दिनेश कुमार माली का यात्रा संस्मरण - चीन में सृजनगाथा डॉट कॉम

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चीन में सृजनगाथा डॉट कॉम - दिनेश कुमार माली ,तालचेर,ओड़िशा चीन की साहित्यिक यात्रा मेरे लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण थी। जैसे ही चार-पांच महीन...

चीन में सृजनगाथा डॉट कॉम

- दिनेश कुमार माली ,तालचेर,ओड़िशा

चीन की साहित्यिक यात्रा मेरे लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण थी। जैसे ही चार-पांच महीने पूर्व डॉ. जय प्रकाश मानसजी की इस बार चीन में अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के आयोजन किए जाने की घोषणा अंतरजाल पर पढ़ी , वैसे ही मन ही मन हेनसांग व फाहयान के चेहरे उभरने लगे , दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक आश्चर्य चीन की दीवार आँखों के सामने दिखने लगी और चीन की विकास दर का तेजी से बढ़ता ग्राफ मानस-पटल पर अंकित होने लगा। याद आने लगा वह पुरातन भारत जिसमें हेनसांग व फाहयान चीन से यहाँ पढ़ने आए होंगे ,तब चीन कैसा रहा होगा ? और नालंदा व तक्षशिला विश्वविद्यालय के वर्तमान खंडहर खोज रहे होंगे अपनी जवानी को उनकी पुस्तक "ट्रेवल टू इंडिया" के संस्मरणों में। तब चीन विपन्न था। कांग यौवे ने चीन की दोहरी दुनिया का खुलासा किया था - चीन में चारों तरफ भिखारी ही भिखारी नजर आते थे ,बेघर ,वृद्ध ,लावारिस रोगी सड़कों पर दम तोड़ते दिखाई देते थे। यह बहुत ज्यादा पुरानी बात नहीं है। सन 1895 के आस-पास की बात रही होगी। जबकि सातवीं शताब्दी ईसवी में ह्वेनसांग भारत अध्ययन के लिए आया था तथा उसने नालंदा विश्वविद्यालय के अनूठी अध्ययन प्रणाली, अभ्यास और मठवासी जीवन की पवित्रता का उत्कृष्टता से वर्णन किया। दुनिया के इस पहले आवासीय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दुनिया भर से आए 10,000 छात्र रहकर शिक्षा लेते थे, तथा 2,000 शिक्षक उन्हें दीक्षित करते थे। यहां आने वाले छात्रों में बौद्ध यतियों की संख्या ज्यादा थी।

मगर कभी कहा था , चंद्रमा पर उतरने वाले पहले चन्द्रयात्री नील आर्मस्ट्रांग ने, चंद्रमा से पृथ्वी की ओर नीचे झांककर देखते हुए कि चंद्रमा से जल के अलावा अगर पृथ्वी की कोई चीज साफ दिखती हैं, तो वह है चीन की दीवार। हजारों साल पूर्व मंगोलियन आक्रमण से अपना बचाव करने के लिए चीन वालों ने एक विराट विस्तृत दीवार अनेक घुमावों के साथ बनाई होगी उस जमाने में। चीन के सैनिकों की टुकड़ियाँ अपने सीमा में विदेशी बर्बर आक्रांताओं को प्रवेश करने से रोक रही होगी ! इन सारी कल्पनाओं को यथार्थ में साकार करने का एक मात्र संयोग था चीन में आयोजित हो रहा यह नवम अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन। रायपुर की साहित्यिक संस्था सृजन-सम्मान तथा अन्य सहयोगी संस्थाएं सृजनगाथा डॉट कॉम ,छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,,वैभव प्रकाशन,प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान,,गुरु घासीदास साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के संयुक्त तत्त्वाधान में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी और हिंदी-संस्कृति को प्रतिष्ठित करने के लिए किये जा रहे प्रयासों और पहलों के अनुक्रम में इस बार 20 से 26 अगस्त तक चीन में आयोजित किया जा रहा था।

विश्व के सारे देशों के बीच संवादहीनता की दीवार तोड़कर 'वसुधैव कुटुंबकम' की भावना का विकास करना ही डॉ॰ जय प्रकाश मानस का पवित्र संकल्प था। और इस यज्ञ में आहूति देने के लिए पधार रहे थे , भारत के कोने-कोने से कर्नाटक,गुजरात,बिहार,उतर प्रदेश, मिजोरम, ओड़िशा, छतीसगढ़, मद्यप्रदेश, के शीर्षस्थ रचनाकारों समेत नवोदित रचनाकर। कभी कामरेड रहे कम्यूनिष्ट विचार धारा से ओत-प्रोत विशिष्ट आलोचक व साहित्यकार डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर (पटना), विश्व-कवि लू-शून के समाजवादी दृष्टिकोण व दर्शन से प्रभावित हिन्दी के अन्यतम वरिष्ठतम कवि लेखक उद्भ्रांत जी (दिल्ली) , शमशेर के काफी नजदीकी रही गुजरात विश्व-विद्यालय की हिन्दी की विभागाध्यक्षा डॉ॰ रंजना अरगड़े और महाराष्ट्र से डॉ॰ मीनाक्षी जोशी जैसी महान विभूतियाँ। इससे ज्यादा क्या सुखद क्षण हो सकते थे मेरे लिए ! यह ही नहीं , मानस सर का व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा हैं कि अगर आपके अंदर थोड़ी-सी भी सर्जनात्मकता क्षमता है साहित्य के क्षेत्र में, तो वह किसी शक्तिशाली चुंबक की तरह अपनी तरफ खींचकर एक नई पृष्ठ भूमि, नया क्षितिज व नया वितान प्रदान करेगा। और आप आसमान में उड़ने लगोगे अपनी सारी ऊर्जा,क्षमता व शक्ति के साथ।

मैं तो केवल मेरी नई पुस्तक "ओडिया भाषा की प्रतिनिधि कहानियां" के विमोचनार्थ चीन जाने वाला था, मगर जाने के कुछ ही दिनों पूर्व मानस जी ने अनुवाद के क्षेत्र में उस कृति पर संस्था के सबसे बड़े सम्मान "सृजनगाथा -सम्मान" की घोषणा 'माली हो तो दिनेश जैसा' शीर्षक जैसे अपने छोटे से आलेख में अपने फेस बुक की वाल पर कर दी। इतना बड़ा सम्मान मेरे लिए! मैं तो सोच भी नहीं सकता था। मैंने अपनी टिप्पणी अभिव्यक्त की, अपने आश्चर्य और खुशी के इज़हार के साथ। उनका प्रत्युतर था,"दिनेश ,सचमुच हकदार हो तुम। सृजनगाथा डॉट कॉम की नजरों में अनुवाद के क्षेत्र में तुम्हारे सिवा और कोई नहीं था।"

सम्मान ग्रहण करने के अतिरिक्त चीन के इस आयोजन में मेरे लिए दो आकर्षण बिन्दु और थे, डॉ खगेन्द्र ठाकुर व विशिष्ट कविवर उद्भ्रांत जी से मुलाक़ात करना। साहित्य भंडार, इलाहाबाद से अभी अभी प्रकाशित डॉ खगेंद्र जी का उपन्यास 'सेंट्रल जेल' ने मुझे इस कदर प्रभावित किया था कि मैं उनके भीतर झाँकने के लिए आंदोलित हो रहा था। स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में कभी जेल की सलाखों के पीछे रहें साहित्यकार खगेंद्र जी का देश-प्रेम, जेल के भीतर के तत्कालीन कैदियों की मनोदशा और अंतरकलह कोई मार्क्सवादी आंदोलनकर्ता के सिवाय और कौन अपनी सुलझी कलम से जान सकता हैं। और अगर उस लेखक को नजदीक से देखने का अवसर मिले तो फिर क्या कहना ! ठीक इसी तरह, कुछ वर्ष पूर्व लखनऊ में आयोजित द्वितीय अंतर-राष्ट्रीय ब्लागर एसोसिएशन के विशिष्ट अतिथि रहे कवि उद्भरांत को मैंने सुन रखा था। उनकी काव्यात्मक शैली, साहित्य-प्रेम और लखनऊ के उमाबली प्रेक्षागृह में दिया गया सशक्त संभाषण मुझे बरबस आकर्षित कर रहा था। अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनों के माध्यम से इतनी बड़ी-बड़ी हस्तियों व विभूतियों को नजदीक से जानने का अवसर मिलता है। उनकी सोच,रहन-सहन, विचारधारा सबसे परिचय हो जाता है कुछ दिन साथ रहने से। साहित्यिक रुझान के बारे में तो बहुत कुछ सीखने को मिलता है, साथ ही साथ उनके अंतरंग अनुभव व अनुभूतियों से भी अवसर मिलने पर साक्षात्कार हो जाता है

 

पहला दिन (20.8.14):-

यह दिन था दिल्ली इन्दिरागांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सभी प्रतिभागियों से मिलने का। सारी सुचारु व्यवस्थाओं को देख रहे थे, स्वयं जय प्रकाश मानस जी तथा टूर मेनैजर रिक्की मल्होत्रा। और वैसे भी बीस से ज्यादा प्रतिभागी जुड़े हुए थे मेरे व्हाट्स अप्प ग्रुप ' हिन्दी सम्मेलन, चीन ' पर। मुझे तो बहुत ही फायदा हुआ था इस ग्रुप से। मेरा टिकट था भुवनेश्वर से दिल्ली जाने वाली रात को नौ बजे की फ्लाइट से। वह साढ़े ग्यारह बजे दिल्ली के टेर्मिनल-1 पर पहुँचती और वहाँ से टर्मिनल -3 जाने में एक घंटे से कम नहीं लगता। ये सारी बातें मुझे व्हाट्स अप्प ग्रुप में सेवाशंकर अग्रवाल ने पहले ही बता दी तो मैंने फ्लाइट को रिशेड्यूल कर दिया, 6 बजे वाली फ्लाइट में। भुवनेश्वर में बीजू पटनायक अंतर-राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर ओड़िशा से चीन जाने वाले बहुत बड़े दल से मेरी मुलाक़ात हुई। आइए, आप का परिचय करवा दूँ। आप, झिमली पटनायक व आपका परिवार, पुरी से आ रहे है। ओड़िया थिएटर से जुड़ी विख्यात संस्कृतिकर्मी ,रोटेरियन व लब्ध-प्रतिष्ठित आकर्षक समाज सेविका श्रीमती झिमली पटनायक ओड़िया व हिन्दी दोनों भाषाओं में धारा-प्रवाह व मधुरभाषी वक्ता है। आप डॉ। एन॰सी॰दास सपरिवार- कटक से। ओड़िया साहित्य अकादमी से पुरस्कृत साहित्यकार व देश-विदेश की अनेक तकनीकी संस्थाओं से जुड़े सेवानिवृत इलेक्ट्रिकल इंजीनियर डॉ॰ एन॰ सी॰ दास व उनकी सहधर्मिणी। आप है प्रो धरणीधर साहू व हिन्दी से ओडिया में अनुवाद करने वाली रचनाकर उनकी पत्नी कनक मंझरी साहू भुवनेश्वर से। अँग्रेजी के सेवानिवृत प्रोफेसर है धरणीधर साहू साहब। डॉ सुदर्शन पटनायक भी कटक के सुविख्यात साहित्यकार। और तालचेर से मैं -दिनेश कुमार माली , महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड में काम करता हूँ। इस प्रकार बन गया उत्कल का एक विशेष दल।

भुवनेश्वर के बीजू पटनायक हवाई अड्डे से उड़ान भरने से पूर्व झिमली मैडम ने जैसे ही व्हाट्स अप्प पर हम सभी का सामूहिक फोटो अपलोड कर दिया यह लिखते हुए ओड़िशा से नौ लोगों का दल दिल्ली के लिए रवाना हो रहा है , वैसे ही सेवाशंकर अग्रवाल ने अपने समूह का फोटो अपलोड करते हुए प्रत्युत्तर में लिखा रायपुर से डबल डिजिट अर्थात दस जन दिल्ली के लिए रवाना। फोटो में कुछ चेहरे जाने-पहचाने भी थे जैसे डॉ जे॰ आर॰ सोनी,गिरीश पंकज,डॉ॰ सुधीर शर्मा,राकेश मिश्रा,सेवा शंकर अग्रवाल आदि। शायद यह संयोग ही था कि दोनों भुवनेश्वर व रायपुर की फ्लाइटें दिल्ली के टर्मिनल-एक पर एक ही समय पहुंची। बेल्ट कन्वेयर से अपना-अपना सामान उठाकर सभी ने एक दूसरे का अभिवादन किया और अनजान चेहरों से जानने वाले एक दूसरे का परिचय कराने लगे। एक 'इंटेक्चुयल मास' को एक अच्छे साहित्यिक मिशन के लिए इकट्ठा होता देख बहुत अच्छा लग रहा था। द्रूतगामी रफ्तार से विकास पथ पर दौड़ते चीन जैसे पड़ोसी देश की यात्रा सभी के लिए न केवल आनंद का विषय थी , वरन साहित्यकारों के सीने की धड़कनों में अपनी कविताएं ,कहानियाँ ,रचनाएँ ,वृतांत ,संस्मरण व अंतस के झरोखे की अनेकानेक अनुभूतियाँ एक अच्छे अवसर की तलाश में बहुत कुछ दबी हुई थी।

टर्मिनल-तीन पर डॉ॰ जय प्रकाश मानस ,टूर मेनेजर रिक्की मल्होत्रा व उनके दो-तीन सहयोगी, सभी प्रतिभागियों के वहाँ पहुँचने का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। हर पल -हर प्रतिभागी की गतिविधियों पर सतर्क नजर थी उनकी। डॉ॰ मीनाक्षी जोशी कहाँ से आ रही है , उद्भ्रांत साहब कहाँ तक पहुँच गए है , डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर किस गेट पर खड़े है इत्यादि। व्हाट्स अप्प पर लगातार संदेश जारी हो रहे थे। देखते-देखते एक कारवां जुटता गया। और इसी कारवां में मेरी मुलाक़ात होती है , मध्यप्रदेश के डिंडोरी गाँव के प्रसिद्ध लोक संस्कृतिकार लेखक व होम्योपैथिक डॉ॰ विजय कुमार चौरसिया से , जिनकी मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी से प्रकाशित पुस्तक "प्रकृतिपुत्र : बैगा" रिलीज होने जा रही थी इस अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में। बासठ वर्षीय हंसमुख चौरसिया कुछ ही पलों में मेरे आत्मीय बन गए। धीरे-धीरे इमाइग्रेशन फॉर्म पर हस्ताक्षर सहित अन्य सिक्यूरिटी चेक की सारी औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद हम सभी अपने गंतव्य गेट पर जाकर बैठ गए और इंतजार करने लगे भारतीय समय के अनुरूप ढाई बजे उड़ने वाली 'चाइना ईस्टर्न' की बीजिंग जाने वाली फ्लाइट का। बहुत बड़ा विमान था यह , लगभग तीन सौ यात्रियों के बैठने की व्यवस्था होगी। लगभग सोलह फीसदी तो हम लोग ही थे। बैठने के लिए दो श्रेणियाँ - एक वीआईपी और दूसरा इकॉनमी -जिसमें एक पंक्ति में आठ लोग।

सुपरसोनिक स्पीड से चलने वाला यह विमान छ घंटे लेता है दिल्ली से चीन की दूरी तय करने में। ग्रीनविच मीन टाइम (जीएमटी) के आधार पर चीन का समय इंडियन स्टेंडर्ड टाइम (आईएसटी) से दो घंटा तीस मिनट आगे रहता है। दिल्ली में रात के तीन बजने का अर्थ था चीन में भोर के साढ़े पाँच। आठवीं कक्षा की भूगोल में पढ़ाई जाने वाली देशांतर व अक्षांश रेखाओं की समय निर्धारण में भूमिका का प्रत्यक्ष अनुभव पहली बार हुआ कि पृथ्वी गोल है और सूर्य के सापेक्ष अपने अक्ष पर चक्कर लगा रही है। यह थी यथार्थता, अनुभवजन्य ज्ञान के पुस्तकीय ज्ञान से बेहतर होने की। फ्लाइट में मेरे पास कुछ अन्य भारतीय लोग बैठे हुए थे ,जिनका चीन के गुयाङ्ग्जाऊ जिले में कुछ व्यवसाय था और वे लोग शंघाई,सिंगापुर और मकाऊ के किसी बड़े व्यापारिक दौरे पर निकले हुए थे।

बातचीत के दौरान मैंने उनसे पूछा, " क्या आपको चीनी भाषा सीखने में कोई कठिनाई नहीं आती?"

