नहीं छापना। यह बात मैं ही नहीं कह रहा। कई जगह पढ़ने को मिलती है।

हां तो, एक छत पर लहर का कार्यालय था। मैं सीढि़यां चढ़ता हुआ वहां जा पहुंचा। अकेले प्रकाश जैन बड़ी मुस्‍तैदी से कागजों ही कागजों के झुंड में व्‍यस्‍त दिख रहे थे। मैंने किंचित ऊंचे स्‍वर में, हाथ जोड़ते हुए नमस्‍ते कहा। और अपना परिचय दिया। उन्‍होंने प्रसन्‍नता प्रकट की। बैठाया। दीवार के सहारे घड़ा रखा था। उठकर मेरे लिए पानी का गलास भर लाए। फिर टैरिस से ही नीचे झांक कर चाय वाले को आवाज़ देते रहे। भीड़ के शोरगुल के कारण या तो वह सुन न सका या ग्राहकों के झमघट के कारण अनसुना कर दिया। प्रकाश जी खुद ही नीचे जाकर दो गलास चाय थामे वापस, अपनी सीट पर आ बैठे। एक गलास मेरी ओर बढ़ा दिया।

-आपने कष्‍ट किया। चपड़ासी नहीं है।

-मैं ही चपड़ासी। मैं ही झाड़ू लगाने वाला। मैं ही क्‍लर्क। मैं ही संपादक। मैं ही डाकिया। सवेरे घर से आते समय पोस्‍ट आफिस से अपनी डाक लेते हुए आता हूं। शाम को सारी डाक पोस्‍ट आफिस में डाल आता हूं। मनमोहिनी अस्‍वस्‍थ चली रही हैं। और किसी का सहारा नहीं।

सुनकर मैं दंग। इतनी बड़ी हिन्‍दुस्‍तान जैसे विशाल देश की बड़ी चर्चित पत्रिका 'लहर‘। और उसके संपादक। यही हाल 'शेष‘ के संपादक․․․․․․ 'लोकगंगा‘ या 'आधारशिला‘ के संपादक भी बयान करते हैं। दूसरी और व्‍यावसायिक घरानों की खूब खूब बिकने वाली पत्रिकाओं का अंबार है। जरूरत से कम कर्मचारी रखते हैं। अधिक से अधिक उन्‍हीें पर भार डालकर उनका शोषण करते हैं। शायद सरकारी पत्रिकाओं का हाल बेहतर हो। मैं तो आज तक गिनी चुनी पत्रिकाओं यथा 'हंस‘ 'संचेतना‘ 'फिल्‍मी दुनिया‘, 'फिल्‍मी कलियां‘, 'मधुमती‘ के कार्यालयों को देख पाया हूं। आज तक भी केन्‍द्रीय साहित्‍य अकादमी, दिल्‍ली, भाेपाल भारत भवन, केन्‍द्रीय हिन्‍दी निदेशालय, ज्ञानपीठ, एनसीईआरटी जैसे ऊंचे संस्‍थानों आदि किसी को भी देख पाने का सबब हासिल नहीं कर पाया। डाक, खतोकिताबत (भले ही वन वे ट्रैफिक) जिंदाबाद। इसका कुछ खामियाजा भुगत रहा हूं। यह वाक्‍य मेरे कुछ हितैषी बताते हैं कि संपर्क एक महत्‍वपूर्ण शार्टकट फार्मूला है। पर दम भी तो चाहिए जो किसी 'लेखक‘ में हो। डॉ महीप सिंह, क्षेमचंद सुमन, से․रा․ यात्री, नरेन्‍द्र मोहन, मधुरेश, सुकेश साहनी या एक दो और हो सकते हैं, के निवास को छोड़कर किसी के पास नहीं गया। हां कुछ को सैमिनारों गोष्‍ठियों में जरूर देखा है। ज्‍़यादातर से बात नहीं कर पाया। एक दो तथाकथित बड़े लेखकों की अकड़ से आहत भी हुआ हूं। वे लेखकों, विद्वानों के खुदा हैं।

मेरे लिए बस बीकानेर के आत्‍मीय मित्र/लेखक जिंदाबाद। सबसे बढ़कर स्‍व․सांवर दैया प्रो․ रामदेवाचायर् और उनसे बढ़कर मार्गदर्शक, स्‍व․ यादवेन्‍द्र शर्मा 'चंद्र‘। आजकल, कला अनुरागी कद्रदान हैं एडवोकेट उपध्‍यान चंद्र कोचर उनकी पत्‍नी, मेरी स्‍नेहमयी भाभी कमला कोचर है। साथ ही उनकी बहू श्रीमती प्रीति कोचर हैं।

बाकी भी कई अंतरंग इज्‍़ज़त करने वाले मित्र हैं पर उनके यहां कमोबेश 'परदा‘ है। या उनके निवास बहुत दूर भी पड़ते हैं। या फिर उनमें से कुछ सृजनशील थे। चूंकि उन्‍होंने लगभग लिखना पढ़ना छोड़ रखा है लिहाजा मुझे भी उन्‍होंने छोड़ सा रखा है। पूछेंगे क्‍या लिखा है। पढ़ा है। तो क्‍या क्‍या जवाब देंगे। असली वजह यह भी होती है कि जब लिखने से विरक्‍ति ले रखी है, तो लिखने वाले से क्‍या करना मिलकर। पहले वाला, जिज्ञासाओं से भरा भरा हराभरा माहौल गायब हो चुका है। जैसे तैसे दे दिलाकर कोई सी किताब निकल जाए। विमोचन समारोह में वाहवाही लूट लें। इसी से संतुष्‍टि प्राप्‍त कर, लेखक कहलाने की पदवी पा जाएं। मेरे सामने जिन कुछ नए लोगों ने थोड़ा बहुत बेहतर भी लिखा, तो यह कार्य, यह लंबा सफर/रास्‍ता उन्‍हें दुष्‍कर महसूस हुआ। शार्टकट मैथे। पत्रकार बन जाओ लोकल अखबारों में कुछ भी लिखकर छपवाते रहो। या कुछ गलतशलत सी समीक्षाएं लिख जाओ। संपादक, सह सम्‍पादक बनने की कोशिश में जुट जाओ। गोष्‍ठियों का आयोजन करो। संचालन करो। भाषण दे देकर अपने से वरिष्‍ठों का मार्गदर्शन करो। या उन्‍हें या उससे बढ़कर शहर की गैर साहित्‍यिक बड़ी हस्‍तियों को अध्‍यक्ष मुख्‍य अतिथि वशिष्‍ट अतिथि बनाकर पूरे श्‍ाहर में संपर्क बढ़ाओ। उनके लिए इससे ऊपर साहित्‍यकर्म और कुछ नहीं। संस्‍थाओं को अपने कब्‍जे में कर लेने की मारामारी भी इन सुकृतियों में शामिल है। इम्‍पार्टेंस। हां किसी भी ढंग से छोट से छोटे पुरस्‍कारों की झपट छीनी भी तो एक गुण है। इस गुण के रहते वे पहली सीढ़ी से ऊंची मंजिल तक जा पहुंचते हैं। सारी की सारी एक के बाद दूसरी लपाकत बस उन्‍हीें में या उन्‍हीं तक में समाती चली जाती है। सत्त्‍ाा की तज़र् पर, 'पुरस्‍कार‘ के लिए भी। मशहूर हो चला है कि पुरस्‍कार मिलता नहीं, लिया जाता है।

इस गुर को न जानने वाले अंदर ही अंदर कुढ़ते हुए अपने को उदार जैन्‍यूइन राइटर का तगमा स्‍वयं को पहना देते हैं। तेरी राह तुझी को मुबारक। हमें अपना घर ही प्‍यारा। सभी पुरस्‍कारों के, (एक एक पुरस्‍कार की पूरी जानकारी रखते हुए) प्राप्‍त करते रहा। लेखन की दुनिया में संस्‍थाओं के पदाधिकारी बनते चले जाओ फिर तुम्‍हें लिखने की जरूरत ही क्‍या है। उनमें से जो कुछ ज्‍यादा होशियार (इसे व्‍यापक अर्थों में लिया जाए) होते हैं, वे बड़े अफसरों की भांति साहित्‍य लिखने वाले, साहित्‍य के प्रकाशकों, पुरस्‍कार की लगन में सब कुछ निछावर करने वालों के भाग्‍य निर्माता हो जाते हैं। वे खुद लेखक होते हुए भी लेखक नहीं रह जाते। इस विषय पर भी मेरी एक कहानी 'हत्‍या‘ है। बेशक वे कुछ न लिखकर भाषणों द्वारा साहित्‍य के प्रवक्‍ता बन बैठते हैं। स्‍थापनाएं कायम करते हैं और तो और फतवे भी जारी करते हुए किसी किसी को उससे ऊंचा या एकदम दूसरों से नीचा साबित करने की कुचेष्‍टा करते रहते हैं। यह भी कहते हैं कि किसी कुपात्र का किसी भी संदर्भ में हमारे नाम लेने से उसको महत्‍व मिल जाएगा। भले ही हम उसकी भर्तसना ही क्‍यों न करें। वे अपनी जबान की कीमत स्‍वयं तोलते रहते हैं-उस जबान की लंबाई भी हर वक्‍त नापते रहते हैं, कि मेरे मुंह में ऐसी जबान है जो किसी का भाग्‍य बना सकती है। जिसका चाहूं भाग्‍य चकनाचूर कर के रख दूं। मैं भाग्‍य निर्माता हूं। चाहे तो पूरी दुनिया में इसी जबान से पूरे साहित्‍य/विचार जगत में तहलका मचा कर रख दूं। ऐसी जबान से ही नामी वकील बेगुनाहों को फांसी के तख्‍ते पर चढ़ा देते हैं और गुनाहगार को उद्‌दंड सांड की तरह समाज में फिर से बलात्‍कार हत्‍या करने को, जज साहब से, छुड़वा लाते हैं। जा मौज कर। तो, क्‍या मिलिए ऐसे लोगों से․․․․․․․।

यहां वहां सब जगह साहित्‍य की राजनीति छायी रहती है। लिहाज़ा अपन अपनी छोटी सी किताबों से घिरी कोठरी (स्‍टडी रूम) में ही खुश। आप गोष्‍ठियां करते रहें। वक्‍तव्‍य देते रहें श्रोता (?) तालियां बजाते दस बारह की भीड़ लगाते रहें। इधर हम चुपचाप, कुछ खरा, कुछ खोटा लिखते रहें। यही राह मेरे जैसों के लिए सुखद है। कोई इसे अगर मजबूरी कहे तो भी मुझे कबूल।

मैं दो या तीन बार प्रकाश जैन जी से मिला (मनमोहिनी जी से नहीं मिल पाया) एक बार तो उर्स के कारण इतनी भीड़ थी कि आगे (घर) के रास्‍ते के लिए निकल पाना नामुमकिन हो गया। भीड़ मुझे धकेलती हुई 'लहर‘ कार्यालय तक पहुंचा गई। मैं ऊपर सीढि़यां चढ़ गया। प्रकाश जी को बताया कि भीड़ ने मुझसे कहा कि क्‍यों वक्‍त बरबाद कर रहा है। जाकर प्रकाश जी से मिल। सुनकर वे खूब हंसे। प्रकाश जी बड़ी मुस्‍तैदी से रचनाएं देखते जाते। बातें भी करते जाते। उसी दम, साथ लगे लिफाफों में कुछ रचनाएं, वापसी के लिए डालते जाते। मैंने पूछा कि विज्ञापन वाले चैक भी लौटाते हैं। बोले हां। सभी प्रकार के विज्ञापन छापकर पत्रिका की छवि धूमिल नहीं करनी होती। डाक की व्‍यवस्‍थित ढेरियां, उनकी टेबल के साईड रेक पर रखी होतीं।

जैसे कि बताया खूब मटरगश्‍ती में समय बिताता और सोचता जब घर पहुंचूं तो कमला पहुंची हुई मिले। कमला के लिए दीवानगी की हालत कभी खत्‍म नहीं हुई। बीकानेर में भी, जब तक कमला सर्विस में रही और मैं कहीं बाज़ार या दोस्‍तों के बीच होता, तो मेरी कोशिश यही होती कि जब मैं घर पहुंचूं तो कमला आई हुई मिले। वरना बिना कमला के घर, मेरे लिए वीरानगी का प्रतीक होता। साइकिल चलाते हुए भी मुंह में 'कमला कमला‘ नाम की माला जपता हुआ चलता। लेकिन मेरे जीवन का सबसे बड़ा दुर्भाग्‍य, कि कमला ने मेरे इस एहसास को कभी न समझा। वह इसे मात्र 'नाटक‘ कहकर भर्तसना ही करती रही। लेकिन फर्ज़ अदायगी में वह एक कदम भी पीछे न रही। हमेशा मेरे सुख दुःख सुविधा का ध्‍यान रखा। पर शारीरिक स्‍तर पर समय समय पर उसकी भी अपनी कुछ मजबूरियां रहीं। वह मेरा साथ नहीं दे पाई तो मैंने भी उसके साथ कभी जबर्दस्‍ती करने की कोशिश नहीं की। जबदर्स्‍त सर्दियों की रातें में जाकर ठंडे पानी से नहाया।

हां एक दो बातें और ः-

जब जब मैं बीमार पड़ता, कमला मेरी पूरी तीमारदारी करती। अपनी होम्‍योपैथी की दवाइयों से भी कई बार मुझे ठीक किया। मेरे मित्रों को भी ठीक किया। एक बार सूयप्रकाश बिस्‍सा जी के दूरदराज के घर, मुझे लेकर चली गई। डॉक्‍टर ने उन्‍हें जयपुर रैफर किया था। कमला ने उन्‍हें दस दस पंद्रह पंद्रह मिनट के वक्‍फे से अपनी दवाइयां खिला खिला कर एक दम ठीक कर दिया। बिस्‍सा जी जिस तिस के सामने गुणगान करते फिरते- हमें तो हमारी भाभी जी ने ठीक कर दिया। इसी प्रकार मेरे जयपुर तक के मित्र जब मेरे घर आते तो मुझे लगता कि मुझ से मिलने को आए हैं। नहीं, वे कमला से इलाज करवाने आते थे। खास तौर से श्रीनंद भारद्वाज और उनकी पत्‍नी।

मेरे बीमार पड़ने पर, कमला मेरे आस पास बनी रहती। कभी कभी प्‍यार से दो मीठे बोल भी बाेल देती तो मैं कहता-अच्‍छा हो जो मैं हमेशा बीमार ही पड़ा रहूं। मैं उससे कैसे शब्‍दों कैसे प्‍यार की अभिलाषा करता, वह इससे अनजान। कभी कभी प्‍यार की बातों पर झिड़क तक देतीं, तो मैं यही सोचता 'वन साइडिड लव‘। लेकिन यह भी पूर्ण सत्‍य कैसे हुआ। एक बार शाम को इंचार्ज ओमप्रकाश जी ने कहा-आपकी शिफ्‍़ट खत्‍म हो गई। मेरे साथ मालगोदाम तक चलोगो ? वहां अपने दफ्‍तर का सामान आया हुआ है। मैं उनके साथ हो लिया। रास्‍ते में मेरा क्‍वार्टर पड़ता था। कमला चौखट में खड़ी मेरा इंतज़ार कर रही थी। मैंने ओमप्रकाश जी काे बताया-उधर देखो। हर रोज़ कोई सी शिफ्‍ट के खत्‍म होते ही कमला इंतज़ार करती हुई मिलती। उधर उन जैसे जनाबों का यह हाल कि घर वालों को पता ही नहीं होता कि उनकी कौन सी शिफ्‍ट चल रही है। किसी वक्‍त भी घर से निकल जाते। बेशक किसी वक्‍त जाएं। किसी वक्‍त आएं।

चार साल पहले मेरा हरनियां का आपरेशन होना था। मैंने ग़ौर किया कि जैसे कमला का पूरा चेहरा मुर्झा गया है। एकदम ढीली कमज़ोर।

कमला निर्णय लेने में एकदम दृढ़। कह दिया सो कह दिया। वही होगा। आपकी राय की जरूरत नहीं। दूसरा, सबको अपना बना लेने की, कला उसमें है। उस उपेक्षित वर्ग से भी खूब हिलमिल जाती है; जिन्‍हें लोग बाग नजदीक नहीं आने देते। उनकी आर्थिक मदद भी करती है।

पत्‍नी, पति का सबसे बड़ा संबल होती है। वही उसकी जटिल समस्‍याओं का समाधान निकालती है। उसे अपने सही निर्णय लेने को प्रेरित करती है। चाहे कैसी भी मानसिक धरातल की पत्‍नी हो। मुश्‍किल में वही ढाल बनती है। मेरे लिए भी वही उचित जो कमला ने कह दिया। 'शी इज़ माई कमांडर इन्‍चीफ‘।

सवर्सि में होते हुए उसने मेरी साहित्‍य-रूचि-संगीत रूचि में कोई रूचि नहीं दिखाई ''मैं घर देखूं या आपके गाने सुनूं‘‘। इसके बावजूद उसने मेरे साहित्‍यिक मित्रों की हमेशा (बेशक मेरी अनुपस्‍थिति में) आवभगत की। घर आने वाली, लेखिकाओं को तो और भी जैसे घर के सदस्‍य जैसा रूतबा दिया। वास्‍तव में यह कमला के पढ़े-लिखे होने संस्‍कारित होने का प्रमाण है। जबकि दूसरी ओर बीकानेर के ज्‍यादातर ढेठ घरों में मैंने यह पाया कि दरवाजे की ओट से ''बार ग्‍याओड़ा है‘‘ कहकर हमें चलता कर दिया जाता। चन्‍द्र जी का घर अपवाद था। अब बीकानेर अवश्‍य कुछ परिवर्तन की ओर अग्रसर है।

कम से कम कमला, जैसे तैसे मेरी डाक की ओर ध्‍यान देती। उन्‍हें सरसरी तौर से परख कर मेरी टेबल पर सहेज कर जमा देती। कभी कभार कुछ प्रतिक्रिया भी प्रकट कर देती। हां रिटायर होने के बाद बहुओं के आ जाने के बाद उसमें साहित्‍य के प्रति रूचि जागृत हुई। लेकिन उसका मुख्‍य विषय होम्‍योपैथी आयुवेर्दिक धार्मिक किताबें हैं। इनमें उसकी खासी गति भ्‍ाी है। उसकी पुस्‍तकों का अलग रेक है। थोड़ा बहुत लोगों का इलाज भी कर देती है। इस मायने में, और उसके मिलनसार स्‍वभाव के कारण बहुत से लोग इसके भगत भी हैं। डॉ साहब कमला जी। कमला जी। वाह कमला। मेरा सिर आपसे आप उठ जाता है। तब भी जबकि मुझे वह एकदम बुद्धु समझती है। हमारे घर का यह भी नियम रहा है कि किसी कारणवश मेरा कोई सहकर्मी बिना चाय पिए चला भी जाए, किन्‍तु मेरा चपड़ासी बिना चाय के नहीं जाना चाहिए। मैं नाइट ड्‌योटी में साथ के चपड़ासी को भी बादाम, पिस्‍ता, काजू, किशमिश खिलाता रहा।

चलिए वापस। अभी तो कमला का सैमिनार खत्‍म नहीं हुआ। उर्स के दिनों के बीच में ही राखी का दिन पड़ा। तो सारे अजमेर के बाजारों में राखियों की भी बहार आ गई। नीचे का पोर्शन जो किराए पर मुस्‍लिम परिवार ने ले रखा था, वहां से दो छोटी छोटी प्‍यारी प्‍यारी बच्‍चियां मेरे पास छत पर आ पहुंचीं। थोड़े संकोच मिश्रित उल्‍लास के साथ बोलीं- क्‍या आप हमारी अम्‍मी जान से राखी बंधवा लेंगे ? वे दोनों आपको राखी बांधना चाहती हैं।

- अरे इससे बढ़कर मेरे लिए क्‍या खुशी हो सकती है। मैंने दुगने उल्‍लास के साथ कहा। उन्‍हें ले आओ ना।

पांच सात मिनट में ही वे दोनों मेरी बनने वाली बहनें सजधज कर राखी लिये, हमारे उस छोटे से कमरे में आ पहुंचीं। उन्‍हें देखकर कमला की खुशी का आर पार न था। गाजि़याबाद वाली बहनें तो नहीं पहुंच सकती थीं। इन बहनों को भगवान ने भेज यिा। उनका स्‍वागत किया। मैंने दोनों से राखी बंधवाई। उन्‍हें (उस वक्‍त के हिसाब से) पांच पांच रूपए भेंट किए। चाय नाश्‍ता कराया। अब वे खुश खुश लौट रही थीं तो सहसा मेरे मुंह से न चाहते हुए भी प्‍यार से निकल गया। जब बहनें भाई को राखी बांधने आती हैं तो भाई का मुंह भी अपने हाथ से मीठा कराती हैं।

-ये हमें पता नहीं था। जैसे कुछ पश्‍चाताप से कहा।

-अजी कोई बात नहीं यह तो यूं ही कह दिया। आपने राखी बांध दी। इससे बढ़कर मेरे लिए कुछ नहीं है। आपने सच मुझ पर मेरी गाजि़याबाद दिल्‍ली वाली बहनों की अनुपस्‍थिति में उपकार किया है। इसे कभी नहीं भूलूंगा। मैं सचमुच आनंद विभोर था।

कुछ रोज बाद बिदाई के समय उन्‍होंने पूरा मिठाई का पैकिट ला दिया। मैंने कमला ने बहुतेरा इनकार किया। पर उनकी जिद-लेना पड़ेगा। और आपको हमारे घर अकोला भी ज़रूर आना पड़ेगा। जो युवक उनके साथ था, कहने लगा-हम बहुत अमीर घराने से हैं, बड़े बिजनेसमैन हैं। अकोला में हमारी हवेलियां हैं। वहां आकर रहिएगा। अगर आप लोग हमारे हाथ का पक्‍का खाना न खाना चाहें, तो आपको अलग से रसोई घर दे देंगे। मैं हंसने लगा-हम लोग ऐसा परहेज नहीं रखते। अब तो जब बहन भाई का रिश्‍ता बन गया है, तो बहनों के हाथ का खाना तो और लजीज लगेगा।

इतनी दूरी। फिर कौन आता जाता है। हां कुछ अर्से तक खतोकिताबता शादियों के निमंत्रण पत्र। मेरे द्वारा शगुन के पैसे भेजना, चलता रहा। फिर धीरे धीरे सब समाप्‍त। पर सोचता जरूर हूं कि कोई सबब अकोला का बन ही जाए तो अपनी ढ़ेरों चिटि्‌ठयों में उनका अड्रेस उनकी चिट्‌ठी से लेकर पहुंच ही जाऊं। आत्‍मीय क्षण तो कभी जिंदगी से जुदा नहीं होते।

बीकानेर बसने और मकान की बात।

- ओ कमला तू काहे को मकानों, मकान बनवाने के पीछे पड़ी हुई है। पहले तू ने आते ही किराए के मकान लेने से पहले ही ज़मीन (ताजिया चौक में) का छोटा सा टुकड़ा, तांगे वालों, गाड़े वालों के बीच खरीद डाला, जहां हर वक्‍त मोटे चूहे, शेर जैसे कुत्त्‍ाे, सैर करते रहते हैं। लगभग सारी आबादी मुस्‍लिम परिवार मज़दूर तबकों की थीं।

-यही छोटे तबके के कहलाने वाले लोग आत्‍मीय प्रेम देते हैं। वक्‍त ज़रूरत बढ़ चढ़कर काम आते हैं। घने मुहल्‍ले में सेफ्‍टी भी रहती है। हमारे छोटे परिवार के लिए यह थोड़ी जगह बहुत है।

लेकिन जैसे ही हमने निर्माण कार्य आरम्‍भ किया, पिछवाड़े में रहने वाला ताराचंद, सामने आकर तन गया। आपके पिछवाड़े मेरा दरवाजा और ऊपर खिड़की पड़ती है।

-यह तो सरासर गलत है। इन्‍हें हम बंद करा देंगे।

-तो आप मुझे पांच सौ रूपए दीजिए।

-किस बात के ? तुम्‍हारे, नाजायज कब्‍जे के ?

वह लड़ने-मरने को तैयार हो गया। मैंने पांच सौ रूपए देने से साफ इनकार कर दिया। बाद में किसी सरदार जी को वह ज़मीन बेच दी। सुजान सिंह ने अपनी ज़मीन पर वहीं मकान बना ही लिया था। चलो दोनों, सरदार भाई मिलकर अड़ोस पड़ोस में खुश रहो। लेकिन उन दोनों सरदार भाइयों की तो दुश्‍मनी सी हो गई। बहुत बाद में सुजानसिंह ने व्‍यास कॉलोनी में बड़ा मकान खरीद लिया। आज तक वहीं बड़े ठाटबाट के साथ रह रहा है।

फिर कमला के कहने पर यू आई टी में, एच․आई․जी मकान के लिए पैसे जमा कर दिए। फिर कमला, कमला के स्‍कूल के स्‍टाफ के कहने पर पैसे वापस ले लिये कि मैटीरियल एकदम घटिया किस्‍म का लगा रहे हैं।

मगर कमला को चैन कहां। इसने धूल भरे फड़ बाज़ार (पठानों के महल्‍ले में) एक पुराने मजबूत टाइप के मकान का सौदा कर डाला। तय यह हुआ कि आधी रकम कोर्ट में पहले मालिक-मकान को, दे दी जाएगी। आधी बाद में। कब्‍जा मिलने पर। मैंने कोर्ट में 10-15 सौ या हजार रूपए रजिस्‍ट्रेशन फीस के भर दिए। अब काइयां मालिक मकान इस जिद पर अड़ आया कि सारी की सारी रकम अभी दे दीजिए। कल किसने देखा है। आप बकाया का भुगतान करें, न करें।

मैंने जवाब दिया- आपका भी क्‍या भरोसा। कल को आप पूरी रकम लेने के बावजूद मकान का कब्‍जा दें, न दें।

-आपके पैसे पैसे कोर्ट में फंस चुके हैं। देख लो।

-यह तो कुछ हजारों की बात है। चाहे मेरा लाखों का नुकसान हो जाए। मैं ऐसे घटिया आदमी से सौदा तो क्‍या बात करना भी पसंद नहीं करता। तुमने चाल चलकर मुझे फंसाया है। भाग जा। वह तो वहीं खड़ा, सोचता रहा। पर मैं साइकिल दौड़ा कर भाग खड़ा हुआ। वह पीछे से बहुतेरी आवाजें देता रहा। कई लोगों से कहलवाया कि समझौता कर लें सहगल साहब का ही, कोर्ट-फीस भरने से नुकसान हो रहा है।

-उस घटिया, अपनी जबान से फिरने वाले आदमी, को मेरे नुकसान की फिक्र करनी की ज़रूरत नहीं। बस सौदा कैंसिल। सो कैंसिल।

बाद में मुझे पता चला कि कुछ कटोती के बाद कोर्ट से मेरा पैसा वापस मिल सकता है। एप्‍लीकेशन लगा दी। दे चक्‍कर पर चक्‍कर। कभी कलक्‍टर नहीं। तो कभी बाबू नहीं। रीडर अवश्‍य मिलता। उसके हाथ में काफी कुछ था। मैंने रीडर से कहा- मेरे पास चक्‍कर लगाने का समय नहीं है। प्रैक्‍टिकल लाइफ आप जानें। हम तो कहानियों से ही इमारते बनाते हैं। साफ साफ बता दीजिए कि अगर पैसा न मिलना हो तो कोई बात नहीं। मैं तो अपने स्‍वाभिमान की खातिर, एक तरह से सारा पैसा गवा ही चुका हूं।

-अच्‍छा आप कहानियां लिखते हैं। क्‍या क्‍या लिखा है। कैसे लिखते हैं। हम आपको बहुत से अजूबे प्‍लाट बताएंगे। उन पर लिखिएगा। हमने दुनिया देखी है। आप निहायत भोले ईमानदार आदमी हैं। अब आपको दुबारा इस सिलसिले में आने की जरूरत नहीं। बस जरा यहां दस्‍तखत करते जाइए।

कुछ रोज बाद वही श्री तेजकरण व्‍यास (रीडर) पैसा लेकर हमारे रेलवे क्‍वार्टर आ पहुंचे। कमला को पैसा थमाया। कमला ने उन्‍हें राखी बांधी। उनके परिवार बेटे बहुओं के साथ आत्‍मीयता बढ़ती गई।

मेरा कहानी जीवन दर्शन यही कहता है कि जब दुनिया में इतने सारे नेक लोग बसते हैं तो हम घटिया लोगों पर क्‍यों लिखें। घटिया पात्र बस एक उपकरण की भांति चरित्रवान लोगों को परोक्ष्‍ज्ञ रूप से हाइलाइट करने वाले दिखें। इस समय उदय प्रकाश, उदय प्रकाश हर जगह छाए हुए हैं। पर देखा जाए तो वे मानवता को क्‍या दे रहे हैं ? मैंने तो 'हंस‘ में एक बड़ा पत्र भी छपवाया था कि वे घोर पराजय दर्शन के पैरोकार हैं। जब ईमानदार आदमी को पहले ही से पता है कि अंततः उसकी हार ही होनी है तो फिर वह क्‍यों कर संघर्ष (रिवोल्‍ट) करे।

आज साहित्‍य में यथार्थ के नाम पर बहुत सारा ऊटपटांग कचारा परोसा जा रहा है, जिसे, उनके अंध भक्‍त फौरन से पेश्‍तर खा लेने को दौड़ते हैं। जगुप्‍सा पैदा करने वाले तथाकथित साहित्‍य को हजम करते/कराते फिरते हैं।

छोडि़ए, इसी मकान की बात, थोड़ी और कर ली जाए। अग्रवाल क्‍वार्टर गंदे नाले के किनारे बसा हुआ है। मेरे पास सिरे का मकान था। वहां के सब निवासी उन पर काबिज हो रहे थे।

हमें हराम के गंदे मकान में नहीं रहना। रेलवे क्‍वार्टर अलॉट हो ही चुका है। मैं अग्रवाल क्‍वार्टर के मालिक को चाबी थमाने को जा ही रहा था कि मुझ पर इस बात का दबाव पड़ने लगा कि चाबी कंकरिया टी․टी․ई को दे दो। वही इस में रह लेंगे। मैंने लाख बहस की कि यह अनैतिक होगा। कंकरिया साहब भी मेरे पुराने साथी हैं। जब ये टिकट कलेक्‍टर थे तभी से इन्‍हें जानता हूं। ये मेरे साथ चलें। मैं चाबी मालिक मकान को थमाकर रिक्‍वेस्‍ट कर दूंगा कि वे क्‍वार्टर इन्‍हें दे दें।

-फिर तो उस मकान मालिक की मर्जी पर होगा। क्‍या पता उसने पहले ही से किसी से वायदा कर रखा हो। चाबी दे न दे।

मैं सोशल फोर्स से दब गया। यह कचौट मुझ पर बनी रही। 1985 में जाकर 'जाता हुआ क्‍वार्टर‘ नाम की कहानी लिखी।

-ओ कमला अब तुझे फिर मकान की क्‍यों पड़ी हुई है ? मजे़ से अपने रेलवे क्‍वार्टर में गुजर कर रही है। मगर नहीं। कमला तो कमला है-कल को अगर आपका कहीं ट्रांसफर हो गया तो मैं बच्‍चों के साथ कहा रहूंगी ?

मुक्‍ता प्रसाद में बहुत खूबसूरत बड़ा मकान मिला। लेकिन मैंने मना कर दिया- मेरी रात दिन की ड्‌यूटियां हैं। इतनी दूरी से कैसे आता जाता फिरूंगा।

अंत में डुप्‍लैक्‍स कॉलोनी में हाऊसिंग बोर्ड का कुछ छोटा ही सही, पर सुन्‍दर ढंग का मकान मिला अपनी मनमर्जी मुताबिक इस पर अधिक निर्माण कराया। तराशा। बगीची भी लगाई। इसी में रहकर चारों बच्‍चों की शादी कीं। रिश्‍तेदारी बढ़ी। भांजी स्‍वीटी उर्फ कंचन, (पंजाब नेशनल बैंक) की शादी भी बीकानेर में करवा दी, इसे बीकानेर ले आया। सो इस तरह बीकानेर का ही हो गया। 1956 से न भी मानें तो स्‍थाई रूप से मेरे 1965 से बसे मेरे जैसों को आज तलक कुछ लोग बड़ी सहृदयता से 'बाहर का आदमी‘ कहते हैं। कुछ चहेते मित्र इसे बीकानेर का सौभाग्‍य तक भी कहते हैं कि तूने साहित्‍यिक क्षेत्र में बीकानेर का नाम ऊंचा उठाया है।

पूरे देश में ऐसी दो तरफी प्रतिक्रिया, कहानियों में भी पढ़ने को मिलती रहती हैं। कहानियों को छोडि़ए मात्र महाराष्‍ट्र की ओर नजर उठाकर देख लें। 'अनेकता में एकता का नारा‘ तो अति सुन्‍दर है परन्‍तु मजहब, जाति, उपजाति, क्षेत्रियता, नेताओं, साधुसंतों के पूजनीय स्‍थलों, अपनी अपनी रीतिरिवाजों, मान्‍यताओं ने एक देश में अनेक देश भी तो पैदा कर रखे हैं। दरअसल यह कुछ संकुचित बुद्धि वालों के कारण से है।

इस अनेकता के 'दाे कौमों के साथ साथ न रह सकने‘ वाले परिणाम (पाकिस्‍तान) के रूप में भी देखने को तो बचपन में ही, अभिष्‌प्‍त रहा हूं। भुक्‍त-भोगी, मेरे जैसे, कश्‍मीरी पंडित ही, इसे समझ सकते हैं। मेरे पास पूरे जीवन का रिकार्ड तिथि अनुसार डायरियों, फाइलों आदि में अंकित है। बस एक टेलिप्रिंटर कोर्स के विषय में कुछ कुछ रोचक जानकारी अवश्‍य देना चाहूंगा। यह ट्रेनिंग पौने दो महीनों (12-4-76 से 25-5-76) की गाजि़याबाद रेलवे ट्रेनिंग स्‍कूल में हुई थी। गाजि़याबाद तो अपने चार चार घर हैं। बढि़या हुआ। ज्‍़यादातर वायरलैस आपरेर्ज उम्रदराज थे। जो नार्दन रेलवे के हर डिवीजन; इलाहाबाद, फिरोजपुर, दिल्‍ली, मुरादाबाद, जोधपुर, बीकानेर आदि से आए थे। उनमें से बहुत से पुराने बेली भी थे। कइयों के साथ नई दोस्‍ती भी हुई।

इन्‍स्‍ट्रैक्‍टर खुद टैलिपिं्रटर के विषय में ख्‍़ाास जानकारी नहीं रखते थे। टेलिप्रिंटर के शायद पौने दो लाख पुर्जे बताए थे। वे कैसे काम करते थे। सैद्धान्‍तिक रूप से कुछ कुछ लिखवा दिया। रटो और पास हो जाओ। इंस्‍ट्रैैक्‍टर हम लोगों के हम उम्र, उनके बीच (हम घर, पत्‍नी से बिछड़े, वियोगी विरहई भाई) क्‍या पढ़ते बल्‍कि उन्‍हें कामसूत्र के पाठ पढ़ाने लगते। वे इन्‍स्‍ट्रैक्‍टर (?) शर्मसार हो कर भाग खड़े होते। बाद में तो उन्‍होंने क्‍लास में आना ही बिलकुल बंद कर दिया। पढ़ो न पढ़ो, पास होओ। फेल हो, तो दुबारा आना पड़ेगा। अपना भला बुरा खुद सोच समझ सकते हो। क्‍लास रूम में शोरगुल होता रहता। अश्‍लील चुटकुले-बाजी होती रहती। ब्‍लैक बोर्ड पर चाक से स्‍त्री पुरूष रेखांकन किया जाता। मुझसे यह सब कहां सहन होता। बड़े बड़े कटहल के पेड़ों के साये में चक्‍कर काटता। और जब दिल करता तो घर को भाग जाता। छोटे भांजियां भांजे मेरे हाथ में फाइल देखकर बड़े उत्‍साहित होते-मामाजी स्‍कूल से पढ़कर आ रहे हैं। हें मामाजी आज स्‍कूल की जल्‍दी छुट्‌टी हो गई। फिर पूछते-मामाजी-अगर आप फेल हो गए तो ?

-तो क्‍या। वापस डेढ़ दो महीनों के लिए गाजियाबाद आना पड़ेगा।

-तो मामाजी आप ज़रूर फेल हो जाना। बड़ा मजा आएगा। पर पिताजी न जाने कैसे मेरे मनोभाव पढ़कर, माताजी से कहते कि यह कमला के लिए उदास है।

उधर बीकानेर में पत्‍नी, बच्‍चे अकेले मुश्‍किल से दिन गुज़ार रहे थे। जैसे ही छुटि्‌टयां हुई। वे सब भी गाजि़याबाद आ पहुंचे।

दिल्‍ली वालों की भी मौज थी। पहली गाड़ी मिलते ही एस एंड टी ट्रेनिंग सेंटर गाजियाबाद से भाग छूटतें।

मुश्‍किल दीगर स्‍टाफ वालों की थी जो निर्वासन भोग रहे थे। उनका हॉस्‍टल में खाने पीने का पैसा कटता। दिल्‍ली वाले तो खाना खाकर आते या साथ ले आते। रात को घर जाकर खाते। सबसे ज्‍़यादा मौज मेरी थी। घर का खाना। टी․ए․डी․ए․ ऊपर से मुफ्‍त।

जब शुरू में ट्रेनिंग के लिए गाजियाबाद आया था तो यात्री जी के यहां जा पहुंचा।

-आ गए ? कब आना हुआ। कितने रोज़ रूकोगे। वे हमेशा ऐसे ही पूछते थे, जब जब गाजियाबाद जाता।

-पौने दो महीने। मैंने झट से उत्त्‍ार दिया।

-झूठे। तुम तो तीसरे चौथे दिन वापस भागते नज़र आते हो।

स्‍थिति स्‍पष्‍ट होने पर बहुत खुश हुए यात्री जी। अब तुम से जमकर बातें हुआ करेंगी।

दूसरे चौथे दिन यात्री जी हाजि़र। एक दो बार स्‍कूल की छुटि्‌टयों के दिनों मैं और यात्री जी दिल्‍ली वगैरह भी हो आए। बाकी के गाजि़याबादी लेखकों (वही गिने चुने) से भी उठक बैठक होती रहती। अब तो सुना है, गाजियाबाद में लेखकों/प्रकाशकों की तादाद खासी बढ़ गई है। पर कहीं बढ़ चढ़कर मिलने की मेरी प्रवृति पैदा न हुई।

एक बात और भी न जाने क्‍यों, कभी कभी मेरे जेहन में यात्री जी और गािजयाबाद को लेकर आती रहती है। उस समय में भी, गाजियाबाद में लेखकों कवियों का इतना अकाल तो नहीं रहा होगा। खास नाम कुंवर बेचैन, विपिन जैन को तो थोड़ा बहुत मैं भी जानता था/हूं। आज तक कभी कुंवर बेचैन से नहीं मिला। बेशक एक कमी, बिना संबल के, कहीं आने जाने, भागदौड़ मचाने की मुझ में है ही। लेकिन यात्री जी ने मुझे किसी से भी नहीं मिलवाया। हो सकता है मुझे इस काबिल न समझा हो। या उन सबको यात्री जी निम्‍न श्रेणी के साहित्‍यकार मानते हों। या चाहते हों, सहगल मात्र मेरा ही भक्‍त बना रहे। मुझे तो खुद ही संपर्क बढ़ाने, अपने को पहचनवाने में जबर्दस्‍त संकोच रहा है। बस मन में एक मलाल जरूर बना हुआ है। मुझे मालूम पड़ा था कि लखनऊ से आकर दुर्गा भाभी पत्‍नी भगवती चरण वोहरा (सरदार भगत सिंह वाली) गाजियाबाद आ बसी हैं तो मैंने यात्री जी से अपनी हार्दिक इच्‍छा व्‍यक्‍त की थी कि दुर्गा भाभी जी के चरणस्‍पर्श करना चाहता हूं। एक दिन उधर ले चलिए। इस पर यात्री जी ने बेढंगा मुंह बनाकर मेरी (और शायद दुर्गा भाभी की भी), उपेक्षा कर दी। मैं जाकर उन्‍हें न मिल पाया। बाद में उनके निधन का समाचार सुना। आज तक मन ऐसा द्रवित हो उठता है कि बयान नहीं कर सकता।

मैं भी ऐसा छोटा बालक भी नहीं था कि अगर अकेला चला जाता तो कोई मुझे रास्‍ते से उठाकर तो न ले जाता। ऊंचा सुनने का भी मुझे थोड़ा रोग था पर बीस जगह रास्‍ता पूछने पर आखिर मिल ही तो जाता।

जब तब हम दोनों को मेरे बड़े भाई साहब, पुस्‍तकें छपने की समस्‍याओं पर बात करते हुए पाते हैं तो लेखकों की बेचारगी पर हंसते हैं कि इतना समय हो गया, तुम दोनों को लिखते। अब भी तुम्‍हारी दयनीय हालत है। मुझसे कहते हैं कि यात्री जी तुम्‍हारे साथ प्रकाशकों के पास फौरन, इसीलिए चल पड़ते हैं कि इन्‍हें भी किताबें छपवाने के लिए नए नए संपर्क ढूंढ़ने हैं। पुरानों को भी अपनी याद दिलानी है।

इस बात को यात्री जी भी थोड़ा रद्‌दोबदल के साथ कहते हैं कि मैं मुद्‌दतों तक किसी से नहीं मिलता। तुम्‍हारे आने पर इसी बहाने, उनसे भी मिलना हो जाता है।

तीन चार बार अजय कुमार (मेघा बुक्‍स) के यहां भी हम लोग गए थे। अजय ने नया प्रकाशन शुरू किया था। यात्री जी ने उसे पुस्‍तक देने से इनकार कर दिया था। जब 'मेघा बुक्‍स‘ का काम-नाम मशहूर हो चला तो उसने भी परोक्ष रूप से यात्री को छापने से मना कर दिया। हां एक बार यात्री जी मुझे अशोक कुमार, ऐसोसिएट एडीटर इंडिया टुडे के पास ले गए थे। मेरी विभाजन पर लिखी कहानी 'लुटे हुए दिन‘ कब की अशोक जी ने स्‍वीकृत कर रखी थी, पर छपने का नंबर नहीं आ रहा था। इसके एक सवा महीने बाद वह कहानी छपकर आई थी। अगले दौर में यात्री जी ने एक दो तीन प्रकाशकों से मिलवा कर कुछ मदद करने की कोशिश की थी। चंद्र जी के लैटर, प्रकाशकों के नाम, मेरी जेब में थे। यात्री जी ने कहा- चलों, इन्‍हें तो मैं भी जानता हूं। पर सबने इनकार कर दिया कि खुद चन्‍द्र जी ही की पांडुलिपियों, हम नहीं छाप पा रहे। वे बहुत लिखते हैं और हमारे पास छोड़ जाते हैं। एक प्रकाशक, शायद इन्‍द्रप्रस्‍थ, तो पूरे कबाड़ची लगे। वे मेरा एक उपन्‍यास (अलग अलग शीर्षकों वाला) को कई कई किताबों की शक्‍ल में छापना चाहते थे। मैंने साफ इनकार कर दिया कि मुझे अपने उपन्‍यास की दुर्गति नहीं करानी। एक ने कहा-यह पांडुलिपि छोड़ जाइए। जब कभी छपेगी तब आपको पांच सौ रूपए दे दिए जाएंगे। बोलो है मंजूर ?

मैं दंग रह गया-क्‍या प्रकाशक भी बनिए की तरह यूं सौदा करते हैं। मैंने झट से अपनी पांडुलिपि को खींच लिया-ऐसी जगह मुझे नहीं छपना। एक दो जगह यात्री जी ने सौदा तो कराया। मगर वे न तो छाप रहे थे। न पांडुलिपि वापस ही कर रहे थे। यात्री जी ने चक्‍कर काट काट कर पांडुलिपि उनसे लेकर अपने खर्चे से मुझे वापस भिजवाईं।

हां जब 'टूटी हुई ज़मीन‘ उपन्‍यास लिखा गया तो यात्री जी ने श्री हरीराम द्विवेदी, पांडुलिपि प्रकाशन दिल्‍ली से फोन पर ही बात कर ली थी। मुझे लेकर कृष्‍ण नगर गए। हरीराम जी ने पूछा- आप इसके कितने पैसे लेंगे ?

