बच्चन पाठक ‘सलिल’, राजीव आनंद तथा चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाएँ

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बच्चन पाठक 'सलिल' सात्विक क्रोध   दोपहर का समय था,मैं भोजन कर लेटा  हुआ था,मेरे घर के सामने एक टैक्सी रुकी,,मैं बाहर आया,-एक व्यक्...

बच्चन पाठक 'सलिल'

सात्विक क्रोध

 

दोपहर का समय था,मैं भोजन कर लेटा  हुआ था,मेरे घर के सामने एक टैक्सी रुकी,,मैं बाहर आया,-एक व्यक्ति एक टोकरी लेकर मेरे पास आया ,,,उसके पीछे पीछे एक युवती थी -उसने  चरण स्पर्श किया और बोली--''गुरुदेव,मैं हूँ ममता गोराई '',,मैंने आशीर्वाद देते हुए कहा,-''अरे,तुम अचानक कहाँ से प्रकट हो गई ?'',,

युवती ने हँसते हुए कहा-'गुरु जी ,आप  वैसे ही हैं,-आपका चिर परिचित लहजा सुनकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई,उसने कहा-ये कुछ फल हैं,कृपया स्वीकार करें ''--कुछ फल ,क्या थे फलों का अम्बार था,संतरे,सेब,कई किलो अंगूर, सूखे फलों का एक बड़ा पैकेट '',

ममता ने अपनी राम कहानी बिना किसी भूमिका के प्रारम्भ की --'' बी ए के पश्चात मैंने आपकी सलाह से हिंदी टाइपिंग सीखी,,,मैं हिंदी टाइपिस्ट बनना चाहती थी,-आपने कहा --रेलवे में हिंदी अधिकारी पद का विज्ञापन निकला है,-आवेदन कर दो,और तैयारी करो,'',,,मैंने आवेदन किया ,आपने दो महीनों  तक हिंदी साहित्य का इतिहास,और सामान्य ज्ञान पढ़ाया,  ---मैं डर रही थी,बोली--''परीक्षा से मुझे डर लग रहा है ,मैं अस्थायी टाइपिस्ट बनने जा रही हूँ,''-आप नाराज हो गए,-बोले -''मूर्ख,मैंने इसीलिए तुम्हारे साथ इतना परिश्रम किया,पद अनुसूचित जन जाति के लिए सुरक्षित है,-तुम्हारी तैयारी है,परीक्षा में बैठो,,नहीं तो मेरे पास कभी मत आना ''- - मैंने परीक्षा दी-मेरा चुनाव हो गया,मेरी नियुक्ति गौहाटी में हो गई,-दो वर्षों के बाद आई,तो आपका निवास बदल गया था,-पिताजी भी सेवा निवृत होकर बुंडू चले गए थे,-भाई वहीँ दुकान चलाता  है,,,तब से मैं आपका पता बराबर खोज रही थी, एक ऑन  लाइन पत्रिका से आपका पता मिला,मैं बुंडू आई थी,दौड़ी दौड़ी आपको सरप्राइज़ देने आ गई,फिर उसने चरण पकड़ कर पूछा --''अब तो आप नाराज नहीं हैं न ?'

मैंने भरे कंठ से कहा--''बेटा -वह मेरा सात्विक क्रोध था,-गुरु शिष्य से कभी नाराज नहीं होता ''

   डॉ बच्चन पाठक 'सलिल '

पंचमुखी हनुमान मंदिर के सामने

आदित्यपुर -2 ,जमशेदपुर-13

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चन्द्रेश कुमार छतलानी

तेरे, मेरे, उसके बोल

 

"क्यूं अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर रही हो, सुशीला?" - सुधीर चिल्लाया

उसकी पत्नी सुशीला ने बोलना बंद नहीं किया, "आप सब मर्द क्या समझते हो? सदियों से हम औरतों पर हुक्म चलाते आये हो, अब परिस्थितियां बदल गयी हैं| हम भी किसी से कम नहीं हैं, मुझे अगर इस दिवाली पर हीरे अंगूठी नहीं मिली तो आपकी और आपके घरवाले दिवाली कैसे मनाते हैं, मैं भी देखती हूँ|"

सुधीर ने कहा, "तुम्हारी भाभी भी क्या तुम्हारे भाई को ऐसे ही टोर्चर करती है?"

सुशीला एक दम बिफर गयी, "मेरी भाभी ने कोई मेरे जैसे बेटा नहीं जना है, उसने बेटी पैदा की है, मैं-मम्मी और भैया मिलकर उसे कुछ बोलने देंगे क्या?"