मेरे चेहरे की तरफ देखते हुए उनमें एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति कहने लगा , " बहुत कठिन भाषा है। लिखना-पढ़ना तो दूर की बात बोलने में भी बहुत दिक्कत आती है। कुछ काम चलाऊ शब्द जरूर सीख लेते है। जैसे 'हेलो' या 'आप कैसे हो ?" को " नि हाऊ ?" और "मैं ठीक हूँ।" को " वो हेन हाऊ।" ; इसी तरह 'सॉरी' ,'गुड बाय' को 'दुईबुकी' 'जै जिआन' कहकर पुकारते है। ऐसे ही कुछ बिजनेस से संबन्धित वाक्यांश याद कर लेते है।"

" फिर आप सामान खरीदते समय बारगेनिंग कैसे करते हो ?" मैंने जिज्ञासावश पूछा उनसे।

तभी एक यात्री ने अपनी जेब से एक स्मार्टफोन इस तरह निकाला मानो कोई सँपेरा अपने पिटारे में से बीन बजाकर साँप निकाल रहा हो। उसने अपने मोबाइल से सामने की सीट पर लटकाए हुए एक रुमाल जैसे कागज पर चीनी भाषा में लिखे एक विज्ञापन का फोटो लेते कहा , " देखिए मेरी तरफ , मैं इस विज्ञापन का गूगल ट्रांसलेट सॉफ्टवेयर पर स्कैनिंग कर रहा हूँ। जैसे ही स्कैनिंग कंप्लीट होगी ,वैसे ही कन्वर्ट का बटन दबाकर हिन्दी भाषा सलेक्ट कर उसका मशीनी अनुवाद पढ़ सकते हो। कम से कम 100 से ऊपर भाषाओं का अनुवाद हो जाएगा इसमें।"

किसी ने ठीक ही कहा था ,आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। जिस तरह बचपन में सुनी हुई कहानी में प्यासा कौआ मटकी में कंकड़ डालकर पानी के ऊपर उठने पर अपनी प्यास बुझाता है , उसी तरह यह व्यापारी वर्ग अपने व्यापार में वृद्धि करने के लिए आधुनिक सूचना तकनीकी की क्रांति का फायदा उठाकर अपना प्रयोजन सिद्ध करते है। भारत सरकार के गृह -मंत्रालय के राजभाषा विभाग की वेबसाइट से 'मंत्रा' सॉफ्टवेयर या गूगल की साइट पर ट्रांसलेट पर मैंने अँग्रेजी से हिन्दी अथवा हिन्दी से अँग्रेजी के अनुवाद कार्य को अवश्य देखा था , मगर इस स्कैनर की जानकारी नहीं थी। यह बात अलग थी , राजभाषा कार्यालीन कामकाज के दौरान कभी-कभी मशीनी अनुवाद अत्यंत ही निरर्थक, ऊँटपटांग और संवेदनहीन प्रतीत होता था ,तो कभी-कभी उस अनुवाद पर हँसना भी आता था। अगर आप " इस रेन विथ डॉग अँड केट्स" का अनुवाद पढ़ेंगे तो स्वयं हंसने लगेंगे - ' कुत्ते और बिल्लियों की बरसात "। आप समझ गए होंगे , चीनी भाषा में भी तो मुहावरें,लोकोक्तियाँ या कहावतें तो अवश्य होंगी। चीन का साहित्य भी तो विश्व के समृद्ध साहित्य में से एक है। आगे जाकर आपको पता चलेगा कि किस तरह गूगल ट्रांसलेट का आविष्कार इस यात्रा में मेरा सहारा बना।

हमें पहुँचना था शंघाई से होते हुए बीजिंग ,मगर रुकना पड़ा शंघाई में। मौसम की खराबी के कारण हमारा विमान शंघाई से आगे नहीं बढ़ा। हम सभी को अपने लगेज समेत वहाँ बाध्य होकर उतरना पड़ा। उसी टिकट में दूसरी फ्लाइट पकड़कर बीजिंग जाना था। शंघाई के पुडोंग अंतर-राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हमारे पासपोर्टों की जांच-पड़ताल व लगेजों की स्कैनिंग की जाने लगी। मेरी भी किस्मत देखिए , पासपोर्ट के चेहरे में चश्मा नहीं लगा हुआ था और इस समय बड़े-बड़े लेंसों वाला स्पेक्ट पहना हुआ था। मुझे रोक दिया गया पूछताछ के लिए। ऐसे उन्होंने मुझसे कुछ भी पूछ-ताछ नहीं की ,मगर कुछ समय के लिए एक अलग रूम में रोका गया ,जब तक कि फोटो की माइक्रो-स्कैनिंग कर चेहरे से मिलान नहीं कर लिया गया। मुझे छोड़ दिया गया। यह तो गनीमत थी कि दूसरे लोगों की तरह उन्होंने मुझे कोई संदिग्ध अपराधी नहीं समझा और हाथ हिला-हिलाकर टूटी-फूटी अँग्रेजी में 'आने का उद्देश्य ,गंतव्य स्थान या वहाँ रुकने की समायावधि' के बारे में कोई भी पुलिसिया सवाल नहीं दागा। बाद में मुझे बताया गया कि वे लोग यादृच्छिक तरीके से यात्रियों की सेंपल-चेकिंग करते है , कहीं कोई तस्करी करने तो नहीं आया। आखिर शंघाई दुनिया का एक बड़ा व्यापारिक केंद्र जो है !

पता नहीं ,दिन ही कैसा था वह !

जैसे-तैसे वहाँ से छूटे तो दूसरी अनचाही घटना घट गई एस्केलेटर पर। रनिंग एस्केलेटर में दो बड़े बैगों के बीच पाँव फंस गया रिक्की मल्होत्रा का और वह आगे बढ़ नहीं पा रहा था। जैसे -जैसे एस्केलेटर आगे बढ़ता जा रहा था , वैसे-वैसे हमारे साथी एक दूसरे के ऊपर गिरते हुए वहीं ढेर हो जा रहे थे। और एस्केलेटर रुकने का नाम नहीं, पीछे के पीछे मुमताज़ और डॉ॰ जय प्रकाश मानस भी अपने सामानों समेत ! जान का भय किसे नहीं होता ? मैं रेलिंग से कूदना चाहा बाहर की ओर , मगर प्रयास व्यर्थ था। यह तो अच्छा हुआ डॉ॰ सुधीर शर्मा या डॉ॰ विजय चौरसिया में से किसी ने फंसे हुए एकाध बैग को बाहर ज़ोर से खींच कर निकाल दिया तो रिक्की मल्होत्रा पाँव में लगी कैंची से मुक्त हो गए और पीछे-पीछे हम सभी । ज्यादा नुकसान तो कुछ नहीं हुआ , मगर कुछ अपघटन घटना भी तो घट सकती थी।

ऐसे ही घटनाओं के दौर से गुजर रहे थे हम। इधर पेट में चूहे भी कूदने लगे थे। दिल्ली के वरिष्ठ कवि उद्भ्रांत जी व चंडीगढ़ के कहानीकार जसवीर चावला जी का भूख के मारे हाल-बेहाल हो रहा था। दोनों की तबीयत नरम लग रही थी। हमें अपना नया बोर्डिंग पास बनवाना था बीजिंग के लिए। सुविधानुसार अलग-अलग विमानों में हमें दस-पंद्रह के ग्रुप में भेजा जा रहा था। मन में आशंका थी , कहीं कोई छूट न जाए। हुआ भी कुछ ऐसा ही , आठ-दस साथी नहीं पहुँच पाए थे शंघाई से। छूटे हुए लोगों में श्री एन॰सी॰ दाश व डॉ सुदर्शन पटनायक जैसे बुजुर्ग लोग भी शामिल थे। डॉ॰ जय प्रकाश मानस इस टीम के मुखिया होने के नाते अपनी चिंता को छुपाने का असफल प्रयास कर रहे थे।

: " क्या करें ? सभी तो पढे-लिखे लोग हैं। सभी को कहा हुआ है , अपना ग्रुप न छोड़े। अगर इधर-उधर जाते भी है ,तो किसी न किसी को कहकर जाएँ। घबराने की बात नहीं है , सभी के पास उनके पासपोर्ट,टिकट ,यात्रा का पूरा वर्णन,होटलों के फोन नंबर ,नाम सभी दिया हुआ है। सभी होशियार हैं , आ जाएंगे टैक्सी से होटल में।" जितने सहज भाव में भले ही उन्होंने कहा था, मगर भीतर से वह इतने सहज नहीं थे। आखिरकार उनके कंधों पर ही तो दल की सुरक्षा का भार था। डॉ॰ जय प्रकाश मानस कोशिश कर रहे थे कि उनके चेहरे पर चिंता की कोई लकीर न दिखें , मगर उत्तरदायितत्व का बोध रह-रहकर उनके होठों और ललाट पर अव्यक्त तौर पर उभर आता था। दिल के दर्द को समझे कौन ? मगर मैं दीर्घकाल से जुड़े रहने के कारण आसानी से उनकी हृदय की भाषा को पढ़ सकता था कि वह किस असमंजस दौर से गुजर रहे है उस समय।

ईश्वर को अवश्य धन्यवाद देना चाहूँगा , कि उसने शंघाई में बिछुड़े हुए आठ साथियों को सकुशल हमसे पहले बीजिंग की निर्धारित होटल बिजनेस टानसुन में पहुंचा दिया। भगवान के घर देर जरूर है ,मगर अंधेर नहीं। बीजिंग एयरपोर्ट पर एक दुबली पतली स्मार्ट लड़की , जो हमारी गाइड थी, इंतजार कर रही थी। अपना परिचय देते हुए वह कहने लगी , " माई नेम इज नीना। वेलकम टू बीजिंग। आई एम योअर गाइड।" अपने हाथ में लाल रंग की तिकोनी छोटी-सी पताका वाली लोहे की छड़ी को ऊपर-नीचे करती हुई कहने लगी , " फोलों मी। इफ एनीवन ऑफ यू वांट टू टाक टू इंडिया ,प्लीज कम , आई हेव चाइना यूनिकोम सिम्स। इट कॉस्ट वन फिफ्टी यूआन। यू गिव मी आइदर डॉलर ऑर यूआन। इफ योअर करेंसी ,प्लीज कन्वर्ट थ्रू देट विंडो।" उसने एयरपोर्ट पर थोड़े से दूर करेंसी एक्सचेंज सेंटर की ओर ईशारा करते हुए कहा।

हमारे कुछ साथी अपने साथ डॉलर लाए थे , फिर भी वहाँ यूआन में बदलवा रहे थे। उस समय मेरे पास न तो डॉलर थे ,और नहीं यूआन। समय भी कहाँ मिला था दिल्ली में ? सोचा था रिक्की से चेंज कर लूँगा। मगर रिक्की तो अपने काम में लगा हुआ था। मुझे इंडिया बात करने के लिए सिम खरीदनी जरूरी थी। एक दो चेहरों को छोडकर सब लोग तो अनजान थे , कहता भी तो किससे ? डॉ॰ चौरसिया व झिमली मैडम अवश्य आत्मीय लग रहे थे , मगर उनसे भी कहने का मन नहीं हो रहा था।

काउंटर पर जाकर मैंने पूछा ," विल इंडियन करेंसी बी कनवर्टेड ?"

" यस" उसने खोजी निगाहों से मेरी तरफ देखते हुए कहा।

" हाऊ मच यूआन फॉर इलेवन थाउजेंड रूपीज़,प्लीज ?" मैंने दूसरा सवाल पूछा।

उसने अपने केलकुलेटर में सात सौ सत्तर लिखकर दिखाते हुए कहा ," सेवन हंड्रेड सेवन्टी।"

कुछ समय तक मैं निरुत्तर रहा। मुझे पता था , एक यूआन में दस रुपए की विनिमय दर के हिसाब से ग्यारह हजार के ग्यारह सौ यूआन आने चाहिए , मगर वह तो सिर्फ सात सौ सत्तर दे रहा है , बाकी ?

उसने अँग्रेजी में कहा , " इफ यू वांट टू चेंज ,देन इट इज ओके। ओनली सेवन हंड्रेड सेवन्टी।....फाइनल।'

समय की नजाकत को देखते हुए मैंने लगभग साढ़े तीन हजार के घाटे के सौदे को तुरंत स्वीकृति दे दी। और सबसे पहले नीना से डेढ़ सौ यूआन की सिम खरीदकर तालचेर ,ओड़िशा फोन लगाकर अपनी सकुशलता से बीजिंग पहुंचने का घर पर संदेश दे दिया।

उसके बाद गाइड नीना "फोलों मी" कहकर अपनी पताका हिलाते हुए हमें उस बस की ओर ले गई , जो हमें पहले खाना खाने के लिए इंडियन रेस्टोरेन्ट और फिर रहने के लिए तीनतारा होटल बिजनेस टानसुन ले जाने वाली थी।

बस में जाते समय चाइनीज गाइड का नामकरण नीना भले ही आत्मीय अवश्य लग रहा हो , मगर दिलोदिमाग में राजस्थान के मशहूर साहित्यकार व सुखाडिया यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ॰ विजयकुलश्रेष्ठ की बात याद आने लगी, जो उन्होंने अखिल भारतीय राजभाषा संस्थान,देहरादून द्वारा मदुरै ,तमिलनाडु में आयोजित एक संगोष्ठी में कहा था , " हिन्दी को प्रयोजनमूलक होना चाहिए। जब तक कोई भी भाषा किसी भी प्रकार के रोजगार से नहीं जुड़ेगी तब आम जनता उसे अपने सिर पर नहीं बैठाएगी। अब तमिलनाडु के माचिस व पटाखों की नगरी शिवकाशी का ही उदाहरण ले लीजिए , पहले यहाँ के लोग अपना सामान उत्तरभारतीयों को बेचने के लिए संकेतों का सहारा लेते थे , मगर अब 'बीस रुपए में' , 'दस रुपए में ' या ' आप कित्ता में लोगे ?" जैसे टूटी-फूटी हिन्दीभाषा का प्रयोग करने लगे है। कोई भी भाषा तभी जिंदा रह सकती है , जब तक उसमें किसी न किसी प्रयोजन का प्राण छिपा हो।"

'नीना' नाम का अर्थ यहाँ पर आपसे साहित्यिक संबंध बनाने के लिए नहीं है ,मगर इसमें उसका भारत के साथ व्यापार निहित स्वार्थ छिपा हुआ है। हो न हो , हिन्दी भाषी लोगों के साथ सफलतापूर्वक व्यापार करने के उद्देश्य से शायद यहाँ के भाषाविद या प्रबंधनगुरु टूरिस्ट गाइडों के लिए हिन्दी से मिलते-जुलते नामकरण रखने की सलाह देते होंगे। वास्तव में, चाइनीज भाषाविद कितने प्रज्ञावान है ! प्रोफेसर कुलश्रेष्ठ ने ठीक ही कहा था , चीन ,अमेरिका जैसे देश समय रहते हिन्दी के बाजार को समझने लगे हैं, अन्यथा अपने विश्वविद्यालयों में हिन्दी विषय के अध्ययन पर इतना महत्त्व नहीं देते और तो और ,चीन ने अपने देश में "चिंदुस्तान" जैसी जगह का विकास किया है ,जहां न केवल भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया जाता हैं , वरन भारतीय सभ्यता ,संस्कृति व रीति-रिवाजों पर भी अनुसंधान किया जा रहा हैं। अवश्य ही, चीन न केवल व्यापार की कलाओं में दक्ष हैं, बल्कि दूरदर्शिता की भी एक पराकाष्ठा हैं उनमें !

चीन में भारतीय व्यंजन व भोजन भी मिलता है। चीन आने से पहले किसी ने कहा था , वहाँ केवल मेंढक,साँप,केंकड़े यहाँ तक कि कीड़े-मकोड़े खाए जाते हैं। ऐसा तो मुझे नहीं लगा। हो सकता हैं , कुछ भारतीय लोग यहाँ आकर बस गए हो और उनकी अघुलनशील संस्कार और संस्कृति की अक्षुण्णता की वजह से ' द गंगा' जैसे भोजनालयों में अभी भी केवल शाकाहारी भोजन बनाया जाता हो। मनपसंद खाना खाकर मन तृप्त भले हो गया था , मगर यात्रा की थकान ,कानों में दूर से सुनाई पड़ने वाली साँय -साँय की आवाज और सिरदर्द की प्रबलता से ऐसा लग रहा था ,मानो कहीं प्राण न निकल जाएँ। जैसे-जैसे रात गहराती जा रही थी , मेरा कर्णशूल भी उतना ही बढ़ता जा रहा था। अगर तालचेर में होता तो किसी को भी आधी नींद से उठाकर नेहरू शताब्दी हॉस्पिटल ले जाता। मगर यह बीजिंग था। पूरी तरह से विदेश। अपने आपको नए वातावरण में संयमित रखते हुए बिना किसी को कुछ बोले नहा-धोकर सोने का प्रयास किया। पता नहीं कब, नींद की आगोश में समा गया था।

मगर सुबह जब उठा, तो सफ़ेद चद्दर और तकिए पर चारों तरफ खून के निशान थे। स्वपनावस्था या तंद्रावस्था में मैंने कान से कुछ द्रव निकलना अवश्य अनुभव किया था। मगर रक्त की बूंदें ? क्या कान का पर्दा फट गया ? मगर क्यों ? छ घंटे लगातार हवाईयात्रा करने के कारण प्रेशर डिफरेंस की वजह से कान के कमजोर पर्दे में खिंचाव आया होगा, इसी वजह से वह फट गया होगा। सुबह के आठ बज चुके थे , सूरज की किरणें काँच की खिड़कियों से चिपके रंगीन पर्दों के पीछे से फैल रही थी। मानो ऐसा लग रहा था ,जैसे कोई पर्दे के पीछे छुपकर टार्च जला रहा हो। डॉ॰ चौरसिया मेरे रुममेट थे , अभी भी वह सो रहे थे। मेरे चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई देने लगी थी। शायद ब्रेन हेमरेज का भय। खून क्यों निकला कान से ? क्या उच्च रक्तचाप ? ऐसी बीमारी तो कभी नहीं थी मुझे। रामपुर कोलियरी में मेरे पड़ोसी डाक्टर शरण को कान फटने की वजह से लकवा मार दिया था। मुझे भी पैरालायसिस हो जाएगा ? डॉ शरण का चेहरा याद आने लगा , जब वह संबलपुर के बुरला सरकारी अस्पताल में कोमा की अवस्था में एक बेड पर पड़े सैलाइन लगे सात साल पहले मैंने देखा था। अगर मुझे ऐसा हो गया तो इस कार्यक्रम में भयंकर व्यवधान पड जाएगा। इतनी उम्मीदों के साथ आए हुए साहित्यकारों के लिए मैं एक समस्या बन जाऊंगा। और ये लोग मुझे इंडिया कैसे ले जाएंगे ? तरह-तरह के नकारात्मक विचार मेरे मन मस्तिष्क में उथल-पुथल करने लगे। और कुछ ही समय में आयोजित होने जा रहा था , अंतर-राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का प्रथम सत्र -'उदघाटन-विमोचन-अलंकरण सत्र'।

 

