स्वाति तिवारी का कहानी संग्रह - मेरी प्रिय कथाएँ

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मेरी प्रिय कथाएँ   स्वाति तिवारी   समर्पित प्रिय मित्र वन्दिता श्रीवास्तव , प्रवीण खरे, अंजू घिया, मानुश्री भार्गव एवं...

मेरी प्रिय कथाएँ

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 स्वाति तिवारी

 

समर्पित

प्रिय मित्र वन्दिता श्रीवास्तव, प्रवीण खरे, अंजू घिया, मानुश्री भार्गव एवं कृष्णा माहेश्वरी को ...

 

अनुक्रम

1. स्त्री मुक्ति का यूटोपिया 7

2. रिश्तों के कई रंग 14

3. मृगतृष्णा 18

4 आजकल 30

5 बन्द मुट्ठी 39

6 एक फलसफा ज़िन्दगी 45

7 बून्द गुलाबजल की 52

8 अस्तित्व के लिए 59

9 गुलाबी ओढ़नी 68

10 एक ताज़ा खबर 75

11 अचार 79

12 ऋतुचक्र 86

13 उत्तराधिकारी 92

14 बैंगनी फूलों वाला पेड़ 99

15 मुट्ठी में बंद चॉकलेट 104

16 एक और भीष्म प्रतिज्ञा 110

17 स्वयं से किया गया वादा 117

18 चेंज यानी बदलाव 123

19 भाग्यवती 134

20 नौटंकीवाली 140

21 दूसरी औरत 147

22 वापसी 154

23 शोकपत्र 164

24 अंतराल 170

 

भूमिका

अपनी ही कहानियों में कुछ एक को अलग से छांटना एक दुविधाभरा काम है। लिखते समय एक कहानी के साथ आत्मीयता हो जाती है। घटना के पात्रों में या तो लेखक का परकाया प्रवेश हो जाता है या वह उन पात्रों को निकट से देख रहा होता है, रच रहा होता है - कथा लेखन प्रसव-पीड़ा सा अनुभव होता है। अतः यूं तो हर रचना लेखक को अच्छी लगती है लेकिन प्रकाशन के बाद लेखक की निकटता उस रचना से कम हो जाती है और पाठक की ज्यादा। एक अंतराल के बाद कोई नया कथानक लेखक के निकट होता है... यह अंतराल हर रचना के साथ आता जाता है। ऐसे में आत्मीयता की .ष्टि के साथ कहानियों को पसंद करने का क्रम भी बदलता जाता है। इसलिए जो कहानियां प्रिय कथाओं के रूप में चुनी हैं उनके चयन का कोई ठोस कारण ना होते हुए भी सिर्फ यह कहना ही उपयुक्त है कि वे मुझे अच्छी लगती हैं...... और अपनी ही कहानियों से गुजरते हुए इन कहानियों पर ठहरना अच्छा लगता है 'मुट्ठी में बंद चाकलेट' नया ज्ञानोदय के 100वें अंक में 'रजनीगंधा की कली' के नाम से आयी और पाठकों में तहेदिल से सराही गयी। मोबाईल का एसएमएस बाक्स लगातार समृद्ध होता गया। पाठकों के पत्र मिले, फोन ने पाठकों के साथ एक मधुर रिश्ता कायम किया। 'बैंगनी फूलों वाला पेड़' छोटी सी कहानी पर उम्र का वह नाजुक पड़ाव है, जो हर किसी के अंदर कहीं अपनी एक खास जगह पर यादों में बना रहता है। शायद इसीलिए यह कहानी पाठकों की पसंद भी बनी। 'ऋतुचक्र' हमारे पर्व तीज-त्यौहार परम्पराओं के साथ ऋतुओं के अंतरसंबंधों को लेकर लयात्मक रूप से आगे बढ़ती है और एक प्रश्न पर जाकर समाप्त होती है। 'अंतराल' कहानी पुरस्.त हुई पर लिखते हुए मैं इतना रोई कि कहानी को एक अंतराल तक खुद नहीं पढ़ पायी। रेडियो पर कहानी का नाट्य रूपांतर आया।

कहानी ''उत्तराधिकारी'' ने साहित्य जगत में एक पहचान दी और भाषा की .ष्टि से पाठकों में पसंद की गई। इस तरह इन कहानियों के माध्यम से मेरे अब तक की कथा यात्रा के सभी पड़ावों का प्रतिनिधित्व शामिल हो सके, यही बात ध्यान में रखी गई।

ये कहानियां मुझे पसंद हैं पर जरूरी नहीं कि एक कथाकार के साथ-साथ उसके सभी पाठक उसकी बदलती मानसिकता या कहानियों की विविधता से तालमेल बनाये या उन पड़ावों से गुजरते रहे। हर पड़ाव पर कहानीकार के लेखन में जिस तरह बदलाव आता है उसी तरह पाठकों से भी उसका रिश्ता बदलता रहता है। कुछ नये पाठक जुडते हैं और कुछ छूटते हैं। ऐसा होना पाठकों के लिए भी और लेखक के लिए भी जरूरी और अच्छा है क्योंकि वह लेखक को जड़ता से बचाता है। एक निर्धारित ढ़ांचे या एक ही मनःस्थिति में लिखते रहना कलात्मक भी नहीं और यथार्थ भी नहीं है वह मात्र लिखते रहने का प्रपंच ही होता है। लेखक के लिए विशेष और महत्वपूर्ण उसका वह पाठकवर्ग होता है, जो लेखक की पूरी रचना यात्रा में उसके साथ रहता है। कई बार वह लेखक को नयी अपेक्षा, नयी उम्मीद से और अच्छा और नया लिखने को बाध्य करता है। वह पाठक का लेखक के लिए समग्रता से विचार करने का आग्रह होता है।

लिखते रहना लेखक की रचनात्मकता की सबसे जरूरी पहचान है। खासकर तब जब हम बाजारवाद और भूमण्डलीकरण से चौतरफा घिरते जा रहे हैं। ऐसा सहयात्री जैसा पाठक हमें सार्थक अभिव्यक्ति के लिए बाध्य करता रहता है।

कहानियां गप्पबाजी नहीं होती, वे विशुद्ध कला भी नहीं होती। वे किसी मन का वाचन होती हैं, वे मनोविज्ञान होती हैं। जीवन है उसकी जीजीविषा है उसके बनते बिगड़ते सपने हैं, संघर्ष है कहानी इसी जीवन के यथार्थ की शब्द यात्रा ही तो है, होनी भी चाहिए, क्योंकि जीवन सर्वोपरि है। जीवन में बदलाव है - विविधता है। अतः फार्मूलाबद्ध लेखन कहानी नहीं हो सकता। इन कहानियों में भिन्न स्थितियां हैं, और संरचना में भी विविधता है। मुझे इन्हें पढ़ना अच्छा लगता है। पर सच कहूँ तो अभी तक किसी रचना से गहरी आत्म संतुष्टि नहीं हुई है, क्योंकि इसी कारण और बेहतर कहानियां लिखने की इच्छा बनी रहेगी। इस संकलन की कहानियों का चयन करते समय मैं कितनी निष्पक्षता और तटस्थता बरत सकी इसका निर्णय पाठक ही करेंगे। अपनी अभी तक की लेखन - यात्रा से कुछ बानगी स्वरूप कहानियां यहां प्रस्तुत है - जिनमें चरित्रों के मानसिक आवेग और द्वंद्वों को रेखांकित करने की कोशिश है - शायद आपको भी पसंद आयेगी। इसी विश्वास के साथ .... सादर

स्वाति तिवारी

दिनांक : 17 फरवरी, 2013 ईएन-1/9 चार इमली, भोपाल-16

 

स्त्री मुक्ति का यूटोपिया

प्रथम दृष्टा सब कुछ अद्भुत अलौकिक असाधारण था उसके घर में। सर्वप्रथम तो जान लीजिए कि उसके घर की पारिवारिक व्यवस्था ऐसी बनी थी जिसकी ना पितृसत्तामकता थी ना मातृसत्तात्मकता। वहाँ व्यक्तिवादी सत्ता का साम्राज्य था। एक सुन्दर सा फ्लैट जिसके ड्राईंग रूम में स्लेटी मेटेलिक कलर वाले साटन प्लस सुपर फाईन नेट के कांन्ट्रास परदों ने मुझे पहली ही नजर में आकर्षित कर लिया था। एक पल को मेरी नजरों में खुद के ड्राईंगरूम में लगे हैण्डलूम के खादीवाले परदे फैल गए, फैले इसलिए कि वे सरसराते तो थे ही नहीं अपनी रफ खद्दर भारी भरकम सर-फेस की वजह से। उसके घर में परदे सरसराते हुए अपने परदा होने का और परदा लहराने का अहसास कराते हुए मुझे मेरी पसंद पर ही शर्मिन्दा कर रहे थे। एक शानदार सोफा सेट और कॅार्नर पर फूलों का बड़ा सा गुलदस्ता। साफ सुथरा करीने से सजा ड्राईंगरूम अपने साजो सामान के साथ अपनी भव्यता और ऐश्वर्य का प्रमाण दे रहा था। वहाँ बैठते हुए मुझे अपना सलवार सूट मैला कुचैला लगा। भारतीय रेलवे कीे तृतीय श्रेणी के वातानुकूलित कम्पार्टमेंट से उतरने के बाद भी मैं उतनी ही अस्तव्यस्त थी जितनी जनरल कोच में होती तो लगती। वह मुझे लेने नहीं आ पायी थी पर उसने अपनी गाड़ी कम्पनी के ड्रायवर के साथ भेजी थी। साथ में एक छोटा सा फूलों का गुलदस्ता भी। ड्रायवर ने गाड़ी का गेट खोलने से पहले उसकी तरफ से मेरा स्वागत किया था। मैं खुश थी ''वाह उसे याद है मुझे गुलाब लाल नहीं, पीले रंग के पसंद है।'' ड्राईवर ने पलट कर देखा। उसकी आँखों में मेरे लिए थोड़ा विस्मय झलक रहा था।

''सॉरी मेम मैं थोड़ा लेट हो गया, दरअसल मैं आपको लेने एयरपोर्ट वाले रूट पर निकल गया था।'' पर मैंने तो शीरीन को अपना टिकिट मेल किया था। ''हाँ, पर मैम को याद नहीं था बाद में फोन आया कि मैं एयरपोर्ट नहीं, निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन जाऊँ।''

''ओह्।'' मैं इसी घटना से एक इन्फीरीटी काम्प्लेक्स का शिकार होना शुरू हो गयी थी - बची कसर उसके परदे की चिकनाई और सोफे ने कर दी। घर में एक फ्रिज पर एक चिट्ठी मेरे नाम पर चिपकी थी।

हाय स्वीटी, वेलकम टू माय हाऊस, एण्ड सॉरी कि आते ही नहीं मिल सकी, पर शाम को जरूर मिलती हूँ। गाड़ी और ड्रायवर तेरे लिए है तू दरियागंज का पबलीशर वाला काम निपटा लेना। फ्रिज में फ्रोजन पराठे हैं नहीं तो दूध कॉर्नफ्लेक्स या ब्रेड आमलेट का नाश्ता कर लेना। फ्रिज के बॉयी तरफ एक लिस्ट है नम्बरों की अगर मेकडोनाल्ड का नम्बर चाहिए तो ऊपर वाला है और सब-वे का तो नीचे वाला है। एज यू लाईक। शाम को मिलते हैं। हां तेरे लिए बेडरूम तैयार है तीन नम्बर लिखा कमरा चाबी पेपरवेट के पास रखी है। मैं पत्र के साथ साथ व्यवस्थाएँ चैक कर रही थी। फ्रिज के बांयी तरफ, हाँ नम्बर है। पेपरवेट के पास हाँ चाबी भी है। मेन गेट की चाबी दरवाजे में खोलते वक्त लटकी रह गई थी और दरवाजा बाहर से लॉक हो गया था अब क्या करूँ? मुर्खता का पहला नमूना मैंने यहीं दे दिया था। वो तो ड्रायवर का फोन मेरे मोबाइल में आया था तो उसी की मदद ली। तैयार हुई फ्रोजन पराठा पहली बार खाना तो दूर देखा था वाह क्या व्यवस्था है पराठा माइक्रोवेव में गरम करके खाया, चाय बना कर पी और तैयार होकर दरियागंज चली गयी। तीन घंटे में मेरा काम खत्म हो गया था, मैं उसके दफ्तर पहुँच गई वो एकदम स्मार्ट, विदाऊट स्ट्रिपवाली कोई ड्रेस पहने थी उसकी टाँगे खुली थी शायद वह ड्रेस र्स्कट होगी। उसने मुझे हलो हाय करके कहा कि मैं घर चलती हूँ एक ब्लेसर जैसा कोई कोट उसने ऊपर से डाला और नीचे उतर आयी। हम साथ साथ गाड़ी तक पहुंचे उसने ड्रायवर को सौ का एक नोट पकड़ाया और चाबी ले ली। अब हम दोनों थे तीसरा कोई नहीं था। गाड़ी में बैठते ही उसने कहा '' तू मेरे आफिस क्यूँ आ गयी कुछ अरजेंट काम था क्या?''

''नहीं, सोचा तुझे सरप्राइज दूँ?''

वो हँसी, मुझे लगा वो मेरी बेवकूफी पर हँसी थी।

गाड़ी में यहाँ-वहाँ की बातें होती रही। घर पहुँचे तो उसने एक कार्ड डाला ताला खुल गया था।

''तुने, खोला कैसे चाबी तो मेरे पास है?''

''कार्ड स्वेप करके।'' उसने कार्ड दिखाया।

''हमारे पास मेन गेट की तीन चाबियाँ हैं। एक मेरी, एक शैल की और एक गेस्ट के लिए।''

''अच्छा।''

''यहाँ सब व्यस्त है इतना समय नहीं होता कि चाबियों के लिए रूके रहे। फिर सब की अपनी अपनी पर्सनल लाइफ है, अब मैट्रोस में तो यह सब व्यवस्थाएं रखनी ही होती है। यहाँ कोई किसी का दबाव बर्दाश्त नहीं कर पाता। इसलिए ''घर'' शेयर किया जाता है तुम्हें जल्दी है तुम कर लो, तुम्हें देर है अपना खा कर आओ। अब थाली परोसने जैसी स्थितियाँ नहीं रही ना।''

''हाँ वो तो है ?'' मुझे लगा मैं बहुत पिछड़ गयी हूँ अपने कॉलेज जाने से पहले तक भाग भाग कर पूरे घर की व्यवस्थाएँ संभालने वाला .श्य आँखों में तैर गया। मैला कुचैला सूट पहने पहले बबलू का नाश्ता,फिर बाबूजी की दलिया,विनोद का फ्रूट जूस और लंच बाक्स सब के बाद अपना लंच बाक्स। सब करते करते थक जाती हूँ। बस यहाँ से जाकर मैं भी फ्रिज को अपटेड करूँगी ब्रेकफास्ट और लंच की सुविधाएं फ्रिज के उपयोग से सुधर सकती हैं। माइक्रोवेव लेना है सब अपना-अपना खाना गरम कर लें मेरा समय बच सकता है। एक लिस्ट फोन की फ्रिज पर ही लगा दूंगी। सभी की चाबियाँ भी अलग अलग करना पड़ेगीं। कभी चाबी विनोद को देते हुए जाना पड़ता, कभी पड़ोस में। मेरी पूरी एनर्जी उसके घर की तमाम सुविधाओं वाली तथाकथित सुव्यवस्थाओं को अपने घर में लागू करने पर खर्च हो रही थी। सात दिन का स्टे था मेरा विज्ञान भवन में एक कॉन्फ्रेंस थी जहाँ मुझे भी अपना रिसर्च पेपर पढ़ना था। अभी तो पहला ही दिन था थक गयी थी जल्दी ही सो गयी। अगले दिन सबेरे उठी जल्दी उठने की आदत थी तीनों की चाय बना ली अखबार के साथ चाय पी। तब तक शैली तैयार होकर बाहर आ गयी थी वह निकलने के मुड में थी कोई फॉरेन से आ रहे हैं जल्दी जाना था। मैं भी तैयार होने चली गयी मेरा लंच विज्ञान भवन में ही था शाम को आयी तो कमरे में राजधानी का पैक डिनर रखा था शैरीन का फोन आया ''सॉरी थोड़ा बिजी हूँ विदेशी मेहमान साथ है देर हो जाएगी तू खाना खा कर आराम कर। राजधानी का यह स्पेशल पैक है। शैल को भी बेहद पसंद है। दो दिन में दूसरी बार पति का नाम उसके मूँह से सुना था। उसी जगह मैं होती तो........ऽऽऽ? मैं तो हर बात में कहती विनोद को तो ये चाहिए, वो चाहिए। विनोद तो बिल्कुल बाहर का खाना पंसद नहीं करते उन्हें तो बस मेरे हाथ के ----पराठे, खीर, आलू गोभी.........लम्बी श्रृंखला याद आने लगी मैं मन ही मन हँसने लगी। विनोद बाबू यहाँ भी साथ हो यहाँ तो पीछा छोड़ो यार .....ऽऽऽ।

हाँ वो मेरे घर आती तो मैं तो विनोद के साथ लेने जाती ''तुम छुट्टी ले लो मेरी दोस्त पहली बार आ रही है। ''

राजधानी का पैक डिनर शानदार था। खा कर मैं उसके गेस्टरूम में अपना प्रेसेन्टेशन तैयार कर रही थी। देर रात............दरवाजे की आवाज आयी आहट से अन्दाजा हुआ दो लोग हैं। फिर आहट से ही समझ आया कि एक आवाज शैरीन की है दूसरी किसी विदेशी पुरूष की। शायद शैरीन ने फ्रिज से आइस और ..........वोदका या कोई डि्रंक निकाली थी चियर्स की आवाज से पता चला वे लोग ड्राईंग रूम में डि्रंक लेते रहे थे। मैं असंमजस में थी बाहर जाऊं ----ऽऽऽ----ना जाऊं? फिर लगा अगर उसे मिलना होगा या मिलवाना होगा तो बुलाएगी बाहर। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ कुछ देर बाद मेरे रूम के सामने से दोनों निकले कदमों की आहट से पता चल रहा था फिर दरवाजा लॉक हुआ। मैं सकते में आ गई ''ओह गॉड, दिस गर्ल..............।'' कुछ देर तक उनके कमरे से कुछ अनकही आहटें, आवाजें आती रही फिर सब शान्त हो गया। मैं रात भर सो नहीं पायी............सुबह सुबह झपकी लगी नौ बजे आँख खुली बाहर निकली तो केयर टेकर घर ठीक कर रही थी बोली ''मेम हेज गॉन एंड दिस लेटर इस फार यू''।

साँरी डियर, आज शाम को पक्का साथ बैठेंगे। आज तुम्हारा प्रेजेन्टेशन है .... मैं चलती पर एक बड़ी डील आज हो जाएगी ऐसा लग रहा है। इसलिए ............खैर गुड लक।

मैं तैयार हो रही थी जब बाहर निकली तो शैलेन्द्र यानी शैल अपनी किसी गर्ल फ्रेन्ड के साथ लिफ्ट में मिला वो घर आ रहा था ......''हाय सुमी.......तुम कब आयी?''

''आज चार दिन हो गए।''

''चलो शाम को मिलते है। बाय।''

''बाय।''

प्रेजेन्टेशन अच्छा रहा एकदम अच्छा शाम को शैरीन का फोन था.......''कैसा रहा?''

''फैन्टास्टिक......यार तू आती तो मेरा कॉन्फिडेंस कुछ और बढ़ जाता।''

''चल मैं तुझे पिकअप करने आ रही हूँ दस मिनिट लगेंगे गेट पर मिलना।''

''ओ.के.।''

फोन बंद किया तो विनोद के पाँच काल मिस हो गए थे- खुशी हुई तो जनाब उतावले हैं यह जानने के लिए कि मेरा प्रेसेन्टेशन कैसा रहा। फोन उठाते ही झल्ला उठे - ''कब से लगा रहा हूँ फोन।''

सारा कुछ जानने के बाद फोन बन्द किया तो एक फोन घर से था लैण्ड लाइन नम्बर, बाबूजी जानना चाहते थे कैसा रहा?

फोन बन्द किया तो शैरीन सामने थी ''कौन है...... ऽऽ..?''

''विनोद याद है और बाबूजी......।''

''ये ....ऽऽ ये बाबूजी ...... कहीं.......?'' उसकी आवाज में कॉलेज वाली शरारत भरी थी। उसने चिकोटी काटी ''तू पागल है शैरीन .... बाबूजी मेरे फादर इन लॉ .... ऽऽऽ हैं।

''व्हाट ?''

''हाँ'' मेरे ससुरजी? वो आश्चर्य चकित थी। वो भी तेरे से बात कर रहे हैं।

''हाँ उन्होंने मेरी हेल्प की थी प्रेसेन्टेशन में ... वो बॉटनी के हेड आफ द डिपार्टमेंट थे युनिवर्सिटी में।''

''तेरे ससुर भी साथ ही रहते थे ना?''

''हाँ! अब हमने उन्हें ओल्ड एज होम 'आस्था' में रख दिया है कभी-कभी चले जाते हैं मिलने।''

''क्या..... तूने उन्हें वृद्धाश्रम? आई एम शॉकिंग।''

''खर्चा तो भेजते ही हैं ना हम!'' उसने सफाई दी।

''और तेरा बेटा वो भी नहीं दिखा मुझे इन दिनों?''

''हाँ, वो गुड़गाँव में है एक बोर्डिंग में।''

''क्यों? ऐसा भी क्या घर जहाँ पति पत्नी केवल एक पता यानी एड्रेस यानी मकान नम्बर भर शेयर कर रहे हैं बाकी सब अलग हैं। जहाँ बच्चा बोर्डिंग में और पिता वृद्धावस्था में।

यह तेरा इंदौर नहीं है..... यहाँ घर मैनेज करना बड़ा टफ जॉब है... केयर टेकर खाली घर तो देख लेती है। बूढ़ों और बच्चों वाले घर में मिलती ही नहीं है। शैल और मैं एक मॉडर्न सोसायटी के पार्ट हैं। गृहस्थी के साथ जॉब टू मच यार। नहीं हो सकता सब। ट्वन्टी फर्स्ट सेंन्चूरी है जहाँ ग्लोबलाइजेशन का दौर है। घूंघट स्त्री के सर पर से चला गया है - बल्कि सूट से दुपट्टा भी हट गया है। बराबरी से कमाते हैं बल्कि ज्यादा ही कमाते हैं तब फिर क्या जरूरी है वंचितों, शोषितों, दुखियाओं की तरह बने रहे। किचन और पालने की भावनात्मक दुनिया में ही बंधे रहे। नौकरानी नहीं है और हम देह भी नहीं हैं केवल देह, हम स्वतंत्र हैं हमारी भी इच्छाएँ है हमारी देह की भी जरूरतें हैं। जब जहां जो जरूरत लगे उसके साधन होना चाहिए हमारे पास भी।

मैं अपने दायरे में ही थी, हालांकि मेरे पास शब्द बहुत मजबूत थे उसे नकारने के उसे बेइज्जत करने को पर मैंने मानवीय प्रेमपूर्ण रिश्तों से पायी ऊर्जा उस पर खर्च करना उचित नहीं समझा।

''मैंने प्रश्न ही दागा था उस पर शैरीन कल तेरे बेडरूम में?''

''हाँ..... यह तो सामान्य बात है नया क्या था इसमें?''

''शैल को पता है?'' मैंने गंभीर होते हुए पूछा।

''होगा? मैं परवाह नहीं करती।'' हमारे बेडरूम अलग अलग हैं - जब मन होता है साथ होते हैं वरना दोनों की निजता बनी रहती है। शरीर की माँग पेट जैसी ही होती है, पेट को खाना चाहिए ना?

''पर निष्ठा, पवित्रता और विश्वास की त्रिवेणी का क्या होगा शैरीन?''

''वॉट इज त्रिवेणी?''

''क्या ये अपराध या भटकाव नहीं?''

उसका तर्क था इम्मोरल ट्रैफिकिंग पर बुल्फेनडेन की रिपोर्ट कहती है कि ''कोई भी वयस्क रजामंदी से निजी तथा अंतरंग रूप से जो कुछ भी करते हैं वह अपराध या पाप-पुण्य का मामला नहीं होता, बल्कि उनका निजी मामला है।''

''चल छोड़? शाम खराब करेगी क्या? क्या नया खिला रही है आज।'' मैंने प्रश्न किया बात बदलने के लिए।

''आज खिला नहीं पिला रही हूँ तुझे।''

''क्या?''

''वोदका पिएगी?''

समझ नहीं पा रही हूँ? मैं ये किससे मुखातिब थी? स्त्री मुक्ति के यथार्थ से या स्त्री मुक्ति के यूटोपिया से?

...

रिश्तों के कई रंग

यह मेरे प्रेम की शुरूआत थी, पर उसकी बेवफाई का चरम था। वह आयी थी अपनी ज़रूरतों के हिसाब से, पर रहते-रहते वह मेरी ज़रूरतों का हिस्सा बन गयी थी। उसका आना एक सहज घटना थी, जो मेरे द्वारा एक लड़की की मदद थी, पर आज की घटना एक अप्रत्याशित मोड़ था, जो चलते-चलते अचानक आ गया था। वह सफलता की मरीचिका में भटक रही है। एक ऐसी मरीचिका, जिसमें भटकते-भटकते जीवन और सफलता दोनों चूक जाते हैं और मंजिल तो दूर रास्ते भी दिखाई नहीं देते, उसे उसी मरीचिका का रास्ता दिख रहा था तभी तो वह बाय-बाय बोल कर दरवाजा भड़ीक कर चली गयी हमेशा के लिए म़ैं बन्द होते-खुलते दरवाजे को टकटकी लगाए देख रहा हूँ। जानता हूँ अब वह कभी नहीं आयेगी, आ़ना होता तो वह जाती ही क्यूँ? पर एक चाह सी थी मन में कि वह पलट कर आए म़ेरे हाथ जोड़ कर अपनी गलती के लिए माफी माँगे और मैं उसे धक्के मार कर निकाल दूँ। मेरे अन्दर का पौरूष उसके यूँ जाने से आहत हुआ था। लगा वह मेरे वजूद पर लात मार कर चली गयी है। एक लड़की के द्वारा यूँ नकार देने पर मेरा 'मेल इगो' हर्ट हुआ था। जानता था, वह बिल्कुल इमोशनल नहीं है, परफेक्ट प्रैक्टिकल वूमन है। पूरी तरह लिव इन पार्टनर जो यूज एण्ड थ्रो में विश्वास करती है। उसके लिए डेटिंग एक फिजिकल डिमांड थी, अपनी बायलोजिकल नीड्स को पूरा करने की। मैं भी तो कहाँ स्थायी प्रतिबद्धता रखना चाहता था, पर यूँ तीन साल साथ रहते एक आदत सी हो गयी है उसकी और आदतों से उबरने में मुझे समय लगता है। जब आयी थी वह, हा़ँ इसी दरवाजे से तब भी मुझे अपना फ्लैट एक वर्किंग लड़की के साथ अपने बेड सहित शेयर करने में भी आदत डालने में समय लगा था। मुझे पलंग पर पसर कर टाँगे फैला कर सोने की आदत थी, पर फिर उसकी आदत हो गयी थी। दरवाजे पर किसी की आहट से मैं चौंककर उठता हूँ।

दूध ब्रेड वाला है, वह पूछता है-''मेमसाब को अण्डे तो नहीं चाहिए।''

''नहीं, तुम जाओ।'' भाड़ में गई तुम्हारी मेम साब, वो अब ना अण्डे दे सकती है, ना अण्डे ले सकती है।

वह चेहरा देखता है मेरा और लिफ्ट का बटन दबा देता है, मैं पलटता हूँ। दरवाजा बंद करके टीवी ऑन करता हूँ ब़िपाशा अपनी लम्बी चिकनी खुली टाँगें दिखाते हुए ''जादू है नशा है'', गा रही है। गुस्सा आता बिपाशा पर साल्ली-ऽऽऽ--! सारी दुनिया की लड़कियां बिपाशा बनती जा रही हैं। गुस्से में चैनल बदलता हूँ, मल्लिका शेरावत को देखते ही फिर निक्की याद आ जाती है। मल्लिका के शरीर का भूगोल बिल्कुल निक्की की तरह गोल है।

शायद मैं भी इसी में उलझ कर उसको सहर्ष लिव इन पार्टनर बना बैठा था वरना बाहर सब चलता था, पर फ्लैट पर लड़की लाना पसंद नहीं था। मैं एक बार फिर पसर जाता हूँ अपने बिस्तर पर। छत के सफेद प्लास्टर के शून्य में कुछ खोजता हूँ।

कॉल सेन्टर से बाहर निकलते हुए उससे मेरी मुलाकात हुई थी, शायद कुछ परेशान थी किसी से बात करना चाहती थी, पर बात नहीं हो पायी थी। निराश और उद्विग्न थी। व्यक्तित्व में उग्रता और बेपरवाह। बार-बार नम्बर डायल करती रही आ़ैर मुझे अपनी ओर देखता, चली आयी थी मेरे पास ''क्या मेरी मदद करोगे?'' कोई कमरा या फ्लैट चाहिए। ग्राफिक्स कम्पनी में काम करने के साथ वह पार्ट टाइम मॉडलिंग भी करती है। सीधे-सीधे सपाट शब्दों में वह कहती है कि उसे किसी लिव इन पार्टनर की तलाश है। अभी वह एक एंग्लोइंडियन एजेड लेडी के यहाँ पेइंग गेस्ट है पर पिछले दस दिनों में बुढ़िया रोज तंग कर रही है ''कमरा खाली माँगता।'' जान खा रही है मेरी, जब तक कोई व्यवस्था नहीं हो जाती यूँ ही रोज शाम खराब कर देती है मेड वूमन।

''वर्किंग गर्ल्स होस्टल क्यूँ नहीं चली जाती।'' मैंने सलाह दी थी।

''देट शिट प्रिजन, वेयर यू आर लॉक्ड इन आफ्टर 7 ओ क्लॉक, देट्स जस्ट लाइक ए पोल्टरी फार्म वेयर आल चिकन्स आर पुट अप।'' और हम दोनों ही ताली मार कर हँसे थे। यार पोल्ट्री फार्म से तो मेड वूमन बेहतर है।

चलो कल मिलते हैं, कह कर हमने एक दूसरे के नम्बर ले लिए थे। अगले दिन दफ्तर से ही उसने फोन मिलाया था। वह शाम हमारी एक तरह से ब्लाइंड डेट थी। वह वहीं से मेरे साथ फ्लैट पर आ गई थी। सारी वर्जनाएँ तोड़ते हुए उसने पहल की थी यह कहते हुए कि दस दिनों के तनाव से रिलेक्स होना चाहती है और यह भी कि हम जब तक साथ रहेंगे एक दूसरे के प्रति वफादार रहेंगे पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं रहेगी कि हम किसी दूसरे से संबंध नहीं रख सकते।

एक पल को लगा था क्या यह इंडियन लड़की है? ज़रूर माता-पिता में से कोई एक...ऽऽऽ। पूरी तरह पश्चिमी जीवन मूल्यों से प्रभावित। अपने मतलब के लिए वह अपनी वर्जनाएँ तोड़ देती यह कहना भी गलत होगा। वर्जनाएँ तो उसके साथ है ही नहीं। रात में सफेद वाईन में बर्फ के टुकड़े डालने के बाद उसकी दुनिया ही बदल जाती है। कहती है रोमांस एक पागलपन है इसके लिए उसे समय नहीं गँवाना, सेक्स उसके लिए शरीर की ज़रूरत है। पैसा वह भरपूर कमाती है उसने अपने पिता की बेवफाई के बाद अपनी माँ को पागल होते देखा है। जीवन भर का ढकोसला शादी उसे पसंद नहीं। पर जब भी अंतरंग होती एकदम किसी अलग मूड में लगती। उसकी नसों में रेंगती उतावलेपन की कँपकँपी के साथ ही वह मेरी सम्पूर्ण देह को अपनी बाँहों में लपेट लेती और बोलने नहीं देती। कभी भीतर तक तन्मय होती तो आई लव यू कह कर लिपट जाती वरना देह के आदान-प्रदान से ज्यादा उसके लिए मेरा कोई वजूद नहीं था। शायद वह अपनी माँ की दबी-कुचली पति द्वारा उपेक्षित सेक्सुअलिटी से इतनी ज्यादा भयाक्रांत रही होगी कि उसके लिए सब कुछ वहीं तक सिमट कर रह गया है। शोहरत और सम्पन्नता के आसमान को अपने वश में करने की ख्वाहिश उसके मन में विस्तार की सारी हदों के पार तक फैली थी। ''वेलेन्टाइन डे'' पर रेड रोज की एक सौ एक कलियाँ दी तो मुस्कुराई थी फिर गले में झूम गई। अपना सारा भार मुझ पर डालते हुए कहा था तुम लड़के ना वेलेन्टाइन की बात को कुछ ज्यादा ही रोमान्टिसाइज करते हो।

तीन साल साथ रहते-रहते मैं उसे शायद प्यार करने लगा था और वो जब भी मेरे पास होती मैं अपने .ष्टिकोण और आत्मा के सुप्त आदर्शो को अनगढ़ रूप देता। किसी धुंधली अधूरी तस्वीर की तरह हमारे रिश्ते के कई रंगों के बीच छूटी हुई जगह साफ नजर आने लगती। मैं भरना चाहता था इस रिक्त जगह को। उसके साथ अपने रिश्ते को।

उससे कहता उसके पहले ही अचानक डिस्को में उसे किसी और के साथ मैं बर्दाश्त नहीं कर पाया यह़ जानते हुए कि हम स्वतंत्र है। हमारे पास घर-परिवार जैसे शब्द नहीं। बटन दबा कर या क्रेडिट कार्ड स्वैप करके पैसा निकालने और डालने वाली तेज रफ्तार जिंदगी है। हम आदम और हव्वा तो हो सकते हैं पर सोनी महिवाल या लैला मजनू नहीं, फिर भी मैं लगभग खींचते हुए उसे अपने साथ ले आया था। फ्लैट पर आते ही मैंने उससे माफी माँगी थी। ''निक्की, मैं घर बसाना चाहता हूँ, तुम्हें निकिता बुलाना चाहता हूँ।''

''डू यू नो वाट आर यू सेइंग।''

तुमने आज जो किया उसके बाद भी तुम मुझसे...ऽऽऽ? जानते हो वो मेरा नया प्रोड्यूसर था मॉडलिंग की दुनिया में अभी तो मेरी दूसरी एड फिल्म बनने वाली है। शादी करके मैं अपना सारा कैरियर बर्बाद नहीं कर सकती। उस़ने मुझे पाँच फिल्मों में साईन किया है। जानते हो नया फ्लैट देने वाला है, ये सब छोड़कर शादी? और फिर फ्लैट मिलते ही चली गयी। आज पूरे तीन साल दो दिन हुए हैं हाँ, एक हजार सतान्वे दिन। इस दहलीज में आने को। मैं अन्दर से अब भी आदिम पुरूष हूँ। स्त्री को वश में रखने की चाह रखने वाला पर वह अब आदिम स्त्री नहीं है वह ''आइ जनरेशन'' की ''एपल गर्ल'' है। मैं इस दहलीज को ही स्त्री की सारी वर्जना समझ बैठा पर उसके लिए अब कोई वर्जना नहीं है। छोटी सी दहलीज पर मेरा इतना बड़ा अटकाव कि वह अब इसमें कैद रहेगी मेरी बन कर। क्यों? जानता हूँ वह कोई मेहंदी रचे रोली के छापे देते गृहलक्ष्मी के पैर लेकर इस दहलीज में नहीं आयी थी। याद है मुझे उसकी खुली टाँगों वाली स्कर्ट और पैंसिल हिल वाली सैंडिल।

मृगतृष्णा

आसमान छूने की मेरी अभिलाषा ने मेरे पैरों के नीचे से जमीन भी खींच ली, पर तब ... मैं जमीन को देखती ही कहां थी। मैं तो ऊपर टंगे आसमान को ताकते हुए अपना लक्ष्य पाना चाहती थी। तब अगर कुछ दिखाई देता था तो वह था केवल दूर-दूर तक फैला नीला आसमान, जहाँ उड़ा तो जा सकता है, पर उसका स्पर्श नहीं किया जा सकता है। ऊंचाइयों का कब स्पर्श हुआ है जब हाथ उठाओ वे और ऊंची उठ जाती हैं--मरीचिका की तरह। एक भ्रम की तरह आसमान जो नीला दिखता है पर कैसा है, कौन जानता है? जमीन कठोर हो, चाहे ऊबड़-खाबड़, पर उसका स्पर्श हमें धरातल देता है, पैरों को खड़े रहने का आधार। पर यह अहसास तब कहां था ? मैं तो जमीन के इस ठोस स्पर्श को पहचान ही नहीं पाई। अंदर-ही-अंदर आज यह महसूस होता है कि जमीन से सदा जुड़े रहना ही आदमी को जीवन के स्पंदन का सुकून दे सकता है।

आज दस वर्षों बाद उसी शहर में लौटना पड़ रहा है, और जीवन की किताब का वह पृष्ठ जो मैं यहां से जाते वक्त फाड़कर फेंक गई थी, आज वहीं पन्ना हवा के झोंके से उड़ आए पत्ते की तरह फिर मेरे आंचल में आ पड़ा है। उस पर लिखा जीवन का स्वर्णिम इतिहास फिर स्मृति-पटल पर उभरने लगा। यादों का भी क्या खेल है? चाहो न चाहो, पर वक्त-बेवक्त यादें आ ही जाती हैं और उन्हीं क्षणों की अनुभूतियां दिल में जगा ही जाती हैं जिन्हें हम भूलना चाहते हैं। एक कसक बन याद दिला ही जाती है जिन्दगी अपने गुजरे अतीत को। जैसे-जैसे इंदौर पास आ रहा था, मेरी धड़कन अनजाने भय से तेज होती जा रही थी। पता नहीं अरूण लेने आते भी हैं या नहीं ? मन दुविधा में है। दस वर्ष लम्बा अंतराल हमारे मध्य से गुजर गया है। पसरे हुए इस समय और समय ही क्यों, जाने क्या-क्या गुजर गया है... फिर भी एक विश्वास था मन में अरूण के आने का।

देवास के बाद वही जाना-पहचाना रेल रूट। धडधड़ाती हुई एक ट्रेन मन के अंदर भी दौड़ रही थी-- गांधी हॉल के पास से गुजरते हुए दिल की धड़कन तेज और तेज हो गई। बस आने ही वाला था इंदौर स्टेशन, अरूण... अरूण...अरूण... बस यही एक नाम दिलोदिमाग पर गूंज रहा था। एक पल को लगा दस साल अरूण से अलग रहकर भी, अविनाश का साथ होने के बावजूद, शायद ही ऐसा कोई दिन होगा जब अरूण यादों में न आया हो। मै क्यों नहीं भूल पाई उसे ? सच तो यह है कि मेरे रोम-रोम ने अरूण से प्यार किया था। शायद आज भी मैं अरूण से प्यार करती हूँ, अविनाश तो बस...

गाड़ी स्टेशन पर रूकते ही नजर बेचैनी से अरूण को तलाश कर रही थी। दिल जोर-जोर से धड़कने लगा, शायद अरूण न आए! पर तब भी मन का कोई कोना आष्वस्त था कि अरूण जरूर आएगा। यदि न आया तो ? शंका ने सिर उठाया। पर अरूण सामने से हाथ हिलाते हुए दिख गया, मैंने भी हाथ हिलाया। लगा जैसे मैं फिर जीत गई। गाड़ी से उतरते ही अरूण ने हाथ मिलाया, हाथ पकड़ते ही मुझे लगा अरूण दस साल के विरह में दोनों हाथ फैलाएगा, मुझे बांहों में समेट लेगा, और कहेगा-- मैं जानता था तुम जरूर वापस आओगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

'' हैलो, नीरजा ! कैसी हो ?'' अरूण ने मुस्काराकर पूछा।

'' ठीक ही हूं।'' छोटा-सा उत्तर दे मैं चुप हो गई थी। अरूण सहज था, पर मैं उसके हैलो से आहत हुई थी। बैगर ज्यादा कहे मैं अरूण के साथ आगे बढ़ गई। अटैची गाड़ी की डिक्की में रख अरूण ने कहा, ''चलें ?''

मैं चुपचाप, अरूण के साथ वाली सीट पर आ बैठी थी। उसका चेहरा शांत था। वह निर्विकार भाव से गाड़ी स्टार्ट कर चल दिया। गाड़ी स्टेशन से बाहर निकालकर वह मुझे बरसों पुराने हमारे फेवरेट कॉफी हाउस में ले गया। मैं सोच रही थी अरूण वहां ले जाकर उन पुराने दिनों को ताजा करना चाहता है। मैंने ध्यान हटाना चाहा इन बातों से, ''कितना बदल गया है कॉफी हाउस !

'' हां नीरजा, समय के साथ बदलाव आ ही जाते हैं। देखो, तुम भी तो पहले से मोटी हो गई हो।''

''हां, कुछ बदलाव न चाहते हुए भी आ ही जाते हैं। मोटा होना भी उन्हीं अनचाहे बदलावों में शामिल है। ''

एकदम गरिमामय, वातानुकूलित कॉफी हाउस का हॉल, कांच वाली टेबलें, चारों तरफ गमले में सजे हरे-भरे पौधे.. पहले कहां था यह सब यहां। अच्छा लगा मुझे तुम्हारे साथ यहां आना.. गुजरे हुए लम्हों को फिर से जी लेने का मन होने लगा। तुमने आगे बढ़कर मेरे लिए स्टील की वह सुंदर चेयर खींची और अदब से कहा, '' बैठो, नीरजा। ''

कॉफी के साथ तुमने कटलेट का भी आर्डर दिया था। कटलेट तुम्हें पसंद नहीं थे, पर तुमने कटलेट स्वाद से खाए। '' तुम्हारा स्वाद भी बदल गया है, अरूण, तुम्हारा काम कैसा चल रहा है आजकल?

''एकदम बढ़िया।'' अरूण मुस्कराया -- ''और तुम्हारा ?

'' अच्छा चल रहा है। इस बार मुझे मध्यप्रदेश की फोटोग्राफी का कांट्रेक्ट मिला है। बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है। सोचा, इसी बहाने कुछ दिन तुम्हारे साथ रहने को मिल जाएगा।''

'' कब से काम शुरू कर रही हो ?'' अरूण ने बगैर किसी उत्साह के पूछा था।

''शायद कल से। '' मैंने सहर्ष बताया, ''तुम फ्री हो न, अरूण ?''

''बस, आज किसी तरह कुछ घंटे निकाल पाया हूँ। नहीं निकालता तो तुम समझतीं, मैं अब तक नाराज हूं तुमसे।''

मैं अन्दर ही अन्दर एक बार फिर आहत हुई थी- अरूण के पास आज भी मेरे लिए समय नहीं है! मैं चाय खत्म कर उठ खड़ी हुई थी चलने के लिए।

गाड़ी मैं बैठते ही अरूण ने पूछा था, '' तुम्हें कहां ड्रॉप करना है ?

''घर।''

'' हां, हां, पर किसके घर ? अरूण ने चेहरा मेरी तरफ किया था।

''अपने घर, अरूण.. एक बार मैं फिर देखना चाहती हूं उस घर को।''

मैं आंखों के नम हो आए कोरों को रोक लेती हूं झपकने से। झपकेंगे तो बूंदें टपक ही जाएंगी और मैं अरूण के सामने कमजोर पड़ जाऊंगी।

अरूण ने गाड़ी मोड़ दी। अब पलासिया चौराहे से आगे बढ़ गया। थोड़ी ही देर में हम उसी घर के सामने थे। मैं उतरने लगी तो अरूण ने रोका था, '' बाहर से ही देख लो, नीरजा.. यह घर तो आठ साल पहले ही हम बेच चुके हैं। ''

'' क्या ?''

''हां।''

'' तो अब कहां रहते हो ?

''विजय नगर में। ''

''यह कोई नया नगर है क्या ?

''नया नहीं है। अब वहां हमारे पास फ्लैट है।''

'क्यों बेचा, अरूण...मैं नहीं तो तुम तो जुडे रहते इस घर से....' मै मन ही मन सोचने लगी थी। अरूण ने गाडी फिर स्टेशन वाली एबी रोड पर मोड़ ली। मैं चुप बैठी थी। एक बार फिर मैं आहत हुई थी। गाड़ी होटल श्रीमाया के सामने रूकी। अरूण ने रिसेप्शन पर पूछताछ की और मेरा सामान रूम में पहुंचवा दिया।

मैं मौन साधे रही। मुझे लगा, अरूण मुझे घर नहीं ले जाना चाहता। वह नहीं चाहता कि उसकी अस्त-व्यस्त जिंदगी मेरे सामने उजागर हो। अपने टूटे दिल और बिखरे घर को वह समेट नहीं पाया होगा अब तक, इसीलिए घर की बजाय होटल में छोड़ रहा है।

''मैं चलता हूं, नीरजा! तुम अभी यहीं पर हो तो मुलाकात होगी ही। अगर कुछ परेशानी हो तो मुझे इन नंबरों पर कांटेक्ट कर लेना। और हां, यहां की 'बेक्ड सब्जी' स्पेशल है, लंच में जरूर ऑर्डर देना मैं चलता हूं।'' वह जल्दी में था। मेरा जवाब सुने बगैर ही चला गया।

अगर अरूण की जगह अविनाश ऐसा करता तो मैं तूफान खड़ा कर देती, पर अरूण के इस बर्ताव पर उदासी ने मुझे घेर लिया था। मैं रूम लॉक करके लेटी तो झपकी आ गई।

दो घंटे बाद आंख खुली तो उठने का मन नहीं हुआ, एक मनहूस बोरियत पसरी थी कमरे में। मैं सोचकर आई थी कि अरूण को पछतावा होगा मुझसे अलग होने का। वह एक बार फिर आग्रह करेगा-- 'नीरजा, अब घर लौट आओ।' पर ऐसा कुछ नहीं लगा अरूण के व्यवहार से। रिश्तों का अटूट बंधन न सही, पर कोई तो धागा जुड़ा ही होगा यादों का, पर एक औपचारिक व्यवहार-कुशलता के अलावा अरूण में कुछ भी दिखाई नहीं दिया था। अब क्या करूं, यही सोचते हुए उठी, चाय का ऑर्डर दिया और नहाने चली गई। नहाकर निकली तो थोड़ा फ्रेश लग रहा था। मैंने हल्के आसमानी रंग की शिफॉन वाली साड़ी पहनी, तैयार हुई और कैमरा लेकर होटल से बाहर आ गई थी। रिक्शा ले राजबाड़े तक जाने का मूड बनाया। ' मिनी मुंबई '! कुछ लोग कहते हैं-इंदौर मुंबई का बच्चा है, पर मुंबई जैसा यहां कुछ भी तो नहीं है। यह शहर एकदम अलग ही--सहज-सरल। मल्टीस्टोरी घर जरूर बनते जा रहे हैं, पर लोग अब भी मालवा की सांस्.तिक खुशबू समेटे हैं, दुकानों पर चाय-कॉफी ऑफर होती है, रिक्शे वाले बहनजी या मैडम बुलाते हैं। पता पूछने पर लोग साथ जाकर घर बता आते हैं। और कहीं है इतना अपनापन! इंदौर की यही खास बात मुझे अच्छी लगती है।

मैंने हल्का-सा सरदर्द महसूस किया, पर्स में देखा तो एनासिन मिल गई। पानी का पाउच दुकान से ले एनासिन ले ली। राजबाड़े के जीर्णोद्धार के बाद, अब राजबाड़ा नए स्वरूप में देखा तो कई एंगल से फोटो ले डाले--एकदम अलग ही ढंग के फोटोग्राफ लिए इस बार। सामने वाले गार्डन में माता अहिल्या के भी फोटो खींचे। अकेले घूमने में मजा नहीं आ रहा था। कितना घूमती थी मैं अरूण के साथ राजबाड़े और सराफे में, रबड़ी, गराडू, देशी घी की जलेबी.... कितना स्वाद है यहां के खाने में ! राजबाड़े के पीछे चाट-पकौड़ी, कचौड़ी-समोसा सब कितना पसंद था मुझे, पर अरूण को यह सब कभी-कभी ही अच्छा लगता था। वह रोज आता था मेरे साथ। पहले एक-एक दोना लेते, दोनों मिलकर टेस्ट करते, फिर एक बार लेते...शिकंजी की ठंडक मन में उतर आती.. अरूण तो शाम होते ही पूछते थे, '' आज चटोरी कहां ले जाएगी ?

यादों के झुरमुट में भटकते हुए मैं उसी चाट हाउस के सामने पहुंच गई थी। पर अकेले खाने का मन नहीं हुआ, कुछ देर रुककर खाती हुई भीड़ के फोटो लिए और पलटने लगी तो अरूण की आवाज सुनाई दी--

'' ऐ, नीरजा रुको!''

पलटी तो अरूण मेरी ही तरफ आ रहा था मैं रुक गई। ''बगैर कुछ खाए जा रही हो ? जानती हो तुम्हारे जाने के बाद कई दिनों तक दुकानवाला पूछता था-- आपके साथ वो, चटोरी मैडम नहीं आतीं अब...''

मैं मुस्करा दी। हल्की-सी चपत लगा देती--ये मजाक कर रहे हो क्या? पर ऐसा कुछ नहीं कर पाई। अरूण मेरे हाथ में पेटिस चटनी का दोना पकड़ा एक छोटे-से बच्चे को लेने आगे बढ़ गया। एक खनकती-सी आवाज सुनाई दी थी, '' अरूण, देखो बंटी कहां है !''

मैंने आवाज की तरफ देखा-दुबली, गौरवर्णी सुन्दर-सी स्त्री अरूण से बच्चा ले रही थी। वे तीनों मेरे पास आ गए थे। अरूण ने परिचय करवाया, '' नीरजा, ये अंजली है माई वाइफ और ये हमारा बंटी। और अंजली, नीरजा को तो तुम जानती ही हो। ''

''हैलो!''

''हाय!''

'अंजली...अंजली माई वाइफ...।' मेरे कानों में सीसा-सा उड़ेलते हुए शब्द थे। अरूण ने शादी कर ली। उसका बेटा भी है। सुबह दो घंटे साथ रहा, पर बताया तक नहीं। मैं भी बच्चे को गोद में ले प्यार करने लगी, बेटा सचमुच बहुत प्यारा है एकदम अरूण की तरह। मैंने पर्स में हाथ डाला सौ-सौ और पांच-पांच सौ के नोट थे। मैंने पांच सौ का एक नोट बच्चे को शगुन कहकर पकड़ा दिया था।

पैरों में अब मानो ताकत नहीं थी। मैं फिर मिलने का वादा कर ऑटो से होटल लौट आई। सारे रास्ते 'अंजली, माई वाइफ' शब्द मेरा पीछा करते रहे। मैं थक गई थी खुद से लड़ते-लड़ते। मैं अब भी अरूण से बंधी हूं मन से और अरूण....एक बार भी एक्स वाइफ के रूप में भी नहीं मिलता, न ही किसी से मिलवाता है।

''कल मिलती हूं।'' कहकर मैं लौट आई थी होटल में। लंच मैंने लिया ही नहीं था और डिनर लेने का अब मन नहीं था। कमरे में लौटकर मैं निढाल हो पलंग पर पड़ी रही। खूब रोई थी। इतना तो शायद जब अरूण से अलग हुई तब भी नहीं रोई थी। कमरे में अंधेरा पसरा था, पर मन लाइट जलाना नहीं चाहता था। शायद बिजली के उजाले में खुद को खुद ही फेस नहीं कर पाने के डर से अंधेरे में छिपकर बचाना चाहती थी। पर क्यों?

अंधेरे में जो मानक गढ़े और जिनको आधार बनाकर मैंने अपने भविष्य को गढ़ा था, उससे यदि मैं खुश और सुखी रह सकती होती तो आज रोती ही क्यों कितना सरल-सहज जीवन था जो अरूण के आगोश में सुरक्षित-सा था,पर महत्वाकांक्षा उछालें मार रही थी। गृहस्थी के दायित्व यूं तो कुछ थे ही नहीं, पर तब भी मैं उस बंधन से मुक्ति मांग बैठी थी पर समय ने मेरे सारे मुगालते दूर कर दिए। आज अरूण, अंजली और उनके बच्चे को जिन्दगी जीते हुए देखा, तभी से लगा, मैं हार गई। अपनी सारी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के बाद भी हार महसूस कर रही हूं। लग रहा है, आज उस मोड़ पर खड़ी हूं जहां जीवन के रास्ते सरल हैं, पर जी पाना अब दूभर है।

मैं केवल स्टिल फोटोग्राफी में ही कैरियर बनाती रही। नाम, यश, पैसा, क्रिएशन्स, रचना, सृजन कितने शब्द थे मेरी महत्वाकांक्षा की डिक्शनरी में, पर असल तस्वीर तो अंजली ने बनाई है अरूण की -बंटी के रूप में। रचना भी वही, सृजन भी और क्रिएशन भी। स्त्री के स्त्रीत्व का अनमोल क्रिएशन मैं नहीं कर पाई। शायद अविनाश न आया होता जीवन में तो महत्वाकांक्षा यूं प्रबल नहीं होती 'अरूण' जैसा सूर्य था मेरे पास। अब कितना मुश्किल है ऐसे किसी सूर्य को खोज पाना। अरूण सूर्य था। हां, पर अविनाश एक ऐसा अकर्मण्य अंधकार ले आया था जिसने नई इच्छाशक्ति जगाई थी, पर आज आभास हुआ कि वे मृत्युमुखी इच्छाशक्तियां थीं। उसने मेरे कैरियर में सुविधा का सागर जुटाया, पर मेरा भविष्य डुबो दिया। नहीं भागी होती उस दिशा में तो बंटी मेरा होता।

पर तब एक ही जिद थी- नहीं चाहिए अभी बच्चा। मैं एबॉर्शन पर अड़ी रही थी। अरूण रो दिया था मेरे फैसले पर। ऑटोमेटिक कैमरे से तुरन्त बंटी की तस्वीर बाहर निकाली। न चाहते हुए भी उस पर प्यार आ रहा था। उसे घंटों प्यार से देखती रही। अंदर ही अंदर एक अनजानी आवाज सुनाई देती रही, 'मम्मी...मम्मी...मम्मी' और अकेले ही उस फोटो से बात करने लगी थी मैं - 'बंटी तुमने आज जैसे मेरा वजूद ही बदल डाला...'