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Chandresh Kumar Chhatlani

ई-मेल - chandresh.chhatlani@gmail.com


http://chandreshkumar.wikifoundry.com

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राजीव आनंद

लघुकथा कचहरी का चुनाव

कचहरी में चुनाव है। कचहरी प्रांगण में जगह-जगह पोस्‍टर, बैनर लग रहे है। चुनाव में खड़े वकीलों के भाषणों और आश्‍वासनों का बाजार गर्म है। गरीब वकील प्रत्‍याशी बालुशाही मिठाई खिला रहे हैं, अमीर प्रत्‍याशी शहर से कहीं दूर मुर्गा-दारू की पार्टी चला रहें है। हालांकि यह राजनीतिक चुनाव नहीं है फिर भी तेवर और कलेवर में राजनीतिक चुनाव से कुछ कम नहीं । प्रत्‍याशी कचहरी में चुनाव के प्रति संजीदा है, उन्‍हें अपनी सेवा जो देनी है बेंच और बार को ।

इसी माहौल में राजू वकील रोज की तरह कचहरी आया है हालांकि उसे कचहरी जाने की कोई उत्‍सुकता नहीं है। अरे कोई काम हो, कुछ आमदनी की कोई उम्‍मीद हो तो मन भी लगे। काम तो है नहीं, रोज पैदल कोर्ट पहनकर चार-पांच किलोमीटर का रास्‍ता तय करके कचहरी पहॅुंचे, बेमन से महुआ पेड़ के नीचे टेबल-कुर्सी को झाड़ा-पोंछा, अपने चरमराये जूते को निहारा, आसपास नजर घुमाया और एक उदासी के साथ अपनी कुर्सी पर बैठ गया। खैनी को चूने के साथ मिलाकर लगा रगड़ने और टुकुर-टुकुर कचहरी के चहल-पहल को निर्विकार भाव से देखता-सुनता रहा। राजू को उम्‍मीद थी कि दशहरा के पहले कुछ काम जरूर मिल जाएगा, मिला भी, दो-एक एफिडेवीट का काम, कमाई दोनों एफिडेवीट मिलाकर दस रूपया। उम्‍मीद से बहुत कम, इतना काम, काम न मिलने के बराबर । राजू के टेबल के सामने से जब एक वकील अपनी चमचमाती कार लेकर जाता है तो उसे लगता है कि कचहरी की भीड़ उसी वकील के तरफ दौड़ी जा रही है। अपनी-अपनी किस्‍मत । राजू तकरीबन ग्‍यारह-बारह साल से वतौर वकील कचहरी आता जाता रहा है हालांकि कभी वकालत करने का मौका नहीं मिला। राजू के पिता चाहते थे कि राजू कोई नौकरी कर ले, वे राजू को वकील नहीं बनाना चाहते थे।

खैनी ठोंक-ठाक कर अपने होंठो के भीतर राजू अभी दबाया ही था कि अध्‍यक्ष पद के दावेदार अपने दूत-भूत के साथ राजू के टेबल पर पहुँच गए। ऐसे वक्‍त आसपास के वकील भी प्रत्‍याशी के इर्द-गिर्द जमा हो जाते है पर राजू प्रायः उदासीन ही बना रहता, क्‍या होगा उत्‍साहित होकर, वह सोचता । पिछले सालों साल से यही सब तमाशा देख रहा है, झेल भी रहा है, एक अध्‍यक्ष और एक सचिव आते है, खाते-पीते है, घोटाला करते है और बेदाग निकल जाते है, साइकिल से चलने वाले अघ्‍यक्ष अब कार पर चलते है लेकिन राजू की माली हालत तो वहीं की वहीं। उसने दूसरी खिल्‍ली खैनी ठोंकना शुरू किया। थोड़ी बहुत राहत मिलती है तो बस खैनी की होेंठों के भीतर चुनचुनाहट से ।

कार्यकारणी सदस्‍यों के प्रत्‍याशी वकील मतदाताओं को रिझाने-उलझाने की पुरजोर कोशिश करते रहते हैं। इन प्रत्‍याशियों के अलावा बेंच और बार की भलाई के बारे में कोई और सोच भी नहीं सकता। ये अगर चुनाव नहीं लड़े और लड़कर नहीं जीते तो बेंच और बार का पतन सुनिश्‍चित है। सचिव पद के दावेदार में सभी अपने को वफादार, वकीलों के हितों का ख्‍याल रखने वाला साबित करने पर तुले है। हर वाक्‍य के बाद अपनी काबिलयत और ईमानदारी का नारा लगाता है जैसे ईमानदारी सर्वोतम नीति है, का नारा इन्‍होंने ही दिया है। राजू को इन दिनों आश्‍चर्य भी होता है कि आमूमन उसकी तरफ कोई वकील का घ्‍यान नहीं जाता लेकिन चुनाव के समय हर प्रत्‍याशी उसके टेबल पर आ रहा है और उसे अपने पक्ष में वोट डालने का आग्रह कर रहा है। मतलबी दुनिया, मतलबी लोग । शाम होने को आयी, घर से गंदे बोतल में लाया साफ पानी पी-पीकर राजू ने आज का समय भी काट दिया, कुर्सी को टेबल से जंजीर के जरिए बांध‍कर घर जाने को निकल पड़ा है राजू कचहरी प्रांगन से।