-इसकी कीमत आप क्‍या कोई भी प्रकाशक मुझे दे नहीं सकता। पूरे अठारह साल रो रो कर इसे पूरा किया है। आप इसे फ़ौरन छापने को तैयार हैं, मेरे लिए यही बहुत है। यात्री जी ने कई सालों बाद चक्‍कर काट काट कर उनसे तीन हज़ार का चैक लेकर मुझे रजिस्‍ट्री किया था। तीन हजार का उस कुछ सस्‍ते समय में भी क्‍या मोल था। बताए देता हूं। एक हजार तो पहले ही टाइप के लग चुके थे। अब एक हजार 'शेष‘ पत्रिका को, तथा पांच पांच सौ 'आकार‘ तथा 'आसपास‘ को भिजवा दिए। इसके बाद हरीराम जी ने इसके कई संस्‍करण निकाले, जिनके पैसों के तकाजे कर करके थक गया हूूं उनके यहां आने जाने, फोनों, खतों के कम से कम डेढ़ हजार मेरी जेब से और लग गए हैं। हरी राम जी के नेताओं की तरह आश्‍वासन दर आश्‍वासन। आप चिंता न करें। दो पांडुलिपियों बड़े तकाजे कर करके हरी रामजी ने मुझसे ली थीं कि सारे पैसे इकट्‌ठे दे दूंगा। चन्‍द्र जी तो साल में दो बार अपने बेटों के पास जाकर शाहदरा रहते थे। उन्‍होंने बड़ी मुश्‍किल से 'मिस इंडिया ः मदर इंडिया‘ कहानी संग्रह, अपने सामने निकलवा कर, (पूरे आठ साल बाद) छपवाया था। दूसरी पांडुलिपि न तो हरी राम जी ने छापी न वापस की। उम्‍मीदों पर दुनियां कायम है। कुछ भी कहो, इस मायने में चन्‍द्र जी का दबदबा मानना पड़ेगा उन्‍होंने बीकानेर के लगभग सारे लेखकों को छपवाया था। मुझे मेहरौली ले गए थे। वहां से अनुराग (असली नाम कुछ दूसरा है) प्रकाशन से एक कथा संग्रेह 'मर्यादित‘ तथा दो बाल कथा संग्रेह के कुल दो हजार में दिलवाए थे। बस ठप।

लगे हाथ प्रकाशकों के कच्‍चे चिट्‌ठों की वार्ता यहीं कर लेने में कोई हर्ज नहीं। आलेख प्रकाशन, नवीन शाहदरा से मेरा पत्र व्‍यवहार चल रहा था। श्री उमेश चन्‍द्र अग्रवाल ने लिखा था कि जब कभी इधर आएं, अपनी सारी पांडुलिपियां लेते आएं। यात्री जी को बताया तो बोले-चलो वह तो मेरा शिष्‍य रहा हुआ है। उसने मेरी भी कई किताबें छाप रखी हैं। वहां पहुंचने पर उमेश जी ने मेरी पांच बड़ी छोटी पांडुलिपियां रख लीें। कुछ समय बाद उन पर स्‍वीकृति की मोहर लगा दी। बड़ी मुश्‍किल से केवल दो बच्‍चों की कहानियों के संग्रह निकाल पाए (पैसे नदारद। शायद भविष्‍य में कभी कुछ मिल जाए) यात्री जी ने बताया उसकी हालत खस्‍ता है। मैं भी अपनी बकाया पांडुलिपियां वापस मंगवा रहा हूं। सो पूरे आठ सालों की प्रकाशन गृह की धूल चाटने के बाद मेरी तीनों पांडुलिपियां सुरक्षित पहुंच गई। मैं इसे भी अनुकम्‍पा मानता हूं।

एक बार मैं आत्‍माराम एंड संस और एक बार निधि प्रकाशन कश्‍मीरी गेट, एक एक पांडुलिपियां छोड़ अया था। लंबा अर्सा गुज़रा। यात्री जी ने सलाह दी कि रोल देंगे। मैं आत्‍माराम एंड संस गया। उन्‍होंने कहा यह तो बहुत ही अच्‍छी कहानियां हैं कमेटी ने इसको रिकमेंड किया है। पर कब छापेंगे यह नहीं कह सकते।

-वापस कर दीजिए।

-शाम को आइए।

कमला साथ थी। कहने लगी-जब आपकी कहािनयों की प्रशंसा कर रहे हैं तो छापने दीजिए।

-इनका कोई भरोसा नहीं। मैंने यात्री जी के शब्‍द दोहरा दिए। शाम को हम दोनों फिर पहुंचे तो मुझसे लिखवा लिया-'संशोधन के लिए ले जा रहा हूं।‘ फिर मैं कभी वहां पर नहीं गया। जबकि यात्री जी की किताबें आज भी वहां से निरंतर छप रही हैं।

जब डॉक्‍टर महीप सिंह जी को पता चला कि मैं 'निधि प्रकाशन‘ को अपना कथा संग्रेह 'टेढ़े मुंह वाला दिन‘ दे आया हूं तो उन्‍होंने मुझे लिखा कि वापस मंगवा लो। हम छापेंगे। उन्‍होंने मेरा पहला 'मौसम‘ कहानी संग्रह 1980 में अभिव्‍यंजना प्रकाशन से छाप रखा था। इसे भी 1982 में बड़े सलीके से छाप दिया। दोनों के पैसे भी दिए थे।

एक बार मैं अकेला, (अपनी भांजी कमलेश के बच्‍चे को लेकर, शारदा प्रकाशन पहुंचा था) मुझे सहारे की जरूरत हमेशा पड़ती है चूंकि (बताया आया हूं। मैं रास्‍ते, तथा लोगों के चेहरे भूलने में काफी होशियार हूं)

झारी साहब को जब मैं अपना परिचय दे रहा था तो वे मुस्‍करा रहे थे। फिर बोले आपको परिचय देने की क्‍या जरूरत है। आपके नाम को कौन नहीं जानता। मैंने दो पांडुलिपियां उनके सामने रख दीें।

-क्‍या आप कुछ सहयोग करेंगे ?

-सहयोग ? मैं कैसा सहयोग कर सकता हूं। मैं तो कोई किताब बिकवा नहीं सकता। (जबकि उस जमाने में रेलवे बोर्ड, रेल कर्मचारियों की पुस्‍तकें प्राथमिकता के आधार पर खरीद लिया करते थे। पर यह बात मैं क्‍यों कहूं। इतनी बड़ी स्‍पलाइयां करने वाले क्‍या खुद नहीं जानते होंगे।)

तब मेरा भोलापन भांपते हुए झारी साहब का भाई धीरे से बोला-इनका मतलब है कि प्रकाशन में आप भी कुछ पैसा लगाएंगे।

इतना सुनते ही मैंने दोनों पांडुलिपियां वापस खींच ली-मुझे ऐसी जगह कुछ भी नहीं छपवाना।

तब झारी साहब ने मुझे ठंडा किया-नहीं ऐसी बात नहीं; क्‍या हम सभी से पैसा लेते हैं ? हमारे यहां बड़े बड़े लेखक, कमलेश्‍वर, आबिद, सुरती वगैरह वगैरह तक छपते हैं।

उन्‍होंने बहुत मुद्‌दत बाद 'गोल लिफाफे‘ व्‍यंग्‍य कथा संग्रह छापा जिसमें प्रूफ की बेशुमार अशुद्धियां हैं। मैंने दूसरी पांडुलिपि वापस मंगवा ली। बहुत बाद में मुझे प्रकाशित पुस्‍तक कोई कुछ पैसे और पुस्‍तक की प्रतियां भी मिलीं।

हां इस दृष्‍टि से अजय कुमार जी (मेघा बुक नवीन शाहदरा) मेरे लिए बहुत ही अच्‍छे साबित हुए। उन्‍होंने ही मुझे कहीं से ढूंढ़ निकाला था। पहले पहल मेरे घर गाजियाबाद, अपने स्‍कूटर से आए। फिर दो तीन बार बीकानेर भी मेरे निवास पर आए। खुद मेरी पांडुलिपियां लीं। छापीं। खूब प्रतियां और और कुछ धन राशि दी। अब तक वे मेरी पांच पुस्‍तकें छाप चुके हैं। कुछ और भी छापने वाले हैं। जब तब जब मैं गाजि़याबाद जाता, मुझे सपत्‍नीक खाने पर आमंत्रित करते। उन द्वारा छापी पुस्‍तकों पर मुझे दूरदराज के इलाकों से प्रतिक्रियाएं आती हैं। बाकियों (प्रकाशकों) के साथ खट्‌टे मीठे अनुभव रहे। एक तो मेहनत करके लिखो; फिर प्रकाशकों की हाजिरी भरो। देखा जाए तो यह किसी स्‍वाभिमानी लेखक के कलेजे पर किसी चोट कचौट से कम नहीं। इससे अच्‍छा है ः न ही लिखो। पर ऐसा भी कभी हुआ है। लिखने का जुनून जब बचपन ही से भूत की तरह सवार हो तो वह लिखे बिना कैसे रह सकता है। लिखा ही जाता है। जब लिखा जाता है तो देर सवेर किसी तरीके से छप भी जाता है। अभी बड़े आराम से प्रभात प्रकाशन दिल्‍ली से थोड़ा बड़ा कथा संग्रह 'तीसरी कहानी‘ अच्‍छी शर्तों के साथ आ रहा है। अधिकांशतः सहज कम, संघर्ष ज्‍यादा। हां जो बड़े बड़े ओहदों पर बैठे हैं (लेखक चाहे किसी स्‍तर के हो) किताबें बिकवा सकते हों। किसी प्रकाशक का हित या फिर अहित कर सकने में सबल हों, उनकी पुस्‍तकें धड़ल्‍ले से छपती चर्चित होती रहती हैं। हम जैसे रेंग रेंग कर आगे बढ़ने वालों में से है।

दिल दहला देने वाला समाचार।

18-2-1977 को रात्रि पौने बारह बजे मेरे चपड़ासी ने मेरे दरवाजे पर दस्‍तक दी। बताया वायरलैस से आपके भाई साहब का संदेशा आया है कि आपके पिताजी की तबीयत बिगड़ गई है। इसके बाद हमारे किसी और संदेश की प्रतीक्षा मत करना।

मैं और कमला उदास हो गए। रात भर तैयारी में लगे रहे। रूलाई भी निकलने लगे तो मैं रोक लूं कि क्‍या पता हमारे गाजियाबाद पहुंचते पहुंचते पिताजी ठीक हो जाएं। पर दूसरे मैसेज (सूचना) की प्रतीक्षा मत करना। क्‍या अर्थ हुआ कि बस चल पड़ो।

19-2-77 को सपरिवार सुबह 8 बजे बीकानेर एक्‍सप्रेस से चल पड़ा। स्‍टाफ के बहुत से लोग स्‍टेशन पर पहुंचे हुए थे। जब गाड़ी चलने को हुई थी तो मि․बंसल ने दुःखी स्‍वर में कहा-जाओ पर पिताजी तो मिलेंगे नहीं। मैं जोर जोर से रोने लगा। सब ने ही पहले पिताजी के निधन का समाचार मुझसे छिपाए रखा था। भाई साहब की हिदायत ही ऐसी थी कि हरदर्शन इस सदमें को सहन नहीं कर पाएगा। अब यह मि․बंसल ही जानें कि क्‍यों बता दिया था।

बहुत पहले लिख आया हूं। पिताजी हमेशा मेरे मास्‍टर सैंटीमेंट रहे। इतना लाड प्‍यार कम पिता ही बच्‍चों को दे पाते होंगे। बहुत ही छोटी आयु से उनकी खुश मिजाजी हंसोड़पन मस्‍ती उनकी सीखों से प्रभावित रहा हूं। और उनके दुःखों से हमेशा मैं भी दुःखी रहा हूं। जब बरेली में टूर से आते जाते थे मैं बहुधा उनको स्‍टेशन सी अॉफ करने, फिर गाड़ी से लौटने के इंतजार में प्‍लेटफार्म पर खड़ा रहता था। उनके गायन, स्‍वरों को सुन-सुनकर झूम उठता। अंतिम कुछ वर्षों को छोड़कर वे हमेशा गाते रहे। आवाज मुकेश और रफी के बीच वाली थी। से․रा․ यात्री जब जब आते उनसे गाने सुनते। घुलमिल जाते। उनके अनुभव सुनते। उनका इन्‍ट्रव्‍यू भी लेना चाहते थे। बस रह गया। पिता जी फिल्‍म लाइन में चले गए होते तो बड़ा नाम होता। था ओर कुछ नहीं, पिताजी, माताजी का कहना मानकर लाहौर जाकर अपने कुछ रिकार्ड ही बनवा लाते। अब जब टेपरिकार्डर का जमाना शुरू हुआ ही था तो उनका पहले वाला स्‍वर न रहा था। फिर भी इतना बुरा न था। हम लोगों ने कोशिश भी की लेकिन टेपरिकार्डर ने दगा दे दिया।

पिताजी की डायरी से पता चलता है कि उनका जीवन दुःखों से भरा अत्‍यंत संघर्षमय रहा। (पूरा विवरण पढ़कर मैं द्रवित हो उठता हूं) फिर भी यारेां के बीच ठहाके लगाते रहे (यह तो मैंने भी देखा है) उनके बीच बहुत पापुलर रहे हैं।

पिताजी लिखते हैं-मुझे पहले पहल दमे का दौरा अक्‍तूबर 1949 में पड़ा। 18-10/44 से लेकर 1-2-1945 तक सिक लिस्‍ट में रहा। 3½ महीने।

इसके बाद तो यह सिक और फिट का सिलसिला उनका पूरी सर्विस (55 साल की उम्र, रिटायरमेंट एज थी) तक चलता रहा था।

एक बार लायलपुर के बड़े रेलवे अस्‍पताल में उनका भगंदर का आपरेशन हुआ था तब एनैस्‍थिसिया जैसी सुविधाएं नहीं थीं। मैं बहुत ही छोटा था। कुछ समझ नहीं पा रहा था। इतना बड़ा अस्‍पताल पिताजी की चीखों से जैसे दहल रहा था। मेरा छोटा सा दिल भी रह रहकर दहल उठता जैसे अंदर, पिताजी का कत्‍ल किया जा रहा हो।

पिताजी का दुःख मेरा अपना दुःख था। पिताजी का सुख मेरा अपना सुख था।

हां रिटायरमेंट के बाद दिन रात की ट्‌यूरिंग की मशक्‍कत से मुक्‍त हो जाने से पिताजी लगभग, तंदरूस्‍त हो गए थे। चुस्‍त दुरूस्‍त। जब जब मैं गाजि़याबाद पहुंचता, पिताजी निहाल हो उठते। मेरे बचपन के दिनों की तरह मेरी अंगुली थामे बजरिया, सब्‍जी मंडी ले जाते। मेरी मनपसंद की तरकारियां खरीदते। बार बार माता जी से कहते-देख दर्शी आया है। जैसे माताजी मुझे न देख पा रही हों। वे कहतीं आपके ज्‍यादा लाड प्‍यार ने ही तो इसे बिगाड़ा है। देखो अब तक शादी के लिए हामी नहीं भरता। मैं तो वह दिन देखने को तरस गई-जब यह अपनी पत्‍नी के साथ बाजार से रिक्‍शे में बैठकर घर आए जाएगा।

-अरे कर लेगा शादी। अभी कौन सा बड़ा हो गया है। हां जरा सोच विचार वाला ज्‍यादा है। पर है तो बच्‍चा ही ना।

और आज, मेरे जीवन के अंग, पिताजी नहीं दिखे। हमारे पहुंचने से पहले ही उन्‍हें सुबह हिंडोन नदी शमशान घाट पहुंचा दिया गया था। मैं बिलख बिलख बिलख कर आधा हुआ जा रहा था। माताजी मुझे अलार्म घड़ी दिखा रही थी कि उनकी भरी हुई चाबी से घड़ी अभी तक भी चल रही है। पर वे हमसे दूर चले गए। हमेशा मुझसे कहा करते थे कि मैंने हवाई जहाज का टिकट बुक करा रखा है। देखना अचानक ही किसी दिन उड़ जाऊंगा।

भाई साहब के दोस्‍त सरदार केसर सिंह मुझे दिलासा देने के लिए हंस रहे थे-अरे रोता है। तेरे बाल सफेद होने को आ रहे हैं। क्‍या बाकियों के फादर्ज की डैथ नहीं होती।

लेकिन सच मेरे फादर, मेरे फादर थे। एक अनमोेल आदर्श राह दिखाने वाले। कोई काम करने से पूर्व उसके परिणामों के विषय में सोच की हिदायत देने वाले। कमला और उसके हैंडराईटिंग, उसके बनाए चित्रों के प्रशंसक। वे बार बार बीकानेर भी आते रहे थे। बच्‍चों से हिलमिल कर खेलते थे। हिन्‍दी का कम ज्ञान रखते हुए भी धीरे धीरे मेरी कहािनयां भी पढ़ते थे। मुझे सर्विस में रहते हुए, मेरे कंडक्‍ट रूल्‍ज से भी बाखबर करते थे। मेरे दोस्‍तों विशेषकर अशोक आत्रय, अजय से भी बतियाते थे। मेरे चीफ इंस्‍पैक्‍टर श्री ओ․एन․ सक्‍सेना उनसे बेहद प्रभावित थे। उनके अनुभवों से सीख लेने को तत्‍पर रहते थे।

मैं तो पहले ही से, कभी उनके न रहने की कल्‍पना मात्र से सहम सहम उठता था कि उनके बगैर कैसे रह पाऊंगा। और आज सच मुच वे नहीं थे।

27-2-77 सुबह भाई साहब के साथ हरद्वार अपने पुश्‍तैनी पंडित शिवकुमार से पिण्‍डदान कराया। उसी दिन दोपहर गाजि़याबाद के लिए चल पड़े थे। हम लोगों ने पिताजी की नसीहत के मुताबिक, बालमुंडन नहीं किया था। और न ही हम श्राद्ध जैसी कोई रस्‍म अदायगी करते हैं। (बालमुंडन एक प्रकार से प्रचार सा बन जाता है। अगला आपको देखता है और तब पूछता है- कौन ? नहीं रहा) पिताजी प्रगतिशील विचारों वाले थे। इन चीज़ों पर उनका कोई विश्‍वास नहीं था। यह सब पंडितों के पीढ़ी दर पीढ़ी खाते चले जाने के धंधे हैं। कैसे कोई अनपढ़ विमूढ़ विक्षिप्‍त व्‍यक्‍ति ब्राह्‌मण कुल में जन्‍म लेने से पूज्‍य हो जाता है। हरद्वार के हमारे पंडित फिर भी हमारे लिए रहने ठहरने बर्तनों की व्‍यवस्‍था करते हैं। श्रम करते हैं और तो और हमारे पूर्वजों का इतिहास आदि का पूरा रिकार्ड बढि़या कागज पर अमिट स्‍याही से लिखते बताते हैं। विदेशों में तो इस चीज के लिए लोग हजारों डालर देने को भी तैयार हैं। उन्‍हें यह सब फिर भी नहीं मिलता। सो इन हमारे पंडितों की दक्षिणा तो उचित है। आगे बहुत पाखंड हैं।

मैं भी यह सोचता हूं कि साल में एक श्राद्ध करने का क्‍या मतलब। मैंने अपने स्‍टडी रूम में माताजी पिताजी का चित्र बिलकुल सामने लगा रखा है। हर प्रातः उनको श्रद्धा पूर्वक नमन करता हूं। उनके लाड प्‍यार उनसे मिली प्रेरणा को याद करता हूं ''मैं आपके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता। आपने ही मुझे हंसमुख होने जैसी नियामत बख्‍शी है। मैं आज भी आपकी गोद में खेल रहा हूं।

महीनों तक मैं इस सदमे से बाहर नहीं आ पाया था। सुबह उठता तो पूरा सिरहाना भीगा हुआ मिलता। यानी मैं नींद में भी रोता रहता। आंसू बहाता रहता। मुझे बार बार पी․बी․एम․ अस्‍पताल जाना पड़ता। डॉक्‍टर दिलासा/ढांढस बंधाते दुनिया तो आने जाने का तमाशा है। क्‍या इतनी मामूली बात को भी मैैं नहीं जानता। जानता तो हूं पर अपने को समझा नहीं पाता। अपने को काबू में नहीं रख सकता। अनजान लोगों के मरने, उनकी हत्‍याएं होने पर बरबस आंसू छलक आते हैं। किस मट्‌टी का बना हूं। ऐसी गीली मट्‌टी का, जो कभी सूखने का नाम नहीं लेती।

और तमाशा देखिए। पिताजी की तेरहवीं के बाद जब सुबह हम सब बीकानेर मेल से अपने क्‍वार्टर पहुंचे। मैं चाय का कप पी रहा था, चपड़ासी ने फिर दरवाजे़ पर दस्‍तक दी। मेरे ससुर चोपड़ा साहब के निधन की सूचना मिली। वह भी पिताजी की मृत्‍यु से ग़मज़दा थे। यही कहते रहते थे-वह मेरा समधी पीछे था। हमउम्र दोस्‍त भला आदमी पहले था। मैंने सब कुछ खो दिया। चोपड़ा साहब के विशाल व्‍यक्‍तित्‍व कृतित्‍व कर्ममठता, आत्‍मविश्‍वास आदि गुणों के विषय में पहले ही लिख आया हूं।

फिर उसी शाम को हम लोग बीकानेर मेल, से दूसरी सुबह, वापस ग़ाजि़याबाद जा पहुंचे।

बाद में यह चला-चली का मेला चलता रहा। बड़े जीजाजी, छोटे जीजाजी, बड़ी बहन जी, छोटी बहन जी कृष्‍णा, मेरी छोटी भतीजी स्‍नेहलता जिसको उसके ससुराल वालों ने दहेज की खातिर जला डाला था, फिर उसके गम में मेरी भरजाई जी (राणो) ने भी अपने को आग के हवाले कर दिया था। सब एक एक कर इस नश्‍वर संसार से जाते रहे। पर हम लोग कभी भी दूरी होने के कारण अथीर् के साथ न जा सके। एक दिन बाद में ही पहुंचे। सास तथा माताजी के निधन पर भी यही हुआ था।

बड़ी बहन जी सुमित्रा तो मेरी माता तुल्‍य थीं। कई दिनों तक यूं ही डोलता रहा। एक दिन यहां के राम नरेश सोनी, हिन्‍दी राजस्‍थानी गुजराती के साहित्‍यकार ने हाल पूछा तो मैं सिसक उठा। उन्‍होंने कहा-अब तुम उन पर स्‍मृति लेख लिखो। मैंने एक रेखाचित्र 'निक्‍की‘ (छोटी) के नाम से लिखा था। वह तीन जगह छपा। सबने उसे कहानी के रूप में पेश किया। सोचता हूं। मैं भी अपने अगले कहानी संकलन में इसे और बीकानेर पर लिखे रिपोतार्ज को, डाल दूं। दोनों ही महत्‍वपूर्ण हैं और किसी दूसरी किताब में शायद ही जा पाएं। मेरा बहुत कुछ लिख हुआ, पुस्‍तकाकार रूप, से अभी तक वंचित है। प्रकाशन की समस्‍याओं पर बहुत कुछ लिख ही आया हूं। लिखना कम कर रखा है। पर किसी महानुभाव के आग्रह/आश्‍वासन पर इस ग्रंथ को तो पूरा करना ही है।

अपनी निशानी छोड़ जा

अपनी कहानी छोड़ जा

जीवन बीता जाए․․․․․․․․।

ये ग्रंथ मेरे बच्‍चों के लिए भी आवश्‍यक रहेगा।

बच्‍चों की शैतानियां, चालाकियों के किस्‍से हर मां बाप के पास ढ़ेरों होते हैं। उस समय भले ही आप उनसे परेशान हो उठें। झुझलाने लगें, उसको डांटने लगें कि इसने तो हर वक्‍त हमारे नाक में दम कर रखा है। इस जैसा जिद्‌दी बच्‍चा हमने और कहीं नहीं देखा। किन्‍तु बच्‍चों की यही शरारतें होशियारियां अपनी जिद मनवाने के गुर बहुत बाद में हमें थ्रिल (पुलकित भाव विहृत) देती है। गुदगुदाती है।

हमने भ्रमण हेतु उदयपुर का कार्यक्रम बनाया। मगर बड़े लड़के विवेक जिसे हम अशू बुलाते हैं और आजकल तो अफसर लगा हुआ है।

बीच में अफसरी की एक बात और करता चलूं। और अफसरी से ज्‍यादा, ज्‍यादातर बापों की। कहते हैं ना कि सिर्फ 'बाप‘ ही ऐसा होता जो अपने बच्‍चों की प्रगति से दिलोजान से बेतहाशा खुश होता है।

मुझे जब अशु के प्रमोशन की सूचना फोन पर मिली तो आंखों में खुशी के आंसुओं की इतनी बाढ़ उमड़ पड़ी कि मुझसे बाला तक नहीं जा रहा था उसे बधाई तो क्‍या देता।

बातों का तो अंत नहीं होता। बात में से बात।

पिछले साल जब मैं और अशु गाजि़याबाद पहुंचे तो भाई साहब ने अशु से कहा आई एम प्राउड अॉफ यू जो तुम, चोपड़ा साहब और मेरे बाद, गज़ेटिड आफिसर बने। पर भाई साहब ने मुझे यह कभी नहीं कहा कि तुम्‍हारे साहित्‍यकार बनने पर मुझे गर्व है।

हां तब के अशु ने जिद पकड़ ली थी-उदयपुर नहीं जाना, जयपुर जाना है। क्‍यों? नहीं बस जयपुर ही जाना है। अरे उदयपुर झीलों की नगरी है। जयपुर से कहीं अधिक सुन्‍दर। नहीं जयपुर ही जाना है। नहीं तो मैं नहीं जाऊंगा। अकेला ही बीकानेर घर में रह लूंगा। खाना कौन खिलाएगा। भूखा रह लूंगा।

मुझे और कमला को घुटने टेकने पड़े। हम सब 11-10-78 को जयपुर पहुंचे। एक होटल में जा रूके 'मद्रास होटल‘। वहीं से मैंने अशोक आत्रेय को फोन किया। मनेजर ने उसे अपने होटल का रास्‍ता सचुएशन समझाई।

मैंने कहा अब मज़ा आएगा। अशोक से मिलकर। और वह यहीं जयपुर का चप्‍पा चप्‍पा जानता है। वही हमें पूरा जयपुर घुमा भी देगा। लेकिन अशू ने जिद पकड़ ली-नहीं पहले यहां के सबसे बड़े (फ्‍लाने) पोस्‍ट आफिस चलो।

-क्‍यों वहां क्‍या है देखने लायक।

-नहीं सबसे पहले वहीं चलना है।

-पर क्‍यों ?

अच्‍छा आप सब यहीं ठहरें। मैं अकेला ही जा रहा हूं। वह सचमुच चल पड़ने को तत्‍पर दिखा।

-अकेला तो मैं कभी न भेजूं। अभी तो बिलकुल छोटा बच्‍चा है। कमला ने प्रतिरोध किया।

-नहीं नहीं मैं इसके साथ जाऊंगा। थोड़ा ठहरो, अशोक आता ही होगा।

दस पंद्रह मिनट में अशोक हाजिर-बड़े अमीर बन गए हो। होटल में ठहरे हो। उठाओ सामान। घर चलो।

-हमें कौनसे ज्‍़यादा दिन रूकना है। अब यही ठीक हैं। पहले इसे पोस्‍ट आफि़स ले जाना है।

पोस्‍ट आफिस पहुंच कर अशू ने पोस्‍टमास्‍टर से विशेष नई पुरानी पोस्‍टल टिकटों की डिमांड शुरू कर दी।

अब मैं समझा कि यह लड़का हमे ंउदयपुर की बजाए, जयपुर क्‍यों ले लाया है। सिर्फ टिकटों की खातिर। उसे टिकटें और पुराने सिक्‍के इकट्‌ठे करने का शौक था। मुझे भी बचपन में पुराने से पुराने सिक्‍के रखने का शौक था। शेखुपरा के तमाम फेरी वाले, जब तब उनके हाथ ऐसे मुगलकालीन विक्रमादित्‍य युग या फिर रियासतों के महाराजों के सिक्‍के हाथ लगते तो मुझे आवाज़ देकर, दे जाया करते थे। उन्‍हें मैं हर वक्‍त जैसे अपने साथ चिपटाए सा रखता था। इसीलिए ही वे सारे सिक्‍के मैंने अब अशू के हवाले कर दिए थे।

पोस्‍ट मास्‍टर टिकटें देने से कुछ आना कानी करने लगा। तो मैंने रिक्‍वेस्‍ट की कि सिर्फ इसीलिए हम लोग बीकानेर से चल कर जयपुर आए हैं। इस प्रकार हमें काफी टिकटें मिल गईं।

एक बार रात दस बजे उसने बीकानेर, क्रिकेट बैट लेने की जिद की थी तो मैं उसे गोस्‍वामी चौक ले आया था। वहां के मित्रों ने मिल कर महल्‍ले के दुकानदार से दुकान खुलवाकर, बैट दिलवाया था। इसी प्रकार रेवाड़ी में रात बारह बजे मोंगफली खाने की फरमाइश (जिद) कर डाली थी। मौसम भी गर्मियों का। मोंगफली, वह भी रात दस ग्‍यारह बजे कहां से मिलती। तब एकाएक मेरे मन में विचार कौंधा था तो उसे रेलवे प्‍लेटफार्म के खोमचे वाले से मोंगफली दिलवाई थी। हम उसे ढीठ कहते तो वह कहता ढीठ नहीं पक्‍का ढीठ हूं।

ऐसे अनेक लाड प्‍यार के किस्‍से बड़े आराम से सब अभिभावकों के पास मिल जाएंगे। मनुष्‍यों की बात छोडि़ए, मैं तो बहुधा रास्‍तों, पगडंडियों, मुंडरों पर पक्ष्‍ाी, पशुओं को अपने बच्‍चों के से लाड़ लड़ाता कितनी कितनी देर तक रूक कर, उन्‍हें निहारता रहता हूं। इसी से दुनियां कायम है। आगे चलती है। आगे जाकर बच्‍चे कैसे निकलें, पहले से कोई नहीं कह सकता। हां बड़ी लड़की कविता, साइकिल सीख रही थी तो पत्‍थरों मे गिर कर ज़ख्‍मी हो गई। उसे लेकर फौरन रेल्‍वे ड्रेसर के पास पहुंचा तो ड्रेसर ने पूछा-क्‍या फिर साइकिल चलाएगी। कविता ने कहा-ऐसे क्‍या सब लोग साइकिल चलाना छोड़ देंगे ? वही कविता आज बैंक अॉफिसर बनकर दिल्‍ली की सड़कों पर कार दौड़ा रही है, जबकि दामाद मुकेश (बैंक हिन्‍दी अधिकारी) की हिम्‍मत कम पड़ती है। इस मामले में मैं सौभाग्‍यशाली निकला। मेरे चारों बच्‍चे तो बच्‍चे, बहुएं, दामाद भी अत्‍यंत आज्ञाकारी निकले। यात्री जी भी यह सब देखकर मुझे यही कहा करते हैं। इसके सामने तेरे साहित्‍य का क्‍या मोल। बहुत से हैं जो बड़े साहित्‍यकार तो कहलाते हैं। पर घर में, कोई इज्‍़ज़त नहीं।

जयपुर में अभी 'राज मन्‍दिर‘ सिनेमा हाल शुरू ही हुआ था। वहीं पर 'सत्‍यम शिवम सुन्‍दरम‘ राजकपूर की फिल्‍म भी देखी दूसरे रमणीय स्‍थलों की भी सैर की और वापस बीकानेर आ गए।

फिर कमला जी का सैमिनार आया उसे बतौर रिसोर्स पर्सन अहमदाबाद गुजरात जाकर भाषण देना था। मैंने भी 15-1-1979 से एक हफ्‍ते की छुट्‌टी ले ली। बच्‍चों को भी साथ ले लिया। 15 की रात को गाड़ी अहमदाबाद पहुंची। रात वेटिंग रूम में बिताई। सुबह जब तैयार होकर सामान उठाए, गेट पार करने लगे तो एक सिपाही ने हमें रोका-कहां जाएंगे। आपको पता नहीं यहां पर कफ्‍यूं लगा हुआ है। दंगे हो रहे हैं।

हम थोड़ा सहम गए-हें दंगे ? किस बात को लेकर ?

-दो समुदायों के बीच। उसने सरकारी रटा रटाया जुमला उगल दिया।

-पर किस बात को लेकर ?

-अजी यहां तो प्रायः हर दिन ऐसे दंगे होते ही रहते हैं।

-मैंने मैडम की तरफ इशारा करते हुए बताया-इनकी तो जरूरी ड्‌यूटी लगी है। हम लोग कहां ठहर सकते हैं ?

तब जैसे कुछ तरस खाते हुए उसने एक रिक्‍शा वाले से किसी धर्मशाला में हमें पहुंचाने की हिदायत दी कि ऐसे ऐसे रास्‍ते, जिधर कर्फ्‍यु में कुछ छूट थी, वाला रास्‍ता समझाया। वह रिक्‍शा वाला बहुत ही लंबी दूरी तय करते हुए हमें पहुंचा आया। बाद गौर किया कि वह धर्मशाला स्‍टेशन के एकदम करीब पड़ती थी। लेकिन उसे तो उन उन रास्‍तों से ले जाना था जहां रोक-टोक न हो। इस तरह तरह रिक्‍शा वाले की चौगनी आमदनी हाे गई। फिर आगे कॉलेज पहुंचने में मुश्‍किल पेश आई। हम लोग भी कॉलेज साथ में ही पहुंचे। बाद में दिनों, कर्फ्‍यु में कुछ ढील हुई। कमला अकेली रिक्‍शा या बस से चली जाती और हम लोग इधर अहमदाबाद के केवल कर्फ्‍यू रहित महत्‍वपूर्ण स्‍थल देखने चले जाते।

एक बात जाे बार बार जेहन में आती है। वे दिन और आज का दिन। दंगे। दंगे। अहमदाबाद के दंगे तो खत्‍म होने में न आए।

क्‍यों ? इस पर मैं कैसे कोई टिप्‍पणी कर सकता हूं। पर एक बात बहुत साफ है कि इन दंगों में महारथी हमेशा महफूज रहते हैं। गरीब मार ऐसी कि कल्‍पना मात्र से जिगर सहम सहम उठता है।

गांधी आश्रम मेें कविता चुपके से गांधी जी खड़ाओं या चप्‍पल भी पहनकर देख आई थी; जिसकी आज तक शेखी बघारती है।

फिर माउंट आबू, जोधुपर घूमते हुए 22/1/1979 को वापस बीकानेर आ पहुंचे। बहुत कुछ इन यात्राओं के दौरान हमें सीख्‍ाने-समझने को मिला; जिन्‍हें यहां लिखना शायद अनावश्‍यक विस्‍तार में चले जाना होगा फिर भी वह मेरे जीवन-अनुभव तो बने ही, कि हमारे यहां या कहीं भी कैसे कैसी 'खोपडि़या‘ भरी पड़ी हैं जो एक तरफ हमें गुदगुदाती हैं तो दूसरी तरफ हम में जुगुप्‍सा पैदा करती हैं। कइयों का सद्‌व्‍यवहार तो किन्‍हीं का दुर्‌व्‍यावहार। चालाकियां, चालबाजियां, हमेशा याद रहती हैं। यही सब आज नहीं तो कल, बहुत सारा मसाला लेखकों को मुहैया कराती रहती हैं।

जहां तक लेखकों से मिलने का संबंध है उसका जिक्र करूं तो ज्‍़यादा नहीं होगा। ज्‍़यादातर लेखक जयपुर में ही मिला करते हैं। यानी सैमिनारों सम्‍मेलनों में। मेरे जीवन में यह नगण्‍य हैं। हां श्रीडूंगरगढ़ जो बीकानेर से सटा हुआ है; वहां कई बार जाना हुआ। यह मेरे लिए सुविधाजनक होता। पर यहां वही ले देकर ज्‍़यादतर सीमित राजस्‍थान के लेखक ही मिलते। कभी कभी बाहर के लेखकों को भी बुला लिया जाता जो मेरे हिसाब से गिनती लायक हैं यथा से․रा․ यात्री, क्षेमचंद सुमन, डॉ नरेन्‍द्र मोहन और ज्‍़यादा हैं पर याद नहीं आ रहे। वह मिलना कोई मिलना नहीं होता। सबको वहां अपनी अपनी जगह घेरने की, अपने भाषणों से दूसरों को प्रभावित करने की पड़ी होती है, जैसे एक दूसरे से, अपने को ऊंचा, दिखने की होड़ रहती है। और, हां कहना तो नहीं चाहिए कइयों को कुछ कुछ नीचा दिखाने की प्रवृति भी वहां पर बड़े आराम से देखी जा सकती है। उज्‍जवल पक्ष भी है। कुछ आत्‍मीय मित्र भी बन जाते हैं। लेकिन कुछ रूबरू होने पर रूठ भी जाते हैं। इन सम्‍मेलनों का सारा दारोमदार यह आंकने पर लगा रहता है कि कौन कैसा बोला। खाने रहने का बंदोबस्‍त कैसा रहा। इस प्रकार से हमेशा समारोह को 'सफल‘ घोषित कर दिया जाता है, जैसे इसी से सामाजिक परिवर्तन, क्रांति के बीज बोकर, हम लोग अपने अपने घर जा रहे हैं। कुछ छोटे बड़े अखबारों में एक दो दिन की रपट। चंद लाइनों में छप ली। कितने हैं जो इन्‍हें गम्‍भीरता से पढ़ते हैं। हमीं बोलने वाले हमीं अपने अपने वक्‍तव्‍य पढ़ने वाले। अपनी अपनी फोटो ढूंढ़ने वाले। हम एक दूसरे को लगभ्‍ाग वही बातें बताते हैं, जो हम लोग कमोबेश पहले ही से जानते हैं

जब तक हम आम पब्‍लिकमैन को साहित्‍य से नहीं जोड़ पाएगंग, उन्‍हें भी अपने पास बुलाकर उनके विचारों से परिचित नहीं होंगे। उन्‍हें अपने अपने विचारों से अवगत नहीं करा पाएंगे, यह समारेाह बस केवल हमारे ही होकर रहते रहेंगे।

मेरी शुरू ही से यह जिज्ञासा रही है कि आज जिन्‍हें हम अपने बड़े लेखक संपादक मानते हैं; जिन्‍हें हम बड़ी विशुद्ध साहित्‍यिक पत्रिकाएं करार देते हैं; उन पत्रिकाओं, उन लेखकों के नाम तक लोग बाग नहीं जानते। बहुधा इन समारोहों को, खास ताैर से लोकन गोष्‍ठियों को मैं एन्‍टरटेनमैंट क्‍लब की संज्ञा दे बैठता हूं। इन लोकन गोष्‍ठियों में, मैं महीने दो महीने में चला जाता हूं। अपने मित्रों से मिलकर अच्‍छा लगता है। यह मेरे लिए मिलन-स्‍थल है।

मैं लिखने में ही ज्‍़यादा विश्‍वास रखता चला आया हं, वह भी थोड़ा निरपेक्ष भाव से। भाषण तो हवा में गायब होकर, न जाने कहां चले जाते हैं। पर खास तौर से नई पीढ़ी, बड़ों बड़ों को आठ दस की भीड़ (?) में नायाब भाषण पिलाकर अपना सिक्‍का जमाने में महारत हासिल किए हुए हैं। लेकिन पूरी बात तो घर में ही हो पातीहै; यदि बार बार मोबाइल-राग न बजाता रहे।

थोड़ी अपनी हांकू, तो मुझे मंच से बोलते हुए डर लगता था। बहुत आग्रह हुआ तो लिखकर ले गया। वह लिखा हुआ बाद में कहीं न कहीं छपा ही। पर नई पीढ़ी को देखता हूं तो कभी कभी हैरानी सी भी होती है, पढ़ेंगे नगण्‍य। लिखेंगे पीछे, छपने, विमोचन कराने की ललक पहले बलवती हो उठती है। जैसे तैसे कुछ भी लिख मारा। पैसे देकर या सिर्फ अपने खर्चें पर छोटी सी किताब लिख डाली। फिर उस पर गोष्‍ठी का खर्चा कर दिया। अखबारों में रपट आ गई। मानों पूरे हिन्‍दुस्‍तान में मकबूलियत हासिल कर ली।

मैं तो अपनी हांक रहा था। 1967 से पत्र पत्रिकाओं में छपना शुरू हुआ था। तेरह सालों में बहुत कुछ, जैसे तैसे लिख मारा।

शायद 1979 की बात है मैं सूर्य प्रकाशन मन्‍दिर में बिस्‍सा जी के साथ गपशप लड़ा रहा था कि बिस्‍सा जी बोले-सहगल साहब आपका भी कोई कहानी संग्रह आना चाहिए।

-आप ही छाप दीजिए।

-ज़रूर छापेंगे आपका तो खासा नाम है। आप पांडुलिपि तैयार कर लाइए।

मैं उत्‍साहित होकर तीसरे चौथे दिन ही कहानियों की कटिग्‍ज को जोड़कर फाइल तैयार करके बिस्‍सा जी की सेवा में जा हाजिर हुआ।

-इसे छोड़ जाइए।

पर शर्तें क्‍या होंगी।

-हमारे पास अनुबंध पत्र हैं, आज अलमारी बंद हैं। दिखा देंगे।

दो चार दफः फिर बात चलाई। पर वह जब समझ गए कि बिना पैसे लिए यह पांडुलिपि नहीं देने वाला, तो टालमटोल करने लगे। मैंने बिस्‍सा जी के विषय में सुन रखा था कि इन्‍होंने कई लेखकों को खराब कर रखा है। लेखकों की खूब सारी कृतियां पड़ी रहती हैं। इससे अपना भी नुकसान करते हैं। हां पहले उन्‍होंने ज़रूर नामचीन लेखकों ख्‍़वाजा अहमद अब्‍बास जैसे लेखकों को छापकर ख्‍याति अर्जित की थी। यही हाल नवगं्रथ कुटीर वालों का था। जनसेवी जी का भी ऐसा ही था। जिनके चक्‍कर काटते मैंने प्रो․ बिशन सिन्‍हा, रणजीत आदि आदि को देखा था।

मैंने वह कहानी संग्रह 'मौसम‘ अभिव्‍यंजना दिल्‍ली से 1980 में छपवा लिया जिसकी बहुत सारी समीक्षाएं, दिल्‍ली आकाशवाणी सहित दीगर कई पत्र पत्रिकाओं में छपीं। मेरा थोड़ा नाम भ्‍ाी हुआ। इससे कुछ समय पहले मेरी बच्‍चों की कहानियों का संकलन धरती प्रकाशन बीकानेर से डॉ मेघराज ने छाप दिया था।

भले ही 'मौसम‘ कहानी संग्रह महीप सिंह जी ने दिल्‍ली से छापी थी किन्‍तु फिर भी मैं इसका वास्‍तविक श्रेय बिस्‍सा जी को ही देता हूं, जिन्‍होंने मुझे प्रेरित कर पांडुलिपि तैयार कराई थी।

अब अपन एक अच्‍छे सैमिनार की बात करते हैं। श्री बसंत कुमार परिहार अहमदाबाद से 'आकार‘ नाम की पत्रिका निकाल रहे थे, जिसमें उन्‍होंने मेरी भी एक कहानी प्रकाशित की थी, परिहार साहब की तथा डॉ महीप जी की बार बार चिटि्‌ठयां आ रही थीं कि तीन चार रोज का साहित्‍य शिविर गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद में आयोज्‍य है। आपको आना ही आना है। आने जाने का पूरा किराया भी मिलेगा। मैंने शर्त लगा दी कि किसी एक मित्र को साथ लाने की अनुमति दें। अनुमति मिल गई तो मैं श्री अरविंद ओझा को साथ ले गया।

वास्‍तव में यह एक यादगार भव्‍य आयोजन था। प्रतिभागियों की संख्‍या बहुत बड़ी थी। वहां पर डॉ रामदरश मिश्र, विष्‍णु प्रभाकर, गोपालराय, डॉ हरदयाल, बलदेव वंशी, नरेन्‍द्र मोहन, रघुबीर चौधरी, शशिप्रभा शास्‍त्री, कुसुम असंल, सिम्‍मी, हर्षिता, सुरेश सेठ, अब्‍दुल बिस्‍मिलाह, जवाहर चौधरी, कमलेश सचदेव, कीर्तिकेसर, धर्मेन्‍द्र जी, सुरेन्‍द्र तिवारी, वीरेन्‍द्र सक्‍सेना आदि आदि से मिलना हुआ था। उन्‍हीं दिनों मेरा पहला कथा संग्रह 'मौसम‘ छपकर आया था। जो जो भी मुझसे सुबह शाम टकराता। प्‍यार से पूछता-कहिए सहगल साहब, मौसम कैसा है। सुरेन्‍द्र दोशी ने तो बाद में मेरी कई कहानियों तथा उपन्‍यास 'टूटी हुई जमीन‘ का अनुवाद भी गुजराती में किया। उनसे तथा बसंत जी से डॉ रामदरश जी, विष्‍णु जी, नरेन्‍द्र मोहन से पत्राचार चलता आया है। इनका प्‍यार भी मुझे हासिल है। महीप सिंह जी तो खैर हैं ही। शशि प्रभा शास्‍त्री जी भी बड़े दुलार से अपने पास बिठाए रही थीं। मेरी समस्‍याएं एवं परिवार का हाल पूछती रही थीं। तब वे देहरादून के किसी कॉलेज की प्राचार्य लगी हुई थीं।

एक डॉ नरेन्‍द्र समाधिया जी भी मिले थे, जिन्‍होंने बहुत पहले 1971 में मेरा एक साक्षात्‍कार दैनिक विक्रम उज्‍जैन में छपवा रखा था। कुछ अकड़ू नौजवानों का झुंड भी वहां था जो अपने सामने किसी को कुछ भी नहीं समझते थे, चाहे वे कितनी ही ख्‍याति प्राप्‍त विभूतियां ही क्‍यों न हों (यह सिलसिला आज भी जारी है इसका जिक्र हृदयेश जी ने भी किया) उनमें से कुछ खास नाम याद आ रहे हैं। पर मेरे लिए सभी महान ही थे। मैं उन सब को अपनी उम्र और गुणों से बड़ा मानता आ रहा था। अब ग़ौर करता हूं 'अरे यह तो उम्र में मेरे से कुछ ही छोटे या कुछ बड़े हैं। दरअसल बात फिर वहीं आ जाएगी कि ऐसे तमाम लोग शिक्षा विभाग में ही थे जो लैक्‍चर बाजी में खूब चतुर थे। हां, वहां पर हिन्‍दुस्‍तान साप्‍ताहिक की उपसंपादक शुभा वर्मा जी को भी पाया था-बहुत शालीन, उन्‍होंने मेरा पक्ष भी लिया था। वापसी में गाड़ी जब नई दिल्‍ली पहुंचने की करीब थी। मगर अभी टाइम था। मैं ठीक से नाम याद करने की कोशिश करूं तो शायद याद भी आ जाए। मैं लेखिका (?) के खाली बिस्‍तर पर बैठकर बड़े आराम से चाय पीने लगा। वे आईं और बड़ी कुड़ुवाहट के साथ बोलीं-उठिए मुझे अपना बिस्‍तर समेटना है। मैंने उत्त्‍ार दिया-चाय खत्‍म कर लूं। आधा मिनट भी न गुजरा था कि वही धमकी भरा स्‍वर-उठिए। मैंने कहा- चाय मैं तबीयत से पीता हूं। खत्‍म करते ही उठ जाऊंगा।

- कब खत्‍म होगी आपकी चाय ? जल्‍दी उठिए।

-जब तक चाय खत्‍म न होगी, नहीं उठूंगा।

- मैं कहती हूं उठिए फौरन।

- नहीं उठता। आप मेरी चाय में खलल डाल रही हैं।

डिब्‍बे मैं शोर मच गया। वह सहगल साहब से लड़ रही है। शुभा जी खूब हंसी-इसे लड़ना भी था तो किसी और से लड़ लेती। ये तो बहुत अच्‍छे शरीफ आदमी हैं। मुझ से कान में कहने लगीं-ये पागलखाने भी रहकर आई है। इसकी बात का क्‍या बुरा मानना। ऐसे ऐसे आदर्श लेखक होते हैं। उन जैसे कुछ हम जैसे। लेकिन पाठक ? ढूंढ़ते रह जाओगे। साफ कर दूं कि इसका आयोजन संयुक्‍त रूप से भारती लेखक संगठन दिल्‍ली तथा शब्‍दलोक अहमदाबाद ने किया था। करीब साठ लेखकों लेखिकाओं ने इसमें शिरकत की थी। कुछ लेखिकाओं की गोद में बच्‍चे भी थे। उत्‍साह से भरकर भ्रमण के दौरान बस मे वे गाने भी सुना रही थीं।

एक मजे़दार घटना सुनाता हूं। ऐसी घटनाएं तो मेरे पास अनेक हैं। मगर यहां सिर्फ एक। महीप सिंह जी द्वारा आम आदमी को संगठन और साहित्‍य से जोड़ने के लिए, हमें एक एक रसीद बुक दी गई थी कि सिर्फ एक रूपया लाे और आम लोगों को मेम्‍बर बनाओं।

कोई मुझसे, पांच पांच, दस दस रूपए का चंदा मांगते कि यहां प्‍यायु, सत्‍संग बाबाओं के शिविरों का आयोजन होगा। बंगाली इंचार्ज राय साहब दुर्गा पूजा वगैरह वगैरह भी मांगते रहते। मैं झट से उनके सामने एक रूपए के चंदे का प्रस्‍ताव रख देता। पहले हमारे मेम्‍बर बनो। वे इसी में सकपका जाते। मैं भी उनको पांच दस पंद्रह रूपए देने से बच जाता। एक रेलवे कंपाउंडर मि․ सिन्‍हा थे। आनंद मार्गी थे। मुझसे चंदा मांगा। दे दूंगा। उन्‍होंने अपना आदमी भेजना शुरू किया। सिन्‍हा साहब चंदा मंगवा रहे हैं। जब सिन्‍हा साहब मिलेंगे, उन्‍हीं को ही दे दूंगा। जब तब वह आदमी मेरे चक्‍कर लगाने लगा। दफ्‍़तर में, रास्‍तों में। क्‍वार्टर मे। मिले सिन्‍हा साहब ? नहीं। हर बार 'नहीं‘ वाला उत्त्‍ार तैयार। एक बार मैंने कहा-हां सिन्‍हा साहब मिले थे। वह खुश होकर बोला-आपने चंदा दे दिया ?