'मां' बनना शायद स्त्री की आत्मा में दबी सबसे बड़ी महत्वाकांक्ष होती है, जो पता नहीं कब सिर उठा लेती है। अरूण चाहता था, मैं मां बनूं, पर मैं नहीं चाहती थी। अब मैं चाहती हूँ, पर अविनाश के साथ शादी ही नहीं की तो वह बच्चे के लिये क्यों तैयार होगा! मैं उदासी से बचना चाहती थी। रूम से निकल होटल के टैरेस पर आ गई। आसमान एकदम साफ था, लाखों तारे टिमटिमा रहे थे। मैं ढूंढने लगी अपनी कोख से तोड़े उस अंकुर को जो पता नहीं कौन-सा तारा बना होगा। अचानक धीरे से किसी ने कंधे पर हाथ रखा.. पलटी तो सामने अंजली थी और अरूण बच्चे को संभाल रहा था।

''नीरजा, हम तुम्हें डिनर के लिए लेने आए हैं फटाफट तैयार हो जाओ।'' यह अरूण का स्वर था।

''मुझे.. नहीं मैं यहीं ठीक हूं।''

''आप चलिए न। घर आपकों याद करता है। प्लीज नीरजा जी! एक बार हमारे लिए चलिए।''

''अंजली, मैं कल लंच तुम्हारे यहां लूंगी, आज मुझे माफ कर दो... आज मन बहुत उदास है।'' मैंने अंजली के कंधे को हल्का-सा थपथपाया था-- ''आओ नीचे चलते हैं। यहीं कुछ साथ में लेते हैं। अरूण, तुमने बताया था न यहां 'बेक्ड मशरूम' बहुत अच्छा बनता है, चलो सब मिलकर टेस्ट करते हैं।''

वो मान गए। मुझे लगा उन्हें तो मानना ही था। दोनों सरल और सहज हैं कुंठाएं नहीं पालते। अड़ियल स्वभाव तो मेरा था, इतने मान-सम्मान से लेने आए और मैं नहीं गई। अरूण मुझे जानता है, मैं हूं ही ऐसी, इसीलिए उसने बार-बार आग्रह नहीं किया। संबंधों में तनाव भरे रहना आदत है मेरी। जानती हूं कि कहीं न कहीं गलती मेरी अपनी ही होती है। तभी तो आज यहां इस मुकाम पर एकदम अकेली हो गई हूं। खुद को सुधारकर दूसरों के हिसाब से व्यवहार करके दाम्पत्य में सुख खोजा जा सकता था। प्यार और काम-भावनाएं सदा एक-सी नहीं रहती, जीवनपर्यन्त वे घटती-बढ़ती रहती हैं... सही तालमेल करना आना चाहिए, पर वही मुझे नहीं आता।

कमरे में लौट रही थी। रिसेप्शन पर चाबी लेने पहुंची तो पता चला, अविनाश का चार बार फोन आ चुका है। 'क्या हुआ अविनाश को? फोन लगाया और रूम में ट्रांसफर करवा लिया।

''कैसी हो, नीरजा? तुम्हें वो मिले या नहीं तुम्हारे अरूण जी? अविनाश आदत के अनुसार मजाक करने से बाज नहीं आता।

अविनाश से बात की तो अच्छा लगा, मन पर से थोड़ा-सा बोझ कम हुआ-सा लगा। मैं फिर कमरे में लौट आई। दिनभर के फोटोग्राफ छांटकर अलग किए। सुबह के लिए कुछ प्लान बनाए। आधा ग्लास रम का बनाया, खुद ही चियर्स कर पिया और लेट गई। यह आधा पेग लेने की आदत मुझे अविनाश ने डाली। उसे लत है, उसके साथ मुझे भी लग गई। अरूण को देर रात तक काम करने की आदत है, पर वह अच्छी-सी अदरक-इलायची वाली चाय लेता है।

बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचती रही--'सत्य' क्या है? जीवन का 'सत्य'? लगा, सत्य के लिए भटकना नहीं पड़ता। मैं भटक रही थी। आज सत्य को पा लिया था। अपने भीतर के सत्य को अपने भीतर से ही पाना होता है। वह ढूंढने, मांगने या शब्दों से बयां नहीं होता, अनुभव से उतरता है। आज एक सत्य को मैंने बंटी को देखने के बाद खुद में पाया और पहचाना... और सचमुच कड़वा होता है सत्य। फोटोग्राफी में अविनाश की मदद और गाइडेंस से तब मेरा काम चल पड़ा था--एक लड़की और इतनी अच्छी फोटोग्राफी! लोग अक्सर यह जुमला बोलते थे और मैं गर्व से तन जाती थी। प्रशंसा अगर केटेलिस्ट है तो अति प्रशंसा स्लो प्वाइजन। मेरी बातों, मेरे काम, मेरी कला में अहंकार झलकने लगा था। वह अहं ही तो था जो मेरे और अरूण के मध्य पसर गया था, वरना आज अंजली नहीं, मैं.. हां मैं नीरजा ही बंटी के साथ होती।

क्यों हो गया यह सब... हमारे तो संबंध भी शुरूआत में अच्छे थे। हमने तो प्रेम-विवाह किया था। आज समझ में आ रहा है। सेक्स और आपसी समझ जहां एक-दूसरे के पूरक हैं, वहीं एक-दूसरे पर पूरी तरह निर्भर भी हैं, पर हम प्रेम-विवाह के बावजूद बिना एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र किए, बिना उन्हें समझे, एक-दूसरे से धीरे-धीरे अजनबी होते गए। तो क्या विवाह के शुरू के महीनों में जो कुछ था वह महज 'इनफैचुएशन' (यौनाकर्षण) ही था.. केवल शारीरिक आकर्षण मात्र? शायद हां, वह स्वाभाविक था, पर वहीं मैं चूक गई। यही तो वह समय था जब हमें एक-दूसरे की रुचियों से, शौकों से, पसंद-नापसंद से जुड़ना चाहिए था। तभी पनपता वह प्यार जो मैंने अंजली की आंखों में लबालब देख लिया था, वही प्यार जो अरूण मुझे करना चाहता था, पर वह अब पूरी तरह अंजली को अर्पित है। हां, अंततः यही प्यार है, जिसके लिए दुनिया भागती है और जिसे मैं ठुकराकर चली गई थी। यही तो वह सिलसिला है जो आगे चलकर एक सुखी सफल लम्बे वैवाहिक जीवन की नींव बनता है। मैंने नींव रखी ही नहीं और अब ध्वस्त अवशेषों पर आंसू बहा रही हूं।

आखिर कोई कब तक सहन करता! और यही हुआ अरूण के साथ। एक दिन मैं अविनाश के आकर्षण में जमीन से ऊपर उठ गई और बिफर पड़ी थी अरूण पर। पर कहां जानती थी, पैरों के नीच अब जमीन आएगी ही नहीं।

होटल के कमरे की खिड़की सड़क की तरफ खुलती है। परदा हटाया और सड़क की तरफ देखने लगी। सुबह होते ही उस पर निरंतर ऑटो, टेंपो, बस, साइकिलों और पैदल यात्रियों का आना-जाना चालू हो गया था। बस, यही एक भीड़ इंदौर को मुंबई का बेटा बना देती है। स्कूटर पर जाता एक जोड़ा अच्छा लग रहा है। लड़की मस्टर्ड कलर का सूट पहने है और चेहरा स्कॉर्फ से ढका हुआ है। वह लिपटी हुई-सी बैठी है स्कूटर चालक से। उसे लगा, आजकल प्रदूषण से बचाव के नाम पर मुंह पर आतंकवादी स्टाइल में कपड़ा लपेटने के कई फायदे हैं-- कोई पहचान भी न पाए कि कौन किसके साथ घूम रहा है.. पर यह उम्र ही ऐसी होती है। वह भी तो स्कूटर पर अरूण के पीछे ही बैठती थी।

कितनी बातें थीं जो यूं लांग ड्राइव पर जाते हुए ही होती थीं और अब अविनाश से बात किए दो-तीन दिन गुजर जाते हैं। मैं महसूस कर रही हूं कि दिलो-दिमाग में फिर हताशा रेंगने लगी है। लगा, एकाएक बहुत भावुक हो आई हूं। क्या पाया मैंने? क्या खो दिया? यश, नाम, रूपया, स्वतंत्रता जैसे बड़े शब्द हैं, जो मैं प्राप्ति के पलड़े में रख सकती हूं, पर दूसरे पलड़े में एक सुंदर घर, बांहों में समेटता पति, मुस्कराता बंटी आकर बैठ जाते हैं तो वह पलड़ा भारी होता चला है-- इतना भारी कि जमीन छूने लगता है। दूसरे पलड़े के हवा में लटकने का अहसास एक त्रासदी की तरह कड़वा लगा। यह अहसास इंदौर लौटने के बाद ही ज्यादा कचोट रहा है। इससे तो न ही आती तो अच्छा था। अविनाश ने तो कहा भी था, ''क्या करोगी जाकर?''

''अरूण से मिलने का दिल कर रहा है।''

''जो अतीत का हिस्सा हो जाते हैं, उनसे मिलना तकलीफ देता है, नीरजा! मेरे ख्याल से न जाओ तो अच्छा है।''

''तुम अरूण से जैलेस हो रहे हो, अविनाश ?''

'' तुम पागल हो गई हो? अरूण मुझसे ईर्ष्या कर सकता है, मैं क्यों करूंगा? तुम उसे छोड़ मेरे साथ आई हो।''

'' मैं तो मजाक कर रही हूं, अविनाश।''

मैं इन विचारों से उबरना चाहती हूं चाय और नाश्ता रेस्तरां में जाकर लेती हूं, ताकि ध्यान बंटे। 'इडली-सांभर' मंगवाती हूं। नाश्ता कर चाय लेती हूं तो याद आता है--यहां चाय बेहद मीठी बनती है। 'मालवा की चाय' चाय नहीं, चाय का काढ़ा होती है, पर स्वाद में अच्छी लगी। धीरे-धीरे चुस्कियां लेने लगी। चाय समाप्त हुई तो नजर सामने बैठी महिला पर गई। नजरें मिलते हम एक-दूसरे को पहचान गए।

''नीरजा ?'' वह महिला उठकर आ गई।

''शुभा..शुभा शर्मा ?''

अब शर्मा नहीं... शुभा जोशी हूं।''

''अच्छा?''

'' कब आई इंदौर?

'' बस, कल ही आई हूं। कुछ फोटोग्राफ लेने थे राजबाड़ा, मांडू, महेश्वर वगैरह के।''

''अरे वाह...।''

''तुम कैसी हो, शुभा?''

'' अच्छी ही हूं, शाम को आओ घर। खाना हमारे साथ लेना... ये मेरा कार्ड।''

''नहीं शुभा..।''

''क्या नहीं ? अरूण अंजली से मिली ?

''हां।''

''उन्हें भी बुला लेते हैं शाम को।''

वह चली गई और मैं रूम में लौट आई।

रूम में फिर वही अकेलापन था। तन्हाई जीवन को उलट-पलटकर देखने का अवसर देती है और फिर अपनी ही मत्वाकांक्षाओं, अपनी भावनाओं की समीक्षा करने लगी। लगा, वैवाहिक संबंध कितने शाश्वत होते हैं, कितने पवित्र और सात्त्विक। अविनाश के उत्तेजनापूर्ण संबंधों में स्थायित्व नहीं है, वे क्षणिक आवेश ही थे। अरूण को अंजली के साथ संतुष्ट जीवन जीते देख लगा, अरूण को दोबारा कभी भी पा लेने का दंभ आज टुकड़े-टुकड़े हो गया है। छोड़कर जाना बचपना ही तो था! अब आज मैं स्वतंत्र हूं, परिपक्व भी और गढ़ सकती हूं अपना जीवन, पर संतुष्ट परिवार का सुख दोबारा चाहकर भी अब नहीं गढ़ा जाएगा।

मैं--नीरजा--आईने के सामने खड़ी हो गई, माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आई थीं। रंग अब कलसाने लगा है। आंखों के नीचे उम्र झुर्रिया बनकर उतरने लगी है तो क्या मेरा समय टल गया?

कमरे में ही सारा दिन अपनी ही नकारात्मक समीक्षा करते हुए निराश हो चली। कमरे में टहलने के बाद स्नान किया। कपड़े बदले, संवारकर देखा तो लगा, अब भी अच्छी लगती हूं। बाहर अंधेरा होने लगा। टैक्सी बुलवाई और पचमढ़ी के लिए चल पड़ी। अरूण को सूचना देना मुझे जरूरी नहीं लगा।

.......

आजकल

दरवाजे पर किसी ने हल्की-सी दस्तक दी। दरवाजा अंदर से बंद है। अब क्या करे? मन नहीं है उठने का और किसी से बात करने का, पर उठकर खोलना तो पड़ेगा। क्या पता, प्रणव ही हो और कुछ भूल गया हो, पर चाबी, रूमाल, फाइलें सब याद रखकर दे तो दिए थे और प्रणव के जाते ही प्रतिमा ने दरवाजे का हैंडल लॉक किया और चिटकनी लगा ली थी। उसने उठकर चिटकनी खोली तो दरवाजे पर अपरिचित महिला खड़ी थी। वह मात्र चेहरे से पहचान रही थी कि वह उसके सामने वाले फ्लैट में रहती है। प्रणव के आने और जाने के वक्त प्रतिमा ने दरवाजा खोलते हुए या बंद करते वक्त इस महिला को बालकनी में खड़े देखा है। दरवाजे को पकड़े प्रतिमा उलझन में थी, आइए कहूं या नहीं?

''हैलो! मैं मिसेस कुलकर्णी आपके सामने वाले फ्लैट में।'' आगंतुक महिला ने बातचीत शुरू की।

''ओह, हां! आपको बालकनी में खड़े देखा है, आइए।'' प्रतिमा सहज होने की कोशिश के साथ दरवाजे से हटकर अंदर आ गई। घर की सजावट का मुआयना करती पड़ोसन मिसेस कुलकर्णी ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया।

''एक महीना हो गया, जबसे आप लोग रहने आए हैं, रोज सोचती हूं, आपसे मुलाकात करने की, पर जब फुर्सत होती है आपका दरवाजा बंद रहता है। लगता है, आप व्यस्त होंगी या आपके आराम का समय होगा। यही सोचकर आते-आते रूक जाती हूं।'' बिना किसी औपचारिक भूमिका के उन्होंने बातचीत की भूमिका शुरू कर दी।

''सोचा तो मैंने भी था आपके घर आने का पर सोचती ही रही। इधर थोड़ी तबीयत भी ठीक नहीं है, इसीलिए आलस कर गई।'' कहने को कह गई, पर लगा तबीयत वाली बात नहीं बतानी चाहिए थी।

''क्या हुआ आपकी तबीयत को?'' मिसेस कुलकर्णी ने विस्मय से प्रश्न किया।

फंस गई थी मैं! पर कुछ तो बोलना था सो कह दिया, ''कुछ खास नहीं, यूं ही थोड़ी सुस्ती रहती है आजकल।''

''अच्छा समझी ख़ुशखबरी है, क्यों? अरे भई, बतलाना तो चाहिए हारी-बीमारी में पड़ोसी पहले काम आते हैं।''

चेहरे पर प्रसन्नता के मिले-जुले भाव ने स्वतः उक्तार दे दिया था। कितने दिन चढ़े हैं?'' मिसेस कुलकर्णी ने जिज्ञासावष पूछा।

''पांचवा महीना है।'' प्रतिमा ने पांच माह कहा तो, पर एक बार मन ही मन स्वयं को टटोला। यह बात बतानी चाहिए थी या नहीं। कल को यह शादी के लिए पूछेगी तो? एक निरर्थक-सी चिंता से माथा ठनका पर चिंता निरर्थक नहीं थी। मिसेस कुलकर्णी ने अगला प्रश्न पूछ ही लिया, ''पहला बच्चा है?''

''हां।'' कहकर प्रतिमा चाय-पानी की व्यवस्था के बहाने वहां से उठकर रसोई में आ गई-मन ही मन विचार करते हुए कि चाय लेकर आऊंगी तो बातचीत का विषय बदल दूंगी। उनके बातचीत के विधान मेरी व्यक्तिगत जिंदगी को सेंध लगाएं, यह मुझे मंजूर नहीं था। इसी ऊहापोह में बाहर की गर्मी और मन का तापमान एक-सा लगा, अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व और मुक्त विचारधारा में भय के बादल देख प्रतिमा बेचैन हो उठी, पर यह कैसा भय? चाय की ट्रे लेकर लौटी तो देखा, मिसेस कुलकर्णी कॉर्नर टेबल पर रखी उसकी और प्रणव की तस्वीर देख रही है। उसे देखते ही उत्साह से पूछ ही बैठीं, ''यह फोटो आपके हनीमून की होगी, है न? बहुत सुंदर आई है। कहाँ गए थे हनीमून पर?''

''जी येऽ़ऽ'़' प्रतिमा सकपका गई पर बात संभाल ही ली-यह फोटो सिंगापुर की है। हम यूं ही घूमने गए थे तब की है।'' कह तो दिया उसने, पर हनीमून और डेटिंग का फर्क आज एकदम सामने आकर खड़ा हो गया। फोटो हनीमून की होती तो कितने उत्साह से कहती वह, पर डेटिेंग पर वह और प्रणव सिंगापुर गए थे और यह पांच माह का जीव तभी से उसकी कोख में है। क्यों नहीं खुलकर कह पाई यह कि वह बच्चा केवल उसका कहलाएगा। बगैर पुरूष के नाम के भी वह मां हो सकती है-एक स्वतंत्र मां। प्रतिमा ने चाय का प्याला पकड़ाते हुए बात बदलने के लिए पूछा, ''आप कब से रह रही हैं इस फ्लैट में?''

''जब मिस्टर कुलकर्णी ने मुझसे शादी की तब यह फ्लैट वे बुक करवा चुके थे। किश्तों पर लिया था। पांच साल पहले आखिरी किश्त भरी।''

''अच्छा, अच्छा।''

''हां, नहीं तो क्या?''

''चलिए, घर का घर हो गया बंबई में और क्या चाहिए?''

''तुम्हें पता है प्रतिमा, मेरी भी पहली डिलीवरी यहीं हुई थी, बेटा हुआ था। फिर ऊपर वाले वर्माजी के यहां भी!'' वे आप से तुम पर आ गई थीं।

''अच्छा'' प्रतिमा मुस्करा रही थी।

''तुम लोगों ने फ्लैट खरीदा या किराये पर लिया है।''

''अभी तो किराये पर लिया है। दरअसल हमारा फ्लैट जुहू में है। फर्स्ट फ्लोर पर प्रणव के मम्मी-डैडी का और नाइंथ फ्लोर पर मेरी मम्मी का।''

''एक ही बिल्डिंग में ससुराल और मायका है। फिर इधर जुहू छोड़, अंधेरी में फ्लैट क्यों लिया। प्रेगनेंसी में घर के लोग साथ होने चाहिए।''

''बस यूं ही। प्रणव ने फ्लैट ले लिया तो आ गए।'' एक और झूठ, पर कब तक? कह क्यों नहीं दिया ससुराल का झंझट नहीं है। ''फ्लैट थोड़े छोटे हैं, इसलिए इधर आ गए।'' कहने को तो कह गई, पर मन पर फिर एक बोझ लदने लगा। सास-ससुर, घर, ससुराल य़े सारे शब्द इतने वजनदार होते हैं क्या? क्यों लग रहा है जैसे वह चोरी करते पकड़ी जा रही है। ये रिश्ते क़्या उसके जीवन में हैं? क्या वह इन्हीं से नहीं भाग रही थी! रिश्तों के बंधन ही तो उसे पसंद नहीं थे। तो क्या रिश्तों के नाम होना जरूरी है? रिश्तों के नाम जीवन में इतना मायने रखते हैं? अगर नहीं रखते तो क्यों मन डर रहा है उस एक प्रश्न से जिसे नकार दिया था उसने और प्रणव ने भी। मां से झूठ बोलकर वह प्रणव के साथ सिंगापुर गई थी एनसीसी के कैंप के बहाने। दिन और रात की डेटिंग थी वह। चांद जब होटल की खिड़की से आधी रात को झांकता तो पाता-प्रतिमा और प्रणव परमतृप्त, बेसुध, एक-दूसरे पर समर्पित ऩींद में होते।

पांच दिन के ही किसी क्षण, किसी लम्हे का फुल पांचवा महीना बन गया है। आजकल विवाह एक रूढ़ि है-मात्र दो देह के मिलन की रस्में! जब देह बगैर रस्मोरिवाज के एकाकार हैं तो विवाह का बंधन क्यों? जब मन चाहेगा, कहीं जाकर रह लेंगे साथ। अपनी-अपनी स्वतंत्रता की चाह में दोनों ने ही बंधन नकार दिए थे पर क्या इस नकारने को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर सकती है वह?

आजकल संबंधों को भी फैशन की तरह लिया जा रहा है-जब तक चले, चलाओ वरना आत्मा से उतार फेंको। अनचाहा बोझ नहीं चाहिए उन्हें रिश्तों का।

चाय का प्याला खाली कर रखते हुए मिसेस कुलकर्णी ने वही सवाल खड़ा कर दिया। पूछ ही लिया वह प्रश्न जिससे प्रतिमा बचना चाहती थी। ''कितने साल हुए ब्याह को?''

चेहरा सफेद पड़ गया प्रतिमा का। जवाब न देना पड़े इसलिए अनसुनी-सी करती वह उठने लगी, ''जस्ट ए मिनट, शायद दूध की पतीली गैस पर रख आई हूं। लेट मी चेक।'' दूध गैस पर था ही नहीं, प्रश्न को टालना था, बस इसलिए उठी थी वह। सहज होने के लिए थोड़ा समय चाहिए था। वह टॉयलेट में चली गई। अंदर की हलचल से उपजी घबराहट की तीव्रता को बाहर निकालना चाहती थी। वॉश-बेसिन के नल को खोल, पानी के छींटे मुंह पर मार, नेपकिन से चेहरा थपथपाती बाहर आई। उसका चेहरा देख मिसेस कुलकर्णी ने सहज स्त्रीत्व के भाव से पूछा, ''प्रतिमा! तुम्हें घबराहट हो रही है क्या? ऐसे समय नींबूपानी, नारंगी की गोली, दूध, ग्लूकोज लेती रहा करो।''

''हां लेती हूं न प़र इस वक्त रोज ही मुझे उबकाई आती है। आफ्टर दैट आय फील अनकंफर्टेबल एंड आई फील लाइक स्लीपिंग।''

''ओके, आई विल लीव नाऊ। जब तुम्हें अच्छा लगे तब आ जाया करना मेरे पास। अकेली परेशान नहीं होना। सबके साथ होता है पति दफ्तर चले जाते हैं, बड़ा अकेलापन लगता है। पास-पड़ोसी ही काम आते हैं। समय भी कट जाता है और दूसरों के अनुभव बड़े काम आते हैं पहली डिलीवरी में।''

प्रतिमा ने सोफे पर सिर टिका लिया, स्पष्ट था वह बातचीत करने के मूड में नहीं है। पर मिसेस कुलकर्णी आजकल की प्रतिमा तो नहीं न? वह तो उम्र की प्रौढ़ता की ओर हैं।

''कुछ अच्छा खाने का मन करे तो बता देना, समझी। भूखे नहीं रहना, ऐसे वक्त। पति का रास्ता नहीं देखना खाना खाने के लिए। जब मन करे, खा लिया करो। अच्छा, मैं चलती हूं।''

भड़ाक से दरवाजा बंद किया प्रतिमा ने और कटे पेड़-सी पलंग पर पड़ गई वह। जाने क्यों उसे लगा कमरे में वह अकेली नहीं है, कोई अब भी मौजूद है। उसने खुद दरवाजा लगाया है! कौन हो सकता है? फिर उसने पेट पर हाथ रखा तो अहसास की अजीब-सी लहर उसके तन-मन में तरंगित हो गई। 'ओह, तो वो दूसरे तुम हो कमरे में मेरे बच्चे।' वह मुस्करा उठी, पर पलभर में ही चिंता का भाव फैलने लगा, 'मेरे बच्चे...म़ेरे बच्चे'! शब्द का अहसास उसके अंतर्मन पर छा गया। 'मेरा बच्चा' भी तो एक रिश्ता है, क्या इस रिश्ते को मैं या प्रणव अपने रिश्ते की तरह नकार पाएंगे कभी? मेरा बच्चा जब प्रणव कहेगा तो मैं क्या अपने बच्चे पर उसके अधिकार को रोक पाऊंगी? मेरी कोख में पलने से वह मेरा बच्चा है पर यह स्वतंत्र अस्तित्व की मृगतृष्णा कहीं बच्चे से उसके पिता का अधिकार ही न छीन लें? और जो प्रश्न मिसेस कुलकर्णी ने पूछा और मैं बताने से कतराती रही, कल को वही प्रश्न बच्चे से पूछ लिया तो?

शादी न करते हुए प्रणव के साथ सहजीवन के बावजूद, स्वतंत्र अस्तित्व की मृगतृष्णा में कहीं मैं भटक तो नहीं रही? सिर भारी हो गया सोच-सोचकर। मां ने कितना समझाया था-''शादी कर ले प्रणव से, फिर जो जी चाहे कर। बिना ब्याह के साथ रहने का चलन हमारे देश में नहीं है, प्रतिमा।'' मां की बातें दिलो-दिमाग में घूमने लगीं। कितनी आसानी से भाषण झाड़ दिया था अपनी मां और प्रणव की मम्मी के आग क़्या फर्क पड़ेगा शादी से? मुझे और प्रणव को साथ रहना है। हम प्यार करते हैं तो फिर रिश्ता प्यार का हुआ न? भंवरों या फेरों का क्या है? यदि मैं प्रणव का हाथ थाम लूं और तुम्हारे आस-पास घूमकर फेरे ले लूं तो क्या तुम साक्षी नहीं हो! अग्नि के फेरे एक परंपरा है आडंबर से भरी। मैं रूढ़ियों को तोड़ रही हूं। कल को प्रणव मुझे बाध्य नहीं कर सकेगा अपनी मर्जी से हांकने के लिए, जैसे तुम्हें बाबूजी ने अपनी उंगलियों पर नचाया-''ऊषा यहां बैठो, ऊषा जल्दी आ जाना, ऊषा टीवी बंद कर दो, नानी के घर मत जाओ।''

''तू पागल हो गई है, प्रतिमा अ़पने पिता के लिए इस तरह कोई बोलता है?''

''नहीं मां, मैं पागल नहीं हूं। मैं पत्नी बनकर गुलामी नहीं करना चाहती। तुम्हारी इन सदियों से चली आ रही रीति-रिवाजों की परंपराएं स्त्री-पुरूष को केवल एक-दूसरे की गुलाम बनाती हैं। मैं घुटने टेकने वाली नहीं।''

दोनों घर से बेदखल हो गए थे-प्रणव और प्रतिमा।

फ्लैट किराये पर कहाँ मिलता उन्हें ब्याह के बगैर। सुधीर से प्रणव ने कहा और सुधीर ने फ्लैट देने की हाँ कर दी और प्रतिमा लिपट गई थी प्रणव से।

प्रतिमा ने न मांग भरी, न मंगलसूत्र गले में डाला, न बिछिया पहनी, न मेहंदी लगाई, न हल्दी, न अग्नि के भांवर पड़ी, न कन्यादान के संकल्प छूटे, फिर भी वह प्रणव के जीवन में आ ही गई और प्रणव का अंश उसकी देह में पल रहा है पर यही देह का रिश्ता भांवरों के साथ होता तो म़ां को बताना अच्छा लगता कि तुम नानी बन रही हो सात फेरे प़्रणव के साथ ले लेती तो।

दरवाजे पर उसे प्रणव के कदमों की आहट लगी। उठी, दरवाजा खोला। दरवाजे पर प्रणव ही था। अंदर आते ही उसने प्रतिमा को चूम लिया, ''कैसी हो माय डियर डार्लिंग।''

वह चुप रही।

प्रणव ने टाई ढीली करते हुए कहा, ''प्रतिमा, प्रतिमा! तेज़ भूख लगी है, कुछ पकौड़े-वकौड़े बनाओ।''

इच्छा नहीं थी प्रतिमा की प़र डिब्बे में बेसन ढूंढने लगी। कढ़ाई में हर छूटते पकौड़े की छन्न उ़सके अंदर भी होती। क्या अंतर रहा उसमें और बीवी में?

पकौड़े के साथ हल्की-सी ह्विस्की प्रणव लेने लगा तो प्रतिमा ने रोका था, ''नहीं प्रणव, मत लो।''

एक-दूसरे की स्वतंत्रता को बनाए रखने का दावा करने वाले प्रणव और प्रतिमा क्या स्वतंत्र हैं? हस्तक्षेप नहीं है उनका एक-दूसरे के जीवन में?

रात बिस्तर पर प्रतिमा आंखें मूंदे लेटी थी। प्रणव ने खींच लिया उसे बांहों में। ''क्या हुआ, मैडम? बड़ी चुपचाप हैं प़्यार करने का मूड हो रहा है मेरा।'' उसका उत्तर सुने बगैर ही प्रणव...

प्रतिमा उठकर बैठ गई। एक छत के नीचे, एक बिस्तर पर साथ रहते, सोते स्वतंत्रता को बचा पा रही है वह? अपने अस्तित्व को बचाए रखना संभव नहीं रहा। प्रणव अपनी इच्छापूर्ति के बाद करवट बदलकर सो गया, पर प्रतिमा का मंथन चलता रहा। एक प्रष्न आकर लेट गया उसके और प्रणव के बीच। क्या उसका बिन ब्याहे मां बनने का निर्णय गलत है? उसका प्रणव से रिष्ता.... एक दैहिक सुख की मृगतृष्णा नहीं....

अगले दिन फिर मिसेस कुलकर्णी उसके दरवाजे पर थीं, ''प्रतिमा थालीपीठ बनाया है। लो थोड़ा चखकर बताओ।'' प्रतिमा को चिढ़-सी आने लगी। बड़ी बोर औरत है। अनावश्यक हस्तक्षेप करने लगी है उसके जीवन में। फिर एक दिन दरवाजे पर मिसेस कुलकर्णी थीं, ''प्रतिमा पूरनपोली बना रही हूं, चलो, वहीं एक गरम-गरम पोली खा लो। जानती हूं, तुम्हें एकांत पसंद है, पर कुछ भी बनाती हूं तो तुम्हारा खयाल अपने-आप आ जाता है। मैं जब प्रेगनेंट थी तो कुलकर्णीजी की आई पूरे टाइम साथ रहीं। सासु मां ने रोज नए पकवान खिलाए। तुम अकेली हो यहाँ, यही सोचकर मन तुम्हारी तरफ दौड़ता है।''

''नहीं, नहीं, अच्छा लगता है मुझे भी।'' पूरनपोली की थाली उठाते हुए प्रतिमा ने कहा।

''सातवें माह में सासु मां को बुलवा लेना। सातवां महीना थोड़ा रिस्की होता है। आठवें में नदी-नाले पार नहीं करना त़ुम्हें मां ने बताया तो होगा न?''

''अच्छा, शाम को तुम्हारे पति को समझाऊंगी, अपनी मां को ले आएंगे।''

''वे नहीं आएंगी।''

''क्यों नहीं आएंगी? पोता क्या यूं ही मिल जाएगा?''

''....ऽ....ऽ''

''बहू को लाड़-प्यार किए बगैर?''

''वे नाराज हैं।''

''तो अपनी मां को बुलवा लो?''

''वे भी नहीं आएंगी।''

''क्यों? भागकर शादी की थी क्या?''

''नहीं।''

''तो?''

''वी आर नॉट मैरिड। एक्चुअली वी आर इन्वॉल्वड इन अ 'लिव इन' रिलेशनशिप द़रअसल हमने शादी नहीं की। सिर्फ साथ रहने का फैसला किया है।'' प्रतिमा ज्यादा समय तक इस सच को छिपाकर नहीं रख सकती थी। जब-जब छिपाया मन पर बोझ बढ़ता जाता था। कहकर हल्का लगा, पर साथ ही आवाज की बुलंदी गायब थी-वह बुलंदी जो ब्याह की बात पर मां को उनके और बाबूजी के रिश्तों की गुलामी पर कहते वक्त मौजूद थी।

''वॉट आर यू टॉकिंग? क्या बात कर रही हो।'' उन्होंने गैस बंद कर दी। प्रतिमा को लगा कि गर्भवती को गरम-गरम पूरनपोली खिलाने के उत्साह पर पानी फिर गया।

''तुमने शादी नहीं की?''

''नहीं की।''

''क्यों?''

''हमें लगता है कि शादी एक बंधन है। वह केवल गुलाम बनाती है और शादी के बाद प्यार खत्म हो जाता है। मैंने देखा है, अपने मम्मी-डैडी को दुश्मनों-सा लड़ते हुए।''

''पागल हो प्रतिमा, सारे रिश्ते रस्मों के मोहताज हैं?''

''स्वतंत्रता, अस्तित्व, वजूद, पसंद, सब शादी के साथ मिटने लगते हैं। हम अपना-अपना जीवन अपने अनुसार नहीं जी पाते हैं। मैंने देखा है, अपनी मां को बाबूजी की पूजा की थाली से लेकर अंडरवियर-बनियान तक बाथरूम में टांगने की गुलामी को!''

''मैं तो मॉडलिंग की दुनिया में हूं, जहां शादीशुदा लड़की का कैरियर ही खत्म हो जाता है।''

''मॉडलिंग का कैरियर शादी से नहीं, उम्र के साथ यूं ही खत्म हो जाता है।''

''आर्थिक स्वतंत्रता के बाद हम एक-दूसरे पर निर्भर नहीं हैं तो क्यों बंधनों में बंधें?''

''प्रतिमा, जिसके साथ बंधन में बंधना नहीं चाहती हो उसका ये बंधन! कोख के अंदर तो बंधा है। जानती हो, मां का सबसे पवित्र रिश्ता बच्चों से ही होता है, पर पवित्रता की मोहर शादी की रस्मों से ही लगती है। जिसकी पत्नी नहीं कहलाना चाहती हो, उसी के बच्चे की मां कहलाने को तैयार हो और शादी कोई रस्म नहीं, एक संस्कार है, प्रतिमा। एक संस्कार संतान को जन्म देने के पहले का। उसके बगैर पत्नी नहीं, उपपत्नी ही कही जाओगी। उपपत्नी मतलब 'रखैल'। बच्चे के जन्म से पहले कोर्ट में या मंदिर में जहाँ भी चाहो, इस संस्कार को पूरा कर लो। बच्चा तुम्हारे रिश्ते की इज्जत करेगा, वरना बड़े होकर सबसे ज्यादा कटघरे में उसे ही खड़ा किया जाएगा।''

पूरनपोली रखी रही थाली में। न उन्होंने सरकाई, न मैंने खिसकाई। प्रतिमा अपने फ्लैट में लौट आई। पलंग पर पड़ी रही-खाली, निष्प्रयोजन, उदास, त़ो क्या इस बंधन से भी मुक्त हो जाऊं? या इसके लिए उस बंधन को स्वीकार लूं।

मिसेस कुलकर्णी की बड़बड़ाहट महसूस करती रही प्रतिमा। उसे लग रहा था, वह मिसेस कुलकर्णी की नजरों में उतर गई है। वे उसे डांट रही हैं और अपने पति को बता रही हैं-'वॉट द हेल इस गोइंग ऑन दीस डेज?'

'यू वोंट अंडरस्टैंड, दिस इज वेस्टर्न कल्चर माय डियर, विच इज ऑल्सो रूलिंग इंडियंस नाऊ।'

बन्द मुट्ठी

आज सुबह से ही सामने वाला दरवाजा नहीं खुला था। अखबार बाहर ही पड़ा था। 'कहीं चाची? नहीं, नहीं' मैं बुदबुदा उठती हूँ।

एक अनजानी आशंका से मन सिहर जाता है, पर मैं इस पर विश्वास करना नहीं चाहत़ी। मन-ही-मन मैं सोचती हूँ, 'रात को तो बच्चों को बुला रही थीं।' मन में शंका फिर जोर मारती है, 'इस उम्र में, पलक झपकते कब, क्या हो जाए? हो सकता है, रात देर से सोई हों और नींद न खुली हो?' मैं आश्वस्त होने की कोशिश करती हूँ, 'पर रोज सुबह पाँच बजे से खटर-पटर करने लगती हैं।' मन में शंका का बीज फिर प्रस्फुटित होता है, गैस पर चाय का पानी चढ़ा इन्हें आवाज देती हूँ।

''सुनो! उठो ना! सामने वाली चाची अभी तक नहीं उठी हैं।''

''ऊँहूँ, मुझे नहीं, तो चाची को तो सोने दो, बेचारी का बुढ़ापा है।'' ये फिर करवट बदल लेते हैं।

''नहीं! मुझे लगता है, कुछ गड़बड़ है।'' मैं सशंकित स्वर में बोलती हूँ।

''नहीं उठीं तो मैं क्या करूँ? जब उनके बच्चों को उनकी परवाह नहीं है, तो तुम क्यों सारे जमाने का ठेका लेती हो! सोने दो, रविवार है।'' ये रजाई खींच मुँह ढँक लेते हैं।

''आज रविवार नहीं, शनिवार है जनाब!''

मैं कुढ़-कुढ़ाकर किचन में आ चाय केतली में भरकर रख देती हूँ और अपना प्याला हाथ में ले अखबार के पन्ने डाइनिंग टेबल पर फैलाती हूँ। पर मन अखबार में नहीं लगता, रह-रहकर चाची के दरवाजे की आहट लेता है। मन है कि मानता ही नहीं और प्याला हाथ में ले उनके दरवाजे की बेल का बटन दबा देती हूँ।

बेल की सुमधुर ध्वनि सुनकर याद आता है, चाची बता रही थीं, इतनी मधुर ध्वनिवाली कॉलबेल उनके बेटे ने फॉरेन से भेजी थी। बेल बन्द होते-होते कराहती आवाज सुनाई दी तो राहत की साँस ली। थोड़ी देर बाद चाची ने दरवाजा खोला।

वे चल नहीं पा रही थीं और तेज़ बुखार से तप रही थीं।

''अरे! चाची, तुम्हें तो तेज़ बुखार है? बताया क्यों नहीं।'' मैंने अधिकारपूर्वक उन्हें उलाहना दिया और सहारा दे, पलंग तक ले गई। वे थरथरा रही थीं। मैंने उन्हें रजाई ओढ़ा दी और केतली में से आधा गिलास चाय लाकर दी।

उनकी आँखें नम थीं और .तज्ञता जाहिर कर रही थीं। उन्हें लिटाकर आई और क्रोसिन की टेबलेट ढूँढने लगी। दवाइयाँ यूँ तो जब-तब, जहाँ-तहाँ हाथ में आ जाती हैं, पर जरूरत हो, तब ढूँढ-ढूँढकर थक जाओ, नहीं मिलतीं। याद आया, बच्चों की पेरासिटामोल सिरप रखी है। अभी दो-तीन चम्मच वही दे देती हूँ, कुछ तो राहत मिलेगी और फिर कम से कम साइकोलॉजिकल असर तो करेगी ही। फिर बुढ़ापा भी तो बचपन की पुनरावृत्ति ही है, सोचते हुए उन्हें दवाई दे आई।

घर के सुबह के काम, बच्चों का टिफिन वगैरह निपटाकर देखा बुखार कुछ कम हुआ, पर ठण्ड भी तो कड़ाके की पड़ रही है। मैंने अपने रूम का रूम-हीटर चाची के कमरे में लगा दिया। वे राहत महसूस करने लगीं।

चाची पर दया आ रही थी। बेचारी करें भी क्या? बताती हैं, चाचा के मरने के बाद ये फ्लैट खरीदा है, तभी से फ्लैट में अकेली पड़ी हैं। एक बेटा कहीं विदेश में है और बेटी कलकत्ता में। बेटा-बहू नौकरी करते हैं, उनके पास समय भी नहीं रहता। फिर वहाँ विदेश में मेरा मन लगेगा क्या? यह कहकर वे बात हमेशा खत्म कर देतीं। कभी-कभी भावुक क्षणों में बोल जाती हैं, ''ये तो अच्छा हुआ, पति ग्रेच्युटी का रूपया और पेंषन छोड़ गए, जो आसरे के लिए पर्याप्त है।'' पर क्या जीने के लिए केवल यही चाहिए? आज रह-रहकर मुझे यही दार्षनिकता सूझ रही थी, ''क्या रखा है जीवन में। मरते-खपते बच्चे बड़े करो और अन्त में इस पीड़ा के साथ क्या रखा है बुढ़ापे में? सूर्यास्त की तरफ बढ़ते जीवन सन्ध्या के दौर से गुजरते हुए परिवार की उपेक्षा का जहर? क्या नियति केवल आँगनभर धूप, खिड़की भर आकाष ही होती है?''

अक्सर महसूस करती हूँ, चाची अपने अकेलेपन को बाँटना चाहती हैं। कभी मेरे बच्चों के साथ, कभी ऊपरवाले फ्लैट के बच्चों के साथ। कभी महरी को बुलाकर, कभी टीवी चलाकर। पर आजकल के बच्चों के पास वक्त कहाँ है? कॉन्वेन्ट में पढ़ने वाली यह पीढ़ी कम्प्यूटर युग की जनरेशन है, इसके पास रिश्तों की मिठासवाला अहसास कहाँ है? अपनी ही नानी, दादी के साथ बैठ लें, तो बहुत; बेचारी चाची तो सामने वाले फ्लैट में रहती है। बच्चे अक्सर मुझे भी सलाह देते हैं; ''मम्मा, लाइफ में भावुकता नहीं चलती! वक्त कहाँ है इतना कि दूसरों के रोने रोते रहें?''

मैं अपना बचपन एक बड़े कुटुम्ब में बिताकर आई थी। पल-पल पर ममता की छाँव तले, सुरक्षा की छत्रछाया में प्यार और विश्वास के हाथ सिर पर रखे हुए। अम्मा, दादी, चाची, बड़ी माँ, बुआ सब रिश्तों की महक मेरे मन में अभी भी रची-बसी है। किसी ने बालों में तेल डाला होता, तो दूसरे ने पकड़ चोटी गूँथी होती थी। दादी का हलवा, चाची की खीर ऐसे व्यंजनों का स्वाद चखा था, पर मेरे बच्चे नौकरीवालों के घर के एकांकीपन में पल रहे थे।

चाची के लिए दोपहर में मैं पतली खिचड़ी बनाकर दे आई थी। उनकी आँखों से लगातार पानी बह रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि यह पानी है या आँसू! ''चाची, आँखों में जलन है क्या?''

मेरे प्रश्न पर वे मुस्करातीं, ''नहीं रे!''

उनके ''नहीं रे!'' में न जाने क्या था? कैसी पीड़ा का अहसास! मुझे भी रूलाई आने लगी। कहाँ चला जाए यह बुढ़ापा? क्या ऐसा कुछ उपाय नहीं कि यौवन को चिरस्थायी बनाया जा सके? कितना दर्द, कितनी तकलीफें इस बुढ़ापे में, बीमारी है, अकेलापन है। क्यों हम जन्मदिन पर बधाइयाँ और दुआएँ देते हैं, जबकि हम हर जन्मदिन के बाद बुढ़ापे के करीब होते जाते हैं।

बुढ़ापे का जो जहर पड़ोसन वृद्धा पी रही है, उसी की काट मैंने खोजी थी, उन्हें चाची कहना शुरू करके। फिर तो वे पूरी मल्टी में चाची के रूप में लोकप्रिय हो गईं। हम पाँच-सात घरों में बड़ा अपनापन है। दोपहर में कभी चाची के घर जा बैठते, कभी रामायण का पाठ रख लेते, कभी कुछ नया व्यंजन बनता, तो चाची का हिस्सा भी निकाल लेते। पर क्या हम पड़ोसी उस आत्मा के अकेलेपन को भर सकते हैं? हाँ, कुछ पूर्ति सम्भव है, पर रिक्तता का अहसास बड़ा घातक होता है। जो कहीं न कहीं अपने चिह्न छोड़ ही देता है। हमारी आवाजाही चाची में उत्साह भरती रहती। वे जी खोलकर सबकी आवभगत करती रहतीं, पर एकान्त क्षणों में अकेलेपन की पीड़ा उन्हें सालती ही होगी।

महरी को वे अक्सर रोकना चाहतीं। कभी घुटनों में तेल मलवाने के बहाने,तो कभी किसी और बात से। पर आठ-दस घरों में काम से बँधी वह इतनी चालाकी से निकल भागती कि उसकी चतुराई की दाद देनी पड़े।

बुखार उतरते-उतरते हफ्ता भर लग गया, पर चाची इस एक हफ्ते में बिल्कुल बदल गईं। अब वे अपने फ्लैट के बाहर कुर्सी डाले बैठी रहती हैं, हर आते-जाते को रोकती-टोकती, ''अरे भाई तुम कौन हो?'' ''किसके घर जा रहे हो!'' ''इतनी सुबह-सुबह चल दिए शर्माजी?'' ''अरी ओ प्रतिभा! कल तो तू बड़ी देर से घर लौटी? कहाँ चली गई थी, मुझे तो चिन्ता खाए जा रही थी।''

चाची अपनत्व से कहतीं, पर प्रतिभा को यह नजर रखनेवाली टोका-टोकी पसन्द नहीं। वह मुँहफट झट से कहने लगी, ''आपको चिन्ता करने की क्या जरूरत है। मैं तो अपनी माँ को बताकर गई थी।''

ऐसे कितने प्रश्न कितनों से पूछतीं और टके से जवाब पातीं। इसके बाद लोग चाची का सामना करने से कतराने लगे। मेरा दरवाजा उनके सामने पड़ता था। उनकी इस हरकत पर मुझे कभी तरस आता, तो कभी क्रोध। धीरे-धीरे बिल्डिंग में उनकी उपेक्षा होने लगी और वे एक बार फिर अकेली डिप्रेशन में रहने लगीं। उन्होंने फिर कमरे में बैठ चुपचाप टीवी देखना शुरू कर दिया। सोचती हूँ कैसी अनकही पीड़ा है? कैसे झेलती होंगी चाची इस दंश को? मैं तो परिवार की एक क्षण की उपेक्षा नहीं बर्दाश्त कर सकती, पर कल किसने देखा? बन्टी और बबलू भी मेरे प्रति ऐसा उपेक्षित व्यवहार करेंगे तो? सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

क्षितिज पर खड़ी वे, अपनत्व को तरसतीं, सूनी-रिक्त आँखें लिए, जाने क्या ढूँढती रहती! मैं अकेली कितना साथ देती? सोचती एक दिन वे अस्ताचल की ओर चली जाएँगी। सिहरन-सी होती उनके बारे में सोचकर। मैं झट से भगवान को हाथ जोड़ने लगती हूँ, ''हे भगवान! मुझे बुढ़ापे के पहले ही उठा लेना। यूँ अकेले होने का कारावास मुझे एक पल को भी नहीं चाहिए। पति के सामने उनके कन्धों पर चली जाऊँ? तो बेटे-बहुओं पर भार तो नहीं बनना पड़ेगा।''

लगभग पंद्रह दिनों बाद चाची ने फिर बिस्तर पकड़ लिया। इस बार लकवे का अटैक था। अब और मुश्किल हो गया था उनके लिए। मल्टी के लोग साथ दे रहे थे। बारी-बारी से सब ड्यूटी करते। महरी की जगह फुलटाइम बाई की व्यवस्था करवा दी। चाची अब भी चुप ही रहती थीं। उनकी झुर्रियों से सिमटकर छोटी हो गई आँखें, अब निर्विकार होकर भी किसी के इन्तजार में रहतीं। एक दिन मैंने कंघी करते वक्त पूछा, ''चाची! बेटे को खबर तो करने दो, क्या सोचेंगे वे लोग, कैसे पड़ोसी हैं? माँ की खबर तक नहीं करते।'' पर वे टाल गईं, ''क्या कर लेगा आकर। उसका पता मुझसे गुम हो गया है।''

मुझे लगा, उनका कोई बेटा-वेटा नहीं है। वे केवल हम लोगों की दया से बचने के लिए बेटे के होने की बात करती रहीं। खैर, जो भी हो, तीन बजे की चाय का प्याला ले चाची के पास पहुँचती हूँ, तो प्याला हाथ में देख उनके चेहरे की तलब बेचैन कर देती है। उन झुर्रियों में अपने बुढ़ापे का स्वरूप तलाशने लगती हूँ। चाची चाय सुड़ककर मुझे लम्बी उम्र का आशीर्वाद देती हैं। पर लम्बी उम्र किसके लिए? यही प्रश्न मुझे विचलित करने लगता है। रात को चाची की साँस उखड़ने लगी। ये डॉक्टर को बुलवा लेते हैं।

''कुछ कहा नहीं जा सकता। इनकी स्थिति गम्भीर है। आप इनके बेटे को सूचना दे दीजिए।'' डॉक्टर का यह कहना हम बिल्डिंग वालों के लिए चिन्ता का विषय था।

''बेटे के आने तक अगर कुछ हो गया तो?'' मिसेस शर्मा का प्रश्न था।

''सूचना के बाद अमेरिका से आने में भी तो समय लगेगा।'' मिस्टर शर्मा ने चिन्ता जाहिर की।

चौथे माले के पाण्डेजी ने सलाह दी, ''इनकी डायरी-वायरी में ढूँढते हैं पता। सूचना तो देनी ही होगी?'' शायद चाची सबके चेहरे के भाव समझ रही थीं। उन्होंने बुदबुदाकर कहा, ''तुम सभी मेरे बच्चे हो। मुझे विद्युत शवदाह गृह में दे देना।''

''उनकी पेटी में देखें, शायद किसी रिश्तेदार का अता-पता चल जाए।'' मेरी बेटी ने सलाह दी। पर चाबी नहीं मिली और रात तीन बजे चाची चली गई। उनके जाने के बाद तकिए के नीचे चाबी मिली। पेटी खोली, उसमें कुछ कपड़ों, कुछ रूपयों के अलावा, एलबम रखे थे। एलबम खोलकर देखे जाने लगे। एक खूबसूरत गौरवर्णी माँ अपने बच्चों के साथ तरह-तरह की मुद्रा में मिली। फिर बड़े होते बच्चों के साथ प्रौढ़ होती वही महिला पहचान में आने लगी। अरे, ये सब तो चाची के ही फोटो हैं। कुछ फोटो खुद के, कुछ पति के, कुछ बच्चों के। एक एलबम और था, उनके बेटे की शादी का, खोला तो चौथे मालेवाले पाण्डेजी उसे पहचानते थे, ''अरे, यह तो मेरी ब्रांच में ही काम करता है। आजकल ब्रांच मैनेजर है, अच्छा इसका फोन नम्बर दफ्तर से ले लेते हैं। एलबम आगे देखा गया। स्पष्ट हुआ कि वह ब्रांच मैनेजर चाची का बेटा है। कुछ खरीद के बिल भी थे पेटी में। वे उन्हीं वस्तुओं के थे, जिन्हें बताकर चाची कहा करती थीं, ''ये मेरे बेटे ने अमेरिका से भेजी है।'' सारे राज खुल गए थे। एक बन्द मुट्ठी की तरह, जो खुल गई, तो खाक की कहलाती है और बन्द थी, तो लाख की, पर चाची तुम्हारी मुट्ठी सदा बन्द रही और खुली भी, तो खाक नहीं हुई। उसमें बन्द था एक माँ का आत्मसम्मान।

''तो चाची का नालायक बेटा यहीं रहता है?'' शर्माजी बोले।

''हाँ, पर अब क्या करें? खबर दें?'' पाण्डेजी ने सवाल किया। चाची की पेटी में एक डायरी भी मिली, कुछ यादों को समेटने वाली। बेटे को सूचना दे दी गई। शववाहन भी आ गया था। बेटे के आने तक एक अन्तराल पसरा था कमरे में। जहाँ थी चाची की डैड बॉडी और हवा में तैरता एक प्रश्न क़्या चाची के बुढ़ापे को अकेलेपन से बचाया जा सकता था? डायरी के पन्नों पर फरफराता है एक उत्तर, ''बेटे, कल तुम्हारा भी आएगा बुढ़ापा। यह कड़ी यूँ ही चलती रहेगी। सूई के पीछे धागा लगा रहता है।'' पर सब स्तब्ध थे, एकदम मौऩ। परदे की सरसराहट से लगता रहा कि अब कोई आया श़ायद अब़।

एक फलसफा ज़िन्दगी

''शाम का अखबार पढ़ा?'' अमन ने शाम को दफ्तर से घर आकर अपनी टाई ढीली करते हुए मेरी तरफ देखकर पूछा।

''नहीं, अखबार आया ही नहीं।''

''मेरी फाइल के अंदर रखा है।'' अमन यह कहते हुए तौलिया उठा बाथरूम में घुस गये।

अब फाइल तो ब्रीफकेस में बंद है। पता नहीं क्या छपता है शाम के अखबार में। चिन्ता और कौतूहल की लहर फैल गई मेरे वजूद पर। पता नहीं ये शाम के अखबार कब क्या खबर चटखारेदार बना दें। पता नहीं खबर अमन को लेकर है। क्या पता कहीं मेरे बारे में तो नहीं?

''पढ़ा?'' बाथरूम से निकल अमन ने पूछा।

''तुम्हारे ब्रीफकेस में लॉक है और मुझसे नहीं खुल रहा।'' चिढ़ते हुए मैंने कहा।

अखबार निकालते हुए अमन ने ही खबर दे दी, ''तुम्हारी सहेली सुभद्रा ने अपने नए बॉस से शादी कर ली।''

''क्या...?''