दूसरा दिन (21.08.14):-

आज का दिन अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण था। सम्मानित होने वाले साहित्यकारों के लिए तो ऐतिहासिक समय था। कल की थकान भरी यात्रा की वजह से सभी लोग देर सुबह तक सोए हुए थे। ऐसे सोते-सोते एक या दो बज गया था , इसलिए सुबह आठ बजे तक तो किसी की भी नींद नहीं खुली थी। शायद मैं और डॉ॰ चौरसिया ही सबसे पहले तैयार होकर नीचे होटल के बरामदे में टहल रहे थे। कान की दिक्कत के कारण मन अवसादग्रस्त व बहुत भारी लग रहा था। जिस होटल में हम लोग रुके हुए थे , उसके नियमानुसार कंप्लीमेंटरी नाश्ता साढ़े सात बजे तक समाप्त हो चुका था। पत्रकारिता के क्षेत्र में "सृजनगाथा-सम्मान" से सम्मानित होने जा रहे "प्रवासी संसार" के संपादक राकेश पाण्डेय जी तमतमाए हुए होटल के बाहर इधर-उधर टहल रहे थे। हमें देखते ही कहने लगे , " यह किस तरह का प्रोग्राम है ? न कोई चाय की व्यवस्था है , न किसी अल्पाहार की। भई, हद हो गई। क्या मैं पहली बार चीन आया हूँ ? चाय तक नसीब नहीं.... ? "

शायद वह इंगित करना चाहते थे कि कहीं टूर मैनेजर रिक्की मल्होत्रा पैसे बचाने के खातिर तो ऐसा नहीं कर रहे है। मगर हम लोगों ने कोई उत्तर नहीं दिया , शायद उन्हें हमसे प्रत्युत्तर की आशा थी। उनकी नाराजगी की बात एक कान से दूसरे कान , दूसरे से तीसरे कान में पहुँचते-पहुँचते मानस जी के कानों में पड़ी। उन्होंने धैर्यपूर्वक मेरी तरफ देखते हुए कहा , " यह देश समय का पाबंद है। अगर आप समय पर नहीं उठोगे तो किसका कसूर है ? क्यों कोई आपका इंतजार करेगा ? सबको अपना-अपना काम है। राकेश जी का चिल्लाना व्यर्थ है। "

चाय-पानी पीना इतनी बड़ी बात नहीं थी , जितनी बड़ी बाद समय के पाबंदी की थी। समय की कीमत का पहली बार मूल्यांकन हुआ यहाँ। हमारी तरह शायद ये लोग अकर्मण्य व आलसी नहीं है , तभी तो उनके विकास का पहिया तेज रफ्तार से चल रहा है। बिना कुछ नाश्ता पानी किए धीरे-धीरे साहित्यकार लोग कान्फ्रेंस हाल में एकत्रित होने लगे। महिलाएं भारतीय परिधान में खूबसूरत लग रही थी। झिमली पटनायक ने जगन्नाथ संस्कृति को इस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की एक अमिट यादगार बनाने के लिए ओड़िशी या भरतनाट्यम नृत्य में पहने जाने वाली विश्वविख्यात संबलपुरी पाट वाली साडी पहनकर पुरी से अपने साथ लाई हुई जगन्नाथ,बलभद्र और सुभद्रा की लकड़ी से बनी छोटी मूर्तियों को टेबल पर सजाकर मन ही मन जयदेव के गीत-गोविंद के श्लोकों का उच्चारण करती हुई सभी प्रतिभागियों को जगन्नाथजी की सूखी प्रसाद बांटने लगी। कार्यक्रम कुछ ही क्षणों में प्रारम्भ होने जा रहा था। स्वयंसेवक अपने-अपने कामों में लगे हुए थे। सेवाशंकर और मुमताज़ बैनर लगा रहे थे , डॉ सुधीर शर्मा माइक टेस्टिंग का काम देख रहे थे। प्रोग्राम के संचालन का सारा दायित्व उनके कंधों पर था। सभी टेबलों पर मिनरल वाटर की बोतल, खाली कॉपी और पेन रखी हुई थी।

इस सभा के अध्यक्ष डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा कान्फ्रेंस हाल में पधार चुके थे। मानस सर ने बहुत पहले ही उनके बारे में विस्तृत जानकारी दे चुके थे। हिन्दी के बहुत बड़े विद्वान और 'साहित्य शिरोमणि सम्मान' और 'तुलसी सम्मान' से सम्मानित लेखक डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा ने लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में ड़ाक्टरेट की उपाधि के साथ-साथ नेट प्रवीणता प्राप्त एवं यूजीसी फैलोशिपधारक है। बीस से ज्यादा कृतियों के रचियता भी है वह। ईरान में हिन्दी शिक्षण के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया है। संप्रति वह भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के अधीन संचालित हिन्दी चेयर के अंतर्गत गुयांगडोंग अंतर्राष्ट्रीय भाषा विश्वविद्यालय,गुयाङ्ग्जाऊ, चीन में हिन्दी के प्रोफेसर है। उनके साथ में थी चीन की एक संभ्रांत महिला पियोंग किपलिंग। वह बीजिंग यूनिवर्सिटी में हिन्दी की एसोसिएट प्रोफेसर है।

बिना किसी खास औपचारिकता के भोपाल के युवाछात्र निमिष श्रीवास्तव की सांगीतिक प्रस्तुति के साथ यह उदघाटन सत्र प्रारम्भ हुआ। डॉ॰सुधीर शर्मा एक मंजे हुए मंच संचालक और मैं उनका सहायक। तालिका के अनुसार कार्यक्रम आगे बढ़ता जा रहा था। जैसे-जैसे नाम बुलाए जा रहे थे ,वैसे-वैसे साहित्यकार मंच की ओर आ रहे थे और वैसे-वैसे मैं सम्मान पत्र,शाल और श्रीफल उन्हें देते जा रहा था। कला, साहित्य, संस्कृति और भाषा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाली युवा विभूतियों को सम्मानित करने के तारतम्य में कथा लेखन के लिए भिलाई के ख्यात कथाकार लोकबाबू को लाईफ टाईम अचीवमेंट सम्मान, भोपाल के युवा कथाकार राजेश श्रीवास्तव, साहित्यिक पत्रकारिता के लिए 'प्रवासी संसार' के संपादक दिल्ली के राकेश पांडेय, शोधपरक आदिवासी साहित्य सृजन के लिए डिडौंरी, मध्यप्रदेश के डॉ. विजय चौरसिया, अनुवाद के लिए तालचेर, ओड़िशा के दिनेश कुमार माली अर्थात मुझे व भुवनेश्वर की कनक मंजरी साहू तथा कविता लेखन के लिए दुर्गापुर की डॉ बीना क्षत्रिय को 11-11 हजार रुपए की नकद धनराशि, प्रशस्ति पत्र, शाल व श्रीफल प्रदान कर संस्था के सर्वोच्च सम्मान ‘सृजनगाथा सम्मान-2014’ से सम्मानित किया जा रहा था। सभी अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे। मुझे मेरी कंपनी महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड का लोगो व कॉर्पोरेट गीत याद आ रहा था- " हम है कोल इंडिया , कोल इंडिया हम/ अंधेरे से खोज लाते हम ,उजाले खुशियों के "। 'सृजनगाथा सम्मान' पाकर मुझे लगने लगा जैसे मैं भी एक बड़ा आदमी बन गया हूँ किसी सेलिब्रिटी की तरह। और मुझे यह रिकोग्नीशन पाकर आत्म-संतोष होने लगा कि मेरा अनुवाद कार्य को हिन्दी साहित्यकारों ने स्वीकार किया है।

डॉ॰ जय प्रकाश मानस को अनवरत नौ अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के सफल आयोजन, नवोदित रचनाकारों को लेखन कर्म आगे लाने के प्रोत्साहनस्वरूप किए जा रहे स्वैच्छिक सार्थक प्रयासों एवं हिन्दी साहित्य में अतुलनीय योगदान के लिए सभी प्रतिभागियों की ओर से झिमली पटनायक और सेवा शंकर अग्रवाल ने शाल व श्रीफल प्रदान कर सम्मानित किया।

सम्मेलन के उद्घाटन एवं रचनाकारों के अंलकरण के पश्चात विमोचन समारोह में डॉ जसवीर चावला की लघुकथा संग्रह ‘शरीफ़ जसवीर’, डॉ विजय कुमार चौरसिया की शोधपरक पुस्तक ‘प्रकृतिपुत्र : बैगा’, उद्भ्रांत का आलोचना संग्रह ‘मुठभेड़’, डॉ. राजेश श्रीवास्तव का कहानी संग्रह ‘इच्छाधारी लड़की’, डॉ जे. आर. सोनी की पुस्तक ‘दीवारें बोलती हैं’, गिरीश पंकज का उपन्यास ‘गाय की आत्मकथा’, दुर्गापुर की बीना क्षत्रिय का कविता संग्रह ‘एहसास भरा गुलाल’, डॉ जय प्रकाश मानस का कविता संग्रह ‘विहंग’, दिनेश कुमार माली की अनूदित पुस्तक ‘ओड़िया भाषा की प्रतिनिधि कहानियाँ’मथुरा कलौनी की नाट्य कृति 'कब तक रहे कुँवारे', श्रीमती नीरजा द्विवेदी का बाल कथा संग्रह ‘आलसी गीदड़’ का विमोचन किया गया। इसके अतिरिक्त पत्रिकाओं में कृष्ण नागपाल द्वारा संपादित दैनिक ‘राष्ट्र (विशेषांक)’, डॉ सुधीर शर्मा द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका ‘छत्तीसगढ़ मित्र’, गिरीश पंकज की पत्रिका ‘सद्भावना दर्पण’,राजेश मिश्रा की पुस्तिका ‘चुनौती: क्राइम रिपोर्टिंग की’, धनराज माली द्वारा संपादित सामाजिक पत्रिका ‘माली दर्शन’ के विमोचन के साथ-साथ डॉ. राजेश श्रीवास्तव/डॉ.सुधीर शर्मा द्वारा संपादित सम्मेलन स्मारिका ‘चीन में हिन्दी’ का भी लोकार्पण हुआ।

अब बारी थी सभा के मुख्य आकर्षण ,डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा के सम्बोधन की। उन्होंने कहा, " मुझे चीन में आए हुए लगभग एक साल हो गया है। आप लोग जो साहित्य में निवेश कर रहे है,वह कभी व्यर्थ नहीं जाएगा। ऐसे लोग बिरले ही होते है,जो साहित्य में निवेश करते है। वरना लोग अपनी प्रॉपर्टी बनाते है,घर खरीदते हैं ,कार खरीदते हैं या किसी कंपनी में पूंजी निवेश करते हैं। आप लोगों की साहित्यिक अभिरुचि,ऊर्जा ,उमंग व प्रेम देखकर मुझे अत्यंत ही खुशी हुई है। आपका यह प्रयास दो देशों की संस्कृति व साहित्य के बीच सेतुबंध का कार्य करेगा। मैंने चीन से तीन चीजें सीखी है ,बस इतना ही अंतर है चीन और भारत में। पहला, भारत में स्त्रियों का सम्मान नहीं है, जबकि चीन में उनका सम्मान किया जाता है। आपने देखा कि गाइड से लेकर होटल में बैरे तक सारे कार्य स्त्रियाँ करती है और अपने को सुरक्षित अनुभव करती है,जबकि भारत में ऐसा नहीं है। दूसरा, भारत में जाति-प्रथा चरम पर है। प्रेम-विवाह के माध्यम से हम सामाजिक विकारों को दूर कर सकते है। तीसरा, समय की पाबंदी में चीन का पूरा-पूरा ध्यान रखता है।" उनका सम्बोधन जारी था।

समय के ध्यान की बात तो सुबह-सुबह नाश्ता नहीं मिलने के कारण पता चल चुकी थी,जबकि कुछ साहित्यकार मन ही मन भुनभुना रहें थे,कि चीन वालों को कम से कम हमारे आतिथ्य के बारे सोचना चाहिए था ,अगर हमें थोड़ा विलंब हो गया तो कौनसा पहाड़ टूट गया? अगर ये लोग भारत आते तो हम मेहमान नवाजी में पीछे नहीं हटते। किसी साहित्यकार की भावनाओं की बात थी। मगर विकास के पथ पर भावनाओं का स्थान कहाँ? अगर आपने गलती की हैं, तो आपको भुगतना पड़ेगा डॉ॰ शर्मा के अनुभव मुझे सटीक और सही लग रहें थे।

" भारतीय-संस्कृति की बड़ी-बड़ी बात कर लो , मगर यथार्थ यही है कि नारियाँ यहाँ असुरक्षित अनुभव करती है। भारत में जहाँ महिला आई॰ ए॰ एस अधिकारी अपने आपको सुरक्षित अनुभव नहीं कर सकती है तो वह पब्लिक में गाइड व होटल रिसेप्शनिस्ट के कार्य सुरक्षा की भावना के साथ कैसे कर सकती है? मीडिया के द्वारा इतना हाइलाइट करने के बाद भी क्या रेप में किसी तरह कि कमी आ सकी? शायद नहीं ? कारण क्या है? मानसिकता का अभाव है। और मानसिकता का सीधा संबंध संस्कृति से है अर्थात सांस्कृतिक सुधार ही मानसिकता में परिवर्तन ला सकते है। इसके अतिरिक्त, भारत में बहुत बड़ा महिला श्रम ऐसे ही व्यर्थ पड़ा रहता है। देश के विकास में वह हिस्सेदार नहीं बन पाता है। जी॰ डी॰ पी के उत्थान में महिला श्रमिकों का समुचित व सुरक्षित उपयोग जरूरी है। देश को विकसित करने का सीधा सरल फार्मूला तो यहीं है, एक देश,एक जाति,एक धर्म। जाति हो भारतीय,धर्म हो राष्ट्रधर्म।भारत के शास्त्र तो 'वसुधैव कुटुबकम' की बात करते है, फिर छोटे-छोटे खेमों,संप्रदायों,सीमाओं,प्रांतीयता तथा भाषावाद में बाँट कर क्या इस उक्ति को यथार्थ कर सकते है ? अगर हमें वैश्विक विकास चाहिए तो धर्म , जाति-पांति के बंधनों से ऊपर उठ कर सोचना होगा। सोते शेर के मुह में कभी शिकार आया है? " सभी ने डॉ॰ शर्मा के सम्बोधन का जोरदार तालियों से स्वागत किया।

मगर मंच पर बैठे गिरीश पंकज व उद्भ्रांत जी आपस में कुछ बात कर रहे थे। शायद उन्हें अध्यक्ष महोदय का भाषण पसंद नहीं आया। कुछ बात तो अवश्य थी ,जो उनके दिल को लगी। उद्भ्रांत जी अपने उद्बोधन में अपने आपको रोक नहीं सके और कहने लगे ,"मुझे अध्यक्ष महोदय के भाषण से बहुत दुख पहुंचा है। भले ही चीन ने आर्थिक विकास किया हो , मगर हम भी कुछ ज्यादा पीछे नहीं है। आज भी हमारी संस्कृति और आध्यात्मिक मूल्यों का लोहा सारी दुनिया मानती है। दुनिया में ऐसा कौनसा देश है ,जहां क्राइम नहीं होता ? मनुष्य तो क्राइम की कठपुतली है। क्या चीन में क्राइम नहीं होता ? क्या चीन में रेप नहीं होते ? रास्ते में गाइड नीना खुद बता रही थी कि आप अपने सामानों की हिफाजत खुद करेंगे। अपने पासपोर्ट व लगेज का अच्छी तरह ध्यान रखिएगा , नहीं तो , अवसर पाकर कोई उठाईगिरा उसे गायब कर सकता है ? 'बी अवेयर फ्रोम पिकपोकेटर्स', जीरो क्राइम वाली कोई कंट्री है इस वर्ल्ड में ? चीन में भी क्राइम है।" कहते-कहते शायद वह कुछ ज्यादा भावुक हो गए। भाषा तो सधे हुए आलोचक की थी। उनके मुंह से कुछ कटु भाषा निकल पड़ी , " देश आपको अपनी गलती के लिए कभी माफ नहीं करेगा। चीन की प्रतिनिधि पियोंग किपलिंग हमारे देश के बारे में क्या सोचेगी ?"

डॉ॰शर्मा, भले ही, मंच पर हल्की-हल्की तालियों के माध्यम से मानो उनकी बात का समर्थन कर रहे हो , मगर उनके दिल को बहुत कष्ट हुआ अपने अनुभव को सहज भाव से सबके समक्ष रखने के लिए। मैं जानता हूँ कि वह एकदम निर्दोष थे। मुझे तो उनमें ज्यादा देश-प्रेम नजर आया ,क्योंकि उनका लक्ष्य भी देश का उत्थान था। वह किसी के दिल को चोट पहुंचाना नहीं चाहते थे। उनके कहने का उद्देश्य केवल हमारे देश की ज्वलंत समस्याओं को उस मंच के माध्यम से उजागर कर एक आव्हान करना था उनके समाधान के लिए। मेरे विचारों से डॉ॰खगेन्द्र भी सहमत थे ,जब मैंने आयोजन समाप्त होने के बात उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही।

डॉ॰ सुधीर शर्मा ने मंच संचालन के दौरान इस बात को अच्छी तरह संभाल लिया था कि डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा हमारे आदरणीय अतिथि है। उन्हें अपने विचार रखने की स्वतन्त्रता है , भले ही, आप उससे सहमत हो या नहीं हो। अगर आप अपनी असहमति जताना चाहते भी है तो मीटिंग खत्म होने के बाद अपनी बात रख सकते है। ऐसा कहते हुए उन्होंने अगले वक्ता के रूप में आदरणीया डॉ॰ रंजना अरगड़े जी को आमंत्रित किया। गुजरात विश्वविद्यालय की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ॰ अरगड़े ने डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा की बातों से अपनी सहमति जताई।

" हमारे देश की महिलाएं आज भी असुरक्षित अनुभव करती है। जबकि कल ही रात को बीजिंग में मैंने होटल से खाना खाकर लौटते समय लगभग साढ़े ग्यारह के आस-पास अपने छोटे बच्चों के साथ यहाँ की महिलाओं को जाते देखा तो मुझे लगा कि यहाँ की महिलाओं को कोई खतरा नहीं है , और नहीं कोई डर। क्या हमारे हिंदुस्तान में ऐसा संभव है ?"