-सिन्‍हा साहब पुलिया के मोड़ पर मिले थे। वे आगे अस्‍पताल की तरफ बढ़ गए और मैं दूसरी तरफ अपने क्‍वार्टर की तरफ चला गया। सिन्‍हा साहब दिखे जरूर थे मगर हमारे बीच कोई बात नहीं हुई थी। ले लो चंदा। तुम लोग साहित्‍य के नाम पर एक रूपया भी खर्च नहीं करना चाहते और हम तुम लोगों को चंदा दें। मरो।

तब तक चाय खत्‍म। तमाशा हजम।

असल में मैंने संस्‍था से किराए के पैसे नहीं लिए थे। रेलवे का डेढ़ सैट पास लिया था-पहले अहमदाबाद फिर दिल्‍ली/गाजियाबाद फिर बीकानेर।

बेटे विवेक की नियुक्‍ति पहले पहल पी एंड टी सिविल इंजीनियर विंग सरदारपुरा उदयपुर में हुई थी। मेरी भांजी रेणु गाजि़याबाद से बीकानेर मिलने आई हुई थी। मैं उसे और बेटी कविता को साथ लेकर, विवेक को सैटल करने, तथा भ्रमण हेतु चला गया था। नाटककार हनुमान पारीक ने उदयपुर के नाटककारों यथा उस्‌मान, दीपक जोशी के पते दिए थे। उन्‍होंने विवेक को, रहने का किराए का कमरा दिलवाया था। तब राज․अकादमी के सदस्‍यों के कहने पर हम डॉ प्रकाश आतुर के बंगले पर उनसे जा मिले थे। उन्‍होंने सपरिवार, हमारा स्‍वागत किया था।

मेरे यह सब कहने का मन्‍तव्‍य वही है कि मेरे 'लेखन की आयु‘ जितनी बड़ी है उतनी संख्‍या मिलने वाले लेखकों की नहीं है। बड़े समारोहों में अपवाद स्‍वरूप ही मुझे बुलाया गया था। मैंने ही गुरेज किया। लिख भेजता-काश कि इतनी सर्दी के दिन न होते तो शायद मैं जरूर चला भी आता। मेरी समझ में नहीं आता, ऐसे सम्‍मेलन अधिकतर कड़ाके की सर्दियों ही में क्‍यों आयोजित किए जाते हैं। हो सकता है। बचे हुए बजट की नैया पार लगाने के मकसद से ऐसी सज़ा (मेरे हिसाब से) दी जाती हो।

6-5-1985 को हमने अपने डुप्‍लेक्‍स कॉलोनी वाले मकान 5 E 9 में 'गृह प्रवेश‘ किया। मन तो अब भी अपना रेलवे क्‍वार्टर T-62/C (मालगोदाम के पीछे) छोड़ने को नहीं करता था। इतने साल वहां गुजारने से इससे, अड़ोस पड़ज्ञेस से बहुत लगाव हो गया था। न ही बच्‍चों का मन था और न ही रेलवे की तरफ से क्‍वार्टर खाली करने की कोई बाध्‍यता। कारण बस मेरे और कमला ताईं यही था कि बटिया किवता की शादी दो महीने बाद होने वाली थी। हम दोनों बार बार बहुत अधिक भावुक हो उठते और उसकी जुदाई की कल्‍पना मात्र से एक दूसरे के पास बैठे रोते रहते। यही सोचा था-चलो दो महीने ही सही, बिटिया भी अपने नए मकान में रह ले।

कविता की शादी के प्रसंग में सिर्फ दो एक बातें जरूर बताना चाहूंगा। कविता इंगलिश में सैकेंड डिवीजन में अच्‍छे नंबरों से पास हुई थी। इसकी योग्‍यता शालीनता की चर्चा थी। यह बड़े आराम से लैक्‍चरर बनेगी। मगर सालों तक कोई वैकेंसी ही न निकली थी। दूसरा यह बैंक अॉफ राजस्‍थान में सलेक्‍ट हो गई थी। तीसरा, कविता आर ए एस में भी उत्त्‍ाीर्ण हो चुकी थी। चौथा; यह युवाओं में एक अच्‍छी कवयित्री मानी जाती थी। हमारे क्‍वार्टर पर प्रायः लड़के वालों की लाइन लगी रहती थी। एक घर जाता तो दूसरा बाहर प्रतीक्षा कर रहा होता। कइयों में से एक इंजीनियर खूबसूरत श्‍ाक्‍लों सूरत वाला लड़का, थोड़ा जचा। मध्‍यस्‍थता श्रीमती श्री कृष्‍णमुरारी वर्मा सेनिटरी इंस्‍पैक्‍टर ने की। पहले हम दोनों परिवार वाले वर्मा जी के यहां ही दो बार मिले। फिर लड़का सपरिवार हमारे क्‍वार्टर पहुंचा। हमने उन्‍हें खिलाने पिलाने में काफी खर्चा किया। बाद में लड़के के बाप ने काफी नाटक करने शुरू कर दिए। दो बार लड़की देखना खाना पीना। वक्‍त देकर भी न मिलना। जन्‍मपत्री का मिलान हैंडराइटिंग से लड़की का चरित्र जानना। अंत में कहने लगा अभी लड़का शादी करने को तैयार नहीं। (असली मकसद वर्मा जी ने मुझे समझाया। लंबा चौड़ा दहेज)

मैंने कहा अगर आपका लड़का अभी शादी को राजी नहीं हो रहा था तो मैं ही उसे समझा कर राजी कर लूंगा।

दूसरी शाम वे लड़के को लेकर वर्मा जी के क्‍वार्टर आ पहुंचे। मैं समझाने के बहाने लड़के को दूसरे कमरे में ले गया। वहां पहुंचते ही मैंने थोड़ा दरवाजा भिड़ा िदया और लड़के पर पिल सा पड़ा-अगर तुमने अभी शादी का विचार नहीं किया था तो हमारे घर क्‍यों आए थे ? तुम कंगाल हो। खाने पीने का बहुत शौक है ? तो वैसे ही कह देते। खूब खिला पिला देता। शरीफ़ लोग शरीफ़ों के घरों में यूं ही तांक झांक करने नहीं चले जाते। बोल-तुझे अब भी शर्म नहीं आ रही ? बोल क्‍यों बाप को लेकर हमारे घर आया था ? आइंदा से ऐसी बेहूदी हरकतों से बाज आना नहीं तो कहीं से जूते न पड़ जाएं। यह बात जाकर, अपने बाप को भी समझा देना। भीख का कटोरा लेकर, धन इकट्‌ठा कर ले। अभी से तुम लोगों के लालच का यह हाल है तो आगे शादी के बाद क्‍या हाल करोंगे।

लड़के के मुंह से एक शब्‍द भी नहीं निकला। अपमानित होकर मुंह लटकाए भाग छूटा। इससे अधिक उसका बाप जो जाल फैला रहा था। उसकी चाल धरी रह गई।

मिसेस वर्मा दरवाजे़ की ओट से यह सब सुन रही थीं। बाद में मुझसे कहा-भाई साहब अगर आप जूता भी मार देते तो मज़ा आ जाता। कुछ युवा लेखक छोटी छोटी कविताओं के संकलन निकाला करते थे। मुकेश पोपली जो खुद स्‍टेट बैंक अॉफ इंडिया में था, कविताएं लेने कविता के पास दो बार आया था।

फिर उसके पिताश्री जगदीश चन्‍द्र पोपली अपनी पत्‍नी को लेकर हमारे क्‍वार्टर आए-आप हमारा प्रस्‍ताव स्‍वीकार कर लें। हमारे पास भगवान की कृपा से बहुत कुछ है। हमें दहेज की कतई जरूरत नहीं। वे स्‍वयं डी सी एम की दुकान के मालिक थे। मैंने जिनसे भी बात की, उन्‍होंने उनकी शराफत की पुष्‍टि की। मि․ चमनलाल सारवाल जो रेलवे में ही थे और, पोपली साहब की लड़की से अपने लड़के नलिन को ब्‍याह रखा था, कहा-इसमें कोई शक नहीं कि बाप और लड़का दोनों बहुत ही अच्‍छे हैं। मुझे मालूम है। लड़का मुकेश साहित्‍यिक अभिरूचि का है। वह आपकी बेटी की पूरी सुख सुविधा का पूरा ध्‍यान रखेगा। सो शादी करने में मैं कोई हर्ज नहीं दीखता।

अब समाज को देखिए एक रेलवे कन्‍ट्रोलर थे। मुझसे रेलवे कैम्‍पस में टकराए-सहगल, सुना है तुम अपनी बेटी की शादी पोपली के यहां कर रहे हो। हम तो अरोड़ा जाति के साथ कभी रिश्‍ता न करें। तुमने कैसे 'हां‘ कर दी ? उन्‍होंने जैसे घृणा से मंुंह बिचकाया।

मैंने उनके किसी प्रश्‍न का कोई उत्त्‍ार नहीं दिया; और चुपचाप आगे बढ़ गया। दिमाग पर थोड़ा ज़ोर डाला। सोचा कि यही कंट्रोलर अगर मुझे अपने लड़के का आफिर दे तो क्‍या मैं मान जाऊंगा। क्‍योंकि मैं अच्‍छी तरह से जानता था कि वह निहायत चालाक और काइयां किस्‍म का आदमी था। मैंने फिर सोचा। मुझे अच्‍छा शरीफ लड़का चाहिए न कि जाति।

जाति-पाति को लेकर एक और, आगे की घटना का स्‍मरण हो आया है, जो मुझे आज तक मानसिक रूप से कष्‍ट पहुंचाती है। मेरी सबसे छोटी बेटी शिल्‍पी की शादी श्री अरविंद खत्री के साथ होने वाली थी। समधी जी और उनके लड़के बीनू ने मुझसे पूछा कि आप कौन से पंडित को लावां फेरों में बुला रहे हैं। मैंने उत्त्‍ार दिया- श्री जय कृष्‍ण पंवार को। शुरू ही से हम अपने सारे कार्यक्रम, उन्‍हीं से करवाते आए हैं। वे विद्वान संस्‍कृत के बड़े ज्ञाता हैं। एक एक श्‍लोक का अर्थ समझाते चलते हैं। समय बांध देते हैं।

-पर वे जाति से पंडित तो नहीं।

-यह मेरा निजी मामला है कि मैं किसे बुलाऊं। आप अपना कोई सा भी पंडित रखें, मुझे कोई एतराज नहीं है।

-पर हमें है।

उन्‍होंने, खास तौर से बीनू ने, मुझसे वह नाच नचाया कि भूलता नहीं। पूरे बीकानेर की गलियों महल्‍लों में जाति वाले पंडित की तलाश में ख़ाक छानता फिरा। अंत में स्‍वयं जय कृष्‍ण जी ने ही सहायता की। मुझे उन्‍हीं श्री मदन मोहन शर्मा से मिलवाया, जिन्‍होंने अजमेर में अपना घर रहने काे दिया था। इस विषय पर जयकृष्‍ण जी से चर्चा हुई थी। मैंने बताया कि मैं अपने प्रो․ साहब अग्रवाल जी को सबसे बड़ा पंडित मानता हूं।

-पर इतनी बड़ी संख्‍या में लोगों से कैसे पार पाओगे। अपने मन पर किसी प्रकार का बोझ मत रखो और सहज होकर रहो।

आज बीनू मुझसे बहुत स्‍नेह करता है। इज्‍़ज़त के साथ डैडी डैडी पुकारता है। पर वह गांठ मेरे मन से नहीं जाती।

बड़ी बेटी कविता की शादी के फेरों के समय मेरी इस कदर रूलाई फूट रही थी कि मैं मंडप में न बैठ सका। बड़े भाई साहब को अपनी जगह बैठा दिया। बहुत बाद में बेटी की विदाई, पिता-पुत्री के प्‍यार पर एक कहानी बन पड़ी, 'स्‍मृति गीत‘।

अब देखिए, जब बेटे विवेक की शादी पर दुल्‍हन सरोज की डोली उठ रही थी तब भी मैं ज़ार ज़ार रो उठा। सब मुझे एक तरफ ले गए- अब तो तुम्‍हारी बहू तुम्‍हारे घर आ रही तुम्‍हें खुश होना चाहिए।

-पर उस बाप की क्‍या हालत हो रही होगी जिसकी लाडों पली बेटी, घर छोड़कर दूसरे घर में जा रही है। इसी प्रकार गाजि़याबाद भतीजी नीलू , डोली चढ़ रही थी- ''डोली चढ़ दयां मारियां हीर चीखां-मैनू (मुझको) लै चले बाबलां (पिता) लै चले नी‘‘। नीलू रो रोकर कह रही थी- चाचाजी को बुलाओ। मैं कमरे मे दुबका बैठा था। मुझे जाना पड़ा।

अब आप सब लोग उस शख्‍स के बारे में क्‍या कहेंगे जिसकी किस्‍मत में आंसू ही आंसू लिखे हों। बात बे बात पर आंसु। टेलीफोन पर किसी को स्‍नेह प्रकट करते हुए भी गले के स्‍वर का भीग जाना। यही कारण है कि मैं अपने को प्रैक्‍टिकल लाइफ, बल्‍कि इस दुनिया के काबिल बिलकुल नहीं समझता।

विवेक की शादी से पहले का संदर्भ भी याद हो आया। जब लड़की वाले झुंड में हमारे यहां किसी रीति में पहुंचे थे, तो उन्‍होंने 'लड़की वाले हैं‘ कहकर हमारे यहां से कुछ भी नहीं खाया। हमारी सारी मिठाइयां वगैरह जाया गईं। इसी प्रकार जब हम उनके यहां पहुंचे तो मैंने भी उनके यहां कुछ भी लेने से इनकार कर दिया। तब समधी साहब श्री सदानंद ने वायदा किया कि मैं आगे से आपके यहां से खा लिया करूंगा। छोटे लड़के के ससुर श्री शिवनारायण इस मामले में एकदम िरजिड (जिद्‌दी कट्‌टर हैं) सो मैं लड़के वाला होकर भी उनके घर पर कुछ नहीं खाता। टिट फार टैट। मैं कहता हूं, दुश्‍मानों के यहां से कुछ नहीं खाया करते।

एक शाम मैं जयहिन्‍द होटल में बैठा था। श्री हरीश भादानी ने मुझे उठाया, बाहर ले गए। कहने लगे-मेरी तीन लड़िकयां हैं। उन्‍होंने जिस जिस लड़के को पसंद किया, मैंने बिना ज्‍़यादा सोचे समझे, उनकी शादी कर दी। सब सुखी हैं। एक लड़का है। उसकी शादी में अड़चन आ रही है। तुम कोई लड़की बताओ। मुझे जात पात से कोई एतराज नहीं। बेशक पंजाबी फैमिली ही की क्‍यों न हो।

मैंने कहा- मैं ? मैं किस काबिल हूं। खैर सोचूंगा। मैं पत्रिकाएं पढ़ने को नागरी भंडार चला गया। थोड़ी ही देर में मेरे मन में एक विचार कौंधा। मैं वापस भादानी जी के पास पहुंचा- क्‍या यात्री जी की लड़की प्रज्ञा से रिश्‍ता करवा दूं।

बीकानेर में सर्वश्रेष्‍ठ शालीन, सहज प्रवृति के कवि श्री हरीश भादानी का उत्‍तर- जैसे आप उचित समझें।

- मैं यात्री परिवार को तो अच्‍छी तरह से जानता हूं। लड़की की गारंटी मैं आपको दे सकता हूं। पर आपके लड़के को तो मैंने कभी देखा तक नहीं। सो यात्री जी को कैसे गारंटी दे सकता हूं। लड़का करता क्‍या है ?

- जैसा मैं, वैसा मेरा लड़का। कलकत्त्‍ाा में अपने जीजा अरूण महेश्‍वरी (सरला महेश्‍वरी राज्‍य सभा सांसद) के बिजनेस में है। बुलाकर आपको दिखलाए देता हूं।

यह सब लोग अपने को घोर कट्‌टर वामपंथी कहते हैं। भाषण देते हैं। घर में किन और कैसे नियमों का पालन करते हैं। यह मुझे प्रज्ञा की शादी के बाद और ज्‍़यादा पता चला। कहां दिल्‍ली गाजि़याबाद के वातावरण में पली बढ़ी प्रज्ञा। घूंघट-पल्‍ला। सास ननदों के सामने झुक कर टांगे दबाना। सारे के सारे बड़े परिवार के घर के काम का बोझा उस पर। रहना दूभर। सास ननदों के ताने। पित शैलेश या तो कलकत्त्‍ाा रहता। आता तो शरीफ लड़का बेबस। कभी कभी प्रज्ञा को कलकत्त्‍ाा भी ले जाता।

यात्री जी हरीश जी को ढोंगी कहते। उधर हरीश जी यात्री जी को लेकर कहते-कि इसने मेरी पार्टी में इमेज खराब कर रखी है। हरीश जी घुमक्‍कड़ प्रवृति के। जब देखो तब िकन्‍हीं दूसरे शहरों में अध्‍यक्षता करने, सम्‍मान करवाने, भाषण देने, कविता पाठ करने बाहर। हरीश जी का सस्‍वर काव्‍य, सधे हुए गले के साथ, प्रज्ञा शैलेश की शादी से पूर्व हमारे डुप्‍लैक्‍स कॉलोनी के मकान में भी खूब गूंजता था। हमारे यहां महफलें जमती थीं। किसी को पूरे विवरण चाहिए तो 5 E 9 में आकर पूछ सकता है।

यात्री जी बीकानेर खूब आते पर जरा संभल कर, जिन दिनों हरीश जी बाहर टूरों पर हों।

बहुत बाद में प्रज्ञा शैलेश, अकेले मकान में रहने लगे। अपनी मेहनत से शैलेश के साथ मिलकर अच्‍छा खासा स्‍कूल चला रही है प्रज्ञा बेटी।

अब हरीश भादानी जी नहीं रहे। और उधर न यात्री जी में पहले जैसी ताकत। बहुत कम बीकानेर आ पाते हैं। पर न जाने कैसे विभूति नारायण राय जी के पास चले जाते हैं।

डायरी के बहुत सारे पन्‍नों को नाराज़ करते हुए, लंबाई से डरते हुए, आगे बढ़ रहा हूं। एक बात लेखन को लेकर लिखे देता हूं कि अगर आदमी को लिखना होता है तो वह हर परिस्‍थिति में लिखता ही है। कमला की बीमारी के दौरान रात भर उसके सिरहाने के पास बैठकर लिखा ही है। उनमें से व्‍यंग्‍यात्‍मक हंसाने वाली रचनाएं भी हैं।

जुलाई अगस्‍त 1988। दाएं कंधे बांह में भयंकर दर्द। सो नहीं पाता। अतः उठ उठकर हर रात्रि थोड़ी एक्‍सरसाइज़ कर कुछ पृष्‍ठ लिखता रहा। इस प्रकार एक किशोर वर्ग का उपन्‍यास 'छोटे कदम ः लंबी राहें‘ तैयार हो गया।

6-4-1989 पी․बी․एम․ अस्‍पताल में मेरी पोती दिव्‍या का जन्‍म हुआ। उसके हृदय में छेद था। ऊपर से भले ही मानसिक तथा शारीरिक रूप से सब सामान्‍य। पर आगे चलकर बहुत समस्‍याएं हो सकती हैं, इसलिए डॉक्‍टरों ने आपरेशन लाजिमी बताया। ऐसी हर डॉक्‍टर की राय थी। उसे लेकर हम कहां कहां नहीं गए। क्‍या क्‍या कष्‍ट नहीं उठाए, वह मेरी इतनी प्‍यारी बच्‍ची थी। हर वक्‍त मेरे साथ चिपकी रहती थी। स्‍कूल छोड़ने जाता तो कभी कभी ऐसे रोती थी, मैं सहन नहीं कर सकता था। उसे वापस घर ले आता था। उस मेरी लाडली के विषय में सब कुछ लिखने की हिम्‍मत नहीं पड़ रही। वह कुछ ऐसी भाषा बोलती, दोहराती थी जिस भाषा को कोई भी समझ नहीं पाता था। उसे टेप करने की कोशिश करते तो वह चुप हो जाती।

उसने छह साल हमारे साथ गुज़ारे। उसकी पल पल की यादें आती हैं। आज भी उसे याद करते ही एकांत में चला जाता हूं। मेरी चीखें निकलती हैं।

अंत में 23-1-95 को मन को पक्‍का कर, सारे टैस्‍टों से गुजारने के बाद, आपरेशन के लिए एस․एम․एस․ जयपुर के डाक्‍टर कर्णसिंह यादव के हवाले कर दिया। उसके हाथ में देव प्रतिमा की मूर्ति थी। खुशी खुशी खेलती हंसती आपरेशन टेबल पर लेट गई। आपरेशन सफल बताया। पर उसे वापस होश नहीं आ रहा था। वह कई दिनों तक वैंटीलेटर पर रही।

मैं हर रोज भगवान से प्रार्थना करता कि अगर इसे मृत्‍यु ही देनी है तो मुझे पहले ही इस संसार से उठा लो। पर यहां पर कहीं अगर भगवान है, तो उसे सबसे जालिम हस्‍ती ही कहता हूं। उसने 30-1-95 की रात पौने एक बजे मुझ से मेरी लाडली गुडि़या छीन ली। (मेरी डायरी में इसका विस्‍तृत वर्णन है)

अब जिंदगी का दूसरा पहलू देखिए। यही हृदय के छेद वाली समस्‍या मेरे भांजे स्‍वदेश के बेटे को भी थी। उसने तो दिल्‍ली के और बड़े डाक्‍टरों से आपरेशन करवाया था और ठीक ठाक चलता फिरता रहा। मैं बार बार सोचता रहा कि काश हमने भी दिल्‍ली ही से उसी अस्‍पताल से दिव्‍या का आपरेशन करवा लिया होता․․․․․। लेकिन नहीं उस बच्‍चे को भी अंदर ही अंदर वही प्राब्‍लम बनी ही रही और वह 21 वर्ष की आयु में अचानक चल बसा। उसकी मां के बाप के भाई के पास तो 21 साल की यादें हैं। वे उन्‍हें किस कदर सालती होंगी, इसकी सहज कल्‍पना मैं कर सकता हूं। बेटे के ग़म को बाप (मेरा भांजा स्‍वदेश) सहन नहीं कर पाया और एक महीने के अंदर ही वह भी हमेशा के लिए चला गया।

सोचता हूं। किसका ग़म बड़ा था। सोचता हूं यदि दिव्‍या के साथ भी अंत में यही होना था तो अच्‍छा ही रहा कि हमारे लिए सिर्फ छह साल का ग़म छोड़ गई।

ऐसे में याद आती है एन्‍टन चेखव की कहानी 'बैरी‘। इसमें भी डाक्‍टर किरीलोव का इकलौता छह वर्ष ही का बेटा अन्‍द्रेइ रात 9 बजे चल बसता है। पूरे घर में मातम छाया हुआ है। तभी उस अंधेरी ठंडी रात में अबोगिन उसे अपनी पत्‍नी के इलाज के लिए फरियाद लेकर, आ पहुंचता है कि मेरी पत्‍नी को बचा लो। आपका बेटा तो वापस आ नहीं सकता। ऐसी मनःस्‍थिति में वह डाक्‍टर को मजबूर करके, अपनी लाडली मणांसन्‍न पत्‍नी के लिए डाक्‍टर को साथ ले जाता है। मगर ढोंगी पत्‍नी अपने किसी यार के साथ भाग चुकी है। कहानी में यह बताने का यत्‍न किया गया है कि किसका दुःख बड़ा है।

किसी मित्र ने मुझे बताया, हो सकता है तसल्‍ली के तौर पर, कि राजस्‍थान में लड़कियों के गुज़र जाने पर, लोग खास गमगीन नहीं होते। मैं सोचता हूं ऐसा भला कैसे हो सकता है।

अब क्‍या कहें अपना अपना मानसिक स्‍तर (मैंटल स्‍टेटस), संवेदनशीलता हो सकती। कहां कहां, और कहां तक अपने होने को रोऊं। यहां तो बच्‍चे ही मुझे दिलासा तसल्‍ली देते हैं। बात निकली तो हर बात पे रोना आया।

मिज़ाज बदलने को मैं कभी कभी गाने भी लगा लेता हूं। नहीं तो मैं पागल हो जाऊं। मगर इस पर भी कुछ टोका-टोकी होती है। दो रोज़ बाद तार मिलने पर मैं जयपुर दूरदर्शन भी हो आया था। बाहर से आए लोगों के साथ बीकानेर बाज़ार भी घूम आया था। अंदर के आंसुओं को बाहर आने से रोकता रहा था। कभी खुलकर रो भी पड़ता था। फिर वही 'मगर‘ वाला प्रश्‍न, मुझ जैसे का। ऐसी दुनिया में तेरा क्‍या काम था। मुझे जन्‍म ही क्‍यों मिला। ऐसे प्रश्‍न आरंभ से ही चले आ रहे हैं।

कदम कदम पर मगर (मगरमच्‍छ) बैठे हैं। मुझे डराते हैं। आज तो तू अपने मिनट मिनट के हिसाब से चलने वाला, हद दर्जें का सक्रिय व्‍यक्‍ति है। जब चाहता है स्‍कूटर उठा लेता है। या दूर तक पैदल हो आता है। कभी मौका मिलते ही बच्‍चों नौजवानों के बीच वालीबाल भी खेल आता है। कल को, इस शरीर का क्‍या भरोसा। इसे कुछ हो गया तो ? हालांकि सारी औलाद बढ़ चढ़कर आज्ञाकारी है, फिर भी तेरे किसी काम को विवश्‍ातवश कभी उनसे देरी हो गई तो, तू तो इसे अपनी उपेक्षा, परवशता मानकर ही और आधा हो जाएगा। मैं भविष्‍याक्रांत डरपोक आदमी हूं। तब मास्‍टर मदन का गाया वह गाना बरबस समझ में आने लगता है ः-

यह हवा यह रात यह चांदनी

दिल में आता है यहीं पर जाइए।

सो खुशी की मौत, हज़ार नियामत है।

विवाह की रजत जयंती 1985 में 11 दिसंबर से पूरे सप्‍ताह की मनाई थी। हर दिन का विशेष कार्यक्रम/खाना पीना। डिश। इन सबका पूरा एलबम सुरक्षित मेरे पास है।

इसी प्रकार 1989 को 13-8-1989 को हम सब ने मिलकर कमला-सम्‍मान समारोह आयोजित किया था। कार्ड छपवाए थे। मैंने स्‍वागत भाषण पढ़ा था। कमला के गुणगान गाए थे। दूसरे बच्‍चों ने भी भाषण कविताएं डासेंस की प्रस्‍तुती पेश की थी। पूरे फर्श को फूलों से सजाया था। वे फोटोग्राफ्‍स भी उक्‍त एलबम में मौजूद है॥

इस पर भी न जाने क्‍यों, कमला जी ने मेरी, दिल से और जबान से सराहना नहीं की। इसका कारण आज तक न समझ सका। तब मैं इसे 'अपना अपना भाग्‍य‘ की संज्ञा देने के अलावा क्‍या कह सकता हूं। इसकी प्रशंसा करो, तब भी यह बिगड़ उठे तो इसमें भी कोई आश्‍चर्य वाली बात नहीं है। तब मैं, अपनी पत्‍नी पूजा/प्‍यार को 'वन साइडिड लव‘ कह कर खुश हो लेता हूं। इसके प्रति मेरी कुछ कोमल कविताएं भी हैं। पर शायद इसके लिए महत्‍वहीन।

इसी 11 दिसंबर 2011 को जब हम सब मिलकर शादी की स्‍वर्ण जयन्‍ती का आयोजन एक होटल में करने जा रहे थे तो 10-12-2011 को हमारी बड़ी बहू सरोज की बड़ी बहन श्रीमती शांति का सीरियस एक्‍सीडेंट हो गया। सारे के सारे कार्यक्रम रद्‌द करने ही थे। वास्‍तव में 13-12-11 को उनका निधन हो गया। सारे वातावरण में मातम छा गया। तभी शायद कहा जाता है।

मैन परपोजिज। गॉड डिसपोजिज।

तो ऐ परमपिता क्‍या तुझे अपनी औलाद काे दुःखी करके सुख मिलता है ? ये सिर्फ हमारे साथ ही नहीं हुआ। हर किसी के पास ऐसे बीसों उदाहरण मौजूद हैं। तब फिर वही प्रश्‍न, तू है भी या नही। तुझे दयावान क्‍यों कहा जाता है। जालिम क्‍यों नहीं कहा जाता। रंग में भंग डालने वाला क्‍या कहें। चलो हो लिया। कहते हैं। हम प्रकृति के नियमों को नहीं समझ सकते। मगर किसी साहित्‍यिक आमंत्रित मित्रों ने (दो तीन को छोड़कर) यह भी तो नहीं पूछा-आपके यहां जो दुर्घटना हुई थी, उसका क्‍या हश्र हुआ। बचीं या मरीं। तब ध्‍यान आता है-सुख के सब साथी दुःख का न कोय। सब खाने पीने भ्‍ााषण देने के शौकीन बशर (मनुष्‍य ?)। ऐसे सबसे मनमुटाव रखने लगें तो, अकेले पड़ जाएं।

पीछे मुड़ते हुए फिर से 28 फरवरी 1993 की बात पर आता हूं। उस दिन मैं सेवानिवृत क्‍या हुआ था। मानों कई बंधनों से मुक्‍त हुआ था। एक मन की पोशीदा बात बताता हूं। मेरा मन सर्विस से ऊब चुका था। मैं चार पांच साल पहले ही स्‍वैच्‍छिक सेवानिवृत्त्‍ाि लेना चाहता था; ली इसलिए नहीं कि उन दिनों बार बार यह सुनने में आ रहा था कि यदि कोई कर्मचारी स्‍वैच्‍छिक सेवानिवृत्त्‍ाि मांगता है तो उसके बेटे या बेटी को रेल्‍वे में नौकरी दे दी जाएगी। ऐसा रूल जल्‍दी आ रहा है। मैं भी यही चाहता था कि अपने छोटे बेटे अजय को नौकरी दिलवा दूं। किन्‍तु वर्ष पर वर्ष खिंचते चले गए और ऐसा रूल आज तक अस्‍तित्‍व में नहीं आया। अजय, जो नौकरी करना चाहता था, बिजनेस कर रहा है और बड़ा बेटा विवेक जो बहुत बड़ा बिजनेस मैन बनना चाहता था, नौकरी कर रहा है। उस सेवानिवृत्त्‍ाि वाले दिन मानों मेरे पंख लग गए थे, जबकि सुनने में यह भी आता रहता कि लोग बाग अवसादग्रस्‍त हो जाते हैं। रोने लगते हैं कइयों की तो हृदय गति तक रूक जाती है।

मैं खुलकर अपनी मनमर्जी मुताबिक उठूंगा सोऊंगा। लेखन को अधिक समय दूंगा। मुझ पर से कंडक्‍ट रूल्‍ज का शिकंजा खत्‍म। मैं, गुजरबसर नौकरी से ही तो कर रहा था सो मैं अपने जीवन की प्राथमिकता नौकरी को ही दिया करता था। जिस दिन भी आंधियां, तूफान, बिजली चमकने से (मौसम के कारणोंवश) काम नहीं हो पाता, मैं सोचता कि आज की पे मैं क्‍यों लूंगा। हालांकि इसमें मेरा कोई दोष नहीं होता। मेरी दूसरी प्राथमिकता घर गृहस्‍थी थी। एक दायित्‍वपूर्ण पुरूष। तीसरी श्रेणी पर मेरा साहित्‍य था। अब साहित्‍य कूद कर दूसरे नंबर पर आ गया था। मैं दफ्‍तर में वह काम करता था जो मैं करना नहीं चाहता था। स्‍टाफ़ के फालतू झगड़ों का निपटारा करो। कोई ड्‌यूटी पर लेट आया है तो उसे राइट टाइम दिखाओ। नहीं तो स्‍वयं फालतू का झगड़ा मोल लो। किसी कर्मचारी को रात की ड्‌यूटी में सोने से मना करो या रात में ड्‌यूटी के काम से बाहर, स्‍टेशन वगैरह भेजो, तो सवेरे स्‍वयं चर्चा में आओ। यह इंस्‍पैक्‍टर हमें यूं ही तंग करता है।

सचाई यह भी थी, जिसे मैं अच्‍छाई कहता हूं, कि मेरा कोई खास अफसर नहीं था और न ही मैं किसी का अफसर था। एक मामूली सा वायरलैस इंस्‍पैक्‍टर। जब आपरेटर चपड़ासी लोग कहना नहीं मानते थे तो, उनसे कहता-भैया हमारा भी कहना मान लिया करो। मैं भी एक किस्‍म का इंस्‍पैक्‍टर हूं। यह 'एक किस्‍म का इंस्‍पैक्‍टर‘ बड़ा मशहूर हुआ। लोग बाग हंसते हुए पूरी मुस्‍तैदी से बताए कामों को अंजाम दे देते।

26 फरवरी 1993 को स्‍टाफ़ ने मुझे विदाई पार्टी दी। कार्यक्रम अच्‍छा रहा। ग्रुप फोटोग्राफ हुआ और गिफ्‍ट्‌स के साथ एक अटेची केस भी, जिसमें अब भी मैं सारे महत्‍वपूर्ण दस्‍तावेज रखता हूं। फिर स्‍टाफ मुझे घर तक छोड़ने आया। मैंने उन्‍हें धमका रखा था कि कोई नारा वगैरह लगाकर महल्‍ले में शोर नहीं करेगा। महल्‍ले वालों को भनक भी नहीं लगनी चाहिए। उन्‍हें किस बात की पार्टी दूं। हां घर पर स्‍टाफ वालों को बढ़ चढ़कर खिलाया-पिलाया, जिन्‍होंने हमेशा मेरे साथ सहयोग किया था।

फिर दूसरे रोज 27/2/1993 को दफ्‍तर में पूरी ड्‌यूटी दी। मैंने उस दिन की भी तो तन्‍ख्‍वाह उठाई थी। उसी शाम काे मैंने दफ्‍तर वालों को रेलवे क्‍लब में बहुत शानदार पार्टी दी। पूनचंद आनंद ने जादू के खेल दिखाए। ईद के कारण गला सूखे होने के बावजूद जहूर ने 'ओ दुनियां के रखवाले‘ गाना बहुत ऊंचे और सधे हुए स्‍वर में गाया। सब मंत्रमुग्‍ध हो गए। और भी कई आइट्‌मज हुए। डी एस टी ई (अफसर) भी मान गए कि यह हुई ना पार्टी। वे हर समय मेरे साथ बने रहे। बहुत से लोगों ने अपने भाषण में मुझे शुभकामनाएं दीं। मेरे लेखन की तारीफ़ की। उन दिनों रेडियो से लगातार मेरी कहानियां, हास्‍य झलकियां प्रसारित होती रहती थीं।

समय बेश्‍ाक टी․वी․ का आ चुका था किन्‍तु बहुत सीमित समय था टी․वी․ का। ब्‍लैक एंड वाइट। निर्धारित समय-प्रसारण। लोगों का रेडियो सुनना कम नहीं हुआ था। अतः सभी ने अपने भाषणों में मेरी कहानियों विशेषकर हास्‍य झलकियों की चर्चा की। डी․एस․टी․ई․ ने मेरे लेखन की शब्‍दावली की प्रशंसा की। यह सारे कार्यक्रम सेवानिवृत्त्‍ाि से पहले ही हो गए। 28 फरवरी को इतवार पड़ता था।

फिर धीरे धीरे आम लोगों का जैसे पढ़ने लिखने रेडियो सुनने से नाता ही टूटता गया जो आज तक और भी जारी है। उन ब्‍योरों कारणों को कमोबेश सभी जानते हैं। इस विषय को लेकर मेरा एक लंबा पत्र इंडिया टुडे 21 मार्च 2001 में छपा था ''आप पकाएं आप ही खाएं‘‘ मतलब वही लिखने वाले वही। पढ़ने वाले। छोडि़ए यह एक लंबा विषय है जिस पर समय समय पर चर्चा होती रहती है- हमारे पाठक कौन ?