''हाँ... अपनी उम्र से दुगुनी उम्र के बॉस से।''

अमन सुभद्रा से मेरी दोस्ती पसंद नहीं करते। कारण जो भी हो... सुभद्रा बोलने में मुंहफट और तेज-तर्रार है, शायद इसीलिए।

''शादी कर ली तो कौन-सा गुनाह किया?'' मैंने सुभद्रा का पक्ष रखा।

''चलो, गुनाह नहीं किया पर देखते हैं, कितने दिन निभते हैं उसके इस पति के साथ।''

अमन ने यह जिक्र कुछ उस उपेक्षा और व्यंग्यभरे लहजे में किया, जैसे सुभद्रा का मेरी सहेली होना निहायत ही घटिया बात हो और सुभद्रा एक चालू स्त्री है।

अखबार हाथ में आ गया था और वहीं डाइनिंग टेबल पर फैल गया। अमन के लिए गैस पर चढ़ी चाय उबल-उबलकर काढ़ा हो गई। शादी की बॉक्स न्यूज थी। कुमार कंस्ट्रक्शन के अधेड़ मालिक राजकुमार सिंह ने अपने से आधी उम्र की अपनी युवा स्टेनो सुभद्रा से विवाह कर लिया था।

अखबार तह कर रखा तो चाय का ख़याल आया। चाय केतली में बची ही नहीं थी। दुबारा चढ़ाई और खौलते पानी के साथ-साथ सुभद्रा के ब्याह का कारण क्या रहा होगा, यह प्रश्न भी उबलता रहा।

शाम के खाने के वक्त अमन सुभद्रा को लेकर ही सोच रहे हैं, ऐसा लगता रहा।

''सुभद्रा ने राजकुमार का पैसा देखा, चरित्र नहीं... वरना शादी कैसे करती?''

''जानती हूँ... पर शायद ठीक ही किया उसने।''

''पैसा जिन्दगी की सबसे बड़ी ताकत है यह बात सुभद्रा की समझ में आ गई है।'' मेरा सपाट-सा उत्तर था, जिसमें फिलॉसॉफी भरी थी।

''अब तक कितने बॉस बदल चुकी है, पांच-सात शायद और ज्यादा। अब इसी तर्ज पर पति न बदल डाले।''

''हाँ, शायद उसकी कुण्डली में चक्कर हैं और पैर में भंवर।'' मैंने अमन की बात पर अपना पासा रखा।

''हर बार नौकरी बदलती है तो तुमसे जरूर सलाह लेती है।'' अमन उगलवाना चाहते हैं सुभद्रा और मेरी दोस्ती को।

''हाँ, अपनी शर्तों पर वह नौकरी करना चाहती है, पर प्राइवेट फर्म में उसकी शर्तें कौन मानेगा? जरा-सी कुछ हुआ नहीं कि ताव में आकर चली गई नौकरी छोड़कर।''

मैंने सुभद्रा के नौकरी छोड़ने के कारण स्पष्ट करने चाहे।

''इतना सब तुम्हें बताती रही है तो शादी क्यों की, यह भी तो बताया होगा न?'' अमन के प्रश्न कुछ इस तरह लग रहे थे, जैसे सुभद्रा ने नहीं, मैंने ही हाँ की हो।

''हाँ, अक्सर अपनी परेशानी मुझसे शेयर करती है।''

''शादी का राज तुमसे शेयर नहीं किया?'' अमन के तरकश में प्रश्न पर प्रश्न थे।

''हाँ, किया था शादी का राज भी और मेरी सलाह भी ली थी। पर तुम सुभद्रा की शादी से इतने परेशान क्यों हो?'' मुझे अमन के व्यवहार पर ताज्जुब हो रहा था और गुस्सा भी आ रहा था। ''शादी उसने की, कटघरे में मुझे क्यों घसीट रहे हैं?''

''ओह, तो यह तुम्हारी सलाह से किया है उसने।''

''हाँ, मेरी सलाह से बस, हो गई शांति।'' मैं इस जवाब-सवाल कार्यक्रम में रुआंसी हो गई थी। मेरी भर्राती आवाज ने अमन के तीखेपन को कम किया।

''इतने दफ्तर बदले हैं इस लड़की ने, लोग इतनी जल्दी तो कपड़े भी नहीं बदलते होंगे। पर ये मैडम तो नौकरी ही बदल लेती थीं। अब अगर हनीमून से लौटकर तुमसे सलाह मांगे तो कहना पति नौकरी की तरह नहीं बदल डाले।''

''देखो अमन, किसी पर इतना कीचड़ उछालने से पहले उसकी स्थिति-परिस्थिति, लोगों की डिमांड, लड़की की मजबूरी के बारे में जान लेना चाहिए। इतनी बड़ी दुनिया में मां और बहनों की जिम्मेदारी अकेली के कंधों पर है। दिखने में बला की खूबसूरत। नौकरी लोगों के लिए ढूंढना ही मुसीबत है, पर सुभद्रा को देखते ही हर बार नई नौकरी क्या यूं ही मिल जाती है।''

''स्टेनो, टाइपिस्ट, रिसेप्शनिस्ट के जॉब तो चेहरों की योग्यता पर ही दिए जाते हैं।''

''जो भी हो... जैसा भी हो, पर नौकरी बदलना जरूरी है क्या? तुम्हारे कहने पर मैंने सुभद्रा को अपनी फर्म के मालिक से मिलवाया, अहसान लिया सुभद्रा की नौकरी लगवाकर, पर मैडम एक माह में इस्तीफा मैनेजर के मुंह पर मारकर चली गई। सारा स्टाफ मुझे कुसूरवार ठहराता रहा। मैनेजर ने उसकी गुस्ताखी मालिक को बताई। मालिक ने मुझे बुलाकर जानती हो ''क्या कहा?''

''क्या कहा था?''

''कहने लगा-मिस्टर अमन, रिक्मेण्ड करने से पहले जरा लोगों को देख तो लिया करो? दो टके की छोकरी हमारे कैरेक्टर पर हाथ डाल गई।''

''जानती हूँ तुम्हारे दफ्तर वाली घटना। सब बताया था उसने आकर। बहुत दुखी थी। कह रही थी-देखना ऋचा, लोग अमन को भी बुरा जरूर कहेंगे।''

''हाँ, तो कहा था... पर देखो, नौकरी करने निकली है तो नाक पर गुस्सा और जुबान पर कोड़े लेकर प्राइवेट नौकरी नहीं चलती।''

''हाँ, सो तो है, पर जिल्लत ओर जलालत भी हद से ज्यादा सहन करना संभव नहीं होता ना। वह बड़े अधिकारी की लड़की रही है। पिता होते तो यूं ही मारी-मारी नौकरी करती क्या? बीमार मां और दो बहनों का भार अचानक उसके ऊपर आ गया था। उसका भी एक चरित्र है, स्वभाव है, वजूद है, पर लोग नौकरी देकर सोचते हैं मजबूर छोकरी को खरीद लिया जैसे। अब वो जो तुम्हारी फर्म का मालिक और मैनेजर है ना, उसने पहले तो एक दिन रात को आठ बजे तक लेटर टाईप करवाए, फिर कमरे में बुलाकर कहता है कि मेरे साथ टूर पर दिल्ली चलना पड़ेगा। रिजर्वेशन करवा लिया है।''

''अच्छा, तुमने यह घटना बताई क्यों नहीं?'' अमन मेरी बात का अर्थ समझ रहे थे।

''क्या बताती, बता देती तो तुम जाकर भिड़ जाते मैनेजर से। फिर तुम्हारी नौकरी भी चली जाती।''

''उसने मालिक से पूछा कि अचानक दिल्ली क्यों जाना है? उसके लिए संभव नहीं है। मां से पूछे बगैर वह नहीं जा सकती। तो मालिक ने कहा था, नौकरी हमारी करती हो और पूछने मां से जाती हो?'' उसने अगले दिन अपने सहकर्मी को बताया था। सब मुस्कराने लगीं। वह अर्थ समझ गई और नौकरी छोड़कर घर बैठ गई। उसके बाद वाली नौकरी सरकारी दफ्तर में एवजी पर लगी थी, पर चार हजार पर साईन कर दो हजार हाथ आए। शोषण की भी हद है। लड़की है तो इसका क्या मतलब- किसी न किसी रूप में शोषण कर ही लो। तन से नहीं तो धन से। परेशान हो गई थी वह। जानते हो पहली नौकरी वर्मा एण्ड संस में स्टेनो की मिली थी। एक साल अच्छी चली। वर्मा तो ठीक था, पर संस वाली पीढ़ी गलत थी। बेचारी को प्यार-मोहब्बत के सपने दिखाए और शादी किसी दूसरी ही लड़की से की। यहां मन का भी शोषण। बाद में वर्मा का लड़का उससे कहता है, सुभद्रा, शादी तो पापा की पसंद की है, मजबूरी थी, पर हमारा प्यार चलता रहेगा। वह कोई बिकाऊ चीज है, जो चलता रहेगा। वहां अब उसका रहना कैसे संभव था। छोड़ दी उसने वह नौकरी।''

''सुभद्रा लड़की बुरी नहीं है, पर लोग उसके बारे में तरह-तरह की चर्चा करते हैं।''

''ये तो लोगों की आदत है, जानते हैं बेचारी बगैर बाप की है और परिवार के लिए संघर्ष कर रही है। पिछले माह एक सटरडे को आयी थी। सटरडे हमारा भी ऑफ था। तुम प्रताप नारायण जी की फेयरवेल पार्टी में गए थे?''

''आयी थी, वह तो तुमने बताया था।'' अमन ने बात आगे बढ़ाई।

''उस दिन सुभद्रा बेहद परेशान थी। आते ही सोफे पर धंस गई थी। मैंने पूछा, क्या हुआ तुझे?''

''कुछ नहीं, होते-होते बच गई।'' वह हाँफ रही थी। पानी का गिलास एक बार में ही गटक गई।

फिर खुद ही कहने लगी, ''साला...अकाउंटेट समझता क्या है अपने आप को? कहता है-मैडम, आपको इन्क्रिमेंट लगाया है। पूरे एक साल बाद, कुछ हमारी भी डिमांड है, पूरी नहीं करेंगी?''

''बड़ा कमीना है अकाउंटेंट?'' मुझे भी गुस्सा आ गया था।

फिर कहने लगी, ''ऋचा शायद गलती मेरी ही है। आज शनिवार है, दफ्तर में स्टाफ नहीं आता, केवल एक्स्ट्रा काम वाले ही आते हैं। मैं वेतन लेने आज नहीं आती तो वह इस तरह नहीं कह पाता। जानती है, क्या कह रहा था?''

''क्या?''

''पहले तो रुपये पकड़ाते वक्त हाथ का स्पर्श किया, फिर गंजा हँसते हुए कहता है, बड़ी कोमल हो, तुम्हें तो पूरी स्पर्श करने को मन होता है।''

''अच्छा, उसकी ये हिम्मत!''

''लगाती साले को दो चप्पल!''

''वही तो लगा आयी हूँ और सीधी तेरे पास आ रही हूँ। कुछ बनाया हो तो दे भूख लग रही है।''

फिर मेरे साथ खाना बनाते वक्त कहने लगी, ''याद रख ऋचा, पैसा दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है और सुन्दरता अभिशाप।''

मैंने सहज ही कहा था, ''सुभद्रा, इतनी सुन्दर है तू, इंटेलीजेंट भी। अच्छा-सा पैसे वाला कोई लड़का पसंद कर और शादी कर ले। कब तक परेशान होती रहेगी?''

कहने लगी, ''तेरी बात में दम है यार। अब इस दिशा में सोचती हूँ। चल, अगली बार शादी के बाद ही मिलूंगी।''

मुझे लगता है, इसी बात से प्रभावित होकर उसने यह फैसला किया होगा।

''हो सकता है शायद। चलो, छोड़ो, मैं सेंट्रल लाइब्रेरी तक होकर आता हूँ।'' कहते हुए अमन चले गए।

बात वहीं खत्म हो गई, पर सुभद्रा से मिलने का मन बना रहा। एक दिन सामने एक चमचमाती विलायती कार रुकी और रेशमी साड़ी और पार्लर से कटे बालों में वह राजकुमारी की तरह उतरी। आते ही गले लग गई।

''थैंक्यू, ऋचा?''

''शादी मुबारक हो, मिसेज सुभद्रा राजकुमार सिंह।''

''सब तेरी ही सलाह का परिणाम है, पर मैं खुश हूँ। बहुत खुश। ऐसी सलाह पहले क्यों नहीं दी?''

मैंने सहज पूछा, ''कैसे जम गया ये सब?''

''बस उस दिन वाली घटना के बाद।''

''अच्छा।''

''मैं अकाउंटेंट की शिकायत लेकर अपनी कम्पनी के मालिक के पास पहुँची, उन्होंने मेरी बात ध्यान से सुनी। फिर मुझे प्रस्ताव दिया कि मैं तुम्हें कम्पनी की मालकिन बना देता हूँ, यदि तुम चाहो तो सारी समस्याएं खत्म हो सकती हैं। एक पल को लगा चप्पल निकालूं और जड़ दूं इसको भी, पर तेरे शब्दों का चक्रव्यूह मेरे चारों तरफ था कि पैसे वाला लड़का देखकर शादी कर ले और मैंने हाँ कर दी। अब अकाउन्ट्स मेरी सहकर्मी सुलभा देखती है। उस गंजे अकाउंटेंट को नौकरी से निकाला तो पैरों में लोट रहा था गंजा, मैडम, मुझसे गलती हो गई। मेरे बीवी-बच्चे हैं। मेरा घर बरबाद हो जाएगा। दूसरी समस्या थी, वर्मा एंड संस। प्यार का नाटक करने वाले उस दोगले से बदला तो लेना ही था। कल ही वर्मा कंस्ट्रक्शन को टेकओवर कर दिया है। वहीं पर सुभद्रा कंस्ट्रक्शन का बोर्ड लगवाकर आ रही हूँ। पैसा सबसे ताकतवर है। सच, यह बात समझ में आ गई। घर भी संभल गया, माँ भी खुश है और अंजू-मंजू भी।''

''पर लड़के की उम्र?''

''समझौते में उम्र कोई बड़ी बाधा नहीं। मैं छब्बीस की हूं, मिस्टर सिंह अड़तीस के। मां कहती है, उनकी जब शादी हुई थी, वे केवल सोलह की थीं, पिताजी अट्ठाईस साल के थे। बस वैसा ही तो फर्क हुआ ना। मैं पढ़ी-लिखी हूं, मां कम पढ़ी थी। मुझे जिन्दगी का गणित ज्यादा समझना चाहिए ना....।''

बूंद गुलाबजल की

इस बार हरिद्वार जाना है, यह सोच लिया था। बाबूजी का अस्थिकलश भी वहीं गंगाजी में प्रवाहित करना है। इसी बहाने तीर्थ भी हो जाएगा और तीन साल से रमिया बुआ से नहीं मिली थी, सो उनसे मिलना भी हो जाएगा। ये पहले तो देवरजी को भेजना चाहते थे, पर मेरे समझाने से चलने को तैयार हो गए थे। ससुरजी का गंगा-मैया के प्रति विशेष लगाव था, उनकी आस्था हरिद्वार के प्रति कुछ ज्यादा ही थी। अब उनकी अस्थियों को वहीं विश्राम देना था।

'हर की पौड़ी' पर पहुंचकर मन श्रद्धा, आस्था, ईश्वर, धर्म जाने क्या-क्या सोचने लगा था। स्वाभाविक भी है 'हर की पौड़ी' पर सन्ध्या कुछ अलग ही रंग में उतरती है जो वातावरण में आस्तिकता भर देती है। बड़े-से-बड़ा अधर्मी भी यदि इस सांझ की बेला में स्नान करके गंगा मैया को ध्यान से देखे तो बदल जाएगा। वास्तिक एक ही डुबकी के बाद आस्तिक होते तो मैंने भी देखे हैं। स्नान-पूजा के बाद हम आरती के लिए फूलों के दोने खरीदकर दीया-बत्ती के समय का इंतजार करने लगे। समय कुछ ज्यादा था, सो पूड़ी-साग का टोकरा खरीद भिखारियों को अन्नदान के उद्देश्य से मैं पांच-पांच पूरी पर सूखा आलू का साग रख बांटने लगी थी। बीस-पच्चीस लोगों को देते-देते सांझ अपने पूरे रंग के साथ उतर आई। अचानक सहस्र दीप जल उठे जो गंगाजल में प्रतिबिम्बित हो द्विगुणित होने लगे। पुजारियों का समवेत स्वर 'जय गंगा मैया' गूंज उठा; जिसका मतलब था आरती शुरू होने वाली है। टोकरे में अभी भी दस-बाहर पूरियां शेष थीं। हमने सोचा, किसी एक को ही देकर आरती में शामिल हो जाएं। ज्यों ही मैं पूरियां बटोर भिखारिन को देने के लिए झुकी, उसकी नजरें मेरी नजरों से टकरायीं तो लगा, यह जाना-पहचाना चेहरा है। शायद वह मुझे पहचान गई थी। उसने शॉल जैसे ओढ़े हुए कपड़े से मुंह ढांक लिया था। मैं सोचती इससे पहले ही ये मुझे खींचते हुए चलने को कहने लगे, ''आरती में जगह नहीं मिलेगी, चलो भी।'' इनके स्वर में बंधी मैं चली आई आरती में, पर ध्यान और चित्त उन दो आंखों को पहचानने के लिए जैसे वहीं छूट गया।

उसका गौरवर्णी खूबसूरत चेहरा, तीखे नयन नक्श कुछ पहचाने-पहचाने-से लग रहे थे। मैं दोबारा उस चेहरे को देखना और कुछ बात करना चाहती थी। ये इतनी जल्दी करते हैं, आरती खत्म होते ही घाट पर आकर गंगाजल में चमकते दीपों और बिजली के लट्टुओं से फैलते अलौकिक सौन्दर्य पर नजरें गड़ाकर बैठ गए थे। घाट पर चहल-पहल अभी भी काफी थी। मुरमुरे, चने, केले, चाटवाले अपनी-अपनी बिक्री में लगे थे। स्नान-ध्यानवाले कम हो गए थे, पर पूरे वातावरण में अगरू-चन्दन की दिव्य सुगन्ध व्याप्त थी। कुछ छोटे-छोटे मंदिरों से आते घण्टियों के स्वर मधुर लग रहे थे। मैंने इनके पास घाट की पैड़ियों पर बैठते हुए कहा, ''सुनो, अभी हमने जिन्हें पूरियां बांटीं, उनमें एक भिखारिन मुझे जानी-पहचानी लगी।''

''तुम्हें तो चेहरे मिलाने की आदत है, किसी को भी देखते ही कह दोगी आपका चेहरा अमुक व्यक्ति, हीरोइन से मिलता है।'' इन्होंने व्यंग्यात्मक हंसी के साथ कहा। इनके कहने के अंदाज से दुबारा जाकर बात करने की हिम्मत नहीं हुई।

रमिया बुआ के घर पहुंचे तो वे बड़ी खुश हुईं, 'बरसों बाद भतीजा-बहू आए हैं,' इस बात को वे कई बार दोहरा चुकी थीं। हम लोग देर रात तक बातें करते रहे। रात सोते वक्त भी जैसे वे दो आंखें, वह खानदानी चेहरा, वे तीखे नयन नक्श मेरे सामने आ गए और मैं करवट बदल-बदल सोचती रही। कुछ याद नहीं आ रहा था। कौन है वह? सोचते-सोचते नींद आ गई।

सुबह रमिया बुआजी की बहू साधना ने चाय बनाकर मुझे उठाया तो सिर दर्द से भारी हो रहा था। साधना मेरा चेहरा देख समझ गई और डिस्प्रीन की टेबलेट ले आई थी। मेरा मन आज भी जाकर उस महिला से मिलने को हो रहा था। पता नहीं क्यूं, मुझे लग रहा था कि वह कोई बहुत परिचित चेहरा है और उसका इस तरह हरिद्वार के मंदिर-प्रांगण में होना कुछ रहस्यमय है। मैं बाजार के बहाने से साधना को लेकर फिर गंगा-घाट की पावन हर की पैड़ी पर पहुंच गई थी। मंदिर-प्रांगण की सफाई करते हुए वह स्त्री थोड़ी देर में ही मिल गई थी। मुझे देखते ही वह जाने लगी, ''सुनो'', मैंने आवाज लगाई। ''जी'', वह रुक गई। ''तुम कहां की रहनेवाली हो?'' मैंने जिज्ञासा से पूछा।

''जी? मालूम नहीं, बचपन से हरिद्वार गंगाघाट की सफाई करती हूं, यहीं की हो गई समझो!''

''तुम्हारा चेहरा बहुत पहचाना-सा लगा, इसलिए पूछ रही हूं।''

वह चुपचाप काम करती रही। अचानक जैसे मेरे बन्द चक्षु खुल गए, ''अरे, तुम कहीं हमारे घर के सामनेवाले रघु काका की विधवा बहू विमला भाभी तो नहीं?''

''तुम रंजना जीजी...तुम...तुम्हें तो मैं कल ही पहचान गई थी।'' उसके चेहरे पर क्षणिक प्रसन्नता आई भी और चली गई। आंखें पथरायी-सी हो गईं...जाने कितने खुशी के पल आए और तैरकर चले गए। फिर कुछ जानने की लालसा उठकर फिर बैठ गई। रह गया केवल पथरायी आँखों का सच, जो उसके गम का, उसकी पीड़ा का, उसके बरसों से दबे घावों पर जमे हुए लावे का बयान कर रहा था।

''चलो, मन्दिर के पीछे मेरी कुटिया है, अगर तुम बैठना चाहो तो....''वह बोल रही थी, मैं उसके पीछे-पीछे चलने लगी।

साधना के लिए यह थोड़ा अटपटा और अनावश्यक काम था। कहाँ हम दीवान परिवार की बहुएँ, कहाँ वह भिखारन, मन्दिर की सफाईकर्मी। वह मुझे अचरज से देखते हुए चुपचाप खड़ी थी।

''साधना आओ, चलते हैं कुछ देर में।''

''भाभी, आप मिलकर आओ, मैं यहीं मन्दिर के दर्शन कर आती हँ।''

''अच्छा।'' मैं विमला भाभी के घर की तरफ बढ़ने लगी।

''यहाँ कब से हो विमला भाभी?''

''अब तो याद भी नहीं जीजी, हाँ 17 साल तो हो ही गए होंगे।'' वे बोलीं।

कुटिया आ गई थी। उन्होंने दरवाजा खोला और चटाई बिछा दी। बैठते हुए मैं चुप ही थी पर उनके चेहरे से लगा, जैसे कुछ जानना चाहती हैं।

''बच्चे नहीं आए क्या?'' सहज-सा प्रश्न था, पर लगा जैसे वे अपने बच्चों का पूछ रही हों।

''नहीं। ससुरजी का स्वर्गवास हो गया है, हम अस्थिकलश लेकर आए थे।''

''अच्छा। वहाँ हमारे परिवार में.....सब ठीक है?

हाँ। आप यहाँ कैसे? वहाँ तो चर्चा थी कि आपके मायकेवाले आपको ले गए हैं।''

''नहीं जीजी, मायके में था ही कौन। अकेली माँ थीं जो नहीं रहीं।''

''अच्छा। कौन कौन है वहाँ घर पर? कभी आप जाती हैं? वे क्या जानना चाहती हैं, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था।

''काका तो अब रहे नहीं। बड़े भैया, छोटे भैया, माँजी, बच्चे सभी हैं। बड़े भैया ने ब्याह कर लिया है, उनके भी दो बच्चे हैं। छोटे के भी तीन हैं। अब तो बड़े-बड़े हो गए हैं। एक लड़का रघु काका ने गोद लिया था। अनाथ है बेचारा वह भी। वहीं रहता है, बड़ा होशियार है। इस दसवीं में वह अव्वल आया है। अखबार में उसकी फोटो भी छपी थी।''

''मैं बोले जा रही थी।

''अच्छा। कैसा दिखता है?'' वे जिज्ञासु हो गई थीं।

''देखने में कद्दावर है, रंग गोरा चिट्टा है। आपकी तरह ऊँचा कद और गम्भीर प्र.ति का है। रघु काका बड़ा लाड़-प्यार करते थे.....'' मैं बता रही थी।

''करेंगे क्यों नहीं, है तो उनका ही खून...'' वे ताव में बोल गई थीं।

''क्या?

''नहीं, मेरा मतलब है लाए हैं, तो पालेंगे ही।'' पर मेरी पैनी नजर पहचान गई थी। वे कुछ जानती हैं, इसलिए मैंने बात आगे बढ़ाते हुए पूछ लिया, ''आपने देखा है उसे?''

''हाँ, देखा क्यों....'' वे रूक गई, ''नहीं-नहीं, मैंने कहाँ देखा, पर देखने की इच्छा है।'' वे कहीं खो गईं थीं।

पता नहीं क्यों, अब मुझे लगने लगा था कि उस बच्चे और विमला भाभी में कुछ रिश्ता है जो रहस्य है। मैंने उनके चेहरे को ध्यान से देखा। उनकी आंखें नम थीं। उन नम आंखों में क्या था? कौन-सा दर्द...जो मुझे भी दुखी कर रहा था। एक अनकही पीड़ा की जमी हुई बर्फ तरल होने लगी थी, शायद मेरे अपनत्व की आंच में पिछलने लगी थी और प्रवाहित हो बाहर आना चाहती थी। मैंने अपनी भी नम आंखों को पोंछा तो विमला भाभी को लगा, मैं उनकी पीड़ा समझ रही हूं। वे रुलाई के बांध को रोक नहीं पाईं और उस रोने के साथ उनके अंतर्मन का रहस्य भी बहकर मन से बाहर आ गया। मैंने उनके कन्धे को थपथपाया, ''भाभी चलो, तुम अपने घर लौट चलो, क्यूं यूं भिक्षा पर जी रही हो?''

''नहीं जीजी, भिक्षा पर नहीं, मेहनत करती हूं।''

''पर उस दिन घाट पर...?''

''हां, जो तुमने देखा वह सच है, पर वह मेरे लिए नहीं है। मैं तो अपना खुद कमाकर-बनाकर खाती हूं। वह जो मिलता है वह दो छोटे-छोटे बच्चों को पालने के लिए मांगती हूं। यहां एक औरत सफाई का काम करती थी। टीबी से सालभर पहले मर गई। उसके बच्चे हैं, खोली पास में ही है। रोज खाना लाकर बच्चों को खिला देती हूं।''

''अच्छा, यह तो अच्छा काम है, मैं समझी तुम...''

''घर की याद नहीं आती क्या?'' मेरे प्रश्न पर वे कुछ देर मौन रहीं फिर बोलीं, ''आती है, बहुत आती है, पर भाग्य के आगे....''

''तुमने घर क्यूं छोड़ा?''

''मैंने नहीं छोड़ा। बाबूजी ही लाकर छोड़ गए। बोले, पलटकर कभी लौटी तो तेरे इसको जान....''

''किसको?''

''कुछ नहीं जीजी, छोड़ो?''

''तुम्हारे विधवा होने के दो साल बाद ऐसा क्या हुआ?''

चौंकते हुए विमला भाभी ने सिर झुका लिया, ''दीदी...ना ही पूछो तो अच्छा है।''

''नहीं भाभी, बताओ तो पता तो चले, पैसेवालों के घर में क्या नहीं होता?''

''जीजी, वो अनाथ बच्चा जिसकी तुम बात कर रही थीं, वह अनाथ नहीं है। उसके माँ-बाप दोनों हैं।''

''क्या..?''

''हाँ,उसकी माँ मैं ही हूं!

''तो पिता कौन है? तुम विधवा हुई थीं तब तो तुम्हारी गोद सूनी थी?

''हाँ 25 वर्ष की आयु में जब मैं विधवा हुई तो घर में सास-ससुर थे, विधुर जेठ थे, देवर-देवरानी थे, भरा-पूरा घर था। मायके में तो केवल माँ थीं। ससुर ने घर के कामकाज को देखते हुए माँ से आग्रहपूर्वक मुझे ससुराल में ही रहने देने की बात की। माँ ने सोचा, जवान-जहान विधवा बेटी उनके घर के बजाय यहीं सुरक्षित रहेगी, हाँ कर दी। ससुर और जेठ ने कहा था कि मुझे पूरे सम्मान और मर्यादा से रखा जाएगा। पति की सम्पत्ति का हिस्सा भी मेरे नाम होगा। शुरू के दो साल वादा पूरा भी हुआ। बाद में एक दिन विधुर जेठजी का मन डोलने लगा। पहले धमकाकर, फिर हक जताकर वे मेरे तन पर अधिकार जमा बैठे। कुछ वक्त तक भेद बना रहा, पर गर्भ में उस अभागे के आते ही सास-ससुर ने मुझे ही दोषी ठहराया। वक्त ज्यादा हो गया था; गर्भपात से बात खुल सकती थी। तीर्थ के बहाने सास-ससुर यहाँ ले आए और जाते वक्त मेरा बेटा तो ले गए पर मुझ अभागन को यहीं छोड़ गए। तब से मैं यहीं हूँ।''

मैं आश्चर्यचकित थी। इस औरत की जिन्दगी में ग्रहण लगाने वाला वह पुरूष ठाठ से उसी घर में अपने परिवार के साथ रह रहा है, पारम्परिक व्यवसाय कर रहा है। उसने दूसरा ब्याह कर लिया, दो बेटों का बाप बन गया। उसे अपने कर्म की कोई ग्लानि तक नहीं है और यह औरत, जिसके शरीर पर बलात् अतिक्रमण हुआ, जिसने न केवल उसके जिस्म को घायल किया था, बल्कि उसकी रूह तक को भी घायल किया, जो जलील भी हुई और बर्बाद भी। सिसकी तक नहीं ले पाई। कैसा न्याय है यह? ससुर बेटा ले गए, क्योंकि उनका अपना खून था, पर इस पराई कोख की जायी को दर-दर की ठोकरें खाने यहीं पटक गए।

मैं आवेश में आ गई, ''तुम चुप क्यों रहीं, विरोध तो करतीं?''

''कैसा विरोध जीजी? चाँद-सूरज पर ग्रहण लगता है तो कुछ देर बाद वे मुक्त हो जाते हैं, पर स्त्री जीवन पर लगे ग्रहण से वह कब मुक्त हुई है। इन्द्र की कथा नहीं जानती क्या? इन्द्र की स्वेच्छाचारिता की सजा अहिल्या को दी गई थी तभी से तो समाज दोषी को नहीं, निर्दोष को दण्ड देता आ रहा है।''

''अब तो बेटा बड़ा हो गया है, तुम उसे बताना नहीं चाहोगी?'' मेरे प्रश्न पर वह सतर्क हो गई।

''नहीं.........और आपको मेरी कसम है जो किसी को बताया तो। बेटा घर में एक तरह से बाप के पास है, वहीं सुखी है, पढ़-लिख रहा है। मेरे पास रहता तो क्या मिलता? मन्दिर की सीढ़ियों की सफाई, जूठी पत्तलों को उठाने के अलावा और इस घटना में मुझ पर ही ऊँगलियाँ उठतीं, सवाल पूछे जाते। मेरे चरित्र को कठघरे में खड़ा किया जाता और एक दिन जवान होकर बेटा भी यही सवाल दोहराता।''

साधना दरवाजे पर खड़ी थी, मैं उठ गई, ''कल आऊँगी,'' कहकर। अगले दिन मैं गई, एक साड़ी, कुछ रुपए और अपना पता उन्हें दे आई थी। विमला भाभी का पता ले भी आई थी।

हरिद्वार से घर लौटने के बाद सामान निकालते वक्त पता हाथ में आ गया। मैंने उन्हें पत्र लिखा और अपने बेटे के जन्मदिन की ग्रुप फोटो में निशान लगाकर विमला भाभी को उनके बच्चे की फोटो भी भेज दी, 17 सालों से तरसती पथरायी आँखों को शायद एक बूँद गुलाबजल की कुछ तो राहत दे जाए, यही सोचकर।

अस्तित्व के लिए

कॉलेज से घर लौटना कितना सुकून देता है। लगता है, पंख लगाकर उड़ते हुए पल-क्षण में ही घर पहुँच जाऊँ। आराम से पैर पसारकर कुछ देर सुस्ता लूँ। कोई एक कप चाय का पकड़ा दे और प्यार से पूछे, ''गरम पकोड़े खाओगी, भूख लग रही होगी न?'' पर यह केवल मेरा खयाली पुलाव ही है और रहेगा भी। घर की हालत, महानगर की महामारी और घर को आर्थिक सहारा देने के लिए लाई गई बहू से भला कौन पूछेगा कि बहुत थक गई है, थोड़ा आराम कर ले। अपने इसी खयाली पुलाव को रोज पकाने की चाहत के स्वप्नलोक से बाहर आती हूँ और अकेले ही खिड़की की तरफ मुँह करके मुस्करा देती हूँ। धड़धड़ाती हुई लोकल ट्रेन ने दूसरी को क्रॉस किया और एक छोटे प्लेटफॉर्म पर रूक गई। सामने की दीवार पर कई दिनों से एक विज्ञापन लगा है। इसी विज्ञापन के पैंफ्लेट्स महानगर की दीवारों, ट्रेन, बस सब पर चस्पा हैं। एक विचित्र वहशीपन-सा झलकता है उनमें। मैं रोज देखती हूँ और सोचती हूँ, क्या लोग वहाँ जाते होंगे? ट्रेन चल पड़ती है और विचार वहीं छूट जाता है।

ट्रेन से उतर लोकल बस और फिर एक किलोमीटर पैदल चलती हूँ, तब पहुँचती हूँ घर।

घर? महानगर की एक चालनुमा बिल्डिंग के तीसरे माले पर दो कमरे एक किचन और माले के आखिरी छोर पर बने लेटबाथ। हाँ बस यही है घर। बस से उतर अपने इसी घर तक का रास्ता तय करने के क्रम में मेरी आत्मा जिस यातना के भार से दबी जा रही है! वह यातना उन टूटे हुए ख्वाबों की है जो यथार्थ के धरातल पर सिर पटक-पटककर टूट गए। उस कल्पना-संसार के बेरंग होने की है, जिसमें रंग भरे ही नहीं जा सके। घर जहाँ फैला होगा, सारे दिन के कोहराम का पसारा, पर फिर भी उस घर में भी लौटना अच्छा लगता है, क्योंकि नन्ही-सी प्रिया और परागी बेताब होती हैं उसके गले में बाँहें डालने के लिए। परागी देखते ही लिपट जाती है और सूखी पड़ रही अंतड़ियों में भी स्तन चूसती सो जाती है। भूख से बेहाल होते हुए भी उसके नन्हे होठों का स्पर्श पाते ही जाने कहाँ से उसको सुलाने लायक दूध उतर आता है स्तनों में।

''मम्मी, मम्मी! अम्मा ने हमें मारा।'' प्रिया आँखों से हाथ मलती हुई कहती है।

''तुमने शैतानी की थी क्या?'' दुलारती हूँ बच्ची को।

घर में फैला पसारा समेटती जाती हूँ। दूसरी तरफ गैस पर चाय का पानी चढ़ा देती हूँ, पर पतीली खाली पड़ी है। दूध नहीं है उसमें। काली चाय में नींबू निचोड़ वही गटक लेती हूँ। दो कमरों का घर है अम्मा, बाबूजी, विनोद, गुड्डी के साथ-साथ हमारा परिवार मैं, मदन, प्रिया और परागी। अम्मा माला लेकर बैठ जाती हैं, मैं भी सांझ का दीया-बाती करती हूँ। अम्मा हाथ जोड़ प्रार्थना के स्वर में रोज गिड़गिड़ाती है भगवान की तस्वीर के आगे, ''ठाकुरजी एक पोता भी दिखा दो। एक पोते की आस में दो छोरियाँ सँभालनी पड़ रही हैं।''

कॉलेज में महिला-दिवस पर एक संगोष्ठी का आयोजन है। सुबह जल्दी जाना है। रात में ही सुबह के कामों की तैयारी करके रख लेती हूँ। सुबह पाँच बजे उठकर सब्जी-रोटी बनाकर रख दी और अम्मा को जगाया।

''अम्मा, आज जल्दी जाना है।'' सहमे-से स्वर में समझाया।

''अच्छा, अब ये सब भी करना पड़ेगा का?''

''नहीं अम्मा, खाना बना दिया है।''

''अच्छा, जा।''

फिर वही एक किलोमीटर पैदल, फिर लोकल बस तक पहुँचना। कदम जैसे घड़ी के कांटों की तरह चलने लगते हैं। बस, ट्रेन, भागती-दौड़ती और वही विज्ञापन!

लौटते वक्त सरला भी साथ थी। आज उसे इधर ही कहीं जाना था। सरला मेरे साथ कॉलेज में ही प्रोफेसर है और मैं लाइब्रेरियन। सरला का पुस्तक प्रेम हमारी दोस्ती का कारण है। वह अक्सर किताबें लेने आती है और वहीं बैठ जाती है। सरला के हाथ में एक पत्रिका है। मैं उससे वह पत्रिका लेती हूँ। पन्ने पलटते ही एक खबर बॉक्स में छपी दिखती है। यह खबर जगह-जगह लगे उस विज्ञापन की तरफ ध्यान फिर खींच लेती है। पत्रिका में बड़े अक्षरों में एक लेख छपा है, ''गर्भजल परीक्षण।'' क्या हम फिर मध्ययुग में लौट रहे हैं? एमीनोसिंथेसिस द्वारा चिकित्सक गर्भ-परीक्षण करके यह बता रहे हैं कि गर्भ में पलने वाला शिशु लड़का है या लड़की।

सरला को पढ़कर सुनाती हूँ-''एक अध्ययन के अनुसार गर्भजल परीक्षणों के बाद हुए 10000 गर्भपातों में 8,999 गर्भपात कन्याओं के हुए और सिर्फ एक गर्भपात लड़के का कराया गया।'' मैं सरला को देखती हूँ। वह मेरी आँखों में उस भय को पढ़ती है और कहती है, ''हाँ तो गलत क्या है हमारी तरह जिंदगी घसीटती लड़कियाँ न ही जन्मे तो अच्छा है।''

''तुम लड़की होकर इस तरह की बात कर रही हो।'' आश्चर्य होता है मुझे।

''लड़की हूँ, तभी तो कह रही हूँ।'' सरला हँसते हुए कहती है, पर शायद उसके अंदर भी कोई रोई थी इस बात पर।

''बेटे की चाह में जाने-अनजाने ही एक हत्यारे समाज को जन्म दे रहे थे लोग।'' मैं कड़वा घूंट निगल लेती हूँ।

''इसको रोकने के लिए कानून भी बन गए तो क्या हुआ? जानती नहीं क्या? कानून बनने पर यह बात रूक जाएगी क्या? समाज में लड़की यूँ ही बोझ समझी जाती है। दहेज हो या बलात्कार, सब लड़की को झेलना होता है। ऐसी स्थिति में लड़की न ही हो तो अच्छा है।'' सरला प्रोफेसर है अपनी फिलॉसॉफी झाड़ने लगी।

''पढ़ी-लिखी प्रोफेसर से यह सुनना कितनी अजीब बात है, सरला।'' मैंने उसे व्यंग्यात्मक लहजे में कहा।

वह मेरा आशय समझ गई-''तेरी भी दो बेटियाँ हो चुकी हैं, वंदना। तब भी तू इसका महत्व नहीं समझी। पगली है तू। आजकल सभी लोग इस परीक्षण के लिए उतावले हैं। गरीब लोग सामान गिरवी रखकर डॉक्टर की फीस दे रहे हैं। उन्हें यह समझाया जाता है कि अभी थोड़ा खर्च करना है, बाद में तो ढेर सारा दहेज भी देना है और आजकल तो पढ़ाना-लिखाना भी है! लड़की यानी डबल खर्चा। अरे, अगर मोहल्ले में, चाल में एक औरत यह परीक्षण करवा आई होती है और फिर लड़का होता है तो वह दूसरी को, दूसरी तीसरी को यह बात बताती है, सास दूसरी सास को उकसा देती है और हो गया इस विज्ञापन का प्रचार। बची कसर ये पोस्टर पूरी कर देते हैं।''

''ये डॉक्टर भी न।'' मैं बात टालना चाहती हूँ।

''डॉक्टर क्या करें इसमें। यह तो खोज है विज्ञापन की। हमारे देश के लोग, हमारा समाज ही तो पागल है। पहले साधु-महात्मा और तांत्रिक गंडे-ताबीज बांटते थे, अब डॉक्टर पानी जांचते हैं।'' सरला वहीं उतर गई और मैं अपने खयाली पुलावों में खो गई थी। प्रिया को इस साल नर्सरी से स्कूल में डालना है और परागी को बेबी सिटर में, अम्मा की जली-कटी रोज सुनने और लड़कियों को कोसने से बचाने के लिए अब यही एक रास्ता है। कल से सामने वाले बबलू की ट्यूशन ले लूंगी, परागी के क्रैच का खर्च तो निकल ही आएगा। पत्रिका हाथ में ही रह गई। सरला जल्दी में भूल गई, पर्स में डालती हूँ पत्रिका। चलो इस बहाने रात में पढ़ने को कुछ मिल गया।

घर के दरवाजे पर अम्मा पसरकर बैठी हैं-प्रिया और परागी टकटकी लगाए अम्मा के हाथ देख रही हैं।

''अम्मा ने प्रिया के लिए छोटी-सी गुड़िया बना दी है। लकड़ी के बिता-भर टुकड़े पर चिंदियाँ लपेट-लपेटकर बांधते हुए, फुलझड़ी के तार पर कपड़े की चिंदी से बनी छोटी-छोटी-सी बांहें। मोजे के अंगूठे में रूई भरकर काट लिया और स्किन कलर का गोल चेहरा गढ़ लिया था अम्मा ने। पुरानी साड़ी की किनारी लपेटकर हाथ-पैर-धड़ सब बना दिए और काले धागे की आँख, नाक, लाल धागे के होंठ। शादी के पुराने जूड़े के बाल लग गए और लाल-पीले कपड़े से कपड़े बन गए।''

प्रिया-परागी की आंखें देखती रह गईं उस तीसरी गुड़िया को।

''वाह अम्मा, आपने तो गजब की सुंदर गुड़िया बना दी।'' मैं देखती रह गई उस खिलौने को। प्रिया और परागी भी चूमने लगीं। दोनों को चाहिए थी वह तीसरी लड़की। उनके जैसी। बस वे सजीव हैं और वह पुतली। मैंने अम्मा के हाथ में चाय का प्याला पकड़ाते हुए कहा, ''अम्मा, आपने प्रिया-परागी के लिए कितनी मेहनत की आज। ये बेटियां होती ही ऐसी प्यारी हैं, पर अब कल एक और बनानी पड़ेगी देखो दोनों को वही चाहिए।'' मैंने गुड़िया से खेलती प्रिया-परागी की तरफदारी का ध्यान चाहा। पर वे जाने किस मूड में थीं।

''ई खिलौना नहीं है बहू, ई तो टोटका है टोटका। अरे, तीसरी लड़की ना हो, इसलिए मैंने पुतलन बना ली, अब बेटा होना चाहिए-प्रिया-परागी की राखी के वास्ते।'' अम्मा ने सच उगल दिया था।

अम्मा की साफगोई अच्छी लगी। मैं हँसते हुए परागी को उठा सुलाने ले गई। परागी सो गई, उसका गोरा-गोरा गोल-मटोल चेहरा और पतली-सी सुतवा नाक देखती रह गई मैं। यह गुड़िया मैंने गढ़ी थी। इतनी सुंदर प्यारी-सी ही है प्रिया भी। पर अम्मा ने टोटके के लिए बनाई गुड़िया? झूठ ही कह देतीं कि बच्चों के खेलने के लिए ही बनाई है तो मन में कसक तो नहीं होती। बात मैंने मदन को बताई थी। मदन ने हँसते हुए अम्मा की बात पर मोहर लगा दी। ''हां तो गलत क्या कहा मां ने।'' मदन ने मुझे पास समेटते हुए कहा।

''अभी परागी छोटी है और आजकल दो बच्चे पर्याप्त हैं। अब हमें नहीं चाहिए बच्चा-वच्चा।'' मैंने मदन के अपने पर झुकते हुए चेहरे पर हाथ रख दिया।

''वाह! कैसे नहीं चाहिए! इस बात पर तो आज ही अम्मा की इच्छा पूरी कर देते हैं।'' मदन पूरे मूड में थे। मेरी ना-नुकर नहीं चलती थी, नहीं चली। गोली मुझे सूट नहीं करती और दूसरे साधन भी मुझे ही तकलीफ देते हैं। मदन के मूड पर निर्भर करता है बचाव, वरना तो।

पत्रिका पर्स में ही पड़ी रही। सुबह जब कॉलेज के लिए लोकल ट्रेन में पर्स खोला तो पत्रिका हाथ में आ गई। पूरा अंक ही गर्भजल-परीक्षण पर विशेषांक था।

पहला ही आलेख था, ''एमीनोसिंथेसिस है क्या?'' सच तो यह है कि यह प्रक्रिया क्या है, मैं खुद भी नहीं जानती हूँ। सोचा, चलो पढ़ लिया जाए। डॉक्टर के लिखे उस आलेख में लिखा है- एमीनोसिंथेसिस एक ऐसी रासायनिक प्रक्रिया है जिससे गर्भधारण के 16 सप्ताह बाद यह पता लगाया जा सकता है कि गर्भ में पलने वाली संतान लड़का है या लड़की।यह पता गर्भजल में विकसित क्रोमोजोम द्वारा ही लग सकता है। गर्भधारण के सोलह सप्ताह बाद गर्भजल (एमिनियोटिक द्रव) में भ्रूण के क्रोमोजोम विकसित होने लगते हैं। इस समय गर्भ से सीरिंज द्वारा यह एमिनियोटिक द्रव निकाला जाता है। इस द्रव की मात्रा 10 घन सेंटीमीटर होती है। इस द्रव की चिकित्सकीय प्रयोगशाला में क्रोमोजोम की जांच कर यह निश्चित किया जाता है कि शिशु पुत्र है या पुत्री। 23 जोड़े क्रोमोजोम में से केवल एक जोड़ा इनके अंतर को स्थापित करता है। एक्स और वाई क्रोमोजोम का मेल लड़के के जन्म का कारण बनता है।

ट्रेन धड़धड़ाकर अंधेरी सुरंग पार करने लगी तो मैंने पत्रिका फिर पर्स में डाल दी और मन उस अंधेरी सुरंग तक पहुँचे विज्ञापन की रोशनी के पहुँचने पर सोचने लगा। बच्चा होने की सारी जिज्ञासा...नौ माह का इंतजार ही खत्म कर दिया इसने तो?

कॉलेज से लौटते और कॉलेज जाते जिंदगी एक ही रास्ते पर चल रही है। आज शाम को थोड़ा जल्दी आकर परागी के झूलाघर होती हुई आऊँगी। यही सोचकर घर से निकली तो रास्ते में फिर सरला मिल गई, बस स्टॉप पार करते हुए। चलो अच्छा हुआ, एक घंटा ट्रेन में गप्पे लगाते हुए रास्ता अच्छा कटेगा-यही सोच रही थी। ट्रेन सामने थी, पर पैर रूकने लगे उबकाई-सी आई है और चक्कर आने लगे। सरला ने बॉटल से पानी निकाला, ''क्या कर रही है, वंदना! ट्रेन छूट जाएगी।''

''तू जा सरला... म़ैं नहीं चढ़ पाऊंगी।'' मैंने ऊबकाई रोकी।

''कुछ हुआ? कुछ बासी खाना-वाना खा लिया क्या?'' सरला पर्स में इलायची ढूंढने लगी।

''नहीं तो।'' बोलते-बोलते प्लेटफार्म पर ही उल्टी हो गई।

''वंदना, कहीं तू?़'' सरला ने आश्चर्य से पूछा था।

''.ऽ.ऽऽ.शायद..ऽऽऽ''

ट्रेन पटरी पर सरकती रही और मैं सरला के साथ प्लेटफार्म की बेंच पर बैठी सामने की दीवार पर लगे विज्ञापन को देखती रही। अब क्या होगा?

ऑटो पकड़ा और घर लौट आई। सरला अगली ट्रेन से मेरी अप्लीकेशन ले कॉलेज चली गई थी। घर लौटकर आंखें बंद कर लेट गई। बहुत बेचैन था मन, पढ़ी-लिखी हूँ? कौन कहेगा मुझे पढ़ी-लिखी! अभी तो मेटरनिटी लीव ली थी सवा साल भी नहीं हुआ अभी। कॉलेज में सब मजाक बनाएंगे सो अलग। फिर तीसरे बच्चे पर लीव भी आ़ौर सबसे बड़ी चिंता- अगर इस बार भी...ऽ़ऽ...?़

एमीनोसिंथेसिस...स़ोनोग्राफी...क़्या करूँ?

सोनोग्राफी इतनी जल्दी नहीं बता सकती। तो क्या विज्ञापन वाली जगह...ऽ़ऽ...अम्मा की खुरदुरी हथेली ने माथे का स्पर्श किया।

''काहे बहू, मन ठीक नहीं है का ?'' जबरन आंखें खोलनी पड़ीं, ''हाँ, जी घबरा रहा है।''

''ले नींबू-पानी पी ले, पित्त बढ़ गया होवेगा, खाली पेट रहती है सारा दिन।'' अम्मा के मातृत्व के आगे मैं न नहीं कर पाई, चुपचाप ग्लास खाली कर दिया था। थोड़ी ही देर में ऐसी उबकाई आई कि सब पानी बाहर आ गया।

अम्मा पहचान गई तबीयत का रूख। ''बहू, तेरे कहीं दिन तो नहीं चढ़े?''

''मालूम नहीं अम्मा... द़ेखती हूँ नहीं तो डॉक्टर के पास जाती हूं।''

पूरे घर में यह खबर फैल गई कि बहू का पैर फिर भारी है। मदन ने आते ही मुझे चेतावनी-सी देते हुए कहा-

''इस बार बगैर जाँच के नहीं चलेगा। अम्मा कह रही थी तुम्हें उल्टियाँ हो रही हैं।''

''हां!''

''तब फिर?''

''तब फिर? परेशान कर रखा है सबने।'' मैं करवट बदल लेती हूँ। नजरें नहीं मिलाना चाहती मैं। इतनी जल्दी क्या थी बेटे की? भुगतना तो हर हाल में मुझे है। क्या करूँ? एमीनोसिंथेसिस? सीरिंज से एमिनियोटिक फ्लूड का निकाला जाना। कल्पना मात्र से सिहर उठी मैं। प्रिया-परागी को मच्छर या चींटी भी काटे तो परेशान हो जाती हूँ और अपने ही उस नन्हे से जीव में जान पड़ने से पहले ही कोई शीशी भर निकालेगा तो क़ैसा अजीब-सा मन होने लगा और अगर इस बार भी लड़की ही हुई तो? तब क्या करूँगी मैं? एबॉर्शन? औरत होकर भी औरत के खिलाफ हो पाऊँगी मैं? ''एक्स-एक्स'' और ''एक्स-वाई'' के चक्कर में क्या मदन को समझा पाऊँगी कि बेटियों के लिए तुम जिम्मेदार हो, क्योंकि वाई क्रोमोजोम्स औरत के पास होता ही नहीं सुबह-सुबह मदन ने चाय लाकर दी-''वंदी, उठो! आज मैंने भी छुट्टी ले ली है। डॉक्टर अग्रवाल के क्लीनिक पर चलते हैं।''

मगर मैंने ना कर दी।

घर में कोहराम मच गया। अम्मा हे प्रभु...हे प्रभु... क़रने लगी। मदन ने खाने की भरी थाली यूं ही पटक दी और चले गए दफ्तर। अम्मा ने सुबह से एक बार भी नहीं पूछा, ''बहू, जी कैसा है?''