फिर से अपनी बातों को घुमाते हुए संभल कर उद्भ्रांत जी को ओर देखते हुए चीन की विदेश-नीति की ओर इंगित करते हुए कहने लगी , "मगर एक बात अवश्य है कि जितना समय हमें दिल्ली से बीजिंग आने में लगा , उससे भी कम समय ड्रेगन को अरुणाचल प्रदेश की सीमा तक पहुँचने में लगता है।" कहकर उन्होंने एक दीर्घश्वास ली।

और अगले वक्ता थे सुविख्यात वरिष्ठ आलोचक डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर। उन्होंने एक अत्यंत सुलझे हुए वक्ता की तरह किसी भी विवादास्पद कथनों को स्पर्श किए बगैर अपना भाषण "हिन्दी का बाजार : बाजार की हिन्दी" विषय तक ही सीमित रखा। उन्होंने हिन्दी पत्रिकाओं व पुस्तकों के प्रकाशन में आने वाली अड़चनों का ब्यौरा देते हुए कहा , " सही मायने में, हमारे यहाँ पाठकों का अभाव है। बहुत ही कम लोगों की अभिरुचि है पुस्तकें पढ़ने में। प्रकाशक हिन्दी लेखकों से पैसे लेकर पुस्तकें प्रकाशित करते हैं। हिन्दी साहित्य को जो बाजार मिलना चाहिए था ,वह अभी तक मिल नहीं सका। हिन्दी साहित्य को एक विपुल बाजार चाहिए ,मगर साहित्य की भाषा बाजारू नहीं होनी चाहिए।" कहते हुए अपने चश्मे की फ्रेम में से झाँककर श्रोताओं की ओर देखने लगे , " मुझे याद है रूस के ताशकंद दौरे की बात। वहाँ रूस के राष्ट्रपति गर्बाचोव के किसी प्रोग्राम में मुझे कम्यूनिस्ट पार्टी की ओर से जाने का मौका मिला था। मैंने वहाँ देखा कि एक दुकान पर बहुत लंबी भीड़ लगी हुई थी। पूछने पर पता चला कि उस भीड़ का कारण किसी लेखक की नई पुस्तक का रिलीज होना था। और फिर मालूम चला कि देखते-देखते एक ही दिन में दो चार लाख प्रतियाँ बिक चुकी थी। और हमारे देश में ऐसा संभव ? प्रकाशक कितनी प्रतियाँ निकालेगा , उसका भी पता नहीं चलता है लेखक को। प्रिंटिंग की कैसेट तो प्रकाशकों के पास रहती है। और आजकल तो ई-बुक का जमाना आ गया है। पुस्तकों का प्रकाशन कम होने लगा है। कुछ पुस्तकें निकलती भी है तो उनके दाम इतने ऊँचे , कि कोई पाठक इच्छा होने पर भी खरीदना नहीं चाहते।" डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर की सारी बातें यथार्थ धरातल का प्रतिपादन कर रही थी।

अंतिम वक्ता के रूप में पियोंग किपलिंग को आमंत्रित किया गया। उसने अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया।

" मुझे आप सभी से मिलकर अत्यंत हर्ष हुआ। मैंने हिन्दी सीखने के लिए भारत सरकार से संचालित केंद्रीय हिन्दी निदेशालय ,आगरा में एक साल का कोर्स किया। और फिलहाल बीजिंग विश्वविद्यालय में हिन्दी अध्यापन का कार्य कर रही हूँ। आप सभी लोगों को मैंने सुना ,मुझे बहुत अच्छा लगा। और ज्यादा अच्छा होता ,अगर आप लोग चीनी भाषा सीखते और हम चीनी लोग हिन्दी। तो वह दिन दूर नहीं जब दोनों देश अपने विपुल साहित्य संसार व संस्कृतियों के सूक्ष्म पहलुओं को आसानी से समझकर उन्हें विस्तार देने के साथ-साथ अक्षुण्ण रख पाते। मैं मेरे देश की दूसरी राष्ट्रभाषा हिन्दी समझती हूँ।......... मुझे सुनने के लिए आप सभी का धन्यवाद। "

बहुत ही शुद्ध हिन्दी बोल रही थी वह प्रोफेसर। हिन्दी को चीन की दूसरी भाषा सुनकर सारे साहित्यकारों के चेहरे पर रौनक आ गई थी। सभी ने उसके संभाषण का ज़ोरदार तालियों से स्वागत किया था। एक विदेशी महिला का एक साल में हिन्दी भाषा सीखकर धारा-प्रवाह बोलना किसी अचरज से कम नहीं था। काश , हम भी चीन के केंद्रीय निदेशालय में जाकर उनकी भाषा सीख पाते ! चीन की संस्कृति तो हमारे देश की संस्कृति है। गौतम बुद्ध को आज भी चीन उतना ही मानता है , जितना शायद कभी भारत ने माना होगा। हमारे देश के साथ चीन के आर्थिक ,राजनैतिक,सामाजिक,सांस्कृतिक संबंध तो पुरातन काल से है। इस प्रकार के आयोजनों से इन संबंधों को और ज्यादा पुष्ट किया जा सकता है। डॉ जे॰ आर॰ सोनी के धन्यवाद ज्ञापन के साथ यह प्रथम सत्र व दूसरा सत्र समाप्त हुआ। सभी कान्फ्रेंस हाल से जैसे बाहर निकले तो ऐसा लग रहा था मानो ऑक्सफोर्ड या हावार्ड जैसे विश्वविद्यालय में किसी महान प्रोफेसर का विश्वबंधुत्व पर लेक्चर सुनकर बाहर निकले हो। सभी के चेहरे पर एक अलग गाम्भीर्य और मानवता की मुस्कान स्पष्ट दिखाई दे रही थी। खाने का समय भी हो चुका था। सुबह से तो सभी भूखे थे। दोपहर का भोजन उसी 'गंगा' होटल में लेने के बाद शुरू होती है बीजिंग -दर्शन की कहानी। डॉ गंगा प्रसाद शर्मा हमारे साथ थे ,मगर कार्यवश पियोंग किपलिंग हमसे विदा ले चुकी थी।

पहला दर्शनीय स्थान था हमारे लिए टियन'अनमेन स्केवयर। चालीस हेक्टेयर में फैला हुआ दुनिया का सबसे बड़ा स्केवयर। चीन की हृदयस्थली। शुरु से पीपल्स रिपब्लिक का इतिहास देखा है इसने। चेयरमेन माओ का मार्बल से बना मेमोरियल हाल यही है। पश्चिम में पीपल्स ग्रेट हाल , पूर्व में चीनी इतिहास का संग्रहालय और उत्तर में चीन के राजाओं का महल " फॉरबिडन सिटी'। सन 1926 में चीन के महान लेखक लू-शून ने लिखा था इस टियन'अनमेन स्केवयर पर हुए नृशंस हत्याकांड के बारे में , खून का कर्ज जितना देरी से अदा होगा , उसका ब्याज उतना ही ज्यादा होगा। एक गाइड से जब हमने इसके इतिहास के बारे में जानना चाहा तो उसने हमें बताया , " .... वरसेली संधि की जापान को दी जाने वाली रियायतों जैसी खतरनाक शर्तों के खिलाफ जब दिनांक 4 मार्च 1919 को इस स्केवयर में तीन हजार विद्यार्थियों ने विरोध किया था।....... ब्रिटिश और फ्रेंच की सेनाओं में पाइप लाइन का काम करने के लिए भेजे गए हजारो -सैकड़ों चीनी मजदूरों ने विद्रोह कर दिया। सरकारी दफ्तरों में घुस गए सारे विद्रोही , जिन्हें सेना ने भून डाला। ....... 1976 में झाऊ एनियाल की मृत्यु पर रोने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी थी इस स्केवयर में।...... लोकतन्त्र की नई विचारधाराओं का जन्म हुआ, 'फॉरबिडन सिटी' के किनारे। और तो और , सन 1989 में चीनी सरकार में सुधार की धीमी प्रक्रिया , स्वतन्त्रता के अभाव और व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ लाखों लोगों ने आवाज उठाई तो सरकार ने मार्शल लॉं लागू कर दिया। टेंटों पर टेंक चले,मशीनगने चली। हजारों लोग मौत के घाट उतार दिए गए। सही संख्या तो शायद ही किसी को पता हो। स्केवयर के उत्तर में हर सुबह मिलटरी के नियमानुसार झण्डा फहराया जाता है और शाम होते ही उतार लिया जाता है। "

 

इतना कहने के बाद शायद गाइड भावुक होकर रूआँसा हो गया। कितना खूनी इतिहास था इस स्केवयर का !

मुझे ओड़िशा की रक्तरंजित दयानदी याद आने लगी कलिंग युद्ध के समय की। याद आने लगा पश्चाताप में डूबा सम्राट अशोक और धौलगिरि में लाशों के ढेर। कितनी समानता थी भारत और चीन के राजतंत्र में ! शायद बीजिंग के राजा को कोई शोक नहीं हुआ ,तभी तो , वहाँ के एक विद्यार्थी ने 1989 की घटना के बारे में लिखा था , " चीन के इतिहास में एक नया पन्ना खुलने वाला है। टियन'अनमेन स्केवयर हमारा है। और हम कसाइयों का यहाँ रहने नहीं देंगे।"

गाइड नीना पूरे ग्रुप को अपने साथ ले जा रही थी। पूर्व पुलिस महानिदेशक महेश द्विवेदी अपनी धर्मपत्नी के साथ फोटो खिंचवा रहे थे। बीच-बीच में डॉ चौरसिया और मैं फोटो खिंचवाने के लिए टपक पड़ते थे , कभी चीनी लोगों के साथ तो कभी हमारे ग्रुपवालों के साथ। धोती-कुर्ते में डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर तिरछी टोपी पहिने व्हील चेयर पर बैठे किसी मारवाडी सेठ या किसी दिग्गज भारतीय नेता से कम नहीं लग रहे थे। कभी सरदार जसवीर चावला जी, तो कभी राकेश पांडे जी, तो कहीं डॉ सुधीर शर्मा, तो कहीं कनक मंजरी साहू चीन के लोगों के साथ फोटो खिंचवाने में लगे हुए थे, मानो चीन और हिन्द एक की परिवार की दो शाखाएँ हो। हमने भी फोटो खींचवाने में कोई कमी नहीं रखी। वहाँ डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा साहब से भी बात करने का मौका मिल गया। कुछ इधर -उधर तो ,कुछ व्यक्तिगत बातें। बहुत ही सुलझे विचारों के थे वह। उनके मन में देश के विकास की एक तड़प थी। चीन से दो साल पहले आजाद होने वाला हमारा देश उससे बीस साल पीछे क्यों ? मुझे तो बीस साल से ज्यादा पचास-साठ आगे लगा चीन। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है , जब आप विदेश में होते हो तो आपको अपना देश बहुत याद आने लगता है। जब मैंने पूछा , " यहाँ तो आपका बहुत ज्यादा वर्कलोड होगा ?"

उन्होंने मुस्कराते हुए कहा , " कोई खास वर्कलोड नहीं। केवल हफ्ते में दो तीन क्लासेज लेनी पडती है।"

" और आपकी सेलेरी ?" मैंने बात आगे बढ़ाई।

वह कहने लगे , " पर्याप्त वेतन मिलता है। सरकार से कोई शिकायत नहीं। उलटा सोचना पड़ता है , पैसे कैसे खर्च किए जाए ? कहाँ खर्च किए जाए ?"

मैंने बहुत ही कम ऐसे आत्म-संतोषी आदमियों को अपने जीवन में देखा। बात-बात में वह कहने लगे , " मुझे इस बात का दुख है कि आज उद्भ्रांत ने मुझे गलत समझा। मैंने ऐसी क्या देश-विरोधी बात कह दी कि देश मुझे माफ नहीं करेगा। अब तुम्हीं बताओ , क्या प्रेम-विवाह हमारी सामाजिक कुरीतियों को खत्म नहीं कर सकता ? अगर यह बात मैं किसी पुराने जमाने के आदमी से कहूँगा तो लाठी लेकर मुझे मारने आ जाएंगे।"

यह बात पूर्णतया सत्य थी , कि जब कोई व्यक्ति दो विभिन्न संस्कृतियों में रहता है तो उसकी मेधा अवश्य उन दोनों संस्कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन करती है। और जो गुणदोष एक दूसरे में दिखने लगता है , वह प्रकट करने लगता है। मैं डॉ॰ शर्मा की बातों से पूरी तरह सहमत था। यह तो सीधा-सा अंकगणित है , अगर घर में दो कमानेवाले है तो घर की विकास दर तुलनात्मक ज्यादा होगी।

" आपने कोई ऐसी देश-विरोधी बात नहीं की। उद्भ्रांत जी दिल के अच्छे इंसान है , मगर कभी-कभी आलोचना के चक्कर में जहां आलोचना नहीं करनी होती है ,वहाँ पर भी कर बैठते है। एक सशक्त आलोचक जो है। यह सत्य है कि प्रेम-विवाह थोड़े ज्यादा अस्थाई होते जरूर है , मगर समाज के विलयीकरण का काम करते है। होमोजीनियस सोसाइटी का निर्माण होता है प्रेम-विवाह से।" मैंने अपना पक्ष रखा।

इसी सवाल को दूसरे रूप में बदलकर क्राइम रिपोर्टर राजेश मिश्रा की वह राय लेना चाहते थे , " राजेश जी , अगर आपको किसी रेप की सत्य-घटना का आँखों देखा हाल प्रस्तुत करना हो तो आप कैसे रिपोर्टिंग करोगे ? क्या आपकी संस्कृति रेप की घटना के लिए आवरण का काम करेगी ? या फिर आप तथ्यों को ट्विस्ट कर रिपोर्ट पेश करोगे ?"

इस तरह के सवाल ने कुछ समय के लिए राजेश को पेशोपेश में डाल दिया। फिर काफी सलीके से उसने उत्तर दिया मानो वह कोई आंखो देखी रेप की घटना का जिक्र करने जा रहा हो , " मैं तो ठहरा क्राइम रिपोर्टर। कोई लच्छेदार भाषा नहीं , कोई साहित्यिक भाषा नहीं। सीधे-साधे शब्दों में तथ्यों को सामने रखते हुए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करूंगा। उसमें कोई संस्कृति काम नहीं आएगी। "

अभी भी हम सभी टियन'अनमेन स्केवयर के इर्द-गिर्द घूम रहे थे। डॉ ॰ शर्मा का चेहरा देखने से अभी भी लग रहा था कि उनका मन अशांत है। डॉ॰चौरसिया की तरफ देखते हुए कहने लगे , " चौरसिया साहब , एक बात बताइए , क्या छोटे कपड़े पहनने से रेप बढ़ते है ?"

डॉ चौरसिया निस्तब्ध। क्या उत्तर देते ? कुछ समय के लिए ऐसा लगा मानो कोई साँप सूंघ गया हो। फिर प्राकृत अवस्था में आकर कहने लगे , "मेरे ख्याल से रेप का संबंध छोटे कपड़ों से नहीं है। सवाल मानसिकता का है। अगर हमारे घर की बेटी ऐसे कपड़े पहनती है तो कुछ नहीं , मगर दूसरे घर की लड़की या कोई महिला अगर ऐसे कपड़े पहनती है या कुछ फैशन कर लेती है तो हमारी दृष्टि तिर्यक होने लगती है। यह संकीर्णता नहीं तो और क्या है ?"

धीरे-धीरे दार्शनिक बातें गंभीर सामाजिक मुद्दों में बदलती जा रही थी और वे भी हमारे देश की ज्वलंत समस्याओं के बारे में। साथ चलने वाले सभी चुपचाप। किसी के पास कोई उत्तर नहीं। हमारे पास तो क्या ,भारत की सवा खरब जनसंख्या के पास में भी नहीं। जितनी रेप की घटनाओं का प्रचार होता गया ,उतनी ही वे घटनाएँ बढ़ती गई। उससे भी बढ़कर, रेप के बाद लड़की को मारकर पेड़ से लटकाने की घटनाएँ भी सामने आने लगी। जितनी ज्यादा धर्म-भीरुता , उतनी ज्यादा अश्लील घटनाएँ। निर्भया हत्याकांड के बाद तो पता नहीं , अब तक कितने रेप हो चुके होंगे ? क्या रेप की बढ़ती घटनाओं पर काबू पाया जा सकता है ? डॉ॰ शर्मा की बहस ने हजारों सवाल मन में पैदा कर दिए। बातों का सिलसिला धीरे-धीरे थमता जा रहा था।

सामने की सड़क पार कर जाने पर दिखाई दे रहा था राजमहल ,गुगोंग , जिसे प्रचलित भाषा में ' फॉरबिडन सिटी' के नाम से पुकारा जाता है। बहुत ही महत्त्वपूर्ण जगह है चीन की। यहाँ से मींग और किंग साम्राज्य के चौबीस शासकों ने लगभग पाँच सौ साल तक चीन पर शासन किया। डॉ॰ चौरसिया यह जानने को उत्सुक थे कि इस राजमहल को 'फॉरबिडन सिटी' क्यों कहा जाता है ? सवाल एकदम सही था। जवाब नीना को छोडकर और किसके पास था ? उसके अनुसार , इस राजमहल की दीवारों को वहाँ की सामान्य जनता स्पर्श तक नहीं कर सकती थी , इसलिए इन महलों की नगरी को 'फॉरबिडन सिटी' कहा जाता है यह प्राचीन राजाओं के महलों और सभा-भवनों का समूह है। यह आयताकार दीवारों से घिरा है। इसमें 9995 कमरे हैं और यह विश्व का सबसे बड़ा शाही महल है। इस महल की खूबसूरती देखते ही बनती है। इस महल में मिंग और क्वींग राजतंत्रों के 24 सम्राटों ने 500 वर्षो तक निवास किया। महल के उत्तरी तियनानमेन गेट से कुछ दूरी पर वूमेन गेट स्थित है, जो फारबिडेन सिटी का मुख्य द्वार है। बीजिंग में ही चीन वास्तुशिल्प के अद्भुत नमूने के रूप में टेम्पल ऑफ हैवेन स्थित है, जो 500 वर्ष पुराना है। शासक 'स्वर्ग-पुत्र' माने जाते थे , जिन्हें असंख्य अधिकार प्राप्त थे। शासकीय सत्ता के प्रतीक ड्रेगन और फोनिक्स का अर्थ राजा और रानी से था। सारस और कछुआ साम्राज्य की दीर्घायु के सिंबल थे।

 

हमारी घड़ी में चार बज रहा था। इस प्रदर्शनी के टिकट बंद हो चुके थे। इस राजमहल को हम देख न सके , इस बात का मन में मलाल गहराता रहा। मैंने डॉ॰ शर्मा से पूछा , " उस जमाने के राजा-महाराजाओं की जीवन शैली कैसी रही होगी ?"