लघु पत्रिकाओं की संख्‍या अनगिनित है जो हमेशा अप्रकाशित अप्रसारित आदि विशेषण लगाकर रचनाएं मांगते रहते हैं। पैसे के अभाव का रोना रोना भी रोते रहते हैं। सदस्‍य भी बनो। विज्ञापन भी दिलवाओ। सर्वेक्षण भी हुआ था कि इन पत्रिकाओं की प्रसार संख्‍या कितनी है। 40, 40 सालों से टूट टूट कर रूक रूक कर निकल रही हैं। कोई उनका नाम तक नहीं जानता। जब थोड़ी सी वाइड सर्कुलेशन की बड़ी पत्रिकाओं की कहानियों से बहुत से पाठक वंचित रह जाते हैं तो यह अप्रकाशित अप्रसारित वाली बात समझ में नहीं आती। किसी रेडियो ट्रांसमीटर की रेंज कितनी बड़ी होती है, उन संपादकों की समझ में यह बात भी नहीं आती कि कितनों ने इस या उस कहानी को रात साढ़े दस बजे किसने सुना होगा। अब तो सब टी․वी․ चेनलों को भी, दर्शक बराबर चैलन बदल बदल खुद ही बेहाल हुए रहते हैं। ऐसे में एक कहानी को कम से कम दस जगह तो छपना ही चाहिए।

इन विषयों पर भी व्‍यंग्‍य लिखे हैं। बोलिए कितने ने पढ़े हैं। 'इंडिया टुडे‘ या 'हंस‘ या 'कादम्‍बिनी‘ जैसी पत्रिकाएं बुक स्‍टालों पर सहज उपलब्‍ध हो जाती हैं। क्‍या उनमें छपी कहानियों को सभी ने पढ़ रखा है। जब मेरी विभाजन पर चर्चित कहानी 'लुटे हुए दिन‘, मेरे न चाहते हुए भी शायद पांचवीं सातवीं बार छपी तो मेजर रतन जांगिड़ का फोन अया- बहुत ही अच्‍छी मार्मिक कहानी है। इससे पूर्व मैंने कहीं भी (इंडिया टुडे सहित) नहीं पढ़ी थी। ऐसे ही मेरे पास अनेक उदाहरण हैं। सो मेरे हिसाब से एक रचना का कई जगह छप जाना, लेखक का अपराध नहीं माना जाना चाहिए। मुझसे जब इस विषय पर मित्रों से बात होती है तो मैं कहता हूं, जब गुलेरी जी की एक ही कहानी या चेखव साहब की कई कहानियां दो तीन हजार बार छप सकती हैं तो हमारी कहानी को दस जगह छपने की रियाअत तो दीजिए। मगर चुगलखोर, संपादकों के कान भरते रहते हैं, जबकि संपादकों को कुछ पता नहीं होता। खत लिख लिखकर थक गया रवीन्‍द्र कालिया जी को। कोई जवाब नहीं। अंत में तंग आकर लिख दिया कि यदि मेरी कहानी का अचार पड़ चुका हो तो, आचार संहिता के तहत, चखने को मुझे भी थोड़ा भेज दें। तब भी कोई उत्त्‍ार नहीं। एक साल बाद श्री सुशील सिद्धार्थ का फोन आया कि आपकी कहानी तो वास्‍तव में हमें बहुत पसंद आई है। इसे हम जल्‍दी छाप रहे हैं। मैंने स्‍पष्‍ट किया (डर के मारे) कि मत छापिइए। यह कथादेश में छप चुकी है। बोले-तब कोई दूसरी भेज दीजिए। मैंने 15 दिन का समय मांगा और 24-11-10 को रवाना कर दी। जवाब न आने पर फोन किया तो बोले, कालिया जी के पास स्‍वीकृत फाइल में रखी है कायदे से इसे मेरी कहानी 'झंझट‘ के स्‍थान पर स्‍थान मिल जाना चाहिए था किन्‍तु आज 2/5/12 तक छप कर नहीं आई। अब मैं क्‍या कहूं। आप ही कहें यदि 'कथादेश‘ वाली बात छिपा जाता तो 'झंझट‘ छप गई होती। हां यह वही कालिया जी हैं,ं जिन्‍होंने इलाहाबाद रहते हुए मेरा पारिश्रमिक 'माध्‍यम‘ से दिलवाने में मेरी मदद की थी। उधर लघु, विशुद्ध पत्रिकाओं के नामकरण भी ऐसे ऐसे, जिन्‍हें कोई आसानी से समझ ही न पाए। इस पर भी आलेख लिखा है। 'हिन्‍दी पत्रिकाओं के विरोधाभासी स्‍वर‘। हां यह तो पहले बता आया हूं। दूसरा आलेख 'हिन्‍दी की अंग्रेजी में घुसपैठ‘ भी छपा है।

बड़े बड़े लेखक, बड़े बड़े हिल स्‍टेशनों पर जाकर शानदार बंगलों में रहकर लेखन करते हैं। मैं िरटायरमेंट के बाद छोटे से रेतीले गर्म कस्‍बे में, अधर में झूलते, उपन्‍यास 'टूटी हुई जमीन‘ को पूरा करने को बज्‍जू चला गया था। 26-10-1993 को साथ में कमला का फोटोग्राफ जो हमेशा मेरे स्‍टडी टेबल की शोभा बढ़ाता रहता है, भी साथ ले गया था। उसे वहां की मेज पर सजाया था। खूब मनोयोग से लिख रहा था। कभी खाना वहीं आ जाता था। कभी मैस में जाकर खा लेता था। कभी रात को किसी ढाबे में जाकर खा आता था। उन्‍हीं दिनों बीकानेर में हमारे निवास 'संवाद‘ में नया नया टेलीफोन लगा था। हर वक्‍त फोन आता। वाइफ जी के निर्देश। वापस आ जाओ-लगता नहीं है दिल․․․। मुश्‍किल से पांच दिन, बज्‍जू में रहकर, अधूरे उपन्‍यास को लेकर, वापस बच्‍चों के बीच, बीकानेर आना पड़ा था। तब पता चला मेरा घर संसार बस मेरा छोटा सा स्‍टडी रूम है, जहां से किसी भी क्षण उठाया जा सकूं।

इस समय इन बिन्‍दुआें पर दो प्रसंग सहसा याद हो आए जो थोड़ा विस्‍तार मांगते हैं। हो सकता है इन पर आगे चल कर लिखूं।

मेरी एक पुस्‍तक, चर्चा के दौरान जो बीकानेर मरूधर हैरिटेज में चल रही थी, से․रा․यात्री ने कहा निःसंदेह सहगल साहब बहुत अच्‍छा लिखते हैं। पर सहगल साहब घर घुसरू है। न होते तो और बाहर के लेखकों/लोगों के संपर्क में आकर खूब चर्चा में आ जाते। इस पर श्री हरीश भादानी ने कहा था-हमारे सहगल साहब को कहीं जाने की ज़रूरत नहीं, यहीं बीकानेर में अपने घर में बैठे बैठे अपनी अंतदृष्‍टि से सब कुछ देख-समण्‍ लेते हैं और वैसे ही बहुत अच्‍छा लिख लेते हैं। वैसे दोनों हरीश जी और यात्री जी घूमने आने जाने, समारोहों में बढ़ चढ़ कर भाग लेने में अपनी गति पाते हैं इनके पांव अपने घर में टिकते ही नहीं। हिन्‍दुस्‍तान के सभी लेखकों से खूब परिचय है, इनका। उधर राय साहब थे तो यही हिदायत कि सहगल साहब घूमा फिरा कीजिए। चलिए दिल्‍ली सभी महत्‍वपूर्ण लेखकों से मिलवाता हूं।

मुझे तो जो कभी बाइ द वे जो दो चार, पुस्‍तक मेलों में टकरा गए थे कभी कभार चार छह 'हंस‘ कार्यालय में मिले होंगे वही यादगार हैं। पत्राचार कुछ लेखक लेखिकाओं से जरूर है।

अपने विषय में फिर वही बात दुहराना चाहूंगा कि आज तक जो भी, जैसा भी, जितना, लिखा घर की सीमाओं के अंदर। घर वाली के अंडर। अगर वह कहे मत लिखो तो बंदे की क्‍या मजाल, जो लिख दे। उस कमांडर पर लिखना तो मेरा फर्ज बनता है भले ही चिढ़ जाए। रूठेगी तो मना लेंगे। देके खिलौना बहला लेंगे। और यह भी समझ लीजिए इस ज़ालिम को मनाना कोई आसां काम नही। आसमां तक पहुंचना पड़ता है। अगर तारे भी तोड़ लाओ तो, ''यह क्‍या है ? बेकार‘‘।

अपन इस पर भी राजी। जैसे तैसे कहानियां वगैरह तो लिख ही लेते हैं। पर नेक सलाह देने वाले मित्र कहां चूकते हैं- सिर्फ लिखते चले जाने से क्‍या हासिल। कुछ अप्रोच कुछ तिकड़म, चर्चा में आने के लिए कोई गुर विवाद भी तो आना चाहिए। पुरस्‍कार मिलते नहीं। लिये जाते हैं। कुछ बड़े पुरस्‍कार उन्‍हें, मिल गए जिन से चन्‍द्र जी, भादानी जी जैसे भ्‍ाी वंचित रहे। वही मिलेगा जो मुकद्‌दर में लिखा है। क्‍यों होता बेहाल है, जीना तो है बरसों। इंतजार और अभी। अच्‍छे दिनों की आस में आदमी, आहें भरता हुआ भी जिए चला जाता है। वह यह नहीं सोचता कि यही वर्तमान ही हमारे लिए सबसे अच्‍छा दिन है।

एक बार फिर वहीं बज्‍जू। 13/5/94 से 26/5/94 के बीच से․रा․ यात्री जी यहां पर रहे। यात्री जी ने कहा। एक ही जगह टिक कर मैं बैठ नहीं सकता। कहीं और घुमा लाओ। मुल्‍ला की दौड़ मसजिद तक। मैं फिर उन्‍हें मई की तपती धूपों में, बज्‍जू ले गया। दोनों अलग अलग होकर, बैठेंगे। लिखेंगे। शाम को मटरगश्‍ती करेंगे।

इतनी गर्मी में न मुझसे कुछ लिखा गया और न यात्री जी से ही। बड़ी मुश्‍किल से दोपहरें कटतीं। जैसे हमने अपने को यातना शिविर में डाल दिया हो।

हां शाम को जब वातावरण में तपिश कम होती। हम दोनों ग्रामीण अंचलों में निकल जाते, ग्रामीणों से हिलमिल जाते। उनकी आत्‍मीयता और सहज जीवन से प्रभावित होते। दो तीन बार उरमूल ट्रस्‍ट में कुछ लोक कलाकारों के कार्यक्रम भी आयोजित हुए। नाटक या नोटंकी, कठपुतली का खेल, लोकनृत्‍य, गायन कि हम देख देख कर दंग रह जाते। इतनी उत्‍कृष्‍ट कलाएं और उनके यह कलाकार हमारे ठेठ गांवों में। प्रचार प्रसार से एकदम दूर, मौजूद हैं। अपनी धुन के धनी, अभावों में भी मस्‍त। यह भी सुनने में आता रहता है कि हमारे शहरों के दलाल बिचौलिए इन्‍हें विदेशों में ले जा कर, इनके कला-प्रदर्शन अयोजित करवाते हैं। खुद खूब पैसा बनाते हैं। और इन अनपढ़ लोगों का जमकर शोषण करते हैं। हां श्री अरविंद ओझा ने जीप से पाकिस्‍तान से इधर को सटी धाणियों में भी घुमाया था। यह सारे दृश्‍य देखकर एक तो हम दिनभर की गर्मी को भूल जाते। (उधर राजस्‍थान कैनाल नहर भी है।) जीवन में जहां हम कुछ कष्‍ट उठाते हैं। तो बदले में बहुत कुछ हासिल भी कर लेते हैं। ओह एक शानदार ममत्‍वपूर्ण मार्मिक दृश्‍य भी अचानक आंखों के सामने घूम गया है। जीवन दुःख सुख की गाथा मात्र मनुष्‍यों ही की नहीं हआ करती। पक्षियों, पशुओं की भी हुआ करती है।

एक धाणी में एक युवती हमारे लिए चाय बनाने गई। रसोई घर में एक गाय का बछड़ा भी उसके पीछे पीछे चला गया। युवती चाय बनाकर, हमारे सामने आ खड़ी हुई। वही बछड़ा, उससे सटकर खड़ा रहा। बाहर कुछ आहट हुई युवती उधर को गई। बछड़ा उसके साथ। एक पल के भी लिए वह बछड़ा उससे अलग नहीं होता था। लड़की भागे तब भी वह बछड़ा भी उसके साथ साथ, उसी रफ्‍तार में।

बताया गया। इस बछड़े/बछड़ी की मां की मृत्‍यु कुछ रोज पहले हो गई थी। तब से उसने उस युवती ही को अपनी मां मान लिया था। क्‍योंकि वह लड़की उसे बहुत प्‍यार दुलार करती थी।

जीवन के दूसरे प्रसंग पर आता हूं। 7-12-1994 को मुझे अपनी सास श्रीमती सुहागवंती (90 वर्ष) के निधन का समाचार मिला। 8-12-1994 की सुबह 8ः35 वाली गाड़ी से चलकर शाम को दिल्‍ली सरायरोहिला उतरे। दिल्‍ली तक का रास्‍ता-छोटी लाइन (मीटरगेज) वाला, बड़ी लाइन, ब्राडगेज में परिवर्तित हो रहा था। फिर सरायरोहिला से किसी तरह रात पौने दस बजे गाजियाबाद पहुंचे। असली बात मैं यह बताने जा रहा हूं अब तक भी 2011 तक चार पांच किलोमीटर का रास्‍ता बहाल नहीं हुआ। यह है। हमारे देश की योजनाएं। दूसरे देशों की योजनाओं के विषय में दूसरे लोग ही बेहतर जानते होंगे जिनका वास्‍ता उन देशों में जाने का पड़ता रहता है। और जब हमें बताते हैं तो हमारी कल्‍पना से बाहर की बात लगती है।

11 दिसंबर को हम वापस उसी प्रकार से वाया सरायरोहिला दिन ही की गाड़ी से चल पड़े। यह वही दिन था। हमारी शादी की सालिगरह वाला, जिसे हम लोग आज तक बड़ी धूमधाम से मनाते चले आ रहे थे/हैं। गाड़ी में दिन कैसे बीता, और अंधेरी रात में, हम लोग गलती से बीकानेर से बहुत पहले आउटर सिगनल समझ कर उतर गए। आउटर सिगनल हमारे मकान 'संवाद‘ के बिलकुल करीब पड़ता है, इसलिए। फिर भारी भरकम सामान को बिना किसी सवारी के ढोकर रात पौने दस बजे घर तक पहुंचे। वह एक हास्‍य संस्‍मरण बना, 'झूलता हुआ ग्‍यारह दिसंबर‘। यह जबर्दस्‍त संस्‍मरण कई जगह छपकर चर्चा का विषय बना। हास्‍य संस्‍मरण पुस्‍तक में भी शामिल है। बड़ा बेटा विवेक तब जयपुर पोस्‍टिड था। छोटा बेटा अजय हमारी प्रतीक्षा करते करते विवेक के पास जयपुर रवाना हो गया था।

मौजूदा, 11 दिसंबर गोल्‍डन जुबली की ट्रैजिडी पहले कह ही आया हूं। किसी प्रकार के दुहराव के भय से बचने के लिए अब आगे मैं कम लिखने का प्रयास करूंगा। देखिए कैसे इस आत्‍मकथा को अंतिम बिन्‍दु तक पहुंचा पाता हूं।

कई साहित्‍यिक गोष्‍ठियां, पुस्‍तक मेले, पुस्‍तकों के प्रकाशन, मुझ पर हुए शोधों आदि कई इधर उधर के फेरे, जीवन के उतार चढ़ाव तो कई हुए, जो सामान्‍य सी बातें हैं। उन ब्‍योरों में जाने की कोई जरूरत नहीं। कविता विवेक शिल्‍पी अजय की सबकी शादियां, मैंने बीकानेर ही में कीं थीं। मैं बच्‍चों को अपनी नजरों से दूर रखना ही नहीं चाहता। पर उनकी ट्रांसफर्ज को तो रोक कर उनके प्रमोशन के आड़े तो आना बेजा ही माना जाएगा।

बहू सत्‍कार दिवस

ओह वाह एक छोटा सा प्रसंग सुनकर आपकी तबीयत जरूर प्रसन्‍न हो जाएगी। 28/2/1996 को मैंने घोषणा की कि मैं अपनी दोनों बहुओं का स्‍वागत/सत्‍कार करूंगा। मैं हूंगा और मेरी दोनों बहुएं मेरे साथ होंगी। हम तीनों जने कहीं बाहर जाकर ऐश करेंगे। कमला बोली- मैं क्‍यों नहीं। क्‍या ये सिर्फ आप ही की बहुएं हैं। मेरी कुछ नहीं लगतीं ? तब कमला भी साथ हो ली। तब कमला ने भी साथ हो ली। दोपहर 2 बजे 'बहू दिवस‘ मनाया। बड़ी बहू सरोज के साथ उसकी छोटी सी गुडि़या गर्विता भी साथ थी। नई बहू लता को लेकर पहले हम सबने सूरज टाकीज बीकानेर में 'साजन चले ससुराल‘ पिक्‍चर देखी। फिर तीनों ने अपनी अपनी पसंद की साडि़यां खरीदी। गन्‍ने का रस पिया। फूलों के गजरे लिये। ये सारे सामान जल्‍दी जल्‍दी खरीद लेने के लिए, मैं बाज़ार की सड़कों पर पागलों की तरह भाग रहा था। मेरी खुशियों का आर पार नहीं था। इसके बाद हम अमर स्‍टूडियो (के․ई․एम․ रोड) में जाकर दोनों बहुओं को हाथ में हाथ कंधों पर देकर फोटो खिंचवाई, जो हर वक्‍त शैल्‍फ पर रखी दिखती है। इसके बाद डीलैक्‍स होटल, स्‍टेशन रोड पर आइसक्रीम डोसा आदि खाए। विवेक और अजय के लिए खाना पैक करवाकर रात को घर पहुंचे।

अगर आपको मालूम न हो तो बता दिया 'बहू दिवस‘ भी होता है। मैं हमेशा बहुओं के स्‍वागत में अब भी तत्‍पर रहता हूं। हीरा हैं, ये दोनों। खरा हीरा। आज भी दोनों मेरे अगल बगल बैठीं, एक वाक्‍य में दो तीन बार डैडी डैडी बोलती हैं।

जहां तक मेरे स्‍वयं के जीने/रहने के तौर तरीकों का संबंध है, मैं अपने को यथार्थवादी दृष्‍टिकोण वाला व्‍यक्‍ति मानता हूं। इसके बावजूद अगर कोई विश्‍वस्‍त पढ़ा लिखा हितैषी टूणा टाणा मंत्र तावीज आदि का सुझाव देकर आजमा कर देख लेने का सुझाव, अपने ज़ोरदार शब्‍दों में देता है या किसी अनर्थ होने की आशंका या और अधिक सफलता, सुखमय जीवन के विषय में कहता है तो मैं दो चार दफः उनके वाग्‍जाल में भी आ चुका हूं। वही बात कि चलो बिना लुटे आजमा कर देख लेने में क्‍या हर्ज है। दुनिया बहुत बड़ी है। हर एक के अपने अपने जीवनानुभव हैं तो वह भी कर के देख लो। कुछ ब्‍योरे मेरे पास हैं पर उनमें न जाकर इतना ही कहूंगा। मुझे कभी उनसे कोई लाभ नहीं हुआ। इस पर लोग बाग कहते हैं-जब आप की आस्‍था ही नहीं तो आपको क्‍या खाक लाभ होगा। मैं उत्त्‍ार देता हूं। फ़ायदा हो जाए तो आस्‍था-विश्‍वास स्‍वतः जागृत हो जाएगा। मैं अंधविश्‍वासी तो कभी नहीं बन सकता।

एक बार मेरे मित्र कृष्‍ण मुरारी वर्मा रिटायर्ड हैल्‍थ इंस्‍पैक्‍टर ने मुझे अपने निवास पर बुलाया। और मैं, समय निकाल कर चला भी गया। वे मात्र अपने जीवन में हुए बेशुमार चमत्‍कारों के विषय में मुझे बताना चाहते थे कि इन्‍हें सुनकर आपकी आस्‍थ्‍ाा जागृत हो सकती है।

उन्‍होंने एक अनुभव बताया। मैंने फौरन अपने तर्क से उनकी बात काट दी- जब आपकी जेब काट कर आपको ग्रह कर ने कंगाल कर डाला तो फिर मदद को भगवान ने अपना देवदूत भेजकर आपको क्‍यों मालामाल कर दिया। इससे क्‍या यह बेहतर न होता कि भगवान ने अापकी जेब ही न कटने दी होती। क्‍या भगवान अपना अहसान जताने के लिए पहले तो आपका अहित कर डालता है जैसे कोई नायक पहले किसी खलनायक को भेजकर किसी लड़की के साथ अभद्रता करवाता है। फिर उसका हितैषी बनकर उसका दिल जीत लेता है।

इसी प्रकार के अन्‍य, उनके कई, चमत्‍कारी किस्‍सों को मैं सिरे से बराबर खारिज करता चला गया। वर्मा जी का पस्‍त चेहरा देख देख कर, थोड़ी ओट लिए उनकी पुत्रवधू बार बार मुस्‍करा रही थी।

वर्मा जी ने आखिकार तंग आकर कहा कि जब आपने मेरी कोई बात माननी ही नहीं थी तो आप इन विषयों पर बात करने यहां आए ही क्‍यों ?

मैंने विनम्रता से जवाब दिया-'क्‍यों‘ ? यही तो मेरा विषय है। मैं जानना चाहता हूं कि आज भी हमारे यहां का आम आदमी किस प्रकार से सोचता है। कौन सी सोच पाले हुए है।

कुछ देर तक हम दोनों मौन बने रहे। फिर मैंने उन्‍हें तसल्‍ली सी दी कि ऐसे आप और मैं भी कुछ सिद्ध नहीं कर सकते। प्रकृति के नियमों के किसी के भी पास कोई उत्त्‍ार नहीं हुआ करते। ऐसी ऐसी भूकंप सुनामी जैसी विनाश लीलाएं समय समय पर कहर ढाती रहती हैं, जहां पर, शिष्‍ट अशिष्‍ट, ईमानदार, बेईमान किसी को भी नहीं बख्‍शा जाता। सबके सब निष्‍पक्ष भाव से प्रकृति के प्रकोप के शिकार, क्षणांशों ही में हो जाते हैं। न तो किसी को संभलने की मोहलत होती है और न ही प्रार्थना कर किसी अपने इष्‍ट देव को मनाने की। इन विषयों पर भी कुछ लघुकथाएं लिख मारी हैं। यह सब आखिर माजरा क्‍या है। कदम कदम पर डगर डगर पर, अनिष्‍ट, भय, मगर, अशांति। फिर भी आदमी है कि जीता चला जाता है। मात्र अच्‍छे दिनों की आस में, दिनों की गिनती करता रहता है कि डाक्‍टर ने कहा था, इतने दिनों में ठीक हो जाओगे। ज्‍योतिषी जी ने कहा था कि इतने महीनों बाद आपकी नौकरी पक्‍की या तरक्‍की। नेताजी कहते थे दो महीने रूको, आपका काम हो जाएगा। संपादक, प्रकाशक भी छपने की समय सीमा तय कर देता है। गणना करने को यह सब हमारे मनोरथ पूरे हो भी जाएं तो अगले मनोर्थों, आकाक्षाओं, उम्‍मीदों की और और लंबी लाइने हमेशा बिछी रहती हैं। आैर फिर से दिनों की गिनती करने लगता है। और गिनती, गिनते, जिंदगी के पार जा पहुंचता है। कहां ? कोई भी नहीं जानता। मात्र कल्‍पनाएं करता रहता है। शायद झूठी कल्‍पनाएं करना ही मनुष्‍य के बस में है और उसकी नियति भी।

मैं मात्र इतना सोचता हूं फिर भी सद्‌कर्म करना, मनुष्‍य का धर्म है। उसे बाकी के सारे झमेले छोड़कर इसी मानव धर्म का निर्वाह करते रहने से थोड़ा सुख मिलता है। नास्‍तिक भगत सिंह जैसा कर्तव्‍य सुख।

पहली डायरियों में मैंने मात्र तिथियों का ही उल्‍लेख किया है। कब कहां गया। कब कब सिक-लिस्‍ट में रहा। कूलर फ्रिज, टी․वी․ से भी छोटी चीजों के खरीदने का भी लिखा है। रसीदें मेरे पास हैं। नंबर भी लिखे हैं। यह सब क्‍या है। बस रिकार्डज। इनकी अब क्‍या जरूरत है ? बस प्रवृत्त्‍ािवश संभाने रहा हूं। अनर्गल ?

बाद की डायरियों में थोड़ा, हां थोड़ा, अधिक सविस्‍तार, स्‍थितियों, घटनाअों का वर्णन है। भूमिका, हनी, गोल्‍डी, कविता बेटी के बच्‍चों, विवेक के बच्‍चों, गर्विता, वीरेश, शिल्‍पी के बच्‍चों, मोदिता, जलेश के जन्‍मों के बारे में तिथियों सहित। जब जब डिलिवरी होने को होती मैं बड़ी बेचैनी से पी․बी․एम․ अस्‍पताल के गलियारे में चक्‍कर काट रहा होता। मन को काबू में रखने के लिए कोई किताब मेरे हाथ में होती, उसे पढ़ने की कोशिश करता रहता। जैसे ही नवजात शिशु को मेरे सामने लाया जाता, मैं प्रफुल्‍लित मन से उसके नन्‍हें हाथों से किताब को छुआता विदयावान बनो।

26 फरवरी 1991 बेटी कविता लेबर रूम में थी। मैं बाहर बैंच पर बैठा किताब पढ़ रहा था। मेरी भांजी कंचन आ पहुंची- मामाजी आज आपका जन्‍म दिन है। कुछ खिलाइए पिलाइए।

-ठहरो। इंतजार करो। डबल पार्टी दूंगा। तभी अंदर से बच्‍चे के रोने का स्‍वर सुनाई दिया।

सो मैं और मेरा दोहिता हनी (हितेश) मिलकर जन्‍म दिन मनाने लगे। दोनों नाना दोहिता बाजार के चक्‍कर लगाते। खाते पीते। उसे कोई गिफ्‍ट दिलवाता। वह बाल सुलभ प्रवृति के तहत अंटशंट चीजों की फरमाइश करता। मैं कहता बेकार की चीजें मत ले। मेरे पास इतने रूपए नहीं है। वह कहता-बताओ आपके पास कितने रूपए हैं ? मेरी जेबें टटोलने लगता।

-ले बाबा ले जो चाहिए ले ले।

आजकल वह किशोरावस्‍था में दिल्‍ली में पढ़ाई कर रहा है। फोन उसका भी आता है। मेरा भी जाता है। जन्‍मदिन मुबारका। आना-जाना थोड़ा कठिन हो गया है। सब मां बाप बच्‍चों का कैरियर बनाने में व्‍यस्‍त हैं। सहज जीवन न जाने किधर, भाग खड़ा हुआ।

बेटे विवेक की पत्‍नी सरोज की डिलिवरी होनी थी। देर हुई जा रही थी। रात हो गई। डाक्‍टर्ज कह रहे थे। अभी और समय लग सकता है। कह नहीं सकते कितना। स्‍टाफ़ कर्मचारी भीड़ कम करने के लिए हांक लगा रहे थे। मुझे परेशान देख्‍ाते हुए, मुझे विवेक ने जबर्दस्‍ती घर भेज दिया। पूर्णिमा सोमवार, 15-11-1996, रात बारह बजे बजे बाद विवेक घर आया-डैडी बधाई। लड़का हुआ है। एकदम स्‍वस्‍थ।

मैंने भी बहुत खुशी प्रकट की। लेकिन इसके साथ ही मन में एक कचोट भी उठी। मुझे उसी समय अपनी दिवंगत पोती दिव्‍या की याद हो आई जो मेरी इस नई पोती गर्विता के जन्‍म के समय बहुत ही छोटी थी। कह रही थी डेडी मुझे तो लाला (लड़का भाई) चाहिए था। काश कि आज वह होती। और अपने नवजात भाई को देख पाती। उसके सारे क्रियाकलाप, बातें, यादें जो दिल के भीतर गहरे जख्‍म के समान थीं, फिर से ताजा हो आई। लॉन की मुंडेर पर जा चढ़ती तो मैं कहता- अरी दिव्‍या गिर जाओगी। वह जवाब देती- तो क्‍या आप बचाओगे नहीं। जब तक आप मेरे पास हैं। मुझे कोई डर (खतरा) नहीं।․․․․․․․ ऐसी रूलाने वाली बहुत सी बातें․․․․․․․․।

यही जीवन द्वंद्व है, जो क्षण क्षण हमारे संग जीवन-पर्यंत चलता रहता है। दुःख के साथ सुख, पता नहीं, है तो सुख के साथ दुःख तो है ही। मानो गुंथा हुआ। सुख के समय भी हम भयभीत से हो उठते हैं -हे भगवान यह सुख हमसे छीन न लेना। कोई अनिष्‍ट न हो जाए।

23/5/96 को िबल्‍कुल अचानक नवोदय स्‍कूल पांयटा की डॉ उषा महेश्‍वरी मेरे घर 'संवाद‘ में दो चार दिनों को ठहरने को आ गईं। उन्‍हें अपनी किसी शोध पुस्‍तक पर कार्य करना था। मुझसे विमर्श करना चाहती थीं। संदर्भ पुस्‍तकें देखना चाहती थी। घर में बिलकुल विपरीत स्‍थितियां चल रही थीं। कोई अस्‍पताल में भी भर्ती था। कोई बात नहीं। स्‍वागत है। वे घर के कामों में थोड़ा सहयोग जरूर करतीं, लेकिन जल्‍दी से जल्‍दी अपना कार्य निपटाना चाहती थीं। मुझसे भी पहले उठकर, मेरी स्‍टडी में अपने कार्य में जुट जातीं। 25-5-96 की शाम बोली-अच्‍छा तो सर, मैं वापस जाऊं। मैंने कहा-ऐसा कुछ नहीं। बेशक जितना चाहें रह सकती हैं। लेखकों के घर पर, लेखकों का अधिकार होना चाहिए।

-थैंकस सर पर दिन रात लग कर मेरा कार्य पूरा हो गया है।

- तब ठीक है।

- एक तरफ, 15-25 पुस्‍तकों की ढेरी बना रखी थी।

- यह पुस्‍तकें मैं अपने साथ ले जा रही हूं। बाद में वापस भिजवा दूंगी।

-उषा जी, कुछ एक किताबें तो मैंने आपको, भेंट स्‍वरूप दे दी हैं। वह आपकी हो गईं। बस। और नहीं। किताबों के बिना मेरा मन उदास हो जाता है। न जाने किस संदर्भ में किस किताब की मुझे ज़रूरत पड़ जाए। देखनी-पढ़नी हो तो यहीं पर और रहकर बेशक देख लीजिए।

इसी प्रकार अपने प्रवास के दौरान मुझे अपने द्वारा कैसिट्‌स में भरवाए गानों की याद भी सताने लगती है। मित्रों, घर वालों के चेहरे भी कौंध कौंध कर, मन को विचलित करते रहते हैं।

धर्म ग्रंथों को पढ़ें तो मुक्‍ति मोक्ष निस्‍पृहता के उपदेश। कहें तो दूसरों साथ ही दया भी इन बिन्‍दुओं की थोड़ी बहुत व्‍याख्‍या कर सकता हूं। साथ ही दया, अहिंसा, सत्‍य करूणा, सहिष्‍णुता हर प्रकार के प्रलोभनों से दूरी बनाए रखने, कष्‍टों को भी खुशी खुशी सहने की शक्‍ति को संजोए रखने जैसे जीवन के सकारात्‍मक पक्षों से कौन इनकार कर सकता है। इन्‍हें मनुष्‍यता के नैतिक शाश्‍वत मूल्‍य कहा जाता है। पर कहना ही आसान है। भाषण देना ही आसान है। परन्‍तु देखें तो हिंसा, जीवजगत मनुष्‍य की जन्‍मजात प्रवृत्त्‍ाि है। कौन जीव इनसे आज तक मुक्‍त हो पाया है। किस को क्रोध नहीं आता। पुराने ऋषि मुनि तो पल पल में ही श्राप देने के लिए प्रसिद्ध हैं। अशोक, बुद्ध से लेकर गांधी तक इतने बड़े बड़े महापुरूष प्रवचनों द्वारा बताते समझाते रहे। स्‍वतंत्रता आंदोलन ही को लें तो कहा जाता है कि अहिंसक आंदोलन अंततः हिंसक आंदोलनों में ही परिवर्तित हो उठते थे। थ्‍योरोटिकल (सैद्धांतिक) और प्रैक्‍टिकल लाइफ, दोनों में खरा उतरनों की परीक्षा में हम कितने पास हो पाते हैं ?

जाने से पूर्व उषा जी न जाने कौन सी अंगूठियों, नगों आदि को धारण करने के सुझाव देती गईं कि देखना इन का असर। याद करोगे कि उषा महेश्‍वरी यहां आई थी। मगर हम दोनों के लिए बेअसर,। क्षमा याचना सहित उषा जी से पूछा जा सकता कि इतने वर्षों के अंतराल के बावजूद आप नवोदय विद्यालय में ही क्‍यों हैं और आगे क्‍यों न बढ़ पाई। चलिए आप या मैं स्‍थितिप्रज्ञ वाली स्‍थिति में पहुंच भी जाएं तो हम में और पत्‍थर में क्‍या अंतर रह जाएगा। इस विषय पर दर्शनशास्‍त्र, नीतिशास्‍त्र के विद्वानों से भी बहुत बार पूछा। वास्‍तविक उत्त्‍ार उनके पास भी नहीं है। तब मैं मूढ़-बुद्धि क्‍या समझूं।

मैं तो बहुत अध्‍ययन करता रहा। गीता जैसे धर्म ग्रंथों सहित को पढ़कर, मोह को त्‍याग नहीं पाया।

बार बार पाकिस्‍तान के शहरों महल्‍लों में खो जाता हूं। फिर सोचा कि बरेली तो जाया ही जा सकता है।

रश्‍मि श्रीवास्‍तव जी यू․पी․ से स्‍थानांतरित होकर बीकानेर केन्‍द्रीय विद्यालय, नंबर वन बीकानेर में आई थीं।

उनसे परिचय, मेरी श्रीमती जी कमला से हुआ। रश्‍मि जी उनसे घुलती मिलती गईं। उन्‍हें स्‍टाफ क्‍वार्टर अलॉट हुआ था। कुछ और बातों के अलावा जो दो बातें उन्‍होंने कमला को बताईं, वे दोनों मेरे लिए सहसा बहुत महत्‍वपूर्ण हो उठीं। एक तो वे बरेली की रहने वाली हैं। उनके पिता बहुत पहले बरेली कॉलेज के प्रोफेसर रहे थे। अब बड़ी उम्र में प्रेमनगर में अपना बहुत बड़ा बंगला बनवा कर रह रहे हैं। दूसरा उनके पति मि․ रतन श्रीवास्‍तव भी साहित्‍य में रूचि रखते हैं। उनकी भी कहानियां, कविताएं प्रायः छपती रहती हैं। रतन जी मौसम विभाग में थे। उनका दफ्‍तर, हमारी डुप्‍लैक्‍स कॉलोनी के पास ही पड़ता था। खैर।

एक दिन शाम को हम दोनों उनके क्‍वार्टर जा पहुंचे। उन दोनों ने बड़ी गरमजोशी से हमारा इस्‍तकबाल किया। फिर दिनोंदिन हम लोगों की आत्‍मीयता शिखर तक पहुंचती चली गईं। रतन श्रीवास्‍तव जैसे सहनशील, शरीफ़, मिलनसार, हर एक के दुःख सुख में काम आने वाले इनसान, दुनिया में बहुत बहुत कम ही हुआ करते हैं। ऐसा मैं, और दूसरे सभी लोग भी मानते हैं। मगर मेरे और उनके बीच के रिश्‍ते की बात ही अलग है। रश्‍मि जी भी रतन जी से कहीं कम नहीं। उनसे बड़ी जल्‍दी जल्‍दी बैठकें होतीं। बरेली, बरेली, बरेली। बरेली में यह यह है। बरेली के इस उस स्‍कूलों, कॉलोजों में पढ़ाई की। फ्‍लाने सिनेमा घर में फ्‍लानी फिल्‍म देखी थी। मैं और रश्‍मि दोनों, जैसे बरेली को गोदी में लिये बैठे होते। वह परिवार तो समय समय पर बरेली जाता ही रहता था। दोनों, पति पत्‍नी ने मुझसे कहा-कभी चलिए ना हमारे साथ बरेली। आपको बरेली दिखला लाएं। एक बार मेरी इच्‍छाओं में उफान आ गया। आनन फानन में मैंने 8-10 दिन का प्रोग्राम बना डाला। उन्‍होंने, आगे किसी शादी में फैज़बाद या गोरखपुर जाना था। वहां भी आपको ले चलेंगे। एक दिन शाहजहांपुर चलकर हृदयेश जी से भी मुलाकात कर आएंगे। पत्रों द्वारा हृदयेश जी से भी मेरी आत्‍मीयता बढ़ गई थी। उधर मधुरेश जी का भी तकाज़ा था कि कभी आइए तो आपके साथ मिलकर पुराने रास्‍तों की खोज की जाए। हां हरिशंकर सक्‍सेना भी थे जो 'निर्झरणी‘ पत्रिका के अंक भेजते रहते थे। अपनी एक छोटी अच्‍छी किताब भी भिजवा चुके थे। बरेली के मेरे क्रियाकलापों-प्रसंगों पर मुझसे एक लंबा पत्र लिखवाया था। (पिछले महीनों सुधीर विद्यार्थी जी ने भी 'संदर्श‘ के लिए लिखवाया है) फिर से अपने बचपन के शहर बरेली को देखने के अलावा, इन सब भावनाओं वश, मैं बीकानेर से 7-4-2000 को निकल 8/4 की रात्रि प्रेम नगर बरेली पहुंच गया। घर में बिजली गई हुई थी। सारा घर उमस से भरा हुआ था। मगर फिर भी मन उत्‍साह, प्रफुल्‍लता से भरपूर था। सबसे पहले मधुरेश जी को फोन से अपने वहां पहुंचने की सूचना दी। उन्‍होंने पूरी सूचना ली। यहां क्‍यों नहीं चले आए ? मैंने बताया कि यहां पर अपने मित्र के घर ठहरा हूं। उन्‍होंने रतन जी को अपने बमनपुरी के घर का ठीक ठीक रास्‍ता समझाया और दूसरे रोज़ मिलने का समय तय किया। मधुरेश जी ने भी रतन जी का फोन नंबर भी नोट कर लिया।

दूसरे रोज़ हम दोनों तो सही समय पर बमनपुरी के लिए निकल पड़े; परन्‍तु रास्‍ता, ज़रा भटक गए उधर मधुरेश जी फोन किए जा रहे थे। समझ गए कि हम सही ठिकाने की तलाश में हैं। लिहाजा वे अपने आस पास की गलियों के चक्‍कर काटने लगे। फिर अचानक जैसे हमें पकड़ लिया। बोले-सहगल साहब के चित्र देखता ही रहता हूं। चलिए। वे अपने नए शानदार घर में ले गए। जमकर बातचीत हुई। वे और उनकी पत्‍नी ही वहां रह रहे थे। मधुरेश जी मुझे दूसरे रोज आने और खाने की दावत दे रहे थे। उन्‍होंने मुझे अपनी सद्य प्रकाशित पुस्‍तकें 'हिन्‍दी कहानी का विकास‘ तथा 'हिन्‍दी उपन्‍यास का विकास‘ भेंट कीं। जैसे ही वे थोड़ा अलग हुए, रतन जी ने मुझे समझाया कि खाने की हामी मत भर लेना। नाहक इनकी बड़ी उम्र की पत्‍नी को कष्‍ट होगा। सो मैंने सिर्फ दुबारा आने का वायदा कर, उनके साथ दो ढाई घंटे गुजार बिदाई ली। उस दिन तो रतन श्रीवास्‍तव मुझे बरेली घुमाते रहे। परन्‍तु दूसरे रोज वे ससुराल वालों की सेवा में जुट गए। वे बड़े बड़े सफेद पैठे (काशीफल) ले आए और उनकी बडि़यां बनाने सुखाने में जुट गए। मेर लिए उनके पास समयाभाव था। मुझे बुरा लगा। अपने मुंह फट स्‍वभाव के तहत मेरे मुंह से निकल ही पड़ा कि अगर मुझे पहले से मालूम होता कि आप यहां बडि़यां बनाने के लिए आए हैं तो मैं कदापि आपके साथ नहीं आता।

खैर पहले रोज तो वे मुझे बरेली कॉलेज, विक्‍टोरिया रेलवे स्‍कूल बाजार सिनेमा घर, पुराने जमाने की दुकानें जहां से हम सामान खरीदा करते थे दिखला लाए थे। सुकेश साहनी और बचपन के दो तीन दोस्‍तों से मिलवा लाए थे। सब कुछ बदल गया था। हमारा क्‍वार्टर नंबर T16/A नहीं मिला तो आखिर तक नहीं मिला। एक आदमी हमें लाइनों और इधर उधर घूमते देख, बोला-किसको पूछते हैं ? स्‍थिति स्‍पष्‍ट होते ही वह भी थोड़ा भावुक हो लिया-अजी इतने वर्षों में बहुत कुछ बदल चुका है। वह वाला क्‍वार्टर नहीं मिला तो कोई बात नहीं। मेरे क्‍वार्टर चलिए। हमारे साथ बैठकर चाय पीजिए। हमने उसे हार्दिक धन्‍यवाद दिया और आगे बजरिया की तरफ बढ़ गए। जैसे ही पहला मोड़ आया, मेरे दिमाग में विजय कुमार कोल का नाम कौंध उठा। उसके पिता भी मेरे पिताजी के साथ टी․टी․ई․ थे। कल्‍लू हलवाई का भी पूछा। वह तो किसी ने नहीं बतलाया। अलबता-किसी ने कहा हां कौल साहब यहीं रहते हैं। बहुत बड़े अफसर हैं (थे)। मैंने आगे बढ़कर दरवाज़ा खटखटा दिया। अपने घरेलू कामों में अस्‍त व्‍यस्‍त औरत ने जरा सा दरवाज़ा खोला-क्‍या है।

-क्‍या कोल यहीं रहता है।

-हूं।

-क्‍या वे विक्‍टोरिया रेलवे स्‍कूल में पढ़ते थे।

-मुझे नहीं पता। वैसा ही कुछ कर्कश स्‍वर। उसने फौरन दरवाजा बंद कर दिया। मैं और श्रीवास्‍तव साहब किंकर्त्त्‍ाव्‍यविमूढ़ गली में खड़े थे। तभी बैठक की ओर से दरवाजा खुला-बैठिए।

हम दोनों चुपचाप बैठ गए।

तीन चार मिनट बाद लंबे कद के विजय कुमार, काले बाल किए हुए, प्रकट हुए।

हम उठकर खड़े हो गए।

-क्‍या आप ही कौल साहब हैं।

-जी हां, उन्‍होंने मुझे कुछ क्षणों तक घूर कर देखा-इफ आई एम नॉट मिस्‍टेकन (यदि मैं गलती नहीं कर रहा) यू आर मि․ सहगल। इतना कहते ही उन्‍होंने मुझे ज़ोर से गले लगा लिया। कमाल है पूरे 50 वर्षों बाद उन्‍होंने मुझे पहचान लिया-अपन सातवीं में साथ साथ पढ़ते थे।

यह सारा नजारा उनकी श्रीमती जी दूर खड़ी देख रही थीं। फिर, जैसे उनमें स्‍फूर्ती जाग्रत हो उठी। फौरन थोड़ा सज कर नई साड़ी पहने, हमारे बीच आ बैठीं। तरह तरह की बातें होने लगीं। दो भाई बहन भी हमारे साथ पढ़ा करते थे। एक का नाम राजकुमार था। उसकी बहन का नाम राजकुमारी था। और भी हर तरह की यादें।

श्रीमती कौल तरह तरह के व्‍यंजन जैसे मेरे मुंह में अपने हाथों से डालने लगीं। कोल्‍ड ड्रिंक के बाद चाय का कहने लगीं।

-आप तो कह रही थीं। मैं चाय नहीं पीती।

-पर आपके साथ पिऊंगी।

इससे पहले या बाद में (ठीक याद नहीं कर पा रहा) मैं श्री हरिशंकर सक्‍सेना के पास गया था। उस परिवार ने शायद कोई बासी-वासी ब्रत रख रखा था। जो बन पड़ा मुझे बहुत इज्‍जत आत्‍मीयतता के साथ खिलाया पिलाया। घंटे डेढ़ बाद मैंने उनसे कहा कि मैं अब श्री सुकेश साहनी से भी मिलना चाहूंगा। उन्‍होंने तुरंत फोन मिलाया। कहा- बरेली के सौभाग्‍य हैं कि यहां पर प्रसिद्ध साहित्‍यकार हरदर्शन सहगल आए हुए हैं। आपसे मिलने, भेज रहा हूं। थोड़ी हंसी भी आई कि बरेली के कैसे सौभाग्‍य ? यहां की हिन्‍दी क्षेत्र की सारी जनता, अगर हम साहित्‍यकार कहलाने वालों को छोड़ दें, तो बड़े बड़े नामों तक से परिचित नहीं है, वहां मेरे जैसे अदने को कौन पूछे। बरेली के पूरे साहित्‍य जगत (यदि कोई है तो) में भी कहां थोड़ी सी भी हलचल थी। मेरे नाम की थोड़ी बहुत महत्त्‍ाा तो उस जमाने में थी, जब मैं सहगल साहब टी․टी․ई․ का शाहबजादा हुआ करता था। स्‍टेशन पर बजरिया में, कुछ बड़े बाज़ार के दुकानदारों के बीच-देखो सहगल साहब का लड़का आया है। सबका वास्‍ता टी․टी․ साहब से पड़ता ही रहता था। घर फसलों के मुताबिक गन्‍नों के ढेरों और दीगर सामानों से भर भर जाता था। टी․टी․ज़ का दबदबा। सो मेरा भी रौब हुआ करता था। जिसको चाहूं जहां की यात्रा करवा दूं। सभी विदआउट टिकट यात्रा करना चाहते थे (हैं) इसलिए मेरे सीधे स्‍वाभाव के पिताजी कम से कम बाकफियत बढ़ाना चाहते थे। नौवीं कक्षा में मेरे बहुत अच्‍छे नंबर आए। खुश होकर प्रिंसिपल साहब ने मेरी आधी फीस मॉफ कर दी। छह महीने बाद इंस्‍पैक्‍टर ने चैंकिंग की तो कैंसिल कर दी। कहा कि इसके फादर की सैलरी आधी फीस मॉफ करने लायक नहीं। बकाया रकम भी वापस वसूल की जाए। माता जी ने पिताजी से कहा-जाकर इंस्‍पैक्‍टर और प्रिंसिपल से कहिए कि कम से कम पिछली रकम तो न लें। पिताजी ने जवाब दिया-मान तो जाएंगे। पर सौ बार विदआउट टिकट यात्रा करेंगे। सो नहीं गए।

सुकेश जी भी वास्‍तव में व्‍यस्‍त थे। मेरे लिए थोड़ा समय निकाला। मधुरेश जी भी पुराने रास्‍ते खोजने का समय कहां निकाल पाए। उन्‍हें फोन पर फोन आ रहे थे। यह यह मैटर जल्‍दी से जल्‍दी भिजवाएं। रतनजी के किन्‍हीं पारिवारिक कारणों से आगे फैज़ाबाद या जहां भी जाना था, का कार्यक्रम रद्‌द हो गया। शाहजहांपुर भी चलने को तैयार नहीं हो पा रहे थे। लिहाजा में समय पूर्व ही बरेली से चलकर अपने घर गाजि़याबाद आ गया। बाकी के दिन घर वालों के बीच गुजारें, जबकि गाजि़याबाद रूकने का मेरा कार्यक्रम था ही नहीं। नियमित समय पर बीकानेर आ पहुंचा।

बरेली के विषय में, वापस कुछ और। बीकानेर पहुंचने के बाद मैंने एक संस्‍मरण लिखा था जो तीन जगह छपा। लोगों ने खूब पसंद किया। उसका शीर्षक है 'टूटी हुई जमीन के बहाने ः बरेली‘ उसी की चंद सतरें लिख दूं तो फिर और कुछ आगे या पीछे छूटा हुआ लिखूं। तो बराए मेहरबारी सुन लीजिए कि यह 'टूटी हुई जमीन‘ क्‍या बला (मगरमच्‍छ) है। यह विभाजन पर लिखा मेरे बाल मन के अंतस को बारम्‍बार आहत/उद्वेलित करती स्‍थितियों/परिस्‍थितियों की बेढब दास्‍तां हैं। इसकी कई कई जगहों समीक्षा छपी। अब इसका गुजराती अनुवाद भी बस छपकर आ ही रहा है। इन दिनों इस उपन्‍यास पर बहुत सारी सामग्री 'संचेतना‘ त्रैमासिक में छपकर आई है। मेरा लंबा वक्‍तव्‍य/रचना प्रक्रिया आदि के साथ नई पुरानी समीक्षाएं (डॉ․ नरेन्‍द्र मोहन, डॉ․ हेतु भारद्वाज, डॉ उमाकांत, डॉ गुरचरण सिंह की हैं) अगर उनके निचोड़ में कहा जाए तो यह कि इस उपन्‍यास के एक एक शब्‍द से जो संवेदना ध्‍वनित होती है यह ध्‍वनि Reversion (विपर्यय) की है यानी लौटकर वहीं जाना।

मुद्‌दा यही था कि सोचता रहता कि मैं अपने बिछड़े हुए वतन के शहरों में तो नहीं जा सकता, जहां की त्रासदी, की याद एक तीर समान चुभती है। क्‍या पता मेरे जैसा वहां चला भी जाए तो और दुःखी होकर लौटे। बारीक बारीक कीलों, और भारी हथौडि़यों से सिद्धांतों को गढ़ लेना बुद्धिजीवियों विद्वानों का शगल रहा है। कैसे सारी दुनियां हमारा घर है। ओलिवर गोल्‍ड स्‍मिथ की 'द ट्रैबलर‘ पुस्‍तक में सारी दुनिया की सैर करने के बाद अपने ही देश को सर्वश्रेष्‍ठ बताया गया है। बौद्धिकता और भावनात्‍मकता को यदि अलग अलग स्‍तरों पर देखने-परखने की कोशिश की जाए तभी शायद किसी सही निष्‍कर्ष के निकट पहुंचना आसान हो जाए। मैं नहीं समझता कि कोई मनुष्‍य अपनी जड़ों की तलाश में किसी भी भांति न जाता हो।