केवल एक ''ना'' करने पर।

वह भी केवल परीक्षण नहीं करवाने के लिए। औरत रहेगी ही नहीं तो पुरूष को वंशज उत्पन्न करने के लिए कोख कहां से मिलेगी? पर कौन समझाएगा इस ''मोक्ष'' के लालची समाज को। पुत्र तार देगा और पुत्री जीते-जी मार देगी! जो समाज इस मानसिकता के साथ आज भी चल रहा है उसके खिलाफ किसी को तो लड़ना होगा। मैं चुपचाप डॉक्टर अग्रवाल के क्लीनिक की ओर चल देती हूँ। डॉक्टर अग्रवाल को समझाती हूँ-''मुझे हर हाल में रिपोर्ट सिर्फ बेटे की चाहिए।''

डॉक्टर अग्रवाल मदन को फोन करती है-''रिपोर्ट लेते जाना, कल वंदना आई थी जांच के लिए।''

शाम को मदन मिठाई का डिब्बा हाथ में लिए घर लौटते हैं। घर में फिर कोलाहल मचता है, इस बार खुशी का।

नौ माह उसी तरह सहेजते हुए गुजरते हैं। इस बार बेटा है बहू के गर्भ में। अम्मा ने अब प्रिया-परागी को भी प्यार करना शुरू कर दिया-उनकी पीठ पर भाई जो आ रहा है। मैं अकेले में अपनी बढ़ती कोख पर हाथ फेरती हूँ। बच्चे मुझे माफ कर देना, तुम जो भी हो, मेरे हो। तुम्हें बचाने के लिए एक झूठ बोला है मैंने। मैं जानती हूँ तुम्हें मारने के पाप से यह झूठ कहीं बड़ा पुण्य है।

प्रसव-पीड़ा का सारे घर को इंतजार है। पीड़ा की लहरें यह सोचने ही नहीं दे रही हैं कि तुम जो आनेवाले हो, तुम कौन हो-लड़का या लड़की। एक जोरदार दर्द की लहर से सारा लेबररूम घूम गया और मैं पीड़ा-मुक्त हुई, पर बच्चे की आवाज नहीं आई थी रोने की। डॉक्टर ने सॉरी कहा और मेरे सामने मेरी मृत जन्मी बेटी को कपड़े में लपेट दिया। अम्मा और मदन को यह खबर हो गई थी। दोनों मेरे सिरहाने खड़े थे-नम आँखें और उतरा चेहरा लिए। मैंने नर्स से कहा, ''मैं देखना चाहती हूँ अपनी बच्ची।''

मैंने गोद में लिया उसे। उसे प्यार भी किया, पर जीवन नहीं दे पाई। शायद अभिमन्यु की तरह मेरी बेटी ने भी कोख में ही जान लिया था कि उसका परिवार नहीं चाहता कि वह जन्म ले पर मैंने तो कोशिश की थी। अपने ही (स्त्री के) अस्तित्व को बचाने की।

गुलाबी ओढ़नी

बच्चे भी जिद कर रहे थे, बुआ की अन्त्येष्टि में चलने की। बच्चों से मैंने कहा तुम्हारे चलने से स्कूल का नुकसान होगा। क्या करोगे वहां? उनका तर्क था-नहीं! मम्मी हमें उन्हें श्रृद्धांजलि देनी है। बुआ नानी हमें भी बहुत प्यार करती थीं। मैं सोच रही थी उधर उत्तर कार्य में सभी चलते, पर बच्चे कब मानने वाले थे। आजकल के बच्चे टी.वी. और फिल्मों के जरिए इतना सब-कुछ जानते समझते हैं कि हम तो उनके ज्ञान और तर्कों से ही थक जाते हैं। बच्चे फिर अपना ज्ञान बताने लगे।

मम्मी उत्तरकार्य तो पंडितों पूजापाठ और दानधर्म व भोजन की रस्में है पर अन्त्येष्टि तो सही मायनों में अंतिम दर्शन है। आप हमें बाद में मत ले जाना। फिर मैंने भी सोचा किसी प्रिय के क्रियाकर्म में जाना उसके प्रति श्रद्धा और आदरभाव है, ले ही जाती हूं बच्चों को भी।

सारे रास्ते कार की पीठ से टिक कर आंखें मूंदकर मैं बुआ को ही याद करती रही। मां से ज्यादा प्यार तो मुझे इन बुआ ने ही दिया था। मां तो छोटू में, जन्म के बाद से बेटे में व्यस्त हो गई थी। छोटू से तीन साल बड़ी थी मैं, मुझे तो बुआ ही गोद में लेती और सुलाती थी। जब भी मां के पास जाती वे चल हट, बुआ के पास जा, अभी बहुत काम हैं बिट्टो कह के टरका देती।

कई बार यह सवाल मेरे बाल मन को आहत कर देता था। मैं बुआ से पूछती भी थी कि मां छोटू को ही प्यार क्यों करती है? मुझे क्यों नहीं करती?

बुआ बड़े प्यार दुलार से समझा देती थी -''नहीं बिटिया ऐसा नहीं है। छोटू तो अभी बहुत छोटा है ना इसलिए।'' फिर वे मेरे गाल से अपना गाल सटाकर प्यार और मातृत्व से सराबोर हो कहती ''और तुझे तो मैं प्यार करती हूं छोटू को माँ करती है, है ना बराबर। एक माँ का एक बुआ का।''

बुआ के इस प्यार पर मैं उनसे लिपट जाती थी और वे मुझे अपने आंचल में समेट लेती थीं।

कितनी मधुर हैं ये बचपन की यादें जो अब भी जेहन में ज्यों की त्यों बसी हैं।

'बुआ' को मैंने हमेशा अपने ही घर में देखा था। ज्यों-ज्यों मैं बड़ी होती गई बुआ की अन्तरंग भी ही गयी।

बड़ी ताई हमेशा ही बड़बड़ाती थी। बुआ तो फूटी आँख नहीं सुहाती माँ को। माँ तो हमेशा बुआ से काम करवाती रहती है। एक बार तो बुआ ने बड़ी भाभी को डांटा भी था। कहने लगी आपके घर चलती हूं आप तो मुझे पसंद करती हैं ना। काम भी नहीं करवाएंगी क्यों?

ताई 'बुआ' के व्यंग्य को शायद समझ गयी और फिर कभी नहीं बोली।

मां गृहस्थी के सब काम बुआ पर डाल दोपहर में सुस्ताने के बहाने घंटे दो घंटे सो लेती थी। शाम को पहले बुआ चाय बनाती फिर वह किचन के काम में लग जाती और माँ-बाबूजी के दफ्तर से लौटने से पहले मुंह-हाथ धोकर अच्छी तरह तैयार होती। फिर जैसे ही बाबूजी आते माँ फटाफट दो कप स्पेशल चाय बनाकर बाबूजी के कमरे में लेकर चली जाती थी। इस वक्त की चाय में ना कभी बुआ ने हिस्सा बांटा ना मां ने ही। पर जब मैं समझदार हुई तो मुझे बुआ की उपेक्षा लगी।

कई बार मुझे भी लगा कि ताई ठीक ही कहती है, शायद मां ने बुआ को जो आसरा दिया है उसमें सहानुभूति कम और मां का स्वार्थ ज्यादा है।

पर जब भी बुआ से कहते वह फट से कह देती यह तो देखने वाले की नजर और समझ का अंतर है।

एक बार बाबूजी बीमार हुए तो मां हमेशा बाबूजी की तिमारदारी के बहाने वहीं बैठी रहती। चौका, चूल्हा, छोटू और मेरी जिम्मेदारी सब बुआ देखती। मैं पढ़ना छोड़ बुआ का हाथ बंटाती तो वो रोक देती। नहीं बिट्टो, तू पढ़ डाक्टर नहीं बनेगी क्या?

बुआ को याद कर मेरी आंखों से आंसू टपक पड़े। बिटिया ने झट रूमाल से मेरे आंसू पोंछे और चुप कराने की कोशिश की। नहीं मम्मी रोते नहीं बुआ नानी की आत्मा को तकलीफ होगी। वे आपको रोते नहीं देख सकती थीं। बहुत प्यार करती थीं ना आपको।

उसके समझाने के लहजे से फिर बचपन याद आ गया। एक बार बुआ को रोते देख मैंने भी इसी तरह चुप कराया था। बाबूजी 'बुआजी' को बहुत प्यार करते थे। तेरा-मेरा कभी नहीं सुना घर में।

एक दिन बाबूजी सुन्दर सी गुलाबी वायल बुआ के लिए लाए थे। बुआ देखते ही खुश हो गयी थी। जब साड़ी पहनी तो लगा जैसे गुलाब का फूल खिल उठा हो। मां तो देखती ही रह गयी थी। फिर झट से काजल का टीका लगा दिया। पेटी में रखी एक सूती सफेद साड़ी निकालकर बुआ को दे दी थी। कहने लगी - पद्माजीजी तुम ये ले लो। तुम तो ये पहन सकती हो। मैं इसका क्या करूंगी? ऐसा करो गुलाबी साड़ी मुझे दे दो।

बुआ ने चुपचाप साड़ी बदल ली थी, गुलाबी रंग की जगह सूती सफेद साड़ी। लगा जैसे कोई गुलाबी परी एकदम सफेद वस्त्र में भिखारिन हो गयी हो पर मां को खुश करने के लिए पूछ बैठी भाभी कैसी लगती है - मैंने पहन ली। मां ने रुँआसी होकर कहा था, अरे! पद्मा तू तो बर्फ की राजकुमारी दिखती है।

रात के अंधेरे में बुआ अक्सर रोती थी पर उस रात उनकी सिसकियों का बांध टूट गया था। मैंने उठकर बुआ को अपनी बाहों में समेट लिया था। चुप करो बुआ ऐसे नहीं रोते। मां ने गलत किया है इतनी साड़ियाँ तो हैं मां के पास। पर बुआ तुम देखना मैं तुम्हें साड़ी दिलवाऊंगी।

बुआ फिर रोने लगी - भगवान ऐसा भाग्य किसी को न दे। भाभी की चालाकी है ये। भैया लाए थे ना इसलिए उन्हें बुरा लगा होगा। मैं किशोर उम्र से कुछ बड़ी ही थी। क्रोध तो मुझे भी था मां पर उठकर लड़ने गयी तो मां-बाबूजी की बात सुनाई पड़ी।

बाबूजी मां से कह रहे थे। छोटू की मां तुमने अच्छा नहीं किया। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। ''क्या फर्क पड़ जाता अगर पद्मा एक अच्छी साड़ी पहन भी लेती? तुम्हारे पास बक्सा भरा पड़ा है साड़ियों का। देखा नहीं था कितनी खुश थी वह नई साड़ी पाकर। पर तुम्हारी नारी सुलभ...ईर्ष्या ने तो...सब पानी फेर दिया...बच्ची पर...वह तो भोली है एकदम बच्चों की तरह...।'' मां रोने लगी थी, फिर रोते-रोते कहने लगी ''दे दिया ना तुमने भी ताना। मुझे लगा था तुम तो मुझे समझते हो पर तुम भी? अरे देखा नहीं गुलाबी रंग में पद्मा कैसी खिला गुलाब लग रही थी। बस जरा से गहने भर पहन लेती तो रानी पद्मावती ही लगती-भगवान विधवा को ऐसा रूप ना दे।

कौन कहता है मुझे अच्छा नहीं लगा? मेरे लिए तो वह बिट्टो जैसी ही है। पर जवान खुबसूरत विधवा को सजा संवार कर क्या तूफान लाना है। अरे लोग देखेंगे तो दस तरह की बात करेंगे। फिर कल को कुछ उलटा-सीधा हो तो। बहन-बेटी तो हमारी ही बदनाम होगी ना? क्या मुंह दिखाओगे समाज को। अरे इतनी सुन्दर तो है ऊपर से गुलाबी रंग? मोहल्ले भर में पचासों निठल्ले घूमते हैं। बड़ी शादीशुदा बहन-बेटियों तक को छेड़ने से बाज नहीं आते तो फिर यह तो विधवा है, कैसे और किससे-किससे बचाते फिरोगे। इतनी मासूम है वह इसीलिए घर के अंदर ही अंदर रखती हूँ। साड़ी उसकी ही है-मैं तो केवल नजर से बचाना चाहती हूं। रहा सवाल काम का? तुम क्या समझते हो उसका काम करना मुझे अच्छा लगता है? अरे कल को कोई बिट्टो से ऐसा काम करवाए तो मैं टांगें तोड़ दूंगी उसकी पर मेरी मजबूरी है ना चाहते हुए भी काम करवाना पड़ता है। अरे जवान-जहान विधवा खाली बैठेगी तो जीवन से ऊबने लगेगी। उसे व्यस्त रखना ही सबके हित में है। खाली दिमाग शैतान का घर होता है। फालतू-फुर्सत में दस बातें सोचेगी। यहां-वहां मन भटकेगा। इसीलिए काम पटक देती हूं, करती रहती है। घर-गृहस्थी की जवाबदारी की इच्छा की भरपाई भी हो जाएगी।

दया, प्यार, ममता क्या मेरे अंदर नहीं है पर यदि हमने ज्यादा लाड़-प्यार दिखाया तो बच्चों को बिगड़ते देर नहीं लगती। उसके अंदर बच्चे की ललक भी है। इसीलिए जानबूझकर बिट्टो की उपेक्षा करती हूं जिससे पद्मा को लगे उसे बिट्टो के लिए जीना है। एक तरह से यह भावना पैदा हो गई है उसमें कि बिट्टो की मां भी वही है।

यदि बेटी सौंप देती तो उस पर एहसान होता, वह सहज नहीं रहती और उसमें मातृत्व की वो अमृत धारा नहीं फूटती जो इस तरह उसे तृप्त करती है। देखा नहीं कैसे सारा दिन बिट्टो के लिए लगी रहती है। अरे! बिट्टो के पापा-मुझे मेरी बेटी बुरी लगती है क्या? पर पद्मा के जीवन में जो कमी है उसे मैं सहज भरना चाहती हूं दिखलाकर या जताकर नहीं? लोग कुछ भी कहें पर हमें अपने परिवार के हित में सोचना चाहिए अगर मुझ पर विश्वास करते हो तो इस सब का अर्थ सोचो और मेरी गलती बताओ?''

बाबूजी ने शायद मां को सीने से लगा लिया था। बोले, मैं नहीं जानता था कि तुम इतनी समझदार हो। मुझे क्षमा करो बिट्टो की मां। मैंने तुम्हें गलत समझा।

मां और पापा की बातें सुनकर मैं दंग रह गयी। मां इतनी महान है - वह तो बुआ का भला चाहती है यह सोचते हुए मैं उल्टे पैर वापस लौट गयी फिर तो मैं बुआ का साया ही बन गई थी।

समय को भागते देर नहीं लगती। मेरा विवाह तय हो गया। शादी की सब तैयारी मां बुआ की ही पसंद से करती रही। लड़का देखने भी बुआ और बाबूजी ही गए थे। जब कन्यादान की रस्म अदायगी का वक्त आया तो मां ने वही गुलाबी वायल बुआ को देते हुए कहा था चलो पद्मा जीजी अपनी बिट्टो का कन्या दान करो।

पद्मा बुआ फूट-फूटकर रो रही थी। नहीं भाभी। मैं बिट्टो का अमंगल नहीं चाहती। कन्यादान तुम्हीं करो। तुम उसकी मां हो।

मां भी रो रही थी। नहीं। पद्मा जीजी बिट्टो तो तुम्हारी ही है। जन्म देने से ही कोई मां होती है क्या? पालन-पोषण तो तुम्हीं ने किया है। बचपन से ही वह सोती तो तुम्हारी छाती से चिपककर थी। वह मेरी कोख से शायद तुम्हारी ही अमानत बनकर आयी थी। मेरी सास भी बुआ को लेने गई थी। चलिए बहनजी यह शगुन तो तुम्हीं को करना पड़ेगा। तुम्हारे हाथ से अमंगल कैसे हो सकता है? ये परम्पराएं और मान्यताएं तो हमारे ही बनाए ठकोसले हैं। क्या रखा है इनमें? फिर बुआ ने ही कन्यादान किया था।

जब मेरी पहली प्रसूति थी तो भी मां ने बुआ को ही भेजा था। बुआ डर रही थी कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए। कैसी विडम्बना है यह औरत की कि उसके ऊपर जीवन का कहर ढह गया तब भी वह जीवन से जुड़ी है। अपनी ही बच्ची के कन्यादान के लिए वह डरती है और आज बेटे की जगह बेटी ना हो जाए के डर के मारे वह सहमी हुई है कहती है बिट्टो को लड़का हो जाए और तुम खाटले से खड़ी होकर घर संभाल लो तो मैं भेरूजी के मंदिर में सवा किलो प्रसाद चढ़ाऊंगी। शनि मंगल की छाया से ईश्वर तुम्हें बचाए मैं ग्यारह आटे के दिए सवा महीने तक मंदिर में चढ़ाऊंगी।

फिर भगवान ने बुआ की लाज रख ली और मेरे बेटा हो गया था। बुआ तीन महीने तक मेरे पास रही। मैंने भी मां की तरह बच्चे की सब देखभाल बुआ पर ही छोड़ दी। वे इन तीन महीनों में गुड्डू की देखभाल करते इतनी संतुष्ट लगी जैसे उन्हीं के बेटा हुआ हो। मुझे पता ही नहीं चला कब बच्चा तीन माह का हो गया।

इन तीन माह में हम और अंतरंग हो गए थे। एक दिन मैं अपने ससुराल के सुख-दुख बुआ को बता रही थी। बातचीत के चलते मैं पूछ बैठी थी, बुआ तुम्हारी ससुराल कैसी थी।

बुआ ने जो बताया सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए वे बोली अच्छे सम्पन्न प्रतिष्ठित लोग थे वे। सारे गांव में सबसे पहले उन्हें ही न्यौता जाता था। गांव का हर शुभ काम उनके दरवाजे पर माथा टेकने से ही शुरू होता था। उनका कार्यक्रम में जाना सौभाग्य समझा जाता था।

जिज्ञासा से मेरी रुचि बुआ के ससुराल की बातों में बढ़ गई। वैसे भी बचपन से अब तक बुआ के ससुराल के बारे में कुछ ज्यादा जानती नहीं थी। मैंने उनके ससुराल के इस सम्मान का कारण पूछा तो पता चला वहां सदियों पहले कोई बहू 'सती' हो गयी थी। 'सती' अच्छा।

मेरी आंखें विस्मय से फटी रह गयीं। फिर बुआ तुम वहां रही क्यों नहीं? वे नम आंखों से बता रही थी-मेरे विवाह को चार माह हुए थे। पति शराब पीते थे। शराब इतनी कि जान ही चली गई। सास कहने लगी बरसों बाद कोई बहू विधवा हुई है इसे तो सती हो जाना चाहिए। पर मैं केवल चार माह के साथ पर अपने शराबी पति के लिए जीवन गंवाना नहीं चाहती थी। मैंने झूठ बोल दिया कि मैं मां बनने वाली हूँ।

मैंने पूछा, अच्छा फिर.... ?

फिर क्या भैया-भाभी आए तो मैं उन्हीं के साथ मायके आ गयी उस पर घर में।

पर बच्चे का तो पूछा होगा ना? हां भाभी ने एक पत्र लिख दिया था कि मुझे गर्भपात हो गया। बस फिर नाता ही टूट गया उनसे....।

मैंने आश्चर्य व्यक्त किया। अच्छा अम्मा ने पत्र लिखा था?

हां। वह मेरी भाभी कम और मां ही ज्यादा रही जिसने लोगों के ताने खुद सहन किए कि मैं उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाती पर यह ऊपरी आवरण था भाभी का। वह मुझे दुनिया की कु.ष्टि से बचाना चाहती थी बचा ले आयी। पर बुआ जो 'सती' हुई, उसके बारे में कुछ नहीं जानती तुम?

बुआ बोली - बारह-तेरह बरस की वह बहू सती हो गयी थी पर मैं तो बीस-बाईस की थी, सब समझती थी। तुम ही बताओ बिट्टो गुडिया जैसी उम्र में अगर बड़े-बूढ़े डांटडपट कर या बहला फुसलाकर चिता पर बैठा दे तो सती होना सम्भव है पर समझते-बूझते क्या जिंदा जलकर मरना आसान है? नहीं ना। पर बुआ तुम्हें ही क्यों सती होने पर बाध्य किया?

बिट्टो मैं ज्यादा तो नहीं जानती पर शायद बूढ़ी होकर विधवा होती तो उन्हें चिन्ता रहती पर जवान उम्र में विधवा को उसके सतीत्व की रक्षा के लिए शायद बाध्य किया जाता होगा या फिर यह सोचकर कि उनके वंश की समाज में प्रतिष्ठा और चौगुनी हो जाती। जो भी हो पर मैं तो मरने से बच गयी। मर जाती तो क्या तुम्हारा लाड़-प्यार, तुम्हारा ब्याह और ये बेटा देखने को मिलता?

यादों के झंझावातो से आती झपकी टूट गयी। गाड़ी चरमराकर रुक गई थी। मायके के बाहर लोगों की भीड़ थी और वे बुआ की अंतिम यात्रा की तैयारी कर रहे थे। घर में मां रो रही थी। बाबूजी से बोली कि ओढ़नी गुलाबी ही ओढ़ाना मेरी पद्मा को।

एक ताज़ा खबर

''हम बाजार में खड़े हैं, बाजार के लिए ही काम करते हैं, हमारे घर का चूल्हा हमारी स्टोरी के बिकने पर जलता है। क्या करें... भाभी जिस समाज का समूचा ढांचा ही दोहरे मानदण्डों पर टिका है वहां अपने आदर्श नहीं चलते..... आदर्श रखने पड़ते हैं ताक में.... अखबार का मालिक निकाल फेंकता है आदर्शवादी पत्रकारों को.... अब आप तो सब जानती हैं .... इसी माहौल से रोज दो चार होती हैं... भैया को देखती तो है रोज संघर्ष करते हुए... वो तो इनकी सरकारी नौकरी है वरना दाल रोटी इतनी आसान नहीं... अरे आत्मा को मारना पड़ता है....'' इतनी बड़ी-बड़ी बातें करने वाले समीर भैया ने..... क्या सचमुच आत्मा को इस हद तक मार डाला.... या केवल दोहरे मानदण्डों के चलते वे... इतने और इस कदर दिखावटी हो गये कि अपनी पत्नी की मृत्यु और बीमारी तक को भुनाने में जुटे हैं?.... मैं तय नहीं कर पा रही थी कि ये वही समीर भैया हैं जो सुनयना भाभी की आत्मा में बसते थे?

''छोड़ो भी.... तुम भी क्यों समीर के पीछे हाथ धोकर पड़ी हो.... वो जाने और उसका काम।'' पति ने मेरी बात को खारिज सी करते हुए कहा।

नहीं अमर... मेरा मन इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है... पच्चीस साल का साथ था समीर सुनयना का... पच्चीस दिन भी नहीं लगे पत्नी के दुख से बाहर आने में....सवा महीने तो दुश्मन भी दुख पालते हैं.. पत्नी थी सुनयना... उनकी। गमले में पौधा भी सूखे तो मन दुखता है... और समीर है कि दूसरी शादी कर रहा है?

''वो तो सुनयना के मरने से पहले ही कर लेता यदि उसको समझाया ना होता..तो।''

''क्या....़.?''

''हॉ! मैं तुम्हें बताना नहीं चाहता था, पर सच यही है वो पिछले एक साल से वहां जाने लगा था..... प्रेस यूनियन के चुनाव का वास्ता देकर रोका था उसको।''

पत्नी की बीमारी और वह भी कैंसर एक सहानुभूति थी सबकी इसके साथ .. वोट भी विश्वास के कम सहानुभूति के ही ज्यादा मिले थे... लोगों ने सोचा था दुख से बाहर आने में बेचारे को मदद मिलेगी... पर हम जानते हैं ये अपनी आदतों से बाज नहीं आने वाला। जानती हो जब कीमोथेरेपी चल रही थी सुनयना की.... अस्पताल छोड़ मेरे दफ्तर में बैठा रहा- ''यार अमर.. कल सी.एम. को एयरपोर्ट से सीधे अस्पताल ले आना सुनयना को देखने....। अस्पताल और परिवार पर अच्छा रुतबा रहेगा यार और फिर प्रेस यूनियन के चुनाव पर भी दबाव पड़ेगा सी.एम. से सीधे संबंध होने का। एक बार प्रेस यूनियन की कुर्सी हाथ में आ जाए फिर देखना उस प्रेस की नौकरी का मिजाज ही बदल दूंगा और सबसे पहले तो उस चूतिए सम्पादक को निपटाऊंगा साल्ला........ दो कौड़ी का......। हर स्टोरी को कांट-छांट देता है.. जहां कमाने की जरा सी गुंजाइश दिखी नहीं न्यूज एडिट कर देता है... उसकी तो....।'' पूरा दिन वो इसी जुगाड़ में लगा रहा ... कि एक बार सी.एम. उसके घर या अस्पताल चले जाएं। चेले चपाटे अलग लगा रखे थे सी.एम. की अगवानी की न्यूज और बाइट कवर करने के लिए.... नम्बर एक का नाटकबाज है.... पर क्या करें़। आप समझा उसको सकते हैं जो समझना चाहे-समीर जैसों को समझाना संभव नहीं।

हाँ मेरे पास भी फोन आया था समीर का उस दिन ''भाभी आप सुनयना के पास ही रहना...।'' बड़ा बुरा लगा था उस दिन भी मुझे..... मौत के दरवाजे पर खड़ी पत्नी के साथ उसका दर्द बांटने के बजाए समीर बीमारी को भी भुनाता रहा। पत्रकार कोटे का पैसा, मेडिकल क्लेम और दया तथा सहानुभूति के नाम पर पैसा? अरे पूछो मत चंदा उगाई से उसने इतना पैसा बनाया है कि .... बस।

''पर इलाज के खर्चे?''

''वो..... वो तो सुनयना भाग्यवान थी कि वो बड़े घर की बेटी थी..... उसका इलाज तो पिता और भाई ही करवाते रहे और उसकी नौकरी भी थी। ये तो अस्पताल भी ऐसे जाता था जैसे हम जाते हैं हाल पूछने।''

मेरी आंखों में उठावने का .श्य सजीव हो उठा.... मैं सुबह से ही सुनयना की 15 साल की बेटी के साथ थी.... वो मम्मी के सदमे से डिप्रेशन में जाने लगी थी.... बुखार भी आ गया था उसको। पर समीर भाई ..उठावने की तैयारी में ऐसे जुटे थे जैसे घर में जश्न हो...... शहर का सबसे बड़ा क्लब ग्राउंड.....उस पर टेन्ट...सफेद चादरें..... रामधुन के कैसेट। सुनयना का बड़ा सुनहरी फ्रेम वाला फोटो... गुलाब के हार, गुलाब के फूलों की टोकरी, मोगरे की चंदन की अगरबत्तियाँ.... काला चश्मा ....लोगों को लगातार फोन पर याद दिलाते रहे कि आज शाम चार बजे उठावना है... फोन के अलावा..... भोपाल तक राजनीति की, बीवी की मौत की... और तो और..... सफेद कुर्ता पायजामा चार बार बदला था नहीं जमा तो खड़े दम नया खरीदा गया......... उठावने के लिए। हद तो तब हुई जब बेटे ने विद्रोह का पहला स्वर उठाया था--''पापा आप अस्थि संचयन में चलेंगे या कुर्ता पायजामा ही बदलते रहेंगे।'' दंग रह गई थी मैं ....... बजाय खुद गिल्टी होने के वे विपिन पर झपटे थे...... ''एक लगाऊंगा साले..... मुझे आंख दिखाता है..... दिखता नहीं यहां इतने लोग आने वाले हैं--मामा के साथ चला जा और रवि चाचा और संजय मामा और विनय मौसा को हरिद्वार रवाना करवा दे-- मैं यहीं हूं।'' मुझे तब लगा था पत्नी की मृत्यु से टूटे हुए हैं समीर भाई....। अग्निदहन के बाद अस्थि बटोरने के लिए हिम्मत नहीं है उनमें अपनी पत्नी की राख में तब्दील देह को वे देखना नहीं चाहते शायद। कैसी रेशम सी नाजुक थी सुनयना... कितनी यादें होंगी समीर के मन में उस रेशमी देह की दिवानगी की। पर अस्थिकलश को जब विपिन लेकर आया तो सब फूट-फूट कर रो पड़े थे पर समीर.....? उसने तो देखा तक नहीं......क्या रिश्ते इतने कमजोर होते हैं या कि संवेदना की खबरें बेचने वाले समीर के अंदर की संवेदनाएं ही मर गई थीं....। टोका था मैंने श्श्समीर भाई क्या हो गया है आपको...... अखबार की न्यूज नहीं थी सुनयना जो छपने तक मायने रखती थी आपके लिए। ये आपकी जीवनसंगिनी की अस्थियां हैं ये आपका स्पर्श चाहती हैं अभी धरती पर ही हैं.... गंगाजल में विलय के बाद आपसे नाता टूटेगा... आप पत्थर हो गए हो क्या? आपके उन थोथे आदर्शों का क्या हुआ जिनमें बौद्धिकता, भावनात्मक प्रतिबद्धता, संवेदनात्मक बातें होती थीं।''

समीर मुस्कुराया था उस वक्त.... फिर मेरे कान में बुदबुदाया था भाभी सच ये है कि चार साल तक सुनयना की बीमारी से मैं फ्रस्ट्रेट हो गया था और एक ऐसी बीमारी जिसका आउटपुट कुछ नहीं था मैं जल्दी से जल्दी मुक्त होना चाहता हूं इस सब से।

मैं उठावने के बाद घर आ गयी थी। मानसिक तौर पर टूट गई थी।

पर ये खबर तो और भी हजम नहीं हो रही थी। मुझे जब शाम को अमर ने

पूछा चल रही हो समीर की पार्टी में...... कोर्ट में शादी कर ली है उसने...... मैंने घूर कर अमर को देखा था...... मैं मर गई तो शायद अमर भी..... पर पूछ नहीं पायी....... क्योंकि सच कड़वा ही हो सकता था या फिर झूठा और दोनों ही मुझे बर्दाश्त नहीं। अमर ने फिर पूछा था ''चलोगी.......।''

नहीं। अभी... अभी तो सुनयना की तेरहवीं में उसके मायके गौरनी जिमने गई थी मैं......... उसके नाम का सुहागन भोज जिमने के बाद इतनी जल्दी नया रिश्ता मैं नहीं जोड़ सकती...... तुम जाओ तुम्हारी मर्जी हो तो...... फिर बचपन का दोस्त है समीर।''

मुझे लगा सुनयना का क्या? सच तो यह है कि आज फैक्ट और फिक्शन में कोई फर्क नहीं रह गया है-- हम एक खबर की तरह हो गए हैं........ जहां सुनयना की मृत्यु एक बासी खबर .......... ताजा खबर ये है कि...............समीर ने जिससे शादी की वो सुनयना की ही खास......सहकर्मी जो तलाकशुदा थी और .........अक्सर सुनयना के पति के मीडिया में होने से उसकी किस्मत पर जलती थी। और हां......समाचार मीडिया में टैबलायडाइजेशन की प्रवृत्ति अब पुरानी हो गई है नयी बात यह है कि समाचार जगत में सार्वजनिक मसलों से बचकर नितान्त व्यक्तिगत जीवन, उसकी पीड़ा, संबंधों की जायजता और नाजायजता की कहानियां बनाकर बेचने वाला निहायत ही असंवेदनशील पत्रकार समीर अब अपनी नयी बीवी के दफ्तर में उसकी दादागीरी के लिए उसका स्टेटस हो गया है।

पर मेरी संवेदना का क्या करूं मेरे अंदर पुरानी खबर से लड़ती रही समीर की नयी खबर।

अचार

मई की तेज धूप को देखकर याद आया कि चने की दाल को धूप दिखाना है। आँगन की धूप में पुरानी चादर बिछाकर स्टोर रूम में चने की दाल की कोठी निकालने गयी तो अचार का मर्तबान (बरनी) दिखाई दे गया। दाल को धूप में फैलाकर पलटी तो अचार का ख्याल आया, लगे हाथ अचार को भी देख लूं। बर्नी पर कुछ नमक छिटक आया था उजाले में लाकर देखा तो यह दो साल पुराना अचार था। अम्मा कहती है - 'पुराना अचार अचार नहीं औषधि हो जाता है - जब जी मचलाए, भूख ना लगे, स्वाद उतर जाए तो थोड़ा सा पुराना अचार चाट लो और चीर को चुस लो, सारा अजीर्ण खत्म।' बात-बात में आजकल मुझे अम्मा के फंडे याद आ जाते हैं। शायद आजकल मैं बिलकुल अम्मा जैसी होती जा रही हूँ। उम्र का एक दौर ऐसा भी आता है जब हम 'हम' नहीं रहते अपने माता या पिता की तरह लगने लगते हैं, वैसा ही सोचने लगते हैं। छोटी थी तो मैं हमेशा कहती थी 'अम्मा मैं तुम्हारी तरह नहीं बनूँगी। सारा दिन बेवजह के कामों में खटती रहती हो।' पर चने की दाल पर हाथ फेरते हुए मुझे अपने ही ख्याल पर हंसी आ गयी। अचार को भी परात में फैलाकर धूप में रख आयी। सोचा, इस बार अचार नहीं डालूंगी। घर में दो ही तो प्राणी बचे हैं, पति और मैं। जब तक बच्चे थे तो घर में हर तरह के अचार-मुरब्बे उठ जाते थे, पर बच्चे बाहर चले गए और हम दोनों को ही हाई ब्लड प्रेशर है। रही कसर डॉक्टर ने इनके सामने बोल कर पूरी कर दी है कि 'भाभीजी जरा अचार-पापड़ भी कम ही खाना आपका ब्लड प्रेशर भाई साहब से ज्यादा है।' बस तभी से हमारे ये लकीर के फकीर थाली में तो दूर, टेबल पर भी अचार नहीं निकालने देते। कहते हैं 'टेबल पर रखा कि तुम थोड़ा सा के चक्कर में ले ही लोगी।' और बस अब घर में अचार-पापड़ की खपत ही समझो बन्द हो गयी है। गाहे-बगाहे मेहमानों को सर्व करने या ट्रेन के टिफिन में अचार की वेल्यू बनी हुई है। हाँ हमारा माली जरुर एक दो दिन में अचार की फरमाईश कर लेता है, दे देती हूँ पता नहीं सुबह से आता है साग-सब्जी हो ना हो सोचकर।

धूप में सूखते अचार को देखकर पति महोदय ने टोका 'अब अगर अचार भी कपड़ों की तरह धूप में सुखाना पड़ता है तो मेडम डालना ही क्यों?' 'अरे दो साल पुराना अचार है दवाई की तरह हो गया है। फिर आपको जो बोर-भाजी (सूखे बेह और सूखी मैथी की भाजी) की दाल पसन्द है ना, उसमें उबलती दाल में सूखा आम का अचार डालती हूँ तभी तो बोर-भाजी का स्वाद उठकर आता है।'

खाने की थाली में भरवाँ करेले थे।

भरवाँ करेला इनकी खास पसन्द है। 'वाह! क्या करेला बना है? फाईव स्टार वाला पाँच हजार रुपये में भी ऐसे करेले की सब्जी सर्व नहीं कर सकता।' इन्होंने एक करेला और थाली में डाला। कूटी तिल्ली खोपरे के सूखे मसाले में अचार का तेल डालकर करेले भरे हैं, तभी तो कड़वाहट कम हो गयी है।' मैंने उत्साही होकर बताया।

'तो आजकल अचार यूँ नहीं तो यूँ जा रहा है पेट में क्यों ? तभी तो तुम्हारा बी.पी. घटता नहीं। 'एक चम्मच तेल यूँ भी डलता ही करेले में।' मैंने सफाई दी।

खाने से निपट कर मैंने अचार की दूसरी बरनी देखी। एकदम ताजा जैसा का वैसा ही था, सो थोड़ा सा हिलाकर वापस रख दिया, इस बार अचार नहीं डालूंगी सोचकर।

पन्द्रह दिनों के बाद ही एक बारिश हो गयी थी। एक दिन सब्जी मण्डी गयी तो पूरे मार्केट में सब्जी से ज्यादा अचार की केरी दिखाई दी। मैं लूँ न लूं की पेशोपेश में पड़ी और फिर बगैर लिए ही घर आ गई।

उस रात सपने में मुझे पिताजी दिखे। मकड़ी का जाला झाडू में लपेट कर निकालते हुए। याद आया ऐसे ही एक बार एक बड़ा सा जाला छत पर पँखे के पास लटक रहा था और मकड़ी लगातार अपने हाथ-पैर चला रही थी। पिताजी ने मकड़ी दिखाते हुए कहा था 'तुम्हारी माँ भी मकड़ी जैसी है सारा दिन इस गृहस्थी के जाल में हाथ-पैर चलाती उलझी रहती है।' मेरी नींद खुल गयी थी। मैं खुश थी आज बरसों बाद बाबूजी यूँ दिखे, वरना हम सब चाहते थे कि वे दिखें पर कभी किसी को सपने में भी नहीं दिखे थे। मैं उठकर बैठ गयी।

बाबूजी के जाने के बाद पाँच सालों से घर यूँ ही बन्द पड़ा है। माँ छोटी बहन के पास है। एक पल को लगा कि बाबूजी की आत्मा शायद अपनी गृहस्थी की उपेक्षा की तरफ हमारा ध्यानाकर्षण कर रही है कि देखो यहाँ कभी बगिया में फूल खिलते थे, मंदिर में दीया जलता था, तरह-तरह के पकवान बनते थे, अचार और मुरब्बे डलते थे। धूप में सुखते कूटते मसालों की सुगन्ध होती थी और तुम्हारी माँ मकड़ी की तरह इन महीन जालों में उलझी रहती थी। धूप में तप कर अन्दर आती तो चेहरा लाल हो जाता था। प्याज काटती तो आँखें धुली-धुली स्वच्छ लगती थी। मसाले कूटते उसके हाथों की नसें जैसे तानपूरे के तार की तरह झं.त होती दिखती थी। इन सब से उसे दूर कर तुमने उसके चेहरे के रंग, उसके हावभाव, उसकी आँखों का पानी सब सुखा दिया है। मकड़ी को उसके जाले में ही हाथ-पैर चलाना आता है यह कहते हुए। मुझे याद आया बाबूजी जाला बनाती मकड़ी को कभी नहीं मारते थे। कहते थे 'जाला जब सूखा हो जाए, मकड़ी निकल जाए तब हटाना चाहिए।

तब समझ में नहीं आता था कि इसका क्या अर्थ है, पर आज स्वतः समझ में आ गया। घर संसार सबका स्वप्न है, लक्ष्य होता है जीने का, उसे पूरा करने देना चाहिए या तो पहले ही सफाई रखो कि जाले बने ही ना, नहीं तो पूरा होने के बाद सूखने दो तब हटाना। जाने क्यूँ लगा कि पिताजी चाहते हैं हम माँ की इच्छा अनुसार कुछ दिन बन्द घर को फिर चालू करें, माँ में प्राणों का संचार करने के लिए। मैंने और छोटी ने आठ दस दिन का प्रोग्राम बनाया माँ के साथ घर जाने का। पिताजी की बात (सपनों वाली) किसी से नहीं की। इस बात को सबने अपने-अपने ढंग से सोचा किसी ने कहा पता नहीं एकदम क्या सूझी। 'प्रापर्टी का मामला होगा बँटवारे के लिए माँ को यहाँ लायी हैं। कुछ हाथ लग जाए शायद इसीलिए घर खोला होगा वगैरह-वगैरह' .......................

पाँच सालों में घर 'घर' बचा ही नहीं था। एक बन्द मकान था, जिसमें मकड़ी के अलावा चूहे, छछून्दर, सबने घर बना लिए थे। सब कुछ वैसा ही जमा था, अपने बेजान शरीर के साथ, बेरौनक सा।

छोटी तो जैसे रोने ही लगी थी 'क्या ये हमारा ही घर है।' तो कहाँ गए वे दिन ----?' मैं बोलने की स्थिति में ही नहीं थी और माँ को तो काका के घर ही छोड़ आयी थी जानबूझ कर कि पहले जाले हटाकर अन्दर प्रवेश की जगह तो बना दूँ। पता नहीं माँ अपनी उजड़ी गृहस्थी को देख जीवन से जुड़ेगी या टूटेगी?

यह हमारा ही घर था, कभी एक मंजिला, बाहर लॉन, चारों तरफ फूलों के पौधे, पीछे किचन गार्डन, बरामदे में एक बड़ा सा झूला पालकी वाला, दरवाजे पर बंधनवार बनाती लटकती चमेली। दरख्तों के बीच यह इमारत एक छोटी हवेली लगती थी।

'आदमी ना रहने की वजह से एकदम वीरान लगती है नई जगह मेडम' ड्रायवर अनवर की बात से मेरी तन्द्रा भंग हुई। मैंने कहा लो अब वीराना दूर करते हैं। मैंने दरवाजे पर लगी कालवेल दबाई थोड़ा जाम हो रहा था स्विच। एक बार फिर दबाई 'घण्टी ने एक नन्हे पंछी जैसी आवाज निकाली टिन टिन टिन .......... मैंने एक बार फिर दबाई, एक बार फिर 'शॉर्ट सर्किट हो जाएगा मेडम' अनवर ने टोका। जानते हो अनवर जब तक बाबूजी दरवाजा नहीं खोलते थे मैं लगातार बजाती थी बेल।' यादों के बादल बेमौसम, घुमड़ आते हैं और मन को गीला कर जाते हैं।

अनवर ने हमारी मदद की। मैं, छोटी, काकी की महरी, चौकीदार और एक लेबर हम सब ने पाँच साल से बन्द घर को पाँच घण्टे में इस लायक तो कर लिया कि अन्दर बैठा जा सके।

बिजली और पानी का शुल्क माँ एक साथ चौकीदार को भेज रही थी सो मुश्किल नहीं हुई, दोनों ने थोड़ी सी जाम मशीनरी को चालू करते ही हमारे लिए हथियार का काम किया। वॉशिंग मशीन, फ्रिज सब के तार अनवर ने बदल दिए, फ्यूज बल्ब बदले गए, बिस्तर की पेटी से नए परदे, नया कार्पेट, नयी चादरें सब निकल आए। छोटी ने धोबी का गठ्ठर बाँधा, कल देंगे सब। गैस कनेक्शन लगाया, आश्चर्य हुआ पाँच साल से बन्द घर की टंकी भरी हुई थी। काकी ने घर से दूध लाकर उफना दिया, फिर बनी चाय और तब शाम को अनवर माँ को गाड़ी में बिठा लाया, शाम का दीया बत्ती हुआ। बन्द घर की सीलनवाली गन्ध को धूपबत्ती ने कुछ कम किया। फिर हम लाईट जलती छोड़, पँखे चलाकर, घर की खिड़कियाँ खोल, रात के खाने और सोने के लिए काका के घर आ गए।

अगले दिन लंच के बाद घर मिशन फिर चालू हुआ। पिताजी की डायरी से किरानेवाले, दूधवाले, प्रेसवाले सबके नम्बर मिले। मोबाइल था ही सो घर बैठे सब आ गया। शाम का खाना हमने यहीं बनाया। अनवर कहीं गया था, लौटा तो उसके लिए सब्जी कम थी। माँ ने कहा 'रुक कुछ बना देती हूँ।'

'नहीं-नहीं आप तो अचार दे दो।'

'अचार ..............।'

माँ पलट आयीं। मैं समझ गयी थी 'अचार' माँ की यादों का अनमोल रत्न है वे जरुर दुखी हो गयी हैं। छोटी ने आकर बताया माँ लकड़ी की अलमारी खोलकर अचार की खाली बर्नियाँ देख रही हैं। सामनेवाली जैन की दुकान से चौकीदार ने रेडीमेड अचार ला दिया था छोटी के कहने पर।

रात हम सब अपने ही घर में सोए। बाबूजी वाले कमरे में मैं, छोटी, माँ और काकी।

अनवर ने छत पर पलंग रख लिया। चौकीदार भी वहीं सोता है। सुबह चाय बनी, पौधों में पानी डला। माँ ने पूजा की, मरती मुरझाती तुलसी के पत्तों में भी जान आयी। काकी ने नल की टपकन के पास ही गमला रख दिया था। आज सबका खाना यहीं बनना था काका, बुआ और हम सब का। आम का रस और पूरी। माँ ने कहा - 'पूरी मैं बनाऊंगी।' छोटी ने डपटा, इत्ते लोगों की है दस मिनट में तुम्हारा घुटना टें बोल जाता है आधा पौना घण्टा खड़ी रहोगी ?'

'करने तो दे जब तक बनेगा बनाने दे, बाद में तू उतार देना।' पर यह चमत्कार था या माँ का लौटा हुआ आत्मविश्वास, ना आटा सानते माँ का हाथ कंपकंपाया ना घुटने ने टें बोली बल्कि वह चकला बेलन, छोटे बर्तन भी खड़े-खड़े धो लाई।

मुझे याद आया कल पिछवाड़े गई थी तो दो कबीट पड़े थे पेड़ के नीचे, उठा लाई थी। उनको फोड़ा तो आँगन के मचान पर लगा बाबूजी कबीट की चटनी कूच रहे हैं।

मैंने ख्ररड़ और सीलबट्टा साफ किया, खूब गुड़ डाल कर कबीट के बीजों को कूचना शुरु किया तो लगा बाबूजी पास खड़े हैं बिट्टू कबीट के बीजों को पहले कूच-कूच कर फिर गुड़ के साथ सीलबट्टे पर रगड़ो लसर-लसर ऐसी खट्टी-मिठ्ठी चटनी बनती है कि खाने वाला ऊंगलियाँ चाटता रह जाए, लो चखो मेरा हाथ स्वतः ही दूसरी हथेली पर लाल चटनी रख गया और मैंने आँखें मूंद कर चटनी का स्वाद लिया। 'बिल्कुल बाबूजी जैसी।' माँ मुझे चटनी पिसते चार बार देख गई कभी 'जरा सा जीरा डाल तेरे बाबूजी डलवाते थे' कह कर तो कभी काला नमक डलवा कर ओगुण नहीं करेगी कह कर। सब जैसे भूल गए थे कबीट की चटनी भी बनती है।

अगले दिन सारे अचार के मर्तबान माँ ने महरी से धुलवाए यह कह कर तुम बहनें ले जाओ, यहाँ तो खाली पड़े हैं।'

मैंने बाजार से कच्चे आम मँगवाए। अचार के मसाले बाबूजी की डायरी अनुसार ही आए। केरी काटने का सरोता चमकाया गया। माँ परेशान होने लगी कौन काटेगा केरी और कौन कूटेगा मसाले।' रेडीमेड मसाला ले आती बिट्टू ? कैरियाँ काटने का जिम्मा मेरा था और मसाले कूटने का छोटी का। पुरानी सूती साड़ी बिछायी गयी धोकर कच्ची कैरियाँ माँ ने छाँटी। जैसे ही पहली कैरी सरोते पर रखी, याद आया बाबूजी ने कहा था ' कैरी हमेशा खड़ी चीरना चाहिए, फाँक अच्छी बनती है।' एक फाँक काटने में हाथ दुखा फिर लगा जैसे बचपन में बाबूजी हथ्था पकड़वा कर दबवाते थे और खच्च करके कैरी कट गयी फिर तो ट्रिक हाथ लग गयी और गीले खोपरे की तरह सब कैरी कट गयी। छोटी ने सारे मसाले वैसे ही कूटे, माँ आश्चर्यचकित थी एकदम वैसी ही फाँक और हर मसाला सही अनुपात में कैसे किया रे छोरियों ? वह तेल गरम कर लायी और मसाले भूनते हुए बोली 'मैं कहाँ डालती थी अचार, सब वो ही तो डलवाते थे दरअसाल नाम मेरा होता था लोग यह ना कहें कि व्यासजी अचार डालते हैं पर सच ये है बिट्टू मसालों का सारा अनुपात उन्हीं का होता था। 'अचार डला, मर्तबान को भी पुर्नजीवन मिला, अलमारी में खुशबू फैली।

कटोरी भर कर शाम की रसोई में सर्व हुआ पर किसी का ब्लडप्रेशर नहीं बढ़ा। छोटी के पति ट्रेनिंग पर गए थे लौटते में यहीं आने वाले थे दस दिन माँ और रह सकती थी घर पर। 'मैं दस दिन बाद आती हूँ' इसी वादे के साथ अपने घर आ गयी। गाड़ी से उतरी तो हाथ में अचार की बर्नी देख पति ने टोका 'फिर अचार डाल लायी वो भी इतना ?'

मैंने गर्व और श्रृद्धा से कहा 'ये अचार नहीं है ये बाबूजी को श्रृद्धांजलि है, ये हर साल डलेगा।'

ऋतुचक्र

ऋतुचक्र चलता रहता है और हर मौसम में उसकी खास पहचान समा जाती है। 'कार्तिक' शीत ऋतु की शुरुआत का महीना है। कितने वर्षों से वह 'कार्तिक स्नान' कर रही है, उसे अब याद भी नहीं। शायद जब वह सोलह वर्ष की हुई थी तभी से। सासु मां ने कहा था- ''कार्तिक का महीना बड़ा महीना होता है। सुबह-सवेरे मुंह-अंधेरे उठकर स्नान करना चाहिए।'' नई-नवेली दुल्हन ही तो थी वह तब, पांच माह पहले ब्याही थी। पति पंद्रह दिन बाद पढ़ने चले गए थे विलायत। तब सारा दिन 'सास-बहू' बस ऐसे ही परंपरागत विषय, संस्कार और खानदानी रीति-रिवाजों पर बात करती रहतीं। पर्व व त्यौहार मनातीं और व्रत-उपवास रखती समय काट लेती थीं। यही सब परंपराओं के चुपचाप हस्तांतरण की प्रक्रिया के क्षण होते हैं व सुधा ने भी ऐसे ही जाने कितने परंपरागत संस्कारों को कब ग्रहण कर लिया यह उसे भी पता ही नहीं चला। चलता भी कैसे! सासु मां ने उसे कितनी चतुराई से इन सबके चक्कर में उलझा दिया था और तब से अब तक उसका जीवन उलझता ही चला गया। सासु मां उन दिनों 'कार्तिक स्नान' के लिए सुबह-सबेरे उठ जातीं और फिर उसे भी झकझोर देतीं- ''उठ वसुधा, देर हो जाएगी। सूर्य की .ष्टि पड़ने से पहले स्नान कर लेते हैं।''

दिन-भर का थका सद्यःयुवा तन सोया होता है, पर कैसे बताएं सासु मां को कि सद्यःयुवा मन सूर्य की .ष्टि नहीं, अपने सूरज की .ष्टि पड़ने के लिए रात-भर कितना बेचैन था और अभी-अभी ही तो आंख लगी थी। वह आखें मलती उठ बैठती। शीत का आगमन पवन के झोंकों के साथ शीत की मृदुता का आभास देता और लगता, रजाई खींच, दुबककर फिर सो जाए। कार्तिक में नदियों में स्नान का महत्व है और यमुना का घाट लोगों से पट जाता है। शीत की चंचल सुरम्य 'खनक' धरती-आकाश के बीच पसरी कोहरे की चादर और ठंडे जल का स्निग्ध स्पर्श उसके सारे तन-मन को तरंगित कर देता। शिवजी को जल चढ़ाते-चढ़ाते सूर्य की रश्मियां पानी में चमकने लगतीं और तभी सासु मां और वसुधा घर लौट आतीं। शुरू हो जाता एक और दिन-खाली और सपाट। वसुधा को लगता, जब विलायत जाना ही था तो ब्याह क्यों किया उससे? और कर लिया था तो साथ क्यों नहीं ले गए उसे। कब तक यूं ही सासु मां के साथ जाकर यमुना के ठंडे नीले जल में अपने तन-मन को शांत करती रहेगी?

सासु मां उसकी मनःस्थिति को समझतीं और चलते-फिरते सांत्वना के साथ स्नेह की फुहारें छोड़ देतीं। ''वसुधा, भास्कर तो अभी ब्याह करना ही नहीं चाहता था, पर मैंने ही उसे मनाया था। जानती है क्यों?''

''......''

चुपचाप वसुधा आंखें उठा सासु मां का चेहरा देखने लगती।

''इतनी प्यारी बहू के साथ रहने को मिलेगा। बेटे को तो जन्म देते ही प्यार करने लगते हैं, पर बहू तो 21 साल बाद देखने को मिली। उसे भी वो प्यार करने का मन था मेरा।'' और वे उसके माथे पर स्नेह से पूरा हाथ फेर देतीं।

साल गुजर गया विलायत की चिट्ठियां पढ़ते-पढ़ते। सासु मां ने सात पीढ़ियों के पोसे हुए सब संस्कार, तीज-त्यौहार उसके पल्लू में कसकर बांध दिए। पर मन को बांधना वसुधा के बस में नहीं था। एक दिन पूजा की थाली सजाते-सजाते जाने क्या हुआ उसे और उसने थाली अधूरी ही छोड़ दी। नहीं करनी पूजा उसे? सासु मां ने प्रश्न-भरी वक्र नजरों से देखा था उसे। वह छत पर जा पलंग पर पड़ गई थी। नीचे से 'संध्या-पूजन' की घंटियों के स्वर उसके कानों में पड़ने लगे थे। तो आज पहली बार सासु मां ने अकेले ही शाम की धूपबत्ती कर ली। उसे आवाज तक नहीं दी। पड़ी रही वह आकाश ताकती। एकदम खाली और निस्पंद। आंखों के किनारे रुके हुए अश्रुकणों से गीले हो फूलने लगे। शरद की चांदनी में नहाकर, खिला-खिला चांद उसके एकदम ऊपर दिखा और वह खो गई थी उस शरद पूर्णिमा के चांद और चांदनी के खेल में। तो कार्तिक लग गया। पूरा वर्ष गुजर गया- एकदम सपाट-सा वर्ष!

सासु मां अब उससे ज्यादा बातें नहीं करतीं। उसकी आंखों में तैरते उन प्रश्नों का समाधान उनके पास नहीं था। चुपचाप यंत्रवत् दोनों सुबह उठतीं। यमुना स्नान करतीं। दिनभर के आवश्यक काम करतीं और कार्तिक के पूरे होने का इंतजार कर रही होतीं। झिलमिलाती यमुना की तरंगों में वसुधा ने भी कार्तिक की अमावस पर दीप छोड़े। काली अमावसी रात में भी यमुना के जल में तैरते उन असंख्य दीपों की जगमगाहट थी और फिर रात की यात्रा शुरू हो गई। गगन की कालिमा पर सितारों के बीच चंदोवा उतर आया- अमावसी अंधेरे को लीलता हुआ पूनम का चांद, पर वसुधा के जीवन को हरने वाला सूरज अभी भी नहीं आया। वर्ष पूरा हो गया। सास-बहू ने कार्तिक के जोड़े जिमा दिए। चांदी की थाली में झारेदार व्यंजन भरे गए। सासु मां ने मालपुए का थाल भरकर युगल को दान किया तो वसुधा ने घेवर का थाल दिया।

'अगहन' लग गया। कैलेंडर पर दिन तेजी से भाग रहे थे, पर वसुधा के जीवन का कैलेंडर ज्यों-का-त्यों रुका हुआ था। अब वसुधा का मन नहीं लगता। 'अगहन' में शीत की गति कुछ और बढ़ गई। अब मौसम ने मृदुलता को त्याग दिया था और प्रचंडता बढ़ने लगी। वसुधा का भी मन अब अपनी मृदुलता खोने लगा था। वह सासु मां की बातों की उपेक्षा करने लगती। काम पड़ा रहता, वह उठकर कोई किताब पढ़ने लगती। न वह सजती-संवरती, न घर संवारती। सासु मां उसकी मनःस्थिति से चिंतित थीं, अक्सर कोशिश करतीं, ''वसुधा ले ये मेरी लाल चुनरी पहन ले, खूब जंचेगी तुझ पर।''

''रहने दो मां, क्या करना है! किसे दिखाना है चुनरी?''