वह कहने लगे , " मेरी जानकारी के अनुसार 'किंग' साम्राज्य का राजा के एक वक्त के खाने में हजारों व्यंजन और रानी डौयागर कीकसी एक बार में 108 प्रकार की सब्जियाँ बनाने का आदेश देती थी। सेक्स के बारे में सुनकर तो आप चौंक जाओगे। मींग के काल में दस हजार से ज्यादा वैश्याएँ थी। राजा रात में सिल्वर ट्रे में रखे ढेर में से एक टेबलेट चुनता था अपने हरेम में रखी वैश्याओं के नाम में से। जिसका नाम आता था ,उसे नंगे बदन पर पीला कपड़ा लपेटकर राजा के शयनकक्ष में भेज दिया जाता था। उसे नौकर की पीठ पर बांधकर लाया जाता था ,क्योंकि उनके पाँव बंधे हुए होते थे। केवल हिंजड़ों को छोडकर कोई राजमहल में नहीं रह सकता था।भारत की तरह यहाँ भी औरतों पर घोर-अत्याचार व शोषण होता था। सारे एशियाई देश ऐसे ही थे। जब चीन ने औरतों के प्रति सम्मान की दृष्टि अपनाई तो देश विकास के पथ पर अग्रगामी होने लगा। अब आप ही सोचो , कहाँ चीन हमारी तरह विकासशील देश था और कहाँ वह विश्व की एक आर्थिक शक्ति बनने जा रहा है। मूलभूत तो यहीं परिवर्तन है दोनों सभ्यताओं में। "

नीना बता रही थी- 'फॉरबिडन सिटी' में कई प्रदर्शनियाँ भी लगी होती है ,जिनमें मुख्य पॉटरी , पोरसेलीन,पेंटिंग ,ज्वेलरी और दीवार व हाथ घड़ियों की हैं।

वहाँ से हटने के बाद नीना हमें ले जाती है एक शानदार एक्रोबेटिक शो में।इतना बढ़िया शो तो मैंने जीवन में पहली बार देखा। बैकग्राउंड में फिल्म और साउंड इफेक्ट में एक्रोबेटिक कलाकारों द्वारा किया जाने वाला प्रदर्शन , उनकी एकाग्रता और दक्ष अभ्यास बरबस हमें मंत्र-मुग्ध किए जा रहा था। शो जैसे ही खत्म हुआ ,हम लौट आए गंगा होटल में। पेटभर खाना खाने के बाद भी मेरा मन भूखा था , अतृप्त था। मन ही मन वैचारिक उथल-पुथल चल रही थी चीन के विकास के रहस्यों की खोज में। अवसर पाकर डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर के साथ गप्पें मारने लगा। वह मेरे प्रिय लेखक भी थे। जिज्ञासावश मेरे मन से निकल पड़ा , " सर , आप तो कामरेड रह चुके हैं। कम्युनिस्ट विचारधारा से ओत-प्रोत। आपके हिसाब से चीन के विकास के क्या कारण हो सकते हैं ?"

डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर मेरी तरफ देखकर मुस्कराए। उन्हें बोलने मेँ शायद कुछ परेशानी हो रही थी। गला खंखारते हुए कहने लगे,"देखो,चीन में एक ही सरकार है। यहाँ वोटिंग नहीं होती है। कुछ ही लोग जो महासचिव के पद पर होते है,वे ही अपना वोट डाल कर प्रेसिडेंट का चयन करते है। यह भी विकास का एक मॉडल है। माओत्से तुंग कभी पढा है आपने? शायद नहीं। सारी संपति सरकार की है। यहाँ जनता का कुछ नहीं है। जनता केवल श्रम करती है,पैसा कमाती है मजदूर की तरह, जीवन गुजारती है। बीजिंग या शंघाई में भारतीय मुद्रा में 5-6 करोड़ में एक फ्लेट मिलेगा वह भी केवल 70 साल के लिए। यहाँ की कंपनियाँ भी पट्टे पर चलती है चालीस साल के। और, बाहर की कंपनियों को ये लोग घुसने नहीं देते और देते भी है तो दस पंद्रह साल के लिए। तब सोचिए, देश में विपक्ष नहीं ,नागरिकों को अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं तब विकास होगा ही होगा,जाएगा कहाँ ?"

डॉ खगेन्द्र जी की कई बातें सिर के ऊपर से गुज़र रही थी,फिर भी मैं हाँ में हाँ मिलाए जा रहा था। न तो मैंने माओत्से तुंग की लाल किताब पढ़ी थी और ना ही माओवाद की विचार धारा के बारे में ज़्यादा कुछ जानता था। इतना जरूर जानता था कि माओवादी ह्त्या करते है ,तोड़-फोड़ करते हैं, रेलवे ट्रेक हटा देते हैं और पत्ता नहीं क्या-क्या करते हैं। उनका मानना है कि क्रांति बंदूक की गोली से जन्म लेती है। शायद इसलिए माओत्से की किताब को लाल किताब कहा जाता होगा। बंदूक की नोक पर सत्ता-परिवर्तन। मगर हमारे देश में तो माओवादी को भी नकसलवाद की तरह आतंकवादी करार दिया जाता है। विचारों में कितनी ताकत होती है,वे किताबों से निकलकर बंदूकों तक पहुँच कर रक्त-रंजित कारनामों को जन्म देते है। मेरा मन फिर भी अशांत था। चीन वाले जब भारत आते है तो भारत को गरीबों का देश कहते है। अंग्रेज़ लोग तो इससे भी ज़्यादा,भारत को कभी सपेरों और हाथियों का देश कहते थे। क्या हमारे पूर्वज कभी तरक्की पसंद लोग नहीं थे? चीन की जनरेशन और भारत की जनरेशन मेँ इतना अंतर क्यों? ऐसा ही एक सवाल, मैंने बस में होटल की ओर जाते समय मानस सर से पूछा था। उन्होंने क्या कहा , जानते हो ," दिनेश भाई,विकास के अपने अपने मॉडल है। हमारे यहाँ से जितने लोग कम्युनिस्ट विचारधारा को सीखने के लिए विदेश गए थे,एकाध को छोड़ कर सारे के सारे या तो अपना घर भरने लगे या फिर अपना सामान्य जीवन जीने लगे। किसी के भी ख़ून में वह जज़्बा नहीं था कि सत्ता पलट कर क्रांति का बिगुल फूँक सके। जब मजदूर थे तो मार्क्सवाद सूझता था। मगर जब जेब में पैसे आ गए तो मार्क्सवाद की सिट्टी-पिट्टी गुम। मैं भी एक अच्छा संगठनकर्ता था , मुझे भी किसी जमाने में कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव बनाया जा रहा था लेकिन ....." मुमताज़ की ओर इशारा करते हुए कहने लगे",मुमताज़ से पूछ लो,वह तो बहुत पहले से हमारे साथ है।"

धीरे-धीरे बहुत कुछ समझ में आने लगा था। नए-नए विचारों की उलझनों से बाहर निकलने का प्रयास कर रहा था। तभी डॉ चौरसिया ने आवाज़ लगाई,"अरे भाई! बहुत समय हो गया है। कब तक बात करते रहोगे?"

 

तीसरा दिन (22.08.14) :-

आज का हमारा प्रोग्राम था चीन की दीवार देखना और लौटते वक्त 'बर्ड नेस्ट' यानि ओलंपिक नेशनल स्टेडियम देखना था और शाम को काव्य-रचना पाठ टानसुन बिजनेस होटल के सभागार में। रात को लेट सोने की वजह से सुबह हमारी नींद नहीं खुली। जब नींद खुली तब तक तो हमारा दल टूरिस्ट बस में बैठ कर चीन की दीवार देखने जा चुका था। यहाँ भी वहीं सबक ,समय का ध्यान रखना चाहिए था। गलती हमारी थी,इतने थक चुके थे कि दो तीन बार अलार्म बजने के बाद भी सही समय पर उठ न सके।

डॉ चौरसिया ने कहा,"छोड़ देते है,चीन की दीवार नही देखते है। " मैने कहा,"जब घर से इतना दूर आए है तो चीन की दीवार नहीं देखने का अर्थ है हमारा यहाँ आना व्यर्थ है। " मैने होटल के रिसेप्स्निस्ट से वहाँ जाने के बारे में अँग्रेजी में पूछा ,"वी वांट टू गो फॉर चाइना वॉल। "

उसे कुछ भी समझ में नहीं आया। उसने मेरे सामने अपना मोबाइल रखकर कहा ,"राइट हियर। "

मैने अपनी बात लिख दी। उसने उसे चाइनीज भाषा में बदल कर पढ़ा और फिर अपना रिप्लाई लिखकर उसे अँग्रेजी में बदल कर मेरे सामने कर दिया -- "गो आउट साइड ,यू विल गेट ए टैक्सी फॉर चाइना वॉल। इट विल कॉस्ट अराउंड 600 टू 800 युआन। जर्नी ऑफ वन एंड हाफ अवर। "

लगभग आइडिया हो गया। 6000 ए 8000 रु, डेढ़ घंटे की यात्रा। डेढ़ सौ से दो सौ किमी की यात्रा? बहुत महंगा हैं बीजिंग ! आम आदमी तो सरवाइव नहीं कर पाएगा यहाँ। मगर हमें तो जाना ही था, अपने दल से मिलने। बाहर सड़क पर कितने भी इशारे करने के बाद भी कोई भी टैक्सी रोक नहीं रहा था और रोक भी रहा था तो वही संवादहीनता की स्थिति। समझ नहीं पा रहा था हमारी बात। खैर, इस बार जब टैक्सी रुकी तो डॉ चौरसिया ने अँग्रेजी जानने वाली हमारी गाइड नीता को फोन लगा कर ड्राइवर को पकड़ा दिया और उसने अपनी भाषा में बात कर समझा दिया कि हमें चीन की दीवार देखने जाना है। वहाँ पर वह हमारा इंतजार करेगी। डेढ़ घंटे के भीतर टैक्सी वाले ने हमें अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचा दिया। पहाड़ों पर दो हजार साल से ज्यादा पुरानी चीन की दीवार अपने भीतर कितने-कितने इतिहास छुपाकर रखी होगी ! चार्ल्स डार्विन के सिद्धान्त की तरह किस-किस मनुष्य जाति के विकास को देखा होगा। कितने बर्बर रहे होंगे मंगोल , जो चीन पर आक्रमण करते होंगे और कितने मेहनती रहे होंगे चीन के लोग जो अपनी रक्षा के लिए, अपने देश की रक्षा के लिए दुनिया के सात अचरजों में गिनी जाने वाली विराट चीन की दीवार का निर्माण करते होंगे ! कुछ जगह तो सीढ़ियाँ एकदम स्टीप बनी हुई थी। कुछ लोग ऊपर चढ़ तो जरूर जाते थे , मगर उतरते समय बहुत परेशानी का अनुभव करते थे। सृजनगाथा डॉट कॉम की टीम कहीं पहाड़ों, तो कहीं दीवारों तो, कहीं पास से गुजर रही सर्पिल सड़कों को अपनी पृष्ठभूमि बनाकर फोटो खींचवा रहे थे। नीना ने हमें बताया कि हम एक ग्रुप फोटो वाला लोकेशन मिस कर गए है। समय पर नहीं उठना ही इसकी मुख्य वजह थी। मगर यह याद कैसे छोड़ देते ? हमने भी अकेले ही सही चीन की दीवार पर बनी एक बुकलेट में उन यादों को प्रोफेशनल फोटोग्राफर से कैद करवा दिया। मगर सबसे बड़ी क्षति अपने इस परिवार से बिछुडकर अलग-थलग फोटो खींचवाना। रिचर्ड॰एम॰ निक्सन ने कहीं लिखा था , " यह एक महान दीवार है। केवल महान लोग अपने बीते महान गौरव की याद में ही यह महान दीवार बना सकते है। ऐसी महान दीवार वाले महान लोग का भविष्य निश्चित महान होगा। " निक्सन की भविष्यवाणी आज सत्य में बदलती नजर आ रही है। चीन एक विश्व शक्ति के रूप में उभर रहा है ,एक महान भविष्य के साथ।

"पीले समुद्र के शन्हैगुयन से गोबी के रेगिस्तान के जियायुगुयन दर्रे तक फैली हुई है चीन की दीवार। जानते हो कितने साल लगे होंगे इसे बनाने में। ईस्वी पूर्व पाँचवी सदी से काम प्रारम्भ हुआ और चला सोलहवीं सदी के अंत तक। " मैंने चीन की दीवार पर बनी बुकलेट को पढ़ते हुए कहा और पढ्ना जारी रखा,

"दस हजार ली की लंबी दीवार है यह। और एक ली का अर्थ लगभग 500 मीटर। मतलब यह हुआ 5000 किलोमीटर। आप कह सकते हो अहमदाबाद से हावड़ा और फिर हावड़ा से अहमदाबाद तक की दूरी। रियली ग्रेट। पहाड़ों पर इतनी लंबी दीवार सात मीटर चौड़ी और सात मीटर ऊंची।पचीस हजार छावनियाँ भी बनी हुई है सैनिकों के रुकने के लिए। "

एक डेढ़ घंटे चीन की दीवार की महानता को अनुभव करने के बाद सदियों पुराने आयुध ,तलवार ,ढाल , विभिन्न राजसी वेशभूषाओं में अलग-अलग योद्धाओं के पोज में डॉ॰ सुधीर शर्मा , डॉ जे॰ आर॰ सोनी ,डॉ मीनाक्षी जोशी , झिमली मैडम फोटो खींचवा रहे थे और हम बीच-बीच में उन भारतीय योद्धाओं में चीन के उन महान सैनिकों की आत्माओं को खोज रहे थे , जो कभी मींग साम्राज्य में मंगोलों के खिलाफ लड़ी होगी।

चीन की यात्रा के दौरान, जो यात्री इस महान दीवार पर नहीं चढ़ा, उसकी यात्रा अधूरी मानी जाती है। चीन की यह लंबी दीवार जितनी बड़ी है, उतनी ही पुरानी इसकी कहानी भी है। इस दीवार का मूल नाम है‘वान ली छांग छंग‘ जिसका शाब्दिक अर्थहै-चीन की महान दीवार। विश्व प्रसिद्ध इस चीनी दीवार का इतिहास ईसा से तकरीबन 300 वर्ष पूर्व शुरू होता है। उन दिनों उत्तरी क्षेत्र के खानाबदोश हूण कबीले चीन पर लगातार आक्रमण करते रहते थे। तत्कालीन सम्राट चीन शिहाड़ती ने उनसे देश की रक्षा के लिए उत्तरी भू-भाग पर विशाल दीवार बनाने का आदेश दिया। छह हजार किलोमीटर लंबी दीवार का निर्माण अनवरत डेढ़ हजार वर्षो तक चलता रहा। दीवार में कई जगह पर बुर्ज बनाए गए हैं। इस दीवार की चौड़ाई इतनी है कि इस पर पांच घोड़े एक साथ दौड़ सकते हैं। दीवार पर अनेक स्थानों पर संस्कृत भाषा में मंत्र खुदे हैं। पीकिंग से 80 किमी दूर चु-चुंग क्वान नामक स्थान पर दीवार के प्रवेश द्वार पर लोकपालों की जो चार मूर्तियां बनाई गई हैं उनमें भारतीय मूर्तिकला की झलक मिलती है। समझा जाता है कि इस दीवार के निर्माण में कुछ भारतीय मूर्तिकारों को भी शामिल किया गया था। इस दीवार का निर्माण विदेशी हमले से बचाव के लिए किया गया था लेकिन इसका इस्तेमाल सदियों तक परिवहन, माल व लंबी यात्राओं में होता रहा। हालांकि यह दीवार पूरी तरह सुरक्षित और अजेय नहीं रही। अनेक आक्रमणकारियों ने इसको ध्वस्त किया। सन् 1211 ने चंगेज खां ने इस दीवार को तोड़कर चीन पर हमला किया। हाल ही में मंगोलिया ने इस दीवार को लगभग तीस किलोमीटर तक क्षतिग्रस्त किया। वैसे 1984 से एक गैर सरकारी फाउंडेशन इस दीवार के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग अर्जित कर रही है।
मन नहीं हो रहा था कि चीन की दीवार को छोडकर जाएँ। मगर गाइड जाने का इशारा करने लगी।

लौटते समय रास्ते में लांजी जेड शॉप पड़ी , जेड पत्थर पर की गई पेंटिंग और सूक्ष्म नक्काशी अपने आप में अद्भुत थी। देखने में मन कम था , कारण पेट में चूहे भी कूदने लगे थे। दूकानों के शानदार काम्प्लेक्स को पार करते हुए सामने आया एक बहुत बड़ा रेस्टोरेन्ट। जहां खाने में मिलती थी केवल उबली सब्जियाँ ,सलाद और थोड़े-से फ्राइड राइस। राउंड टेबल पर चकरीनुमा प्लेट पर सब खाना एक साथ सजा दिया जाता था ,जिसे घुमा-घुमाकर अपनी इच्छानुसार खाने के लिए आप अपने बर्तनों में खाना ले सकते थे। भोजन बहुत ही स्वादिष्ट व लुभावना था।

लंच ले लेने के बाद बस में बाहर की तरफ से ओलंपिक नेशनल स्टेडियम दिखाया गया , जिसे आजकल कामर्शियल साइट में बदल दिया गया है। उसकी स्थापत्य कला व डिजाइन तो इतनी मनमोहक थी कि दूर से एक गूँथे हुए घोंसलें की तरह नजर आ रहा था वह स्टेडियम। इसलिए तो उसे "बर्ड नेस्ट" के नाम से जाना जाता है। कुछ लोग बस से उतरकर स्टेडियम के अंदर चले गए , तो कुछ लोग बस के भीतर बैठे रहे । उद्भ्रांतजी,डॉ खगेन्द्र ठाकुर,डॉ जयप्रकाश मानस , असंगघोष और मैं बस के अंदर साहित्यिक गपशप करने लगे। बात शुरू हुई थी , "अभी तक हिन्दी का 'की-बोर्ड' क्यों नहीं है ?" असंगघोष के सवाल से।