मेरे मन में बार बार यही ध्‍वनि बजती रही कि कुंदियां करोड़ लालीसन लायलपुर, पेशावर सखखर किला शेखुपुरा न सही बरेली तो जाया ही जा सकता है। हां यह वही बरेली था, जिसने छोटी सी उम्र में कई कई जगहों के धक्‍के खाने के बाद, अपनी गोदी में संभाला था।

मेरे लिए तो सब कुछ बरेलीे ही है; जहां छोटी उम्र के दोस्‍त रहे हों। मास्‍टरों प्रोफेसरों, महल्‍ले के चाचाओं, चाचियों, मासियों, की शक्‍लें आपके दिमाग में कौंधती हों। गलियों, पाकोंर्, मन्‍दिरों, वालीबाल ग्राउंडों में आपके खून ने लय पकड़ी हो। पसीना बहा हो। और जिस जगह की हवा से जिस्‍म को ठंडक पहुंची हो। कुल मिलाकर आपके अस्‍तित्‍व की ऐसी सिंचाई हुई हो, जिससे आपकी जड़ों ने मजबूती पकड़ी हो, मैं वहां के पाकड़, इमली, जंगल जलेबी, सहजनों के पेड़ों को भी दुबारा पा लेना चाहता था। सिर्फ बरेली में। बेशक यही का यही नक्‍शा किसी दीगर शख्‍स के लिए दीगर शहर का बनता हो जो स्‍वाभाविक है। मेर लिए बस बरेली।

जैसे कोई पुनर्जन्‍म में विचरता है․․․․․․․यहां यह था। यह जगह ऐसी थी। कुछ था। कुछ बदला बदला सा। कुछ शून्‍य।

मधुरेश जी ने मेरा परिचय उभरते हुए लेखक/समीक्षक श्री राजेश शर्मा से कराया। वे मुझे अपने स्‍कूटर पर बिठाए प्रो․ रामेश्‍वर दयालु अग्रवाल के मकान कटरा मानराय ले गए। वह जगह अब खंडर में तबदील हुइर् पड़ी थी। मैंने वहीं खड़े खड़े उनकी स्‍मृति को, जो मेरे रोम रोम में बसी थी, को बहुत देर तक नमन किया। ज़रा दिल पर हाथ रखकर तो देखें कौन ऐसा है जो बुत परस्‍त न हो। मुझे इस हालत में पा कर कुछ अजनबी भी भावुक हो उठे-अब कहां रह गए पहले जैसे शिष्‍य। चाय पीने लेने का इसरार करते रहे।

थोड़ी सी बात तुलनात्‍मक दृष्‍टि से बरेली के साहित्‍यिक माहौल और अपने प्‍यारे बीकानेर के साहित्‍यिक माहौल की किए बिना इस चैप्‍टर की इतिश्री नहीं करना चाहता।

हमारे नगर में जिस प्रकार से बाहर से आए किसी रचनाकार का स्‍वागत सत्‍कार किया जाता है। छोटी सी ही सही एक गोष्‍ठी भी रखवा ली जाती है। अपने दूसरे लेखक मित्रों से भी उसका परिचय भी करवाया जाता है, वैसे बरेली में कहां था। कहने को तो सक्‍सेना मेरे आने को बरेली का सौभाग्‍य कह रहे थे। लेकिन सब कुछ शून्‍य में विलीन था। न तो मधुरेश जी, भले ही उनकी कितनी व्‍यस्‍तता रही हो, मेरे साथ निकले थे। न सक्‍ेसना और न ही सुकेश साहनी। गाजियाबाद जाने वाली गाड़ी बहुत ज्‍़यादा लेट आ रही थी। मैं दुबारा सुकेश जी के यहां जा पहुंचा। रतन जी को जो मुझे स्‍टेशन तक पहुंचाने आए थे; वापस भेज दिया था।

सुकेश जी ने बड़े प्‍यार से बातें की चाय मंगवाई। लेकिन खाना नहीं पूछा, मैं भूखा था। निकट होते हुए भी स्‍टेशन तक छोड़ने नहीं आए। कह नहीं सकता उन्‍हें दफ्‍तर जाना था या कुछ और बात थी। अपनी या बीकानेर वालों की बात करूं तो यह सचाई है कि मैं अनजान लेखकों से ऐसे हिलमिल जाता रहा हूं कि अगले को एहसास भी न हो कि यह मेरे नाम से परिचित नहीं है। कुछ को उनके ठिकाने तक पहुंचा आया। इसे कृपया मेरी डींग न समझे। बीकानेर में यह रिवाज रहा है। सुकेश यह भी कह रहे थे कि यदि यहां तथा कथित साहित्‍यकारों की भीड़ देखनी हो तो एक काव्‍य गोष्‍ठी की घोषणा कर देना ही काफी है। मेरा उत्त्‍ार था-हर शहर में ऐसा ही होता है। मैं फिर रेलवे स्‍टेशन बरेली आ गया। लेकिन मात्र बिल्‍डिंग के वैसा होने से क्‍या होता है। यह पहले वाला बरेली स्‍टेशन नहीं था। मैं अजनबी बना इधर उधर डोल रहा था। गाड़ी अब और लेट हो गई थी। मैंने एक खोमचे वाले से दो तीन ठंडी पुरियां आलू की सब्‍जी ली और धीरे धीरे बेदिली से निगलने लगा। खोमचे रेहड़ी वाले को बताने लगा कि मैं यहीं का रहने वाला था। रेहड़ी वाला दूसरे ग्राहकों में व्‍यस्‍त हो गया। मैं आधी पूरियां सब्‍जी, प्‍लेटफार्म के नीचे लाइनों पर बिखेर आया और फिर से गाड़ी के आने का इंतजार करने लगा-आजा गाड़ी मुझे यहां से ले जा। दिल उचट गया था।

गाड़ी आई तो मैं फर्स्‍ट क्‍लास क्‍म्‍पार्टमेंट में एक केबिन में जाकर बैठ गया। सारे ही केबिन खाली थे। मैं अब ज्‍यादा कुछ न सोचकर, अपने दिमाग को खाली रखना चाहता था।

ठीक याद नहीं गाड़ी ने कितने स्‍टेशन पार किए कि एक स्‍टेशन पर गाड़ी के रूकते ही कोई पैसिंजर तो नहीं, पांच एक हट्‌टे कट्‌टे पुलिस के जवान आ चढ़े। मेरे वाले केबिन में आ बैठे और सबने अपनी पुलिसियां जबान को बेलगाम छोड़ दिया। बड़े जोशो-ख्‍़ारोश से कहना चाहिए खुश मिज़ाज़ी लिये एक दूसरे को मां बहन के अंगों की अनंत गिनती, हर वाक्‍य में तरह तरह की भंगिमाओं के साथ, बड़े ही सामान्‍य ढंग से करवाने में मशगूल हो गए। मैंने पाया, यह उनकी आपसी बातचीत का सामान्‍य स्‍वरूप है। उन्‍हें नहीं लगता कि हमारे समाज का बहुत बड़ा तबका इसे 'निहायत गंदी‘ जबान भी कहता है। उन पुलिसकर्मियों को यह एहसास ही नहीं हो पा रहा था कि सामने कोई जानवर नहीं आदमी बैठा है।

मैं एकदम से शर्मसार हो, वहां से अपना सामान उठाकर दूसरे कैबिन में जा बैठा। गाड़ी और लेट होती जा रही थी। श्री रतन श्रीवास्‍तव को मेरी बड़ी चिंता थी कि सहगल साहब को अकेला भेज दिया। वे बार बार मेरे बड़े भाई साहब को गाजि़याबाद फोन कर, उनसे मेरे सकुशल पहुंचने का समाचार जानना चाहते थे। मेरे न पहुंचने से भाई साहब भी परेशान हो उठे। वे कभी छोटे भाई को तो कभी तमाम दूसरे घरों को फोन करने लगे। और तब वे सब भी परेशान होकर एक दूसरे को दो दो मिनट में फोन करने लगे।

गए रात मैं गाजि़याबाद पहुंचा तो कहीं शांति हुई। तब मुझे सहसा उस दिन (15 अप्रेल 1991) की याद ताज़ा हो आई जब मैं अकेला दिल्‍ली गया हुआ था। एक दिन पहले डॉ महीप सिंह जी के बेटे की शादी थी- 15 को श्री लक्ष्‍मी शंकर वाजपेयी जी से मिला था। वे मुझे श्री विजय से मिलवाने लक्ष्‍मी नगर, दिल्‍ली दूरदराज के इलाके में ले गए थे। बसों ने बहुत ही ज्‍यादा देरी करा दी थी। इस तरह मैं किसी तरह रात्रि साढ़े नौ बजे गाजियाबाद घर पहुंच पाया था। इस दौरान भी सारे के सारे घर वाले मेरे लिए बुरी तरह परेशान हो उठे थे। सबसे ज्‍यादा परेशान थीं मेरी भाभी राजरानी। वह बार बार भाई साहब से कहतीं किसी तरह से दर्शन को लाओ। न जाने किस हाल में है। इतना देरी करने वाला तो वह है नहीं।

मगर आज भाभी इस दुनिया में नहीं थीं। (उनकी आत्‍महत्‍या का जिक्र पहले कर आया हूं) इसलिए वे दुनियादारी की तमाम चिंताओं, जिम्‍मेदारियों से मुक्‍त थीं। तब मेरी वही रटी रटाई सोच सिर उठाती है िक क्‍या आदमी दुनिया में चिंताएं करने के लिए ही पैदा होता है ? इस तरह की नहीं तो, उस तरह की, ऐसी नहीं वैसे वैसी चिंताएं। अपनी नहीं तो दूसरों की चिंताओं से ताउम्र घिरा रहता है। 'चिंता मुक्‍त कैसे हों।‘ 'तनाव से छुटकारा कैसे पाए‘ जैसी किताबों की डगमगाती किश्‍ती पर मनुष्‍य हरदम हिचकोले खाता रहता है। फिर उसे बड़ा हिचकोला अंततः ले डूबता है। सारे बंधनों से मुक्‍त हो जाता है। कोई बड़ा नेता, या किसी भी किस्‍म का, बड़ा कहलाने वाले के नाम को बहुत से लोग उसके कद के अनुसार कुछ लंबे कुछ थोड़े समय तक अखबारों में छोटी, बड़ी बड़ी श्रद्धांजलियां छपवा छपवा कर सब लोगों को उनकी याद दिलवाते रहते हैं। आखिर कब तक। उनके जाने पर जिन्‍हें वास्‍तविक कष्‍ट होता है, वहीं बंधन मुक्‍त नहीं होते। कुछ लोग, जो लावारिस रूप से सड़कों, नालों के किनारे पड़े रहते हैं वे तो, भी सही मायनों में मुक्‍त हो जाते हैं। उनका कोई नाम लेवा नहीं होता। किसी को अपने पीछे बांधकर नहीं जाते।

अब थोड़ा आगे बढ़ा जाए। भूमिका में भी ऐसा उल्‍लेख किया है कि मेरे कुछ मित्रों का मत है और आग्रह भी है कि चूंकि मैं साहित्‍य से जुड़ा हुआ आदमी हूं, अतएव मुझे साहित्‍य पर, साहित्‍यकारों उनके झमेलों पर ही ज्‍़यादा लिखना चाहिए। इस विषय पर थोड़ी सी मेरी अर्ज भी सुन ली जाए। मेरा मानना यह भी है कि कुल आबादी में बमुश्‍किल एक प्रतिशत लेखक हुआ करते हैं। तो क्‍या हम निनानवें प्रतिशतों को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं। बल्‍कि मेरे लिए तो वे नजरनवाज़ बने। जो भी लिखने वाला है, वह अपनी रचनाशीलता, प्रत्‍यक्ष अथवा परोक्ष रूप से इन्‍हीं से ही तो जीवन के विविध पक्ष ग्रहण करता हुआ आगे चलता जाता है। मुझे लगा वही हमारे लिए ज्‍यादा सहायक होते हैं। हमें पते की बात बताकर, हम पर कोई अहसान नहीं जताते। खैर वह बात भी सही है। तो वह भी सही। मैंने अपनी सीमाओं में खूब साहित्‍यिक वैचारिक कृतियों का पठन किया। साहित्‍यकारों की जीवनियां पढ़ीं। उनके संस्‍मरण, उनके आपसी पत्र भी पढ़े। उनकी सोच से भी साक्षात किया। उनकी आत्‍मीयता भी परखी। उनके झमेले। उनकी परस्‍पर झपटें, गाली गलोज, एक दूसरे को धमकियां देने, मारने पीटने तक के किस्‍से सुने/पढ़े। तू बड़ा या मैं ?

मैं यहां बड़े विचित्र मोड़ पर आ गया हूं। मैं अपने जीवन संघर्षों, विसंगतियों, त्रासदियों का सिलसिलेवार वर्णन करूं या साहित्‍यकारों या कुछ कम ज्‍यादा तथाकथित साहित्‍यकारों विद्वानों पर टिप्‍पणी करूं। उस हिसाब से तो मैं इस विषय का अधिकारी मर्मज्ञ हूं नहीं। वैसे भी देखा जाए तो मैं बड़े तबके के, बड़ी संख्‍या के नाम कमाए हुए साहित्‍यकारों से रू ब रू हुआ ही नहीं हूं। या नाम मात्र को।

एक बार हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स में यात्री जी के साथ गया था। वहां पर सीढि़यों में श्री श्‍याम मनोहर जोशी जी को देखा था। उनसे पूछा था कि आप 'सन्‍नाटा शहर में या सहित्‍य में‘ कालम दे रहे हैं। हमारे बीकानेर के युवा गोस्‍वामी लेखकों ने भी इस कालम के लिए कुछ लिख भेजा है। उनका नंबर कब आएगा ?

-ओह बीकानेर ? बीकानेर क्‍या है। अभी बहुत सारे बड़े बड़े शहर पड़े हैं। इतना कहने के बाद वह खूब हंसे थे। इस बात पर नहीं एक शानदार चुटकुलानुमा वाक्‍य यात्री जी को समझाया था-पता है सुख क्‍या है ? खीं खी खीं। करते हुए वे सीढि़यां उतर गए थे। इसी एक वाक्‍य से जो, श्‍याम मनोहर जोशी जी के हवाले से लिखा है, वे अंदाजा लगाया जा सकता है कि, बाहर के लोग हम बीकानेर के लेखकों को कितना महत्‍वहीन समझते हैं जो महानगरों से दूर एक कोने में बैठकर चुपचाप काम कर रहे हैं। मेरी स्‍थिति भी कमोबेश ऐसी ही है। फिर हम ऊपर पहुंचकर हिमांशु जोशी के पास भी एक मिनट के लिए जा खड़े हुए थे। कोई खास बात याद नहीं। हां याद आई वे उपेन्‍द्रनाथ अश्‍क जी के बारे में बता रहे थे कि यहां आए हुए हैं। अपने सामने अपना मैटर छपवा रहे है। जब मैटर छप रहा होता है तो रूकवा देते हैं कि नहीं नहीं ठहरो ठहरो। फिर से उसमें संशोधन करने लगते हैं। कितनी बार ऐसा कर चुके हैं-ठहरो ठहरो। अब हम क्‍या करें। क्‍या कहें इतने बड़े लेखक को। कितना कागज बरबाद करवा डाला।

हम नीचे मैदान में चले गए थे। वहां पर भगवा लंबा झोला कंधे पर लटकाए एक शख्‍स को देखा तो यात्री जी उधर बढ़कर उनके सामने जा खड़े हुए। यात्री जी ने बताया-अश्‍क जी हैं। अश्‍क जी ने स्‍नेहिल दृष्‍टि मुझ पर डाली।

यात्री जी ने मेरा परिचय दिया कि खूब अच्‍छा लिख रहे हैं।

अश्‍क जी ने कहा-पंजाबी लगते हो। खूब अच्‍छा लिखो।

और खास बात नहीं है। मैंने उन्‍हें बहुत आदर के साथ देखा था। मैंने अश्‍क जी की कहानियां उनके संघर्षों उनके नई कहानियों तथा नई कहानियों के कहानीकारों पर उन द्वारा की गई टिप्‍पणियां खूब पढ़ रखी थीं पर संकोचवश इन विषय की कोई बात न चलाई।

वहां पर डॉ वीरेन्‍द्र सक्‍सेना भी मिले थे। अपनी नई छपी किताब दिखला रहे थे विशेष रूप से समर्पण जो उन्‍होंने अपनी धर्मपत्‍नी को लक्ष्‍य कर लिखा था 'जितनी निकट ः उतनी विकट‘। यह लाया था। पता नहीं क्‍या काम था। वे मुझे अपने स्‍कूटर के पीछे बिठाकर कहीं ले गए थे।

कभी रमेश रंजक भी कुछ मिनटों के लिए मिले थे। लाजवाब कवि। पर सब की चर्चा कहां होती है। अपना अपना भाग्‍य। उन्‍होंने अपनी निहायत उम्‍दा कविता 'एक सवारी और मिले तो चल दें भाई‘ जो तांगे वाले पर थी, सुनाई थी। पंक्‍तियां मुझे आज भी उद्वेलित करती हैं। ऐसे ही कभी पुस्‍तक मेला में एक सज्‍जन को देखकर मुझे कुछ शक हुआ तो पूछ बैठा-आपका नाम ?

-गंगाप्रसाद विमल।

-आपकी फोटो देखी थी सो पहचान गया।

-धन्‍यवाद। आप ?

-हरदर्शन सहगल। क्‍या मुझे जानते हैं।

-अरे आपको पढ़ते पढ़ते तो बूढ़ा हो चला हूं। उन्‍होंने बड़ी शालीनता से मेरा नोिटस लिया। बस हो गई मुलाकात।

अहमदाबाद वाले सम्‍मेलन का जिक्र कर ही आया हूं जहां पर बहुत सारे चर्चित अचर्चित लेखकों से रू ब रू हुआ था। मैंने बहुत से लेखकों की कृतियों को पढ़ा। उनके क्रियाकलापों के विषय में पढ़ा। सुना। किसी से खास दोस्‍ती नहीं हुई। हां खतो किताबत बहुत से होती रही।

यात्री जी ने मुझे 'घर घुसरू‘ घोषित कर ही रखा है। श्री विभूति नारायण जी जब तक यहां रहे यही कहते रहे कि सहगल साहब कहीं बाहर निकला कीजिए-चलिए हमारे साथ दिल्‍ली। कृष्‍णा सोबती से मिलवा लाएं। इससे उससे जिस जिस से कहें मिलवा लाएं। कई नाम।

इस तरह की वाकफियतें पैदा करने की शुरू ही से आदत नहीं रही। जो संयोगवश मिल गया, सो ठीक। जो जो बीकानेर आ गया था, जिन महान हस्‍तियों को बुलवाया गया, उन्‍हें आदरपूर्वक घर बुलाया, जो बन पड़ा सेवा की। पर ज्‍यादातर ने इसे अपना 'हक‘ समझा और अगले को याचक। बाद में तू कौन और मैं कौन। किसी चिट्‌ठी का जवाब तक नहीं। ऐसे नामों में मुख्‍य नाम सुश्री नासिरा शर्मा का लेना चाहूंगा। जिनसे कभी मेरी मुलाकात डॉ महीप सिंह जी के सुपुत्र की शादी में हुई थी। फिर उनके बीकानेर आगमन पर उन्‍हें अपने घर ले आया था। अब लगता है जैसे इसी को 'आधुनिकता‘ कहा जाता है। हम बड़े, अगला गौण। तो क्‍या मिलिए ऐसे लोगों से।

जब तब अपनी उपेक्षा होते पाता हूं तो सच कहता हूं ऐसे महारथियों को पढ़ना ही छोड़ देता हूं। इसे भले ही मेरी कमजोरी या कि हीन भावना कहिए। परन्‍तु मेरे तर्क को भी आप नकार नहीं सकते कि इन्‍होंने ऐसे कौन से तीर छोड़ रखे हैं कि जिन्‍हें पढ़े बिना हमारा गुजारा नहीं। कारण स्‍पष्‍ट है कि संसार में इतना कुछ, खूबसूरत सहज ग्राह्‌य क्‍लासिक साहित्‍य भरा पड़ा है कि सौ जन्‍म भी लें तो पूरा न पढ़ पाएं।

फिर तसल्‍ली करता हूं। मुझ से बहुत बहुत बड़ों की भी साहित्‍य जगत में उपेक्षा हुई तो मुझे भी इसे सहज रूप में ही ले लेना चाहिए। वास्‍तव में इसी में संतुष्‍टि मिलती है।

मैंने कृष्‍णचंद्र, भिक्‍खू जी को जी जान से पढ़ा। खास तौर से 'रक्‍त क्रांति‘ और 'मौत की सराय‘ ने मुझे इतना उद्वेलित किया था कि नींद उड़ जाती थी। रात रात भर बैठकर इन्‍हें पढ़ता रहता था और सोचता रहता कि क्‍या कोई इतनी सरल वाणी में तटस्‍थ भाव से इतनी हृदय विदारक स्‍थितियों, पांच पांच पीढि़यों का शोधपरक विवरण, चित्रण अपने अनूठेपन के साथ कर सकता है। पुस्‍तकें मैंने लाइब्रेरी से लेकर कोई 20-30 साल पहले पढ़ी थीं फिर भी मुझे उनका पाठ याद था। 'इंडिया टुडे पत्रिका‘ ने सदी या पचास सालों की उत्त्‍ाम/उत्‍कृष्‍ट उपन्‍यासों का सर्वेक्षण हेतु प्रस्‍ताव मांगे थे। मैंने उनको शर्तों के अनुसार एक पृष्‍ठ में दोनों ही नॉवलों की संस्‍तुित की थी। साथ में यह भी लिखा था कि न तो मैं कभी लेखक से मिला हूं , न ही कभी मेरा उनसे पत्राचार ही हुआ है। इससे बढ़कर निष्‍पक्ष टिप्‍पणी हो ही नहीं सकती कि इतनी मुद्‌दत पहले पढ़ीं, और बिलकुल भी उन्‍हें बिना पलटे यह सब लिख रहा हूं। इनाम/परिणाम किन्‍हीं दूसरों के नाम ही निकलना था, सो निकला।

मैंने अपनी संस्‍तुति की कार्बन कापी रख छोड़ी थी, जिसे मैंने पत्र के साथ नत्‍थी कर भिक्‍खू जी को भेज दी।

भिक्‍खू जी का उत्त्‍ार आया था-सहगल साहब। आप क्‍यों परेशान होते हो। सबके अपने अपने मानदंड हुआ करते हैं। उन्‍होंने इसे उदारतापूर्वक लेते हुए किसी की भर्तसना नहीं की थी। फिर भी मुझे लगता है कि साहित्‍य जगत ने उनकी उपेक्षा की है। ऐसी उपेक्षाओं के शिकार, मात्र भिक्‍खू ही तो नहीं हुए। हृदयेश जी ने भी अपने आत्‍मकथ्‍य में ऐसा ही कुछ लिखा है कि दो इंच के छोकरे, जैसे हमें धमका सा जाते हैं, क्‍योंकि उनके सिर पर गॉड फादर बैठे हैं। यही पीड़ा डॉ रामदरश मिश्र की। ऐसी ही पीड़ा विष्‍णु प्रभाकर जी की रही। दो तीन वर्ष पूर्व श्री भारत भारद्वाज मेरे यहां पधारे थे। वे डॉ विशम्‍भरनाथ उपाध्‍याय का नाम ले रहे थे कि इतना कुछ लिख लेने के बाद उन्‍हें उचित स्‍थान नहीं मिला।

तब मुझे थोड़ी हंसी सी भी आती है कि तू उनके सामने है ही क्‍या ? फिर तेरा दोष; तू विश्‍वविद्यालयों से दूर, रेलवे की 'की‘ (वायरलैस-इंस्‍ट्रूमेंट) पीटता रहा। कोर्स में तो विश्‍वविद्यालयों वालों, या कुछ अप्रोच लड़ाने वालों को लिया जाता है। हां इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ वास्‍तविक प्रतिभाशालियों को इगनोर नहीं किया जा सकता। पर तुम कहां स्‍टैंड करते हों। फिर अपने बीकानेर ही को क्‍यों दोष दूं। हर जगह जातिवाद का बोलबाला है। पर मैं इसे भी ज्‍यादा तवज्‍जों नहीं देता। ताे अपने में एक अलमस्‍त शहर है। चंद ही रोज़ पहले मुझे 'राजस्‍थान पत्रिका‘ अखबार में पुश्‍किन की उक्‍ति पढ़ने को मिली कि हजार भ्रांतियों में जीने वाला व्‍यक्‍ति ज्‍यादा सुखी रहता है। खूब पुश्‍किन साहब खूब कहा। बीकानेर ही क्‍या और भी तो बहुत लंबी सूची के आला दर्जें के 'साहित्‍यकार‘ बसते होंगे जिनसे बढ़कर कोई दूसरा नहीं।

एक शानदार बात याद हो आई, थोड़ा जिक्र कर आया हूं। थोड़ा और यहां पर एडवोकेट श्री गोपाल आचार्य बड़े दर्जे के वकील हुआ करते थे। उन्‍होंने न्‍यायालय पर लाजवाब कृतियां लिखी थीं। प्रकाशक बस बीकानेर के। यहां के हमारे साथी अच्‍छा लिख लेने के बावजूद बीकानेर से बाहर यथा दिल्‍ली, वाराणसी, लखनऊ, इलाहाबाद आदि से अपना कुछ छपवाने की कम ही जुर्रत करते हैं। न ही बाहर के बड़े चर्चित लेखकों को जानते हैं सिवाए अपने को और यहां के अपनों को, मुशयरा वालों, मंचों पर बोलने वालों के।

बीकानेर एरिया में एक जाने माने नाटककार हैं उनके बहुत बहुत ज्‍़यादा नाटक खेल चुके हैं अकादमी आदि से सम्‍मानित भी हुए हैं। वह भी रेलवे ही से सेवानिवृत्त्‍ा हुए हैं। एक बार, जैसे कोई डींग मारता है, मुझसे बोले थे कि न तो मैं किसी का कुछ पढ़ता हूं और न ही आज तक किसी पत्रिका का ग्राहक ही बना हूं। शायद उनका मन्‍तव्‍य भी कुछ और लोगों की तरह रहा होगा कि पढ़ने से अपनी स्‍वयं की मौलिकता का हनन होता है।

दूसरी डींग मारने वाले कुछ भोले लोगों की बात मुझे मेरे एक मित्र श्री बुलाकी शर्मा ने बताई थी कि हमने तो नगर न्‍यास विकास का पुरस्‍कार फ्‍लाने फ्‍लाने मंत्री जी की सिफारिश भिड़ाकर हासिल किया था।

प्रादेशिक साहित्‍य अकादमी की सहायता, पांडुलिपि प्रकाशन योजना के अंतर्गत हासिल करने वाले भी हर जगह शान दिखलाते हुए देखे जा सकते हें। सहायता राशि सारी से भी ज्‍यादा यहां वहां का प्रकाशक हड़प कर जाता है।

इन प्रसंगों पर लिखते हुए कलम थोड़ी डगमगामी है कि मैं अपनी जीवन गाथा लिख रहा हूं या अपने नगर का लेखा-जोखा बयान कर रहा हूं। शायद इसकी जरूरत नहीं थी। पर मेेरे मित्रों ने लिखवा दी। वैसे यह जरूर बताना चाहूंगा कि स्‍वर्गीय हरीश भादानी जी ने जब वातायन पत्रिका का पुनर्प्रकाशन करने की योजना बनाई थी तो वे ग्राहक बनाने हेतु यहां के साहित्‍यकारों के घर घर गए थे। उनकी सूची-संख्‍या साढ़े तीन सौ तक जा पहुंची थी। बीकानेर से बाहर पहचाने जाने वालों की संख्‍या आप बता दें।

इस पर भी तो वातायन के ज्‍यादा अंक नहीं निकल पाए थे। राजस्‍थान से 'बिन्‍दु‘ नंद चतुर्वेदी निकालते थे। 'अणिमा‘ शायद शरद देवड़ा द्वारा निकलती। अकथ का डेढ़ अंक मणिमधुकर ने निकाला थी। लहर (प्रकाश जैन, मनमोहिनी) ने वास्‍तव में लंबे समय तक खूब चमक दिखलाई थी। यह भी मशहूर था कि वहां कोई भी स्‍तरहीन रचना प्रकाशित नहीं होती। प्रकाश जैन मंजे हुए संपादक थे। इसी प्रकार हरीश भादानी भी बहुत नेक नरम दिल इंसान विद्वान संपादक थे। परन्‍तु कोई भी संपादक हो, उसके पास प्रकाशनार्थ रचनाओं का अंबार सा लगना शुरू हो जाता है। सो वह बहुत सारी अच्‍छी रचनाएं बिना पढ़े भी लौटा देता है। इसका आंखों देखा उदाहरण प्रस्‍तुत कर रहा हूं।

'वातायन‘ शुरू हो चुकी थी। जब भी हरीश जी मिलते कहते- भई तुम तो हमें कोई कहानी वगैरह दे नहीं रहे हो। तब एक बार मैं हरीश जी के घर, छबीली घाटी जा पहुंचा और कहा-लीजिए भाई साहब एक साथ दो रचनाएं। एक कहानी है और एक लेख।

हरीश जी ने कहानी रख ली- यह तो ठीक है (बिना पढ़े) पर लेख को तुम वापस ले जाओ (बिना पढ़े)।

मैंने कहा- लेख आप बेशक मत छापें लेकिन मेरा अनुरोध है कि इसे पढ़कर मुझे लौटा दें।

लेख पढ़ते ही उनकी नस नस में जैसे स्‍पनदन हो उठा। वाह खूब। बाद में उन्‍होंने कहानी से पहले उसी लेख को हाईलाइट करते हुए शीर्षक दिया था 'स्‍वभाषा का महत्त्‍व‘ के संदर्भ में इतिहासवेत्त्‍ाा डॉ रघुबीर का अनुभव रचनाकर्मी हरदर्शन सहगल के माध्‍यम से डॉ रामेश्‍वर दयालु अग्रवाल से प्राप्‍त।

फिर यही लेख आप से आप दूसरे तीसरे संपादक आपसे आप लेते गए। बहुत बाद में मैंने इसका सरलीकरण बच्‍चों की 'देव पुत्र‘ पत्रिका में भी छपवाया। वहां के श्री विकास दवे बहुत प्रभावित हुए। इस प्रकार की और और सामग्री मुझसे मंगवा कर अपनी लाइब्रेरी में सहेजे हुए हैं। शोधार्थियों की खातिर। कहने का वही तात्‍पर्य कि संपादक महोदय गंभीरतापूर्वक रचनाओं पर नजरे इनायत तो रखें। जब संपादक लोग अपनी नियमावली में कड़े नियमों की फिहरिस्‍त 'अप्रकाशि अप्रसारित मौलिक‘ जारी करते हैं तब स्‍वयं क्‍यों बिना लेखक को बताए उन्‍हीं रचनाओं को अपनी पत्रिका में छाप लेते हैं।

अगर ऐसे पचड़ों और पुरस्‍कारों पर लिखने लगूं कि मुझे कैसे किस तरीके से पुरस्‍कारों से वंचित किया गया तो 'बात बनाए न बने‘ हो जाएगी।

लिखना तो मात्र इतना ही चाहता था कि हमारे राजस्‍थान की इतनी खूबसूरत दमदार ऊपर वर्णित सब पत्रिकाएं दम तोड़ गईं। डेढ़ दो साल तक डॉ हेतु भारद्वाज ने 'माजरा‘ नाम से बहुत बढि़या पत्रिका निकाली थी। वह भी बंद हो गई। हां एक जोधपुर से लगातार छपने वाली उत्‍कृष्‍ट पत्रिका 'शेष‘ है। परन्‍तु कुछ लोग अपने ही कारणों से 'शेष‘ के संपादक श्री हसन जमाल को पसंद नहीं करते। वे एक तो हिन्‍दी/उर्दू की लाजवाब रचनाएं छापते हैं। दूसरी उनकी सबसे बड़ी खूबी उनका निर्भीक सरल भाषा में लिखा संपादकीय होता है। वह किसी भी गैरवाजिब मुद्‌दे, और आदमी को नहीं बखश्‍ते चाहे वह केन्‍द्रीय मंत्री, प्रधानमंत्री, मुख्‍यमंत्री ही क्‍यों न हो।

हसन जमाल जी मेरे जिगरी दोस्‍त बन गए, जबकि मैंने उन्‍हें कभी देख तक न था। उनके मेरे पास ढेरों पत्र हैं।

एक बार हसल साहब का पत्र आता है कि चंदौसी से मुझे 'परिवेश सम्‍मान‘ से नवाजा जाना है। यहां जोधपुर में मुझ पर कोई भी लेख लिखने को तैयार नहीं है। क्‍या आप मुझ पर कुछ लिखकर दे सकते हैं ः गोकि आपने मुझे देखा तक नहीं, कदकाठी इतनी रंग ऐसा․․․․․․।

मैंने तुरंत उत्त्‍ार दिया ''छोड़ो यह कदकाठी मैं आपके व्‍यक्‍तित्‍व से भलीभांति परिचित हूं। मुझे आप पर लिख्‍ाकर फ़क्र होगा।

लिखने को तो मैंने लिख दिया, लेकिन तभी बुखार ने मुझे आ घेरा। इसके बावजूद मैंने समय से पहले हसन जमाल के खतूत और एडिटोरियल आदि को आधार बनाकर लेख लिख भेजा 'अपने काम से काम रखने वाले हसन जमाल।‘ यह 'परिवेश‘ पत्रिका में छपा और खूब चर्चित हुआ। ज्‍यादातर जीवनीकार पर आरोप लगते हैं कि वह अपने को हीरो बना लेता है। कृपया यह तोहमत मुझ गरीब पर न लगाएं।

मैं यहां अपनी कोई डींग नहीं मार रहा। इतना भर कहना है कि हमें अपने शब्‍दों का सम्‍मान तो रखना ही रखना चाहिए। किंतु अफ़सोस आज के जमाने में यह प्रायः हर जगह नदारह है। सोचता हूं कम से कम यह मानवीय मूल्‍य बना रहता। कुछ संपादक लोग फोन पर रचना की स्‍वीकृति देते हैं। बाद में पूछते हैं कि आपके पास लिखित स्‍वीकृति पत्र है क्‍या ?

हम साहित्‍यकार कहलाने वाले लोग दुनिया भर को नैतिकता, अहिंसा हर एक का सम्‍मान करने जैसी अनेक चीजों का पाठ पढ़ाने वाले, यह कभी नहीं सोचते कि हमारे स्‍वयं का आचरण कैसा है।

बीकानेर में मुझे अपने साहित्‍यिक, छोटे बड़े मित्रों का भरपूर प्‍यार मिला। यथा सर्वश्री लक्ष्‍मी नारायण रंगा, कमल रंगा, बुलाकी शर्मा, राजेन्‍द्र जोशी, उपध्‍यानचंद कोचर, भवानी शंकर व्‍यास 'विनोद‘, अरविंद ओझा, सुशीला ओझा, आदर्श सक्‍सेना, अशफाक कादरी, मदन केवलिया, देवी प्रसाद गुप्‍त, उमाकांत गुप्‍त, महेश चंद जोशी, मंदाकिनी जोशी, वत्‍सला पांडेय, पूणिया, ममता सिंह, मनोहर चावला, नवनीत पांडेय, सोहनसिंह भदौरिया, सोहन सिंह पारी,क रूपा पारीक, प्रमोद शर्मा, प्रज्ञा भादानी, गणेश सुथार, प्रीति कोचर, पृथ्‍वीराज रत्‍नू, सत्‍यप्रकाश आचार्य, सुलक्षणा दत्त्‍ाा, श्‍याम महर्षि, विद्या सागर आचार्य। कुछ बाहर के भी। अल्‍फाबेट डायरी उठाऊं तो बहुत से इतने कि सबके नाम गिनवाना गैर जरूरी भी हाे सकता है। जिनसे आत्‍मिक प्रेम है। जरूरी नहीं कि अभिव्‍यक्‍ति में लाजमी तौर से आ पाएं।

थोड़ी बात श्री बुलाकी शर्मा की कर ली जाए जिन्‍हें व्‍यंग्‍यकार बुलाकी शर्मा के नाम से अखबारों पत्रिकाओं में देखा जा सकता है। उनका रूझान युवावस्‍था से ही व्‍यंग्‍य की ओर रहा। उन्‍होंने प्रारम्‍भ में, यहां के व्‍यंग्‍यकारों की रचनाएं संकलित की थीं। मैंने भी व्‍यंग्‍य लेखन किया था, परन्‍तु वे मेरी ओर नहीं आए। हम एक दूसरे को जानते नहीं थे। श्रीडूंगरगढ़ में एक साहित्‍यिक समारोह हमारी पहली मुलाकात हुई। तब बीकानेर वापस आने पर हमारी दोस्‍ती प्रगाढ़ हुई। एक बार उन्‍होंने मुझसे कहा था कि ''सहगल साहब ऊपर से सभी आपका खूब सम्‍मान करते हैं, किन्‍तु जब किसी लाभ/सार्वजनिक सम्‍मान देने की बात आती है, तब जो जो भी कमेटी में होते हैं, आपका नाम भूल जाते हैं।‘‘

-अगर यही बात मैं अपने मुंह पर लाऊं तो लोग बाग मुझे कुंठित कहेंगे। और गीता जैसी सीख देने वालों की भी कमी नहीं। आप तो बस अपना काम करते रहें।

साहित्‍यकारों, कहिए या कुछ बड़े कहे जाने वाले साहित्‍यकारों से रूबरू होने वाली बात कहूं तो, अन्‍य बड़े साहित्‍यकारों के मुकाबले, मेरी रूबरू होने की बात बहुत ही कम हैं। इन दिनों घंटा घंटा, डॉ राजेन्‍द्र मोहन भटनागर से, फोन पर अंततरंग बातें होती रहती हैं। बकाया साहित्‍यकारों के विषय में लिख ही आया हूं। बड़े बड़े, हफ्‍तों वाले सैमिनारों में बुलाया नहीं जाता। दोस्‍ती कैसे होती। मैं बीकानेर का हूं। मैं कुछ कुछ गाजि़याबाद का हूं। अब था। तो दो ही चर्चित साहित्‍यकारों का सान्‍निध्‍य मुझे प्राप्‍त हुआ। श्री यादवेन्‍द्र (अब दुर्भाग्‍यवश स्‍वर्गीय कहना पड़ रहा है) एक दम मेरे प्रशंसक और मददगार साबित हुए। उनका व्‍यक्‍तित्‍व सौफीसद निष्‍कपट था। श्री से․रा․ यात्री भी निहायत नर्म दिल वाले। कुछ मददगार भी। पर मल्‍टी नेचर्ड कहूं तो उन्‍हें बुरा नहीं मानना चाहिए। यह मेरा निजी दृष्‍टिकोण है। उनके प्‍यार में मेरे लिए कमी नहीं, किन्‍तु उनकी उल्‍टी बयानबाजी कभी कुछ, तो कभी कुछ जैसी भी रही है। हां लापरवाह तो हैं ही। एक मन का पाप कहूं-सोच आती है यदि उनकी बिटिया प्रज्ञा यहां न ब्‍याही होती तो बाकी के तथाकथित लेखकों की तरह मुझसे पेश आते।

एक बार मैं अपनी नव प्रकाशित पुस्‍तक लेकर राजेन्‍द्र यादव जी के कार्यालय 'हंस‘ में गया। मेरी पत्‍नी भी साथ थीं। राजेन्‍द्र जी ने बधाई देते हुए कहा-तुम्‍हारी किताब की समीक्षा किससे करवाई जाए। कई नामों पर चर्चा हुई। फिर बोले अरे तुम यात्री से क्‍यों नहीं लिखवा लेते। वह तो तुम्‍हारा पक्‍का यार है।

मैंने बताया-उनसे कहा था तेा बोले-लिख तो दूं , मगर राजेन्‍द्र यादव छापेगा नहीं।

-बताओ उसका फोन नं। ढूंढ़ने लगे।

मैंने अपनी डायरी से झट से नंबर निकाल दिया। उसी तत्‍परता से राजेन्‍द्र जी ने फोन मिलाया। दोस्‍ताना अंदाज में डांट का स्‍वर निकाला- क्‍या कहा सहगल जी से कि तुम समीक्षा लिख कर दोगे और मैं छापूंगा नहीं। फौरन उठ और यहां चला आ। मगर यात्री जी के मन में जो था सो था। टस से मस न हुए।

बाद में कहते हैं कि तुम्‍हारी फ्‍लानी किताब की समीक्षा 'इंडिया टुडे‘ को लिखकर दी 'आजकल‘ 'कादम्‍बिनी‘ आदि आदि को लिख लिख कर दी। नहीं छपी। उन्‍होंने नहीं छापनी थी (उनकी) मंशा में खोट था।

-यात्री जी ठीक कह रहे हैं आप यह तो संपादक पर ही निर्भर करता है कि क्‍या छापे। क्‍या न छापे। पर आप मुझे उनकी प्रतिलिपियां तो दे दें। और कहीं छप जाएंगी। और कुछ नहीं तो मेरे शोध विद्यार्थियों के ही काम आ जाएंगी।

- मैं कभी प्रतिलिपि और पुस्‍तक नहीं रखता। संपादकीय कार्यालय में पटक आता हूं। बस।

शाबाश यात्री जी, आप महान हैं। या कि महान लेखक हैं। दुनिया कहती है-सहगल, तुम यात्री को जितना सहज समझते हो, यह तुम्‍हारा भोलापन है।

मगर टोटली ऐसा भी नहीं। वे मेरे एजेंट की भांति मेरे उपन्‍यास 'टूटी हुई जमीन‘ का प्रचार करते हुए दिखते थे। खुद जाकर डॉ नरेन्‍द्र मोहन से उसकी समीक्ष्‍ाा लिखवा लाए। बावजूद कुछ अड़चनों के उसकी समीक्षा 'वर्तमान साहित्‍य‘ में प्रकाशित की/कराई। जब जब गाजियाबाद जाता। मेरे साथ दिल्‍ली का टूर करते। प्रकाशकों के यहां ले जाते। के․के․ बिरला फाउंडेशन के लिए मेरे नाम की संस्‍तुति करते।

यादवेन्‍द्र शर्मा जी कहते- तुम अकेले जाया करो। गाजि़याबाद दिल्‍ली तुम्‍हारे कितने घर हैं। वहां खूब रहो। खूब सारे लेखकों प्रकाशकों से यारी गांठो। यात्री जी को साथ ले जाने से प्रकाशक लोग समझते हैं कि किसी का सहारा लेकर आया है। प्रकाशक लोग खुद तो पढ़ते नहीं जबकि तुम्‍हारा स्‍वयं का बहुत बड़ा नाम है। ऐसी ही बात मित्र बुलाकी शर्मा के मुंह से अब तक निकलती है।

मेरा एक ही उत्त्‍ार चला आ रहा है। एक तो मुझे रास्‍ते रत्त्‍ाी भर याद नहीं रहते। तमाम रास्‍ते तमाम सूरतें एक जैसी दिखलाई देती हैं। दूसरा सुनने समझने में अड़चन आ उपस्‍थित होती है। और अब तो मेरे कम सुनने का रोग अधिक बढ़ गया है। इस से भी ऊपर मेरी सब कुछ (पत्‍नी कमला) अस्‍वस्‍थ रहने लगी हैं। उनसे दूर होना गवारा नहीं होता। अपने सामने बैठकर चन्‍द्रजी ने मेरे कहानी संग्रह 'मिस इंडिया मदर इंडिया‘ की पांडुलिपि हरीराम द्विवेदी से निकलवाई। (यह पांडुलिपि प्रकाशन दिल्‍ली में पिछले आठ वर्षों से रखी थी) और अपने सामने छपवाने को भेजी। इस प्रकार चन्‍द्र जी ने मेरी 'सालिड हैल्‍प‘ की। यात्री जी प्रकाश्‍कों पर तरस खाते रहे। उनकी मजबूरियों का बखान करते रहे। मगर नामी लेखक होने के कारण उनकी पुस्‍तकें बार बार उन्‍हीं प्रकाश्‍ाकों से छपती चली गईं।

याद करूं, तो भावनात्‍मक स्‍तर भी यात्री जी के उपकारों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मैं तो कभी किसी का उपकार नहीं भूला।

तीसरा नाम लूं तो डॉ महीप सिंह जी का नाम आता है। शिवाजी पार्क, पश्‍चिम विहार के बहुत करीब पड़ता है, जहां मेरे भांजे का घर है। वहां जाता तो डॉ․ साहब से भी जरूर मिल कर आता। वे जितने बड़े संपादक लेखक विचारक हैं, उतने ही बड़े दिल के सहज इंसान भी हैं। उन्‍होंने अपना प्रकाशन गृह 'अभिव्‍यंजना‘ प्रारम्‍भ किया था तो दो साल के अंतराल (1980-1982) में मेरे दो कहानी संग्रह प्रकाशित किए थे। उनसे अब तक आत्‍मीय संबंध हैं। अपनी श्रीमती जी की तबीयत खराब होने, और दीगर वजूहात के चलते अब बीकानेर छोड़ नहीं पाता।

हां उन उत्‍साह भरे दिनों में डॉ रमेश उपाध्‍याय जी से भी दो बार सक्षरा अपार्टमेंट में मिल आया था। उन्‍होंने दो तीन पृष्‍ठों का टाइप किया हुआ लंबा पत्र मुझे सौंपा था जिसमें मेरी कहानियों की खूब खूब प्रशंसा थी। कहा था बेशक कहीं छपवा लो। मगर खुद मैं कैसे छपवाता। वह लैटर भी मेरे पास है। वैसे भी मेरे पास लगभग हर तरह का सारा का सारा रिकार्ड सुरक्षित रहता ही रहता है। अखबारों की कटिंगज की फाइलें, धर्म, राजनीति, स्‍वतंत्रता सेनानियों, गांधी, आजादी काल, विभाजन, भगतसिंह, खुदीराम, सुभाष, चन्‍द्रशेखर सरीखे स्‍वतंत्रता की बलिवेदी पर चढ़ जाने वालों तथा सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, और न जाने कितने कितने बड़े बड़े लिफाफे हैं, जिनमें इन सब के विषय में, जानकारियां हैं, संभाल-सहेज कर रख छोड़ा है। के․ए․ सहगल, लता आदि गायकों के विषय में साहित्‍यकारेां (के चित्र भी) अपने चचेरे बड़े भाई साहब श्री चरणजीत लाल सहगल, परम पूज्‍य अपने गुरू डॉ रामेश्‍वर दयालु अग्रवाल, दिवंगत मित्र श्री सांवर दइया के विषय में सारी सामग्री भी। बहुत से मित्रों के पत्र और प्रशंसा पत्र भी प्रचुर मात्रा में हैं। किसलिए ? पता नहीं। इन्‍हें व्‍यवसिथत ढंग से रखने में खासी मेहनत समय लगता है।

मैं कोई लैक्‍चरबाज तो हूं नहीं। और न ही इन विषयों पर धारा प्रवाह लिखने-बोलने वाला, विद्वान। बस बीच बीच में कोई खोई हुई चीज टटोलते टटोलते, इन्‍हें भी जल्‍दी से देख/पढ़ जाता हूं। इससे खास मुद्‌दे से ड्रिफ्‍ट (छिटक) हो जाता हूं।

इसे मैं बस प्रवृत्त्‍ािजनक सनक ही कहता हूं। न जाने क्‍या क्‍या, अपने मन को छूता हुआ, सहेजे संभाले हुए हूं। अच्‍छी कहानियां अच्‍छी कविताएं आदि। मुझे पता है, मेरे न रहने पर ये सब कबाड़ में तब्‍दील हो जाएगा। मेरे बच्‍चों को इन विषयों में विशेष रूचि नहीं। और न ही नई पीढ़ी के युवाओं को भले ही वे यंग जनरेशन के लेखकों की कतार में खड़े हों। और न ही मैं इतना बड़ा लेखक विचारक हूं जो कोई संग्रहालय इन्‍हें संभाल लेगा। मेरे पास सारी किताबें नबर्ड, रजिस्‍टर में चढ़ी हुई हैं। इसी प्रकार लाजवाब (मेरे लिए) पुराने शास्‍त्रीय संगीत पर आधारित सीडीज, गानों के कैसिट्‌स नबर्ड हैं जो एलबमों में दर्ज हैं। कोई कहे, यह गाना सुनना है- तो अभी लो। ऐसी 70, 80 कैसिट्‌स हैं, जिन्‍हें, मैं, आसमान में उड़ाकर खुशहाल करने वाली कारें कहता हूं। इन गानों को सुनसुनकर जिस्‍म की तमाम रगें झंकृत हो उठती हैं ः-

मेरे दिल की धड़कन बन जा

और रात की सज धज बन जा

रग रग में आग लगा जा

प्रेम की नगरी बसा जा

आ जा ख्‍यालों में आ जा․․․․․․․

करण दीवान (फिल्‍म दहेज)

ऐसे अनेकानेक गाने हैं जिनके शब्‍द, अर्थ और भाव एक दूसरे में गुत्‍थे हुए हैं। और अंततः यह सब मेरे रचनाकर्म में आपसे आप आ शामिल होते ही होते हैं।

जैसे दिये में तेल, तेल में बाट,

बाट में, तेज प्रकाशे

तुहीं राम हृदय में सिये सिये ही बासे

(फिल्‍म लवकुश)

दो नैनों के पनघट में लगे प्‍यार के मेले

(फिल्‍म अमर) आदि बहुत हैं। बहुत हैं। ये सब मेरे जीवन से जुड़कर मुझे तरंगित करते हैं। इनसे ऊर्जा मिलती है। मेरे जीवन के आधार हैं ये। मगरों से कुछ राहत मिलती है। मगर सभी की नजर कभी एक समान नहीं हुआ करती। कुछ ही लोग इन बातों/स्‍थितियों की गहराई में जा पाते हैं।

दो एक बार से․रा․ यात्री मुझसे बोले- छोड़ो यह शातिर साहित्‍यकारों के किस्‍से इनके धृणित क्रियाकलाप। इनकी जो बेवजह अपने को एक दूसरे से बढ़ चढ़कर श्रेष्‍ठ दर्शाने के फलसफे․․․․․․ जब तुम्‍हारे पास इतनी अच्‍छी बीवी है। आज्ञाकारी औलाद है। महल्‍ले भर के बच्‍चे तुम से प्‍यार करते हैं। इतने अच्‍छे अच्‍छे गाने तराने हैं। बगीचे की हरियाली है। किताबों से भरा स्‍टडी रूम है, दूरदराज के पाठकों के ढेरों प्रशंसा पत्र हैं, कहानियों का अनुवाद दूसरी भाषाओं में हो रहा है तो बोल तुझे और क्‍या चाहिए ? यात्री जी खिड़की से सटे दीवान पर लेट जाते हैं। बाहर से पौधों पर नजर जमाते हैं- लगा सहगल के गाने। सहगल से बढ़कर दुनिया में कोई नहीं। एक अंग्रेजी के प्राेफेसर रावत साहब हुआ करते थे (अब दिवंगत हो गए) वे साहित्‍य प्रेमी थे। लाजवाब पढ़ाकू थे। मेरी खूब इज्‍जत किया करते थे। उनके अनुसार भी के․एल․ सहगल से ऊपर संसार में कोई दूसरा गायक पैदा नहीं हुआ। हर वक्‍त के․एल․ सहगल को ही लगाए रहते थे। बस और किसी गायक का नाम न लो। यात्री जी कहते हैं तुमसे बन पड़े, जितना आराम से अपना काम करते जाओ और मस्‍त रहो। जब तुम किसी के सामने पुरस्‍कार लेने के लिए गिड़गिड़ा नहीं सकते। किसी की चापलूसी नहीं कर सकते। चक्‍कर नहीं काट सकते। अपने पैसे खर्च कर अपने नाटकों का मंचन नहीं करवा सकते। अपने पर गोष्‍ठियां नहीं करवा सकते तो परेशानी किस बात की ?