''अरे चल उठ, विमला जीजी के घर चलते हैं।''

''ना, आप जाओ। मेरा मन नहीं है।''

सासु मां चुप हो जातीं। रात चिट्ठी में खूब डांट लगाऊंगी नालायक को। समझता क्या है खुद को। बेटा है तो क्या? अरे, बहू का दर्द भी तो समझ में आता है मुझे? विलायत भेजने से पहले इसीलिए तो ब्याह करवा दिया था उसका। सोचा था, पत्नी घर में छोड़कर जाएगा तो मन इसी देस, इसी घर की देहरी से बंधा रहेगा। घर जल्दी लौटेगा। अब तो पत्र भी बस सूचना देते हुए से लगते हैं। वसुधा से पत्र की बात करके भी सासु मां का मन डरता है। पत्र पढ़कर उसे दुःख ही होगा सिर्फ एक लाईन लिखी है उस नालायक ने।

''मां आशा है, वसुधा तुम्हारे साथ खुश होगी।''

चिट्ठी उन्होंने ब्लाउज के अंदर रख ली। वे जानती हैं वसुधा ने पोस्टमैन को आते देख लिया था। पर वे चुपचाप अपने कमरे में चली गई।

वसुधा इस बीच दो बार मायके हो आई, पर बाबा उसे फिर छोड़ गए- ''समधनजी अकेली होंगी। वसुधा के बगैर परेशानी होती होगी।''

ऊपरवाले छज्जे में लगे खंभे से टिककर वसुधा शून्य .ष्टि से उस विलायती पेंटिंग को देखा करती, जिसमें सूट पहन कर एक अंग्रेज एक खूब घेरवाली फ्रॉक पहने अपनी प्रेमिका का हाथ पकड़ डांस करवा रहा है। उसे वह पेंटिंग सजीव लगने लगती। सूट पहना आदमी उसे भास्कर नजर आता, पर घेरदार अंग्रेजी फ्रॉकवाली वह बेबी डॉल-सी स्त्री वैसी ही दिखती। इसका क्या मतलब लगाए वह? क्या यही कि भास्कर भी जरूर वहां किसी अंग्रेज लड़की के साथ यूं ही...

कुछ-कुछ साफ होने लगता मन में। कड़ियां जुड़ने लगती हैं बातों और विचारों की। वसुधा को जीवन का खालीपन सजा काटने की तरह लगने लगा था। पूरा वर्ष गुजर गया। फिर एक और वर्ष। फिर एक और कार्तिक की अलस्सुबह ही आंख खुल जाती। सासु मां और वसुधा यमुना के तट तक हो आतीं। पौ फटते ही वसुधा को लगता, एक और दिन खाली, चुपचाप, सफेद कैनवास की तरह फैल गया उसके जीवन में- यह कहता हुआ कि 'वसुधा, इनमें रंग क्यों नहीं भरतीं तुम?'

सासु मां अब वसुधा के सामने फैले सफेद कैनवास से जीवन में सफेद वस्त्रों में लिपटी-सी वसुधा को बेजान-सा महसूस करने लगी थीं। एक ही कमरे में होती तब भी उस अकेलेपन को अपने बाईं तरफ पसरा हुआ पाती। वसुधा सोचती, कितना अजीब होता है यह अकेलापन। यह कभी घटता क्यों नहीं? लगातार विस्तार पाता जा रहा है। इतनी बड़ी दुनिया में सिर पर छत और सासु मां के हाथ के अलावा कुछ नहीं है उसके पास। कुछ भी अपना नहीं है उसका, सिर्फ हताशा के। सांझ की कलसाई-सी उदासी उसके चेहरे पर फैलने लगती। सासु मां देखतीं सामने बैठी आर्द्र, उदास, बैरागी होती उन चपल-चंचल आंखों को जो चितवन के डोरे डालने से पहले टूट-सी गई हैं।

फिर अगहन लौटा। वसुधा ने किताबों में पढ़ा था कि अगहन का महीना तो देवताओं को अतिप्रिय होता है। फूलों की सुवास सब ओर फैल जाती है। अपने घर के सामने नवविवाहित जोड़े की हंसी की मधुर प्रेमयुक्त ध्वनि की गूंज हवाओं के साथ बहकर वसुधा के कानों में टकराती तो वह अपने हाथ कानों पर रख लेती। फिर समय पल-पल, क्षण-क्षण आगे बढ़ने लगा। 'पौष' तथा 'माघ' महीना सब एक-एक आते रहे।

भीषण शीतलहर के बाद सूर्य का महत्व बढ़ जाता है, इसीलिए सूर्य देवता पूजनीय हो जाते। उत्कंठा के साथ उसकी प्रतीक्षा धरती को रहती है, पर क्या करे वसुधा? उसे भी तो अपने भास्कर के लौट आने की प्रतीक्षा है। सुबह-सवेरे जब सूर्य दक्षिणायन हो रहे थे, वसुधा ने महसूस किया- अरुणिम आभायुक्त सूर्य का मनोहारी रूप कैसा उसके आंगन की हरी-हरी दूर्वा पर ठहरे ओस बिंदुओं में दिखाई दे रहा है। उसने दूर्वा को तोड़ा। उस पर लगी ओस की नमी को माथे पर छुआया, फिर आंखें मूंदकर दक्षिणायन होते सूर्य देवता से कहा- ''तुम भी दक्षिणायन जा रहे हो भगवन्, क्या अब उत्तरायण नहीं होंगे? अगर अब उत्तरायण के लिए लौटे तो मेरे भास्कर को भी लौटा लाना।'' धूप में दूर्वा चढ़ाकर उसने आंखें खोलीं तो सामने सासु मां खड़ी थीं।

''वसुधा, भास्कर का कल पत्र आया है, वह अगले माह तक अपना काम खत्म करके आ रहा है।''

''क्या?''

''हां...''

''मां, क्या सूर्यदेवता ने मेरी बात मान ली? अभी-अभी तो मैंने मनौती मानी थी।''

''हो सकता है, वसु!''

जान लौटने लगी थी वसुधा में। अब उसे दूर्वांकुरों पर जमे मोती सुई की नोक पर टिके मोती-से लगने लगते!

और एक दिन दरवाजे पर इसी तरह खड़े थे भास्कर। बिल्कुल दुर्वांकुर की नोक पर जमे ओसकण की तरह। हेमंत ऋतु की दस्तक वसुधा के दिल और दरवाजे पर भी आकर ठहर गई। सासु मां ने दरवाजे पर ठहर अपने सूर्यवंशी पुत्र को देखा फिर दूर्वा-सी नाजुक पर तनकर खड़ी पुत्रवधू वसुधा को देखा। ओस के वे नन्हे कण अब पलकों पर आ बैठे।

''भास्कर... भास्कर... भास्कर... तू आ गया मेरे बच्चे!''

भास्कर ने मां को बांहों में समेटा, फिर चरणों में झुक गया।

वसुधा जहां थी, वहीं ठहर गई। मन कांपने लगा- प्रियतम के उस मृदुस्पर्श की कल्पना से जो बस होने ही वाला है। तो कुहासा छंट गया उसके जीवन से!

पर भास्कर के दरवाजे से हटते ही परछाई-सी अंदर आती दिखी। छज्जे की दीवार पर डांस करती पेंटिंग की-सी लड़की भास्कर के पीछे-पीछे मां के चरणों में झुकी। मां ने अनजाने ही आशीर्वाद का हाथ सिर पर रख दिया था।

वसुधा ने दौड़कर अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया। दीवार पर टंगी वह तस्वीर उसी के जीवन में उतर आई! क्या करे अब वसुधा? जमीन फट जाए तो उसमें समा जाए चुपचाप या चीख-चीखकर पूछे सासु मां से कि तुमने अनजाने ही उसके सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख दिया- यह पूछे बगैर कि वह भास्कर की क्या है! कब पुत्रमोह में अंधी गांधारियां, दुर्योधन को और कुंतियां अपने पुत्रों को सोचे-समझे बगैर गलत आशीर्वाद देती रहेंगी?

उत्तराधिकारी

''मरने के बाद कितना निर्विकार लगता है चेहरा?''

''एकदम निर्मल पानी की तरह स्वच्छ। लगता है बस अभी उठेंगे और आवाज लगाएंगे- समर...''

जिज्जी की निर्मल आत्मा अपने भाई के निर्विकार चेहरे को पढ़ रही थी।

''हां, प्राणविहीन चेहरे निर्विकार ही होते हैं! विकार तो सारे जीवित अवस्था में ही फलते-फूलते हैं।'' न चाहते हुए भी शब्द निकल ही गए थे मेरे मुंह से। जिज्जी ने अपनी गर्दन घुमाकर मेरी तरफ देखा और आंखों ही आंखों में मुझे चुप रहने का आदेश भी दिया। जानती हूं जिज्जी अपने भाई की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने देना चाहती। वे कभी नहीं चाहती थी कि मैं सार्वजनिक रूप से उनके मायके में आऊं और उनकी भाभी से बसे-बसाए जमींदारी कुटुंब में सेंध लगाऊं।

सामने रखा है चादर से ढका शव। शांत चेहरा। त्वचा की चमक अभी ज्यों की त्यों है। शायद ठाकुरों का खून मरने के बाद भी देर तक रगों में दौड़ता है- पानी नहीं बनता! अधखुली बड़ी-बड़ी आंखें मेरी ही तरफ देख रही हैं। एक पल को लगा अभी इशारा करेंगे, ''इधर आओ, वहां क्या कर रही हो। कोई और आनेवाला है का?'' जान-बूझकर पूछा गया यह प्रश्न कितना विचलित करता रहा मुझ पर पलटकर, केवल आंखें तरेरने के अलावा कुछ नहीं कह पाई कभी।

मन में एक बात बार-बार उठ रही थी कि आज तो मैं इस रहस्य को खोल ही दूं। जिज्जी हैं न हमारे संबंधों की गवाह। अपने मरे हुए भाई के सिर पर हाथ रखकर वे झूठ नहीं बोल पाएंगी। अगर आज चुप रही तो शायद अपने बच्चों के लिए न्याय नहीं मांग पाऊंगी कभी।

कितनी बार तुम्हारे चेहरे का स्पर्श किया था, ठाकुर रणवीर सिंह! तुम्हारी ठाकुरी मूंछें मेरे गालों को छील देती थीं कई बार। तब भी मैं खुश थी तुम्हारा साथ पाकर। जवान देह उस वक्त कितनी कसमसाती थी अपने ही बंधनों में बंधकर। बंधन खोलती भी तो देह की स्वतंत्रता का मोल करने वाला तो जिज्जी के आम के बाड़े में डले हिंडोले पर पड़ा चिलम में भरकर गांजा फूंकता खांसते-खांसते सारी रात वहीं काट देता था। कितनी बार हिंडोले से खींचकर खोली तक लाई उसको, पर हाड़-मांस के उस मरद की मर्दानगी में मर्द का स्पंदन था ही नहीं, वह वहीं पसर जाता खर्राटे भरता। चिलम-गांजे की गंध पूरी खोली में फैल जाती, तब धड़कता सीना ले गुस्से में पैर पटकती मैं ही अमराई के हिंडोले पर पहुंच जाती और हिंडोले की चरर-चूं फिर शुरू हो जाती। पड़ी रहती मैं खुले आसमान में, तारे गिनती अधूरी ख्वाहिशों की वेदना लिए।

ठाकुर रणवीर सिंह आज इतने साल तुमसे संबंध रहने के बावजूद तुम्हारी मृत देह मुझे अंदर से तोड़ भी रही है और जोड़ भी रही है- तोड़ इसलिए रही है कि मैं ठकुराइन की तरह तुम्हारा गम सबके सामने नहीं मना सकती... पत्नी न कहलाने की पीड़ा तुम नहीं समझोगे ठाकुर... पर मैं टूटकर भी जुड़ी हुई हूं। मेरे माथे पर सिंदूर ज्यों का त्यों है। मेरे पास दो नन्हे ठाकुर हैं जिनके चेहरे की बांछें अभी से तुम्हारी तरह लगने लगी हैं। पत्नी होकर भी ठकुराइन ने बेटियां ही जनी थी तुम्हारा वीर्य मेरे अंदर ही जाकर वंशवृक्ष उगा पाया था.. और इस मायने तो मैं ठकुराइन से ऊंची ही रही ना? बड़े गर्व से कहते थे न ठाकुर रणवीर सिंह! ठाकुरों की शान उनकी हवेली होती है। आज तुम्हारी इस ऊंचे बुर्जवाली हवेली पर दीया धरने वाला कोई नहीं। तुम्हारे नाम का दीया मेरी खोली के बाहर मेरा बेटा ही धरेगा ठाकुर रणवीर सिंह।

तुम्हारी जिज्जी तुम्हारे चेहरे को निर्मल, निर्विकार कह रही है... पर ठाकुर रणवीर सिंह मुझे लग रहा है तुम्हारा चेहरा असहनीय वेदना से भरा हुआ है। तुम्हारे हाथ बार-बार फड़क उठते हैं अपने बेटों को कलेजे से लगाने के लिए। लोगों की बातें तुम्हारे भी कानों में पड़ रही होंगी। जितने लोग उतनी बातें। पर सबसे बड़ा आश्चर्य मुझे ही हो रहा है लोगों की बातें मुझे विचलित कर रही हैं- शायद तुम्हारी आत्मा को भी कर रही होंगी। कहते हैं मरने के बाद आत्मा देह के आसपास और दस दिन तक घर के दरवाजे पर ही खड़ी रहती हैं। गरुड़ पुराण का पाठ इसीलिए रखा जाता है। तभी तो लोग मरने वाले के घर जाकर उसकी अच्छाइयों को याद करते हैं- तो तुम भी यहीं कहीं किसी कोने में अ.श्य बैठे लोगों की बातें सुन रहे हो न ठाकुर! आश्चर्य इस बात का है कि ठकुराइन इन बातों से विचलित नहीं है। एक .ढ़-आत्मविश्वास से भरा भाव उनके चेहरे पर है। उनका चेहरा मैंने ऐसे समय एकदम करीब से देखा जब लोग दयनीयता की हद तक घबरा जाते हैं। जानती और समझती भी हूं यह पल उस स्त्री के लिए असहनीय वेदना का ही है पर जाने क्यूं ठकुराइन के चेहरे पर उसके भीतर की वेदना की जगह भीतर की निश्ंिचतता उठकर बाहर आ रही है। क्या ठाकुरों की स्त्रियां भी अंदर से इतनी सशक्त होती हैं? तुम तो इतने सशक्त नहीं थे तभी तो परस्त्री की देह को देखते ही कमजोर पड़ते चले गए। हां, तुमने मुझे भी अपनी बलिष्ठता के अंश दिए थे। तुम्हारे शरीर की कठोरता से टकराकर मेरे कोमल अंग कितने तरंगित हुए थे। तुम बांके जवान से कम नहीं थे। ठाकुर, तुम्हारी बड़ी-सी लाल पगड़ी को अपना घूंघट बनाती मैं तुम्हारे गर्म होठों को अपनी पलकों पर अभी भी महसूस कर सकती हूं। तुम्हारे चेहरे पर झलकते पसीने की बूंदों को सीप के मोती की तरह अपने होठों से समेटा है मैंने। मेरे आंचल में दुबकता तुम्हारा वो शिशु-सा मचलता चेहरा मुझे कितनी तृप्ति, कितनी संपूर्णता का अहसास दे गया पर मैं अभागी तुम्हारे नाम का दुख नहीं मना सकती... क्या यही मेरे किए की सजा है?

तुम्हारे बीज ने मेरे अंदर ठकुराइन से ज्यादा ठसक भर दी थी। एक बार आंखें खोलो ठाकुर, देखो, अपने उत्तराधिकारियों को। क्या मैं इनका हक मांग सकती हूं ठकुराइन से... एक बार हमारे भविष्य का सोचते तो तुम। क्या ये तुम्हारे उत्तराधिकारी होकर भी जिज्जी की आम की बाड़ी में कंचे-गिल्ली खेलते कच्ची केरी की तरह धूप में पकेंगे। तुम इन्हें इनकी सही जगह तक पहुंचाकर तो जाते। अब तक मेरे लिए जीवन सतत और बहती अंतर्धारा था। इसीलिए आमबाड़ी के उस चौकीदार के पानी में खारापन नहीं होने के बावजूद मैं उसके साथ जीवन जी रही थी। दाल-रोटी पकाते और आमबाड़ी के तोते उड़ाते, पर तुमने मुझे जीवन का अर्थ दिया। मेरे जीवन को सार्थकता दी रतिदान देकर। हां! स्त्री पूरी ही तब होती है जब उसकी कोख में चाहत का बीज पड़ता है। पर दुर्भाग्य मेरा... मैं तो तुम्हें रोकर श्रृद्धांजलि भी नहीं दे सकती।

तुम पत्नी के प्रति एक गर्व से भरे क्यूं रहते थे ठाकुर? जबकि तुम पत्नी के प्रति वफादार नहीं रहे थे। तब भी पत्नी का नाम तुम्हारी मूंछों पर ताव देता था। कितनी बातों का रहस्य पहेली की तरह अबूझा ही रह गया। कितनी बातों का दर्द मुझे साल रहा है अभी इसी भावुक समय में। तुम खाट-पलंग से नीचे कभी नहीं बैठे पर आज तुम्हारी देह इस तरह जमीन पर नहीं रखनी चाहिए थी ठकुराइन को। मैं तुम्हें तुम्हारे उसी मान-सम्मान से देखना चाहती हूं रणवीर सिंह, हां! एक बार, सिर्फ एक बार शायद आखिर बार... मैं तुम्हें संपूर्ण रूप से स्पर्श करना चाहती हूं - आंखों में जब्त करना चाहती हूं उस देह के सौंदर्य को। हां, मैं सदा के लिए तुम्हें अपने अंदर महसूस करना चाहती हूं। थरथराते कंठ से तुम्हें बार-बार पुकारना चाहती हूं ठाकुर रणवीर सिंह। पर कौन इजाजत देगा? 'चल उठ, कौशल्या।' जिज्जी ने हाथ पकड़कर झकझोरा था।

''जिज्जी बाईसा ठाकुर मरे नहीं हैं देखो। अधखुली आंखों की चमक।'' रुलाई का रुका बांध जिज्जी के कंधे लगकर फूट ही पड़ा था। कब से रोके थी इसे मैं... मौत के इस सन्नाटे में, पर अब कितना कुछ पिघल रहा था कलेजे में। भय-शोक! विलाप! विरह! चिंता! जाने कितने अपरिभाषित अहसास थे मन में।

''रोने से ठाकुर भाई की आत्मा को कष्ट होगा, कौशल्या। शरीर नश्वर है सभी को त्यागना है।'' देख मुझे, मेरा तो भाई था वो। पर पिता, पति, जवान बेटा और अब भाई खोते हुए जैसे आंखों का पानी ही सूख गया है। चल हट, यहां गाय के गोबर से लीपना है। अर्थी की तैयारी यहीं होगी न।'' जिज्जी की सांत्वना के शब्दों में पहली बार कोमलता का भाव था, पर ठकुराइन की आंखें जिज्जी को इशारा कर रही थीं, इसे अंदर ले जाओ।

तुम्हारे नाम का दीपक अपनी पूरी लौ के साथ जल रहा है। जिज्जी ने अगरबत्तियां और जला दी हैं। नई पगड़ी, नए कपड़े सब तैयार हैं ठाकुर, पर यह सब उस यात्रा के लिए है जहां तुमने मृत्यु को वरा है।

मेरा सपना तो अधूरा ही रह गया कि तुम लाल मारवाड़ी लहरिएदार साफे में आकर मेरा वरण करोगे। कटार भी रख रही है जिज्जी तुम्हारे साथ। हां, यह वही कटार है जिससे तुमने मेरी खोली के बाहर लटकी आम की डाली काटकर मेरे टपरे पर फेंकी थी मजाक करते हुए, ''लो कौशल्या!'' मैंने तुम्हारे दरवाजे पर तोरण मार दिया, अब तुम मेरी हुई।''

मैं तुम्हारी हो गई थी ठाकुर। मेरे टपरे का वो हकदार तब जाने कहां गायब हो जाता था। झूले की चरर-चूं तब तक बंद रहती थी जब तक तुम उधर होते थे। शायद जिज्जी उसे दूसरे खेतों पर भेज देती थी। जानते हो ठाकुर वो भी आया है तुम्हें विदा देने। क्या पता, अंदर से खुश होगा कि उसकी जिंदगी से तुम हमेशा के लिए चले गए हो या हो सकता है वो तुम्हारे सम्मान में ही आया हो अहसान का कर्ज उतारने। कहा भी था मैंने उससे कि ''अहसान मानो ठाकुर का, उसने तुझे नामर्द की पगड़ी बंधने से बचा लिया। ये बच्चे तेरे ही नाम से तो पल रहे हैं तेरे घर का चिराग बनकर।''

तब से उसने फिर कभी नहीं पूछा कि ठाकुर आमबाड़ी में बार-बार क्यों आता है। उसने आंखों से जो भी कहा हो पर जबान से कुछ नहीं कहा। हां, इतना जरूर कहा था, ''चल कौशल्या, तेरे हाथ की रोटी तो मिल रही है वरना तू घबराकर भाग जाती तो?'' तब शायद अंदर ही अंदर वह खीझा, अकुचाया और अपमानित भी हुआ होगा पर एवज में ठाकुरों की मर्दानगी भरे दो पुत्रों ने उसकी पीठ का घोड़ा बना उसके कंधों पर बैठ कच्ची अमिया तोड़ उसके कंधों को पितृत्व के भार से भर दिया था शायद। बच्चे उसके जीवन की ललक बन गए हैं। रोटी के दो निवाले भी बच्चों के बगैर गले के नीचे नहीं उतार पाता है। बच्चे भी उसी के सिरहाने अगल-बगल सोते हैं- अब वह हिंडोले पर रात नहीं काटता। खोली में अपने बच्चों को किस्से-कहानियां सुनाता है। दहाड़ मारते हुए किसी के रोने की आवाज ने मेरी तिंद्रा भंग की, ''कौन आया है यह?''

''ठाकुर बा की बड़ी बेटी है।''

''ओह! नाक-नक्श तो ठाकुर जैसे ही हैं।''

''हां, बच्चे तो मां-बाप पर ही जाते हैं।''

''चलो, सब खड़े हो जाओ, समय हो गया है। बिटिया की ही बाट जोह रहे थे सब।'' मंदिर के पुरोहितजी ने यह कहते हुए गंगाजल के छींटे मारते हुए मंत्रोच्चार शुरू किया पर एक प्रश्न था जो वहां गेंद की तरह उछल रहा है। कभी कोई तो कभी कोई हेरफेर से पूछ रहा है...

''ठाकुर को अग्नि कौन देगा?''

कभी नाम आता छोटे चचेरे भाई का, तो कभी दामाद कुंवर धर्मवीर का। मन बार-बार बोलते चुप हो जाता कि ठाकुर की संतान है, बेटे हैं। जब कंडे को उठाने का वक्त आया तो ठकुराइन की आवाज ने सबको चौंका दिया था। ''कौशल्या के बड़े बेटे को मैं गोद लेती हूं, वही देगा ठाकुर को मुखाग्नि।''

''क्या?''

''हां!''

''क्या अनर्थ कर रही हो ठकुराइन! जानती हो इसका अर्थ?'' ठाकुर माँ साब लकड़ी की टेक ले खड़ी हो गई थी।

''ठाकुर अपनी वसीयत में लिख गए हैं कि मैं ठकुराइन सुभद्रा देवी पत्नी ठाकुर रणवीर सिंह जब भी जिस किसी बच्चे को गोद लूंगी वही सुभद्रा देवी का दत्तक पुत्र होगा और वही मेरी ठाकुर हवेली का उत्तराधिकारी भी बनेगा।''

''अगर कौशल्या तैयार हो तो मैं उसके बड़े पुत्र जयसिंह को समाज के सामने आज से दत्तक पुत्र मानती हूं।''

मैं सकते में आ गई थी ठाकुर रणवीर सिंह। आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं था। क्या यह चमत्कार था? अब तक मैं अपने बच्चों को तुम्हारा उत्तराधिकारी बताने को आतुर थी पर अचानक ठकुराइन के इस वार से आहत अपने बेटों को अपनी देह से सटाए खड़ी रह गई। क्यों अब नहीं चाहती मैं कि ये तुम्हारी हवेली के उत्तराधिकारी कहलाएं? मेरे अंदर की मां जागृत हो उठी थी शायद। ''नहीं ये मेरे बच्चे हैं ठकुराइन, ये ठाकुरों के बाड़े में बंधे बैल नहीं हैं कि जब तुम चाहे इधर से उधर बांध लो।''

''ये बच्चे मेरे और आमबाड़ी के चौकीदार रतनसिंह के बच्चे हैं- हमारे जीवन का आसरा... इन्हें किसी हवेली का उत्तराधिकारी नहीं बनना।''

रतन ने दोनों बेटे अपने कंधे पर बिठा लिए थे। 'चल, कौशल्या घर चलते हैं।' कहते हुए।

अब जिज्जी उठ खड़ी हुई थी, ''कौशल्या, ठकुराइन को तेरे सहारे की जरूरत है। देख, सुख के तो सब साथी होते हैं जो दुःख में साथ दे, वही सही अर्थों में अपना होता है। ठकुराइन पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा है, उसे तेरी सहायता चाहिए। एक ही बेटा तो मांग रही है वह। एक तो तेरा और रतन का ही रहेगा न।''

''तो क्या मेरा एक बेटा राजा बनेगा और एक रंक?''

''नहीं! कौशल्या, ऐसा नहीं होगा सिर्फ एक के माता-पिता का नाम बदलेगा। पालन-पोषण दोनों का एक साथ एक जैसा इसी हवेली में, तू और रतनसिंह ही करेंगे।''

''मैं आज से हवेली का पिछला हिस्सा रतनसिंह को देती हूं। तुम दोनों यहीं आकर रहोगे। अपने बच्चों के साथ।'' ठकुराइन ने यह कहते हुए ठाकुर की अर्थी के पास अपने चूड़े-बिच्छे उतारकर रख दिए। अब मेरी बारी थी। ठाकुर तुम्हारे प्यार को याद कर मुझे भी तुम्हें कुछ देना था। मैंने रतनसिंह को देखा उसने दोनों बेटे तुम्हारे चरणों के पास खड़े कर बच्चों को आदेश दिया था, ''छोरों अपने धरमपिता ठाकुरजी का पाँव लागो।''

जिज्जी के चेहरे पर भावों का एक युद्ध समाप्त हुआ। तुम्हें तुम्हारे ही बेटे ने मुखाग्नि दी।

बैंगनी फूलों वाला पेड़

चाणक्यपुरी वाला हमारा सरकारी बंगला, जहां दिल्ली, दिल्ली है ऐसा कम ही लगता। साफ-सुथरा वीआईपी एरिया। इतनी हरियाली दिल्ली के किसी और इलाके में शायद ही देखने को मिले। हमारे घर के सामने तो जैसे सघन अशोक वाटिका ही बनी थी। यह एक हरा-भरा सरकारी बगीचा है। बगीचे में तमाम तरह के पेड़-पौधे हैं, पर मेरी .ष्टि में बगीचे में सबसे खूबसूरत पेड़ वही है जिसके ऊपर गर्मी-भर बैंगनी रंग के फूल खिलते हैं। हर बार जब भी वह पेड़ बैंगनी फूलों से लद जाता, मैं उसका नाम जानने को उतावली होती-कई बार किताबों, पत्र-पत्रिकाओं के पन्ने पलटती, शायद इस पेड़ का वर्णन या फोटो दिख जाए, पर आज तक नहीं जान पाई इसका नाम। लंबे तने वाले इस पेड़ के शीर्ष पर फैले छोटे-छोटे जामुनी रंग के फूल और कलियों के गुच्छे मुझे किसी ग्रामीण स्त्री की वायल की फूलों वाली चुनरी जैसे लगते। घर के बाईं तरफ वाली खिड़की खोलते ही ध्यान उधर चला जाता। काफी बड़े क्षेत्र में पेड़ की छत्रछाया फैली हुई। गुलमोहर जैसे आकार-प्रकार के इस पेड़ पर तरह-तरह के पंछी अपना बसेरा बनाए रहते हैं। फागुन के बाद तपती दोपहर में जब ज्यादातर पेड़ पतझड़ का गम मना रहे होते हैं या फिर अंगारे जैसे सुर्ख रंग के फूलों से धधकते लगते हैं ऐसे में शांत बैंगनी रंग के फूलों से ढका यह पेड़ आंखों और दिल को सुकून देता है। पेड़ के नीचे ज्यादातर छांव रहती है शायद इसीलिए वहां एक बेंच भी लगी है। अक्सर राहगीर उस बेंच पर सुस्ता लेते हैं। शाम को मोहल्ले के कुछ बुजुर्ग एकत्र होते हैं। बहुत बार मेरा भी मन करता उस ठंडक में जाकर कुछ बिखरे बैंगनी फूल उठा लाऊं।

एक दोपहर जब गर्मी अभी शेष थी और ठंडी-गरम मिली-जुली हवा स्पर्श कर रही थी, मैं सोनरंग की वायल में फूल टांकती अपने कमरे में बैठी थी। खिड़की खुली थी और रेडियो पर मेरा मनपसंद गजलों का कार्यक्रम बज रहा था-उस भरी दोपहर में खिड़की से मेरी नजर पेड़ की तरफ गई तो मैंने देखा, पेड़ के नीचे एक लड़का और एक लड़की बैठे हैं। वे दोनों अपने-आप में ही मग्न थे-जाने क्यूं अच्छा लगा उन्हें देखकर, मैं कुछ देर देखती रही। फिर अनायास ही मैं मुस्करा उठी और खिड़की बंद कर, आंखें मूंद लेट गई। लड़का और लड़की खयालों में ही रहे-प्यार की गुनगुनी दोपहर ऐसी ही होती है- एक राहत भरी छांह को तलाशती हुई। धुंधलाती स्मृतियों में ऐसी ही किसी दोपहरी में बरसों पहले एक ग्रीटिंग कार्ड स्केच के ऊपर लिखी गुलजार की पंक्तियों का शब्द-शब्द याद आने लगा-

याद है, एक दिन

मेरे मेज पे बैठे-बैठे

सिगरेट की डिबिया पर तुमने

छोटे-से इस पौधे का

एक स्केच बनाया था!

आकर देखो,

उस पौधे पर फूल आया है!

जब-जब भी अपने बगीचे के आम पर बौर आते रहे ये पंक्तियां याद करती रही... हां, चुपचाप पौधे पर फूल खिलते रहे। यह विचार उठता रहा कि यह पेड़ इन पंछी जैसे लड़के-लड़की को भी एक बसेरा बसाने का सुंदर सपना दे रहा है। करवट बदल सोने की कोशिश करती, पर थकान के बावजूद नींद नहीं आनी थी, न आई! सधे रिकॉर्ड की तरह दिमाग पर कुछ विस्मृत तरंगें उठने लगीं। मैं बेचैन अहसास के साथ फिर करवट बदलती हूं, पर लगा, वह लड़का और लड़की और वह बैंगनी फूलों वाला पेड़ मेरे स्मृति-पटल से विस्मृत होने के भ्रम की धूल झाड़ रहे हैं- क्या हो गया है मुझे? उठकर बैठ जाती हूं। एक कुनमुनाहट-सी भीतर रेंगने लगती है। मैंने खिड़की खोल दी। तपी हुई हवा का एक झोंका घर में प्रवेश कर गया। मेरी नजरें फिर पेड़ के नीचे गईं, अब लड़का और लड़की जा चुके थे। वहां कोई नहीं था। उस रिक्त हुए स्थान पर कुछ बैंगनी फूल झड़े हुए थे। फूल मुस्करा रहे थे। शायद प्यार की उनकी छोटी-सी मुलाकात का अहसास वहां मौजूद था। मैं पलटी, रेडियो पर अंतिम गजल बज रही थी-

पसीने-पसीने हुए जा रहे हो,

तुम दोनों कहां से चले आ रहे हो...

जगजीत सिंह चित्रा सिंह के प्यार की सारी कशिश उनके स्वर में उतर आती है। उठकर मैं किचन में गई और चाय बनाकर ले आई। खाली घर में जाने क्यूं लगने लगा, मैं अकेली नहीं हूं। एक अहसास है जो मेरे साथ-साथ चल-फिर रहा है। चाय का कप पकड़े-पकड़े खयाल आया कि लंबे अरसे बाद आज फिर दोपहर में चाय की तलब? क्या मतलब है इसका? नौकरी छोड़ने और शादी होने के बाद से दोपहर में चाय तो मैंने पी ही नहीं थी।

अगला दिन-फिर वही दोपहर, वही मैं और मेरा खालीपन। आम के पेड़ पर तोते बोल रहे थे-उनकी आवाज के साथ मैं कमरे से बाहर आ गई और आम के पेड़ के नीचे चली गई। एक अलग ही अहसास फैलने लगा मेरे वजूद पर। आम की पत्तियां तोड़कर हथेली पर मसल डाली, पत्तियों की महक अच्छी लगती है मुझे। यादों की महक-सी छाने लगी मुझ पर...तुम कितना चिढ़ते थे, मेरी इस आदत पर...सारे हाथ गंदे कर लेती हो तनु, एलर्जी हो जाएगी। मैं इन पत्तियों को सूंघती थी और छींकें तुम्हें आती थीं। कितना सुखद होता था वो लंच टाइम जब हम चाय की गुमटी के पीछे वाले आम के पेड़ों के झुरमुट के नीचे जा बैठते थे। तुम मेरे लंच बॉक्स में रोज आम का अचार देखते ही मुस्कराने लगते थे। ''तनु, थोड़े आम के पत्ते घर ले जाओ, सब्जी बना लेना। तुम्हारा बस चले तो तुम आम के पत्ते भी खाने लगोगी।

''हां तो, तुम्हें भी खिलाऊंगी, क्या बिगाड़ा है आम के पेड़ ने तुम्हारा? बैठते तो रोज यहीं हैं?''

''अच्छा, बाबा अच्छा है, जनाब यह छत्रछाया आपकी है हम पर खट्टी-मीठी।''

''हां, अब आई अकल।''

''अच्छा तनु, अगर ये नीम का पेड़ होता तो क्या तुम निंबोली का अचार डालतीं?''

''हां डालती, 'प्रणव छाप निंबोली अचार'। डालती और तुम्हें ही खिलाती, समझे! ''

''प्रणव, तुमसे अलग हो यादों की निंबोली ही तो समेट रही हूं...''

अगली दोपहर फिर तोते मेरे बगीचे के अमरूद कच्चे ही गिराकर उड़ गए। मैं अमरूद उठा अंदर आने लगी अनायास ही नजर सामने वाली बेंच पर चली गई। आज फिर वही लड़का और लड़की वहां आकर बैठे थे। मैंने घड़ी पर नजर डाली - एक बजकर तीस मिनट। ओ...लंच टाइम! मैं कमरे में आ गई। रेडियो ऑन किया, दर्द-भरा एक अहसास बहने लगा-

हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू

हाथ से छूके इसे रिश्तों का इलजाम ना दो

सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो-

मैं चाहकर भी आज खिड़की बंद नहीं कर पाई।

आज शनिवार, सेकंड शनिवार। विनय का ऑफ होता है और मेरा फुलडे वर्किंग डे। विनय का सब काम आराम से करने का दिन। विनय सुबह गार्डन ठीक करते हैं, फिर अखबार और बार-बार चाय। एक बजे लंच। किचन समेट मैं कमरे में आई रेडियो ऑन किया और खिड़की खोली।

पेड़ के नीचे वही लड़का-लड़की आकर बैठे थे। विनय ने मुझे टोका, ''क्या तनु, भरी दोपहरी में खिड़की से गरम लपट आएगी।''

मैं अपनी धुन में थी, बोल पड़ी, ''नहीं विनय, पिछले कुछ दिनों से मैं जब भी ये खिड़की खोलती हूं, एक पॉजिटिव एनर्जी कमरे में आती है। एक ऐसा अहसास जो दोपहर के मेरे अकेलेपन को बाँट लेता है। सामनेवाले बैंगनी फूल दोपहर की गर्मी को छांट देते हैं और गाने सुनते दोपहर कट जाती है।''

''अच्छा!'' विनय मुस्करा उठे। ''तुम औरतें भी ना, पॉजिटिव एनर्जी के रास्ते ढूंढ ही लेती हो, जैसे चाय के प्याले, रेडियो के बोर करते गानों में...''

''आप भी ना... बस हर बात का मजाक बना देते हैं।''

विनय उठकर मेरे पास आ गए। हाथ में चाय का प्याला देखकर बोले, ''अच्छा! तो दफ्तर वालों की तरह घरवालियां भी लंच टाइम में चाय पी लेती हैं। पॉजिटिव एनर्जी वाली।'' विनय भी खिड़की के पास मेरे साथ आ खड़े हुए थे।

''ऐ...तनु, देखो, तुम्हारे बैंगनी फूलों वाले पेड़ के नीचे प्यार की कोंपलें फूटने लगी हैं।'' ये चहककर बोले।

''हां, आजकल यह जोड़ा रोज ही आकर यहां बैठता है।''

''तो पॉजिटिव एनर्जी यहीं से आती है!'' विनय मुस्करा उठे।

मैं खिसिया गई जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो।

''आप भी ना...''

विनय ने मुझे बांहों में समेटते हुए, आंखें मूंदकर कहा, ''सदियों से एक ही लड़का है, एक ही लड़की है, एक ही पेड़ है। दोनों वहीं मिलते हैं, बस, नाम बदल जाते हैं और फूलों के रंग भी। कहानी वही होती है। किस्से वही होते हैं। पेड़ कभी-कभी गुलमोहर का होता है या बैंगनी फूलों वाला, क्या फर्क पड़ता है। द एंड सभी का एक-सा ही...''

विनय खिड़की बंद कर लेट गए। पास ही के तकिये पर करवट बदलते हुए मैं महसूस कर रही थी। विनय के अंदर भी यादों का कोई पन्ना खुल गया है शायद। तो क्या, बैंगनी फूलों वाले पेड़ ने इनके अंदर भी स्मृतियों के विस्मृत होते किसी पन्ने की धूल झाड़ दी ? मेरे आम के पेड़ का राज समझते हुए इन्हें कोई गुलमोहर याद आ गया। रेडियो ऑन किया...शुरू हो रही थी गुलजार साहब की एक नई नज्म :

मैं कायनात में, सय्यारों से भटकता था

धुएं में, धूल में उलझी हुई किरण की तरह

मैं इस जमीं पे भटकता रहा हूं सदियों तक

गिरा है वक्त से कट के जो लम्हा, उसकी तरह

मैंने उठकर देखा, खिड़की से, जोड़ा चला गया था। शायद कल फिर मिलने का वादा लेकर।

मुट्ठी में बंद चॉकलेट

अभी ठीक से नींद खुली भी नहीं थी कि किसी ने फोन घनघना दिया। एक बार तो मन में आया, बजने दूं अपने आप बंद हो जाएगा। सुबह-सुबह कौन नींद खराब करे। सर्द रात में सुबह-सुबह ही तो अच्छी लगती है नींद, जब बिस्तर गरमा जाता है रातभर में। एक बार बाहर निकले कि गई गरमाहट।

''लो तुम्हारा फोन है...'' माथे पर होठों का स्पर्श करते हुए मलय ने जगाया था।

इतनी सुबह...उ... ऽऽऽ...कौन है?

''तुम ही देख लो।''

''हैलो, जन्मदिन मुबारक हो!''

''थैंक्यू, थैंक्यू! मैं हांफने लगी बगैर दौड़े ही।

''मैं आ रहा हूँ दिल्ली, आज का दिन तुम्हारे साथ बिताने...।'' उधर से आई आवाज में पिछले पैंतालीस सालों का अपनापन चाषनी की तरह भरा था।

''व्हॉट....तुम....दिल्ली...क्यूं?''

''आज तुम्हारा पचासवां जन्मदिन है, याद है बचपन में एक बार मैं तुम्हारा जन्मदिन भूल गया था।''

''हां तो ?''

''तब तुम्हारा गुस्सा...तौबा-तौबा!''

'' ऽऽऽ...।''

'' तब तुमने वादा लिया था कि तुम्हारा जन्मदिन कम से कम पचास साल तक नहीं भूलूं... तो कैसे भूलता यह पचासवां जन्मदिन?

''ओह! तुम भी ना ...।''

मैने फोन रख दिया। अच्छा हुआ मलय अखबार और मेरे लिए चाय का प्याला लेने चले गए थे, वरना झूठ बोलना मुश्किल होता।

उठकर बैठी तो पंलग के पास ड्रेसिंग टेबल पर एक गिफ्ट पैक और गुलाब के फूल रखे थे और जनाब चाय लिए खड़े थे।

''हैप्पी बर्थ, डे...।''

''मैं तो भूल ही गई थी, वो तो अभी...'' बोलते-बोलते चुप हो गई थी मैं।

''किसका फोन था?''

''मेरे ऑफिस... वो नया कम्प्यूटर इंजीनियर आया था न संजीव, उसी का।''

''ओह! तो जनाब हमसे पहले बाजी मारना चाहते थे बर्थ-डे विश करके...क्यूं?''

''आप भी न मलय...बाज नहीं आएंगे, अपनी मसखरी से ! ''

''पर बर्थ-डे बेबी... हमने तो रात में बारह बजे ही बर्थ-डे विश कर दिया था...हमसे नहीं जीत सकता कोई !'' मलय मजाक ही मजाक में अपनी बात कह गए थे।

''क्या मलय आप भी...वो मुझसे दस साल तो छोटा होगा उम्र में, मेरे बेटे से थोड़-सा बड़ा दिखता है बस... '' पर थैंक्स संजीव, तुम्हारा नाम याद आ गया वक्त पर, वरना मलय को बताती कि फोन शेखर का था... तो उनका मूड सारा दिन ऑफ रहता। वो आ रहा है यह बता देती तो शायद पूरे हफ्ते या शायद पूरे महीने ही...

मलय से झूठ बोलना इतना आसान नहीं और झूठ बोलना भी कौन चाहता है? पर कभी-कभी अनचाही परिस्थितियां आदमी को झूठ बोलने पर मजबूर कर देती हैं। घर की शांति बनी रहे और जिसके साथ जीवनभर का रिश्ता है उसे दुःख भी न पहुंचे, यही सोचकर झूठ बोलना पड़ा। मलय और शेखर मेरे जीवन के दो किनारे बन कर रह गए और मैं दोनों के बीच नदी की तरह बहती रही जो किसी भी किनारे को छोड़े तो उसे स्वयं सिमटना होगा। अपने अस्तित्व को मिटाकर, क्या नदी कभी किसी एक किनारे में सिमट कर नदी रह पाई है? बचपन का एक साथी सपनों का हमसफर ही बन पाया था कि दूसरा जीवनभर के लिए हमसफर बन गया। एक ने सात फेरे में सात जन्मों के वचन ले लिए तो दूसरा छूटते हाथ से केवल एक वादा ही कर पाया था जब भी मिलेंगे अच्छे दोस्त बनकर ही मिलेंगे। जीवन के हर सुख-दुःख में अ.श्य साथ खड़े रहेंगे। वादे के साथ तमाम लक्ष्मण रेखाएं दोनों ने अपने बीच खींच ली थीं, और उम्र के पचास सालों में कभी नहीं लांघा और लांघने से मिलना ही क्या था? एक-दूसरे की नजरों में हमेशा सम्मान देखने की इच्छा से ज्यादा शायद कुछ नहीं चाहा था हमने। मर्यादा की लक्ष्मण रेखाएं अ.श्य होती हैं। दूसरे कहां देख पाते हैं! रिश्तों की मर्यादा को देखने से ज्यादा जरूरी होता है समझना! पर उसके लिए अंतर्.ष्टि चाहिए। उसने कितनी सच्चाई से, खुलेपन से मलय को बताया था कि शेखर उसका बचपन का दोस्त है।

पर मलय ने शेखर को वह सम्मान नहीं दिया जिससे वह पारिवारिक रिश्तों में जगह पा सके और तब से शेखर से बात होती भी तो वह बताने से टाल जाती। एक औपचारिकता भर गया था दिल से जुड़ा यह रिश्ता।

और फिर पिछले सालों से तो लखनऊ छोड़ ही दिया था उसने, मलय का प्रमोशन दिल्ली होते ही। शेखर से बस कभी-कभार ही फोन पर बात होती। आठसाल पहले लखनऊ छोड़ते वक्त मुलाकात हुई थी कॉफी हाऊस में। शेखर ने विदाई भोज का निमंत्रण भी दिया था पर अगली बार कहकर टाल दिया था। जानती थी मलय नहीं जाएंगे और मैं अकेले कहीं नहीं जाती लंच या डिनर पर।

इन आठ सालों में कितना कुछ था जो बैठकर बांटना था शेखर के साथ। बाबूजी के जाने के बाद एक वही तो है जिससे कई मसलों पर राय-मशवरा करने से राहत मिलती है मन को। मलय की और बच्चों की शिकायतें, मलय की अच्छाइयां, भाई-बहनों से बढ़ती दूरी, चचेरे, ममेरे रिश्ते वह बचपन से सभी विषयों पर शेखर से बात करती रही है। मलय मेरे जीवन, मेरे घर हर क्षेत्र से जुड़े हैं, कोई भी बात मलय को बताने से वे प्रभावित होते हैं और मैं नहीं चाहती कि मलय परेशान हों। शेखर को बताने से वह अभिन्न मित्र होने के बावजूद एक द्रष्टा की तरह उस बात को देखता और राय देता है। एक अंतर्.ष्टि की तरह जरूरी होता है जीवन में ऐसा द्रष्टा। नाश्ता और खाना बनाते-बनाते मैं अनमनी-सी ही रही। एक उथल-पुथल थी मन में।

हजारों किलोमीटर का लंबा सफर तय करके कोई मुझे पचासवें जन्मदिन पर बधाई देने आ रहा है... इस ख्याल ने उम्र को सोलहवें साल-सा खुशनुमा बना दिया। पर मन ही मन कुढ़ती रही, क्योंकि पचास साल की उम्र में भी मैं एक पढ़ी-लिखी कामकाजी आधुनिक स्त्री सामाजिकता के दायरों में भी वही परंपरागत डरपोक भारतीय नारी जो पति की पसंद-नापसंद से आगे कोई सोच नहीं रखती। भीरू स्त्री जो घर को शक के दायरों से बचाने और अपने संतानत्व को सिद्ध करने से ज्यादा कोई हैसियत नहीं रखती। पच्चीस साल की बेटी, बीस साल के जवान बेटे की मां जो परिवार के हर सदस्य के जन्मदिन पर उनके दोस्तों को दावत देती रही पर अपनी उम्र के पचासवें वर्ष तक अपनी पसंद के एक व्यक्ति को चाय पर भी घर आमंत्रित नहीं कर सकी। मलय से बात करूं या न करूं, इसी ऊहापोह में अनिर्णय के साथ दफ्तर जा बैठी। चार बजे तक शेखर को नहीं बता पाई कि मैं कहां मिलूंगी।

''छह बजे मेरा राजधानी एक्सप्रेस का टिकट है वापसी का। क्या तुम मिलना नहीं चाहती अनु?''

'' नहीं शेखर ऐसा नहीं है थोड़ा सिरदर्द है। तुम्हें तो पता है इन दिनों मुझे माइग्रेन रहता है। हाँ, ऐसा करो चाणक्यपुरी से आगे मेरा दफ्तर ग्रीन पार्क में है, मैं बीस मिनट बाद वहीं नीचे वाली कैंटीन के बाहर मिलती हूं। तुम्हें भी बीस मिनट आने में लगेंगे... ओ.के.।''

जैसे ही नीचे उतरी सामने से आते शेखर को देख लगा जैसे बांहे फैलाए चला आ रहा है। मन हुआ कि मैं भी दौड़कर उसके पास पहुंच जाऊं। पास पहुंची तो उसने रजनीगंधा की एक कली देते हुए कहा, '' हैप्पी बर्थ-डे अनु।''

''और मैंने अपनी हथेली में दबाई अपने नातिन की चॉकलेट सामने कर दी। मुंह मीठा करो शेखर।''

'' वाह! तो तुम अब भी चॉकलेट खाती हो।''

''हां, नानी हूं न गुड़िया की। उसके साथ खानी पड़ती है।''

''कैसी हो तुम?''

'' मैं ठीक ही हूं।''

''थोड़ी दुबली हो गई हो।''

''तुम भी तो दुबले लग रहे हो।''

''चलो छोड़ो।''

''जानती हो मैं आज पूरा दिन तुम्हारे साथ बिताना चाहता था... पर तुमने लिफ्ट ही नही दी।''

''कुछ कहूं।''

''नहीं, कुछ मत कहो तुमसे मिलने का वादा था मेरा, पूरा हुआ। मेरी टैक्सी खड़ी है सामने, हो सके तो वहां तक साथ चलो।''

''चलती हूं वहीं से मुझे मेट्रो पकड़नी है।''

''तुम आज ऑफिस से छुट्टी नहीं ले सकती थी?''

''सब कुछ जानते-समझते हो, तब यह प्रश्न क्यों?''

शेखर ने अपनी मुस्कराहट से खुद ही मेरे उत्तर की जगह भर दी थी।

''फुटपाथ पर चलते हुए तुम्हें डर तो नहीं लगेगा अनु?'' शेखर ने बचपन की तरह छेड़ा था।

''तुम साथ हो न किसी से डर नहीं लगेगा।''

कह तो दिया पर मन ही मन डर रही थी, कहीं मलय मेट्रो स्टेशन के सामने गाड़ी लेकर आ गए तो।

शेखर ने पूछा, ''चलें।''

''हां।''

मेरे दफ्तर से मेट्रो स्टेशन ज्यादा दूर नहीं है।

थोड़ा-सा ही चलना था, मैं शेखर से बात करते हुए चलती रही। बातें बेमानी थी मात्र औपचारिक सूचनाओं जैसी, लेकिन साथ चलने का अहसास एकदम अलग था। लगा इन चंद पलों में शेखर के साथ पूरा दिन गुजार देने का अहसास है। साथ चलते वे चंद कदम कितनी लंबी दूरी तय कर रहे थे बचपन से अब तक! शायद हमारे मन कदम-दर-कदम साथ चलते रहे।

''मैं तुम्हारे लिए रजनीगंधा की एक सौ एक कलियां लाना चाहता था पर केवल एक ही ला पाया।'' शेखर के इन शब्दों में वेदना थी या कसक या शायद दोनों का मिला-जुला भाव था।

''नहीं शेखर! एक सौ एक कलियां हो या केवल एक, हैं तो दोनों भावनाओं की प्रतीक ही न? फिर एक कली तो आसानी से मेरे पर्स में, मेरे बालों कहीं रखकर घर तक ले जाई जा सकती है। अच्छा हुआ, एक ही लाए, ज्यादा लाते तो कहां रखती। शुभकामनाएं यहां-वहां तो नहीं पटक सकते न और इस एक कली में तुम्हारी सारी शुभकामनाएं हैं।''

'मेरे लिए यह रजनीगंधा की एक तुड़ी-मुड़ी कली नहीं फूलों की बहार है शेखर।' कहना तो यही चाहती थी पर कहा नहीं।

''शेखर! तुम्हें लंच, डिनर तो दूर एक कप कॉफी भी ऑफर नहीं कर पाई।''

''कोई फर्क नहीं पड़ता, यह चॉकलेट है ना।'' शेखर ने उस चॉकलेट को अपनी जेब में रखा।

''जानती हो, यह चॅाकलेट नहीं, हमारे रिश्ते की मिठास है। इससे मीठा कुछ भी नहीं।''

हाथ हिलाते हुए शेखर ने विदा ली।

मेट्रो से घर पहुंचने तक रजनीगंधा की कली हथेली पर महकती रही, जिसकी महक अगले पचास साल और जीने की इच्छा जगा गई।

एक और भीष्मप्रतिज्ञा

यदि आज ओसारे का छज्जा भरभराकर ना गिरता तो रूक्मिणी आत्या के जीवन के अकेलेपन को मैं इन पृष्ठों पर नहीं समेट पाती। एक हफ्ता हुआ मुझे गाँव आए। भैया का फोन आया था आई की तबीयत बिल्कुल ठीक नहीं है और पद्मा वईनी को लेबर पेन्स के साथ अस्पताल में भर्ती करवा दिया है। स्वाभाविक है ऐसे संकट के वक्त भैया मुझे ही तो याद करेंगे। पद्मा वईनी की पहली डिलेवरी है और आई चलने-फिरने से लाचार। साइटिका का दर्द बना रहता है। घर देख लेती हैं वही बहुत हुआ। अस्पताल, छोटा बच्चा, जच्चा कितने काम हैं अकेला संदीप क्या करेगा सोचते हुए मैं हफ्ते-पन्द्रह दिनों की तैयारी के साथ गाँव पहुँच गई थी। यूँ देखा जाए तो सामने वाले पुश्तैनी मकान में रूक्मिणी आत्या भी रहती हैं पद्मा को स्नेह भी उसी तरह करती हैं जिस तरह वे अपनी बहू या बेटी होती तो करतीं, पर आत्या की कोई सन्तान नहीं है। वे अविवाहित हैं और जापे-जजकी का उन्हें कोई अनुभव नहीं।

आत्या को मैंने सदा यहीं, इसी मकान में अपने मायके में देखा। वे कभी ससुराल क्यों नहीं गईं, उनका ब्याह क्यों नहीं हुआ? यह जानने की कोशिश ही नहीं की। बस घर में आत्या हैं जो जाने कब से ओसारे के बीचोंबीच लगे शीशम के खम्बे के सहारे बैठी अपने कार्य करती रहतीं। बचपन से मैंने उस खंभे से पीठ टिकाए रूक्मिणी आत्या को ऐसे ही देखा है। जब तक मेरा ब्याह नहीं हुआ था मैं भी वहीं उसी ओसारे में डेरा डाले रहती थी। एक मेज कुर्सी लगी थी। आत्या बताती हैं- बचपन में बाबा ने आत्या के लिए बनवाई थी पढ़ने के लिए, पर आत्या दसवीं से ज्यादा पढ़ नहीं पाईं, बड़ी अच्छी टेबल कुर्सी है, वो भी रेलवे-स्लीपर की लकड़ी से बनी। आई अक्सर मेरे बाबा से कहतीं, ''लड़की उस मनहूस टेबल- कुर्सी पर पढ़ने बैठती है! जिसके लिए बनी थी उसका उद्धार तो हुआ नहीं, मेरी लड़की को क्या कामयाबी दिलवाएगी?''