" अभी भी हमें अँग्रेजी 'की-बोर्ड' का सहारा लेना पड़ता है कंप्यूटर पर टाइप करने में।" अपने सवाल को दूसरे ढंग से प्रस्तुत किया असंगघोष ने इस बार।

किसी ने कुछ उत्तर नहीं दिया। शायद हमारी सरकारी नीतियाँ ही कुछ ऐसी है। मेरा भ्रम भी टूट गया था चीन को देखकर , किसी भी देश का विकास का आधार अँग्रेजी नहीं हो सकती। जबकि हमारे यहाँ सारे मेडिकल कोर्स, इंजीनीयरिंग कोर्स या दूसरे सारे प्रोफेशनल कोर्स ,चाहे लॉं क्यों न हो , का आधार अँग्रेजी भाषा है। क्या चीन ने अपनी मेंडरिन भाषा के बलबूते पर दुनिया की कौनसी तकनीकी नहीं सीखी ? देश तो दौड़ रहा है विश्व के नक्शे पर। कहीं तो कोई भाषा की वैशाखी नहीं है। मगर विपर्यय है हमारा देश भाषा के मामले में। कभी मुझे मेरी कंपनी महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड में राजभाषा विभाग का भी अतिरिक्त दायित्व मिला था , इसलिए मुझे राजभाषा अधिनियम 1963 की कुछ धाराओं की जानकारी थी। जिसके मुताबिक किसी भी पब्लिक सेक्टर , सरकारी विभाग या कंपनी में त्रिभाषा फॉर्मूला के अनुरूप सबसे पहले स्थानीय भाषा ,फिर राजभाषा (हिन्दी) और उसके बाद अँग्रेजी लिखने का प्रावधान है।

चीन में तो मैंने देखा सबसे पहले मेंडरिन भाषा और उसके नीचे अगर जरूरत पड़ी ,तो अँग्रेजी या अन्य भाषाओं का प्रयोग होता है। मगर मैंने दिल्ली में जहां अधिनियम जन्म लेते हैं , उसी के इन्दिरा गांधी अंतर-राष्ट्रीय हवाई अड्डे के भीतर प्रवेश कर इधर-उधर नामपट्टों को अगर देखेंगे तो आपको मिलेगी पहले अँग्रेजी ,फिर हिन्दी। उदाहरण के तौर पर नामपट्ट पर पहले "smoking chamber" और उसके नीचे "धूम्रकक्ष"। अब आप ही कह सकते है कि भारत सरकार का उपक्रम -एयर पोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया- स्वयं न्यायपालिका दिल्ली में अपने बने हुए नियमों -अधिनियमों का सरासर उल्लंघन कर रहा है। क्या वहाँ राजभाषा अधिकारी काम नहीं करते ? क्या भारत सरकार के गृह मंत्रालय का राजभाषा विभाग दिल्ली में नहीं है ? क्या उनके अधिकारी या राजनेता इस हवाई अड्डे का इस्तेमाल नहीं करते ? क्या भारत के किसी जागरूक नागरिक या हिन्दी का उन्नयन करने वाली संस्थाओं ने अपने लेटर-पेड़ का प्रयोग करते हुए सरकार के ध्यान में यह बात नहीं लाई ? अनेकानेक सवाल मेरे जेहन में उठ रहे थे।

 

तभी बस में आगे की सीट पर बैठे डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर के उठकर पीछे की ओर आने पर कदमों की आवाज सुनकर मेरा ध्यान भंग हुआ। शायद वह हमारी बातों को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। आकर कहने लगे , " देखिए, आप लोग अँग्रेजी के "की-बोर्ड" की बात कर रहे थे। मैं भी कभी संसदीय राजभाषा समिति का सदस्य रहा हूँ। मैंने भी कई दफ्तरों में राजभाषा के कार्यान्वयन की गतिविधियों का निरीक्षण किया है। हमारे जमाने में कंप्यूटर नहीं था। टाइपराइटर थे। उस जमाने में हिन्दी के टाइपराइटर नहीं थे। मुझे नाम याद नहीं आ रहा है , मेरे एक मित्र ने खुद टाइपराइटर बनाकर राजभाषा विभाग के डायरेक्टर को दिखा दिया। इस मॉडल को बाद में मान्यता मिल गई। कहने का अर्थ , 'जहां चाह ,वहाँ राह' । जब हमारे मन में कोई इच्छा ही नहीं है तब कौन क्या कर सकता है ? जब अँग्रेजी में 'की-बोर्ड' बन सकता है , मेंडरिन में बन सकता है , दुनिया की अन्य भाषाओं में बन सकता है , तो फिर हिन्दी में क्यों नहीं ....?"

उन्होंने एक बहुत बड़ा सवाल हमारी तरफ उछाल दिया। "हिन्दी में क्यों नहीं ?"

 

सभी निरुत्तर थे। कुछ समय के लिए मानो 'पिनड्रॉप-साइलेंस" हो गया हो। तभी असंगघोष ने विषयांतर किया। वह कहने लगे , " मैं कृतिदेव फन्ट में टाइप करता हूँ। टाइपिंग के दौरान मुझे संयुक्ताक्षर लिखने में बहुत परेशानी होती है।"

मुझे याद हो आया कि इंडियन लेंगवेज़ डेवलपमेंट सेंटर ने आधुनिक कंप्यूटर टंकण में हिन्दी भाषा के मानकीकरण के साथ-साथ सरलीकरण के कई सार्थक प्रयास किए है। अभी तो हिन्दी में यूनिकोड या श्रुतिलेखन का प्रचलन भी हो आया है। मैं डॉ॰ जयप्रकाश मानस की तरफ देखने लगा , उनका उत्तर सुनने के लिए। वह छतीसगढ़ सरकार में कई सालों से शिक्षा विभाग से जुड़े है, वेब-पत्रिका सृजनगाथा के संपादक है और वेब-डिजाइनिंग में दक्ष है। मेरा उनकी तरफ देखना स्वाभाविक था। वह कहने लगे ," असंगघोष दादा , रेमिंग्टन में कुछ प्रोविज़न है ,जिससे संयुक्ताक्षर आसानी से लिखे जा सकते है। हमारे जमाने में कक्षा एक से पाँचवीं तक की पढ़ाई हिन्दी में होती थी। मगर आजकल तो पहली से अँग्रेजी चलती है। छतीसगढ़ सरकार प्रयास कर रही है प्रोफेशनल कोर्सों का हिन्दी में करने का। आजकल तो कोर्ट-कचहरियों के फैसले भी हिन्दी में आना शुरू हो गए है। चाहने से, वह दिन दूर नहीं है , जब हिन्दी विश्व की सिरमौर भाषा बन सकती है।"

 

उद्भ्रांतजी कुछ भी टिप्पणी नहीं कर रहे थे। कंप्यूटर से अभी तक खास मित्रता नहीं हुई होगी शायद।

टंकण संबन्धित समस्याओं के निराकरण के लिए हो रहे नए-नए तकनीकी विकास के बारे में मैंने अपनी बात रखते हुए कहने लगा , " पुणे की संस्था सी-डेक ने एक ऐसा टूल बनाया है ,जो बोलने पर टाइप करता है। उसका नाम है श्रुतिलेखन सॉफ्टवेयर। स्पीच टू टेक्स्ट। ज्यादा कीमत नहीं है। मैंने खरीदा दो साल पहले , छ हजार रुपए में। मैं तो अधिकतर टंकण कार्य इसी पर करता हूँ।"

बातों का रुख हिन्दी साहित्य से मुड़कर तकनीकी की ओर जा रहा था। कभी मैंने नाल्को के राजभाषा अधिकारी हरिराम पंसारी से श्रुतिलेखन सॉफ्टवेयर की थ्योरी के बारे में जानना चाहा था। उनके अनुसार सारी ध्वनियों को रिकॉर्ड कर फन्ट डिजाइन किए गए है। कई वैदिक ध्वनियाँ तो लुप्तप्राय हो गई है। प्रयोग में आने वाली ध्वनियों की एक निश्चित आवृति (फ्रेक्वेन्सी)होती है ,उसी के आधार पर वॉइस रिकोग्नाइज़ करता है कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर की मदद से उसे बदल देते है टंकण में। भाषा-विज्ञान का बारीक पहलू था यह !

धीरे-धीरे हमारी टीम के सदस्य बस में चढ़ना शुरू हुए। जो स्टेडियम में ज्यादा सीढ़ियाँ चढ़े थे , उनकी साँसे फूल रही थी। सभी के चढ़ते ही बस ने हॉर्न दिया और चल पड़ी होटल की ओर ,जहां अंतर-राष्ट्रीय रचना पाठ शुरू होने जा रहा था।

लगभग सात बज रहे थे। अंतर-राष्ट्रीय रचना पाठ के अंतर्गत कथा, लघुकथा, गीत, ग़ज़ल, कविता, सभी रखे गए थे। इसकी अध्यक्षता जबलपुर के वरिष्ठ कवि असंगघोष ने की , जिसमें मुख्य अतिथि श्री लोकबाबू तथा विशिष्ट अतिथि कृष्ण नागपाल व सुदर्शन पटनायक थे।

कविता पाठ में जय प्रकाश मानस की मर्मस्पर्शी कविता ‘एक मदारी भूखा प्यासा नाचे बंदर ....’ तथा उनके ही मधुर स्वर में असंगघोष की कविता ‘अरे ओ कनखजूरे !.....’ ने सारे श्रोताओं की वाहवाही लूटी। अन्य कविताओं में सारांश शुक्ल की ‘हिन्दी है अभिमान हमारा’, राकेश पाण्डेय की ‘नोट से निकलो गांधी', डॉ सुधीर शर्मा की 'घड़ी', उद्भ्रांत की 'अधेड़ होती औरत', सीताकान्त महापात्र व रमाकान्त रथ की दिनेश कुमार माली द्वारा अनूदित कविता ‘ओड़िशा’, गिरीश पंकज की ‘माँ’, डॉ. खगेन्द्र ठाकुर की ‘काला हूँ मैं’, राजेश श्रीवास्तव की ‘चिड़िया’ रवीन्द्र उपाध्याय की ‘मन’’ के साथ-साथ डॉ रंजना अरगड़े, महेशचन्द्र द्विवेदी, सुदर्शन पटनायक धीरेन्द्र शुक्ल की कविताओं ने उपस्थित सभी साहित्य प्रेमियों को भावों के कई आयामों से जोड़ा। इसके अलावा झिमली पटनायक का ''जगन्नाथ संस्कृति का महत्त्व', डॉ चौरसिया का ‘लक्ष्मण द्वारा रावण की बेटी का हरण’, मथुरा कलौनी का नाटयांश ‘तू नहीं और सही’ तथा कहानी पाठ में डॉ. राजेश श्रीवास्तव की ‘इच्छाधारी लड़की’, लोकबाबू की कहानी ‘जश्न’और श्रीमती नीरजा द्विवेदी की अपनी कहानी का पाठ किया। सत्र का संचालन ख्यात शायर मुमताज़ ने किया। अंत में हिंदी सम्मेलन को सफल बनाने के लिए सभी प्रतिभागियों को गुरु घासीदास साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, छत्तीसगढ़ की ओर से प्रशस्ति-पत्र व स्मृति चिन्ह प्रदान कर सम्मानित किया गया।

 

चौथा दिन (23.08.14) :-

आज दिन आ गया था बीजिंग से विदा लेने का। सुबह होटल में नाश्ता करने के बाद सभी ने अपना लगेज निकाला और होटल से चेक आउट किया। मेरे तकिये पर रक्त की कुछ बूंदे गिरी थी , उसकी सफाई के लिए मुझे अलग से सौ यूआन देने पड़े। आज नीना को हम सभी से विदा भी लेना था। वह बहुत भावुक लग रही थी , उसने सभी को अपनी तरफ से समुद्री पर्ल का एक-एक हार दिया स्मृति चिन्ह के रूप में और रेलवे स्टेशन तक वह खुद छोड़ने आई। लगभग ग्यारह बज रहे होंगे।

बीजिंग नान रेलवे स्टेशन से हमें बैठना था। शंघाई पहुंचने के आठ-नौ घंटे की यात्रा तय करनी थी हाई स्पीड ट्रेन द्वारा। साथी लोग बुलेट ट्रेन की चर्चा कर रहे थे , मगर वह बुलेट ट्रेन नहीं थी। मुझे दो ट्रेनों में अंतर समझ में नहीं आ रहा था। शायद बंदूक से निकली गोली (बुलेट) की तरह सरपट भागती होगी वह ट्रेन ! हाई स्पीड ट्रेन की स्पीड कुछ कम नहीं थी 200 किलोमीटर प्रति घंटा से कम नहीं। और बुलेट ट्रेन की स्पीड 300 किलोमीटर से कम नहीं होगी बीजिंग का रेलवे स्टेशन किसी एयरपोर्ट से कम नहीं होगा। सफाई का तो कहना ही क्या , एकदम साफ-सुथरा। क्या मजाल, जो कहीं पर धूल के कुछ अंश दिख जाए। बहुत ही बड़ा एरिया लिए हुए था बीजिंग नान रेलवे स्टेशन। जहां-तहां बड़ी-बड़ी इलेक्ट्रोनिक स्क्रीनें। गाइड नीना पताका लिए भारतीय साध्वी की तरह सभी को एक जगह इकट्ठे होने का निर्देश दे रही थी। कहीं कोई दिक्कत न हो जाए। बार-बार पासपोर्ट व सामान की निगरानी के लिए भी वह कह रही थी। हमें अलविदा करने से पूर्व उसके चेहरे की मासूमियत,भाव-भंगिमा,वाक-चातुर्य और बंदर जैसी चपलता चाहकर भी आँखों के सामने से नहीं हट रही थी।

हमारा दल दो हिस्सों में बंट गया था , कम्पार्टमेंट -वन और कम्पार्टमेंट-टू में।। सारे दरवाजे स्वचालित। चेयर वातानुकूलित ट्रेन की तरह।वाशरूम साफ-सुथरे ,मगर महिलाओं व पुरूषों के लिए कॉमन। दोनों प्रयोग में ला सकते है। छोटे बच्चों के डाइपर बदलने के लिए अलग से टेबल दी हुई थी वाशरूम में। बीजिंग से शंघाई की दूरी 2000 किलोमीटर से कम नहीं होगी। जैसे-जैसे ट्रेन चलती जा रही थी, पीछे छूटते जा रहे थे खेत-खलिहान ,कल-कारखाने और बड़े-बड़े आलीशान भवन। मेरे मानस पटल पर छा जा रही थी , ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त ओड़िया सीताकान्त महापात्र की कविता - "चाँदनी रात में रेलयात्रा"। चाँदनी रात तो नहीं थी ,दिन था। मगर दृश्य पटल वही था , जो उस कविता में था।

 

द्रुतगामी ट्रेन जा रही थी

काली देवी की तरह

डिब्बे के हिचकोले खाते झूलों में

नींद में सोए हुए थे कुछ आदमी

भिन्न-भिन्न गाँव ,शहर ,बस्ती के

जा रहे थे अलग-अलग गाँव को ,शहर को

जीवन के दिन-रात की तरह

यह धरती कितनी सुंदर

खिड़की के शीशों से

पेड़,क्यारी,तालाब,कुमुद

दौड़कर भाग रहे थे सभी पीछे-पीछे

हमारे भय ,हमारे आँसू

हमारी व्यथा,अपनों को खोने का दुख

हमारी प्रगल्भता,हमारे शून्य,हमारे आँसू और हमारा खून

दौड़कर भागे जा रहे थे कल के अंधेरे में

इतिहास के पन्नों में ,और वहाँ से मिथक में

ट्रेन चलती जा रही थी ,चलती जा रही थी

दिग्वलय पर चंद्रमा दौड़ता जा रहा है , दौड़ता जा रहा है

मगर मुझे नींद नहीं।

 

अधिकतर साहित्यकार अपनी कुर्सी में बैठे ऊंघ रहे थे। सुस्ता रहे थे। काश , मेरे देश की संस्कृति में यह शामिल होता कि भारतीय रेलों में कहीं पेन से लिखे हुए नाम या अश्लील चित्र ,तो डिब्बे में कोई असामाजिक तत्व ,भिखारी नजर नहीं आते। देश की संपति की हिफाजत हमारे दिनचर्या में शामिल हो जाती। डॉ मीनाक्षी जी पीछे वाली सीट पर बैठे हुए थी , बिस्किट के पैकेट मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा , "लीजिए , आप भी कुछ लीजिए।" उनकी आवाज सुनकर मेरी तंद्रा भंग हो गई। मैंने देखा ,सामने वाली सीट पर डॉ चौरसिया अपने पास में बैठे हुए सह-साहित्यकारों को बैगा जाति के आदिवासियों तथा अपनी उपलब्धियों के बारे में बता रहे थे यह कहना नहीं भूल रहे थे ,'मेरी एक पुस्तक राजकमल प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित हुई ,"प्रकृतिपुत्र :बैगा: , आप उसे अवश्य पढ़िएगा।' लोकेश बाबू अपनी कहानी "जश्न" सुना रहे थे कि कामरेड कभी मरता नहीं है। उधर डॉ॰ जय प्रकाश मानस और गजल गायक मुमताज़ आगे की सीट पर बैठकर आंखे मूंदे सभी की बातें सुनते हुए मंद-मंद मुस्करा रहे थे। झिमली पटनायक अपने पास बैठे सभी लोगों को नाश्ता करवा रही थी। उधर निमिष श्रीवास्तव मेरे कैमरे के मेमोरी कार्ड से लेपटॉप में फोटो कॉपी कर उसका एक अलग फोल्डर बना रहा था , ताकि मैं अपने ग्रुप को व्हाट्स अप्प में भेज सकूँ। मुझे रह-रहकर याद आ रहे थे सीताकान्त महापात्र , अवश्य हावर्ड यूनिवर्सिटी में उन्होंने यह अनुभूति प्राप्त की होगी ,वरना कैसे कविता में प्रस्फुटित होता :-

 

द्रुतगामी ट्रेन चलती जा रही थी ,चलती जा रही थी

दिग्वलय पर चंद्रमा दौड़ता जा रहा है , दौड़ता जा रहा है

मगर मुझे नींद नहीं।

 

अखबारों में तो चर्चा जरूर हो रही थी ,कि भारत बुलेट ट्रेन खरीदेगा। चीन ओर जापान की तरह वह भी तेज रफ्तार से भागेगा। हमारे प्लेटफॉर्म भी इतने ही सुंदर,सुदृढ़ और सुघड़ होंगे। किसी को कुछ भी कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी। चीन और भारत पड़ोसी देश ,मगर कार्य-संस्कृति में इतनी विभेदता ! इस अंतर को जानने के लिए मैंने मानसजी से आग्रह किया ," आपके मत में ऐसे क्या कारण हो सकते है , सब-कुछ समान होने के बावजूद भी भारत और चीन के विकास दर में इतना फर्क क्यों है ? भारत की जीडीपी 4 या 5% जबकि चीन में डबल डिजिट डेवलपमेंट ?"