सच भी है कि चाहे कितना भी बड़ा सम्‍पादक क्‍यों न हो, ठीक बात न लगने पर विरोध स्‍वरूप उन्‍हें ठोकवेें खतूत, अरसाल कर मारता हूं। क्‍या कर लोगे। कोई संपादक अपने स्‍टाफ के अलावा किसी लेखक का अफसर नहीं होता। नहीं छापोगे। मत छापो। अगर तुम्‍हारे ही छापने से हम लेखक बनते हैं तो यही सही। तुम अपनी जगह खुश मगर हमारे लिए और बहुतेरी दूसरी पत्रिकाएं हैं। रचनाएं तो कहीं भी छप जाएंगी। बात रही मशहूर होने की। अमर होने की। वह तो समय ही बताएगा। अमर हाे भी गए तो क्‍या है। अगर कल की बात की जाए तो एक उर्दू के अदीब का वाक्‍य बार बार मन में गूंजता है।

कब्र में पड़ा हूं।

चाहे फूल बरसाओ।

चाहे जूते मारो।

कभी एक कमसिन हसीन गोरी मेम के विषय में पढ़ा था-ताजमहल देखते हुए अपने शोहर से बोली थी-यदि तुम वादा करो कि मेरे मरने पर तुम मेरी याद में ऐसा ही कोई मकबरा तामीर करा दोगे, तो मैं इसी क्षण यहां से कूद कर जान दे दूंगी।

मैं पूछता हूं-ऐ नादान छोकरी। तब तुझे हासिल क्‍या होगा। क्‍या तेरी रूह अवलोकन करने आएगी।

बस, दिल है कि मानता नहीं। तब मैं भी क्‍यों चाहता हूं कि मरने से पहले, कुछ किताबें लिखकर छोड़ जाऊं। क्‍यों ? क्‍यों ? अगर ये सारी किताबे ही एक सार्थक जीवन की प्रतीक होतीं तो इतने मशहूर होने के बावजूद स्‍टिफन िज्‍़वग हिमंग्‍वे, यासुनारी कावा बता और भी बहुत सारी संसार की महान विभूतियां हुई हैं, क्‍यों (जिन्‍होंने) आत्‍महत्‍या कर डाली। क्‍यों ? क्‍यों ? मुझे लगता है शायद उन्‍हें जीवन की निरर्थकता ने चौका दिया होगा। कहां जी रहे हो। क्‍योंकर जी रहे हो।

हमारे देश में ही-बहुत बड़ी सूची है, ऐसे लेखकों की, जो अपनी बहुत बड़ी बड़ी महत्‍वाकांक्षों के चलते, एक दूसरे से ऊपर और ऊपर उठने के चक्‍कर में चकरा कर पगला गए।

मैं शुरू ही से इन चीजों से थोड़ा सचेत हो गया था। ऐसी महत्‍वाकांक्षाएं किस काम की जो मेरे समेत परिवार ही की चूलें हिला दें। कलाकार या लेखक बनने के लिए फ़कीरी की जिंदगी, किसी की नजर में उच्‍च मानवीय स्‍थिति हो सकती है। मेरी नजर में अपमान, द्ररिद्रता, ताने सहना, कौन सी महानता है। मंटो ने खुद लिखा है कि मेरे लिखे पर मेरी बीवी तथा तीन बेटियां निगहत नजहत तथा नुसरत का क्‍या कसूर है जो बेचारगी जिल्‍लत की जिंदगी जीती हैं। बिला विजह अपमानित होती हैं। अभ्‍ाावों में जीती है।

मगर सचाई कहीं और अदृश्‍य स्‍थितियों में बसती हैं। कहने को सब ऐसा वैसा कहते हैं। यह ठीक नहीं रहा। ऐसा वैसा नहीं करना चाहिए। हम अपने को और दूसरों को सीख देते हैं, लेकिन सच यह है कि हम किसी अदृश्‍य शक्‍ति की कठपुतलियां हैं जो दूसरे के हाथों, संचालित होती हैं। यह सब कुछ प्रवृतिजन्‍य है। यहां बहुत बड़ा बेबसी का आलम है।

आदमी कर गुजरता है। गिरता है। पछताता है। उठता है। फिर वही का वही करने लगता है। कई मर्तबा लंबे अर्से तक लिखने के चक्‍कर में मैं खुद सुबह की सैर पर नहीं जा पाता। जरूरी एक्‍सरसाइजेज नहीं कर पाता। मनमर्जी मुताबिक संगीत नहीं सुन पाता। समय पर नाश्‍ता, दवा से महरूम रह जाता हूं। ठीक से सो नहीं पाता। इन सब का मेरे स्‍वास्‍थ्‍य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। तो भी अपने को लिखने से रोक क्‍यों नहीं पाता। कहने का कुल मिलाकर यही नतीजा सामने आता है कि हर किसी की जिंदगी में अलहदा अलहदा बहुत कुछ अनसुलझा सत्‍य ऐसा होता है जिसकी ठीक से व्‍याख्‍या वह खुद नहीं कर सकता। बात रही लेखकों, विशेषकर अपने शहर प्रदेश के लेखकों के बारे में लिखने की। बहुतों का जिक्र पहले अध्‍यायों में आपसे आप होता चला गया है। बीकानेर में, जैसा कि पहले बताया, लेखकों की बहुत बड़ी संख्‍या है। बहुतों के नाम छूट जाना बहुत स्‍वाभाविक है। अपनी आदत के मुताबिक मेरी तलाश 'लेखक‘ से पहले 'आदमी‘ की रही है। जैसा कि नर्गिस के भाई ने जीवनी में लिखा है। राजकपूर एक अच्‍छा एक्‍टर, लेकिन घिटया इंसान। सुनीलदत्त्‍ा कुछ साधारण एक्‍टर, मगर महान व्‍यक्‍ति।

असली बात पर आता हूं। इधर हमारे राजस्‍थान में श्री श्‍याम महर्षि साहित्‍य के उत्‍थान में बड़ी शख्‍सियत माने जाते हैं। छोटी उम्र से ही एक बड़ी 'संस्‍था राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी प्रचार समिति‘ श्रीडूंगरगढ़ जैसे छोटे कस्‍बे से चलाते आए हैं। उन्‍होंने सर्वश्री मालचंद तिवाड़ी, डॉ मदन सैनी, डॉ चेतन स्‍वामी, सत्‍यदीप, महेश जोशी, रवि पुरोहित आदि आदि (टीम बड़ी होने से कई नामों का छूट जाना स्‍वाभाविक है) को साहित्‍य के क्षेत्र में प्रोत्‍साहित कर आगे बढ़ाया। मैं भी श्‍याम जी का आभार व्‍यक्‍त करता हूं। इसी नाते कि उनके सतत प्रयत्‍नों से यह संस्‍था आज और आगे बढ़ चुकी है। पूरे भारत में इसका नाम है। पूरे भारत के महत्‍वपूर्ण लेखकेां में से किसी एक को यह संस्‍था 14 सितम्‍बर हिन्‍दी दिवस पर सम्‍मानित करती आई है। श्री वेदव्‍यास भी इस संस्‍था तथा डॉ महर्षि से बराबर जुड़े रहे हैं।

मुझ जैसे का भी सौभाग्‍य, जो इस संस्‍था ने 14 सिंबर 2001 को मुझे सम्‍मानित करने की घोषणा की। बीकानेर के साहित्‍य के क्षेत्र में प्रकांड पंडित डॉ देवी प्रसाद गुप्‍त, श्री हरीश भादानी, डॉ उमाकांत गुप्‍त, श्री रतन श्रीवास्‍तव के सानिध्‍य में यह कार्यक्रम आयोजित हुआ था। मेरी बिटिया कविता मुकेश, दामाद मुकेश पोपली, बेटा अजय भी उत्‍साहित होकर समारोह में शामिल हुए। हमारे यहां ऐसा होना प्रायः स्‍वाभाविक है कि महिलाएं ही महिलाओं के साथ अधिक धुलमिल कर बतियातीहैं। एक दूसरे से भी जैसे अपना सहारा सा पाती हैं। परन्‍तु वहां पर पूरे समय तक कविता के अलावा एक भी लड़की औरत उपस्‍थित नहीं थी। सोचता हूं, ''ऐसे भव्‍य समारोह में आयोजकों को अपने शहर परिवार की कुछ महिलाओं को भी भागीदार बनाना चाहिए था।

इस प्रकार, साहित्‍यिक बंधुओं को देखने का अवसर मुझे कभी-कभार प्राप्‍त होता रहा है। दो बार लाडनू भी जाना हुआ। वहां पर ही, मुझे पहले पहल श्री पंकज बिष्‍ट, डॉ महाराज कृष्‍ण जैन, श्रीमती उर्मि, आदि आदि से मिलना हुआ। वहां पर कट्‌टर वामपंथी, धर्मनिरपेक्षता के धनी लेखक/संपादक श्री पंकज बिष्‍ट को देखकर मुझे घोर आश्‍चर्य हुआ तो उनके आने का कारण पूछ बैठा। वे लीपापोती करते रहे। असली बात मैं समझता हूं कि ऐसे लोगों को कोई भी संस्‍था कुछ महत्‍व दे तो ये महानुभाव चूकते नहीं।

जिस प्रकार से श्री से․रा․ यात्री, श्री विभूति नारायण राय आदि आदि का तकरीबन सभी लेखकोें, साथ ही हिन्‍दीतर लेखकों से परिचय है, उस हिसाब से मैं अपने को शून्‍य पाता हूं।

रूबरू न सही फिर भी, कइयों के मुकाबले जैसा कि पहले लिख आया हूं। पत्राचार से मेरा बहुत सारों से परिचय-प्रेम है। कुछ प्रशंसकों के फोन भी आते रहतेे हैं। तब मेरे मुंह से बरबस निकल पड़ता है। साहित्‍य ने मुझे कुछ और दिया हो, न दिया हो, अच्‍छे मित्र अवश्‍य दिए हैं

यहां, या श्रीडूंगरगढ़ की संस्‍था ने जब बाहर के चर्चित लेखक को अपने आयोजन में आमंत्रित करना होता है तो अक्‍सर मुझसे फोन नंबर और राय लेते हैं। मेरे द्वारा उन्‍हें अामंत्रण देते हैं।

लगभग दो वर्ष बीते, एक सुखद या दुःखद घटना का उल्‍लेख यहीं किए देता हूं जिससे मेरी चिंता/पीड़ा, का जो साहित्‍य जगत में जड़े जमाए बैठी है का पता चल जाएगा। वह है विचारधारा और प्रतिबद्ध लेखन। वामपंथी, दक्षिणपंथी लेखन, जिसने साहित्‍य (यानी सबका हित करने वाले मिशन) को खेमों में बांट कर अपने सहित किसी का भी हित नहीं किया। बामपंथ में भी शाखाएं प्रशाखाएं जैसे जनवादी, प्रगतिशीलन जाने कौन कौन सी फैली पड़ी हैं। चुनाव में पद नहीं मिला तो एक और मोर्चें का निर्माण हो जाता है।

मेरी जैसी अल्‍प बुद्धि वाला व्‍यक्‍ति मात्र इतना ही सोचता है-भई यदि आप लेखक हो तो लेखक ही होकर रहो। सबकी इज्‍़ज़त कदर करो। सत्‍य को सर्वोपरि रखो। सब एक होकर रहो। पूरी जनता को भी अपने से जोड़ने, उसमें वंचितों शोषितों के लिए संवेदना पैदा करने की कोशिश करो। जनता को यह आभास तो न हो कि तुम आपस ही में लड़ते-झगड़ते रहते हो। तुम में अहंकार कूट कूट कर भरा है।

घटनाक्रम यूं घटा। जरा गौर फरमाएं।

श्रीडूंगरगढ़ से डॉ श्‍याम महर्षि जी का फोन आया कि हमारी संस्‍था स्‍व․ श्री यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र‘ जी की जयंती बीकानेर में मनाने वाली है। बताइए बाहर से किसे बुलाया जाए। मैंने कुछ नाम सुझाए। कुछ से फोन पर संपर्क किया। किसी न किसी कारणवश सबने आने में अपनी असमर्थतता व्‍यक्‍त कर दी। तब तक श्री बुलाकी शर्मा भी विचार-विमर्श हेतु मेरे निवास आ पहुंचे। वे श्री वेदव्‍यास तथा डॉ․ श्‍याम महर्षि से जुड़े हुए पदाधिकारी हैं। मैंने फिर श्‍याम जी को फोन किया कि कोई भी आने को तैयार नहीं हो रहा। कहें तो डॉ महीप सिंह जी को ट्राई करूं ? महीप सिंह नाम सुनते ही श्‍याम जी भड़क उठे- अरे वही सरदार जो दंगे भड़काता है। सुनकर मैं दंग रह गया। एेसा तो मैंने आपके मुंह से पहली बार सुना और श्‍यामजी को डॉ․ महीप सिंह के संपूर्ण व्‍यक्‍तित्‍व पर प्रकाश डालने की चेष्‍टा की कि वे तो बहुत अच्‍छे व्‍यक्‍ति हैं। प्रबुद्ध स्‍तंभकार, ज्ञानी और श्रेष्‍ठ वक्‍ता भी हैं। इससे ऊपर उन्‍होंने अपनी पत्रिका संचेतना का एक अंक चन्‍द्र जी पर भी निकाल रखा है। श्‍यामजी किसी सूरत से भी राजी नहीं हुए। बुलाकी जी ने भी कहा कि प्रत्‍यक्ष या परोक्ष रूप से डॉ․ हेतु भारद्वाज और श्री वेदव्‍यास जो आपकी संस्‍था के वामपंथी या जनवादी प्रगतिशील हैं, वे भी डॉ महीप सिंह के प्रशंसक हैं संचेतना में छपते भी है। बुलाकी जी की वही 'विचारधारा‘ वाली बात आड़े आ रही थी। तब मैंने कहा- सुश्री चित्रा मुदगल को बुला लें।

-ठीक है।

-पर शायद यह भी आर․एस․एस․ से जुड़ी हुई न हों। मेरे इस संशय को बुलाकी जी ने सीरियसली लिया- तो रहने दो। और बताओ।

श्री भारद्वाज ने चन्‍द्र जी को ज़रा भी नहीं पढ़ा।

अंत में श्री भारत भारद्वाज के नाम पर सहमति हुई। पढ़ रखा था। पर वे सैर के बहाने, बीकानेर चले आए। दो रोज़ तक रहे। कार्यक्रम तो मात्र तीन एक घंटे शाम का ही था। श्री भारद्वाज जी ने मात्र 18-20 मिनट का भाषण दिया। चन्‍द्र जी को श्रेष्‍ठ लेखक बताया। और खास बात यह भी बता कर सबका ज्ञानवर्धन किया कि लेखक कभी नहीं मरता। 20 मिनट ऐसी बातों के साथ पूरे कर दिए। तो कर लो विचारधारा की बात। पक्‍की बात है यदि इनकी जगह डॉ महीप सिंह आते, जो चन्‍द्र जी के प्रशंसकों में से एक हैं, उन्‍होंने चन्‍द्र जी को अपनी संस्‍था, 'भारतीय लेखक संगठन का उच्‍च पदाधिकारी भी बनाया था। चंद्र जी को खूब पढ़ भी रखा था। क्‍यों न अच्‍छा और ठीक समय, लेकर चिताकर्षक बोलते। चंद्र जी भी तो महीप सिंह के प्रशंसक थे।

हां जब प्रसंग याद आ ही गया तो सुनाता चलूं कि समारोह के दौरान मेरी क्‍या दुर्गति हुई। मुझे चन्‍द्र जी की कहानियों पर बोलना था। परचा पढ़ने से पूर्व मैं भारत जी के स्‍वागत में बस थोड़ा बोला ही था तो मेरे सबसे प्रिय मित्र संचालक श्री बुलाकी शर्मा ने मुझे टोक दिया कि आप बस परचा पढि़ए (समय कम है) कि शायद भारत भारद्वाज जी के ज्‍यादा अच्‍छे न बन जाएं। ऐसा मैंने सोचा और हुक्‍म बजाया; क्‍योंकि मैं संचालक को जिसके हाथ में बागडोर होती है, को पूरा कमांडर मानता हूं। और संचालक जो उस समय बाग (डोर) लिये होता है, अपने को किसी दुल्‍हे से कम नहीं समझता। जब मैं परचा पढ़ रहा था ताे हाल में कुछ खुसर खुसर होने लगी। तब बुलाकी जी ने बजाए श्रोताओं को चुप कराने के, कि हमारे बीच एक महत्‍वपूर्ण लेखक बोल रहे हैं-'ऐसा महत्‍वपूर्ण‘ बुलाकी जी मुझे हमेशा से मानते आए हैं-मुझे ही चुप कराकर पवेलियन में जाकर बैठने को भेज दिया। लेकिन वहां मुझसे ज्‍यादा देर बैठा न गया। मैं उठकर घर चला आया।

मुझे लगता है 'विचारधारा‘ और 'पार्टी लाइन‘, अपनी पार्टी के अनुशासन के लिए आवश्‍यक होती होगी जहां एक ही ग्रुप के लोगों के लिए अनुशासन बनाए रखने के लिए, एक सा, तोता स्‍वर निकालना आवश्‍यक होता है। जब श्री जसवंत सिंह जी को 'जिन्‍ना गांधी‘ किताब लिखने पर भा․ज․पा․ ने उन्‍हें पार्टी से निष्‍कासित किया था, तब मैंने डॉ महेश चन्‍द्र शर्मा पूर्व सांसद को फोन कर पूछा था कि जो कुछ जसवंत सिंह जी ने लिखा है, उसमें नया क्‍या है ? वह सब तो पहले से ही कई जगहों पर लिखा हुआ है। तो वही उत्त्‍ार कि पार्टी अनुशासन। इसी प्रकार उ․प्र․ के तत्‍कालीन राज्‍यपाल डॉ विष्‍णुकांत शास्‍त्री जी को भी बहुत पहले पत्र लिखा था कि जब आपको मालूम होता है कि आप सच्‍चाई के विरूद्ध बोल रहे हैं। बयान दे रहे हैं तो क्‍या आपकी आत्‍मा आपको कचोटती नहीं ? तब उनका भी गोलमाल उत्त्‍ार आया था कि फिलहाल इस विषय पर कुछ नहीं लिखा जा सकता।

भले ही इस दुनिया के साहित्‍य जगत में मैं नगण्‍य स्‍थान रखता हूं, किन्‍तु अपने स्‍वाभिमान की रक्षा हेतु किसी वाद और पार्टी से नहीं जुड़ा। क्‍योंकि किसी भी वाद या विचारधारा में शत प्रतिश्‍ात सत्‍य नहीं हुआ करता। हमें केवल सत्‍य (जो भी हमारी समझ के अनुसार सही है) का पक्षधर होना चाहिए।

इस विषय से बाहर निकलता हुआ दूसरे विषय पर आता हूं। 'विमोचन‘ लोकार्पण। 'पुस्‍तक चर्चा‘ 'पाठक मंच‘ 'पाठक पीठ‘ 'लेखक से मिलिए‘ कार्यक्रम हमारे शहर में भी खूब आयोजित होते रहते हैं। कुछ तो अकादमी की आंशिक सहायकता से। कुछ निजी संस्‍थाओं द्वारा।

हमारे ज्‍़यादातर साथी, यहां के प्रकाशकों को (वे जैसे भी हैं) पैसे देकर, अपनी कृतियां प्रकाशित करवाते रहते हैं। कुछ मात्र अपने पैसों से। या राज․ साहित्‍य अकादमी, राजस्‍थानी साहित्‍य अकादमी से अनुदान लेकर।

फिर अपना खूब सारा पैसा लगाकर एक भव्‍य समारोह करा लेते हैं। इन आयोजनों से मुश्‍किल से दो तीन दिन तक गहमागहमी पैदा हो जाती है। यहां के अखबारों में अध्‍यक्ष, मुख्‍य अतिथि लेखक आदि के फोटो छप ही जाते हैं। फिर आगे क्‍या होता है, आप प्रबुद्धजन जानते ही हैं। ऐसा प्रायः देश प्रदेश के शहरों में भी होता ही है।

मुझे लगता है यह फिजूलखर्ची है। परन्‍तु मेरे परम अग्रणी मित्र एडवोकेट कला प्रेमी मित्र श्री अध्‍यान चन्‍द कोचर का कहना है कि जमाने की रफ्‍़तार के साथ यह अति आवश्‍यक है। उन्‍होंने अपनी पुस्‍तक हजार हवेलियों का शहर (बीकानेर) का विमोचन दो तीन जगह से मुख्‍यमंत्री जी के निवास समेत करवाया। कहते हैं कि किताब खूब बिकी। अब सोचना होगा कि यह किताब के महत्‍व के कारण हुआ अथवा प्रचार के कारण ? मैं नहीं कह सकता। परन्‍तु मशहूर हो चला है कि किताबें बिकती नहीं। बेची जाती हैं। दिल्‍ली के प्रकाशक खूब किताबे बेच लेते हैं, जबकि इस मामले में राजस्‍थान के प्रकाशक कुछ सुस्‍त लगते हैं। लेखक से तो उन्‍हें पैसा मिल ही जाता है। बकाया की पूर्ति वे कर ही लेते हैं॥ बेफिक्र।

मेरी लगभग सारी किताबें दिल्‍ली ही से छपीं जाे प्रकाशकों ने दूरदराज के इलाकों तक पहुंचाई।

जहां तक पुस्‍तक पर चर्चा का सवाल है। चाहता तो मैं भी हूं कि मेरी पुस्‍तकों पर भी चर्चा हो। इसके लिए कभी, श्री से․रा․ यात्री के आने पर एक बार डॉ रामदरश मिश्र के आने पर अपने घर पर ही दस बारह लेखकों तथा महल्‍ले वालों को (यह मैं नितांत आवश्‍यक समझता हूं कि महल्‍ले के लोग भी साहित्‍य का कुछ महत्‍व समझें) बुलाकर, करवा आयोजन रखवा दिया। फिर गोष्‍ठी रपट तमाम पत्र पत्रिकाओं को भिजवा दी।

हां, दो बार, सुश्री वत्‍सला पांडेय ने, जब वे साहित्‍य कला एवं संस्‍कृति संस्‍था की पदाधिकारी थीं, ने मेरी दो पुस्‍तकों 'टूटी हुई जमीन‘ और बहुत बाद में 'सरहद पर सुलह‘ पर भव्‍य आयोजनों की व्‍यवस्‍था आनंद निकेतन में कराई थी। एक बार श्री उपध्‍यानचन्‍द्र कोचर ने अपने होटल मरूधर हैरिटेज के 'विनायक हाल‘ में मेरे तब के छपे कहानी संग्रेह 'मिस इंडिया ः मदर इंडिया‘ पर कार्यक्रम रखवाया था। उन दिनों श्री से․रा․ यात्री यहां आए हुए थे। सर्वश्री हरीश भादानी, भवानी शंकर व्‍यास, डॉ․ मदन केवलिया ने भी साथ भागीदारी की थी। एक दो की छोटी गोष्‍ठियां 'पाठक मंच‘ के अंतर्गत हिन्‍दी विश्‍व (अनुसंधान) भारती ने भी कराई थी। बस। राजस्‍थान साहित्‍य अकादमी द्वारा आज तक 'लेखक से मिलिए‘ कार्यक्रम मुझ पर नहीं हुआ। जबकि ऐसे कई कार्यक्रम मुझसे बहुत कम उम्र वालों, कम वर्क वालों पर हो चुके हैं। यहां बीकानेर में और भी बड़ी संख्‍या में संस्‍थाएं हैं, दो को छोड़कर मुझ पर केन्‍द्रीत कोई कार्यक्रम उन्‍होंने रखना उचित नहीं माना। वे भी खुश। हम भी खुश। जिन पर कार्यक्रम हुए। न तो वे मशहूर हुए। और न ही हम। यह सब गहमा गहमी है। कुछ पलों-दिनों की चकाचौंध। तब कई बार एक सोच सिर उठाती है कि क्‍या मैं साहित्‍य के इन पक्षपात आदि पक्षों पर सिर खपाऊं या पहले अपने घर को देखूं।

2007 के मध्‍य से कमला को रीढ़ की हड्‌डी में दर्द की शिकायत होने लगी थी; परन्‍तु कमला ने स्‍वयं, और परिवारजनों ने इसे साधारण रूप में लिया। फिर रोग दिनोंदिन बढ़ता गया। दर्द असहनीय हो उठा। इतना अधिक कि देखने वालों से भी बर्दाश्‍त नहीं हो पाता। बीकानेर के तमाम तमाम डाक्‍टरों से संपर्क करते रहे। किसी का भी इलाज कारगर साबित नहीं हुआ।

यहां रेलवे अस्‍पताल की इंचार्ज डॉ सुलक्षणा दत्त्‍ाा जी जो मुझसे बहुत स्‍नेह रखती हैं, स्‍वयं संगीतज्ञ हैं, कला साहित्‍य में भी उनका दखल है, ने शुरू में ही मुझसे कह दिया था कि यहां बीकानेर में एक भी काम का डाक्‍टर नहीं है। आप अपनी मिसेस को बाहर ले जाएं।

24-27-4-08 को हम लोग कमला के इलाज के लिए बड़ोदा गए (वहां पर श्रीमती नीलम कुलश्रेष्‍ठ जी से भी बड़ी स्‍नेहिल मुलाकात हुई थी। आती बार जोधपुर रेलवे स्‍टेशन पर श्रीहसनजमाल संपादक 'शेष‘ से पहली बार, बस चार पांच मिनट का मिलना हुआ। न इससे पहले और न इसके बाद, उनसे कभी भी हम दोनों रूबरू नहीं हुए, जबकि पूरे साहित्‍य जगत में वे मेरे अभिन्‍न मित्र माने जाते हैं।

कमला के इलाज के लिए हम लोग 4-4-10 से 12-4-10 मुम्‍बई भी गए। मुम्‍बई में काम नहीं बना; सिर्फ धक्‍के खाकर वापस बीकानेर आ गए।

अंत में 3-5-2010 को स्‍पाइन इंजरीज सेंटर अस्‍पताल बसंत कुंज, दिल्‍ली में कमला का मेजर अॉपरेशन करीब साढ़े छह घंटे का हुआ। देर शाम को उसे थोड़ा होश आया तो हम सबकी, जान में जान आई। मैं और परिवार के अन्‍य कुछ सदस्‍य बीकानेर में ही थे। जिस दहशत में सारा दिन गुजरा वह वर्णातीत है। अगर उसे कुछ हो जाता तो मैं किसी काम का न रहता। सोचता हूं, रहता भी या नहीं। मैं तो उसी पर निर्भर हूं। उसी को देखकर जीता हूं।

दिल्‍ली अॉपरेशन के लिए जाने से चंद रोज पहले कमला ने मुझे अपने पास बिठाया था। और घर के हालात और पैसों के लेन-देन को लेकर मुझे समझाने की कोशिश करती रही थी कि क्‍या पता कल को क्‍या हो। यह जो इतना दर्द सहन कर रही हूं, मौत से कम नहीं।

-बस। बस। चुप हो जाओ। मैं लगातार आंसुअों की झड़ी लगाए था-तुम्‍हारे बगैर मुझसे कुछ भी नहीं होगा। इस चीज को तुम भी अच्‍छी तरह से जानती-समझती हो। तुम्‍हें ही आकर सब संभालना है। वायदा करो। तुम्‍हारे बगैर मैं ज्‍यादा दिन जी न पाऊंगा।

यह अॉपरेशन डॉ छाबड़ा ने बड़ी कुशलता से कर दिखाया था। मेरा बड़ा लड़का विवेक जो अपनी मम्‍मी के साथ गया था, डॉक्‍टर के पांव पड़ गया। डॉक्‍टर छाबड़ा ने कहा-यह सब तुम्‍हारी मम्‍मी की विल पावर का नतीजा है। दिल्‍ली गाजियाबाद से तमाम रिश्‍तेदार हर रोज कमला को देखने आते रहे थे। मोदी नगर से बेबी साधना भी।

जब पहले विवेक शिल्‍पी बेटी, लता बहू कमला को लेकर मुम्‍बई रेलवे अस्‍पताल गए थे तो रेलवे डाक्‍टर ने अस्‍पताल में दाखिल करने से साफ इनकार कर दिया कि यह केस हमारे रीजन का नहीं है। बीकानेर वालों ने हमें रेफर क्‍यों कर दिया। दूसरा हमारे पास स्‍पाइनल पेन का कोई इलाज है ही नहीं।

जो मैंने पहले लिखा है, वही बात है कि जिंदगी कोई आसां चीज नहीं है। यहां डगर डगर पर मगर है। जिंदगी को आसां करने के लिए आदमी ताजिंदगी संघर्ष करता रहता है। कुछ हितैषी भी मदद करते हैं। मुम्‍बई में स्‍क्‍वैड्रन लीडर अनिल सहगल (गायिका सीमा सहगल के पति) जिनका जिक्र पहले कर आया हूं, ने बहुत मदद की थी और फिर दिल्‍ली के डाक्‍टरों से भी हमारा संपर्क, परिचय करवाया था।

पूरे पच्‍चीस दिनों बाद 20/5/2010 को कमला सकुशल बीकानेर अपने घर लौट आई। पूरे घर को बच्‍चों ने फूलों झंडि़यों पैंटिंग्‍ज से सजा रखा था।

4/8/10 काे कमला को डाक्‍टर छाबड़ा ने 'फालोअप‘ के लिए बुलाया था। अब की मैं भी साथ हो लिया। डाक्‍टर छाबड़ा से मिलकर उन्‍हें बार बार धन्‍यवाद दिया।

पहले लिख आया हूं कि मुझे सुनने में बचपन से ही दिक्‍कत थी। वायरलैस की ड्‌यूटियों ने कानों को और कमजोर कर दिया। मैं हैडफोन लगाए हूं। बिजली चमक रही है। बादल गरज रहे हैं। आंधियां तूफान हैं। उधर मेरी जिद है कि सिगनल मिस नहीं होना चाहिए। काम पूरा न किया तो उस दिन का वेतन किस बात का लिया।

बच्‍चे तो बच्‍चे होते हैं। उम्र दराज साथी भी मजाक उड़ाने से बाज नहीं आते। चाहे से․रा․ यात्री हों, विभूति नारायण राय हों या दीगर․․․․․․․․। 2002 में मुझे दिल्‍ली में तत्‍कालीन श्रम मंत्री साहब सिंह के हाथों पुरस्‍कार लेना था। मंच पर मेरे साथ बैठे थे। कान की मशीन देखकर बोले थे-अच्‍छा आप यह भी लगाते हैं। मैंने फौरन पलट कर जवाब दिया कि कल को आपको भी लगाना पड़ सकता है।

उन्‍हें इसकी जरूरत नहीं पड़ी। कार एक्‍सीडेंट में वे बेचारे-'मगर‘ के हवाले हो गए। जिंदगी का क्‍या भरोसा। जगह जगह मगर हैं। यह आदमी सोच नहीं पाता। दे घोटाले पर घोटाला। रिकार्ड बीट कर दो।

बता रहा था कि 4/8/10 को डॉ छाबड़ा ने चैक किया था। 5/8/10 को कमला को मैंने शिल्‍पी बिटिया के साथ, बीकानेर वापस भेज दिया। मैं और बेटा विवेक, दिल्‍ली कविता बिटिया के यहां रूक गए। कविता मुझे कान के डाक्‍टर के पास ले गई। काम नहीं बना। वहां से माइक कम हैड फोन Hear it खरीदा। इससे साफ सुनाई देता है।

अब देखिए मनुष्‍य के अपने को असुरक्षित, असहाय समझने की भावना कि हैड फोन कहीं खो न जाए, खराब न हो जाए। इन दिनों एक और (Stand by) हैड फोन खरीद डाला। हालांकि यह यंत्र काफी महंगे हैं। इन्‍हें तो छोड़ें, मैंने, मुझे जो जो गानों के कैसट्‌स, डीवीडी बहुत ही ज्‍यादा पसंद हैं, उनके डुप्‍लीकेट भी करवा रखे हैं। कौन जीता है, कब तलक यहां, यह सब बेमानी है। वही बात बारहा जबान पर आती ही रहती है ः-

सामान सौं बरस के

पल भर की खबर नहीं।

5/8/10 को ही मैंने फोन करके श्री अनिल कुमार लिटरेरी एजेंट को बुला लिया था। अनिल जी ने मेरे कहानी संग्रह 'प्रेम संबंधों की कहानियां‘ का संपादन नमन प्रकाशन अंसारी रोड दिल्‍ली से किया था। वह मुझे मेरी पांडुलिपियों के प्रकाशन हेतु नमन प्रकाशन आदि ले जाना चाहते थे। पर मैंने कहा चलिए पहले उधर कृष्‍णनगर और शाहदरा के प्रकाशकों से मिल लिया जाए। अपनी पहले की पांडुलिपियों के विषय में पूछ लिया जाए। हम तीनों ही प्रकाशकों के पास गए। खास मुद्‌दा रॉयल्‍टी का भी था कि शायद कुछ रकम हाथ लग जाए। कुछ काम नहीं बना। बाद में इन दिनों आलेख प्रकाशन ने मुझे मेरी तीनों पांडुलिपियां आठ साल रखकर लौटा दीं। सिर्फ दो बच्‍चों की किताबें छापी थीं जिनका आज तक कोई पैसा नहीं मिला। हां ठीक इन्‍हीं दिनों पांडुलिपि प्रकाशन से दी और मेघा बुक्‍स से दो पुस्‍तकों की छोटी सी राशि मिली है। यही कारण है कि केवल लेखन के बल पर गुजर बसर करने वाले साहित्‍यकारों की संख्‍या नगण्‍य है। उन्‍हें कितनी टक्‍करें मारनी पड़ती होंगी। सहज कल्‍पना की जा सकती है।

नए और पुराने लेखक भी प्रकाशकों को पैसा दे देकर अपनी किताबें छपवा रहे हैं इससे हम जैसों के प्रकाशन में विलंब होता है। विपरीत प्रभाव पड़ता ही है। मेरी भी जिद है कि भले ही बकाया पांडुलिपियां सड़ जाएं पैसे देकर नहीं छपवानी।

छोटी बड़ी 28 पुस्‍तकें तो छप लीं। यह 'और और‘ छपने की तृष्‍णा, मैंने बड़े बड़े नामी लेखकों में भी देखी है, जो कभी पूरी नहीं होती।

अगर मैं इतने प्रकाशनों से मैं मशहूर नहीं हुआ तो और अधिक छपने से भी कहां हो पाऊंगा। साहित्‍य की दुनियां में क्‍या तो मशहूरियत और क्‍या शोहरत ? फिल्‍मी या सीरियल कलाकार, या क्रिकेटर बन जाइए और, अगर और दम है तो बेशक ओछे ही सही राजनीतिज्ञ बन जाइए। फिर देखिए जय जयकार होती है या नहीं। पैसा कहां पर छिपाए, अलबत्त्‍ाा यह समस्‍या जरूर पैदा हो सकती है।

'यह क्‍या कम है कि मर जाने पे दुनिया याद करती है‘ का मैं कायल नहीं हूं। साहित्‍य में तो थोड़ा चाटने भर को है। हंसी और तरस आता है, जब नादानों को छोटी छोटी बातों, छोटे छोटे मुद्‌दे पर लड़ते झगड़ते, एक दूसरे को पछाड़ते देखता हूं। तिस पर थोड़ी बड़ी छोटी पत्रिकाओं के संपादकों की ओछी अकड़। अपवादों को छोड़ दिया जाए तो। भई संपादक/निदेशक/अध्‍यक्ष जी आज तुम यहां पर हो, कल को न जाने कहां होगे। फिर तुम्‍हें कौन पूछेगा। काहे की अकड़। काहे की शान।

इस मायने में तो मेरे मित्र डॉ आदर्श सक्‍सेना ही ठीक हैं। उन्‍होंने आलोचना पर ज्‍़यादा काम किया था। अंग्रेज़ी के भी अच्‍छे ज्ञाता। फिर लगभग साहित्‍य से संन्‍यास सा ले लिया-कौन पड़े इन सब पच्‍चड़ों में। कौन सुनता है। कौन इन फालतू चीज़ों पर दिमाग खराब करे। कौन परवाह करता है। वे अब न तो कोई प्रतिक्रिया लिख भेजते हैं और न ही बहस मुबाहिस करते हैं। न किसी विवादास्‍पद मुद्‌दे पर कोई लेख लिखते हैं। किसी जाति/धर्मालंबियों/सेठों की पत्रिका का संपादन करते हैं। अच्‍छा पैसा मिल जाता है। कभी कभी 'समीक्षा‘ पत्रिका से कोई पुस्‍तक आ जाती है तो उसकी समीक्षा कर देते हैं। संतोष। संतोष धन से ऊपर क्‍या है।

पर किसी को भी (और शायद स्‍वयं को भी) पता नहीं चल पाता कि वह किस सीमा तक संतुष्‍ट है। ऊपर से सब हर तरह के दावे करते हैं और दुनिया भर से चिढ़ कर कच्‍चे चिट्‌ठे भ्‍ाी ताश के पतों की तरह बिखेरे रहते हैं। कोई संस्‍था, बॉयडाटा फोटो मांगे तो भेज भी देते हैं।

फिर सोचता हूं लेखन (किसी भी स्‍तर के लेखकों का हो) एक अंधी दौड़ है। कुछ बहुत ही जल्‍दी हांफ जाते हैं और साहित्‍य के तथाकथित मठाधीशों और कुछ निष्‍पक्ष ईमानदार संपादकों पर भी गालियों के फूलों की बौछार करते रहते हैं। कुछ अंतिम सास तक चुक जाने पर भी, जो भी जैसा कभी बन पाता है, लिखते चले जाते हैं। या कोई कोई तो 21 पेजी 25 रूपए की पत्रिका भी निकालते रहते हैं।

संपादन-कर्म कोई संकलन विधि के अंतर्गत नहीं आता। जिसको देखो पत्रिका निकाल रहा है। इससे उसे अपने लेखक होने की मान्‍यता प्राप्‍त होती है। ऐसा वह सोचता है। संपादन-कर्म कितना कठिन जटिल कार्य है। इस जहमत में वह नहीं पड़ता। वह कुछ भी कैसा भी गलत शलत सब छाप देत है। शायद उसे स्‍वयं भी वाक्‍य-िवन्‍यास, स्‍त्रीलिंग, पुलिंग शब्‍दों का ज्ञान नहीं होता। जिनको होता भी है 'कौन इस पचड़े में पड़कर शब्‍दकोशों में घुसने का दुःसाहस करे‘ जिसने जैसा, लिखा, वैसा ही छाप दिया। मुझे कुछ पाठक बड़ा लेखक मानते हैं। जब बड़ा लेखक मानते हैं, तो यह भी मानकर चलते हैं कि जनाब भी ज़रूर कोई पत्रिका निकालते होंगे। पूछ बैठते हैं। चंदे का कितना पैसा भेजें। 'नहीं नहीं‘ के जवाब में एक दो पाठकों ने लिखा था-आप 'शुक्रिया‘ नाम की पत्रिका निकालते हैं। बहुत बाद में मालूम हुआ था चंण्‍डीगढ़ से कोई महिला इस नाम की पत्रिका निकालती थी। नाम केवल हरदर्शन। सहगल तो नहीं। संपादक बनकर लोग बाग वाह वाही लूटते हैं। चेले चाटों की भीड़ जमाते हैं। इसके लिए उसे छपास को तरसते अनाप-शनाप लोगों के; विशेष रूप से उसके संपादकीय पर-चाहे वह दो कौड़ी ही का क्‍यों न हो, प्रशंसा पत्रों की झड़ी लग जाती है। परन्‍तु जो, जेनुइन राइटर्ज हैं, उनके स्‍वयं के लेखन पर प्रभाव पड़ता है। इसी कारण से अमृत राय जी ने 'नई कहानियां‘ जैसी उत्‍कृष्‍ट पत्रिका निकालनी बंद कर दी थी।