बाबा हँसने लगते- ''मेज कुर्सी किसी का भाग्य नहीं गढ़ते?''

आत्या मेरे बाबा के बड़े बाबा (ताऊ) की एक अकेली सन्तान थीं। पुश्तैनी घर तीनों भाइयों के साथ-साथ ही लगे थे, जिसमें छज्जे, ओटले और ओसारे सब एक साथ थे। आत्या मुझे संदीप से ज्यादा लाड़-प्यार करतीं। तीनों घरों में कभी यह पता नहीं चला कि काका बाबा के घर हैं। खाना अलग-अलग बनता, पर कोई कहीं भी खा लेता। हाँ, छोटी काकू दादी थोड़ी तेज-तर्रार थीं और निगरानी और लगाई-बुझाई भी कर लेती थीं। वे मेरे बाबा की काकी थीं। उनकी एक बेटी और एक बेटा था। इस नाते मेरी दो आत्या थीं-एक रूक्मिणी आत्या और दूसरी कुमुदनी आत्या। रूक्मिणी आत्या भोली-भाली सरल हृदया और कुमुदनी झगड़ालू थीं।

मैं अक्सर आत्या के आसपास खेलते हुए ''आत्या भूख लगी है।'' या कभी ''आत्या बालों में तेल डाल दो, आत्या चोटी गूँथ दो'' जैसे अनावश्यक कामों में आत्या को उलझाए रहती। आत्या भी एक थाली में ढेर-सा खाना परोस मुझे पकड़ा देतीं और फिर ओसारे के खंभे से सटकर अपनी वायल की साड़ी में फूल टाँकने बैठ जाती या वहीं बैठी-बैठी मेरे बालों में तेल-वेल डालकर कसकर दो चोटी गूँथ देतीं। अब तक कहती हैं- ''शालू तेरे बाल इसीलिए इतने लम्बे हैं... खूब तेल डलवाती है मुझसे।''

गाँव पहुँची तो पता चला संदीप के घर बेटा हुआ-पद्मा वईनी के बेटे को सँभालना था, इसलिए तीन दिन तक अस्पताल में ही रहना पड़ा। संदीप थोड़ा बच्चा उठाने लगा, तब घर जाने की छुट्टी मिली। घर लौट रही थी तो पैर स्वतः नए फ्लैट की जगह पुश्तैनी घर की तरफ ही उठे। रूक्मिणी आत्या अब भी अकेली वहीं रहती हैं। छोटी काकू वाली जमीन बेच प्रभु काका अमेरिका चले गए और कुमुदनी आत्या पूना अपने ससुराल में हैं।

उनके दोनों बेटे डॉक्टर हैं। गाँव वाले इस घर में एक पीढ़ी गुजर जाने के बाद बस ये रूक्मिणी आत्या ही बची हैं आई के साथ और इतनी प्रॉपर्टी बेचारा संदीप ही देखता है। सिविल इंजीनियर तो है ही, बिल्डर भी हो गया है। सारी खाली पड़ी जमीन पर उसने मल्टीस्टोरी बनाकर फ्लैट बेच दिए हैं। दो बड़े-बड़े फ्लैट खुद के लिए भी रख लिए। एक खुद का और दूसरा रूक्मिणी आत्या का, पर आत्या ने घर बदलने से इन्कार कर दिया था। वे वहीं रहती हैं पास वाले पुश्तैनी मकान में, जिसे नगर पालिका ने खतरनाक घोषित कर दिया है, पर आत्या को उस भूतहा होते घर से जाने क्या लगाव है। कहती हैं, ''मरूँगी तो यहीं। इसी के मलबे में दबकर।''

विचारों में मग्न मैं दरवाजे पर पहुँच गई। दरवाजे पर अभी भी बड़ी कुंडी ही लगी है। मैं उसे किसी मन्दिर के घण्टे की तरह पकड़कर बजाती हूँ।

थोड़ी देर में आत्या ने दरवाजा खोला तो पूरे वातावरण में अजीब-सी नीरवता फैल गई। पूरे घर में जैसे आत्या की आत्मा की परछाइयाँ फैली हुई हैं। दोपहर के ढलते-ढलते शाम फैलने लगी थी। वे गर्दन उठा ध्यान से देखती हैं, फिर मुस्कराने की कोशिश में एक आत्मीय चमक उनके चेहरे पर फैल जाती है। ''अच्छा तो तू है शालूरानी?''

''आत्या,क़ैसी हो?़'' कहते हुए मैं लिपट जाती हूँ।

''अच्छा तो पद्मा अस्पताल गई क्या?'' वे पूछती हैं।

''हाँ,उ़से तो बेटा हुआ है तीन दिन का हो गया।''

''क्या?''

''तुमको नहीं बताया आई या संदीप ने?'' मुझे आश्चर्य हुआ।

''नहीं रे....आ़ाता होगा। बता देगा। अ़ब मैं उसकी बात नहीं मान रही न...इ़सलिए नाराज है वह़।''

''कौन-सी बात?''

''यही फ्लैट में उनके साथ रहने की।''

''पर आत्या, यहाँ तुम्हें डर नहीं लगता? इतना बड़ा खाली घर। आज गिरा या कल....क़ैसे अकेली रहती हो! मान लो ना संदीप की बात।''

''नहीं रे शालू...त़ू भी यही चाहती है कि मैं अपने अतीत से अलग हो जाऊँ? मेरे पास भविष्य तो है नहीं, वर्तमान में ऐसा कुछ नया नहीं जिसके सहारे जिन्दा रहा जा सके। हाँ, यादों से भरा अतीत है जिसके सहारे मैंने ज़िन्दगी काट ली।''

''आत्या, अब तो संदीप का बेटा है न, वही तुम्हारा भविष्य है। उसके लिए नए घर में रहने चलो।''

''नहीं शालू...म़ुझे जिन्दा रहने के लिए अब किसी नई रोशनी की जरूरत नहीं है। अतीत की परछाइयों के साथ मैं यहीं रहना चाहती हूँ। नए घर में जाने पर मेरा अतीत यहीं छूट जाएगा। मेरे बाद उन्हें वैसे भी कौन याद करेगा! और एक दिन मैंने भी अपने विगत में मिल जाना है। पिण्डदान करते वक्त पितरों के पिण्ड मिलाया जाता है न, बस मैं वही कर रही हूँ। जीते-जी अपने को उन पितरों से अलग नहीं कर रही। सोते-बैठते वे मुझे यहाँ महसूस होते हैं। कभी मुझे लगता है, बाबा वहाँ कुर्सी पर बैठ कैसे हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं। कभी लगता है, काका पास की खिड़की से आवाज दे रहे है-ं'़'रूक्मी तेरी आई से पूछ क्या सब्जी बनी है।''

''आत्या, बस करो...'' मैं रो पड़ी थी।

''जानती है, शालू सीढ़ियों से चढ़कर आते हुए हेमन्त की चप्पलों की आवाज तक सुनाई देती है मुझे।'' आत्या भावुक हो आई थी।

''आत्या बड़ी भूख लगी है क्या बनाया है तुमने?'' मैं वातावरण को बदलने के उद्देश्य से पूछती हूँ।

''हाँ, हाँ, चल हाथ धो। पटा डाल। मैं गरम करती हूँ, पातलभाजी और ज्वार की रोटी बनाई है।'' आत्या रोना भूल जाती हैं। घी नहीं होगा घर में इसलिए रोटी रूखी ही थी। आत्या को रोटी थाली में रखने में संकोच हो रहा था। मैंने परिस्थिति सँभालते हुए कहा, ''आजकल रोटी में घी डॉक्टर मना करता है। हमारे यहाँ सब रूखी रोटी खा रहे हैं। तुम घी मत लगाना रोटी में।''

''अच्छा, अच्छा।''

प्यार भरी उन ज्वार की रोटियों में गजब का स्वाद था। रात में मैं आई के पास घर गई थी। ग्यारह बजे होंगे। हवा तेज चल रही थी। लग रहा था, बस मानसून आने ही वाला है। थोड़ी देर हुई थी कि कुछ भरभराने की आवाज सुनाई दी। एकदम चिल्लाते हुए मैं उठी और खिड़की से देखा, हमारा वह पुश्तैनी घर ताश के पत्तों के महल की तरह पसर रहा था। मैं साड़ी कमर में खोंसते हुए दौड़ी, '़'आत्या, आई, आईग् आत्या वहीं हैं, घर गिर पड़ा।''

मेरे पीछे आई भी बाहर तक आ गई, पर मैं सुध-बुध भूल आत्या-आत्या करती पहुँच गई। ओसारे में आत्या वहीं खंभे के पास सिमटी हुई सो रही थीं। मैंने खींचते हुए आत्या को बाहर निकाला, आ़ासपास के फ्लैट से भी लोग आ गए थे। आ़ात्या जैसे नींद में थीं। वे विश्वास नहीं कर पा रही थीं कि एक हिस्सा गिर गया और उन्हें नींद में भनक तक नहीं मिली।

उस रात आत्या मेरे साथ संदीप के फ्लैट में आ गई। आई ने दूध गरम कर आत्या को दिया। वे रोए जा रही थीं, '़'शालू। आज सब कुछ खत्म हो गया इस मलबे को देख-देखकर मैं जी नहीं पाऊँगी।'' वे खिड़की में खड़ी हो देख रही थीं फिर देखते ही देखते ओसारे का छज्जा भी भरभराकर धराशायी हो गया।

आत्या को मैं पलंग पर ले गई।

''आत्या आज शाम से एक प्रश्न मन में कौंध रहा है, पूछना चाहती हूँ।'' वे देखने लगीं।

''आत्या, तुमने शादी क्यों नहीं की?''

आत्या ने अपने घुटनों पर हाथ रखा, फिर उठकर खिड़की के पास चली गईं। कुछ देर चुप रहकर बोलीं, ''शादी होती तो बच्चे होते। संपत्ति वंश से बाहर चली जाती, इसीलिए।''

''तो क्या फर्क पड़ता उससे?''

''तुझे नहीं, तेरे आई-बाबा को तो फर्क पड़ सकता है ना।''

''तो क्या आई-बाबा ने....?''

''नहीं रे, भाग्य ने किया मेरे साथ।''

मैं अविश्वास से परेशान हो उठी और आत्या के पास आ गई। आत्या के कन्धे पर विश्वास का हाथ रखा तो वह रो पड़ी, ''शालू...''

''हाँ आत्या, मैं आपके साथ हूँ। कह डालो! अपने अन्दर के दर्द को अ़पनी पीड़ा को रोक रखा है तुमने। अब बहा दो, कब तक रोकोगी दर्द के सैलाब को?''

आत्या पर हुआ कोई पारिवारिक अत्याचार या उपेक्षा ही उनके अकेलेपन का उद्गम बिन्दु है। जड़बद्ध मूल परंपरागत चुप्पी के संस्कारों पर करारे प्रहार की ज़रूरत थी। खानदान की इज्जत के नाम पर वर्जनामूलक व्यवस्था में बने कायदे और बेटियों की आचार-संहिता की अभेद्य दीवार-तले ही ऐसे संस्कार जीवन को सड़ाते हैं। मुझे लगा शायद आत्या के शब्दों के साथ बहुरूपी सामाजिक यथार्थ वीभत्स रूप आज सामने आने वाला है। यह परिवारों और सम्बन्धों में व्याप्त खोखलेपन का ही प्रमाण सिद्ध होगा। मुझे एक अगली पीढ़ी की बेटी होने के नाते पिछली पीढ़ी की बेटी के पीड़ादाई अकेलेपन को जानना तो चाहिए ही। मैंने आत्या की पीठ पर हिम्मत का हाथ रखा।

''शालू, तू मुझे गलत मत समझना।''

''नहीं आत्या, हम दोनों इसी खानदान की बेटियाँ हैं। मात्र पीढ़ियों का अन्तर है तो क्या हुआ, दिल और भावनाएँ तो एक-सी ही हैं न।''

''मैंने तुझसे कहा था न, मुझे सीढ़ियों पर हेमन्त के चढ़ने की आवाज आज भी सुनाई देती है।''

''हाँ, पर हेमन्त कौन है, आत्या?''

''हेमन्त वही है जिससे कुमुदनी की शादी हुई थी।''

''क्या? पूनेवाले आतोबा?''

''हाँ शालू, मैं और हेमन्त एक-दूसरे से बहुत प्यार करते थे। हेमन्त अंग्रेजी पढ़ने मेरे बाबा के पास आते थे। वे इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे और उन्हें विलायत जाना था। बाबा को भी पता था, हम एक-दूसरे को पसन्द करते थे।

''हम एक-दूसरे पर एक दिन इसी ओसारे में समर्पित हो गए थे... प्यार का अथाह सागर था हेमन्त के पास। मैं आज भी ओसारे के खंभे के पास हेमन्त के उस सामीप्य को याद करती हूँ। महसूस करती रही हूँ, बस वही एक पल मेरे जीवन का सुख था। छोटी काकू जानती थी कि हम प्यार करते हैं। फिर भी उसने जब देखा हेमन्त विलायत से पढ़कर लौटने वाला है इतना अच्छा वर वे कुमुद के लिए कहाँ ढूँढ पातीं। बस तब हेमन्त के पिता दीवान साहब को बताया कि हेमन्त को हमारे परिवार की लड़की पसन्द है और दीवान साहब ने वचन दे दिया कुमुदिनी के लिए हेमन्त से विवाह का। हेमन्त ने केवल हमारे खानदान का नाम फोन पर सुना था और पिता से हाँ कही थी। मेरे बाबा इस सदमे से चल बसे, हेमन्त का ब्याह कुमुद से हो गया।

''मैं अभिशप्त रह गई इस खण्डहर की तरह यहीं भटकने के लिए। हेमन्त जब बारात लेकर गए तो फिर कभी इस घर की देहरी नहीं चढ़े। हाँ, पति का दायित्व निभाया कुमुद को दो बेटे देकर। तेरे आई बाबा मेरा साथ दे सकते थे, पर भाई से झगड़ा कौन ले, फिर मेरे बाद मेरे बाबा के हिस्से की यह प्रॉपर्टी तेरे भाई संदीप को ही तो मिलेगी, शायद यह विचार भी रहा हो मन में... जो भी हो, पारिवारिक शतरंज पर मैं एक पिटी हुई गोट रही और मेरे बाबा हारे हुए जुआरी।''

आई जाने कब से दरवाजे पर खड़ी थी। चलकर आत्या के पास आ गई, ''रूक्मिणी ताई, तुमने मुझे गलत समझा।''

''छोड़ो आई, सब गलत थे आत्या के मामले में।'' मुझे गुस्सा आ रहा था।

''नहीं शालू... दरअसल हेमन्त की शादी में मैं चुप इसलिए थी कि मैं चाहती थी कि रूक्मिणी का रिश्ता अपने गरीब भाई से करवा दूँगी, बस यही गलती हुई। रूक्मिणी ने तो भीष्म-प्रतिज्ञा ले ली थी अविवाहित रहने की।''

आई और आत्या लिपट कर रो पड़ीं और मैं भीष्म-प्रतिज्ञा के साक्षी रहे उस ओसारे के भरभराकर गिरे मलबे को देख रही थी जिसके नीचे कितना कुछ दबा था!

स्वयं से किया गया वादा

मैं चुपचाप बालकनी के एक कोने में पड़ी इस कुर्सी पर सिमटी-सी बैठी हूं। जाने क्यों मन आज इतना उदास है। जानती हूं, ऐसा कुछ नहीं हुआ है, फिर भी पता नहीं कौन-सी चिंता मन को मथ रही है। अपने-आप में उलझी मैं अपने ही अंतर्द्वंद्व में इतनी तल्लीन और खोई-सी थी कि इनके आने का आभास तक नहीं हुआ। जाने कब आंखों के दायरे तोड़, खारे जल की कुछ बूंदें गालों पर लुढ़क पड़ीं। इन्होंने घबराकर पीछे से मुझे बांहों के घेरे में लेते हुए प्रश्न दाग दिया,'' क्या हुआ, अनु?''

''कुछ भी नहीं, बस यूं ही मन उदास है।'' मैंने सहज होते हुए कहा।

''आज तो तुम्हें सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए, तुम्हारी जिम्मेदारियां अब पूर्ण होने जा रही हैं और तुम हो कि यूं आंखों में सावन-भादों समेटे जाने कहां खोई हो?''

मैंने झट संभलते हुए कहा, ''कुछ भी तो नहीं हुआ?''

''फिर भी कुछ तो बात है, वरना तुम इस तरह उदास बुझी-बुझी कभी नहीं रहतीं।'' इनकी पारखी आंखों ने ताड़ ही लिया था और ताड़े भी कैसे नहीं, आखिर एक-दूसरे की रग-रग से वाकिफ हम सहज ही एक-दूसरे की परेशानी की चिंता-रेखाओं को पकड़ लेते हैं।

तीस साल का साथ है। चेहरा तो चेहरा, मन के हावभाव भी शायद समझ जाते हैं। ये मुझे सहेजते हुए से बोले, ''ए अनु! बोलो भई। कुछ बताओ तो!''

मैंने सहज होने की पूरी कोशिश के साथ कहा, ''यूं ही आज रह-रहकर मांजी याद आ रही हैं।''

''क्यों भई? सास बनने की खबर से ही सास याद आ गई क्या? ये मां आज क्यों याद आ रही हैं। उनसे तो, जब तुम आई थीं, तुम्हारी पटरी लंबे समय तक नहीं जमी थी।'' ये मजाक के मूड में बोल गए।

''मेरी पटरी? वाह, आप भी न...'' चिड़चिड़ाते हुए मैंने आंखों को पोछते हुए कहा।

''मतलब तो एक ही हुआ न, पटरी तुम्हारी कहो चाहे मां की? आज पता चला मुझे तुम्हारी स्थिति देखकर। सास भी कभी बहू थी वाली उक्ति का अर्थ?'' वे समझौते के लहजे में बोल रहे थे।

''चाय पीने का मन हो रहा है, आप लेंगे क्या?'' मैं उठने लगी।

''हां, हां... आधा कप चल जाएगी। चाय की कब मना है, इसी बहाने थोड़ी देर तुम पास बैठोगी तो सही।''

''क्यों? क्या मैं तुम्हारे पास नहीं, कहीं दूर लंका में रहती हूं?''

''लगता है, आज तो तुम लड़ने के मूड में हो। अरे, मेरा मतलब है, अब तुम्हारी बहू आ जाएगी और तुम्हारा प्रमोशन हो जाएगा। फिर तुम सास बनकर रूतबा झाड़ने लगोगी! क्यों, गलत कहा क्या मैंने।'' ये हमेशा हल्के-फुल्के मूड में ही बात करते हैं। शाम का अखबार फैलाकर बैठ गए।

चाय का प्याला पकड़े-पकड़े मैं फिर गुमसुम हो गई। इन्होंने फिर टोका था, ''प्लीज अनु...हां कुछ तो बात है? बताओ भी।''

''सच बताने लायक कोई बात नहीं।'' मैं मुस्करा उठी।

''कुछ तो जरूर है, ये मृगनयनी आंखें क्या यूं ही सजल हो रही हैं? ये दुलारते हुए-से बोल रहे थे।

इस स्नेह भरे संवाद ने मुझे और रूंआसा कर डाला, पर बताने जैसी कोई बात थी भी कहां? क्या बताती कि अभिनव की पसंद मुझे नापसंद है। ठीक उसी तरह जैसे तीस साल पहले मांजी ने मुझे नापसंद करार दिया था। तभी फोन की घंटी बजी और ये उठकर चले गए। मैंने राहत की सांस ली। चलो, सच उगलने से बची, वरना ये तो मेरे अंदर के चोर को जरूर पकड़ लेते, पर यह चोर कब मेरे मन में प्रवेश कर गया, मैं नहीं जानती। हां, जब से अंदर है दिलोदिमाग में एक खलबली-सी मची हुई है। एक शीतयुद्ध चल रहा है मेरा मेरे ही साथ। आज पहली बार मुझे भी लगा कि मेरा अस्तित्व अब खतरे में है। तो क्या ऐसा ही मांजी को भी लगा होगा, जब प्रियेश ने मुझसे ब्याह करने की इच्छा मांजी को बताई होगी?

'बहू का आना' क्या हर सास के मन में ऐसा ही कोई अंतर्द्वंद्व शुरू कर देता होगा? मन की इस उठा-पटक को तो मैं प्रियेश के साथ भी तो शेयर नहीं करना चाहती। पता नहीं क्या सोचेंगे मेरे बारे में। प्रियेश मेरे इस रूप को जाने किस तरह लेंगे। आज जीवन में दूसरी बार मुझे बदलाव के घूमते हुए चक्र ने वहीं लाकर पटक दिया है जहां तीस साल पहले मैं भी इसी देहरी पर आकर खड़ी हुई थी। मेरे कदम देहरी के बाहर ही थे और मैंने महसूस कर लिया था कि देहरी के अंदर जमे हुए पैर मेरा, मेरे आगमन का उस तरह स्वागत नहीं कर रहे जैसी मेरी अपेक्षाएं थीं। बाहर मैं थी, अंदर मांजी, जिनके हाथ में आरती की थाली जरूर थी, पर बढ़ती उम्र के झुर्राते-से चेहरे पर एक तमतमाया-सा मौन था और आंखों में मुझे तौलती-तपती-सी आभा थी। जाने क्या था उन आंखों के तेज में जो मुझे ईर्ष्या की तरह लगी थी। मैं मन ही मन कुछ-कुछ डरी हुई-सी थी-जाने कैसा व्यवहार करेंगी वे मेरे साथ।

सतरंगी सपनों का हिंडोला उनके सामने आते ही रूक गया था, पर मन का कोई कोना आश्वस्त भी था कि प्रियेश मुझे पसंद करते हैं, असीम प्यार करते हैं। मांजी करें न करें, क्या फर्क पड़ता है, पर बाद में महसूस हुआ कि एक छत के नीचे हर रिश्ते की अहमियत है और रिश्ते को निभाने से बहुत फर्क पड़ता है। सुबह-शाम छोड़ दो तो दिन के शेष समय को उन्हीं के साथ गुजारना होता था। ब्याह के पांच सालों तक मांजी और मैं अलगाव के दो किनारों पर ही थे। वह तो पांच वर्ष बाद अभिनव रूपी सेतु ने हम सास-बहू को दादी और मां बनाकर अलगाव को लगाव में ऐसा बदला था कि मरते वक्त भी मांजी ने इनकी नहीं, मेरी गोदी में सिर रखकर गंगाजल ग्रहण करते हुए प्राण त्यागे थे।

पर अलगाव के वे पांच वर्ष एक युग की तरह ही तो बीते थे। मांजी कानपुर की ब्राह्मण और मैं राजस्थान की ब्राह्मण बेटी, क्या फर्क था, केवल प्रांत का? केवल भाषा का? रीति-रिवाजों और खानपान का? केवल सांस्.तिक भेद ही तो था-थीं तो दोनों एक ही जाति कीं। ब्राह्मण कुलों में जन्मीं थीं, पर मांजी कुछ यूं व्यवहार करतीं मानो अछूत कन्या उनके घर आ गई हो और वे अबड़ा (भ्रष्ट) गई हों। अलग पकाना, अलग पूजा-पाठ, उनका इस तरह का व्यवहार मुझे अंदर ही अंदर तोड़ देता था। एक हीनता का बोध करवाता था-तब हमेशा लगता मांजी गलत हैं, पर आज लग रहा है वे गलत नहीं थीं। वह उनकी उथल-पुथल होती मनःस्थिति का ही परिणाम रहा होगा। ऐसा ही तो मैं भी सोच रही हूं अभिनव की पसंद को लेकर! लड़की आईआईटी है, अभिनव के साथ पढ़ी, उच्च शिक्षित है, पर मेरे अंदर उसकी शिक्षा, अभिनव की पसंद के बावजूद, कुछ ऐसा अलग-सा पक रहा है जो मुझे ही द्वंद्व में डाल रहा है। मैं और मांजी तो केवल प्रांत के अंतर से ही बंटे थे पर सुकन्या तो जाति और धर्म से भी अलग है। कैसे हम उसके साथ निभा पाएंगे? आज सुकन्या को मैं उसी अलगाव के दूसरे किनारे पर देख रही हूं। मैं शुद्ध भारतीय परंपराओं की कायल हूं। कायदे, मान-मर्यादा, संस्कार सभी कुछ मेरे निर्धारित मानदंडों पर चलते हैं। बड़ों के चरण-स्पर्श को दुनिया का सबसे अच्छा अभिवादन मानने वाली मेरी संस्.ति में सुकन्या का 'हलो आंटी, हाय अंकल' कहां समायोजित हो पाएगा! एक तीखी चुभन-सी उठी भीतर। मन लगातार उलझता ही जा रहा है। ''सुकन्या को बदलना पड़ेगा स्वयं को, ऐसे नहीं चलेगा।'' मैं बुदबुदा उठी।

''क्या हुआ, मम्मी?'' अभिनव ने पीछे से आकर गले में बांहें डालते हुए, मेरे गाल से गाल सटाकर प्यार करते हुए पूछा।

''कुछ नहीं रे, बस यूं ही।'' मैंने उसका गाल थपथपाते हुए कहा।

''नाराज हो आप?'' उसकी आवाज में भय की झलक थी।

''नहीं तो।'' सहज होने का मेरा प्रयास व्यर्थ गया।

''मम्मी, जब से आप सुकन्या से मिली हैं, आप चुप हैं, उदास हैं। पसंद नहीं आई क्या?'' वह गंभीर लहजे में बोल रहा था।

''ऐसा कुछ नहीं है।'' मैं उठकर अपने कमरे में आ गई थी। मैं अभिनव के प्रश्नों से बचना चाहती थी। जानती हूं, इन दिनों वह नए जीवन के ख्वाबों की दुनिया में तैरता रहता है। मैं नहीं चाहती कि वह दुःखी हो। उसका दिल टूटे। उस पर अपने कमजोर होते पुरातनपंथी मन की झलक भी न पड़े, यही सोचकर उठ गई थी मैं बालकनी से, पर वह मेरे पीछे-पीछे कमरे में चला आया।

''यू नो मम्मा, सुकन्या इज वेरी इंटेलीजेंट।''

''आई नो वेरी वेल।'' मैंने मुस्कराते हुए सहज होने की कोशिश की।

''शी इज वेरी स्वीट।'' वह वहीं मेरे पलंग पर लेट गया और शायद भविष्य के सुनहरे सपनों में खो गया। उसे झपकी आ गई। मैंने चादर उढ़ाकर उसके बालों में हाथ फेरा तो नजरों के सामने नन्हा-सा अभिनव आ गया। यादों का छोटा-सा एलबम फिर मन में खुल गया, जब वह कहानी सुनते-सुनते या होमवर्क करते-करते यूं ही सो जाता था। उसका बचपन रिवर्स होती फिल्म की तरह मेरे सामने खुलता गया। एक-एक घटना, एक-एक बात मेरे स्मृतिपटल पर उभरती जा रही थी। उसके चेहरे पर नजरें गईं तो लगा जैसे वह आज भी उतना ही मासूम है। मैंने उसके माथे को चूम लिया। 'क्या इसकी इच्छा के लिए मैं स्वयं को नहीं बदल सकतीं?'

पर मैं ही क्यूं बदलूं हर बार? पहले मांजी के लिए, अब बहू के लिए? मैं और सुकन्या, सुकन्या और मैं, मैं और मांजी, मांजी और मैं... लगातार यह चक्र मेरे दिलोदिमाग पर मंडराने लगा। सैकड़ों नए सवाल पुराने संदर्भों के साथ मन में उठने लगे। दिल आक्रांत हो उठा।

सुकन्या के आते ही अभिनव मुझसे दूर हो जाएगा? मुझे अभिनव से दूर होने का भय लगातार सताने लगा। अब तक अभिनव के जीवन में कोई स्त्री थी तो वह केवल मैं-उसकी मां। दादी के साथ भी उसका प्यार बंटना मुझे अच्छा नहीं लगता था। तब उस पराई लड़की के साथ....? सुकन्या के आने की कल्पना से ही मुझे बेटा अपने से दूर होता लगा। कितना सुख मिलता है मुझे उसके लिए बनाने में, उसके लिए जागने में, उसके स्वेटर, उसके कपड़े पसंद करने में, पर धीरे-धीरे यह सब सुकन्या का सुख हो जाएगा। सुकन्या की पसंद में बदल जाएगा। मैं घर की धुरी से हटकर हाशिये पर चली जाऊंगी। सिहरन-सी हुई तन-मन में, तो क्या अपनी स्वतंत्रता और एकाधिकार के बंटवारे का भय मुझे डरा रहा है? अपने सर्वाधिकार, अपने वजूद के घटने का डर है। क्या परिवार में एक दूसरी स्त्री का प्रवेश मेरी सत्ता और मेरे महत्व को चुनौती नहीं दे रहा? मन में गुबार-सा उठा और सारे प्रश्न धुंधले-से होने लगे। पसीने से तर-बतर हो गई मैं। रात सोचते-सोचते ही आधी हो गई, पर नींद का नामोनिशान नहीं था।

कितना उत्साह था मुझमें जब मैं दुल्हन बनकर इस घर में आना चाहती थी। प्रियेश के साथ काम करते हुए अक्सर मां की बात होने लगती। मां का जिक्र, मां की कल्पना से ही रोमांचित हो उठती थी मैं। बचपन में ही माँ खोकर अधूरी हो गई ममता की छांव को बाबा ने पूरा करने की लाख कोशिश की थी, पर फिर भी प्यार, स्नेह और आषीर्वाद की रिक्तता को सदा महसूस किया था मैंने। प्रियेश से मां के बारे में सुन-सुनकर एक सुंदर कल्पना ने जन्म लिया था मेरे मन में-जहां सास-बहू नहीं मां-बेटी हुआ करती थीं... पर क्या? फिर अपनी बहू को बेटी बनाऊंगी, यह वादा मैंने अपने-आपसे ही किया था...फिर अब क्यों मैं परेशान हूं?

क्या हाथी के दांत की तरह विचार भी दिखाने के अलग होते हैं और निभाने के अलग?

चेंज यानी बदलाव

मुझे घर छोड़कर पापा के यहां आए 15 दिन हो गए, पर न जाने क्यों इस बार ये 15 दिन युगों की तरह कटे। न माँ से बात करना अच्छा लगता, न पापा का सामना करना। एक अपराधबोध-सा हमेशा बना रहता, जैसे मैंने अपनी लापरवाही से उनकी किसी बहुमूल्य वस्तु को खो दिया था। पूरी तत्परता से माँ और पापा मेरा ख़याल रख रहे हैं, जिसके पीछे झाँकती हुईं उनकी संशय की चिन्ताएँ मुझे स्पष्ट दिखाई देती हैं। उन्हें डर है, कहीं मैं डिप्रेशन में कुछ कर न लूँ! कैसा दुर्भाग्य है यह? माँ-पापा को इस उम्र में मेरी उम्र में मेरी तरफ से चिन्तामुक्त होना चाहिए, ब्याहता बेटी अपने घर-संसार में सुखी रहे; यही तो वे चाहते थे, पर उन्हें चिन्ता है मेरे भविष्य की- अब क्या होगा?

एक तीखा-सा खेद मन में जागा, अपने आपको कोसा भी - क्यों अभय के प्यार में उलझी? इससे अच्छा शायद वही रिश्ता रहता जो बड़ी चाची के मायके से आया था, पर अब? तब तो अभय ही दुनिया-जहान में सबसे अच्छा, सबसे निराला लगता था - एकदम विश्वासपात्र और उसी अन्धे प्यार और विश्वास के कारण उसे सहर्ष जिन्दगी सौंपी थी, पूरी आस्था और विश्वास के साथ। चाची थोड़ी नाराज भी रही थी, पर मेरा तो .ढ़विश्वास था-प्रेम-विवाह ही सफल रहेगा। बड़े-बड़े दावों के साथ मैं अपने निर्णय पर अटल थी, पर रेत के महल साबित हुए मेरे दावे, उसी ने यूँ तोड़ा विश्वास। शुरू के कुछ दिन तो मेरे भीतर अभय के प्रति एक अन्धक्रोध था, जो सिर्फ अभय के अलावा कुछ और देख ही नहीं पा रहा था। लावे की तरह पिछलता वह क्रोध जो अभय का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था, पर मुझे भस्म किए जा रहा था, पर एक माह में ही वह क्रोध अपनी आवेगात्मकता के अनुपात में शांत भी होने लगा और मुझे अपनी नहीं, माँ और पापा की चिन्ता होने लगी। उनके बुढ़ापे को यूँ बिगाड़ देना ठीक नहीं है, मैं सोचने लगी कि मुझे स्वयं को सँभालना होगा। एक तेज प्रवाह की तरह अभय मेरे जीवन में आकर चला गया। एक ज्वारभाटा ही तो था उसका आना और जाना।

मैं उठ खड़ी होती हूँ, एक नए निर्णय के साथ। एक ठोस निर्णय ने मेरे अंदर के ज्वालामुखी को शांत कर दिया था। मैं माँ के सामने जाकर .ढ़विश्वास के साथ कहती हूँ, ''माँ, मैं कल जाना चाहती हूँ।''

''कहाँ?'' माँ चौंक उठीं।

''अपने घर।'' मैं कहती हूँ, ''हाँ, माँ! वहीं, वापस अपने उसी घर में।''

''क्यों, यहाँ तकलीफ है क्या?'' माँ थोड़ा गुस्से से बोलती हैं।

''हाँ, माँ! यहाँ रहते मुझे लगता है, मैं छोड़ी हुई औरत हूँ। यह अहसास मुझे डंक मारता है। वह घर मैंने नहीं छोड़ा है, माँ! वह मेरा घर है। मैं वहीं रहकर आगे पढ़ाई करूँगी और कुछ नया काम शुरू करूँगी। मुझे आपका और पापा का आशीर्वाद चाहिए।''

पिछले पांच सालों से वहाँ रहते-रहते वहाँ की आदत-सी हो गई है। उस सबके बगैर यहाँ सब अटपटा-सा, अजनबी-सा माहौल क्यों लगता है? इस घर में तो मैंने उम्र के बीस वसंत देखे थे, पर वह घर मेरे सपनों से जुड़ा था, मेरा अपना घर।

''क्या वहाँ अभय के बगैर रह पाओगी?'' माँ का सहज-सा प्रश्न था।

''हाँ, जरूर। रहकर बताना चाहती हूँ और फिर वह घर हमारा है। उसके एक-एक तिनके को मैंने ही तो सँजोया था। क्या हक है उस पर अभय का?'' मैं माँ पर ही भड़क उठी थी।

''अच्छा, तेरे पापा से बात करूँगी।''

''हाँ, माँ! पर कुछ दिन तुम दोनों भी चलो मेरे साथ। वह घर हमारा है। उसे मैं यूँ ही बनाए रखूँगी, चाहे वह मेरे लिए यादों का कब्रिस्तान ही क्यों न बन जाए। अभय को जीवन में एकरसता पसंद नहीं थी, वह बदलाव चाहता था, अब मैं ऐसे बदलाव लाना चाहती हूँ कि वह देखता रह जाए।''

माँ और पापा के साथ मैं फिर लौट आयी थी अपने उसी घरौंदे में, जहाँ अब केवल गृहस्थी का सामान था। एक बिखरे रिश्ते का वर्तमान अपने सुखद दाम्पत्य की यादों के अतीत के साथ मौजूद था। घर में सब-कुछ वैसे ही मौजूद था, पहले की तरह अपने पूरे वजूद के साथ, नहीं था तो केवल मेरा अपना वजूद। अभय के साथ मैं भूल गई थी कि मैं एक अलग व्यक्तित्व हूँ, मैंने ढाल लिया था स्वयं को अभय के वजूद में।

मैं शायद सोचना ही भूल गई थी अपने बारे में। नहीं-नहीं, मैं जो सोचती थी, जो करती थी, उसके केन्द्र में ही अभय होता था। 'क्या बनाना है? क्या सजाना है? क्या पहनना है?' सब-कुछ अभय की पसंद के अनुसार करने लगी थी। मैं कहीं थी ही नहीं जैसे। क्यों इतना निर्भर हो गई थी उस एक शख्स पर? अभय की पसंद-नापसंद इतनी हावी थी मुझ पर कि लगा, मैं खोल के अंदर जी रही थी अब तक-अण्डे के अन्दर पनपे उस चूजे की तरह, जो समझता है, बस इतना-सा ही है संसार, पर आज अब अचानक उस खोल के टूट जाने पर मैं आश्चर्यचकित हूँ।

घर में लौटनेवाले वे क्षण बड़े कठिन थे। दरवाजे पर टँगी नेमप्लेट 'अभय-मीनू' से पहला साक्षात्कार एक मीठी-सी कसक की तरह लगा, पर जाने कहाँ से एक हिम्मत, एक शक्ति आ गई थी और मैंने हाथ बढ़ाकर अभय शब्द उखाड़ दिया। अब वहाँ केवल मीनू नाम था। मैंने प्रवेश किया देहरी के अंदर और शुरू किया अपने बिखरे वजूद को समेटने का काम।

रात-भर सोचती रही, सो नहीं पायी थी। साथवाली खाली जगह जीवन में आयी रिक्तता का अहसास कराती रही रात-भर। अपने आप से बुदबुदाती रही, 'तुम पागल हो, मीनू, एकदम पागल।' पर मैं पागल भी कहाँ हूँ! कितना अच्छा होता अगर मैं पागल हो जाती। तब कोई जिम्मेदारी, कोई लोकलाज नहीं; चीखो-चिल्लाओ, कोई डर नहीं। पर पागल होने जैसी भाग्यवान मैं कहाँ? मैं तो चीखकर, चिल्लाकर अपनी भड़ास भी नहीं निकाल सकती; माँ या बाबूजी को सुनकर कुछ हो गया तो?

जीवन में अभय के साथ ब्याह के निर्णय के बाद शायद ही कोई निर्णय मैंने लिया हो। अभय अक्सर मजाक में ही कह देता था, ''तुम कभी अपने लिए निर्णय नहीं लेती, कब तक यूँ ही मेरे निर्णय में हाँ करती रहोगी?''

''तुम्हें क्या तकलीफ होती है?''

''नहीं, मैं तुम्हें अपनी छाया बनाकर रखना नहीं चाहता। मैं डरता हूँ मीनू, छाया कभी पीछा नहीं छोड़ती, इसलिए।''

''नहीं। तुम अपने को मुझसे अलग पहचानो, महसूस करो; क्योंकि जिन्दगी में केवल अपना वजूद काम आता है, समझीं?''

यादों के ऐसे कितने ही टुकड़े हैं, जो रात-दिन याद आते हैं, पर यादें कितनी पीड़ा देती हैं! हाँ, कानों में गूंजती है अभय की वह चुनौती। मैं जुट जाना चाहती हूँ अपने उस वजूद के लिए जिसे मैं अभय के साथ होने पर पता नहीं कब-कहाँ, किस मोड़ पर छोड़ आयी थी। मैं समझती थी, ब्याह के बाद जो कुछ है वह पति के लिए ही है। पति-प्रेम एक ऐसी जादू की छड़ी है जो जीवन में दुःख-दर्द आने ही नहीं देती, पर मैं गलत थी। मात्र कुछ वर्षों में मैं स्वयं को भूल गई थी। सिर्फ एक समर्पिता थी जो अपना अस्तित्व तलाशती थी; कभी पति की बाँहों में, कभी पति के चरणों में और कभी पति के घर में।

मेरा समर्पण इतना व्यर्थ निकला कि अभय उस एकरसता से कब बोर हो गया, ऊब गया मुझसे, मुझे पता ही नहीं लग पाया। जब पता लगा तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पिछले कुछ समय से मुझे लग जरूर रहा था कि अभय परेशान है, खोया-खोया रहता है। कभी लम्बे समय तक हाथ पकड़े बैठा रहता; जैसे डर रहा हो कि कहीं मेरी हाथ छूट न जाए। हो सकता है हमारा प्यार उसके अन्दर चल रहे द्वंद्व में उसे डराता हो या फिर वह छोड़ देने से पहले की पकड़ थी। जाने कैसा ठण्डापन था उन दिनों के स्पर्श में। तब मैं समझी, अभय परेशान होगा किसी बिजनेस प्रॉब्लम में। उसके चेहरे से लगता था कि वह घुटन महसूस कर रहा है, कहीं उलझा हुआ है। कभी मैं समझती, वह कहीं दूर है, बहुत दूर; मुझसे हजारों मील दूर। बस, केवल वह शरीर से मेरे साथ है और उसका अपने पास होने का भ्रम पालती रही।

कभी-कभी अभय प्रगाढ़ अन्तरगंता में डूबता-उतराता रहता, पर अब लगता है, वह भुलावा था या छलावा?

मैं कहती, ''आपको आजकल क्या हो गया है? इतने चुप, इतने खोये-खोये क्यों रहते हैं?''

''कुछ नहीं! फिर कभी बताऊँगा।''

मैं ज्यादा परेशान भी नहीं करती। अभय कुछ मूडी है, बात का सीधा जवाब कभी नहीं देता। फिर लम्बा-चौड़ा कारोबार, हजारों उलझनें हो सकती हैं, पर पिछले एक साल से अभय अक्सर दिल्ली से टूर पर रहता। अब तक हर दौरे पर एक बार तो मुझे भी ले जाता रहा था पर पिछले एक साल से दिल्ली के टूर पर मुझे चलने को नहीं कहा था।

इस बार जाते वक्त वादा किया था अभय ने, शादी की वर्षगांठ पर वह मुझे दिल्ली ले जाएगा और एक खूबसूरत तोहफा भी देगा। मैं उसी वादे पर अटकी इंतजार कर रही थी। दो माह का अकेलापन था। इतना लम्बा टूर अभय ने पहले कभी नहीं किया था। मैं कोशिश करती खुद को व्यस्त रखने की। कभी शॉपिंग करती, फिल्म देखती, कभी सेल में जाती, किचन का नया सेट, बेडकवर, परदे, पौधे बदलती रहती। यूँ भी अभय को बदलाव चाहिए। उसे घर की सजावट में चेंज पसंद है। वह अक्सर कहता, ''बदलती रहा करो ये चादर, ये कवर, ये परदे। मैं बोर हो जाता हूँ एक-सी व्यवस्था से।''

पर अभय, तुमने इस हद तक बदलाव पसंद किया, यह तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकती। तुमने तो मुझे भी बदल डाला। शायद तुम मेरे अस्तित्व को पलंग पर बिछी चादर की तरह समझ बैठे। मैं कोई तुम्हारे ड्राइंग-रूम में रखा फूलदान नहीं थी। उस दिन शाम मिसेज कांत के घर पार्टी थी गृहप्रवेश की। न चाहते हुए भी मुझे अकेले ही जाना था। वहीं मुलाकात हो गई कांत की 'दिल्ली वाली बुआजी'' से।

''अरे बुआजी, आप?'' मैं चहक उठी थी। वे मुझे अच्छी लगती हैं, पहले कई बार मिल चुकी थीं।

''हाँ, मीनू, कैसी हो.... ?''

''एकदम ठीक!'' मैं बोल गई, ''दिल्ली आने वाली हूँ।'' मैंने उत्साह से कहा।

''अभय तो वहीं है आजकल।'' कुछ रूककर मैंने फिर कहा।

''क्या अक्सर वहीं रहने लगा है?'' पूछते हुए उनका चेहरा एकाएक गंभीर हो गया। उनकी आँखों एक अजीब-सा भाव था जिसमें व्यंग्य भी था, दया भी।

''मीनू! तुमसे बात करनी है। चलो, ऊपर बालकनी में बैठते हैं।'' वे सहज होते हुए बोलीं।

''हाँ-हाँ, चलिए!'' मैं आगे चलने लगी।

वे बात का सूत्र जमाते हुए बोलीं, ''दुबली लग रही हो।''

''नहीं तो, सारा दिन खाती रहती हूँ, अकेली जो हूँ।''

''हाँ! मैं जानती हूँ पर तुम विरोध क्यों नहीं करती?'' वे कहने लगीं।

''किस बात का?''

''अभय के दिल्ली जाने का। तुम रोकती क्यों नहीं उसे?''

''दिल्ली जाने से क्यों रोकूँ भला!''

''तुम्हें नहीं मालूम? अकेली क्यों रहती हो, यही समझाना चाहती हूँ, पर तुमसे कैसे कहूँ? सोचती हूँ कि तुम मुझे बुआ कहती हो, इस नाते तुम मेरी बच्ची जैसी हो, तो मेरा फर्ज बनता है।'' वे चुप हो गईं।

मैं विस्मय भरे नेत्रों से उन्हें देखती रही।

''मीनू!''

''जी!''

''क्या तुम सचमुच नहीं जानती?''

मैंने उनका हाथ पकड़ लिया, ''क्या बात है?''

''बेटी! अभय दिल्ली बिजनेस के काम से कम और कुछ दूसरे ही कारण से ज्यादा जाता है। अभय के साथ एक लड़की रहती है। मैंने समझा, तुम्हें पता होगा।''

''नहीं तो!'' मैंने कहा, ''ऐसा तो हो ही नहीं सकता। अभय मुझसे प्यार करता है... वह मेरे बगैर जी भी नहीं सकता....।''

''हमने अपने आँखों से देखा है। वे सामने वाले मल्टी के फ्लैट में रहते हैं। शायद वहाँ के लोग उन्हें पति-पत्नी ही समझते हैं।''

मैं असहज थी उस वक्त। मन में थी लावा उगलती एक खीझ। मैं बुदबुदाने लगी थी, ''बुआ! क्यों मेरे सुख-चैन को यूँ छिन्न-भिन्न करना चाहती हो! न ही बतातीं तो अच्छा था। मैं अपने इस खोल में जी रही थी, क्यों अभय और मेरे रिश्ते का सच अनावृत्त कर दिया! मेरे जीवन का भ्रम, जिसे मैं सच समझे बैठी थी, क्यों तोड़ दिया! तुम्हारे एक सच से मेरे सारे सुख किन अ.श्य छिद्रों से बाहर निकल गए, मैं नहीं जानती। कितना सुख था अभय की पसंद के अनुसार घर की सजावट में बदलाव लाने का।'' बदलाव... बदलाव... बदलाव... शब्द का एक बोझिल भार मुझ पर लदने लगा... एक दर्द था, सर्द-सा दर्द। मैं खामोश थी, सजल नेत्रों से किसी के सामने सरलता से खुलती-बिलखती नहीं हूँ मैं। शायद यूँ खुल पाना मेरा स्वभाव ही नहीं। मैं अपनी पनीली आँखों को झुकाती भी नहीं, क्योंकि पानी टपक गया तो कमजोर पड़ जाऊँगी।

''तुम जानती होगी, हम तो यही समझे थे।''

''नहीं...।''

बुआ ने फिर मेरा हाथ पकड़ा था। वे कोमल स्वर में मुझे सान्त्वना दे रही थीं, ''मुझे क्षमा करना, मीनू, मैंने, तुम्हारा दिल दुखाया। तुम्हारे पत्नीव्रत को चोट पहुँचाई। तुम एक अ.श्य विश्वास के सहारे खड़ी थीं, जिसे मैंने जाने-अनजाने तोड़ दिया।'' वे चली गयीं।

मन में डर की नींव शायद उसी शाम पड़ी थी। रात का भयावह अँधेरा मेरे मन में भी भरा था। उस रात अभय के बदलाव की हद जानने के बाद मन चकनाचूर था। क्यों मैं भी बदल दी गई, कैलेण्डर के पन्ने की तरह?

अगले दिन सुबह-सुबह ही अभय ने दरवाजे पर दस्तक दी थी। मैंने दरवाजा खोला, अनमने-से भाव के साथ।

''क्यों, तबीयत खराब है क्या?''

मैं चुप रही।

''तुम्हारा चेहरा इतना उतरा हुआ क्यों है?''

''चाय पीओगे?''

''हाँ...''

चाय का प्याला देते वक्त मैंने महसूस किया था कि अभय फिर उलझन में है।

''क्या बात है, मैं तुम्हें उदास नहीं देख सकता।''

''तो देखना ही छोड़ दो।'' मैं आवेश में बोल गई।

अभय बगैर हिले-डुले अपनी जगह बैठा रहा था।

''कल दिल्ली वाली कांत की बुआजी मिली थीं, तुम्हारे फ्लैट के सामने वाले मल्टी के फ्लैट में ही रहती हैं।''

''ओह! तो यह बात है!''

मेरे होंठ थरथराने लगे थे और आँखें आँसुओं से लड़ रही थीं, ''तुमने कभी कुछ बताया क्यों नहीं, अभय!''

''क्या?''

''यही कि दिल्ली में तुम्हारे समर्पित व्यवहार से एक ताकत, एक शक्ति है जो मुझे रोक देती थी।''

कहते-कहते अपने बिखर पड़ने के क्षण को समेट लेती हूँ मैं।

''चलो, अच्छा हुआ, तुम्हें पता चल गया! तुम्हें बताने और समझाने के एक कठिन द्वंद्व से बच गया मैं।''

''फिर... ?''

''फिर क्या, मैं उसके साथ रहना चाहता हूँ।''

चुप रही मैं।

''तुम चाहो तो ये घर, ये सामान सब तुम्हारे पास ही रहेगा... तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी। जितना रुपया चाहोगी, तुम्हें मिलता रहेगा... मुझे समझने की कोशिश करो, मीनू!''

''अभय, यह दान कर रहे हो?''

''नहीं...।''

''तो फिर?''

''मैं तुम्हें परेशानी में डालना नहीं चाहता।''

''अभय, तुम भूल गए। यह घर... यह तो पहले से मेरा है; मेरे पापा का दिया हुआ, और जो रुपया है उसका मूल भी मेरा ही था। मेरे ख़याल से तुम तो तब भी खाली हाथ थे और अब भी।''

अभय की आँखें भी छलछलाती हुई लबालब हो रही थीं। उसने एक बार फिर मेरा हाथ पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, पर मैं हट गई थी।

अब इस स्पर्श में कुछ नहीं है। सब-कुछ बदल गया था। अब हमारे रिश्ते बदल गए थे, जिनका कोई दूसरा नाम नहीं था। नये सिरे से हमें लिखनी होंगी जीवन के रिश्तों की इबारतें।

क्यों हुआ ऐसा? एकदम पसंद की मिठास को पीते-पीते कोई बेहद फीका-सा स्वाद हमारे बीच आ गया था।

शाम होते-होते अभय चला गया था, बगैर बताए, फोन के पास एक पत्र छोड़कर, जिसमें लिखा था, ''मुझे माफ कर देना, मीनू! मैं जा रहा हूँ, शायद लौटकर न आऊँ। न ही आऊँ तो बेहतर रहेगा, क्योंकि तुम्हारी आँखों में उठते प्रश्नों के उत्तर मेरे पास नहीं हैं। ऐसा क्यों हुआ, कब हुआ, मैं नहीं जानता...।''

पत्र तह करते वक्त मैं बोल गई थी, ''तुम जरूर आओगे, अभय, एक दिन जरूर... पर अब बदलाव मेरे होंगे, मेरे अपने।''

दस साल बाद एक दिन फिर अभय मेरे सामने खड़ा था। दस सालों का यह अंतराल कैसे कटा, यह बताना अब जरूरी नहीं रहा। हाँ, मैं जिन्दा रही; मैंने आत्महत्या नहीं की, पर बदलाव की हद मैंने भी पार कर ली थी।

आज मैं उस शहर में जज के पद पर प्रमोशन के साथ पदस्थ हूँ। जी हाँ, उसी शहर में। कभी अपने लिए सही निर्णय न कर पाने वाली मैं मीनू उसी कुर्सी पर हूँ, जहाँ दूसरों के लिए भी निर्णय देने होते हैं; ऐसे निर्णय जो जीवन के मायने बदल सकते हैं।

एक दिन कोर्ट पहुँची तो आँखें विस्मय से फटी रह गयीं। सामने चालीस साल की उम्र में ही साठ साल के प्रौढ़ की तरह अभय खड़े थे। फाइल सामने थी। मिसेज सुमन सान्याल अपने पति अभय से तलाक चाहती हैं। केस में आरोप था - अभय बच्चे को जन्म देने में अक्षम है और सुमन माँ बनना चाहती है।

अभय आश्चर्यचकित थे। मुझे देखकर उनकी आँखें प्रश्नोत्सुक थीं। शायद खुद भी थीं मुझे सामने देखकर। बदलाव चाहने वाले अभय शायद बदलाव के क्रम में मुझे फिर पसंद कर रहे हों!

आज मुझे निर्णय देना था, पर अभय तो मेरे मन के कठघरे से बहुत पहले ही मुक्त हो गए थे। आज वे एक पत्नी के नहीं, एक जज के कठघरे में खड़े थे और निर्णय करने वाली थी मीनू, जिसे अभय निर्णय लेने में कमजोर कहते थे। सुमन सान्याल भी सामने थी-साँवली, दुबली-सी बंगालिन लड़की, जिसने मेरे जीवन में यह बदलाव ला दिया था। मेरे अपराधी तो शायद दोनों ही थे। एक तेजस्वी एकाग्रता लाते हुए मैंने आँखों पर चश्मा चढ़ाया, पर सुमन के वकील के न आने पर केस मुल्तवी हो गया। अभय और सुमन चले गये। मैं शाम पांच बजे तक अनमनी-सी कोर्ट में ही बैठी रही। शाम को जाने के लिए बाहर निकली तो अभय सामने खड़े थे।

''मीनू, कैसी हो...?''

''अच्छी हूँ...''

''मीनू, अब तो तुम्हें पता चल गया होगा कि मैं....''