मानस जी का उत्तर था लोकतन्त्र को लेकर ," हम आजाद देश के वासी है। चीन में फ़्रीडम कहाँ ? यहाँ तक कि अभिव्यक्ति पर भी अंकुश। सोशल मीडिया पर ताला लगा हुआ है यहाँ। फेसबुक ,ट्विटर ,यू-ट्यूब सब पर प्रतिबंध। अगर आप चलाना भी चाहते है तो यहाँ की सरकार से इजाजत लेनी होगी। आपको एक वीपीएन नंबर देगा जो आपके क्रिया-कलापों पर निगरानी रखेगा। अब आप सोचो , अपने यहाँ मीडिया तय करती है कि कौनसी पार्टी सरकार बनाएगी ,जबकि चीन में सरकार तय करती है कि कौनसा मीडिया ग्रुप काम करेगा। दोनों देश की सरकारों में बुनियादी अंतर है यह। " कहकर डॉ॰ जय प्रकाश मानस ने दीर्घश्वास ली।

उधर किनारे की सीट पर डॉ खगेन्द्र ठाकुर बाहर की ओर झांक रहे थे। उनके पास की सीट खाली थी। मोटे-मोटे लेंसों वाले चश्मा ऊपर कर रुमाल से आँखें पोंछते हुए मेरी तरफ देखकर कहने लगे , " बैठो , इधर बैठो।" मैं तो खुद उनके पास बैठकर उन्हें कुछ सुनना चाहता था। इधर-उधर की कुछ बातें करते हुए मैंने उनसे पूछा, " सर, कैसा लग रहा है ?"

"सब कुछ ठीक है। और अच्छा रहता ,अगर चीन के किसी गाँव का परिदर्शन कराया जाता। तुम कहो न ,मानस जी से , हमें चीन के किसी गाँव को दिखाने का प्रबंध करावें। वहाँ की गरीबी ,भूखमरी,बेरोजगारी ,सामाजिक अपराध सब देख सकेंगे। केवल बीजिंग व शंघाई देखने मात्र से चीन का आकलन करना एक तरफा होगा। यह गलत है। यह बात सही है , चीन विकास के पीछे पागल है एकदम।"

पास में बैठे उद्भ्रांत जी ने उनकी बात पर अपनी सहमति जताते हुए कहा, " कोई भी विकास अपने आध्यात्मिक और सामाजिक मापदण्डों को नजरअंदाज कर अगर कोई देश कर भी लेता तो वह विकास की परिभाषा में नहीं आता है। शिकागो के धर्म-सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद ने इस बात की पुष्टि की थी कि जीवन का सही उद्देश्य आध्यत्मिक,सामाजिक,सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों को मानते हुए देश व समाज का सर्वांगीण विकास करना है।"

 

बहस अपने चरम की ओर जा रही थी। कहीं न कहीं ,डॉ॰खगेन्द्र ठाकुर और उद्भ्रांत जी का मन के किसी कोने में छुपा हुआ अपना देश-प्रेम चीन के विकास को सही विकास मनाने से इंकार कर रहा था। मैंने डॉ खगेन्द्र ठाकुर के कुछ कहने से पूर्व मैंने उनसे निवेदन किया , " सर, आप सीधे मानस जी से चीन के गाँव देखने के लिए क्यों नहीं कह देते ?"

 

"मैंने तो मानस जी से कहा था कि चीन के किसी राजनेता से भी हमारे टीम की मुलाक़ात करवा देते तो इस आयोजन में और चार चाँद लग जाते।और हो सकता तो चीन के गाँव भी देख पाते ......." डॉ खगेन्द्र जी ने दुखी मन से अपनी बात रखी।

 

मैं नहीं समझ पा रहा था कि वह नेता लोगों से क्यों मिलना चाहते हैं। हो न हो , जरूर कोई रहस्य छिपा होगा ! शायद या तो , वह चीन की सरकारी मशीनरी और कम्युनिस्ट तंत्र को नजदीक से जानना चाहते हो। या फिर , भारत के लोकतन्त्र का संदेश उन तक पहुंचाना चाहते हो। बात तो उनकी सही थी , मगर अंतरराष्ट्रीय आयोजनों के समन्वयक की भी अपनी सीमा होती है। किस तरह डॉ जय प्रकाश मानस ने नौ-नौ सफल आयोजनों को रायपुर,थाइलेंड,मारीशस,उज्बेकिस्तान,संयुक्त अरब अमीरात,वियतनाम , श्रीलंका और बीजिंग में करवाकर हिन्दी भाषा को अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपने खुद के खर्चे पर आगे लाने का अनुकरणीय कदम उठाया है ! उनकी पीड़ा किसने देखी है ? जहां सब इधर-उधर घूमने में व्यस्त रहते है ,वहाँ उनको सबकी चिंता सताए रहती है। किसी को कुछ दिक्कत तो नहीं हो रही है। एक परिवार के मुखिया की तरह उन्हें सम्मेलन के दौरान अपनी भूमिका अदा करनी पड़ती है। कुछ भी हो जाने से मानसजी से पूछो , और इधर-उधर उन्हें खोजने की तांकझांक शुरू हो जाती है। डॉ खगेन्द्र जी की सलाह मेरे मन-मस्तिष्क में द्रुतगामी ट्रेन की तरह तेजी से सरपट दौड़े जा रही थी। मुझे लगा कि वह इस सम्मेलन के ठोस परिणामों को देश के वर्तमान राजनैतिक पटल पर सामने लाना चाह रहे हो।

बीच में पड़ने वाले रेलवे स्टेशन पर जैसे ही ट्रेन रुकती ,वैसे ही मैं भी अपनी सीट बदल देता था। इस बार मैं रुका महान दलित कवि असंगघोष के पास। कुछ काव्य चर्चा हो जाए ,यही सोचकर। हष्ट-पुष्ट सुआकर्षक शरीर वाले असंगघोष अपना प्रोफेशनल कैमेरा लिए खिड़की के काँच से बाहर के फोटो लेने में तल्लीन थे। वह सही माने में टूरिस्ट लग रहे थे। स्लीवलेस टीशर्ट ,बरमूडा पहने वह बहुत आकर्षक लग रहे थे। मगर कार्यक्रम के दौरान कुर्ता ,पाजामा और सर पर लगे देशी साफा में उनकी छबि भारत के किसी गाँव के आभिजात्य जमींदार से कम नहीं लग रही थी। मैंने उनका ध्यान भंग किया ," घोष साहब ,क्या कर रहे हो ? चीन के प्राकृतिक नजारों की फोटोग्राफी ?"

 

मुस्करा कर कहने लगे वह ,"फोटोग्राफी मेरा शौक है। और मैं तो एक प्रोफेशनल फोटोग्राफर हूँ।"

फोटोग्राफी का शौक उनके व्यक्तित्त्व से मेल खाता था। कैमेरे को पकड़ने की स्टाइल ,फोटोग्राफ लेने के एंगल से पता चल रहा था कि वह एक चितेरे फोटोग्राफर है। कैमेरे को बंद कर अपने कमर पर टंगे वेलेट में डालते हुए कहने लगे , " माली जी , आपने "गुलामगिरी" पढ़ी है ?"

" नहीं , कौन है लेखक ?"

"ज्योतिबा फूले की। अगर नहीं पढ़ी है तो एक बार पढ़ लो। तुम्हारे सोचने का सारा ढंग बदल जाएगा।बहुत ही क्रांतिकारी किताब है यह। नेट पर मिल जाएगी। सावित्री बाई फूले का तो नाम सुना होगा ? ज्योतिबा फूले की पत्नी। हमारे देश की पहली शिक्षिका थी वह।"

उन्हें लगा कि जैसे मैं ज्योतिबा फूले को नहीं जानता हूँ। मगर उन्हें क्या पता , कॉलेज में पढ़ते समय जोधपुर की ज्योतिबा फूले संस्थान का कभी सक्रिय सदस्य था। मगर यह बात सच थी कि 'गुलामगिरी' के बारे में मैंने पहली बार सुना था।

"अवश्य पढ़ूँगा ,घोष साहब।" कहकर मैं सोचने लगा , कभी मेरे मन में भी तो क्रांतिकारी विचार आया करते थे। मुझे याद हो आया ,जोधपुर के भीकमदास परिहार शिक्षा सेवा सदन का वह प्रांगण ,जहां कभी भारत के बड़े-बड़े समाज सुधारक अपने व्याख्यान दिया करते थे। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द की विचारधारा से प्रभावित भूमि थी वह। क्या चीन में भी ऐसे ही समाज सुधारक पैदा हुए होंगे ?

डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा ने भारत में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार पर बातचीत के दौरान कहा था टियन'अनमेन स्केवयर पर , " कभी पहले चीन में भी महिलाओं पर ऐसे ही अत्याचार हो रहे थे। चीन तो क्या , सारे एशियाई देशों में यह होता था। जैसा आपने सुना होगा , 'फोरबिडन सिटी' यानि चीन के राजमहलों में महिलाओं के साथ क्या सलूक होता था ! उन्हें नंगा कर पाँवों को लकड़ी के पट्टों से बांधकर हरेम से लाया जाता था राजा के शयनकक्ष में , किसी नौकर की पीठ पर लादकर। मगर जब चीन ने औरतों का सम्मान करना सीखा , उन पर हो रहे क्रूर अत्याचार बंद किए तो उनका देश विकासगामी हो गया। काश , हमारा देश भी ....." कहते-कहते वह रुक गए थे जैसे वह भीतर से बुरी तरह आहत हो।

कवि असंगघोष ने भी अपनी कविताओं के माध्यम से यही बात रखी थी, हम सभी के सामने।

शाम के पाँच बज रहे थे। ट्रेन उसी द्रुतगामी वेग से चल रही थी। उद्भ्रांत जी ,सेवशंकर अग्रवाल ,राजेश श्रीवास्तव ,राजेश मिश्रा ,सूरज बहादूर थापा ,गिरीश पंकज और मेरा ओड़िशा ग्रुप सभी अपनी-अपनी बातों में मशगूल थे। एक दूसरे की तरफ खाने के पैकेट बढ़ाए जा रहे थे। यही तो सही मकसद है , आपसी भाईचारे का , देश-प्रेम का , और सही धर्म-निरपेक्षता का। बीच-बीच में कुछ कहकहे अवश्य सुनाई दे रहे थे , मथुरा कलौनी जी और डॉ जे॰आर॰सोनी जी के। आनदेव बंधु सामने की सीट पर सिर टिकाए नींद लेने का प्रयास कर रहे थे। देखते-देखते साँझ होने लगी थी। ट्रेन की वही रफ्तार। बाहर आसमान में अंधेरा पसर रहा था।

दूरदराज़ टिमटिमाती रोशनी झलसने लगी थी बिजली के खंभो पर। ऐसा लग रहा था मानो छोटे-छोटे तारे टिमटिमा रहे हो किसी आकाश-गंगा में। हाथ-घड़ी का काँटा आठ की तरफ सरकने लगा था। बड़े-बड़े इलेक्ट्रोनिक स्क्रीनबोर्ड सामने दिखाई देने लगे थे। स्पष्ट था शंघाई हाँग कुइयांग स्टेशन आने वाला है। सभी ऊपर रेक में पड़े अपने सामानों की तरफ निगाहें डालने लगे।

 

पांचवा दिन (24.08.14) :-

वेलकम, सृजनगाथा डॉट कॉम इन शंघाई ! हार्दिक स्वागत आप सभी का। शंघाई मानो कह रहा हो हम सभी से। विश्व का एक बहुत बड़ा व्यापारिक केंद्र। नीना की जगह ले ली थी गाइड 'एलिस' ने। 'एलिस' का चीनी नाम कुछ और था नीना की तरह। टूर के प्रोग्राम के मुताबिक वह हमें वर्ल्ड फाइनेंशियल हब, सिल्क शॉप और मेगलेव ट्रेन दिखाने के लिए ले जा रही थी। शायद एलिस को भारत के पर्यटन स्थानों ,रीति-रिवाजों ,रहन -सहन के तरीकों , खान-पान की आदतों की अच्छी जानकारी थी। यह बाद में पता चला कि वह भारत में दो बार घूम आई थी। तभी तो उस बस में कितने आत्म-विश्वास के साथ चीन और भारत की तुलना कर थी वह , " शंघाई पहले मछुआरों का एक गाँव था, पर प्रथम अफ़ीम युद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने इस स्थान पर अधिकार कर लिया और यहां विदेशियों के लिए एक स्वायत्तशासी क्षेत्र का निर्माण किया, जो 1930 तक अस्तित्व में रहा और जिसने इस मछुआरों के गाँव को उस समय के एक बड़े अन्तर्राष्ट्रीय नगर और वित्तीय केन्द्र बनने में सहायता की।

1949 में साम्यवादी अधिग्रहण के बाद उन्होंने विदेशी निवेश पर रोक लगा दी और अत्यधिक कर लगा दिया। 1992  से यहां आर्थिक सुधार लागू किए गए और कर में कमी की गई, जिससे शंघाई ने अन्य प्रमुख चीनी नगरों जिनका पहले विकास आरम्भ हो चुका था जैसे शेन्झेन और गुआंग्झोऊ को आर्थिक विकास में पछाड़ दिया। 1992 से ही यह महानगर प्रतिवर्ष 9-15% की दर से वृद्धि कर रहा है, पर तीव्र आर्थिक विकास के कारण इसे चीन के अन्य क्षेत्रों से आने वाले अप्रवासियों और समाजिक असमानता की समस्या से इसे जुझना पड़ रहा है।इस महानगर को आधुनिक चीन का ध्वजारोहक नगर माना जाता है और यह चीन का एक प्रमुख सांस्कृतिक, व्यवसायिक, और औद्योगिक केन्द्र है। 2005 से ही शंघाई का बन्दरगाह विश्व का सर्वाधिक व्यस्त बन्दरगाह है। पूरे चीन और शेष दुनिया में भी इसे भविष्य के प्रमुख महानगर के रूप में माना जाता है।

आपके इंडिया में जहां लोग मंदिरों,मस्जिदों व गिरजाघरों में पूजा-अर्चना करते हैं , वैसा यहाँ बिलकुल नहीं है। चीन का कोई धर्म नहीं है। केवल एक ही धर्म है ,पैसे कमाना और देश का विकास करना। आपके वहाँ धार्मिक स्थानों में जाने के लिए कोई शुल्क नहीं लगता ,मगर यहाँ लगता है। यहाँ सरकारी म्यूजियमों में जाने के लिए कोई शुल्क नहीं लगता , आपके वहाँ लगता है। हैं न मूलभूत अंतर ? हमारे यहाँ ,आपने बीजिंग से शंघाई तक देखा होगा ,सब जगह औरतें काम करती हैं , मगर आपके वहाँ आदमी ,जबकि आपकी औरतें हाऊसवाइफ। यहाँ पूरा व्यतिक्रम। या तो आदमी ,औरत दोनों काम करते है ,या फिर केवल औरत जबकि पति हाऊस-हसबेंड।"

'हाऊस-हसबेंड' का नाम सुनते ही सारी बस खिलखिलाकर हंस पड़ी। कितनी विपरीत है चीन की संस्कृति ! यह सच है , शंघाई जैसे शहर में अगर पति-पत्नी दोनों नहीं कमाएंगे तो जीवन जीना दूभर हो जाएगा।

 

एलिस ने कहना जारी रखा , " जैसा कि आप जानते होंगे , चीन में प्रतिवर्ष एक छोटा परिवर्तन और हर तीसरे साल एक बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है।यह चीन के गवर्नमेंट की पॉलिसी है। ... अब हम पहुँचने जा रहे है वर्ल्ड फाइनेंशियल हब के इर्द-गिर्द। जहां आप लिफ्ट से 423 मीटर की दूरी मात्र 47 सेकंड में तयकर चौरानवें मंजिल पर पहुँचकर शंघाई का विहंगम दृश्य देख सकते हो। यह इमारत सौ मंजिल की है ,लगभग 474 मीटर ऊंची। अब आप उतरकर फोटोग्राफी का आनंद ले सकते है।"

बस एक बड़े गार्डन के पास जाकर रुक गई। हम सभी नीचे उतरकर आस-पास के सारे नजारों का अवलोकन करने लगे। पाइपनुमा काँच की बनी बिल्डिंग पर चींटी जैसे कुछ लोग मरम्मत का काम कर रहे थे। दूर से ऐसे दिखाई दे रहे थे जैसे काले कपड़े पहने कुछ स्पाइडरमेन काँच की दीवारों पर अपने हाथ से धागा फेंककर मकडजाल बना रेंगते-रेंगते ऊपर की ओर बढ़ रहे हो। आस-पास की गगनचुंबी इमारतों के अरण्य का दृश्य बहुत ही मनोरम दिखाई दे रहा था। ऐसा लग रहा था ,चीनी लोगों ने शंघाई को स्वर्ग बनाने का ठान लिया हो। बचपन में मुझे कभी मुंबई ,कोलकाता, चैन्ने और दिल्ली महानगर लगते थे ,मगर शंघाई को देखने के बाद लगा अभी बहुत कुछ बाकी है।