रात के वक्‍त राजू अपने बिस्‍तर पर करवटें बदल रहा है, चारों बच्‍चे सो चुके है, पत्‍नी अपना बचा-खुचा काम समेट रही है। थकावट बहुत है पर नींद नहीं आ रही है। पत्‍नी को पुकारना चाहता है पर यह सोचकर कि पिछले दो बार पुकारा तो दो की जगह चार बच्‍चे का बाप बन गया, अब नहीं पुकारूंगा। करवटें बदलते-बदलते नींद तो आ ही जाएगी। राजू को पिता की बात याद आने लगी कि कोई नौकरी कर ले, छोटे शहरों में आजकल वकालत का कोई भविष्‍य नहीं, तिस पर गर्मी और बरसात में कोर्ट पहने रहना होगा और कहीं बहस वगैरह किया तो सर्कस के जोकर की तरह काला लबादा जिसे गाउन कहते है पहनना होगा। अरे किस कानून के अनुसार गर्मी में भी कोर्ट और गाउन पहने की बात कही गयी है, भाई ! इसी तरह की सोच में उब-डूब होता हुआ राजू कभी इस करवट तो कभी उस करवट लेता रात काटता है। दूसरे दिन उठने के बाद कुछ भी नहीं बदला, सब कुछ जस का तस, कोई परिवर्तन नहीं। घर से कचहरी और कचहरी से घर। उम्र से लंबी सड़कों पर लड़खड़ाते पैर से चलता राजू अपनी जिंदगी के पैंतालिस साल गुजार चुका, उसे चिंता तो अपने पत्‍नी और बच्‍चों की है। चाय की दुकान और ठेला लगाने वालों से भी कम कमाने वाला राजू कैसे अपने दो लड़के और दो लड़कियों को पढ़ा-लिखाकर अपनी जिम्‍मेदारी निभाएगा, यही उसकी चिंता का विषय रहा करता।

राजू को कचहरी के चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है। जब खाने पहनने के लाले पड़े हों तो क्‍या कचहरी, क्‍या चुनाव। उसे तो अपने टेबल पर प्रत्‍याशियों के आमदरफ्‌त देखकर लगता कि वह इंसान नहीं सिर्फ एक वोट है। प्रत्‍याशियों का समझाने का अंदाज कितना अपनापन लिए हुए है लेकिन कोई भी प्रत्‍याशी राजू के बिगड़े माली स्‍थिति का हमदर्द नहीं।

खाली समय में बादाम फोड़ना भी राजू को मँहगा लगता, लिहाजा चार-पाँच खिल्‍ली खैनी खाने के अलावा और कोई चारा न था। राजू खैनी सानते-सानते सोचने लगा कि जब कोई काम ही नहीं है तो क्‍यों न घर चल दिया जाए। कुर्सी-टेबल समेटकर राजू चलता है घर की और सोचता है कि रास्‍ते में जो अमड़े का पेड़ है वहीं से कुछ अमड़े बच्‍चों के लिए ले चले।

घर पहुँचकर राजू चौंकता है। बच्‍चे बताते है कि कोई वकील अंकल आए थे, महीने भर का आटा, चावल, दाल, तेल दे गए हैं। एक परचा भी दिया है और कहे है कि पापा को दे देना। राजू परचा ले लेता है, पर्चे पर लिखा है अमुक वकील को वोट देकर अध्‍यक्ष बनाएं। राजू पर्चा हाथ में लिए सोचता है ईमानदारी का भाषण पिलाने वाले अध्‍यक्ष प्रत्‍याशी अब मुझे और मेरे परिवार को खाना खिला रहें है। एक बार तो मन हुआ कि आटा, चावल, दाल, तेल जाकर पहॅुंचाने वाले वकील के घर दे आएं लेकिन पत्‍नी का अतिउत्‍साहित होकर खाना पकाना और बच्‍चें का पंगत में थाली लेकर खाना परोसे जाने का इंतजार करते देखकर राजू की हिम्‍मत पस्‍त हो गयी। राजू ने परचे को पतलून की जेब में धीरे से ठेल दिया।

राजीव आनंद

प्रोफसर कॉलोनी, न्‍यु बरगंड़ा

गिरिडीह-815301 झारखंड़

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रचनाकार: बच्चन पाठक ‘सलिल’, राजीव आनंद तथा चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाएँ
बच्चन पाठक ‘सलिल’, राजीव आनंद तथा चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाएँ
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https://www.rachanakar.org/2014/07/2_27.html
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