''अभय, मुझे तो तब भी पता था। तुम्हें याद है, माँ के कहने पर हमने एक बार मेडिकल चेकअप करवाया था....?''

''हाँ, पर रिपोर्ट यही थी, मैंने तुम्हें नहीं बताया था, यह सोचकर कि तुम सच स्वीकार नहीं कर पाओगे।'' मैं बोलते-बोलते रुआँसी हो गयी।

''हाँ...''

''और मैंने तुम्हें इसलिए धोखा दिया क्योंकि मैं पिता बनना चाहता था। मैं समझा कि तुममे कमी है, तुम कभी माँ नहीं बन सकती।''

''....''

''मीनू, मुझे क्षमा कर दो, प्लीज....''

तभी मेरे पति विजय गाड़ी लेकर मुझे लेने आ गए और मेरी चार वर्षीया बेटी दौड़कर मुझसे लिपट गई, 'मम्मी-मम्मी' कहते हुए।

''मीनू... यह तुम्हारी बेटी...''

''हाँ, अभय, बदलाव की एक हद यह भी है। इनसे मिलो, ये मेरे पति हैं-विजय।''

''मीनू, जल्दी चलो, हमारी टिकिट बुक है और हम लेट हो रहे हैं।'' कहते हुए विजय मुझे खींच ले गए, बिना अभय की तरफ कोई ध्यान दिए।

'हाँ, यही सच है...।' मैं उनके साथ गाड़ी की ओर तेजी से कदम बढ़ाते हुए सोच रही थी।

भाग्यवती

शादी के बाद यूं तो मैं कई बार मायके गई हूँ लेकिन इस बार लंबे अरसे बाद मायके जाने का अवसर आया था। हर साल गर्मी की छुट्टियों में माँ-बाबूजी को अपने ही घर बुला लेती हूँ। इसी बहाने माँ को भी थोड़ा आराम मिल जाता है। बच्चों के साथ बाबूजी का भी समय कहाँ कट जाता है, पता ही नहीं चलता। माँ-बाबूजी की धार्मिक रुचि देखकर इसी बहाने घर में हवन, सत्संग भी करवा लेती हूँ। पर इस साल माँ ने चिट्ठी डाली थी सत्या तू ही आ जा घर पर कुछ जरूरी काम है। तेरे बाबूजी खेत बेचना चाहते हैं। सौदा तय करना है। सो मैं पुरानी याद में मग्न अपने मायके यानी गांव की ओर चल पड़ी थी। बच्चे भी साथ ही जा रहे थे। ट्रेन का रास्ता तो अच्छे से कट गया था पर गांव तक जाने के लिए दस किलोमीटर का कच्चा रास्ता हिचकोले खाती बस से ही पास करना था। बरसों बाद बच्चों को ले मैं ऐसी ऐतिहासिक बस में यात्रा कर रही थी। बच्चों को बड़ा मजा आ रहा था। कहने लगे माँ यही है तुम्हारी छकड़ा गाड़ी और फिर वे बस के हिचकोलों में मशगूल हो गए।

बच्चों की खुशी और उत्साह देखकर सारी थकान दूर हो गयी थी। फिर अम्मा और बाबूजी से मिलने का चाह, अपने बचपन की यादों को ताजा करती मैं आंखें मूंदकर बैठ गई। कब गांव आ गया पता ही नहीं चला। बाबूजी अपनी बूढ़ी आंखों से हमें तलाश रहे थे। बच्चों ने जब आवाज़ लगायी नानाजी - तो बाबूजी के चेहरे पर संतोष का भाव उभरा था। वे हमारे लिए एक घंटा पहले ही बस अड्डे पर आ गये थे। घर की गली में पहुंची तो सामने भाग्यवती ताई खड़ी थी। उम्र में सत्तरवें साल में होगी। आ गई बिटिया, तेरी अम्मा तो हफ्ते भर से तैयारी कर रही है कि दामाद आ रहे हैं और तेरे बाबूजी तो सुबह छः बजे ही नहा-धोकर बैठ गये थे - कहीं देर हो गयी तो मैंने हंसकर कहा अरी ताई बाबूजी न भी आते तो मैं तांगे से घर आ जाती - खामखां तकलीफ की उन्होंने? अरे मैं कोई अंजान थोड़े ही थी। मेरा तो गांव का चप्पा-चप्पा देखा भाला है। हर घर की याद है ताई, चाची, बुआ, सबके।

अच्छा ताई घर पर मां रास्ता देख रही है मैं चलूं।

हां जा पर आना जरूर? मैंने भी हामी भर दी। अम्मा हमारी आवाज़ सुनते ही साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछती बाहर दौड़ी आयीं। दोनों बच्चे नानी से लिपट गए थे और अम्मा की तो मारे खुशी के रुलाई ही फूट पड़ी थी कुछ बोल ही नहीं पायी।

इतना ठण्डा, कच्चा, गोबर की महक से पवित्र घर बरसों बाद देखा था। सब कुछ वैसा ही था। हाँ अब उतनी सफाई नहीं थी पर बरसों पहले जैसी ही व्यवस्थाएं आज भी यथावत थी। दोपहर में खाना खाने के बाद बच्चे नानाजी के पास लेट गए थे। मैं और अम्मा वहीं चौके में चटाई डालकर लेटे तो ऐसी नींद लगी जैसे मैं बरसों से सोई ही नहीं थी। शाम को अम्मा ने चाय बनाकर जगाया तब जाकर नींद खुली -

अरे अम्मा इतनी अच्छी नींद तो मुझे बरसों से नहीं आयी -- अम्मा मुस्कराई थी फिर बुदबुदाते हुए बोली बिटिया मायके का साया ऐसा ही होता है। चटाई पर भी नींद आ जाती है -- फिर वह चाय के प्याले थाली में जमाकर बैठकखाने में देने जाने लगी तो मुझे ख्याल आया मैं अम्मा के लिए एक ट्रे का सेट लायी हूँ। उठकर अटैची ले बाबूजी के कमरे में ही चली गयी -- अम्मा ये लो ट्रे, तुम्हारी थाली देखकर मुझे याद आया।

अम्मा बोली अरी बिटिया सारी जिन्दगी थाली में कप रखे अब का करेंगे ट्रे का -- फिर बच्चों ने बाबूजी के लिए जो कुर्ता पजामा और कोल्हापुरी चप्पल लाए थे वे निकालकर बताये -- नानाजी ये मैं लायी हूँ -- ये मैं लाया हूँ -- आपके लिए -- नानाजी वाह-वाह करते रहे -- अम्मा बोली नाहक ही इतना रुपया बिगाड़ आयी, दामाद बाबू क्या सोचेंगे? बेटी बाप से लेती है - देती नहीं। अम्मा कब बदलोगी तुम? कोई तुम्हारे जमाई बाबू के रुपयों से नहीं लायी हूँ। ये मेरी तनख्वाह का भी नहीं है, अम्मा जो टूटे टाप्स तुमने गलाने के लिए दिये थे न कुछ उस पैसे का है कुछ बच्चों ने जोड़ा था नानाजी की गिफ्ट के लिए। आत्मा ने अपने इस झूठ पर टोका था। पर अगर माँ को कह देती टाप्स तो पड़े हैं ये मैं अपने पैसों से लाई हूँ तो वो इसे कभी नहीं स्वीकारती।

फिर मैंने दूसरा सूटकेस खोला था। उसमें अम्मा के लिए मैं चार साड़ियाँ लायी थी। अम्मा आश्चर्य कर रही थी रत्तीभर के सोने में इतना सामान?

मैंने समझाया था रत्तीभर का भाव मालूम है तुम्हें?

फिर मैंने बाबूजी की तरफ मुखातिब होकर कहा था- ''बाबूजी प्लम्बर को बुलवा लो शाम को मैं छोटी मोटर लायी हूं, कुएं में फिट करवा लेंगे। अम्मा बेचारी अब इस उम्र में पानी खींचती है?'' अरे बिटिया इतना सब मत सोचा कर? फिर हम अपने-अपने काम में लग गए। बच्चे बाबूजी के साथ चौपाल पर गए थे -- अम्मा और मैं चौके में दही बड़ा तलने बैठ गए। इतने में भागी ताई आ गई थी। नाम तो भाग्यवती था पर गुस्सा बहुत करती थी। ताऊ से भी झगड़कर भाग जाती थी इसीलिए भागी ताई कहलाने लगी थी। ताई की बूढ़ी आँखें देखने आई थीं कि बिटिया आई तो क्या-क्या बना है? क्या लायी है? यह उनकी सदा की आदत थी। मैंने भी पकड़कर बिठाया। आओ ताई कैसी हो? ताई बोली बस जी रही हूँ। जब से तेरे ताऊ गए हैं अकेली पड़ी मरने की राह ताकती रहती हूँ।

मैंने महसूस किया कि सात बेटों की मां भाग्यवती ताई इतनी एकांकी जिंदगी की पीड़ा भोग रही है। ताई तुम भैया के पास क्यों नहीं रहती?

ताई ने एक उदास सांस ली। फिर बोली- ''नहीं बिटिया क्या करना है? यहीं अच्छी हूं। चार मनक बोलने को तो हैं। वहां तो मुंह बंद रख-रख के थकान हो जाती फिर लड़के के घर में जगह नहीं है। मंझला तो मां से बोलता भी नहीं। उसकी लुगाई से काम भी नहीं होता, वहां जाऊं तो रोटी ही बनाती रहती हूं। छुटके की औरत बड़े घर की बेटी है। दान-दहेज इतना लायी पर दिल छोटा लायी। उसमें गरूर भरा है, पति को ही रोटी दे दे तो समझो गंगा नहाए। मुझे कहां रखेगी - फिर मरी मेरी जुबान भी तो।'' मुझे हंसी आ गई थी। ''कोई बात नहीं ताई तुम मेरे घर चलो?''

ताई बोली- ''नहीं रे बेटी के घर कैसे जा सकते हैं। फिर तेरा घरवाला बड़ा अफसर है। मेरी गोली सुनके तुझे भी मेरे साथ भगा देगा।'' हम हंसने लगे थे। अम्मा दहीबड़ा प्लेट में डालकर ताई को पकड़ा रही थी ''लो जीजी खा के बताओ कैसा बना है।''

ताई थोड़ा सकुचाते हुए बोली-''रहने दे सत्या की मां। घर में बच्चे आए हैं मैं तो यूं ही आ गयी थी।'' अम्मा बोली- ''जीजी आज तो सत्या आई है उसके हाथ का खाना खाये बरसों हो गये हैं आज तुम भी यहीं खाना खा लेना।'' ताई दही बड़े का स्वाद लेने लगी तो अम्मा ने मुझे इशारे से बुलाया था ---बाहर गयी तो मेरी लायी साड़ियों में से अम्मा ने एक मुझे देकर कहा यह ताई को दे दे। फटी साड़ी पहनती हैे। मुझसे नहीं देखा जाता। रोज सिलाई करती है। कभी यहां से तो कभी वहां से। सालों हो गए। नई साड़ी पहने देखे को। मैंने कहा अच्छा अम्मा ठीक है।

फिर मैं ताई को अन्दरवाले कमरे में ले गयी। ताई को साड़ी दिखाई और पूछा कैसी लगी ---ताई कहने लगी बहुत अच्छी है। क्या अपनी अम्मा के लिए लायी है। मैंने कहा नहीं। तो आश्चर्य से मुझे देखने लगी। मैंने धीरे से कहा ताई यह तुम्हारे लिए है और ब्लाऊज मैं कल फटाफट सिलकर दे दूंगी।

ताई की आंखों से सावन-भादों की तरह झड़ी लग गयी थी। वह बोल नहीं पा रही थी। मैंने उसे सहज करने के उद्देश्य से फटाफट उसकी साड़ी खोलकर नई पहना दी। उसकी फटी साड़ी मैंने फाड़कर अम्मा को दे दी। अम्मा ये लो अब ताई ये साड़ी ही पहनेगी। फिर मैंने ताई का नाप लेकर अम्मा की बरसों से बंद पड़ी सिलाई मशीन को तेल-वेल डालकर चालू किया और दो ब्लाऊज सिल डाले। सत्तर साल की .शकाय वृद्धा को कोई टुक्की या फिटिंग का झंझट तो था नहीं।

ताई सुबह जब हमारे कुएं से पानी भरने आयी तो देखकर मन रोने को हो आया। मैंने दोपहर में ही प्लंबर को बुलवाया। कुएं में मोटर फिट करवाई। जब नल अम्मा के किचन में फिट करवा रही थी तो ख्याल आया यदि पाईप चार फुट बढ़ाकर दीवार के पार डाल दिया तो ताई के किचन में भी पानी पहुंचाया जा सकता है। बस फिर मैंने 50 रूपया और खर्च कर ताई के घर भी नल लगवा दिया था।

कभी गालियों की बरसात करने वाली ताई के मुंह से आज दुआएं और आशीर्वाद ही आशीर्वाद झर रहा था। मुझे आज भी याद है जब वह बात-बात पर मां को बेटी की मां होने का ताना देती थी और खुद के पुत्रवती होने पर गर्व करती थी।

कहती थी अरे सत्या तोे बेटी से काम करवा रही हो। हां भाई बेटी की मां रानी बुढ़ापे में भरेगी पानी। ताई बेटों के लिए सुबह से शाम तक खटती रहती थी। गरम रोटी से लेकर सुबह पांच बजे पढ़ने उठाने तक की जिम्मेदारी ताई की होती थी। सपनों के हिंडोलों में झूलती ताई, तब सपने देखती थी कि उसके सात बहुएं आयेंगी। कोई उसे पंखा झलेगी, कोई उसे सोने के झूले पर झूला देगी। कभी इस बहू के तो कभी उस बहू के मायके से साड़ी और मिठाइयाँ आयेंगी। ताई मोहल्ले में मिठाइयाँ बांटने का सपना देखती रहती थी।

ताई की दशा देखकर मन में नारी जीवन की पीड़ा का मवाद भरने लगा था। सात-सात पुत्रों वाली भाग्यवती का भाग्य कहां खो गया था। कितनी आस और इच्छा से पिता ने उसका नाम भाग्यवती रखा होगा, पर फटे चिथड़ों में लिपटी दो जून रोटी को तरसती ताई के दुर्भाग्य की कहानी शब्दों में बयान करना आसान नहीं। केवल जुबान की हलकट थी ताई वरना उसके जैसी सती सावित्री योग्य महिला ढूंढना कठिन था।

पड़ोस का घर था। ऊपर से समाज भी एक ही था सो ताई कहते हैं। वैसे हमारा उनका कोई रिश्ता नहीं था। अम्मा चाहती थी मेरा रिश्ता ताई के डिप्टी कलेक्टर बेटे से हो जाए। हम भी तो मन ही मन एक दूसरे को पसंद करते थे, पर ताई की ही कड़वी जुबान ने तब जहर उगलकर अम्मा को निपूती होने का ताना देते हुए कहा था। नहीं वो तो किसी बड़े घर में भाइयों की इकलौती बहन से नाता करेगी। अरे मायका तो बहू का हमेशा बना रहना चाहिए। नेक दस्तूर चलता रहता है। फिर तो मैं और अम्मा बाबूजी के तय किए रिश्ते पर राजी हो गये थे। बाबूजी ने भी मेरे लिए अच्छे से अच्छा रिश्ता तय किया था। इतना अच्छा कि ताई की आंखें आश्चर्य से फटी रह गयी थीं। आज ताई अम्मा से कहती है अरे सत्या की मां मेरा घमण्ड तो मेरे ही बेटों ने तोड़ा है वरना सत्या जैसी बिटिया को खोकर मैंने ही रत्न खो दिया है।

मेरी सातों बहुएं सत्या की पासंग भी नहीं हैं पर सब ऊपर का लिखा योग संयोग है।

मैं पन्द्रह दिनों की अपनी मेहमान नवाजी करके फिर चल दी थी। ताई भी मेरे लिए ब्लाऊज और बिछिया लायी थी। बस में बैठी तो याद आया ताई का वह डिप्टी कलेक्टर बेटा तो दस किलोमीटर दूर शहर में ही है। फोन नम्बर बाबूजी से ले लिया था। हिचकोले खाती बस में बैठना अब अच्छा नहीं लग रहा था। मायका छोड़कर जाने और पुरानी यादों के ताजा होने का गम भी था। मैं बाबूजी को बस अड्डे तक जानबूझकर नहीं लायी थी क्योंकि मैं अकेले सहाय बाबूजी को छोड़कर जाने की पीड़ा प्रकट नहीं करना चाहती थी।

मेरे स्टेशन पहुंचने के कुछ देर बाद देखा बाबूजी रामू काका के स्कूटर पर बैठकर बस तक आ गए थे। कहने लगे चिन्ता हो रही थी। जगह मिलेगी कि नहीं संभलकर जाना, पहुंचते ही पोस्टमास्टर जी के घर फोन पर खबर दे देना। सामान का ध्यान रखना, वगैरह-वगैरह नसीहतों की एक लम्बी श्रृंखला, उन्होंने मुझे थमा दी थी।

उदास मन से मैं देखती रही चलती बस की खिड़की से...... आंखों से ओझल होते बाबूजी को। शहर पहुंची तो रेलवे स्टेशन से ताई के उस डिप्टी कलेक्टर बेटे को फोन किया था। वह सत्या का नाम सुनते ही चौंका था फिर लिवाने कार लेकर आ गया था। रेल दो घण्टे लेट थी, सोचा देख ही आऊं इसके ठाठ-बाट। मैं उसके साथ उसके बंगले पर पहुंची। बड़ा आलीशान बंगला था। मोटर गाड़ी, नौकर-चाकर, साज-सामान सब था। मेरी खूब आवभगत की उसने। हम बचपन के साथी थे। बहुत हक रखते थे एक-दूसरे पर। उसी हक से उसने पूछा था कैसी हो? कभी याद आती है?

मैं उसके प्रश्न पर चुप रही थी। फिर नम आंखों को पोंछते हुए मैंने कहा मन्नू बाबू तुम्हारे अतीत का मखमली सपना मेरी यादों में था, पर इस बार तुम्हारे यथार्थ का जर्जर स्वरूप लेकर जा रहीं हूं। देखना चाहोगे? तो देखो? मैंने झोले में रखी ताई की वह चिथड़ा-चिथड़ा हो आयी साड़ी उसकी डायनिंग टेबल पर रख दी थी। मन्नू बाबू शर्मसार हो गए थे। कहने लगे 'सत्या' मैंने हमेशा तुम्हें प्रेरणा और आदर्श माना है। तुमने मुझे इस सत्य का दर्शन करवाकर एक नया .ष्टिकोण दिया है। मैं दूसरे दिन मां को फोन पर पहुंचने की सूचना देने लगी तो मां ने बताया मन्नू बाबू आए थे, ताई को बड़े मान-मनोवर के साथ ले गए हैं। फिर वह कहने लगी तेरे बाबूजी कह रहे थे यह सत्या का ही काम है। तू गयी थी क्या?

नौटंकीवाली

सड़क के किनारे-किनारे पैदल चलते-चलते ही तो जिंदगी के रंग दिखायी देते हैं। जो पैदल चलते ही नहीं हैं वे जिन्दगी को शायद गाड़ी की व्हील पर ही दौड़ाते रहते हैं-रूकते नहीं हैं। तभी तो मशीन की तरह होते जा रहे हैं, पर गाड़ी से उतर कभी-कभी यदि वे भी मेरी तरह सड़क किनारे से जाती पगडंडी पर चलते हुए उन कच्चे टिन-टप्परों की तरफ रूख करें, तो उन्हें ऐसी जाने कितनी कहानियाँ जीती-जागती मिल जायेगी और भाग्य के लिखे को भोगती कितनी ही नसीम बानो... जिंदगी की कड़वाहट के घूंट पी रही अपनी कहानी खुद कह रही होगी।

शहर के एक कोने में स्थित यह झुग्गी-बस्तियों की नई कॉलोनी तेजी से विस्तार पाने लगी है। यूं तो यह बस्ती बरसों से है पर पहले दो-चार-दस घर थे आज यह शहर की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती हो गयी है। इस बार कहानी इस बस्ती से मुझ तक नहीं पहुंची बल्कि मैं खुद चलकर इस कहानी तक पहुंची थी।

टेलीफोन पर जब मैंने अपनी सहेली ऊषा से कामवाली बाई ढूढंने को कहा था तो उसी ने मुझे यहाँ का रास्ता बताया था। रेल्वे क्रॉसिंग के पार जो झोंपड़ पट्टी दिखती है ना!''

''हाँ-हाँ।''

''बस एक दो दिन जरा वहाँ घूम ओर सर्वे कर डाल।''

''उससे क्या होगा?''

''उससे तुझे एक-छोड़ चार कामवाली मिल जायेगी।'' ऊषा ने फोन पर सलाह दे डाली। तभी से यह बात मन पर अपनी जगह बना चुकी थी-और मैं गाड़ी रेलवे क्रॉसिंग के इस तरफ पुलिस चौकी के पास पार्क कर पैदल ही चल पड़ी थी। नाक पर रूमाल लगाए साड़ी को एक हाथ से समेट कर गंदगी से खुद को बचाती हुई। हर आँख मेरा पीछा कर रही थी। कुछ दूर चलने के बाद एक अजीब सी घबराहट हुई। मन पछता रहा था ऊषा की मुर्खताभरी सलाह को अमल में लाने की बेवकूफी पर। सामने एक ओटलेनुमा जगह पर बैठी उस औरत को देख मैं वहीं पहुँच गयी ''यहाँ कोई घरेलू काम करने वाली बाई रहती है?''

वह मेरी बात का जवाब देती उसके पहले ही ओटले से लगी झोंपड़ी से एक अठारह साल के आसपास की उम्र की लड़की लपककर मेरे सामने आ गयी.. ''क्या काम है?''

''देखो, मुझे घर के काम झाडू-फटका, कपड़े-बर्तन करने के लिए बाई चाहिए।''

''पगार कितनी मिलेगी?'' उम्र कम होने के बावजूद उसके इस प्रश्न ने स्पष्ट कर दिया था कि वह दुनियादारी जानती है।

''जैसा काम वैसा पैसा।'' मैंने बात गोलमोल तरीके से आगे बढ़ायी थी।

''कितने मनक हैं घर में?''

''चार, दो बच्चे और दो हम।''

''हजार रूपया लूंगी, झाडू-फटका,पोता ओर कपड़ा बर्तन का। रविवार को एक टेम और किचकिच नहीं होना।'' वह सब बातों का खुलासा कर रही थी और मैं हाँ करके भी सोच रही थी ब्राह्मण घर और मुसलमान कामवाली रखकर कहीं मैं गलत तो नहीं कर रही।

अगले दिन वह पता पूछते आ पहुँची काम पर। लड़की काम में भी चतुर थी और तेज तर्रार भी। काम करके थोड़ा बहुत टी.वी. देखने बैठ जाती। धीरे-धीरे वह घर में घुल-मिल गयी और बचा हुआ खाना बगैरह भी ले जाती। बातचीत में अब वह खुलने लगी थी। अकसर टी.वी. पर फिल्मी गाने देखना उसे अच्छा लगता था। पुरानी फिल्मों के गाने वह गुनगुनाती भी थी। एक दिन टी.वी. पर वहीदा रहमान की कोई फिल्म आ रही थी जिसमें वहीदा रहमान नाटक कम्पनी के साथ काम करती है। मैं मशीन पर रजाई की खोल सिल रही थी वह अकेली ही टी.वी. देख रही थी- अचानक वह जोश में आ गयी- ''मत जा बेअकल-मत जा नौटंकी वालों को कोई भरोसा नहीं- पछताएगी''

''क्या, हुआ रे रेहाना?'' मैंने टोका।

''देखो ना बाई साहब- ये भी वही मुर्खता कर रही है ---।''

''कौन सी मुर्खता?''- ये तो फिल्म है नाटक है- ऐसा होना जरूरी थोड़े ही है। ''मैंने यह बात उसे बच्ची समझ समझाने के इरादे से कही थी, पर वह रो पड़ी देखना इसके बच्चे होंगे ना तो वो भी मेरी तरह दर-दर भटकेंगे-पर नाचने गाने की शौकीन औरतों को ये सब नहीं दिखता।'' वह पछतावे के लहजे में बड़बड़ा रही थी।

फिल्म के किसी .श्य ने उसकी दुखती रग को छेड़ दिया था। मैं उठकर फिल्म देखने लगी - ''क्या हुआ तुझे रो रही है पगली। बिल्कुल अपनी गुड्डन की तरह है तू वह भी देखती जाती है और रोती जाती है। मेरी सहानुभूति ने उसके किशोर मन के तार छेड़ दिए थे। वह मेरी तरफ रुख करके कहने लगी- ''ये नौटंकी वाले झूठे और फरेबी होते हैं। लड़कियों को फंसा लेते हैं- बड़े-बड़े वादे करके भगा ले जाते हैं- पर समर्पित कलाकार को दो वक्त की रोटी दे पाने में भी सक्षम नहीं है।''

''तुझे,इतना सब कैसे पता इनके बारे में।''

''मेरी हालत आपको पता तो है। मेरे नाना इतने बड़े आदमी थे- पर अम्मी ने नौटंकी कम्पनी के साथ भागकर उसके मुसलमान मालिक से शादी कर ली थी... आज हमारी ये बदहाली, भूखमरी ज़िंदगी उसी का तो फल है।''

''तो क्या तेरी अम्मी मुसलमान नहीं है?'' मैं आश्चर्य और जिज्ञासा में पूछ बैठी।

हाँ, मेरी अम्मी तो मराठा है-पर भाग गयी थी अब्बा के साथ.. इसलिए मुसलमान धरम ले लिया था। बस तभी से सुनंदा से नसीमा बन गयी।

मेरे मानस पटल पर यह नाम कुछ दस्तक देने लगा ऐसी एक घटना मेरे गाँव में भी घटी थी। तब मैं स्कूल में पढ़ती थी। सारे गाँव में चर्चा थी सूबेदारजी की बेटी नाटक कम्पनी के साथ भाग गयी। बचपन की वह घटना ताजा हो गयी। जब मैंने माँ से जिद की थी कि ''चलो ना अपन भी नौटंकी देखने चलते हैं।'' और बाबा ने जोरदार तमाचा मारा था- ''नौटंकी का नाम भी लिया तो टांग तोड़ दूंगा।''

माँ समझाती रही- ''अच्छे घर की लड़कियाँ नौटंकी देखने नहीं जातीं। जब कठपुतलियों वाला आयेगा तब अपने ओटले पर ही तो करेगा तब सब लोग देखेंगे।''

रेहाना चली गयी घर। आज बासी रोटी की जगह मैंने उसे कटोरे में ताजे दाल चावल दे दिए थे। मन में आज रेहाना ने नयी जगह बना ली और ये लगता रहा हो ना हो नसीम - सूबेदारजी की ही बेटी है।

बस यहीं से मुझे यह दुखभरी कहानी मिल गयी। बड़ी मामूली सी कहानी है नसीम बानो की दुखभरी जिंदगी की। मेरे गाँव में जन्मी वह पास के ही मोहल्ले के खाते-पीते रोबदार सूबेदार परिवार की लड़की। बनने-संवरने का शौक, गाती इतना सुरीला कि मिश्री धरी हो गले में। सूबेदारजी के घर के सामने दशहरा मैदान में डेरा डाला था नौटंकी कम्पनी वाले ने, बन्द तम्बू तना था पर उसका प्रभाव पूरे गाँव पर खुला पड़ रहा था। सारे गाँव में नौटंकी की चर्चा थी-खबरें हवा के साथ आसपास के गाँवों में भी पहुँच रही थी, शाम होते होते गाड़ी भर-भर के लोग दशहरा मैदान में तने तम्बू में समाने लगते। हर दूसरे दिन गाँव में भोंपू पर ऐलान होता बस अंतिम दो दिन और महीना गुजर गया-पर भीड़ कम होने का नाम नहीं ले रही थी। नाचने वाली सुरैया जब चूढ़ीदार पजामे पर घेरदार लम्बा फ्रॉक पहन नाचती तो जवान लड़के भी झूम उठते ओर ऊँघते बूढ़े भी। सूबेदारजी की बेटी भी चार बार नौटंकी देख आयी थी। सूबेदारजी को मुफ्त में ये सुविधाएँ उपलब्ध थीं। यह बात तब पता चली थी जब एक दिन-सुबह-सुबह गाँव भर में हल्ला मच गया था कि रातों रात नौटंकी कम्पनी अपना डेरा उठा भाग खड़ी हुई और साथ में गाँव के सूबेदार की जवान बेटी को भी ले गयी।

माँ ने सुबह-सुबह बाबा से कहा था अब अगर गाँव में नौटंकी वाली कम्पनी घुसने की कोशिश भी करे तो घुसने से पहले ही उनके डेरे-डमरे तोड़ देना। मजाल है अब हमारे गाँव में कोई नौटंकी वाला पाँव भी धरे।''

घर में काकी को तो मौका ही मिल गया था ''अरे अपनी चंदा को भी मटकने का शौक चढ़ा था उस घूंघरू वाली सुरैया के लटके-झटके देखकर, वो तो मैंने उसे ऊंच-नीच समझायी थी... नहीं तो आज अपनी लड़की..भी...।''

काकी की बात याद आ गयी ''ये मरी तवायफें भी गजब की हुनरबाज होती हैं।''

मेरे बालमन में एक नया शब्द तभी आया था ''तवायफ...ये क्या होती है?''

''काकी ने धीरे से समझाया था- बड़ी सुन्दर होती हैं वे, गाती बहुत अच्छा हैं और नाचती तो ऐसा हैं कि सारी आदमी जात को नचा डालती है।'' काकी ने अपना सारा ज्ञान मुझे परोसा था। खेल-खेल में एक दिन मैं छोटी मुन्नी के नाचने पर बोल पड़ी थी ''-ज्यादा अच्छा मत नाच, अच्छा नाचने वाली तो-तवायफ होती है।'' ये शब्द बाबूजी के कानों में भी पड़ गये थे- अंगारे जैसे लाल आँख निकालते वे मुझे पकड़ बोले ''कहाँ से सुना तूने ये शब्द? बता-बता-दूसरी बार जबान पर आया तो जलता अंगारा जबान पर रख दूंगा समझी?''

''पर सुनंदा के हालात देख काकी की बात पर विश्वास नहीं हुआ। अगर नौटंकी में नाचने वाली हर लड़की तवायफ होती तो सुनंदा झोपड़ी में नहीं कोठे पर होती। सुबह दस बज गए-रेहाना काम पर नहीं आयी-मन चिंता सी करने लगा पहली बार मुझे लगा उसके न आने पर मुझे काम की चिंता नहीं-बल्कि एक अबोध सी बच्ची के प्रति एक अपनत्व बोध से पनपने वाली चिंता हो रही है। मैं गाड़ी ले उसके घर पहुँच गयी- रेहाना घर पर ही थी उसकी मम्मी को बुखार था- मैंने सहज ही पूछ लिया ''कैसी हो सुनंदा?''

वह चौंककर उठ बैठी ''कौन हैं आप?''

''पहचानो?''

''अब पहचानने की ताकत कहाँ है?''

''मैं तुम्हारे गाँव के वैद्यजी की बेटी हूं।''

''ओह-पर तुमने मेरा पता कैसे ढूंढ लिया? तुम तो तब बहुत छोटी थीं।'' वह थोड़ी-सी पहचान से डरते हुए पूछ रही थी। ''ये क्या हाल कर लिया सुनंदा तुमने?''

जो नसीब में बदा था-वह तो भोगना ही है। सुनंदा सालों बाद ये नाम-आज कान में पड़ा-पर सुनंदा तो एक बार घर से भागी तो- समझो मर ही गयी- रह गयी नसीम बानो-सोलह साल की उस खूबसूरत नसीम बानो को उस जमाने में लोगों ने हाथों-हाथ लिया। नौटंकी वाले ''रज्जाक हुसैन'' को मुझसे इतनी संभावनाएँ दिखाई पड़ी कि उन्होंने मुझे अपनी चौथी दुल्हन ही बना लिया- और सुनंदा नसीम बानो हो गयी- कम्पनी चल पड़ी- लाखों के वारे न्यारे होने लगे- रज्जाक मियां लखपति हो गए- नसीम नाचने की कला का हुनर सीखती रही-एक दिन रेहाना जन्मी.. और कम्पनी का पतन शुरू होने लगा- रज्जाक को दाल रोटी को लाले पड़ने लगे- उसने नसीम.. को लाला की नौटंकी में बेच दिया- लाला की नौटंकी में नसीम ने खूब कमाया- बिहार, नेपाल, उत्तरप्रदेश... जाने कहाँ-कहाँ... पर पैसा रज्जाक बटोर लेता। नसीम रेहाना का पेट भी मुश्किल से भरने लगी। फिर..नसीम का नसीब देखो-लाला मर गया-नौटंकी कम्पनी बंद हो गयी- इसी शहर में शो करने आयी नसीम... यहीं नसीब को कोस रही है।

नसीम बानो के अंदर दबी सुनंदा फिर जी उठी थी-शायद मुझसे अपना दर्द बांट रही। आज अपने भाग्य को देखती हूं- एक वो जमाना था जब एक बार मंच पर जाती तो लोग उतरने ही नहीं देते। दर्शक सिर्फ नाचते हुए देखना चाहते थे। आज बोलते नहीं बनता और तब आवाज ऐसे खनकती थी जैसे काँच की चूड़ियाँ।''

''पर तुम लौटकर सूबेदारजी के घर क्यों नहीं आयी?'' मैं सहज पूछ रही थी वैसे ही जैसे मैं गुस्से में पति से झगड़ मायके पहुंच जाती हूं बाबा के पास। फिर सुलह कर लौट आती हूं।

''किस मुँह से जाती-बाप के मुंह पर कालिख पोत आयी थी।''

''उससे क्या हुआ बेटी तो बेटी है।''

''तुम्हारे मायके जाने से बाबा की आंखों में चमक आती होगी-पर मेरे जाने से बाबा की आँखों में नफरत और शर्म ही उतरती। नहीं गयी अच्छा ही रहा...''

''दूसरी जगह काम नहीं मिला क्या?''

''दूसरी कम्पनी ने पैसा देने की बात पर रखा तो, पर वह कुछ और ही करवाना चाहता था मुझे मंजूर नहीं-अरे अच्छे खानदान के गुण कभी तो असर दिखाते ही हैं। बस तभी से यहीं हूं-कुछ बर्तन भाड़ा, करके घर चला ही लिया!''

''पर कला का ये मोल तो नहीं होना चाहिए? ''

''अब काहे की कला-सिनेमा में कला को नंगा नाचते देखने के बाद कहाँ बची कला-वला।'' कला तो यूं ही भूखे दम तोड़ती है। ''आजकल।''

''रज्जाक मियां के पास नहीं गयी-बेटी तो उन्हीं की है'' मेरे प्रश्न पर गीली आँखों को पोंछती है नसीम बानो ''अल्लाह उसे जन्नत नसीब करे-- उसने मुझे शोहरत, दौलत सब दी थी- पर बाद में मैंने ही ना कर दी- मैं नाराज थी उससे। उसने मुझे लाला को बेचा था। उसे रूपया चाहिए था- कहकर देखता मैं खुद कमा कर ढेर लगा देती...पर विश्वास को यूं तोड़ा?'' रेहाना चाय लायी थी... मैं दुविधा में पड़ गयी-मन के अंदर ब्राह्मणत्व था.. फिर झोंपड़ पट्टी की चाय? वह भी मुसलमान के घर पर। मैं दुविधा में थी। उसी मन के एक कोने में अपनत्व भी डेरा डाल चुका था- सालों बाद एक गाँव की दो बेटियाँ एक साथ सुख-दुख बांट रही थी- चाय के लिए हाथ स्वतः बढ़ गया और मेरी दुविधा खत्म हुई।

सोचती हूं - क्या गाँव के गाँव अपने लटके-झटके से नचाने वाली एक कलाकार रेलवे क्रॉसिंग के पार सड़क के किनारे कच्ची झोपड़ी में जवान बेटी को ले बेसहारा पड़ी अपने दुर्भाग्य की कहानी यूं किसी को सुना रही हो? तो दोषी कौन रहा-गाँव में नौटंकी का जादू? सुरैया के चर्चा में उपजी महत्वाकांक्षा जो सुनंदा का ेनसीम तक बना आयी। सूबेदार के रौबदाव से मुफ्त में बच्चों का नौटंकी देखना? रज्जाक की वे पारखी आँखें, जिन्हें सुनंदा में अपार संभावनाएँ दिखी? या रेहाना का जन्म जिसने नसीब को पलटी दी? पता नहीं-शायद दुर्दशाओं के लिए हाथ की लकीरें ही जिम्मेदार होती हैं। मैं खड़ी होती हूं-पर्स में क्रोसिन की टेबलेट हमेशा रहती है-रेहाना की हथेली पर पचास का नोट और क्रोसिन रख देती हूं-दूध ले आ अम्मी को बुखार उतरने की यह गोली दे देना .. और डॉक्टर शर्मा के यहाँ ले जाना मैं फोन कर दूंगी?

''सुनो तुम गाँव जाओ तो किसी से मत कहना...।''

दूसरी औरत

इस बार गर्मी की छुट्टियों में इनके पैतृक गाँव जाकर जमीन का सौदा तय करेंगे। यह योजना जनवरी में ही बन गई थी। जमीन तो बरसों-बरस से यूँ ही पड़ी थी। ससुरजी के बाद उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। इन्हें तो गाँव जाना भी कहाँ जमता है। मैंने ही मान-मनौवल की थी कि एक बार चलकर बेचने से पहले उस मिट्टी को प्रणाम तो कर लो, वह हमारे बुजुर्गों का आसरा थी। बेचने के बाद तो शायद गाँव से नाता बनाए रखने का सूत्र ही ना बचे। थोड़ी झिक-झिक के बाद ये गाँव चलने को तैयार हो गए थे। खेत और मकान, दोनों का ही सौदा तय करना था। मकान में जानकी मौसी रहती थीं। अगर समय रहते मकान नहीं बेचा तो समझो गया। मौसा थे तो किराया बराबर आता था, पर मौसी किराया नहीं भेज रही थी। इन्हें तो किराया न आने से कोई फर्क नहीं पड़ता था, पर रतन काका बार-बार गांव से पत्र भेजते थे कि अच्छा सौदा है अगर मकान बेचना है तो उनके साले साहब क्रय करना चाहते हैं।

जाने की सब तैयारी हो गई थी, पर ऐन वक्त पर जरूरी मीटिंग का आड़ लेकर ये फिर रूक गए और मुझे अकेले ही जाना पड़ा। न जाती तो संजय के ब्याह के बाद ही जाना सम्भव होता। पर तब फिर इतना अच्छा सौदा जमे ना जमे? फिर रूपयों की खासी जरूरत तो ब्याह के खर्चों के लिए थी ही। दूसरा, बहू के सामने पैतृक सम्पत्ति बेचने पर इम्प्रेशन भी खराब हो जाता है।

गांव पहुंची तो सवाल उठा कहां रूका जाए? यूं तो और भी नातेदारी है। रतन काका तो मुझे लेने भी आए पर जाने क्यों खुद के मकान में, जहां जानकी मौसी रहती है, वहां रूकना अच्छा लगा। रतन काका का कहना था, मैं वहां न जाऊं, क्योंकि उनसे मुझे घर खाली करवाना है, पर मैं वहीं चली गई। वे सासू-माँ की बहन थीं, इसी नाते हम उन्हें मौसी ही कहते हैं।

जानकी मौसी उम्र के इस पड़ाव पर भी खूबसूरत दिखती हैं। उम्र की मार से ज्यादा गरीबी और तंगहाली ने बुढ़ापा ला दिया था। समय कितनी जल्दी गुजर जाता है और अपने अच्छे-बुरे निशान छोड़ जाता है। जानकी मौसी का स्वास्थ्य समय के उन्हीं दुखद निशानों का बखान कर रहा था।

दरवाजे पर ताँगा रूका तो मौसी दरवाजे पर आ गई थी। मुझे देखते ही बोली, ''अरी भारती बिटिया तू? कब आई री? ना चिट्ठी ना खबर?'' कहकर मुझे हाथ पकड़कर अन्दर ले गई। मैं भी उनके साथ अन्दर पहुंची, ''पाँय लागूँ मौसी!'' कह मैंने उनके चरण स्पर्श किये तो वे कोर पोंछते हुए मेरी सासू-माँ को याद करने लगीं, ''श्यामा जीजी बड़ी भाग्यवान थी जो तेरे जैसी गुणवंती बहू मिली थी उसको, पर भगवान ने भी उसके सुख के दिन आने से पहले ही उसे उठा लिया।'' आँखों के साथ इस बार उनकी आवाज भी भीग गई थी।

यहां-वहां के हाल-चाल पूछने के बाद वे बोली, ''रतन लालाजी पिछले माह से परेशान कर रहे हैं, मकान खाली कर दो जीजी। भारती इसे बेचना चाहती है। क्यों बहन की प्रॉपर्टी पर नागिन की तरह पसरकर बैठी हो? अरे एक तो रहने को आसरा दिया था तुम तो मालकिन ही बन गई?

मौसी की बात से मुझे लगा, हमसे ज्यादा इस प्रॉपर्टी की रतन काकाजी को चिंता है? जरूर इसमें उनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ है। तभी वे हमारे भी कान भरते रहते हैं। मौसी को इतनी बड़ी बात बोलना तो दूर, हमने सोची भी नहीं थी और काकाजी कैसे बोल गए, पर मैं कुछ नहीं बोली, चुपचाप सुनती रही।

कुछ देर बाद ही जानकी मौसी कहने लगी, ''तू थोड़ा आराम कर ले, मैं चाय बनाकर लाती हूं।'' मैं मुंह-हाथ धोकर निकली तो वे सामने चाय के साथ नाश्ते में आलू का गरम गरम परांठा और लसूए का अचार भी ले आई थी। चाय-नाश्ते के बाद वे कहने लगीं, ''जा सामने वाले कमरे में पलंग लगा है, तू लेट ले। रातभर का सफर था, थक गई होगी।''

''हाँ मौसी, आजकल आदत नहीं रही ना, थकान तो लग रही थी पर तुम्हारी चाय और लसूए के अचार ने सब थकान दूर कर दी, पर थोड़ी कमर सीधी कर लेती हूं।'' सामनेवाले कमरे की ओर जाते जाते याद आया तो पूछ लिया, ''महेश लाला नहीं दिखाई दिया? बाहर गया है क्या?

''नहीं रे! अभी उठा ही कहाँ? दस-ग्यारह बजे बिस्तर छोड़ेगा तब हाय-तौबा मचा देगा!'' उनके भाव में वात्सल्य टपक रहा था जो एक नटखट नन्हे बच्चे की शरारतों का जिक्र करते वक्त माँ के चेहरे पर होता है।

फिर वे उदासी भरे लहजे में बोलीं, ''उठकर करे भी तो क्या? ना नौकरी, ना दफ्तर। सारा दिन भटकता है। कभी इस दफ्तर, कभी उस दफ्तर। कभी गांव में, कभी शहर में, पर भाग्य में होगी तभी मिलेगी ना। यूँ भटकते रहने से कहीं नौकरी लगी है क्या?

''क्या महेश की नौकरी नहीं है?'' मैंने प्रश्न किया, '' पर रतन काकाजी तो बता रहे थे सारा दिन मटरगश्ती में रूपया फूँकता रहता है। सारी कमाई उड़ाता-खाता है।''

मौसी रोने लगी, ''नहीं री, वो तो महेश को यूँ ही परेशान करे हैं। इसीलिए ऐसी बातें करता है। रूपया होगा तभी तो उड़ाएगा ना।''

माहौल में विषाद घुलने लगा तो मैं कमरे में जाकर पलंग पर लेट गई। यह कमरा बरामदे से लगा हुआ ही था, जहां पहले मौसा अपना कामकाज करते रहते थे। यहां से लगा जानकी मौसी का पलंग साफ नजर आ रहा था।

जानकी मौसी भी पलंग पर लेटकर कमर सीधी करने लगीं। उन्होंने करवट बदली। अब तक वे दरवाजे की तरफ मुँह करके ही लेटी थीं। शायद यह औरतों की आदत में ही शामिल है। अक्सर हम इस करवट लेटना ही पसंद करते हैं। ऐसा करने से घर में नजर रखी जा सकती है और घर की गतिविधियों से जुड़े रहने का भ्रम भी पाल लेती हैं। तभी कुछ खटर-पटर होती है। देखती हूँ, महेश उठकर आता है। जब वह जानकी मौसी को खाट पर पड़ी देखता है तो एक अजीब सी वितृष्णा देख मुझे महसूस होता है कि बेचारी जानकी मौसी कैसा नरक भोग रही है।

साड़ी के पल्लू से आँखों का पानी पोंछती वे जार-जार हो आए मन को समेटने का प्रयास करती हुई करवट बदल लेती है। इस बार वे खिड़की से बाहर देखने लगती है। खिड़की से बाहर वाले नीम के पेड़ पर बैठी छोटी सी गौरैया के गाने की आवाज लगातार आ रही थी। कितना सुंदर गाती हैं चिड़ियाँ। सोचती ही हूं कि लय टूट जाती है, महेश के कर्कश स्वर से।

वह नाश्ते की तश्तरी में जोर से परांठा पटकता है। फिर बड़बड़ाता है, ''रोज-रोज आलू का रद्दी परांठा बनाकर पाप टाल देती हो। नाश्ते में बदलाव नहीं हो सकता क्या? आमलेट क्यों नहीं? नाटक करते हैं साले। बड़े ब्राह्मण बनते हैं, क्या 'निहाल' हो गया ब्राह्मण कुल में पैदा होने से......?''

मौसी चुपचाप पड़ी रहती है। शायद यह सोचकर कि इस समय कुछ भी कहना ठीक नहीं, वह और भड़क जाएगा। मैं उनके मध्य चल रहे उस युद्ध के सूत्र पकड़ने में उलझ जाती हूं और नींद आंखों से उड़ जाती है।

वह भी कहां चाहती होंगी कि आलू का परांठा रोज बनाएं? इस उम्र में आलू का परांठा भी मेहनत मांगता है पर कुछ मजबूरी तो होगी ही? फिर खयाल आता है आलू तो उनके मायके से आता है। बगैर पैसे के आलू ही तो उनके रसोई का आसरा होगा। वे उठती हैं अलमारी से सेंव-चिवड़ा निकाल उसके सामने रख देती हैं, ''ये ले बेटा! आज ज़रा तबीयत साथ नहीं दे रही थी, इसलिए यही बना डाला। फिर पोहा तुम्हें पसंद भी नहीं है? क्या बनाती? रात में ही बता देता...मेरा दिमाग अब नहीं चलता।'' वे मिमियाने लगती है। वह दहाड़ता है, ''क्यों मेरे पीछे पड़ी रहती हो, जाओ यहां से?...बड़ा अहसान करती हो बनाकर....।''

जानकी मौसी अपना छोटा-सा मुंह लिए फिर पलंग पर आ गई। उनकी आँखों के कोर पानी की अथाह बूँदों से लबालब हो आए थे। वे फिर खिड़की की तरफ करवट लेकर सोने का जतन करती है, पर ऐसा तिरस्.त मातृत्व क्या इस वक्त सो सकता था? उनकी आंखों से दो बूंदें गिरीं और तकिए में समा गई। सोचती हूं, ये तकिया ज़िंदगी का कितना गम चुपचाप सोख लेता है। लोगों को पता भी नहीं चलने देता, वरना अब तक आंसूओं की भी नदियां बह रही होतीं।

मुझे लगा, मौसी पड़ी-पड़ी सिसकियाँ ले रही होंगी पर वे दम साधे पड़ी रहीं। सिसकियों की आवाज से तो वह और भड़क उठेगा। सोचते सोचते मुझे कब झपकी आ गई, पता ही नहीं चला। नींद में दीवारों का उखड़ा प्लास्टर कभी मौसा की शक्ल में तो कभी महेश की तरह दिखता रहा। नींद टूटी दरवाजे की आवाज से। शायद महेश अपना दबा हुआ आक्रोश दरवाजों पर ही उतारना चाहता है। मैं उठकर मौसी के पास आती हूं।'' अरे रे, ये महेश चला गया? और मुझसे मिला भी नहीं?''

''हाँ बेटा! पर मैंने उसे बताया ही नहीं कि तू आई है।''

''क्यों?''

''क्योंकि वह अपनी बेकारी की हालत में और शर्मिन्दा ना हो। अब वह किसी से नजर मिलाकर कहाँ बात करता है। आधी रात के बाद ही घर लौटता है। पता नहीं कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरता है।''

''पर मौसी, इस तरह वह तुम पर बरस पड़ता है? यह तो ठीक नहीं है?''

''नहीं रे, बाहर की परेशानी से त्रस्त है, आकर उतार लेता है मुझ पर ताव।

अच्छा ही है, मन तो हल्का कर लेता है। नहीं तो आज कल नौकरी न मिलने पर आत्महत्या, हत्या, चौरी, डकैती, मारपीट क्या नहीं करते लड़के।''

''सो तो ठीक है मौसी, पर ऐसे कब तक?''

''मन का गुबार निकालने में ही बेहतरी है, बिटिया। नहीं तो क्रोध को पीने में पागल हो जाता है आदमी, हाँ.....।''

''तुम इसकी शादी कर दो। थोड़ा बदलाव तो आ ही जाएगा।''

''नहीं बेटा। एक तो बेरोजगार, ऊपर से शादी। एक को तो पुरा नहीं पा रही हूँ, दूसरी अमानत लाकर कैसे सहेज पाऊंगी? तेरे मौसा की पेंशन भी तो नहीं मिलती मुझे?''

''क्यों? तुम्हें तो पेंशन मिलनी चाहिए?'' मैंने आश्चर्य व्यक्त किया।

''यही तो रोना है री...... दफ्तरवाले कागज माँगते हैं। अब तेरे मौसा तो रहे नहीं। कागज पर दस्तखत कहाँ से करवाकर लाऊं?''

''पर कागज तो दफ्तर में ही जमा रहते हैं। मौसाजी ने ग्रेज्यूटी, बीमा आदि कागजों पर तुम्हारा नाम दिया होगा ना?''

''बस, यही तो रोना है।''

''कागज पर तो महेश की माँ का नाम है। महेश जब दो बरस का था तब से ही मेरी गोद में है। वे नए कागज बनाने में चूक गए। तब उस जमाने में कोरट-कचेरी में शादी-ब्याह के कागज कौन बनवाता था। ये मरा चलन तो आजकल ज्यादा बढ़ गया है।''

''पर आपका ब्याह हुआ इसका सबूत तो कुछ-न-कुछ होगा ही?'' वे आँचल से आँसू पोंछने लगती हैं। फिर गैस पर चाय की तपेली चढ़ाते हुए पूछती हैं, ''तू चाय मीठी लेवे या फीका पानी?''

''मौसी आज तुम्हारी पसन्द की चाय चलेगी।'' चाय ने मौसी के दुःख-दर्द का सूत्र बीच में ही तोड़ दिया था।

चाय का प्याला पकड़ते हुए मैंने फिर सूत्र जोड़े, ''हाँ तो मौसी, महेश से क्यों नहीं कहतीं, जरा सलाह-मशवरा करके पेंशन का केस निपटा ले।''

मेरी सलाह पर रूआँसी हो मौसी फिर आँचल से आँख का बहता पानी पोंछती हैं, ''गया था बेचारा। सालभर तो यही दौड़-धूप करता रहा, पर नतीजा कुछ नहीं निकला। वह बेटा है पर बालिग है, इसलिए पेंशन का सवाल ही नहीं और मैं पत्नी कागज पर नहीं हूँ। जीवनभर यह सोचा ही नहीं? और विधि विधान से तेरे मौसा ने मुझसे ब्याह किया भी कहाँ।

''क्यों?''

''एक स्वर्ग सिधार गई थी, इसलिए शान-शौकत से ब्याह का सवाल ही नहीं था और गरीब पुजारी की बेटी थी, सो मंदिर में भगवान के सामने हार डालकर ले आए थे। उस जमाने में ऐसे नातरा होता था। बस आ गई इनकी घर-गृहस्थी में। पर आज लगे है मुझसे तो अच्छी घर की नौकरानी होवे है, काम का रूपया तो लेवे है। तन-मन से जिसकी सेवा की, क्या दिया उसने? मैंने उजड़ी गृहस्थी इतनी मेहनत से सँवारी पर खुद का भविष्य उजाड़ दिया। दिनभर गृहस्थी का बोझ डाल, रात में प्यार बाँटने वाले ने मेरा इतना भी नहीं सोचा?'' मुझे याद आया, गाँव में लोग दबी जबान से जानकी को मौसा की ''रखैल''ही तो कहते थे।

बचपन के बालमन पर पहली की तरह अनसुलझा यह शब्द आज स्वतः सुलझकर सामने आया भी तो कसैला नहीं लगा, बल्कि जानकी मौसी के प्रति सहानुभूति बढ़ा गया।

ब्याहकर भी बेचारी 'रखैल' कहलाई और पति मरकर इस विशेषण में स्थाई मुहर लगा गए। कहीं भी उन्होंने अपने रिकॉर्ड में ऐसा सबूत नहीं छोड़ा कि जानकी उनकी दूसरी पत्नी है। यहाँ तक कि पहली की मृत्यु के उल्लेख के बावजूद उन्हें इनके हक-अधिकारी का खयाल ही नहीं आया। उलटा परायी कोख से जन्मे बेटे को वह कलेजे से चिपकाए पालती-पोसती रहीं। वह भी पेंशन के चक्कर में उन्हें सौतेली माँ भी मानने को तैयार नहीं है। दहाड़ता ऐसा है कि कच्चा चबा जाएगा उन्हें।

जानकी मौसी आँखों का पानी पोंछने लगीं, पर मेरे पास सान्त्वना के लिए शब्द नहीं थे। बस इतना ही कह पाती हूँ ''धीरज रखो मौसी, सब ठीक हो जाएगा। रतन काकाजी की बात पर ध्यान मत देना। हमें तो यह मकान बेचना ही नहीं है। एक तो निशानी बची है पुरखों की। संजय के ब्याह के बाद इसकी मरम्मत करवा लेंगे। बहू को भी पैतृक संपत्ति के दर्शन करवाने हैं। खाली रखने से अच्छा है तुम रहो। तुम्हारे रहने से हमें आने पर घर तो खुला मिलता है।''

मौसी का गम इतना गहरा है कि उस बात को महेश कहाँ समझ पा रहा है। मौसा जाने-अनजाने मौसी को क्या दे गए, केवल असुरक्षित बुढ़ापा?

