चन्द्रकुमार जैन का आलेख - अँधेरे की शब्दावली में उजाले बाँट गए मुक्तिबोध

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अँधेरे की शब्दावली में उजाले बाँट गए मुक्तिबोध डॉ.चन्द्रकुमार जैन  मेरे शब्द-भाव उनके हैं, मेरे पैर और पथ मेरा, मेरा अंत और अथ मेरा,ऐसे कि...

अँधेरे की शब्दावली में उजाले बाँट गए मुक्तिबोध

डॉ.चन्द्रकुमार जैन 

मेरे शब्द-भाव उनके हैं, मेरे पैर और पथ मेरा, मेरा अंत और अथ मेरा,ऐसे किंतु चाव उनके हैं। अपने ऐसे सधे हुए शब्दों और कविताओं के गहरे अर्थ को दुनिया में हमारे लिए अमानत और विरासत की मानिंद छोड़कर न जाने कहाँ चले गए गजानन माधव मुक्तिबोध। उनके देहावसान को  50 साल हो गए हैं। इसी के साथ उनकी अंतिम बहुचर्चित कविता अँधेरे में की रचना के भी पांच दशक पूरे हो गए हैं। 

साहित्यकार प्रो मैनेजर पाण्डेय ने मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में के रचे जाने के पचास साल पूरा होने के अवसर पर बहुत सटीक कहा है कि वह कविता महत्वपूर्ण होती है जो एक साथ अतीत, वर्तमान और भविष्य की यात्रा करे। यह क्षमता मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में है। यह अपने रचे जाने के पचास साल बाद भी हमें प्रेरित करती है। इसमें मनु हैं। गांधी व तिलक हैं। आजादी के बाद का वह मध्यवर्ग है जिसके लिए संघर्ष के दिन गये और खाने-पाने के अवसर आ गये। कहा जाय तो इसमें मध्यवर्ग की नियति की अभिव्यक्ति है। वहीं, इस कविता में आने वाले फासीवाद की स्पष्ट आहट है। यह जनचरित्री कविता है। बड़ी कविता वह होती है जिसमें वास्तविकता और संभावना दोनो हो, अंधेरे में ऐसी ही कविता है। यह उस दौर में लिखी गई जब राजनीति और विचारधारा को कविता से बाहर का रास्ता दिखाया गया। ऐसे दौर में मुक्तिबोध ने कविता की अस्मिता के लिए डटकर संघर्ष किया।

स्मरण रहे क़ि अंधंरे में मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता है। मुक्तिबोध रचनावली के दूसरे भाग में इस कविता का वह पाठ प्रस्तुत किया गया है जो अन्यत्र प्रकाशित पाठों से भिन्न है। रचनावली के पृष्ठ 320 से 356 तक फैली इस लम्बी रचना के अंत में स्पष्ट किया गया है कि इसका संभावित रचनाकाल 1957 से 1962 तक है। अंतिम संशोधन 1962 में हुआ। रचना स्थल राजनांदगांव-नागपुर बताया गया है। बहरहाल कवि-लेखक कौशल किशोर का यह कहना बेहद माकूल मालूम पड़ता कि यह कविता परम अभिव्यक्ति की खोज में जिस तरह की फैंटेसी बुनती है और पूंजी की दुनिया व रक्तपायी वर्ग द्वारा पैदा की गई क्रूर, अमानवीय व शोषण की हाहाकारी स्थितियों से साक्षात्कार करती है वह हिन्दी कविता में मील का पत्थर है जिसमें अंधेरा मिथ नहीं, ऐसा यथार्थ है जिससे जूझते हुए हिन्दी कविता आगे बढ़ी है।

अंधेरे में और ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध की सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण रचनायें मानी जाती हैं। ब्रह्मराक्षस कविता में कवि ने ब्रह्मराक्षस के मिथक के ज़रिए  बुद्धिजीवी वर्ग दुविधा और आम जनता से उसके अलगाव की व्‍यथा का मार्मिक चित्रण किया है. इस कविता के संदेश को यदि एक पंक्ति में व्‍यक्‍त करना हो तो कहा जा सकता है कि अच्‍छे व बुरे के संघर्ष से भी उग्रतर/ अच्‍छे व उससे अधिक अच्‍छे बीच का संगर। लगभग इन्‍हीं आशयों की कहानी ब्रह्मराक्षस का शिष्‍य भी उन्‍होंने लिखी। 

अंधेरे में मुक्तिबोध की अंतिम कविता है और शायद सबसे महत्‍वपूर्ण भी। इस कविता में सत्‍ता और बौद्धक वर्ग के बीच गठजोड़, उनके बेनकाब होने, सत्‍ता द्वारा लोगों पर दमन, पुराने के ध्‍वंस पर नये के सृजन, इतिहास के बारे में नयी अंतर्दृष्टि आदि देखने को मिलती है। अंधेरे में स्‍वतंत्रता के बाद के भारत के दो दशकों का अख्‍यान मात्र नहीं है, उसमें हमारा संपूर्ण अ‍तीत मुखरित होता सुना जा सकता है। इतना ही नहीं,उसमें भविष्य की आहट भी है। कविता का आरम्भ इन पंक्तियों से होता है -

ज़िन्दगी के / कमरों में अँधेरे

लगाता है चक्कर /कोई एक लगातार;

आवाज़ पैरों की देती है सुनाई

बार-बार….बार-बार,

वह नहीं दीखता…नहीं ही दीखता,

किन्तु वह रहा घूम

तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक,

भीत-पार आती हुई पास से,

गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा

अस्तित्व जनाता / अनिवार कोई एक,

और मेरे हृदय की धक्-धक्

पूछती है–वह कौन

सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई !

गहनता और रहस्यमयता तो जैसे मुक्तिबोघ के कवि की पहचान ही हैं। अहमद फ़राज़ का ये शेर उनकी फितरत पर निहायत मौज़ूं मालूम पड़ता है-

शायद कोई ख्वाहिश रोती रहती है

मेरे अन्दर बारिश होती रहती है।

मुक्तिबोध ने एक साहित्यिक की डायरी में एक लंबी कविता का अंत शीर्षक के अंतर्गत लिखा है- ऐसी स्थिति में जबकि समाज में संजीवनकारी उत्प्रेरक आंदोलन या ऐसी संगठित शक्ति नहीं है, एक संवेदनशील मन जिसमें अब तक अवसरवादी कौशल और लाभ-लोभ की समझदारी विकसित नहीं हुई है, केवल अपने को निस्सहाय महसूस करता है। वह लिखते हैं, यदि वो कवि होता है तो सहज मानवीय आकांक्षाओं के सामाजिक वातावरण के अभाव में उसके काव्यात्मक रंग अधिक श्यामल, अधिक बोझिल और अभावग्रस्त हो जाते हैं। यह डायरी 1963 की है यानी अंधेरे में  के रचनाकाल के लगभग आसपास की। 

मुक्तिबोध की मानसिक बनावट और बुनावट को समझने के लिए इस कविता का इन अंश और पढ़िए -


ओ मेरे आदर्शवादी मन,/ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,

अब तक क्या किया? / जीवन क्या जिया!!

उदरम्भरि बन अनात्म बन गए,

भूतों की शादी में कनात-से तन गए,

किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर,

दुखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,

अपने ही ख़्यालों में दिन-रात रहना,

असंग बुद्धि व अकेले में सहना,

ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,

अब तक क्या किया / जीवन क्या जिया!!

बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गए,

करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गए,

बन गये पत्थर,बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,

दिया बहुत-बहुत कम,

मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!

प्रख्यात कवि-कथाकार राजेश जोशी कहते हैं कि मुक्तिबोध का मन-मस्तिष्क एक लगातार जिरह करता, संवाद करता मन-मस्तिष्क है। उनकी कविता, कहानी, साहित्यिक की डायरी, यहाँ तक कि उनका लघु-उपन्यास विपात्र भी, इसके प्रमाण हो सकते हैं कि उसमें निरंतर संवाद की शैली हमें दिखाई देती है.अंधेरे में मुक्तिबोध की सृजनात्मकता का सबसे उन्नत शिखर है। 

ब्रह्मराक्षस, ओरांग उटांग, क्लॉड ईथर्ली जैसे बीसियों अटपटे नामों की विकृतियों की भी सुसंगतता निर्धारित कर यह कवि उन्हें अभिव्यक्ति की धमनभट्टी में गलाकर कविता के उत्पाद में बदल देने की वैज्ञानिक वृत्ति का प्रयोगधर्मी रहा है। उनके प्रतीकों में अंधेरा, काला जल, सर्प, पत्थर, मृत्यु, चीत्कार वगैरह की परछाइयां नहीं, झाइयां कविता के चेहरे पर इस तरह उगी हैं कि इन्सानी विकृतियों में काव्यात्मकता बूझने की समझ विकसित है।

मुक्तिबोध में समय के आगे के इतिहास को बूझने की शक्ति थी। उसकी वैज्ञानिक अभिव्यक्ति उन्होंने खुद से जद्दोजहद करती तराशी हुई भाषा में परवर्ती पीढ़ियों की विश्व बिरादरी के लिए परोसने की कोशिश की। प्रख्यात कवि-आलोचक डॉ.नामवर सिंह शब्दों के साथ अभी बस इतना ही कि मुक्तिबोध ने अंधेरे में कविता लिखी।अंधेरा आज और गहरा हो गया है, इस अंधेरे के कई रूप हैं।यह सब कुछ मुक्तिबोध ने पहले देख लिया था। जो बारात अंधेरे में दिखती थी वह अब दिन दहाड़े दिखती है।यह दूर दृष्टि जिस कहानीकार या कवि में मिल सकती है वह मुक्तिबोध है।अंधेरा गहरा होता जा रहा है, जिस अंधेरे का जिक्र उन्होंने अपनी रचनाओं में किया था, उस लड़ाई से संघर्ष की ताकत और जीतने का विश्वास मुक्तिबोध से मिल सकता है। मुक्तिबोध से ही मशाल जलाए रख सकने की हिम्मत मिल सकती है। 

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प्रध्यापक, हिन्दी विभाग

दिग्विजय कालेज, राजनांदगांव

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रचनाकार: चन्द्रकुमार जैन का आलेख - अँधेरे की शब्दावली में उजाले बाँट गए मुक्तिबोध
चन्द्रकुमार जैन का आलेख - अँधेरे की शब्दावली में उजाले बाँट गए मुक्तिबोध
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https://www.rachanakar.org/2014/09/blog-post_20.html
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