मैंने तीन पुस्‍तकों का संपादन किया। दो तो शिक्षा विभाग राजस्‍थान की थीं। एक हिन्‍दी की एक उर्दू की। शिक्षक लेखकों की रचनाओं का अंबार था। उनमें से प्रायः सभी और किसी पत्र पत्रिकाओं में नहीं छपते। खैर कबाड़ में भी कभी कुछ सोना भी मिल जाती है। सभी पढ़ने की जहमत उठानी ही थी। पढ़ीं। ऐसी पत्रिकाओं में बहुतों को हर साल स्‍थान मिल ही जाता है। उर्दू वाली पुस्‍तक में कुछ लेखकों ने उर्दू में ही रचनाएं लिख दी थीं, जिन्‍हें मुझे हिन्‍दी में लिप्‍यांतरण करना पड़ा था। फिर भी इन दोनों संपादनों/संकलनों को मैं एक आसान काम मानता हूं। लेकिन 'वर्जनाओं को लांघते हुए‘ के संपादन में मुझे कितने पापड़ बेलने पड़े, मैं ही जानता हूं। पूरे 18 वर्ष लगे थे ऐसी कहानियों को इकट्‌ठा करने में, जिनमें एक ही स्‍वर है। सामाजिक दृष्‍टि से, स्‍त्री पुरूष के जिन रिश्‍तों को हेय माना जाता है किन्‍तु जिंदगी के किन्‍हीं मोड़ों पर वे अपरिहार्य हो जाते हैं। ऐसे रिश्‍तों पर मेरी 16-17 पेज की शोधपरक भूमिका भी (13 कहानियों सहित) शामिल है। एक दो को छोड़कर मैंने किसी से कहानियां मांगी नहीं थीं। कुछ को एकरूपता प्रदान करने हेतु मुझे उनमें आंशिक परिवर्तन/संशोधन भी करना पड़ा था। अनुमति देने में कुछ मूल लेखकों तथा अनुवादकों ने खूब नखरे दिखलाए। सब को एक एक सौ रूपए (मेघा बुक्‍स) से दिलवाए। मुझे क्‍या मिला ? वही दो हजार जबकि इस पर मेरा खर्चा श्रम भी खूब हुआ।

तो भी प्रतिक्रिया, समीक्षाएं पढ़कर बहुत प्रसन्‍नता भी तो हुई। चलिए मेहनत सफल हुई। एक उम्‍दा काम हो गया। लता शर्मा जी ने 'हंस‘ में समीक्षा लिखी थी। ऐसा काम हिन्‍दी में पहली बार हुआ है। कइयों ने पत्र लिखे थे। इसका दूसरा भाग भी निकलाएं। यह 2001 में छपा था। अब तक भी इस पर प्रतिक्रिया यदा कदा आ जाती हैं।

इसी प्रकार विभाजन पर लिखे उपन्‍यास 'टूटी हुई जमीन‘ को भी 18 वर्ष ही लगे थे। यात्री जी मुझे श्री हरीराम द्विवेदी (पांडुलिपि प्रकाशन दिल्‍ली) के पास मुझे ले गए थे। हरीराम जी ने पूछा-इसका आप कितना पैसा लेंगे। मैंने उत्त्‍ार दिया। इसका मूल्‍य कोई भी प्रकाशक नहीं दे सकता। इसमें मेरे श्रम को छोड़ दें तो कितने आंसू भी बहे हैं। अच्‍छी बात है कि आप इसे शीघ्र प्रकाशित कर रहे हैं। यह 1996 में छपा था। चर्चा में तो आया पर हमारे बहुत बड़े समीक्षकों ने जरा भी नोटिस नहीं लिया। उनके पास विभाजन पर लिखे पूर्व उपन्‍यासों के रटे रटाए नाम हैं। मेरी दृष्‍टि में 'झूठा सच‘ यशपाल और काले कोस (बलवंत सिंह ही अच्‍छे हैं। मेरा उपन्‍यास (डींग न समझें) उन सब चर्चित उपन्‍यासों से एकदम अलहदा है। यह बाल मन को, दृष्‍टि में, रखकर लिखा गया है।

इन्‍हीं दिनों डॉ महीप सिंह ने संचेतना का एक अंक इस को लेकर निकाला है। मैंने स्‍पष्‍ट किया है कि इसकी तुलना पूववर्ती विभाजन पर लिखे उपन्‍यासों से की ही नहीं जानी चाहिए।

अब इसका गुजराती अनुवाद आने ही वाला है। अनुवाद डॉ सुरेन्‍द्र दोशी तथा डॉ हर्षद मेहता ने मिलकर किया है।

एक बार अपनी पुस्‍तक पर हुए सेमिनार में मैंने कहा था। साहित्‍य ने मुझे क्‍या दिया ? और कुछ दिया हो या न दिया हो अच्‍छे मित्र (और काफी सारे कद्रदान भी) दिए।

बता दूं-श्री राजेन्‍द्र जोशी मेरे प्रशंसक हैं। डॉ ममता सिंह, डॉ नगेन्‍द्रसिंह, सीमा, अनिल सहगल सहित सर्वश्री लक्ष्‍मीनारायण रंगा तथा उनका सुपुत्र कमल रंगा, बुलाकी शर्मा, एडवोकेट उपध्‍यानचंद कोचर, गोपाल सिंघल, आदि आिद तो मुझ पर प्‍यार स्‍नेह बरसाते हैं। बाहर के भी श्री मुरलीधर वैष्‍णव, डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल हैं। इसके अलावा बीकानेर के ही सर्वश्री रमेश भोजक, संजय श्रीमाली, भवानी शंकर, रवि पुरोहित, अरविंद, सुशीला ओझा, संजय पुरोहित, आदर्श सक्‍सेना, अशफाक, उनका भाई जियाकत हसन कादरी, नदीम, भंवरलाल, देवी प्रसाद, गिरजा शंकर, राम नरेश सोनी, सुलक्षणा दत्त्‍ाा, मदन कवलिया, मुरली मनेाहर माथुर, मदन सैनी, मुहम्‍मद रफीक पठान, नवनीत पांडे, प्रमोद कुमार वत्‍सला पांडे, प्रीति कोचर, प्रभा भार्गव, पूर्णिमा मित्रा, पृथ्‍वीराज रतनू, सत्‍य प्रकाश अाचार्य, रामनिवास शर्मा, राजेन्‍द्र स्‍वर्णकार, शिवकुमार भनोत, सुनील गजाणी, ठाकुर सोहन सिंह, सोहन लाल पारीक, श्‍याम महर्षि, सत्‍यदीप, शुभ पटवा, रूपा परीक, वेद शर्मा, विद्या सागर आचार्य, मालचंद, अनिरूद्ध आदि आदि। आदि आदि इसलिए लगा रहा हूं पहले कुछ नाम छूट गए थे। इस सूची में कुछ के नाम फिर भी छूट सकते हैं। वे बड़ा दिल लेकर मुझे क्षमा करेंगे। यह भी हो सकता है कि कुछ का प्‍यार ऊपरी हो। फिर भी मिलते तो खूब गर्मजोशी से हैं। आज के जमाने में यह क्‍या कम है। इन सब में प्रतिभा है। मैं इन सबसे कुछ न कुछ सीखता ही रहता हूं। बहुत बड़ी लेखक जमात से मेरा स्‍नेहिल संपर्क है। उनमें से महिला लेखिकाएं की तादाद भी बड़ी है। श्री विभूति नाराया राय जब तब उन सबके नाम ले ले कर मजाक किया करते थे। क्‍या हुआ उनका ? ठीक तो हैं ?

बड़ोदा वाला प्रसंग थोड़ा और बताए देता हूं कि थोड़ी जान पहचान के लेखक भी कैसे धुल मिल जाते हैं। बस तीन पांच मिनट के लिए मैं और नीलम कुलश्रेष्‍ठ 'हंस‘ कार्यालय में मिले थे। राजेन्‍द्र यादव जी ने परिचय कराया था। मेरे पास उनका फोन नंबर नहीं था। किसी पत्रिका में उनका रेलवे कॉलोनी वाला पता ढूंढ निकाला। और पोस्‍टकार्ड लिख दिया कि मैं मेरी पत्‍नी तथा बेटा विवेक 27 जून 2008 को बड़ोदा में होंगे। महानगर है। भेंट शायद न हो पाए। मेरे बेटे का मोबाइल नं․ यह है। नीलम जी का फोन आया। बड़ी गर्मजोशी आत्‍मीयता के साथ संवाद हुए। कहने लगीं। आप जहां ठहरे हैं, वह जगह, हमारे घर से मीलों दूर है मैं अकेली आ नहीं सकती। आप ही यदि संभव हो तो चले आएं।

मेरी पत्‍नी का सगा छोटा भांजा सुनील कपूर गोवर्नमेंट ओवर टेकिंग में बहुत बड़े पद पर तैनात है। उसने हमें बहुत बड़ी गाड़ी मार्शल और ड्राइवर दे रखा था। शाम को बाज़ार अादि घूमते हुए फिर नीलम जी का रेलवे कॉलोनी वाला क्‍वार्टर ढूंढ़ निकाला।

मैंने बहार से ही बड़ी ऊंची आवाज़ में पुकार लगाई-नीलम। आत्‍मीयता से भीगा स्‍वर जैसे बचपन से जानते हों। वे भी उसी उत्‍साह से भागती हुई, दरवाजे पर आ पहुंची-सहगल साहब। दो ही शब्‍दों में कितना रस घुला हुआ था-आइए बैठिए। मैंने और विवेक ने कहा-बस दो चार मिनट रूकेंगे। वापस बीकानेर भी जाना है। हमारे साथ पांच सात आदमी और भी हैं।

-सबको ले आइए।

मृदुल जी (उनके पति) रेलवे में काम करते हैं। मैंने उन्‍हें बताया-बचपन से ही ऐसे रेलवे क्‍वार्टरों में पला बढ़ा हुआ हूं। इनसे मेरे बहुत लगाव है।

सब के सब बैठे चाय पी रहे थे। मेरी और नीलम जी की बातें खत्‍म होने में नहीं आ रही थीं। किताबों का आदान प्रदान हुआ। अब वे अहमदाबाद में हैं। पत्रों और फोन से संपर्क बरकरार है। ज्‍यादातर लेखक तो ऐसे ही होते हैं। एक बार साक्षरा अपार्टमेंट दिल्‍ली डॉ रमेश उपाध्‍याय के यहां गया था। उसी अपार्टमेंट में आशा गुप्‍त रहतीं हैं। कुछ मौलिक तथा ज्‍यादा काम अनुवाद का कर रखा है। बहुत सारी किताबें आत्‍माराम एंड संस से छपी हैं। मैंने उनकी सुभाषचन्‍द्र बोस पर जो बड़ी किताब है, पढ़ रखी थी। सुभाष जी बोस पर तो उनकी मास्‍टरी है। कमरे में कितने बड़े चित्र सुभाष जी के लगे हैं। बड़ी बड़ी एलबमों में भी जड़े हुए हैं। फौरन मुझसे घुलमिल गईं। सब चित्र पुस्‍तकें दिखाती रहीं। दो पुस्‍तकें चेखव और मोपासा की भेंट कीं। लाख मना करने पर चाय बना लाई। चाय तो हम रमेश जी के यहां से पीकर आए थे। पुस्‍तक मेला देखने आए थे। मेरे परम मित्र रतन श्रीवास्‍तव भी मेरे साथ थे। पाया कि रमेश उपाध्‍याय, जो उनके पड़ोस में ही रहते हैं उनका, आशा जी से कोई संपर्क नहीं है। मैंने यह भी पाया है कि कोई लेखक, अपने सामने दूसरे लेखक को दूसरे दर्जे का नागरिक समझता है। मेरा आशा जी से लंबा पत्राचार होता रहा था। अब कुछ ढीला है। परन्‍तु वे अकड़ू तो नहीं है।

हमारे छोटे से शहर बीकानेर में डॉ राजानंद भटनागर और खूब छपने वाले कहानी लेखक महेश चन्‍द्र जोशी, मुक्‍ताप्रसाद नगर में एक दूसरे के अति निकट बसते हैं लेकिन एक दूसरे के यहां आना जाना कभी नहीं होता। महेश चन्‍द्र जोशी इन दिनों बहुत बीमार हैं। 'चलों उनका हालचाल तो पूछ लिया जाए‘ यह उनसे कभी नहीं हुआ।

डॉ नामवर सिंह यहां बीकानेर में हम सबको समझा गए हैं कि किसी की आलोचना भी न करो। बेवजह उसे इससे भी महत्‍व मिल जाता है। सो मैं उनके इस शानदार व्‍याख्‍यान के बाद उनसे भी रूबरू नहीं हुआ था। दिल्‍ली के एक महान कवि है (नाम नहीं बताऊंगा। इससे उन्‍हें महत्‍व मिल जाएगा) यहां आए थे तो मैंने उन्‍हें अपना परिचय दिया था तो उनका स्‍वर खासा अभिमानी था कि हम तो आपको नहीं जानते, जबकि हम दोनों कई बार साथ साथ बहुत जगह छपे हुए हैं।

मेरे हिसाब से हमारा सम्‍मान तो आम जनता के पास है। उनसे, उन जैसे महाशयों के बारे में पूछकर देखें तो उनका तो सच्‍चा उत्त्‍ार ही होगा कि हम ऐसे किसी कवि विद्वान को नहीं जानते। जानते हैं तो मधुशाला वाले बच्‍चन को। रेखाचित्रों की चितेरी महादेवी वर्मा, खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी, वाली सुभद्रा कुमारी चौहान जी को। 'आपका बंटी वाली मन्‍नु भण्‍डारी को। आवारा मसीहा वाले िवष्‍णु प्रभाकर को। एक गधे की वापसी वाले कृष्‍णचन्‍दर को। गुजरात के नाथ 'जय सोमनाथ‘ वाले, के․एम․ मुंशी को‘। 'झूठा सच‘ वाले, यशपाल को, 'गिरती दीवारें‘ वाले, अश्‍क जी को 'गोदान निर्मला‘ 'गबन‘ वाले प्रेमचंद को, 'चित्रलेखा वाले, भगवती चरण वर्मा को (और भ्‍ाी बहुत सारे कृतिकारों के नाम हैं जिनकी पहचान उनकी कृतियों द्वारा है) निराला, पंत, माखनलाल आदि आदि कइयों को, जो बहुत पुराने नाम हैं। वही सबकी जबान पर हैं। जो नए यानी इनके बाद की पीढ़ी के हैं। वे सिर्फ अपने को जानते मानते मनवाते हैं। बड़ी बड़ी अकादमियों के अधिष्‍ठाता हैं। कोसोंर् में भी बेशक घुसपैठ किए बैठे हैं। विद्यार्थी विवशतावश रसहीनता को गले नहीं उतारेंगे तो क्‍या अपना बेड़ा गर्क करेंगे। बेड़ा पार हुआ नहीं कि उन्‍हें भूले नहीं।

मुझ जैसे अदने नासमझ की तो यह साहित्‍य के मौजूदा दौर की समझ है। इस पचड़े को जितना खोलो, उतना बढ़ता जाएगा। तो काहे को कुरेदे। आगे बढ़ें। एक कोई डॉ महेश चन्‍द्र शर्मा थे। राजस्‍थान पत्रिका (अखबार) में कालमिंस्‍ट। एम शर्मा आदि नामों से, मन को छूने वाले मुद्‌दे उठाया करते थे। विशेष रूप से विभाजन उनका प्रिय विषय था। मेरा तो यह विषय रहा ही है। उनके कुछ लेखों की कटिंग्‍ज को मैं अपनी फाइलों में चिपकाता रहा था। बाद में वह भाजपा के राज्‍य सभा सांसद भी नामजद हुए। और कई महत्‍वपूर्ण पदों के अलावा कुछ वर्ष राजस्‍थान बी․जे․पी․ के प्रदेशाध्‍यक्ष भी रहे थे। कुछ पुस्‍तकों के लेखक/संपादक हैं।

वह कभी बहुत पहले बीकानेर आए थे तो श्री सूर्यप्रकाश बिस्‍सा से यहां के लेखकों से मिलने की ख्‍वाहिश जाहिर की। उसी शाम बिस्‍सा जी ने अपने सूर्य प्रकाशन मन्‍दिर में एक अच्‍छी गोष्‍ठी का आयोजन किया बहुत सारे लेखक उसमें शामिल हुए। मैं उनसे सटकर बैठ गया था और पुष्‍टि की कि आप वही हैं जो विभाजन पर लिखते हैं। 'हां‘ कहने पर मैंने उन्‍हें सारी स्‍थिति बताई और अपना विभाजन पर लिखा उपन्‍यास 'टूटी हुई जमीन‘ उन्‍हें पढ़ने को दे दिया। तब से आज तक संबंध बहुत मधुर हैं उनसे पत्राचार है। यह उनका बड़प्‍पन है कि मुझ जैसे को लिखते हैं कि मार्गदर्शन दें। साहित्‍यकार, राजनेता से बड़ा होता है। समय समय पर मेरे काम आए।

2009 को मेरा 'प्रेम संबंधों की कहानियां‘ संकलन नमन प्रकाशन दिल्‍ली से छप कर आया। मैंने प्रकाशक नितिन जी को फोन किया कि मैंने पुस्‍तक के समर्पण पृष्‍ठ पर डॉ महेश चन्‍द्र शर्मा का नाम लिखा था। उसे क्‍यों हटा दिया।

-वह तो अब सत्त्‍ाारूढ़ दल के नेता नहीं है। (शायद उनका बिक्री पर प्रभाव पड़ता होगा) मेरे कुछ अंतरंग मित्रों को भी मेरी महेश जी से दोस्‍ती नहीं सुहाती। वे सारे कमिटिड राइटर्ज हैं, जो कांग्रेस का दामन थाम कर न जाने कब से महान अभियान को निकले हुए हैं। जबकि डॉ महेश शर्मा बी․जे․पी․ (अछूत पार्टी) वाले हैं। सत्‍य बनाम विचारधारा को लेकर मैं पहले भी बहुत लिख चुका हूं। दोहराना बेकार है। हो सकता है उन सब आलोचकों की समझ, मुझ जैसे के मुकाबले बहुत ज्‍यादा आगे की हो।

मेरा बड़ा बेटा विवेक तथा बहू सरोज मुझे 19/6/2008 सालासर मंदिर लेकर गए थे। वे घोर आस्‍थावादी, भक्‍त हैं। हर साल सालासर एक दो बार जरूर हो आते हैं।

मन्‍दिर देखने से जो टीस उस समय पैदा हुई थी, वह अब तक बनी हुई है। इतना विशाल, पूरा का पूरा मन्‍दिर तमाम दीवारों छतों सहित, अनंत सोने चांदी पीतल तांबे जैसे अमूल्‍य धातुओं से जड़ा पड़ा है। जिसकी कीमत अरबों में होगी। वहां यह सारी मूक दिखावटी धातुएं सिर्फ अंध भक्‍तों के ही काम में आती होंगी। यही धन लाखों निस्‍सहायों को रोजगार मुहैया करा सकता है। अस्‍पतालों, अनाथालयों, विद्यालयों का निर्माण कर सकता है।

यह और ऐसे कई बिन्‍दु मेरे 'मगर‘ के कारक बनते हैं। मुझे दुःखी करते हैं। दिमाग को ताक पर रख दो तो आप सुखी हैं। जो कुछ जैसा हो रहा है सब जायज है। मगर सभी लोग तो दिमाग को, ताक पर, रख नहीं पाते। अपनी जन्‍मजात प्रकृति से मजबूर हैं।

अब जरा आगे नहीं, पीछे चलिए। आप भूले तो नहीं। मैंने बहुत पहले आपसे कोई वायदा किया था।

रेलवे के कैंप की यात्रा के संस्‍मरण सुनाए थे। हम लोग करीब पैंसठ रेल कर्मचारी काठमांडू (नेपाल) के लिए 10/3/1978 को चले थे। पहले नई दिल्‍ली पहुंचे थे। फिर वहां से 12/3/78 को बारौनी पहुंचे थे। मेरे साथ मेरे बरेली के परम मित्र सरदार सुजान सिंह थे। हम लोग बरौनी से रक्‍सोल मीटरगेज से रात दस बजे पहुंचे थे। 13/3/78 को सुबह चार बजे उठकर काठमांडू के लिए अपनी अनुबंधित बस में बैठे थे। हमने समूहों में विराट मंदिर में अद्‌भूत कलाकृतियां देखीं। फिर अपनी बस द्वारा वरखतपुर मंदिर, गार्डन बुद्ध मंदिर आदि आदि में गए। विशेष रूप से मैं उस काक्‍टेस गार्डन का जि़क्र करना चाहूंगा। यह एक विशाल गार्डन है। जिसमें केवल केक्‍टस ही कैक्‍टस है। दूसरे कोई पौधे है ही नहीं। तरह तरह की शक्‍लो सूरत के छोटे छोटे, बहुत बड़े बड़े बहुत सारे तो चित्त्‍ााकर्षक रंगबिरंगे फूलों वाले। परन्‍तु हमारे यहां कई घरों में, वास्‍तुकला वाले इन्‍हें अपनी बगीची में लगाना अशुभ मानते हैं। वहम डालते हैं। सोचा यह शुभ अशुभ का भी जीवन में क्‍या जंगल है। दिशा का भी ध्‍यान रखो। महूर्त का भी। जो लोग इन नियमों का पालन करते हैं, क्‍या उनके यहां कभी अशुभ घटित नहीं हुआ। एक वास्‍तुकलाविद्‌ ने, मेरा लोहे की चारपाई पर सोना अशुभ, दुःखों का परिचायक बताया। सचमुच उन दिनों मेरी टांगों में झनझनाहट होने लगी थी। यह सब मनोवैज्ञानिक था। इन दिनों उसी लोहे की चारपाई पर सोता हूं। कुछ भी तो नहीं होता। बस केवल वहम डाल दिया गया था; जिससे मैंने पार पा ली है। हमें मगरों से मुकाबला करना है।

बचपन ही से मेरे अंदर 'जीवन क्‍या है ?‘ आदमी क्‍यों जीता है। मात्र अपने लिए, या दूसरों के लिए, जैसे प्रश्‍न बारमबार कुलबुलाते चले आ रहे हैं। कभी लगता है। यह जीवन टोटली टाइमपास है। यहां हम मनोरंजन कर करके अपने आपको बहलाते हैं। सैकड़ों यहां पर विरोधाभास हैं। विसंगतियां हैं। त्रासदियां, खामियां हैं। अत्‍याचार दमन हैं। समर्थ और ढेंगी भी हमेशा ही से आदिकाल से असमर्थों वहमियों को दबाते-कुचलते आए हैं। सौ सौ बीमारियों से मुनष्‍य जूझता है। यदि हम इन्‍हें नजरअंदाज नहीं कर पाते तो परेशान बने रहते हैं। एक बेबसी का सा जीवन जीने को अिभ्‍ाषप्‍त हैं। ऐसे में हम तरह तरह के मनोरंजन के साधन जुटाते हैं। यात्राएं हमारा मनोरंजन करतीं। हमें कुछ कष्‍ट देकर कुछ सिखाती हैं। हमारे अनुभव-संसार को विस्‍तार देती हैं। बन पड़े तो निकल पड़ो। अवसर मिलते ही निकल पड़ो।

बहुत सारे हमारे रेलवे के साथी कहने लगे। जब अपना ही पास खर्च करना है तो हम अपने ही तरीके से विद फैमिली जाएंगे (यह कैंप मात्र कर्मचारियों का ही होता है) अब ऐसे लोगों से कोई पूछे कि क्‍या तुम नेपाल हो आए? उत्त्‍ार नकारात्‍मक ही मिलता आया है। ठीक है। हम लोगों को अपने अपने ही रेलवे पास से यात्रा करनी थी। इसके लिए रेलवे कोई स्‍पेशल पास नहीं देती; सिवाए डाक्‍टर उनके कर्मचारी, तिकड़मी यूनियन वाले कोई रेलवे अफसर जो कैंप कमांडर कहलाता है, वैल फेयर स्‍टाफ वाले अॉन ड्‌यूटी कहलाते हैं। वे पहले ही मंजले मकसूद पर एज ए एडवांस पार्टी पहुंच कर मजे मारते हैं। कुछ करते धरते नहीं टी․ए डी․ए भी बनाते हैं। इन बातों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है। वे हमें जब मंगलवार को मंदिर ले गए तो मंदिर देखने/प्रवेश करने को नहीं मिला। मंदिर की छुट्‌टी थी। मतलब, अडवांस पार्टी वाले घूर्त थे। मुफ्‍त में निठल्‍ले बैठे रहे थे।

इसके दो तीन वर्ष बाद एक कैंप गोवा जाना था। मैं गोवा देखने को बहुत उत्‍सुक था जो आज तक नहीं देख सका। मैंने वैलफेयर ब्रांच में फार्म भर दिया। उसमें उल्‍लेख करना था कि इससे पूर्व मैंने रेलवे का कोई भी कैंप अटैंड नहीं किया। वैलफेयर इंस्‍पेक्‍टर ने कहा। लिख दो 'नहीं किया।‘ हमीं चैक करने वाले हैं। और कौन पूछता है। कई लोग तो पांच पांच कैम्‍पों में हो आए हैं। मैंने कहा ''झूठ नहीं लिख सकता‘‘। सो गोवा नहीं जा पाया।

सोचता हूं कि क्‍या सारी दुनियां झूठ पर ही टिकी है। झूठ पर ही मजे ले रही है। झूठ बोल बोल कर पैसे बना रही है। मनोरंजन कर रही है। यह, और ऐसी स्‍थितियां, ही मुझसे लिखवाती हैं। गोवर्नमेंट जानबूझकर हम से झूठ लिखवाती है। ऐसे कई उदाहरण पेश कर सकता हूं।

घर पर मेरा परिवार, मेरी बगीची, घर आने वाले मित्र, मेरी किताबें, हर रोज़ डाक से अाने वाली पत्र पत्रिकाएं, मित्रों के पत्र और सीडीज, कैसिटों में भरा संगीत, क्‍या घर बैठे मेरा मनोरंजन नहीं करते। खैर․․․․․․․।

खैर इतना भर कहकर आगे बढ़ने को कदम उठाता हूं तो फिर एक मगर सामने आ खड़ा होता है। इन मगरों को हम, बड़े गर्व के साथ, अपनी गौरवशाली विरासत कहते हैं और इनको जस्‍टीफाई करने को गोलमटोल उत्त्‍ार देते हैं। इन पर आए दिन कितना तो लिखा जाता है; किन्‍तु मैं कभी न लिख पाया। ये साधारण मनुष्‍य से राजे महाराजाओं की एय्‍याशी की आदिम प्रवृत्त्‍ाि है। कांठमाडु, जगन्‍नाथपुरी, कोणार्क खजुराहो आदि अनेक स्‍थलों पर स्‍त्री पुरूष की एकदम नग्‍न आदम कद से बड़ी मूर्तियां एकाधिक से एक साथ समागम करती (जानवारों के साथ भी) हुई छोटी, बड़ी बड़ी पस्‍तर मूर्तियां, जैसे ही बच्‍चों द्वारा बेची जाने वाली घातुओं के शो पीस, एलबम्‍ज हर रोज़ छोटे छोटे बच्‍चे भी ताे देखते देखते इनके अभ्‍यस्‍त हो जाते हैं। क्‍या वहां के सारे छोटे बड़े लोग 'बिगड़े हुए‘ हैं। मगर हमारे यहां यह चीजें यह सीन, बच्‍चों के सामने आते देख बड़ों के पसीने छूट जाते हैं।

काठमांडू की सड़कों पर गए रात सज्‍जी धज्‍जी अकेली दुकेली युवतियों को खूब सारे गहने पहने, मस्‍ती से घूमते देखा था। क्‍या इन्‍हें समाज कंटकों का भय नहीं ? पूछने पर उत्त्‍ार मिला था-यहां राजशाही है। क्‍या मजाल जो इन्‍हें कोई परेशान कर सके। देखिए अब वहां प्रजातंत्र आने पर क्‍या गुल खिलते हैं। एक बात और सुनी देखी। गोवर्नमेंट करेंसी-नोट चाहे दो फाड़ भी हुए हों, लेने से यदि कोई इनकार करे तो यह राजशाही की तौहीन मानी जाती है।

वहां से मैंने कमला कविता, अजय शिल्‍पी को पत्र लिखे थे जो अपने बीकानेर आने पर संभाल लिये, उन्‍हें भी अपनी डायरी में नत्‍थी कर दिया। उन लंबे पत्रों के बीच एक नेपाल का पोस्‍टकार्ड भी है जिसकी कीमत नेपली मुद्रा में आठ पैसे है। नेपाली मुद्रा की कीमत भारतीय मुद्रा से बहुत कम है। वहां दोनों ही देशों की मुद्राएं धड़ल्‍ले से चलती हैं। एक बार हमने काठमांडू में खाना खाया था। हमने पांच रूपए का नोट पे किया तो होटल वाले ने बकाया के रूप में हमें नेपाली पांच रूपया वापस कर दिया। वहां के लोग निहायत ईमानदार और सरल स्‍वभाव के हैं। हमारे ही देश के एक दुकानदार ने स्‍वीकार किया कि यहां से अगर पंजाबी और मारवाड़ी लोग चले जाएं तो नेपाल स्‍वर्ग है। उन पत्रों में बहुत सारे रोचक प्रसंग हें। यहां सब लिखने लगूं तो हो सकता है कि पढ़ने वालों के यह सब मेरे संस्‍मरणों का लेखा जोखा लगने लगे।

मैं यहां बराबर उन प्रसंगों का उल्‍लेख करने की चेष्‍टा में संलग्‍न हूं जो मेरी जिंदगी की सोच से जुड़े हुए हैं। पता नहीं दूसरे क्‍या कैसा सोचते हैं पर मैं कहता हूं- मेरी सोच ही मेरी जीवनी है।

17/3/1978 को सुबह चार बजे उठकर हमारी पूरी पार्टी अपनी उसी अनुबंधित बस द्वारा रक्‍सोल के लिए चल पड़ी। बीच रास्‍ते एक कस्‍बा पड़ता है-हैटोंदा। मैं और सुजानसिंह यहीं उतर लिये। यहीं पर सुजानसिंह के बड़े भाई साहब सरदार ज्ञानसिंह निवास करते हैं। पता चला वे तो बिजनेस टूर पर कलकत्त्‍ाा गए हुए हैं। हम दोनों जाकर एक शानदार होटल (रापती होटल) में रहने लगे। पता चला कि अरे यह तो बहुत ही महंगा होटल है। हमारा आगे जाने का सारा बजट यहीं समाप्‍त हो जाएगा। अतः हम सरदार ज्ञान सिंह के कमरे में शिफ्‍ट कर गए। हालांकि रापती होटल की पहली मंजिल पर हमें जो कमरा मिला था, भव्‍य था। खिड़कियां खोलते ही प्रकृति की मनमोहक दृश्‍यावलियां देखने को मिलती थीं लेकिन यह जगह क्‍या पूरा कस्‍बा ही सुंदरतम प्रकृति की गोद में बसा हुआ है। रोप वेज़ से सामानों से भरी हुई ट्रालियां एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़भ्‍ पर आती आसमानी सफर तय करती दिखा करती थीं। इस मकान के मकालिक पति-पत्‍नी, श्री कृष्‍ण बहादुर, श्रीमती मेघा कुमारी ने बढ़-चढ़ कर हमारी खूब सेवा की। सुबह सवेरे मेघा कुमारी जी ताजे गुलाब आदि फूलों का गुलदस्‍ता हमारी मेज पर सजा जाती थीं।

नेपाल में हम लोग काफी दिन तक मटरगश्‍ती करते रहे। जगह जगह सड़क के किनारे छोटी बड़ी दुकाने हैं। सब्‍जी की दुकान से चाहे मीट मछली ले लो या वहीं से लौकी बैंगन ले लो।

इसी प्रकार रेस्‍टोरेंट जैसे छोटे खोखे। वहां से भले ही शराब या ताड़ी का प्‍याला पी लो या चाय का कप पी लो। स्‍त्रियां गद्‌दी पर, पुरूष नौकर की भांति सामान ला लाकर देता है। ग्रामीण औरतें चोली को एक दम ऊपर उठाकर बच्‍चों को स्‍तनपान कराती हैं। आप भले ही देखते रहो।

इन तमाम जीवन-पक्षों को देखने पर मुझे मेरे प्रिय लेखक बाबू भगवती चरण वर्मा की चित्रलेखा याद आती रही।

लालच और भ्रष्‍टाचार

अपनी छोटी सी कहें या बड़ी जिंदगानी में मैंने आरंभ ही से ही पाया है कि उक्‍त इन दोनों हिरसों (तृष्‍णाओं) से मनुष्‍य मुक्‍त नहीं हो पाया। बड़े से बड़ा कहलाने वाला; कई कई उपलब्‍धियों से लबालब भरा व्‍यक्‍ति भी कभी संतुष्‍ट नहीं हो पाया। और प्राय यही कहता हुआ सुना जाता है कि उसका ठीक से मूल्‍यांकन नहीं हुआ। अपने लेखन से तो वाकई किसी लेखक को पूर्णतः संतुष्‍ट नहीं होना चाहिए। लेकिन इन छोटे छोटे से पुरस्‍कारों सम्‍मानों की दौड़ में बेतहाशा हांफ्‍ते लोगों को मैंने देखा है। इनके लिए उन्‍हें चाहे कितना भी नीचे झुकना पड़े। तिकड़मर्स में गोते लगाने पड़े।

अरे यह आस्‍कति की बात बीच में कहा से आ टपक पड़ी। बात, शान दिखावे के साथ साथ वही लालच की करनी थी जो लगभग सभी मनुष्‍यों में होती ही होती हैं। काठमांडू से सब लोगों ने अनापशनाप बेज़रूरत का सामान, जो विदेशी होता है; नहीं भी होता तो विदेशी बताकर दुकानदार धड़ल्‍ले से बेच रहे थे, खरीद लाए थे।

सरदार ज्ञानसिंह जी के आने के बाद, उनके साथ दो तीन दिन रहकर हम दोनों ने ट्रक द्वारा 22-3-1978 को रक्‍सोल के लिए कूच किया।

रास्‍ते में कम से कम दो तीन चैकपोस्‍ट थीं। आखिरी चैकपोस्‍ट को रिक्‍शा द्वारा पार करना था। रिक्‍शा वाले ने पूछा-आपके पास कोई विदेशी कहलाने वाला सामान तो नहीं। है तो मुझे दे दीजिए। थोड़ा अपने पास रखे रहें। सीमा पार करने पर मैं आपको आपका सामान सुरक्षित दे दूंगा। फिर आगे स्‍टेशन चल पड़ेंगे। बिल्‍कुल अनजान रिक्‍शा वाले ने, सामान सहिज ज़रा घुमावदार पगडंडियों द्वारा रास्‍ता पार किया था। क्‍या चैक पोस्‍ट वालों की नजरों में वह अदना सा रिक्‍शा वाला धूल झोंक सकता था ? यह सब नाटक होता है। सबके हिस्‍से बंटे होते हैं। हम दोनों की चैकपोस्‍ट अधिकारी ने तलाशी ली। कहने लगा इतना इतना टैक्‍स और जुर्माना दो। मैंने बताया कि दुकानदारों के अनुसार हम इतना तो फ्री में ले जा सकते हैं। अधिकारी कहने लगा-अगर वे लोग ऐसा न कहें तो उनका माल कैसे बिके। लोग तो जिंदगी में एक दो या तीन चार बार नेपाल आते हैं। हमारा दिन रात का काम है। किसने कहां (रजाई की परत में भी हो) सामान छिपा रखा है, सूंघ लेते हैं।

मेरे सूटकेस को वहां के स्‍टाफ ने उलट ही दिया था। पूछते यह कमीज यह पैंट यह बनियान नेपाल से लाए हैं। दरअसल हिन्‍दुस्‍तान ही में इतना उत्‍कृष्‍ट कपड़ा बनता है कि वे देशी विदेशी की पहचान कर ही नहीं पाते। ऐसा भी सुना जाता है कि भारत की वस्‍तुओं पर विदेशी मोहर लेबल चस्‍पां कर देते हैं।

मेरे हर कपड़े को हाथ में लेकर फिर जब इंस्‍पेक्‍टर चैकर ने मुझे सवाल किया, यह कमीज यह पतलून यह भी क्‍या नेपाल ही से खरीदी है ?

मैंने जोर देकर उत्त्‍ार दिया ''हां। जी हां‘‘ वह मेरी ओर देखने लगा तो मैंने जोड़ा ''भारत से तो हम बिल्‍कुल नंगे होकर गए थे।‘‘

मेरे उत्त्‍ार से वह बुरी तरह से शर्मिंदा हो गया।

हमने सीमा पार की तो हमारा वही रिक्‍शा वाला प्रतीक्षा कर रहा था। इसे कहते हैं, बेईमानी में, पूरी सैंट परसेंट ईमानदारी। नहीं तो सीमा पार करते वक्‍त वह पार हो जाता तो हम क्‍या कर लेते। बस सारी उम्र अपने कीमती भारी भरक सामान रजाइयों बक्‍सों को रोते रहते। उसने 'पार कराई‘ के अलग से पैसे लिए। रक्‍सोल स्‍टेशन पर हमें बा अदब छोड़कर, औरों का सामान पार करने को पार हो गया।

जनाबे आली इसे महज यात्रा वृतांत न समझें। यह जीवन-दर्शन है। यही जीवन-दर्शन हमारे हमसे पहले रवाना हुए रेल कर्मचारियों के साथ कैसा बीता। यह तो बीकानेर आने पर ही, उनकी आप-बीती सुनने पर ही पता चला। उनकी तो वास्‍तव में दुर्गति-ओह 'दुर्गती‘ शब्‍द कहना उनके साथ अन्‍याय करना कहलाएगा। उनकी ऐसी तैसी हुई थी कहना ज्‍यादा मोज़ू होगा। हमारे अफसर जो कैंप कमांडर बनकर ''हमारा नेतृत्‍व कर रहे थे, वे तो गिरफ्‍तार होने लगे थे। उनसे कहा गया मि․ चावला यू आर अंडर अरैस्‍ट। चलो कहा गया तो कहा गया मगर सारे अंडर वर्किंग स्‍टाफ के सामने क्‍यों कहा गया ? खैर वे किसी तरकीब से भाग छूटे।

इस चीज ने भी मेरे जीवन पर काफी असर छोड़ा। मैं कुछ समय तक विचलित होता रहा था। आदमी क्‍यों ऐसे पचड़ों में पड़े जिनसे भयभीत होता रहे। उसका चैन छिनता रहे।

लोग नियमों का पालन नहीं करते, इसलिए हम भी नहीं करें। यह युक्‍ति-संगत नहीं है। थोड़ा घाटा उठाकर भी जब हमने नियमों का पालन किया होता है तो हमारे आत्‍म बल का विकास होता है। हम किसी को सामने झुकते नहीं बल्‍कि अगले को पूरे आत्‍म विश्‍वास के साथ उत्त्‍ार देने में सक्षम होते हैं। तब हमारी जबान नहीं, आत्‍मबल बोल रहा होता है। इसके बावजूद भी यदि आपको परिस्‍थितियों के जाल में फंसा ही लिया जाए तो और किसी को न सही खुद को तो कह ही सकते हैं कि तूने कुछ गलत नहीं किया। बावजूद इसके कि कई मर्तबा मैंने यह भी पाया है कि ईमानदार, समय-सीमा में बंधा व्‍यक्‍ति जिन्‍होंने, गावर्नमेंट का कहना माना, घाटे में रहे। विवरणों में जाकर बातें ना हांक। लंबी खिचती जाएंगी। अगर पूरा यात्रा वृतांत लिखूं, जो मेरी डायरी में लिखा हुआ है तब भी विषयवस्‍तु का अनावश्‍यक विस्‍तार हो जाएगा।

संक्षेप में यह कि हम होली के मारे भी और परेशानियां झेलते हुए जगन्‍नाथपुरी हो कर कलकत्त्‍ाा वापस आ पहुंचे। जिस कारण यह सब लिख रहा हूं वह यह है कि हर देश के लोग अच्‍छे बुरे चालाक काइंया हुआ करते हैं। ट्‌यूरिस्‍ट बस में हमने सीट बुक करा रखी थी। वहां पर एक जर्मन लेडी से, टाकरा हुआ। उसने पहले टैक्‍सी ड्राईवर से दुर्व्‍यवहार किया। पूरे पैसे नहीं दे रही थी। उसके मारे हमारी बस लेट हो रही थी। बीस मिनट बाद जब आई तो उसने किसी दूसरे यात्री की आरक्षित सीट पर अपने स्‍थूल शरीर को जमा दिया। पीछे की सीट पर जाने को हरगिज़ तैयार न थी। सब लोगों ने बस गाइड के कहने से बड़ी मुश्‍किल से उसे नीचे उतार दिया। ड्राईवर ने झटके से बस को तेज़ गति दे दी।

नीचे खड़ी उस महिला की शक्‍ल अब भी आंखों के सामने तैर जाती है।

श्री मोदक गाइड ने हम सबसे प्रार्थना की कि हम लोग बाद में ट्‌यूरिस्‍ट विभाग को पत्र लिखें कि गलती उसी महिला की थी। उसने यह भी बताया कि विदेशों में हम भारतीयों के साथ अकारण दुर्व्‍यवहार किया जाता है। मैंने सुजान सिंह ने ट्‌यूरिज्‍म विभाग को पत्र भेजे थे। औरों ने भी भेजे होंगे। क्‍योंकि गाइड एक तो ज्ञान का पिटारा था। दूसरा पूरे समय हम सबका मनोरंजन कर हंसाता रहा था। हमने कलकत्त्‍ाा के तमाम प्रसिद्ध भवन देखे। पर देखिए शांति निकेतन देखा या नहीं, ठीक से याद नहीं कर पा रहा हूं।

पटना जंक्‍शन 27-3-1978 को सुबह सोमवार पहुंचे। इस दिन शायद ट्‌यूरिस्‍ट बस नहीं चलती थी। हम गाड़ी से वापस पटना साहिब (सिटी) पहुंचे। इक्‍के द्वारा गुरूद्वारा पहुंचे। 11 बजे लंगर में खाना खाया। श्री शिवेन्‍द्र संपादक ज्‍योत्‍सना का उल्‍लेख पहले ही कर आया हूं। जो खास बात मैं शायद नहीं लिख पाया वह यह है कि कलकत्त्‍ाा या पटना में हम गुरूद्वारा की धर्मशाला में रूके थे। सुजान सिंह ने मुझे समझाया कि तुम्‍हें यहां पर शेव करने की अनुमति नहीं होगी। ठीक है। नहीं करेंगे। पर वास्‍तव में ठीक क्‍या है। क्‍या ठीक, गलत नहीं हो सकता। सिख धर्म सब धर्मों से उदार समझा जाता है। पर सच यह है कि संसार में कोई भी धर्म पूर्णतः उदार हो ही नहीं सकता। कुछ जकड़नें होती ही हैं जो समयानुसार बदल नहीं पातीं। सभी धर्म अपने ही अपने धर्म को सही उदार बताकर मनुष्‍यों के स्‍वतंत्र आचरण पर प्रतिबंध तो लगाते ही हैं। यदि सभी धर्म इतने ही उदारवादी होते। उनमें से भी, शाखाएं प्रशाखाएं न फूटतीं। सब मात्र मनुष्‍यता, 'मनुष्‍य धर्म‘ के अनुयायी होते तो आए दिन धर्म के नाम पर होने वाले विवाद मनुष्‍यता को नहीं तोड़ते; मनुष्‍यों, मनुष्‍यों के बीच, दरारें पैदा नहीं होती। जिस किसी को नाटक मे 'स्‍थान‘ नहीं मिला, उसने अपनी नाट्‌य संस्‍था खोल ली।

आपका इस संसार में तभी ठीक से गुजारा हो सकता है; जब आप कहें-तू भी ठीक। तू भी ठीक। यह भी ठीक। ठीक से विपरीत चलने वाला भी ठीक। तो सुनिए एक रोचक कथा ः-

पटना से शाम साढ़े छह बजे विक्रमशिला एक्‍सप्रैस ट्रेन चलनी थी। प्‍लेटफार्म पर जबर्दस्‍त भीड़ थी (पूरे बिहार में उन दिनों कुछ गड़बड़ चल रही थी) ट्रेन अभी प्‍लेटफर्मा पर पहुंची नहीं थी। मैंने दूर से एक खूबसूरत गोरी चिट्‌टी लंबी विदेशी युवती को रोते, इधर उधर भटकते देखा। मैंने झट से सुजान सिंह को उसके पास भेजा। खुद सामान के पास खड़ा रहा।

थोड़ी देर में सुजान सिंह उस 29 वर्षीय Miss Keye Terkin को अपने साथ लिवा लाया। उसके रोने का कारण पूछा तो मात्र इतना बताया कि 24 वर्षीय श्रीलंकाई मित्र Mr़ A़V Bhudhi उससे बिछड़ कर पता नहीं कहां पर है ?