वापसी

''दूर-दूर तक फैले मरूस्थल में केवल अरावली की हरी भरी पहाड़ियाँ ही हैं, जो सुकून देती हैं, शायद इन्हीं की बदौलत राजस्थान का यह क्षेत्र अकाल से बचा रह पाता होगा, और जो बंजर रेगिस्तान के मध्य धरती के सृजन को सिद्ध करता रहता है। है ना।''

''हाँ सच, बहुत सुन्दर है अरावली पर्वत।''

''पर यदि किसी की ज़िन्दगी ही रेगिस्तान की तरह उजाड़ और बंजर हो जाए तो?'' राजस्थान के पर्वत माउंट आबू घूमने के बाद घर लौटकर एलबम में फोटो लगाते हुए मैंने कहा।

''तुम एलबम देख रही हो या राजस्थान पर निबंध लिख रही हो?'' ये हँसते हुए कहने लगे।

''ऐसी उजाड़ वीरानगी डिप्रेशन देती है, है ना।''

''हाँ भई हाँ, पर माउण्ड आबू तो हरा-भरा लगा ना।''

''अच्छा। ऐसी उजाड़ ज़िन्दगी में अरावली की हरियाली जैसा कुछ अवश्य होना चाहिए, जो मरणासन्न बुढ़ापे को सुकून दे जाए?'' मैं अपने-आप से बुदबुदाकर बोल गई थी।

''कुछ-ना-कुछ तो होता ही होगा?'' ये मेरी फिलॉसॉफी पर अपना तर्क रखते हुए कहने लगे।

''हाँ, कुछ-ना-कुछ तो होता ही होगा।'' मैंने भी बात खत्म करते हुए कहा।

''रूपए-पैसों और संपत्ति की हरियाली ही तो जरूरी है, तभी तो.....।''

'' तभी तो क्या?'' मैंने आश्चर्य से देखा, ये आज इतने दार्शनिक मूड में।

''उसी की बदौलत तो सेवा हो रही है बाबू काका की, वरना काकी इस तरह नहीं सँभाल सकतीं?''

''अच्छा। क्या काकी लौट आई हैं?''

''हाँ मैं तो तुम्हें बताना ही भूल गया।'' इन्होंने अखबार की तह करते हुए कहा।

''बाबू काका जब से अस्वस्थ हुए हैं, खाट पर ही हैं, शुरू में छः माह तक तो खबर देने पर भी नहीं आई थीं काकी, अब अचानक ऐसा क्या हुआ कि वे लौट आई?''

''जो भी हो।''

''क्या पता, पतिव्रत-धर्म और सप्तपदी का कोई वचन उन्हें लौटा लाया हो पति के पास, राम जाने, पर इससे पहले तो वे उस गली की तरफ भी रूख नहीं करती थीं।'' मैंने अपनी जिज्ञासा जाहिर की। मन में लगातार यह बात उठ रही थी कि क्या कारण है, काकी कैसे लौट आई?''

''हाँ, वो तो जग-जाहिर है।'' ये मेरी तरफ कुर्सी घुमाकर कहने लगे। आज ये भी कुछ बातचीत के मूड में थे, इसीलिए बोल रहे थे या फिर काकी का लौट आना इनके मन में भी प्रश्नचिन्ह लगा रहा था। वरना ये और इनका अखबार। अखबार ऐसे पढ़ते हैं जैसे ''कौन बनेगा करोड़पति'' के अभिताभ बच्चन की क्विज में शामिल होने की तैयारी कर रहे हों। चार पन्ने चार-चार बार टटोलते हैं, जैसे लॉटरी के नम्बर तलाश रहे हों। कहीं कुछ अँधेरे कोने में छूट ना जाए, पर आज अखबार रखकर पता नहीं किस मूड में थे। यूँ भी बाबू काका इनके मन के बहुत करीब रहे हैं। बड़ा मान करते हैं ये उनका। शायद अपने प्रिय चाचा का बीमार होना इन्हें मन-ही-मन दुखी कर रहा है। कहने लगे, ''पिछले हफ्ते जब मैं माँ-बाबूजी से मिलने गया था, तब पता चला कि बाबू काका को कैंसर निकला है। आँखों में मोतियाबिंद भी पड़ गया है। बहुत तकलीफ में हैं, बार-बार कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी पर पैसा भी बहुत खर्च हो गया। अब दिखाई भी कम देता है। बिस्तर पर ही रहते हैं।''

'' बेचारे काकाजी, जाने कैसी काली रात के जन्मे हैं, बेचार। जीवन में सुख देख ही नहीं पाए।'' मेरा मन उनके प्रति सहानुभूति से द्रवित होने लगा।

''पेंशन तो मिलती नहीं, रूपया-पैसा भी नगद तो है नहीं।'' इन्हें दया आ रही थी।

''फिर.......?''

''काका ने पप्पू से कहकर मकान बेचने का विज्ञापन दिया था अखबार में।''

''कौन-सा मकान?''

''वही गली वाला। आजकल तो वहाँ मार्केट बन रहा है।''

''अच्छा भाव मिल जाएगा उसका तो?'' मैंने पूछा।

''अच्छा, क्या करोड़ों में जा रही है वहाँ की जमीन तो।''

''फिर कुछ जमा?''

''जमा क्या.....बस उसके बाद काकी लौट आई हैं।''

''अच्छा। वही तो कहूँ ये काकी लौट कैसे आई......।

''कौन-सा कैंसर है उन्हें ?'' मैं दुखी भाव से पूछ बैठी।

''गले का कैंसर है। खाना एकदम बंद हो गया है, केवल लिक्विड डाइट, दूध, ज्यूस वगैरह पर चल रहे हैं।''

''..........।''

''बहुत तकलीफ है उन्हें, बेचारे पहले ही क्या कम दुखी थे।'' इन्होंने नम आँखों में भर आए पानी को पोंछते हुए स्वर सँभाला।

''यह तो बहुत बुरा हुआ। ईश्वर भी ना किसी किसी के खाते में दुख और तकलीफें ही भर देता है। जाने कैसी दुखियारी घड़ी के जन्मे हैं बेचारे, जैसे सुख भाग्य में रखना ही भूल गया भगवान।'' मेरा मन भारी हो गया। एक असहायता का अहसास हुआ कि हम काका के लिए कुछ नहीं कर पाए। एक सरल, सच्चा व्यक्ति यूँ दुखी रहा जीवनभर।

''आप घर गए थे तो काका की तबीयत देख आते। उन्हें भी आपसे मिलकर खुशी ही होती, कितना चाहते हैं वे आपको।'' मैंने कहा तो ये और उदास हो रूआँसे से हो गए।

''गया तो था गली वाले घर, दरवाजे पर ही काकी से मुलाकात हो गई।''

''अच्छा। पहचान गई आपको? बोलीं आपसे?'' एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठी मैं।

''हाँ, बोलीं क्यों नहीं। और अभी तो हमारे परिवार को दुश्मन समझ रही हैं, प्रॉपर्टी हड़प ना लें यह शंका है उन्हें और पहचानेंगी क्यों नहीं? जानती हो क्या कह रही थीं?''

''क्या?''

''कहने लगीं, अब हम आ गए हैं अपना घर और तुम्हारे चाचा को सँभालने। अब तुम भाईयों को कष्ट करने की जरूरत नहीं हैं।''

''अरे.....अरे.......बड़ी आई चाचा को सँभालने, इतने दिन कहाँ थीं देवीजी....?'' मुझे गुस्सा आने लगा।

''मैंने भी कहा, अरे काकी......आपके आने से तो सभी को ठीक रहेगा और राहत भी मिलेगी काका को। हमारे काका तो सबके चहेते हैं, उन्हें क्या कोई सँभालेगा, उलटा वे ही सबको सँभाल लेते हैं।''

''फिर....... ?''

''काकी पहले तो व्यंग्य से मुस्कराई, फिर 'आओ...आओ' कहकर अंदर ले गई। काका आवाज से ही पहचान गए थे। बोल नहीं पाते पर मुस्कराकर हाथ का इशारा करके पास बुलाने लगे। गया तो हाथ पकड़कर रख लिया हाथ में और दूसरे हाथ से सहलाते रहे।''

''अच्छा... ?''

''हाँ।''

''पर मुझे लगा, काश वो बोल पाते। मन हल्का तो कर लेते.....पर उनकी स्थिति मुझसे देखी नहीं गई शोभा। जानती हो, उनकी मुस्कान में गंभीरता थी, एक ऐसी असहाय गंभीरता जिसमें उनकी पीड़ा दबाकर रखी गई थी, पर चेहरे का भोलापन अभी भी ज्यों-का-त्यों है।'' इनका मन भर आया था। आँसू बह निकले थे और स्वर भरभराकर टूटने लगा।

आंखें और दिल तो मेरा भी भर आया था, पर बात आगे बढ़ती, उससे पहले महरी आ गई तो मैं उठकर किचन में आ गई, बर्तन देने। इस तरह हमारी बाबू काका व्यथा-कथा बन्द हो गई, पर स्मृति पर बाबू काका ही विचरण करते रहे...कितना सहज, सरल-सौम्य व्यक्तित्व रहा है बाबू काका का। बाबू काका और मेरे ससुर चचेरे भाई हैं। पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे में उन्हें और हमें, यानी चचेरे भाइयों को साथ-साथ लगी हुई जायदाद हिस्से आई थी। मेरे ससुर को रासमण्डल पर कोने का मकान भी मिला और बाबू काका को गली नम्बर चार वाली चाल भी मिली थी। हमारे साथ वाला काका का हिस्सा बहुत बड़ा-सा कच्चा-पक्का घर है, एकदम पुराने जमाने का। काका इसी में रहते रहे हैं शुरू से। ससुरजी व काका में सगे भाइयों-सा प्यार था, चचेरापन कभी रहा ही नहीं। अम्मा (सासूजी) बताती थीं, ''बाबू काका की जब शादी तय हुई तो घर में बड़ा उत्साह था। शादी बड़े घर में हो रही थी। लड़की (काकी) जमींदार अण्णासाहेब की इकलौती बेटी थीं। अपार रूपया-पैसा था वहाँ, इसलिए बड़े घर की बेटी के आने का उत्साह कुछ ज्यादा ही था। बड़ी धूमधाम से ब्याह हुआ। बारात हाथी-घोड़े पर गई थी। बारात में मेहमानों को चाँदी की थाली में भोजन परोसा गया था पर केवल अच्छी शादी यही तो नहीं होती ना?''

''पर अम्मा, काका को छोड़कर चली क्यों गई काकी?'' एक दिन मैंने सहज जिज्ञासा से सासूमाँ से पूछा था।

''अरे...ऽ...ऽ...बस क्या बताऊँ? तेरे काका-काकी का दाम्पत्य टूटा भी रूपयों की ही वजह से।''

''क्यों?''

''हुआ कुछ यूँ कि काकी चाहती थीं कि काका घरजंवाई बन जाएँ और बेचारे बाबू ने घरजँवाई बनने से मना कर दिया।''

''अच्छा पर घरजँवाई क्यों?''

''घरजँवाई बनकर दुर्गत कौन चाहता है। काका दिखने में बेहद सुन्दर थे, एकदम राजकुमार की तरह, तभी तो जमींदार को अपनी गोरी सुन्दर नकचढ़ी लाडली के लिए पसन्द आ गए।'' माँजी ने बताते हुए एक ठण्डी साँस भरी।''

''काकी भी तो सुन्दर हैं ना?''

''हाँ! पर कौन जानता था कि रूप-रंग के साथ जमींदारी की अकड़ और गुरूर से भरा यह रूप बेचारे बाबू को बर्बाद कर देगा। बेचारे स्नेहिल, सहज, आत्मसम्मानी को बीवी की जरूरत ठसक अखरती थी। शुरू के ही दो बरस अच्छे रहे। उन्हीं दो वर्षों में दो संतानों का जन्म हुआ। बस उसके बाद काकी की काका के साथ पटरी नहीं जमी।'' सासू माँ पश्चाताप के लहजे में बता रही थीं। पानी के बर्तन धोते-धोते सासूमाँ रूक गई, फिर नल टंकी में खोल आगे बोलीं, ''काकी के पिता चाहते थे, बाबू काका उनके साथ रहें पर काका को यह प्रस्ताव हरगिज पसन्द नही आया और तभी अलगाव शुरू हुआ था। बस, काकी दूसरे बच्चे के जन्म के बाद आई ही नहीं। उनके पिता को तो उत्तराधिकार के लिए दो नवासे मिल गए थे। जँवाई बाबू से अब उन्हें ज्यादा सरोकार नहीं रहा। बड़े घर की बेटी दिल से छोटी निकली। उसे पति की साधारण गृहस्थी झोंपड़पट्टी -सी लगती थी, वहाँ उसका दम घुटता था। उधर बाबू काका को ससुराल जेल की तरह लगती थी। घरजँवाई बनना उन्होंने अंतिम समय तक नहीं स्वीकारा। हँसते-मुस्कराते काका से काकी अलग हो गई और दे गईं जीवनभर का बिछोह, जिसने तड़पा-तड़पाकर बेचारे बाबू काका का गला ही घोंट दिया। क्या पता घुट-घुटकर गले में तनाव का ही जहर कैंसर बनकर उतरा हो!'' माँजी की बातें दिमाग में घूमती रहीं और काका याद आते रहे।

तभी से भरी जवानी में अकेलापन झेलते काका अपनी खोली में अकेले बनाते-खाते, पड़े रहते। ज्यादा हुआ तो हमारे यहाँ अम्मा (सासूमाँ) को कह देते, 'भौजी! दो रोटी मेरी भी डाल लेना, आज खाना वहीं खाऊँगा।' अम्मा को तो यूँ भी देवर पर बहुत तरस आता था। वह बेटों की तरह उन्हें भी स्नेह से बनाकर खिलातीं, पर रोज-रोज न काका ने कहा, न अम्मा ने बनाया। तीज-त्यौहार पर जरूर अम्मा कहलवा देती थीं। काका उस दिन सुबह से ही चकाचक सफेद झक्क कुर्ता-पायजामा पहन फ्री हो घूमते रहते और ठीक ग्यारह बजे भोजन के समय आ जाते थे।

काकी रूठकर जो गई तो पलटकर अब लौटी हैं, पूरे अड़तीस साल बाद, जब ना उनके आने से, ना उनके जाने से काका को कोई फर्क पड़ रहा है, क्योंकि अब तो जीवन का सारांश भी नहीं बचा। वे तो जाने के दिन गिन रहे हैं। काका के प्रति सहानुभूति से भरा मेरा मन पूरे दिन उदास रहा। शाम को इनके आते ही फिर प्रश्न पूछ बैठी, ''काका ससुराल ही चले जाते तो अच्छा होता।''

चाय का प्याला लेते हुए ये भी बोले, ''लोगों ने तो बहुत समझाया था, चले क्यों नहीं जाते बाबू? पत्नी बच्चों के पास चले जाओ, ठाठ से घरजँवाई बनकर जमींदारी का मजा लो, अरे...बीवी-बच्चों बगैर जिंदगी नहीं कटती। इतना रूपया-पैसा है वहाँ, वे कौन तुमसे बोझा उठवावेंगे? जीवन का मजा भी बना रहेगा और संपत्ति पर हक भी, पर काका नहीं माने।''

''क्यों?''

उनका कहना था, 'घरजँवाई की हैसियत एक धोबी के गधे जैसी होती है तो 'ना घर का होवे, ना घाट का,' हमें नहीं करवानी दुर्गति।' वे टस-से-मस नहीं हुए। उधर जमींदार के रुपयों के ढेर पर बैठी काकी अटल थीं, 'पिताजी को अकेले छोड़कर हम नहीं जावेंगे वहाँ चूल्हा फूँकने।' बस यूँ ही अटल बने दोनों ने उम्र के सुनहरे दिन गँवा दिए थे पर अब लौट आईं काका को फूँकने।'' इन्हें अब भी क्रोध था काकी पर।

बाबू काका मेरे ससुर को बहुत सम्मान देते थे, पितातुल्य सम्मान। अम्मा में भी उन्हें भाभी कम, माँ ज्यादा दिखाई देती थी। दोनों ने ही बहुत समझाया था, 'बाबू जाकर उसे ले आओ।' पर वे तैयार नहीं हुए। पैतृक सम्पत्ति के उस बड़े-से घर की साफ-सफाई जब काका के बस की नहीं रही, उन्होंने उसे किराये पर उठा दिया, और गली वाले छोटे-से खोलीनुमा घर में रहने चले गए थे। दो कमरों में रह रहे थे। यहाँ भी लम्बी चाल थी कमरों की। यदि यहाँ आज मल्टी कॉम्प्लेक्स मार्केट बना लिया जाए तो आठ सौ, नौ सौ दुकानें निकल सकती हैं। अस्सी-नब्बे तो बेसमेंट में ही बन जाएँगी।

''कितना उत्साही व्यक्ति यूँ एकदम बीमार पड़ा है, मुझे तो ईश्वर के अन्याय पर ताज्जुब है।''

''हाँ, बहुत इच्छाएँ थीं उनकी, पर सब बेकार हो गया। काका का जब भी अपनी खोली में मन ऊबता, वे हमारे यहाँ चले आते। घण्टे, दो घण्टे, चार घण्टे और कभी-कभी दोनों वक्त के भोजन के बाद ही जाते। बच्चों के साथ कभी कैरम तो कभी शतरंज की मोहरों में वे अपना दिन काट लेते। पहले तो कड़क, कलफ लगे कुर्ते-पायजामे में नेताजी की तरह चमकते थे, पर फिर निराशा के चढ़ते रंग से कपड़ों का कड़क कलफ भी मुड़ा-तुड़ा हो गया था। चीजों को सहेजकर करीने से रहना उनकी विशेषता थी, पर बेचारे, घर-गृहस्थी का सुख नहीं सहेज पाए। पत्नी से अपने रिश्तों को समझौतों के साथ सँवार सकते थे, पर सिद्धान्तों पर अड़कर कब समझौते हुए है?''

बाबू काका पहले तो सहजता से सब में शामिल हो लेते थे, पर धीरे-धीरे पत्नी-प्रताड़ना से ऐसे बुझ गए कि शादी-ब्याह, भोज-भात, महफिल, रतजगा सब में सबसे अलग-थलग खामोश बैठे रहते, जैसे ये सब फालतू हो या फिर वे इन सब में अनफिट व्यक्ति हैं। पिताजी को उनका यह निराशा वाला दौर बिलकुल अच्छा नहीं लगता था, वे दुखी होते थे, ''कहाँ गरीब को उस बड़े घर में ब्याह दिया, जीवन बरबाद हो गया बेचारे का। ब्राह्मण कुल के नाम पर एक आदमी यूँ बलि का बकरा बन गया। अच्छा होता यदि वह मराठी विधवा सेवन्ती ही आ जाती तो, बाबू का घर भी आबाद रहता।'' पर करम की गति किसने देखी....।

खुसर-फुसर के बीच एक बार शांता बुआ ने ही यह राज भी बताया था कि गली वाले घर की बगल में जो घर है, छोटे रावले वाला, वह मराठों का है। वहाँ रावले वाले की एक जवान बेटी ब्याह के एक माह बाद ही विधवा होकर लौट आई थी। बाबू के संग बचपन बिताया था, पड़ोसी के नाते। जवानी के सपने दोनों ने साथ देखे या नहीं यह राम जाने; हाँ, सेवन्ती जब विधवा होकर लौटी तो बाबू बेहद दुखी हुए थे और घर में एक ही बात पर अड़े थे, 'ब्याह करेंगे तो सेवन्ती से। एक माह में विधवा हो गई तो क्या? वे उसे यूँ दुखी नहीं देख सकते।' पर कट्टर ब्राह्मण खानदान कब माना है जो तब मानता। बेचारे बाबू उस नकचढ़ी से ब्याह दिये गए। हाँ, एक बार घर में चर्चाओं का दौर बहुत गर्म था। जाने कैसे शक पड़ गया था, रावले वाले छोटे दरबार को, रातों-रात सेवन्ती को काशी के किसी विधवा आश्रम में छुड़वा दिया, ना किसी को खबर ना पता। लोगों में खुसर-फुसर चलती रही थी। जिसका आशय था कि सेवन्ती बाबू काका से प्रेम करने लगी थी और यह प्रेम लोगों पर उजागर होने लगा था। कभी मंदिर में भजन गाते तो कभी घण्टों ओटले पर ही बैठे रहते गप्पें हाँकते। समाज की नजरों से कहाँ यह स्वतंत्रता देखी जाती! नजरें भाँप गईं कि दोनों में प्रेम की खिचड़ी पक रही है।

कथा लिखते हुए मन व्यथित है मेरा, सोचती हूँ, यदि एक भला आदमी किसी दुखियारी को खुशियाँ देना चाहता है तो लोगों के कलेजे पर क्यों साँप लोटने लगते हैं। अपना ही जीवन, अपनी पसंद से ना गुजारने का यह कैसा बंधन? छोटा-सा जीवन! प्यार करें और तरसें साथ के लिए? लोगों का क्या, उन्हें तो पंचायतें बिठाने में ही मजा आता है। समाज, समाज, समाज! क्या यही समाज है, जिसे मर्यादा के नाम पर प्रेम की कुर्बानी चाहिए होती है! क्या छोटी-छोटी आशाएँ और नन्हे स्वप्न बन्द आँखों में ही देखने का कह देता है ये समाज? बेचारे बाबू काका और सेवन्ती!

शादी के बाद काका सेवन्ती का नाम भी नहीं लेते थे; पर भूले तो नहीं होंगे। पता नहीं समय बीतने के साथ यही गम शायद बाबू काका के रक्त में कैंसर बन फैल गया हो? गले में ट्यूमर की शुरू में तो उन्होंने परवाह नहीं की, पर जब अशक्त हो गए तो खाट पकड़ ली। इधर गली नम्बर चार वाले घर के आसपास बड़े-बड़े शॉपिंग कॉम्प्लेक्स खड़े हो गए। मल्टी मार्केट विकसित हो गई। गली की जमीन देखते-देखते करोड़ों की हो गई थी।

किसी समय यही घर काकी को झोपड़पट्टी लगा था और इसी उलाहने के साथ वे पिता के घर लौट गई थीं पर आज जब जमींदारी का जमा माल खत्म हुआ तो आँख खुली है उनकी और आज अचानक यही झोपड़पट्टी उन्हें महलों के भाव दिलवा देगी। शायद यही खयाल उन्हें लौटा लाया है। बहाना है पति की सेवा का। वापसी है उनकी बच्चों के साथ। अपने दोनों जवान बेटों को लेकर वे बाबू काका के जीवन में लौट आई हैं। तमाम उम्र पिता से अलग रहे बेटों में रूप-रंग तो पिता का है, पर ठसक नाना की।

कहानी आप तक पहुँचाते हुए एक प्रश्न अनुत्तरित-सा बार-बार उठ रहा है मेरे मन में। क्या नारी की पतिव्रता आत्मा उनमें जाग उठी है, या सम्पत्ति की राजगद्दी भरत को दिलवाने वाली कैकेयी कोई नया रूप लेकर आ बैठी है? या फिर आर्थिक तंगी आ जाने पर बेटों की सलाह पर.....। जो भी हो, बाबू काका की मृत-देह को अग्नि देने वाले हाथ, उनके वंशज, उनके पुत्रों के ही रहेंगे, यह सन्तोष होता है मन में। काकी जैसी औरतों को क्या कहें? ऐसा जीवन साथी शायद किसी विषाणु की तरह ही जीवन में घातक जहर घोल देता है जो कैंसर जैसा जानलेवा रोग बन जाता है। कितनी पीड़ा झेली होगी बाबू काका ने! एक पीड़ा सेवन्ती से विरह की, जो शायद कम हो जाती या समाप्त ही हो जाती, यदि काकी पत्नी की तरह जीवन भर का सुखद साथ देतीं पर काकी ने बाबू काका के उन घावों पर मलहम नहीं तेजाब डाला था, तिरस्कार और उपेक्षा का। मौन रहकर उस जलन, उस पीड़ा को कैसे कहा होगा काका ने। क्या काका की व्यथा को पलभर भी महसूस किया होगा काकी ने? तपती धरती पर पानी की बूँदाबाँदी कुछ तो राहत दे सकती है, पर अगर धरती जलकर भस्म हो गई तो मूसलाधार भी बेकार है। अब काकी द्वारा की जाने वाली सम्भावित सेवा कुछ यूँ ही व्यर्थ लगती है मुझे।

शोकपत्र

सामने टेलीग्राम पड़ा था। उस पर छपे शब्द मन में परत-दर-परत जमा स्मृतियों को कुरेद रहे थे। एक ठण्डी साँस छोड़ सोचता हूँ, 'क्या यह टेलीग्राम मुझे राहत दे रहा है?' पर सच यह है कि यह मेरा भ्रम ही था, क्योंकि उस पर लिखा नाम मेरा जनन था, मेरा प्यार था। यह नाम मुझे तीस साल पहले अपनी खुशियों का संसार लगता था। पिछले तीस साल से यही नाम है जिसने ज़िन्दगी को इतना मोड़ दिया था कि ज़िन्दगी ही टूटकर रह गई। मुझे बर्बाद कर डाला। मेरे जीवन को नरक बना दिया था। आज उनकी मृत्यु का समाचार मुझे क्यों विचलित कर रहा है? मन है कि जार-जार रो रहा है, जबकि मेरे लिए तो वह तीस साल पहले ही मर-खप गई थी। तभी, जब मैने उसे अपने जीवन से बेदखल कर दिया था। पर कहाँ, 'वह कहाँ बेदखल हुई?' दरअसल मैं ही बेदखल हुआ था, उसके जीवन से, घर से, बच्चों से। उसके पास तो सब यथावत बना रहा। शायद मैं ही जान-बूझकर छोड़ आया था-बच्चों के भविष्य, बच्चों की सुर्क्षा के लिए। वह बच्चों से बेहद प्यार करती रही। उसने बच्चों की उपेक्षा कभी नहीं की थी। उस समय यह मुझे अपनी महानता लगी थी, पर दरअसल वह मेरे स्वार्थ की पराकाष्ठा थी, क्योंकि मैं बच्चे कैसे पालता। बच्चे तो मेरे ही हैं- वे क्यों संघर्ष करें- यही सोचकर। पर जो भी हो, आज इस टेलीग्राम पर लिखा 'श्रीमती किरण प्रसाद का दुःख निधन दिनांक 9 अगस्त को हो गया.... अंत्येष्टि 10 अगस्त को 11 बजे होगी'।

नीचे पुत्र सुमन्त का नाम लिखा था। यह तार मुझे ना मिलता तो ज्यादा अच्छा होता... एक निश्चिन्तता थी बच्चों की। अब क्या करें? जाए या ना जाए। मन अकेले हो गए बच्चों के लिए छटपटाने लगा, ठीक उसी तरह जैसे पंखे की हवा में वह तार का कागज फड़फड़ा रहा था।

समय बहुत बलवान है, वह क्या-क्या नहीं दिखाता। वह स्वर्ग-नरक के दर्शन यहीं करवा देता है। उसने भी दोनों ही भोगे थे और दोनों अनुभव वह झेल गया था। दुःखती रग पर आज फिर दाब पड़ी थी। दुःखते-रिसते यादों के घाव कुछ शांत पड़े थे, पर इस तार ने उन घावों को फिर कुरेद दिया था। घाव सबके सब ताजा हो गए थे और आँखों से बहती अविरल धारा यादों की श्रृंखला के मोतियों को बिखेरने लगी थी। तार का शब्द-शब्द उसे तीस साल पुराने दिनों में ले जा रहा था।

तीस साल पहले......? एक पहिया-सा-पीछे घूमने लगा और मन-मस्तिष्क पर धुँधलायी-सी तस्वीरें स्पष्ट उभरने लगी थीं.....

किरण तो पूर्णरूप से उसके प्रेम में आसक्त थी। फिर अचानक यह क्या और कैसे हो गया जिसने एक क्षण में प्रेम, विश्वास, भरोसा सब कुछ तोड़ दिया। 'क्या सच्चे प्यार की कोई परिभाषा नहीं है?' वह खुद ही बुदबुदाता है। पर 'वह तो प्यार को समग्र रूप से देख रहा था।' खुद ही वह अपने प्रश्न का जवाब भी देता है।

याद आते ही एक कँपकँपी उसके बदन में दौड़ गई थी पर किरण क्या जाने, प्यार कहाँ-कहाँ से, कब-कब गुजरता है? उस दिन उसे लगा था कि उसका सारा पुरूषार्थ निचोड़कर फेंक दिया था किरण ने।

क्या कोई सोच सकता है? तीन बच्चों की माँ यूँ अचानक ज़िन्दगी की एकरसता से ऊबकर परपुरूष गमन कर बैठेगी? विवाहेतर संबंधों को खुलकर स्वीकार लेगी। उसे तो यह आज भी संभव नहीं लगता, जितनी बेशर्मी के साथ तीस साल पहले किरण ने स्वीकारा था।

''हाँ। मैं विवेक से प्यार करने लगी हूँ।''

''क्यों?'

''इस क्यों का कोई जवाब नहीं है मेरे पास।''

''प्यार.....? और मुझसे जो करती हो वह क्या नाटक है? सिर्फ तुम्हारा छलावा?'' मेरा क्रोध स्वाभाविक था।

''यकीन करो गोपाल। मैं विवेक से प्यार जरूर करने लगी हूँ, पर मैं तुम्हें भी तो पति के रूप में प्यार करती हूँ। तुम्हारे साथ मेरी गृहस्थी है, मेरे बच्चे तुम्हारे हैं, पर जाने क्यों मैं ऊबने लगी थी इस एकसार जिन्दगी से। मुझे जीने का नया अन्दाज मिला विवेक से। मेरे जीवन में रोमांस और रोमांच आया विवेक से। मेरे अस्तित्व का अहसास हुआ विवेक की बातों और साथ से।'' वह संयत स्वर में बोले जा रही थी और मैं शून्य में चला गया था।

''नहीं.....बस करो...बस।'' मेरी आत्मा चीत्कार उठी, ''क्या एकनिष्ठ होने से ज़िन्दगी इतनी मोनोटोनस और उबाऊ हो जाती है। तुम मजाक कर रही हो किरण, पर यह भद्दा मजाक है।''

''पर मैं मजाक नहीं कर रही गोपाल, यह सच है।''

उसके स्पष्ट स्वीकारने के बाद मेरे शक की गुंजाइश बची ही कहाँ थी। हाँ, विश्वास और भरोसे की दीवार भरभराकर ढह गई थी। ''यह कैसा प्यार है? यह कैसी दोस्ती है, जिसने उसके जीवन में दीमक की तरह धीरे से प्रवेश किया था।'' दोस्त ही तो था विवेक, कॉलेज के जमाने का दोस्त। किरण को भाभी-भाभी कहने वाला।

ऐसा दोस्त जिस पर कोई भी विश्वास कर सकता है। उसी का विश्वासघात कलेजे में नश्तर चुभा गया था। आत्मा ही कत्ल कर गया। पत्नी ही चुरा ले जाएगा, यह तो सपने में भी नहीं सोचा था उसने। दोस्त बन डाका भी डाला विवेक ने तो जीवन का सारांश और जीवन का विस्तार दोनों ही चुरा लिए।

पर गलती स्वयं की ही थी। विवेक को अपने घर में स्वयं से ज्यादा महत्वपूर्ण भी तो स्वयं मैंने ही स्थापित किया था। जाने-अनजाने ही सही, पर कुछ गलती मेरी भी थी। किरण की शॉपिंग, बच्चों के एडमिशन करवाने, बच्चों को स्कूल छोड़ने, किरण को मायके से लिवाने, हर उस जगह उसे ही तो भेज देता था।

''यार विवेक, तू बाजार जा रहा है ज़रा किरण को मार्केट छोड़ते जाना।''

''तुम चलो ना गोपाल, मुझे साड़ी लेनी है?''

''साड़ी.....? ना बाबा, सबसे बोर काम है साड़ी खरीदना।''

''क्या गोपाल। सबसे इंट्रेस्ंिटग काम है साड़ी खरीदना। किरण चलो, मैं चलता हूँ।'' विवेक बालों में कंघी करते हुए खड़ा हो गया था।

''अरे। ये भाभी बोलने वाला तुम्हें किरण कैसे बोल रहा है।'' मैंने आश्चर्यचकित होते हुए कहा था।

''मैंने ही विवेक से कहा, किरण बोलने के लिए।'' किरण ने सफाई दी थी।

दोनों चले गए थे। या कहूँ मैंने भेज दिए थे पर बाद में लगा, नहीं भेजना चाहिए था उसे किरण के साथ। कम से कम उस जगह जहाँ मुझे किरण के पति और बच्चों के पिता की हैसियत से स्वयं जाना चाहिए था पर अपने दब्बू स्वभाव और नौकरी की व्यस्तताओं में मैंने यह सोचा ही नहीं। किरण बाहर उसके साथ घूमते-घूमते घर में भी उसकी उपस्थिति को पसन्द करने लगेगी। पहली बार मुझे झटका लगा था जब किरण लाल सुर्ख साड़ी लाई थी। जबकि सुर्ख लाल रंग मुझे पसन्द ही नहीं है।

''तुम्हें पता है ना, लाल रंग मुझे अच्छा नहीं लगता।'' मैंने टोका था।

''हाँ। पता है, पर याद ही नहीं रहा विवेक को लाल रंग बहुत पसन्द है, यह साड़ी उसी ने दिलवायी है।'' किरण ने मुझे सहजता से बताया था।

फिर लाल नाइटी, ड्राइंगरूम में लाल गुलाब, सब जगह लाल रंग लेता जा रहा था। उस दिन तो हद ही हो गई थी जब वह सब कुछ भुला देने के लिए किरण को दाम्पत्य में विश्वास की बात समझाना चाहता था। वह उसके और किरण के मध्य पसरते जा रहे अलगांव को कम करने के लिए अंतरंग प्रणय के लिए लालायित था और पत्नी के साथ प्यार के सहज स्पर्श के लिए वह बेडरूम में गया। पलंग पर बिछी लाल चादर ने उसे आगबबूला कर दिया था। चादर पर बने नक्काशीदार बेलबूटे मेरा मजाक उड़ाने लगे थे। बच्चों को दूध के गिलास थमाकर हाथ पोंछती किरण ने जैसे ही बेडरूम में प्रवेश किया था मेरी सहनशक्ति चुक गई। मैं दहाड़ने लगा,''लाल रंग मेरे पलंग पर भी पहुँच गया है?''

''तो क्या हुआ?''

''तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई किरण इस चादर को बिछाने की?'' मेरा क्रोध देख थोड़ा सहम गई थी किरण, पर फिर बोल ही गई, ''विवेक की पसन्द की है, हैंडलूम से लाए हैं हम।''

''विवेक....ऽऽऽ....विवेक...ऽऽ...विवेक.....? जीना हराम कर दिया है इस नाम ने...लाल कफन भी होता है किरण और हमारे दाम्पत्य की लाश पर तुमने कफन डाल ही दिया।''

''ऐसा क्या किया है मैंने?''

''आज के बाद यह विवेक नाम तुम्हारी जबान पर भी आया तो काट लूँगा जबान, समझीं?''

मैं क्रोध में उफनता हुआ घर छोड़कर ही चला गया था उस रात। रात यूँ गुजरी थी जैसे सदियाँ गुजर रही थीं। फिर मैं बगैर बताए दौरे पर चला गया था। गुस्सा थोड़ा शांत हुआ तो दो दिन बाद भरी दोपहर में ही लौट आया था घर। वहाँ सब-कुछ सामान्य था। मेरे जाने से कोई फर्क नहीं पड़ा था। हाँ, विवेक का आना कम हो गया था। धीरे-धीरे मेरे और विवेक के बीच संवादहीनता पसर गई। अब उसका आना एकदम बंद सा हो गया था। किरण ऊपर से सामान्य थी, पर उसके अंदर भी हलचल थी। उसने विवेक-स्तुति बंद कर दी थी। बहुत दिनों तक मैं और किरण भी नदी के दो किनारे होकर रह गए थे। फिर किरण ने ही समझौते के हाथ फैलाए थे। मैं भूल गया उस तूफान को और हम फिर एक-दूसरे को समर्पित हो गए थे। जीवन की गाड़ी फिर सहज रफ्तार पकड़ लेगी, ऐसा आभास हुआ था और मैंने सच्चे मन से किरण को माफ कर दिया था।

उसका तर्क था, उसने मुझसे दुराव-छुपाव नहीं किया। खुल्लम-खुल्ला स्वीकारा था सच। वह शर्मिन्दा नहीं लगी, पर उसमें एक बोल्डनेस जरूर आ गई थी। सब-कुछ सामान्य दिखने के बावजूद मैं स्वयं से शर्मिन्दा था। संबंधों की पकड़ में अपमानित हुआ था। ना बच्चों से सहज रहा था, ना किरण से। एक रूटीन था जो चल रहा था-घर में आता, खाता और सो जाता, बस।

मानसिक तनाव शांत नहीं हुआ था। एक दिन दोपहर को ही दफ्तर में घबराहट सी लगी, चक्कर आने लगे थे। ब्लडप्रेशर बढ़ गया था। आधे दिन के अवकाश पर घर लौट आया था। घर का दरवाजा अटका हुआ था। पोर्च में विवेक का स्कूटर खड़ा था। दरवाजा धकेला तो खुल गया था वह। एकदम शान्त था घर। इसी शान्त जगह की तलाश में मैं घर लौटा था, पर बेडरूम का दरवाजा अन्दर से बन्द था और विवेक के जूते बेडरूम के बाहर उतरे हुए मेरा मजाक उड़ा रहे थे। मैं उल्टे पैर बाहर लौट आया था। तभी से जगह-जगह मारा-मारा नौकरी करता रहा। पिछले दस सालों से इस शहर में हूँ। दूसरी कम्पनी में काम कर रहा हूँ।

तीस साल हो गए। ना किरण से मुलाकात हुई, ना विवेक से। मेरा पता उन्हें कैसे मिला होगा, नहीं जानता।

पर आज यह टेलीग्राम? यह नाम तार बनकर फिर मेरी जिन्दगी में लौट आया था।

मुझे लगा जैसे मेरी राह देख रही होगी वह। नजरों के सामने किरण खड़ी थी। वही तीस साल पहले वाली लाल साड़ी पहने अति सुन्दर कामाक्षी किरण।

एक बारगी मन हुआ कि वहाँ जाऊँ और देख आऊँ कि मेरे बगैर कैसे गुजारी उसने ज़िन्दगी? लौट जाऊँ बच्चों के पास..... फिर तार को फाड़कर फेंक दिया, यह सोचकर कि वह आया ही नहीं....।

अंतराल

धूप लगातार तेज हो रही थी। लू ऐसी चल रही थी, मानो धूल का गुबार उड़ाकर मनुष्य का मजाक उड़ाना चाहती हो! शायद वह चुनौती दे रही थी कि मगना देखती हूँ, तू तेज चलता है या मैं? पर बेचारा मगना कहाँ तेज चल पा रहा था! चलना तो चाहता था, पंख होते तो उड़कर और अकेला होता तो भागकर या बस के पीछे लगेज की सीढ़ियों पर लटककर कैसे भी अस्पताल पहुँच जाता। उँगली पकड़ा हुआ बच्चा और पीछे गठरी जैसा पेट लिए, कमर पर से खिसकते मरियल दुधमुँहे बच्चे को सँभालती लाजो चल रही है। बीमार, दर्द से कहकती, लाजो को साथ लेकर तो उसे धीरे-धीरे चलना पड़ेगा न! वह सोचने लगता है, 'लाजो को साथ लेकर तो वह जीवन भर चलना चाहता है, पर इस बार जाने क्यूँ, उसका मन शंकित है। उसे लग रहा है लाजो उसका साथ ज्यादा दिन तक नहीं दे पाएगी।' ऐसा विचार आते ही उसका चलना कठिन हो जाता है। मगना सिर को झटका देता है, जैसे झटकने से बात दिमाग से निकल ही जाएगी।

छः कोस दूर, डॉक्टरनी शहर में रहती है। गाँव के दवाखाने पर चार महीने से ताला पड़ा है। लाजो बतावे थी, 'डॉक्टरनी का तबादला होई गवा है और नरस बाई छुट्टी चली गई है। सरकार कागज पे तो कित्तेईज दवाखाने और स्कूल खोले है, पर ई सरकारी अस्पताल और स्कूल बस कागज पर ही चलत रही। डॉक्टरनी थी तो भी दवाई लेने शहर ही जाना पड़ता था, अब दोईन काम शहर में करत रहे।'

''रूको....कल्लू के बापू...मैं नहीं चलत सकूँ, तनिक रुको.....'' मगना पीछे पलटकर देखता है, लाजो सड़क किनारे कमर पकड़े बैठ गई है। बच्चे को उसने एक तरफ बैठा दिया है। मगना पलटकर दौड़ता हुआ आता है। एक नजर जमीन पर पड़ी बीमार गर्भवती लाजो पर डालता है तो दूसरी जमीन पर बैठे बच्चे पर। सूखे हाथ-पैर, पीला पड़ता रंग और निकला हुआ पेट। डॉक्टर साब कहते हैं, जाने क्या, लीवर का रोग है। ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। इधर लाजो फिर पेट से है। डॉक्टर कहता है, इसका भी ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। तीसरा बच्चा जल्दी पेट में आ गया, जान का खतरा है। क्या करे मगना! उसे क्या मालूम था, बच्चों के चक्कर में उसकी फूल-सी नाजुक लाजवंती यूँ बीमार हो तड़प-तड़प दिन काटेगी। पर क्या करे, सब भाग्य का खेल है।

वह सरपट आती कार रोकने की कोशिश करता है, पर ऐसे उसके भाग्य कहाँ। सर्र-सर्र सरसराती कई गाड़ियाँ दनादन चली गईं। ''कोई तो रुक जाओ.....रे..... मेरी लाजो मर जाएगी....गाड़ी रोको-रोको, रुको साब....साबजी गाड़ी रोक दो, मेरी औरत मर रही है, कोई मदद करो....उसको डॉक्टर के पास ले चलो...'' मगना बदहवास-सा दौड़ता रहा गाड़ियाँ रुकवाने। कभी लाजो के पास आता... ''बस हिम्मत रख....थोड़ा टेम तो लगता है, अभी करता हूँ कुछ....'' फिर भागता है....पर....कब तक.... ?

''चल लाजो, उठ मेरा हाथ पकड़, चलते हैं। पास ही में तो है डॉक्टरनी का दवाखाना।'' पर दर्द से तड़पती लाजो खड़ी होने की कोशिश करके फिर जमीन पर लोटने लगती है। मगना फूट-फूटकर रोने लगता है, पर इस मगरूर शहरी जीवन में गरीब की पुकार सुनता कौन है! गरीब का रोना उसका पागलपन है और बीमारी से तड़पना नाटक समझा जाता है, पैसे माँगने का। अचानक एक ताँगेवाला आकर रुकता है...गरीब पर दया तो गरीब को ही आती है।

''क्या हुआ इसे?'' ताँगेवाले ने पूछा।

''हुजूर, माँ बननेवाली है, बहुत दरद है, डॉक्टर बोली, दरद उठे तो ले आना...आपरेशन करना पड़ेगा। पर छः कोस की दूरी, चार कोस हम ले आवे, अब नहीं चल सकत ई....।''

''चल उठा ताँगे में डाल, ले चलते हैं।''

''हाँ हजूर, बस अभी डालत हैं।'' मगना लाजो को उठाने की कोशिश करता है, ''देख, हम बोले थे ना, भगवान बड़ा दयालु है।'' ताँगेवाला उसके बच्चों को उठाकर ताँगे में बैठा लेता है। मगना से लाजो की पीड़ा देखी नहीं जा रही थी। बाँटने जैसा दुःख होता तो मगना कब का अकेला ही सारा ले लेता, पर...प्रसव की पीड़ा तो लाजो को अकेले ही झेलनी थी।

डॉक्टरनी के पते पर ताँगा रूकता है तो मगना राहत की साँस लेता है, ''देख लाजो, अस्पताल आई गवा। अब चिंता की कोन बात नाही है.....सब ठीक हो जाएगा।

भगवान बड़ा दयालु है.....लाजो.....।''

ताँगेवाला पता लगाता है, डॉक्टरनी साहेबा हैं या नहीं। पता लगा, नहीं हैं। पेशेण्ट देखने गई हैं। ताँगेवाला उससे किराया भी नहीं लेता, चला जाता है। मगना उसे दुआ देता है। दरवाजे पर लम्बी लाइन लगी है। बीमार महिलाओं और बच्चों की। आदमी भी खड़े हैं, साथ में आए होंगे। सोचता है, डॉक्टरनी के आते ही पहले वह लाजो को बता देगा। सबसे ज्यादा तो उसे ही तकलीफ है। पसीने से तर होती अपनी कमीज उतारता है वह और छाती से गंगा-जमना की तरह धारबंद बहते पसीने की लकीरें देखने लगता है। नर्स आकर चिल्लाती है, ''ये क्या तमाशा है, कपड़े पहनो, इतनी औरतों के सामने।''

पर मगना बिना बहस किए पसीने से तर कमीज फिर पहन लेता है। ऊपर देखता है, शायद बादल का कोई टुकड़ा बदली बन बरस जाए। जून की तपती दोपहर से कुछ तो राहत हो। डॉक्टर के दरवाजे पर लाइन लम्बी होती चली गई। लाजो को उसने लाइन में ही लिटा दिया था, जनाना वार्ड की डॉक्टर है। .

यहाँ पेशेण्ट को ही लाइन में लगना होता है, लाजो में लाइन में खड़े रहने या बैठने की ताकत ही कहाँ थी। लाइन में थोड़ी हलचल होती है। डॉक्टरनी साहेब आ गई हैं, वह दरवाजे पर देखता है। बड़ी सी सफेद कार में बैठकर डॉक्टरनी आई थीं। उतरीं तो मगना की तरह कुछ और लोग लपके, पहले देखने की विनती करने पर कुछ फायदा नहीं। आँखों पर काला चश्मा लगाए परियों सी सुंदर उस डॉक्टरनी ने ''नो....नो लाइन से आइए। लाइन से भेजना सिस्टर।'' कहकर क्लिनिक के केबिन में प्रवेश कर लिया था। मगना अपमानित-सा महसूस करता है, पर गरीब का क्या मान,क्या अपमान? डॉक्टरनी लाजो को ठीक कर दे, बस। वह तो सारी उमर डॉक्टरनी की गुलामी कर लेगा।

बड़ी डॉक्टरनी है। उसका नाम बहुत है, बड़ी डॉक्टरनी है। वह पास खड़े बीड़ी फूँक रहे आदमी से पूछता है, ''हाँ भैया, डाक्टर तो होशियार सुनी है।''

''अपनी नैया पार लगावे तो बात है'', वह मन-ही-मन बुदबुदाता है।

फिर सामने की तरफ देखता है। चार-पाँच पेशेण्ट निपट चुके थे। उसे अहसास होता है, लाजो को प्यास लगी होगी। भागदौड़ में वह भूल ही गया। झट से पोटली खोलता है। पीतल का गिलास निकालता है। टंकी से पानी का गिलास भरकर लाता है, तो बच्चे टुकर-टुकर देखते हैं। पहले वह बच्चों को पानी पिलाता है, फिर खुद पानी हलक में उड़ेलता है, तो अंतड़ियों में ठण्डा पानी राहत देता है। गिलास भरकर लाजो को देता है, पर उसमें उठने की ताकत भी नहीं बची है। वह अपनी बाँह पर लाजो की गर्दन को उठाता है, दो-चार घूँट पानी लाजो गुटकती है, फिर पोटली का तकिया लगा मगना उसे लिटा देता है।

दोपहर की धूप कलसाने लगती है। उसके आगे अभी चार पेशेण्ट और हैं। लाजो पर नजर पड़ती है। वह कातर .ष्टि से मगना को ही ताक रही थी। पेट और कमर कसकर पकड़े थी। बच्चे भूख से कुलबुलाने लगे थे। पास ही ठेलेवाला चना मुरमुरा बेच रहा था। वह जेब टटोलता है, पाँच का नोट फिर हाथ में आ जाता है। वह दो रुपये का मुरमुरा लेकर लौट आता है। दोनों बच्चे पुड़ियाँ खोल चुगने लगते हैं। सिस्टर की आवाज से मगना की तन्द्रा भंग होती है। ''लाजवंती बाई'' मगना लाजो के पास जा उठाने के लिए हाथ बढ़ाता है, ''चल उठ, आ गया नम्बर, चल डॉक्टरनी साब.....'' वह उठाने की कोशिश करता है। सिस्टर फिर आवाज लगाती है, ''लाजवंती बाई'' पर लाजो तो लुढ़क गई, उसके हाथ में, ''डाक्टर साहब देखो, जल्दी मेरी लाजो....।'' डॉक्टर शोर सुन बाहर आती है, ''अरे, ये तो मर गई। तुमने पहले बताया था। यही तो गलती करते हो तुम गाँववाले, चलो ले जाओ इसे।''

मगना का स्वर कातर हो सिसकियों में बदल जाता है। एक खालीपन तीव्रता से भरता जाता है। अस्पताल आए थे तब दो थे। दोनों ही बच्चों को थामे थे पर अब तीन को थामकर छह कोस मगना कैसे ले जाए, वह एक-एक कर तीनों को दवाखाने के बाहर सड़क पर लाता है। पोटली से लाजो का लुगड़ा निकाल लाजवंती की लाश की लाज बचाने उढ़ा देता है।

ताँगेवाला किसी राहगीर को छोड़ फिर उधर से गुजरता है, एक अंतराल के बाद। ताँगेवाले के जाने और आने के उस छोटे-से अंतराल के मध्य लाजो ने लम्बा अंतराल काटा था, जीवन और मृत्यु के बीच का। यह अंतराल अवधि में कितना ही छोटा या बड़ा क्यों न हो, यह घाव देता है, घाव को नासूर में बदल देता है। यह जीवन की अर्थहीनता पर हँसना या रोना सिखाता है। अमीर और गरीब के बीच का अंतराल गरीब की मजबूरी को परत-दर-परत उघाड़ देता है। उसे अपनी औकात का अहसास कराता है। बार-बार मगना ने डॉक्टर और गरीब पेशेण्ट के मध्य पसरे अंतराल को महसूस किया था। पहले 150 रुपये परामर्श शुल्क देने वाले बीमार देखे गए थे। पर्ची कटवानेवाले बाद में और निःशुल्क परामर्श वालों की लम्बी लाइन में लगी थी लाजो। प्रतीक्षा के उस अंतराल को पाटा था मृत्यु ने।

मगना फिर ताँगे में लाजो को पटकता है।

''चलो भैया, हिम्मत रखो! छोटे-छोटे बच्चे हैं, ईश्वर बड़ा दयालु है, वही इन बच्चों को सबूरी देगा।'' ताँगेवाला उसे ढांढस देने लगता है।

 

लेखक परिचय:

डा0 स्वाति तिवार

stswatitiwari@gmail.com

जन्म : 17 फरवरी, 1960

धार (मध्यप्रदेश)

नई पीढ़ी के कथाकारों में सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उपस्थिति। कविता, लेख, रिपोर्ताज, व्यंग्य, सम्पादन और फिल्म निर्माण जैसी विधाओं में भी सक्रिय। अब तक एक दर्जन से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन। ब्रम्हकमल - एक प्रेमकथा उपन्यास प्रकाशनाधीन। देश को शीर्षस्थ पत्रिकाओं में कहानियों का निरन्तर प्रकाशन। प्रमुख अंग्रेजी पत्रिका सण्डे इंडियन ने 21वीं सदी की 111 महिला लेखकों में उन्हें शामिल किया है।

आधुनिकता से आक्रांत लेखन के इस दौर में उन्होंने समाज की जड़ों से जुड़कर ऐसा लेखन किया है जिसमें नारी के विविध रूप बहुत शिद्दत से उभरकर सामने आये हैं। वे संस्कारित जीवन मूल्यों को सर्वोच्चता देते हुए सहजता के साथ समकालीन यथार्थ और अन्याय को अद्भुत मार्मिकता और संवेदना के साथ अपनी कहानियों में अन्वेषित करती हैं।

उनका एक पक्ष मानव अधिकारों के पैरोकार का भी है। वृद्धावस्था पर केन्द्रित मनोवैज्ञानिक दस्तावेज 'अकेले होते लोग' के लिए उन्हें राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग द्वारा दिल्ली में सम्मानित किया गया। अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित स्वाति को हाल ही में 'स्वाति तिवारी की चुनिंदा कहानियां' के लिए मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी सम्मान से अलंकृत किया गया।

कलागुरू विष्णु चिंचालकर और परिवार परामर्श केन्द्रों पर 'घरोंदा न टूटे' फिल्में भी उन्होंने बनाई हैं।

वे एक कुशल संगठनकर्ता भी हैं। उन्होंने इन्दौर लेखिका संघ का गठन कर बड़ी संख्या में महिलाओं को लिखने के लिए प्रेरित किया। वे दिल्ली लेखिका संघ की सचिव भी रही हैं।

सम्प्रति : मध्यप्रदेश शासन के मुखपत्र 'मध्यप्रदेश संदेश' की सहयोगी सम्पादक।

सम्पर्क - ईएन 1/9 चार इमली, आईएएस  गेस्ट हाऊस के सामने,

भोपाल - 462016 (मध्यप्रदेश) - भारत

वेबसाइट -

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रचनाकार: स्वाति तिवारी का कहानी संग्रह - मेरी प्रिय कथाएँ
स्वाति तिवारी का कहानी संग्रह - मेरी प्रिय कथाएँ
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