सोचते-सोचते एक निमिष में हम पहुँच गए वर्ल्ड फाइनेंशियल हब की 94वीं फ्लोर पर। शंघाई नगर के पुडौंग जिले में स्थित एक गगनचुम्बी इमारत है यह। यह एक मिश्रित उपयोग की इमारत है जिसके भीतर होटल, कार्यालय, सम्मेलन कक्ष, प्रेक्षण डॅक, और शॉपिंग मॉल इत्यादि हैं। 14 सितंबर 2007 के दिन इस इमारत ने अपनी 492 मीटर की ऊँचाई प्राप्त कर ली थी और उस समय यह विश्व की दूसरी सबसे ऊँची इमारत थी। इस इमारत में कुल 101 तल हैं और यह अभी भी चीन की सबसे ऊँची इमारत है। यह इमारत 28 अगस्त 2008को दैनिक कामकाज के लिए खोल दी गई थी, और इसका प्रेक्षण डॅक दो दिन बाद खोला गया। अपने डिज़ाइन के लिए इस इमारत को बहुत सराहा गया है और वास्तुकारों द्वारा इसे वर्ष 2008 की सर्वश्रेष्ठ पूर्णनिर्मित इमारत स्वीकृत किया गया था। ..... कोई सुंदर सपने से कम नहीं। तकनीकी उत्कृष्टता का एक अनुपम उदाहरण। 'सती सावित्री' और 'डिवाइन लाइफ' के रचियता महर्षि अरविंद ने सही कहा था , इट इज अवर जर्नी फ्राम मेन टू सुपरमेन। मनुष्य हमेशा 'सुपरमेन' बनना चाहता है। चार्ल्स डार्विन के विकासशीलता का सिद्धान्त भी तो यही दर्शाता है। क्या चीन का यह विकास कम बड़ा जादू है ! काँच की दीवारों से दिखाई दे रहा है सारा शंघाई शहर। बहुत ही खूबसूरत। इधर ओल्ड शंघाई ,तो उधर न्यू शंघाई। बीच में हूयांगपू नदी मानो दो भाइयों की संपति का बंटवारा कर रही हो। न्यू शंघाई में तरह -तरह की स्थापत्य कला लिए अभ्रन्कष इमारतें। यही तो आभिजात्य और वैभव है वहाँ के निवासियों का। अगर विवेकानंद जिंदा होते तो शायद वह भी यह ही कहते, ये इमारतें चीन के लोगों का कर्मयोग है। कुशलता से किया हुआ कर्म ही तो योग है। "योग कर्मसु कौशलम"। हमारे सभी साथी अपना फोटो खींचने या खींचवाने में मग्न थे। अब समय हो चुका नीचे उतरने का। देखते-देखते एक घंटा कब व्यतीत हुआ ,पता भी नहीं चला।

 

अब बस ने रुख किया सिल्क शॉप की तरफ। एलिस कह रही थी ,चीन में दो प्रकार के कोकून पाए जाते है , एक बड़ा तो दूसरा छोटा। जबकि आपके भारत में छोटे प्रकार का ही कोकून मिलता है। पता नहीं , हर बात में वह भारत से तुलना क्यों कर रही थी ? सिल्क की यह दूकान बहुत बड़ी थी , जहां रज़ाई,तकिये ,ओढ़ने के वस्त्र तैयार किए जा रहे थे। रेशम बनाने का दूकान में पूरा डिमोन्स्ट्रेशन दिखाया गया। यहाँ पर जिन्हें जो-जो खरीदना था ,ख़रीददारी की। अब हमारा कारवां चल पड़ा ,लंच करने के लिए। मगर एलिस ने कहा , बेहतर होगा आप लंच से पहले मेगलेव ट्रेन की सवारी कर लेते। मेगलेव ट्रेन चलने का समय सन्निकट था।

मेगलेव ट्रेन का विस्तृत रूप होता है "मैगनैटिक लेवियशन" सिद्धान्त पर काम करने वाली ट्रेन। यह लोंगयांग रोड स्टेशन से पुडोंग इन्टरनेशनल एयरपोर्ट स्टेशन तक तीस किलोमीटर की दूरी मात्र आठ मिनट में तय करती है। फिलहाल यह पायलट प्रोजेक्ट है और लॉस में चल रहा है। शंघाई सरकार इसे बंद करने के बारे में सोच रही है। सारे डिब्बों में स्पीड इंडिकेटर लगे हुए थे , अधिकतम स्पीड 431 किलोमीटर प्रति घंटा देखी गई ,जबकि सापेक्ष गति 700 किलोमीटर प्रति घंटा। हैं न, अचरज की बात ? सेवाशंकर अग्रवाल ने तो एक वीडियो तैयार कर लिया। बाद में सबने उसे अपने अपने सोशल मीडिया ग्रुप पर अपलोड कर दिया। किसी ने कामेंट किया , जितनी ज्यादा गति ,उतनी ज्यादा प्रगति। तो किसी ने लिखा , सारे विकास की जड़ है टेक्नॉलॉजी का सही इस्तेमाल। गिनीज़ बुक में नाम रखने वाली अधिकतम स्पीड वाली मेगलेव ट्रेन में बैठना अपने आप में एक बहुत बड़ा गौरव था।

डॉ रंजना अरगड़े ने चुम्बकीय क्षेत्र में चलने वाली ट्रेन के बारे में जानना चाहा , " कैसे चलती है यह ट्रेन ? "

" मेगलेव ट्रेन विद्युत चुंबकीय सिद्धांत पर चलती हैं। चुंबकीय प्रभाव के चलते ये पटरी से थोड़ा ऊपर होती हैं और इसी कारण इनकी रफ़्तार परंपरागत ट्रेनों से अधिक होती है। ब्रिटेन ने सबसे पहले मेगलेव ट्रेन विकसित की थी। फिलहाल दुनिया में सिर्फ़ चीनी शहर शंघाई में ही यात्री मेगलेव ट्रेन के सफर का आनंद उठा सकते हैं। " मैंने अपनी जानकारी के अनुसार उत्तर दिया ,

" शंघाई में मेगलेव ट्रेन का ट्रैक तैयार करने में 6 करोड़ 30 लाख डॉलर ख़र्च हुए हैं। जापान का कहना है कि वह वर्ष 2025 तक चुंबकीय प्रभाव से चलने वाली पहली 500 किमी प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ने वाली पहली ट्रेन का विकास करेगा , जो राजधानी टोक्यो और नागोया शहर के बीच दौड़ेगी। जबकि हकीकत यह है कि ब्रिटेन में ट्रेन संचालित करने वाले नेटवर्क रेल की फिलहाल वहाँ मेगलेव ट्रेन चलाने की योजना नहीं है। ब्रिटेन में कभी दुनिया की पहली व्यवसायिक मेगलेव ट्रेन चलती थी। वर्ष 1984 से 1995 के बीच यह ट्रेन यात्रियों को बर्मिंघम हवाई अड्डे से नजदीकी रेलवे स्टेशन तक ले जाती थी। लेकिन 11 साल के सफर में कई बार इसकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठे और आखिरकार इसे पारंपरिक व्यवस्था से बदल दिया गया। नेटवर्क रेल ने मेगलेव ट्रेन शुरू करने और इसके संचालन पर आने वाले ख़र्च को लेकर भी इसे फिर शुरू करने से इनकार किया है। " मेगलेव ट्रेन के बाद रेस्टोरेन्ट 'जी वाटर फ्रंट होटल' में भारतीय भोजन का रसास्वादन।

 

छठवाँ दिन (25.08.14) :-

बुद्ध ने चीन की संस्कृति को काफी प्रभावित किया। भारत के बुद्ध का चीन में होना इस बात का परिचायक है कि किसी जमाने में भारतीय संस्कृति ने अवश्य चीन को प्रभावित किया होगा। अन्यथा शंघाई के म्यूजियम में बुद्ध की प्रतिमा नहीं रखी होती। और नहीं दीप ,अगरबत्ती जलाकर पूजा आराधना की जाती। इंडिया की तरह यहा भी यूआन सिक्के चढ़ाए जाते है ,साष्टांग दंडवत होकर प्रार्थना की जाती है। भगवान बुद्ध का पूरे चीन में जबरदस्त प्रभाव है। भगवान बुद्ध की शिक्षाएं यहां के जनमानस में आज भी ऊर्जा व प्रेरणा का काम करती हैं। चूंकि भगवान बुद्ध भारत के थे अत: भारतीय संस्कृति व सभ्यता के प्रति भी यहां के नागरिकों में विशिष्ट आदर है। चीनी यात्री ह्वेन सांग ने अपनी भारत यात्रा के बाद लिखित संस्मरणों में अनेक स्थानों पर भारतीय मूल्यों का चीन में प्रभाव होने की बात कही है। जेड बुद्ध मंदिर भी चीन के प्रमुख बौद्ध मंदिरों में से एक है। यहां सफेद जेड (विशिष्ट शैली का बहुमूल्य पत्थर) से बनी बुद्ध प्रतिमाएं हैं। एक प्रतिमा बैठी आकृति में और दूसरी लेटी हुई आकृति में हैं। यहां कुछ चीनी दैविक राजाओं की मूर्तियां भी दर्शनीय है। मंदिर दर्शन के बाद हम नॉनजिंग रोड पर गए , जहां बांस की कॉटन से तरह-तरह की घरेलू वस्तुएँ बनाई जाती है ,जैसे टी-शर्ट,टॉवल,रुमाल,फ्रॉक,स्कार्फ,टूथ-ब्रश,साबुन,कैंडी आदि। शो-रूम में वास्तुकला से संबन्धित कुछ चीजें भी रखी हुई थी। सभी ने यथाशक्ति कुछ न कुछ खरीददारी अवश्य की।

फिर दोपहर का भोजन और शंघाई म्यूजियम की ओर प्रस्थान। प्राचीन चीनी कला का सबसे बड़ा म्यूजियम। तरह-तरह के आर्टिफेक्ट। इस म्यूजियम में ग्यारह गैलेरी और तीन एक्जिबिशन हाल है।

फिर चल पड़े हुयांगपू नदी में सैर करने के लिए। नदी के दोनों तरफ अभ्रांकष इमारतें और उन इमारतों पर रंगीबिरंगी झिलमिलाती रोशनियाँ। चीन यात्रा में ऑरियंट पर्ल टीवी टॉवर भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। इसे ‘फोटोग्राफिक ज्वेल’ भी कहा जाता है। पुडोंग पार्क में बना यह टॉवर यांगपू पुल से घिरा है। दूर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे दो ड्रेगन मोतियों से अठखेलियां कर रहे हों। 468 मीटर ऊंचा यह टॉवर विश्व का तीसरा सबसे ऊंचा टॉवर है। रात की रोशनी में इसकी आभा देखते ही बनती है। बहुत बड़े जहाज में हमारे साथ-साथ जगह-जगह के लोगों का जुटना। ऊपर में सतरवें एशियन खेलकूदों को प्रमोट करने के लिए दक्षिण कोरिया के छात्रों का एक दल जहाज के ऊपरी माले पर संगीत की धुन पर थिरक रहा था। और उनके नृत्य में वे शामिल कर रहे थे हाथ पकड़-पकड़कर डॉ जय प्रकाश मानस जी को ,डॉ सुधीर शर्मा जी को ,मुमताज़ और गिरीश पंकज को बारी-बारी। हमारे ग्रुप की बच्ची स्मार्की पटनायक उन बच्चों के डांस का एक हिस्सा बन गई। जीवन में नृत्य है , जीवन में संगीत है। यद्यपि बरसात हो रही थी ,मगर इतनी चमकदार रोशनी चारो तरफ मानो चाँदनी रात हो। मुझे ओडिया भाषा के महान कवि मायाधर मानसिंह की प्रसिद्ध कविता 'महानदी में ज्योत्स्ना विहार' याद आनी लगी। हुयांगपू मेरे लिए महानदी बन गई और वह तटिनी "बाली-यात्रा" का प्रतीक।

 

पत्थर के घर में, अंधेरे में, रहने वाला मैं, जननी !
पता नहीं था, तुम्हारे अद्भुत रूप की लीला ,हे धरणी !
चांदनी रात में महानदी में चलाने से पहले  तरणी
आहा ! कितनी विपुल शोभा मेरे आँखों के सामने
कैसे करुँ मैं वर्णन मेरे आकर्षक अनुभव का  ?
चौंधिया गई मेरी आँखें इस धवल-चाँदनी में
बंद हो गया मेरा पराभव मुँह इस चपल-चाँदनी में
रजनी- वधू  सफेद चादर की तरह
फैला रही चाँदनी  दिगचक्र तक
नीचे धरती-तल की प्राकृतिक मधुरता
तुम्हारे संस्पर्श से और मधुर।
आकाश के समान महानदी का जल
चंद्रिका चुंबन से धवल -चपल
तरल दर्पण जैसे बिछा दिया हो किसी ने
देखेंगे उसमे अपने बदन, नभ की सुहागिनें।
दूरवाही नाविक का सुगम संगीत
छूता नदी का वक्ष अक्षत
चांदनी में नदी के पानी का किनारों से टकराना
मानो लाखों चांदी के फूलों का एक साथ खिल जाना
इस भव्य चित्रगृह में मैं एक दीन-हीन अतिथि
देख रहा हूँ मुग्ध होकर महिमा मंडित
सोचता हूँ ,हो जाऊं विलीन इस चांदनी में
और पान करूँ अमृतरस का इस स्रोत में।

 

सातवाँ दिन (26.08.14) :-

आज भारत लौटने का दिन। उद्भ्रांत जी का मन था विश्व-कवि लू-शून के घर और म्यूजियम का परिदर्शन करने का। लू-शून प्रेमचंद के समकालीन थे। उद्भ्रांत जी से प्रेरित होकर 20-25 साहित्यकार लूशून के अंतिम निवास स्थान और म्यूजियम देखने गए। जितना भव्य घर ,उससे ज्यादा उनका म्यूजियम। उनके टेबल ,लेख ,किताबें ,शयनकक्ष ,लूशून की अपने मित्र-मंडली के साथ बैठी मोम की बनी जीवंत मूर्तियाँ। उनकी रिकोर्डेड आवाज सुनने के लिए भी सरकार ने शुल्क लगाया है। उद्भ्रांत जी के शब्दों में , अगर किसी लेखक को सही अर्थों में सरकारी सम्मान मिला है तो वह है लू-शून। विश्व की किसी भी सरकार ने शायद ही इतना बड़ा सम्मान किसी लेखक को दिया होगा। लू-शून के वहाँ से लौटते लौटते बारह बज गए थे।

 

शंघाई में हम जिस होटल में रुके थे ,वह थी 'होटल हॉलिडे इन एक्स्प्रेस'। होटल के सामने बस आ चुकी थी। सभी ने अपने सामान रखकर बस से जाते हुए पूर्व निर्धारित इंडियन रेस्टोरेन्ट में खाना खाकर सड़क के किनारे भावतोल वाली 'फेक' बाजार से छोटी-मोटी खरीददारी किसी ने घड़ी तो किसी ने सूटकेस खरीदा। बहुत ज्यादा बारगेनिंग की जा सकती थी। मैंने भी दोनों बेटों के लिए दो जी-शॉक वाली घड़ियाँ खरीदी।खरीददारी के शौकीनों का स्वर्ग है शंघाई। मॉर्डन फैशनेबल वस्तुओं की खरीदारी के लिए नॉनजिंग रोड और क्वाई रोड उपयुक्त है। जबकि सभी खरीददारी के लिए सिचुआन नॉर्थ रोड जाया जा सकता है।

अब बस का रुख पुडोंग एयरपोर्ट की तरफ। पौन घंटे का रास्ता था। एलिस ने एक चीनी गीत सुनाया और बदले में निमिष श्रीवास्तव ने उसकी पसंद - आमिरखान की हिन्दी फिल्म का गाना सुनाया। वह कहने लगी , " जैसे इंडिया में चीन के हीरो जैकी शैन ,ब्रूसली विख्यात है , वैसे ही चीन में इंडिया के हीरो शाहरुख खान व आमिरखान प्रसिद्ध है। चीन में आमिर खान की फिल्म 'थ्री ईडियट' तथा शाहरुख खान की फिल्म 'डॉन' बहुत चली। इंडिया की हिरोइनें बहुत खूबसूरत होती है ,खासकर उनका गोल-गोल चेहरा और बड़ी-बड़ी आँखें , नाक-नक्श ,सुगठित शरीर सुंदरता का एक मानक पैमाना है।"

पुडोंग इन्टरनेशनल एयरपोर्ट नजदीक आने लगा था। एलिस भी नीना की तरह भावुक होने लगी थी। कहने लगी , " हो सकता है , आप लोगों से कभी जीवन में मुलाक़ात हो जाएँ। हो सकता है ,कभी मैं इंडिया आ जाऊँ। और अगर आप कभी चीन आए तो मुझे अवश्य फोन कीजिएगा। उस समय मैं गाइड नहीं हूंगी। आप मेरे मेहमान होंगे और मैं आपकी मित्र।"

वक्त तेजी से स्मृतियों के पंख फैलाए उड़ता जा रहा था। धीरे-धीरे चीन की यादों का धुंधलका मस्तिष्क के किसी कोने में संस्कार बिन्दु बनने जा रहा था और किसी दूसरे कोने से पैदा हो रही थी मातृभूमि में लौटने की प्रगल्भ चाह। "जननी जन्मभूमि स्वर्गाद्पि गरीयसे"। स्वर्ग से भी बढ़कर है मेरी जन्मभूमि। जहां आजादी है ,अपनापन है ,अपना घर है , अपना परिवार है। सब अपने ही अपने है। चीन अवश्य अच्छा लगा , मगर मेरा भारत और ज्यादा अच्छा। भारत की देवभूमि में पाँव रखते ही ऐसा लगा कि समय करवट बदलेगा और सतयुग की तरह एक बार फिर भारत 'विश्वगुरु' बनकर सारे संसार में शांति ,ज्ञान और मानवधर्म की स्थापना करेगा।

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: दिनेश कुमार माली का यात्रा संस्मरण - चीन में सृजनगाथा डॉट कॉम
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