- क्‍या आपका कुछ कीमती सामान, पासपोर्ट टिकट वगैरह उसके पास है ?

पूछने पर उसने उन्‍हीें भीगी आंखों से बताया-नहीं ऐसा कोई धोखा उसने मेरे साथ नहीं किया। मेरा सब कुछ मेरे पास सुरक्षित है।

-तब आप इतनी परेशान क्‍यों हैं ?

-ओनली फ्रैंडशिप।

-मतलब, वह आपका कब से दोस्‍त है।

-कुछ थ्‍ाोड़े रोज़ ही हम आपस में मिले थे। हमने कांट्रेक्‍ट बेसिस पर दोस्‍ती की थी कि इतने रोज़ अमुक अमुक स्‍थानों पर रूकेंगे। सात रोज़ बाद अंतिम पड़ाव आएगा। हमारी दोस्‍ती समाप्‍त हो जाएगी। फिर अपनी अपनी इच्‍छानुसार इंडिया में थोड़ा और अलग अलग होकर घूमेंगे। मैं न्‍यूजीलैंड चली जाऊंगी जहां मेरे पेरेंट्‌स बेसब्री से मेरा इंतजार कर रहे हैं। और वह अपने देश अपने हिसाब से श्रीलंका चला जाएगा।

-तब आप उसके लिए इतनी बिलख क्‍यों रही हैं ?

-क्‍योंकि मेरा जितने रोज़ उसका साथ निभाने का कांट्रैक्‍ट था, वह टूट रहा है।

मैं और सुजान सिंह, मानवीय आचरण, समर्पण भाव को समझकर हैरान और द्रवित हो उठे। यह है निष्‍पकपट व्‍यवहार।

जिन विदेशियों को हमारी नज़र, मात्र भौतिक भोगवाद के तहत देखती है, क्‍या इतनी नैतिकता हमारे यहां है।

इतने में उसका वही 24 वर्षीय दोस्‍त ए वी बुद्धि न जाने कहां से भागता हुआ हमारे पास आ पहुंचा मिस किए टर्किन का चेहरा खुशी से खिल उठा।

ट्रेन उसी समय प्‍लेटफार्म पर आ पहुंची। बीच में यदि एक बात आपको ओर बता दूं तो आप को खुशी होगी। यदि आपको पता न हो तो यह भी बता दूं कि पटना, हमारे देश के बिहार प्रांत की राजधानी है। सो इसी राजधानी पटना के प्‍लेटफार्म पर हमारी गऊ माताएं तथा उनके हसबैंड्‌स स्‍वच्‍छंद विचरण कर रहे थे।

जबर्दस्‍त भीड़ थी। ट्रेन में सीट बर्थ पाने के लिए मारामारी थी। ऐसे में मुझे काली वर्दी पहने एक टी․टी․ई․ दिखाई दिया। मैं लपक कर उसके पास पहुंचा। उसे बताया-मैं रेलवे में हूं। लंबी यात्राओं में खूब धक्‍के खाए हैं। यहां पर भी रिजर्वेशन नहीं मिला। मेरे साथ मेरा रेलवे ही का दोस्‍त तथा दो विदेशी भी हैं।

टी․टी․ई․ मुस्‍कराया। मुझे स्‍नेह भरी दृष्‍टि से देखा-अब आपके पिछले गिले शिकवे समाप्‍त हो जाएंगे। उसने एक शानदार कम्‍पार्टमेंट का ताला खोला। फिर एक दरवाजे़ वाला कैबिन खेला। हम चारों को उसमें बिठाया। बोला अंदर से कुंडी चटकनी बंद कर लो। किसी के लाख खटखटाने पर खोलना ही नहीं। नहीं तो भीड़ के रेले में पिस जाओगे।

ऐसा ही हुआ। हमने कैबिन को बंद कर लिया। बाहर शोर और जोर जोर दरवाजे पर खट खट होती रही। कुछ मनचले, फिकरे भी कसते रहे।

और इधर हम दोनों, उन दोनों से संवाद की स्‍थिति में आ गए। हमारे संवादों का माध्‍यम हमारी टूटी फूटी अंग्रेजी थी। उनकी अंग्रेजी का उच्‍चरण भी अलग से थ्‍ाा। फिर भी हमारा काम मजे, से चल रहा था।

कुछ बाते जो उस महिला के साथ हुई, गाड़ी में ही हुईं। वह जिज्ञासु प्रवृति की थी। उसने सरदार जाति के बारे में पढ़ रखा था कि ये दूसरों के काम आने वाली बहादुर कौम है। भारत भारतीयों के विषय में और जनकारी लेती रही। फिर सहसा पूछ बैठी-सुना है, यहां मां बाप ही अपने लड़के लड़कियों के रिश्‍ते तय करते हैं ? क्‍या सच है। हमने कहा। हां हमारे यहां, यही होता है।

इतना सुनते ही वह सुन्‍दरी हंसी से दोहरी हो गई। जब हंसी थोड़ी रूकी तो बोली-वाह, विवाह नहीं हुुआ। गुडि़या गुड्‌डे का खेल हुआ जिसमें बालिग कपिल की कोई च्‍वाइस नहीं होती।

हमने समझाया- उनसे पूछा जाता है। पहले तो नहीं, पर आजकल लड़की दिखाई भी जाती है। इसे नैतिकता कहते हैं। मैंने एक ही वाक्‍य कहा। अपना अपना चलन है। यदि आप हमारे देश में पैदा हुई होतीं तो हमारी बात का अनुमोदन कर रही होतीं। और मैं अगर आपके देश में पैदा होता तो आप वाली भाषा बोलता।

इस पर हंसी कम, रोष ज्‍यादा था- मां बाप को रिश्‍ता तय करने का अधिकार किसने दिया है।

लंबी ट्रेन यात्रा के दौरान कई प्रकार की बातेें होती रही। मैंने उसकी नौकरी के विषय में पूछा तो पता चला बताया-रेडिया कार्‌पोरेशन में थी।

-लंबी छुट्‌टी पर होंगी ?

- इतनी लंबी छुट्‌टी कौन देता है ?

- मेरे जैसे, दुनियां को देखने वाले लोग, नौकरी से रिजाइन कर आते हैं।

- वापस जाकर आपको पैसे की कठिनाई होगी।

- कतइर् नहीं। बहुत नौकरियां हैं। हम एक सी समरस नौकरी से चिपटे भी नहीं रहना चाहते।

मैं सोचता रहा अगर मेरी नौकरी छूट जाए या मैंने भी रेवाड़ी में नौकरी छोड़ने की बात सोची थी, तो क्‍या छोड़ सका था। हम लोग गृहस्‍थी का बंधन शीघ्र ग्रहण कर लेते हैं, जबकि वह अभी तक विरजिन (कंवारी) थी। पूछने पर उसने बताया कि शादी के विषय में उसने अभी तक कुछ नहीं सोचा।

युवती और वह युवक कुछ विपरीत प्रकृति के थे। युवक साधारण नैन नक्‍श का लगभग 'चुप्‍पा‘ था जबकि यह युवती खूबसूरत हंसमुख थी। बार बार हमारा आभार व्‍यक्‍त कर रही थी कि आपने संकट की घड़ी में उसे ढांढ़स बंधाया। सुविधाजनक बिना रिजर्वेशन बर्थ उपलब्‍ध कराई।

दोनों ने ही अपने अपने, मुल्‍क के पते, लिखकर दिए कि आप भी यदि कभी भ्रमण पर निकलें तो ज़रूर मिलें। उन्‍हें क्‍या मालूम कि मेरी आर्थिक स्‍थिति कैसी है। घरेलू परिस्‍थितियां कैसी हैं। जाना तो क्‍या, मैं उन्‍हें एक पत्र तक भी न लिख सका। आपमें से यदि कोई जाना चाहे तो पते मुझसे ले लें। मेरी डायरी में मौजूद हैं।

यात्रा के कुछ और भी मनोरंजक प्रसंग हैं जिन्‍हें यहां नहीं लिख रहा ताकि यदि आप न्‍यूजीलैंड या श्रीलंका उन दोनों के पास सुनने को न जा सकें तो, बेशक मेरे पास चले आएं।

संयोग देखिए ज़रा। वह सुपरफास्‍ट ट्रेन गाजि़याबाद, स्‍टेशन पर नहीं रूकती थी। मगर हुआ क्‍या ? गाजि़याबाद रेलवे प्‍लेटफार्म को वह ट्रेन अपनी आदत के मुताबिक घड़घड़ाती क्रास कर गई। फिर आगे यार्ड में जाकर किसी कारणवश (हो सकता है ट्रेन को ध्‍यान हो आया हो कि दो जैंटलमैंनों को यहीं गाजि़याबाद में जाना है। इन बेचारों को दिल्‍ली जाकर वापस किसी गाड़ी में गाजि़याबाद वापस आने की तकलीफ से बचाना चाहिए) रूक गई।

मैं चिल्‍लाया-सुजान सिंह। उतर ले। हमने आव देखा न ताव सारा भारी भरकम सामान यार्ड में, पटक दिया और वहीं उतर पड़े। गाजि़याबाद तो यार्डों का जंगल है। हमारे दाएं और बाएं मालगाडि़यां, पैसेंजर ट्रेनों के डिब्‍बे लगातार शंटिंग कर रहे थे। यार्ड पार करना मगरों को निमंत्रण देने जैसा लगने लगा।

-उठा ले अपना सारा सामान, मैंने अपना कुछ सामान सिर पर, कुछ अगल बगल में उठाते हुए, सुजानसिंह से भी ऐसा ही करने का आह्‌वान किया। स्‍टेशन खासा दूर था।

मैं फुर्ती से, और थोड़ा मोटा सुजान सिंह मंथर गति से बचते-बचाते चलने लगे।

-और तेज चल। जरा फर्ती दिखा। मेरी तरफ देख कैसे भाग रहा हूं।

सुजान सिंह हांफ रहा था। बोला-मैं अपना खुद का वजन भी तो ढो रहा हूं। पहले तुम मेरे शरीर जितना और वजन अपने साथ बांध लो। फिर मुझे मुकाबले का कहो।

वास्‍तव में हल्‍के जिस्‍म के फायदे हैं। मैं जब तक भी थोड़ा भाग लेता हूं। कूद कर दीवारें भी पार कर लेता हूं। कभी कभार ही थकावट महसूस करता हू।ं

दो रोज़ तक सुजानसिंह गाजि़याबाद रूक कर चला गया। मैं अपने घरों (यहां मेरे चार घर हैं) में कुछ दिनों के लिए रूका रहा।

क्‍यों ? अब छोड़ दें ना इस यात्रा प्रसंग को। यात्राएं जो मेरे हृदय के अंतःस्‍थल पर निरंतर निरंतर चलती रहती हैं, उनकी व्‍याख्‍या और उनके विषय में कहना अत्‍यंत पीड़ादायक है। मेरी संपूर्ण जीवन यात्रा ही पीड़ाओं का घर है। मैंने अपने आत्‍म कथ्‍य में इसका निरूपण किया है कि जिंदगी से मेरी कोई बड़ी बड़ी चाहनाएं नहीं है। साधारण घर साधारण आमदनी। फिजूलखर्ची की कोई किसी किस्‍म की लत नहीं। भौतिक स्‍तर पर जो जो कुछ भी मुझे चाहिए होता है, वह वह मुझे बिलकुल मुफ्‍त में, या थोड़ा सा पैसा खर्च करने से प्राप्‍त हो जाता है। उगता हुआ सूरत, चांद सितारे धरती आकाश, बारिश हवाएं। उसके साथ झूमती नाचती पेड़ों की डालियां। चहकती फुदकती गिलहरियां। तितलियां चिडि़यां। पद्‌मनी गोपीकिशन, वैजेंती माला, वहीदा रहमान के नृत्‍या लता नूरजहां, खुर्शीद सुरैया, ताहिरा सीमा सहगल बेगम अख्‍तर, के․एल․ सहगल, हेमंत, मनाडे, रफी, बड़े गुलाम अली खां, बहुत से हैं, जिनका गायन मुझे आसमान तक की सैर करा लाता है। आज्ञाकारी औलाद, कर्मठ पत्‍नी, मेरी ढेर सारी किताबें, छोटी सी बगिया। दुनियां भर के नन्‍हें बच्‍चे। चाहने वाले दोस्‍तों का आगमन। यह सब जीवन के उज्‍ज्‍वल पक्ष मुझे नख-शिख तक तरंगित करते हैं।

फिर मैं दुःखी क्‍यों हूं। दूसरों की ही तकलीफ में अपने को मुबतला पाता हूं। अनजाने लोगों की मृत्‍यु यातनाओं पर, देश को वास्‍तविक रूप से जिन जिन ज्ञात अज्ञात क्रांतिकारियों की भोगी यातनाओं (इसमें कांग्रेसजन शामिल नहीं। उन्‍होंने तो दूसरों की कमाई पर आधिपत्‍य जमा कर सत्त्‍ाा सुख हािसल किया) की गाथाएं पढ़ पढ़कर तथा कारूणिक संगीत सुन सुनकर, डोली चढ़ती बालिकाओं को देख देख कर आंसुओं की नदी बह निकलती है। मेरे जिस्‍म को अगर काट कर देखो तो लहू से ज्‍यादा आंसू ही निलेंगे। यह सारी दुनिया अनादिकाल से अब तक जुल्‍मों सितम की गाथा कहती हैं। यहा अनीतियां विसंगतियां, विषमताएं हैं। ईमानदार पिसता है। बेईमानों भ्रष्‍टाचारियों का बोलबाला है। जहां गरीबों को भूखे पेट सोना पड़ता है। पटरियों पर जिंदगी गुजारनी पड़ती है। घुटनभरी उमस भरी झोंपडि़यों से पुलिस के डंडों से बेदखल कर दिए जाते हैं। यहां बच्‍चों और असहाय बूढ़ों तक को भी नहीं बख्‍शा जाता।

मैं स्‍यातवाद दर्शन का हामी हूं। तो भी किसी अदृश्‍य शक्‍ति से बिनती करता हूं- तूने मुझे इतनी घटिया दुनियां में जन्‍म क्‍यों दिया। मेरी यह जीवन-यात्रा अंतिम जीवन यात्रा हो। हां अगर तूने कोई ऐसा लोक भी बना रखा हो जहां मानव, मानव की सुख सुविधा का ख्‍याल रखता हो। सब अपने अपने श्रम का खाते पीते हों। कोई किसी के हक पर अपना आधिपत्‍य नहीं जमाता हो। जहां पुलिस प्रशासन, न्‍यायाधीशों अस्‍पतालों डाक्‍टरों की आवश्‍यकता ही न पड़ती हो। कोई अकाल मृत्‍यु का ग्रास न बनता हो तो बेशक वहां मुझे भेज देना। मनुष्‍य अपनी ठीक निर्धारित अवधि तक जीये। अरे मनुष्‍य ने तो रिटायरमेंट एज बना रखी है। अच्‍छे बुरे संगत असंगत कानून नियम बना रखे हैं। तेरे यहां तो कोई हार्ड एंड फास्‍ट (स्‍थाई शाश्‍वत) रूल ही नहीं है।

कलकत्त्‍ाा, बंगाल, उड़ीसा, महाराष्‍ट्र की नेपाल यात्राओं के दौरान मैंने पाई पाई को, रोटी के जरा से टुकड़े को तरसते बूढ़ों बच्‍चों से साक्षात किया। मनुष्‍य मनुष्‍य को, हथ गाड़े पर ढ़ो रहा है। हांफ रहा है। बार बार पसीना पोंछ रहा है। बच्‍चे जान को जोखिम में डाले ताड़ी के ऊंचे ऊंचे पेड़ों पर चढ़ रहे हैं। तालाबों में फैंके गए पैसों को मुंह से पकड़ कर रोज़ी रोटी कमा रहे हैं। जूठे फेंके गए पतलों से जूठन चाट रहे हैं। उस जूठन के लिए कुत्त्‍ाों गायों की भांति एक दूसरे से लड़ झगड़ रहे हैं। मंदिर, दर्शनीय स्‍थलों को िदखाने के लिए, दो दो पैसे मांग रहे हैं। दूर तक यात्रियों का पीछा कर रहे हैं ''बाबूजी हम को गाइड बना लो। सब चीजे़ अच्‍छी तरह से दिखा देंगे। बस दो पैसे।‘‘ कहां तक गिनाऊं। यह सब भी मेरे जीवन की अंतःयात्राएं यंत्रणात बन गई हैं, जिन पर मेरा कोई बस नहीं चलता। वे पर्यटकों की हंसी, और प्रताड़ना के पात्र बनते हैं। शायद घर में मां, बच्‍चे बीमार भूखे है।ं और वे ऐसी अपमान भरी जिंदगी जीने के अभ्‍यस्‍त हो गए है॥

हमारे प्रशासकों राजनेताओं को जरा भी शर्म नहीं आती कि वे किन पर राज कर रहे हैं।

मेरे जैसा क्‍या कर सकता है। बस कलम उठा सकता है। देश की 75 प्रतिशत भूखे नंगों के भाग्‍य को नहीं बदल सकता। कई बार लगता है; अपनी भावनाओं से खिलवाड़ कर, अपने आपको बहलाने का प्रयत्‍न कर रहा हूं। लोग बाग मनोरंजन के लिए, ज्‍यादा से ज्‍यादा अनुभव बटोरने के लिए, अपनी शान मारने के लिए कि हम वहां वहां हो आए हैं। यह यह इमारते यह स्‍थल देख आए हैं, पर मुझ जैसे बेवकूफ के लिए यही सब दिल हिला देने वाली पीड़ा के स्‍थाई-भाव, घाव छोड़ जाते हैं। ताजमहल की पीड़ा-कथा, सहर लुधियानवी ने लिखकर मेरे आंसू बहा दिए। रह रहकर यही सोच जिस्‍मोदिमाग पर हावी होती है, यह दुनिया क्‍या रहने लायक जगह है ? बारहा उन लोगों से ईर्ष्‍या होने लगती है जो मुझसे पहले इस दुनिया से कूच कर गए।

मैं ज्ञानी नहीं हूं। हो सकता है ज्ञानी लोग मेरे इस दुःखमय जीवन-दर्शन पर हंसे, मज़ाक उड़ाएं। भगवान के अंधभक्‍तों का तो कहना ही क्‍या।

मुझ में इतना साहस भी नहीं कि मैदाने जंग में कूद पड़ूं। पर मेरे अकेले जैसे भीरू, महत्‍वहीन व्‍यक्‍ति से होगा भी कितना और क्‍या ? हां अगर दुनिया का काया पलट करने के लिए अपने जीवन का बलिदान दे सकूं तो खुशी होगी।

जिन्‍होंने स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति हेतु अपने जीवन की बलि चढ़ा दी, उन्‍होंने क्‍या पा लिया? उल्‍टा, असामाजिक घोर स्‍वार्थी लोगों को देश की बागडोर सौंप कर चल बसे। गुंडे, भ्रष्‍टाचारी। ऐश कर रहे हैं।

लगता है वे बेचारे निहायत भोले थे जिन्‍होंने देश के लिए नहीं, बेईमानों के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।

गिनवाने की जरूरत नहीं जीवन के विविध क्षेत्रों में भी जरा झांक कर देख आइए। यहां तिकड़मबाजों, चापलूसों, बेईमानों आदि आदि ही का बोलबाला है। उन्‍हीं की जय है। ईमानदारों, चुपचाप अपने काम से काम रखने वालों की अपवादस्‍वरूप ही पूछा पूजा जाता है। मर गए, निराला, भुवनेश्‍वर, मंटो, मुक्‍तिबोध, कहां तक गिनवाएं-यह मुर्दापरस्‍तों की दुनिया है। सहर आदि की पीड़ा सहज होकर ही अनुभव की जा सकती है।

लौट के बुद्धु घर को आए ः-

दश्‍त को देख घर याद आया ः-

कितनी भी लंबी, दिनों महीनों की यात्राएं आप क्‍यों न करें। अंततः घर ही लौटना पड़ता है। घर परिवार ही अच्‍छा लगता है। बाहर की ठोकरें खाने के बाद घर की अहमियत का पता चलता है। मैं, एक बात और, प्रायः कहा करता था कि मेरे जैसे चंद लोग जो नाइट ड्‌यूटीज देते हैं, उन्‍हें जब जब घर पर रात को सोने को मिलता है तो वैसा सुख का अहसास उन लोगों को कतई नहीं हो सकता जो हर रोज रात को, घर पर सोते हैं। खैर 30-3-1978 की सुबह 20 रोज की भ्रमण यात्रा से अपने प्‍यारे घर (रेलवे क्‍वार्टर टी․62-सी) और प्‍यारे परिवार से आन मिला। लिखने को कुछ प्‍लॉट्‌स भी बटोर लाया। पर ऐसा भी नहीं है। प्‍लॉट्‌स तो घर बैठे बैठे वैसे ही मेरे पास चले आते है जिन्‍हें मैं दुःखदाई समझ कर पीछे धकेलता रहता हूं। कहा तक लिखूं। वैसे भी मेरी खास पूछ नहीं है।

बाकी आगे पीछे का हालेजिक्र पहले कर आया हूं। बार बार डर सता रहा है कि दुहराव न हो जाए। इस दिशा में सतर्क हूं। फिर भी कुछ कमियां रह जाएं तो पढ़ने वाले मुझे सहृदयतापूर्वक क्षमा करेंगे। जीवनगाथा इस उम्र में लिखना खासा जटिल जोखिम भरा कार्य होता है। हम सरकार के प्रतिबंधों से भले ही न डरें, घर परिवार वाले और दीगर दोस्‍त भी तो चाबुक लिये खड़े होते हैं। सबका मुकाबला करना सहना पड़ता है। सभी मित्र, घर वाले कहते हैं ''तुम बस अपनी बात करो। अपनी आप-बीती लिखो। दूसरों को लपेट में क्‍यों लेते हो। कितना हास्‍यस्‍पद है यह जुमला। मेरे अस्‍तित्‍व का होना, बिना समाज के, क्‍या संभव है। मेरी अपनी मौलिक सोच को क्‍या मैं अपने से जुदा कर सकता हूं ? यह तो वैसा ही हुआ जैसे अपनी अंगुलियों, अंगूठों, बाहों, पैरों, मुंह, आंखों, कानों को काट काट कर अलग अलग कर देखूं। वहां शरीर हो ही नहीं

कुछ लेखक मित्रों का तकाजा है (हां यह बात पहले भ्‍ाी लिख आया हूं) कि चूंकि तुम लेखक हो, अपने लेखक होने और दूसरे लेखकों पर ही लिखो। क्‍या ऐसा नहीं सोचा जा सकता कि दुनिया का 99 प्रतिशत भाग लेखकों का नहीं है तो क्‍या वें ही 99 प्रतिशत हमारे लेखक होने के अंग नहीं है। उन्‍हीं का ही तो हमें आभारी होना चाहिए, जिन्‍होंने हमें लेखक बनाया। सोचने समझने लिखने की सामग्री उपलब्‍ध कराई।

श्री बुलाकी शर्मा जब जब आते हैं तो मेरे प्रेम प्रसंगों को कुरेदने, उन्‍हें बताने/लिखने को कहते हैं। भई कुछ होता तो काहे को छिपाता। हाए रोमांस। काश कि किया होता तो डींग मारता। समझ लीजिए मेरी पत्‍नी ही मेरी प्रेमिका है। बस। बाकी जो कुछ था 'मेरे जीवन में लड़कियां चैपटर में लिख ही आया हूं।

पिछले दिनों श्री वेदव्‍यास मेरे निवास पर पधारे। उन्‍होंने भी वही पूछ डाला कि किसी या किन्‍हीं लड़कियों से कभी मुठभेड़ हुई। तब एक अजीब सी घटना की याद ताजा हो आई। मैं रेवाड़ी से बीकानेर के लिए एक डिब्‍बे में चढ़ा था। बाद में गौर किया तो वहां पर लड़कियां ही लड़कियां थी। स्‍पोर्टस्‌ गर्ल्‍ज। कोई मैच जीकर या हार कर या कि जीतने हारने के लिए यात्रा कर रही थीं। मुझे देखकर हंसने लगीं- ये लेडा कहां से आ गया। मैं चुप रहा। कुछ समझ न सका तो एक बोलीं- उतरिए यह लेडीज कम्‍पार्टमेंट है।

मैंने कहा- पर इस पर ऐसा कुछ लिखा हुआ नहीं है।

- न लिखने से क्‍या होता है।

- अगर लिखा होता तो मैं इस पर कतई नहीं चढ़ता।

- तो अगले स्‍टापेज पर उतर जाएंगे ना ?

- बिल्‍कुल नहीं। चलो तुम चाक से ही लिखवा दो तो उतर जाऊंगा।

- हम क्‍यों लिखवाएं ?

- तब मैं क्‍यों उतरूं ?

ऊपर की बर्थ पर लेटी हुई लड़की बोल उठी- बेचारे की चाह है तो बैठा रहने दो।

सब खिलखिलाकर हंस पड़ीं- आओ आओ मेरे पास बैठो। वे मजे़ ले रही थीं। पर मैं सिद्धांत की बात कर रहा था। लेडी कंपार्ट लिखा हुआ होना चाहिए।

उनके लिए यह मजाक था। मेरे लिए झिकझिक जो रतनगढ़ तक चलती रही। मैं ए․एस․एम․ के पास पहुंचा। सभी जान पहचान के थे। उन्‍होंने कहा-सहगल तू ही मान जा क्‍यों जिद करता है। सो दूसरे डिब्‍बे में चला गया।

तो इसे कहते हैं रोमांसरहित खुश्‍क मुठभेड़। हां आगे 2000 की डायरी में जो किताबों के छपने, कुछ के लोकार्पण के, कुछ पुरस्‍कारों के मिलने आदि के विवरण लिखे पड़े हैं उनमें से कुछ का जिक्र शायद कर आया हूं। न भी किया हो तो उन्‍हें न िलखने में भी कोई हर्ज नहीं।

एक बहुत ही मामूली सी पर थोड़ी विचित्र लगने वाली बात। अप्रैल या मई या जून 2007 की। हर रोज सुबह जब सैर को निकलता तो एक लघुकथा का मसाला दिमाग पर तारी हो जाता। घर लौटकर फौरन पांच सात मिनट में एक लघुकथा लिख डालता। ऐसा आठ रोज तक होता रहा। फिर यह सिलसिला अपने आप बंद हो गया। ऐसा क्‍यों होता रहा। रहस्‍य है। एक बार बुरी तरह से बीमार पड़ा था। सारा बदन तप रहा था। बार बार मजबूरी में पेशाब को जाना पड़ता था। फिर बिस्‍तर पर पड़ते ही; उर्दू के कितने उल्‍टे सीधे मिसरे नज्‍में सी बेखुदी में लिख गया। वे शायद छपने लायक न हों। उन्‍हें यदा कदा अब भी पढ़ जाता हूं। आउट अॉफ सब्‍जैक्‍ट कैसे लिख गया ?

पहले भी शायद लिखता आया हूं , यह जीवन अजूबों का पिटारा है, जिसका हमारे स्‍वयं के पास कोई उत्त्‍ार नहीं होता।

अपने पुराने साथियों से रूबरू होना।

यह आत्‍मकथा मैंने मई दिवस 1 मई 2010 से लिखनी प्रारम्‍भ की थी। टारगेट था कि इसे 1 मई 2011 तक पूरा लिख डालूंगा। किन्‍तु किन्‍तु 28 फरवरी 2011 को दाई आंख का मोतियाबिंद का, तथा इसी प्रकार 28 मार्च 2011 को बाई आंख का आपरेशन कराना पड़ा। दोनों आपरेशन डॉ मुरली मनोहर जी ने बड़ी कुशलता से किए। वे मेरा लिखा पढ़ते रहते थे अतः बहुत ही सम्‍मान के साथ पेश आते थे। वैसे भी वे सभी मरीजों के चहेते काबिले इज्‍़ज़त डाक्‍टर हैं। इतना अच्‍छा हंसमुख डाक्‍टर आजकल मिलना दुर्लभ प्रायः है।

इन आपरेशनों के दौरान/पश्‍चात मेरा लिखना पढ़ना, टी․वी देखना सब बंद। यह सब मेरे लिए किसी सज़ा से कम नहीं था। ऐसे में मैं क्‍या करता। इधर हमारी कमला रानी जी ने हमेशा की तरह घर सुधरवाने का ठेका मजदूरों कारीगरों को दे, दिया। सारा दिन घर धूल से भरा रहता। सभी की तरह मुझे भी अपनी कीमती आंखों की रक्षा तो करनी ही थी। सो पिछवाड़े बड़ी बहू सरोज के घर जाकर कुछ जरूरी सामान के साथ डेरा जा जमाया। टेपरिकार्डर और ढेर सारी कैसिटें साथ ले गया था। लिखने पढ़ने के कारण जिन गानों को मुद्‌दतों से नहीं सुन पा रहा था। अब उन्‍हें आंखे मूंदे सुन सुनकर अच्‍छा वक्‍त गुजार लिया। और कर ही क्‍या सकता था। इन दिनों बहुत ही पुराने शास्‍त्रीय संगीत पर आधारित फिल्‍मी गाने इंटरनेट पर से ढूंढ़ ढूंढ़ कर मेरे पड़ोसी मित्र श्री नवनीत सारस्‍वत, उनका बेटा सारंग, सारंग की मां चंपा, उसकी बहन कल्‍याणी उपलब्‍ध करवा रहे हैं। धन्‍यवाद। वैसे मैं पांच मिनट तक भी खाली नहीं बैठ पाता। देख लेता हूं, इन तीन पांच दस मिनटों में क्‍या किया जा सकता हैं चलो लिफाफों पर पते ही लिख डाले जाएं। उन पर मोहरें ही लगा दी जाएं। फाइलों में से अपेक्षित सामग्री मेज पर सामने रख्‍ा दी जाए। कभी कोई लघुकथा जैसी चीज, या छोटा पत्र भी लिखा जाता है। ठीक ठाक पोस्‍टकार्ड लिखने में 20-25 मिनट आधा घंटा तक लग जाता है ः तब कुछ कुछ आधुनिकता बोध का अहसास होता है कि आज अधिकतर लेखक संपादक पत्रों के उत्त्‍ार ही नहीं देते। यदि रहम खा लिया तो फोन ''समय बचाने के लिए फोन कर रहा हूं‘‘ कहानियों के लिए हम फोन करें और स्‍वीकृति पाएं जिसका कोई रिकार्ड नहीं होता। पर पत्र लिखना मेरा व्‍यसन है। खूब पत्र लिखता हूं। पहले तो पत्र लेखन को भी सृजन की श्रेणी में माना जाता था। पर न तो पहले वाले संपादक रहे न ही लेखक। सब अपने अपने में मग्‍न हैं।

ऊपर डाक्‍टर मुरली मनोहर का जिक्र कर आया हूं, जबकि कुछ कुछ अति गंभीर चेहरे वाली हमारी एक रेलवे डाक्‍टर सुलक्षणा दत्त्‍ाा भी हैं। ऊपर से कुछ कुछ खुश्‍क, पर अंदर से निहायत नर्म। अच्‍छी कविताएं लिखती हैं ः अपनी तरह की। पर छपने में उदासीन। तकाज़ा कर करके बहुत थोड़ी सी कविताएं भिजवाई। भगवान की रचना-सृष्‍टि पर पूरी तरह से आस्‍थावादी। उन्‍होंने भी कुछ चमत्‍कार जैसी चीजे कर दिखलाई। जिन पर सहसा विश्‍वास नहीं होता। उनके पास भी कभी थोड़ी देर जा बैठता हूं। बेशक हमारे जीवन-दशर्न अलग अलग क्‍यों न हों। एकदम खुश वे भी तो नहीं रह पातीं। अपनी तर्कसंगत मान्‍यताओं को लेकर मेरी उनसे कुछ बहस कुछ विमर्श हो जाता है। मुझे एक दो के बीच बैठना, अपनी बात कहना, दूसरे की बात ध्‍यान दे कर सुनना भाता है। साहित्‍यिक गोष्‍ठियों में जो आपाधापी, अपने को अधिक से अधिक महत्‍वपूर्ण सिद्ध करने की होड़ होती है उससे विरक्‍ति होती है वहां के नजारे कभी कभी तो बहुत विचित होते हैं। एक बार कभी 'बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून) को गुस्‍सा क्‍यों आता है ?‘ छोटा सा लेख पढ़ा था। लिखते हैं ''गुस्‍सा आता है, तब, जब देखता हूं कि रचनाकारों से ज्‍यादा ऊंचा पीढ़ा समीक्षकों ने हथिया लिया है। तब, जब गली स्‍तर के साहित्‍यकार विभिन्‍न अंतर्राष्‍ट्रीय पाकेट संस्‍थाओं से सहस्राब्‍दी के व्‍यक्‍तित्‍व आदि को तमगा ले लेते हैं, और बड़ी बेहयाई से उसे स्‍थानीय अखबारों में छपवा कर शान से ऐंठते हुए सड़क पर निकलते हैं। तब जब दो कौड़ी के लोग मंचों पर जोकरी कर मुझसे ज्‍याद पारश्रमिक और प्रतिष्‍ठा हासिल कर लेते हैं। तब, जब मेरे सामने डिग्री कॉलेजों का मूर्ख हिन्‍दी प्राध्‍यापक, विद्वान्‌ माना जाता है और․․․․․ मैं हिन्‍दी अधिकारी मात्र, और तब जब मेरे रिश्‍ते नाते के लोग मेरी उच्‍चता का मूल्‍यांकन मेरी भौतिक (गैर साहित्‍यिक उपलब्‍धियों के आधार पर करते हैं। तब बहुत गुस्‍सा आता है।

बेशक यह विद्वान बुद्धिमान का अन्‍दरूनी आक्रोश हो सकता है। इसे नाजाइज भी तो नहीं ठहराया जा सकता है। पर मगरों के बीच जाने से बचना, मेरा जीवन है। यही मेरी जीवनी-संजीवनी है। हम इतनी भीड़ भरी मानसिकता को सुधार नहीं सकते। तब ऐसी संगोष्‍ठियों से, साथ ही ऐसी कुछ पत्रिकाओं से, उनके संपादकों, उनकी जी हुजूरी करने वाले लेखकों (या तथाकथित लेखकों) से हम, अलूफ क्‍यों न रहें। काहे को दिल जलाएं। हां ज्‍यादा नहीं तो लोकल अखबारों की छोटी छोटी कभी कभी कुछ मोटी मोटी न्‍यूज पर नज़र पड़ ही जाती है, जहां छोटे छोटे लौंडे कुछ मोटे मोटे भी गणतंत्र, स्‍वतंत्रता आदि आदि दिवसों पर शहर के 'रतन‘ 'गौरव‘ 'प्रतिभा‘ बने अखियों के झरोखे में तैरते दिखलाई दे जाते हैं। कुछ बुनियादे तिकड़म, बुनियादे जातिवाद के कारण ही अपना नाम लिखवाने में कामयाबी हासिल कर फूले नहीं समाते। ऐसे में दिल जलाने की बजाए, हमें खिलखिलाना ही चाहिए।ऐसे लोगों पर गुस्‍सा करने की बजाए, केवल हंसा ही जा सकता है। उन्‍हें नहीं पता कि बिना मेहनत, बिना समझ उनका आगे का भविष्‍य क्‍या होगा।

बुद्धिनाथ जैसों को और कुछ कुछ मेरे जैसों को इन बातों पर ध्‍यान न देकर अपने उत्‍कृष्‍ट साहित्‍य रचने पर ध्‍यान केन्‍द्रित करना ही श्रेयस्‍कर होगा।

मैं साहित्‍य जगत का कोई बड़ा नामचीन बेशक नहीं बन पाया मगर जो थोड़ा बहुत लिख लिया, वह इसी कारण से कि मैं अधिकांशता इन पचड़ों में नहीं पड़ा। तभी।

फिर थोड़ा आउट अॉफ ट्रैक। हमें खुश होना चाहिए, अपनी अच्‍छी पत्‍नी को देखकर, होनहार औलाद को देखकर। इन्‍हीं दिनों बारहवीं बोर्ड की परीक्षा परीणामों को देखकर। मेरी प्रिय भोली पोती पूरे राजस्‍थान में मैरिट में तीसरे, जिला स्‍तर पर प्रथम आई है। जगह जगह उसे सम्‍मानित किया जा रहा है। इनके समक्ष यह छोटे मोटे, ऊट पटांग से सम्‍मान क्‍या मायने रखते हैं। ठीक इन्‍हीें दिनों (और इससे पूर्व भी) मैंने थोक सम्‍मानों को ठुकराया है। शायद लिख आया हूं कि सबसे अच्‍छा सम्‍मान जो मुझे छू गया। सांझी विरासत वालों ने मेरे घर पर आकर मेरे परिवार के बीच सम्‍मानित किया। मुम्‍बई दिल्‍ली में भी मुझ अकेले ही को सम्‍मानित किया था। हां जुबली नागरी भंडार, बीकानेर और श्रीडूंगरगढ़ की हिन्‍दी प्रचार समिति ने भी एकल सम्‍मान दिया था, जबकि मैं साहित्‍य जगत की कोई बड़ी हस्‍ती तो कहलाता नहीं हूं फिर भी कुछ कद्रदान कभी कभार मिल ही जाते हैं। हां बहुत बड़ा पाठक वर्ग भी मेरा कद्रदान है जिनके प्रशंसा पत्र मेरे पास मौजूद हैं।

और भी बहुत बड़ी दुनिया है सािहत्‍य के सिवा। जहां तक में सोचता हूं, हमें अपनी जीवनी में मात्र साहित्‍य पर, अपनी साहित्‍य की, डींग से बचना चाहिए। मेरी तो साहित्‍य में खास अहमियत है ही नहीं। तो क्‍या मुझे अपनी जीवनी नहीं लिखनी चाहिए। जो कुछ इस छोटी सी बड़ी सी जिंदगी में देखा समझा उस पर विचारा, ज्‍यादातर अच्‍छे लोगों से ही वास्‍ता पड़ा, तब क्‍या अपने समग्र जीवन पक्षों को बरतरफ़ रखकर क्‍या साहित्‍य लिखा भी जा सकता है। मेरी समझ से बाहर है।

इन दिनों मन्‍नू भण्‍डारी जी की निहायत सादगी से लिखी खूबसूरत जीवनी पढ़ रहा हूं। पर उसमें साहित्‍य ही की भरमार है। मुझ जैसे अनाड़ी को सोच जरूर आती है कि क्‍या यह मात्र लेखकों के लिए उनके भौंडेपन या उनके कुछ अच्‍छे सरोकारों पर ही केन्‍द्रित होकर नहीं रह गई। दुनियां में अलेखकों की संख्‍या ही ज्‍यादा होती है। उनके दुःख-दर्द प्रताड़नाएं आदि को क्‍या साहित्‍यकार जैसा श्रेष्‍ठ दर्जा पाने वाला अनदेखा कर सकता है। क्‍या सारी की सारी दुनिया, मात्र लेखकों की दुनिया है। उनके ही अभावों, उनकी ही उठापटक के सरकसों में रमे रहने वालों की दुनिया।

यह सही है कि मन्‍नू जी ने बहुत थोड़ा परन्‍तु श्रेष्‍ठ लिखकर राजेन्‍द्र जी, कमलेश्‍वर जी से बढि़या काम किया। रेणु जी भी क्‍या कम थे किन्‍तु बाज़ी मार ले गए ताश के तीन इक्‍के। बिलाशक लेखन में इन तीनों से ज्‍यादा, उत्‍कृष्‍टता के आधार पर इज्‍़ज़त मोहन राकेश की ही है। मैंने तो उन्‍हें देखा नहीं था पढ़ा काफी। और उनके विषय में सुना भी काफी कि नकचढ़े थे। थे तो थे। अगर मेरे साथ, उपेक्षा का व्‍यवहार करते तो उनके श्रेष्‍ठ लेखन के बावजूद, उनसे भी वितृष्‍णा ही उपजती। अपने स्‍वभाव और अपने स्‍वाभिमान को लेकर। हर छोटे से छोटे व्‍यक्‍ति का अपना स्‍वाभिमान हुआ करता है। उसकी रक्षा हम स्‍वयं, किसी भी कीमत पर कर सकते हैं। हमें करनी भी चाहिए। मात्र छपने के लिए जिन जिन, खास तौर से लेखिकाओं के किस्‍से पढ़ने-सुनने को मिलते हैं तो हैरानी होती है। क्‍या कोई इतना नीचे गिर सकता है।

रेत की मछली भी पढ़ी थी। यात्री जी ने कहा था 'दिल करता है ः धर्मवीर का मुंह झापड़ों से भर दें। मुझे भी लगा था क्‍या कोई ख्‍यातिनाम लेखक इतने निकृष्‍ट आचरण भी कर सकता है। रवीन्‍द्र जी के बारे में मैं कुछ कुछ पहले ही संक्षेप में लिख आया हूं। रूबरू नहीं हुआ। बस थोड़ा पत्राचार थोड़े फोन। जीवन है तो बस आस्‍त्रोवस्‍की की गैर साहित्‍यिक 'अग्‍नि दीक्षा‘ अनु0 अमृत राय। अत्‍यंत प्रेरणास्‍पंद। धर्मवीर आई․ए․एस․, नेहरू जी के सलाहकार की भी गैर साहित्‍यिक। खूब रोचक है। अमृता प्रीतम की भी रोचक साहित्‍यिक है। कमला दास की चटखरेदार ही लगी। कहने का वही तात्‍पर्य कि हर कृति को यदि पाठक अपने ही नहीं, लेखक के अंदाज से देखे तभी कृति और कृतिकार के साथ न्‍याय संभव हो पाता है। न तो लेखक को और न ही पाठक को एक दूसरे पर अपने विचार थोपने चाहिए। कमलेश्‍वर जी की संडे मेल में आधारशिलाएं छप रही थीं तो उस पर मेरा थोड़ा लंबा पत्र छपा था कि क्‍या घटिया काम करने, अपने दंभ में ही अलमस्‍त रहने का अधिकार केवल कमलेश्‍वर जी ही को है। बाकी ऐसा करें तो कमलेश्‍वर जी की नज़र में घटिया है ? कन्‍हैयालाल नंदन जी ने थोड़े हफ्‍तों में इसे बंद कर दिया था। डॉ वीरेन्‍द्र सक्‍सेना अपनी जीवनी, मणिका मोहिनी द्वारा संपादित पत्रिका वैचारिकी में छपवा रहे थे। एकदम लच्‍चर सी (ऐसा मुझे और दूसरों को भी, लगा था) बंद करनी पड़ी थी। 'अपनी खबर‘ छोटी सी, उग्र जी की जीवनी टु द प्‍वाइंट लगी। बाकी रही बच्‍चन जी की तीन भागों वाली 'क्‍या भूलूं क्‍या याद करूं‘के कुछ अंश ही पढ़ पाया। बहुत लंबा है। महंगी तो होगी ही। रवीन्‍द्र कालिया के 'गालिब छुट्‌टी शराब‘ के कुछ ज्‍यादा अंश पत्रिकाओं में पढ़े। बेशक शानदार रोचक हंसाने वाले हैं। और आज की कुछ लेखिकाएं जो जीवनियां लिख रही हैं। माफ करें मेरी नज़र में मात्र प्रचारित होने के लिए, अपने को उधेड़ रही हैं। कृष्‍ण अग्‍निहोत्री से भी पूछा जा सकता है, यदि हिमांशु जोशी, ऐसे थे तब तुम मात्र छपने के मोह में खुद क्‍या कर रही थी। तो क्‍या यही है, हमारे साहित्‍य, साहित्‍यकारों की दुनिया; जिस पर ज्‍़यादा लिखा जाना चाहिए ? सो दुहराता हूं, मेरी जीवनी मेरी तरह की है। आम लोगों के लिए है।

मेरी पढ़ने की अपनी कुछ छोटी सीमाएं हैं। मैं कोई साहित्‍य का प्रवक्‍ता, लेखक नहीं हूं। सो जो जो भी लोग इसे पढ़ने की इनायत करें, इसी दृष्‍टि से ही पढ़ें। इसकी तुलना पूर्ववर्ती जीवनियों से करेंगे तो, एक तो उन्‍हें निराशा हो सकती है। दूसरा मुझे भी अच्‍छा नहीं लगेगा। यह सब इसलिए कि मैं अपने जीवन की छोटी से छोटी घटना को भी अपने साहित्‍य लेखन के अंग के रूप में ही देखता हूं। वही सब प्रत्‍यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से मेरे लेखन में कहीं न कहीं मौजूद है।

कई मगरों से जूझता, बचता बचाता, इस समापन बिन्‍दु तक आ पहुंचा हूं। कल की कल (काल) जाने।

(समाप्त)

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. dayanidhi batsa11:23 pm

    बहुत ही रोचक. शानदार. क्या आप मुझे श्रीमान हरदर्शन सहगल साहब का पत्राचार का पता ई-मेल कर सकते हैं... dnbatsa@gmail.com

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रचनाकार: हरदर्शन सहगल की आत्मकथा - डगर डगर पर मगर : अंतिम भाग
हरदर्शन सहगल की आत्मकथा - डगर डगर पर मगर : अंतिम भाग
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