राजेन्द्र सारथी की कविताएँ

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राजेन्द्र सारथी     वचन तोड़ चंपा   उसने ताजिंदगी मेरे साथ चलने का वचन लिया था वचन अपनी जगह कायम हैं पर वह वचनों को भूल गया कहते हैं भूल-चूक...

राजेन्द्र सारथी
 

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वचन तोड़ चंपा
 
उसने
ताजिंदगी मेरे साथ चलने का वचन लिया था
वचन अपनी जगह कायम हैं
पर वह वचनों को भूल गया
कहते हैं भूल-चूक माफ होती है      
सो किसी ने आज तक उसे कोई सजा नहीं दी
निकम्मापन और बेशर्मी न लादने का
न उसने कभी वचन दिया
न उसने कभी शराफत का लवादा ही ओढ़़ा।

शास्त्रों में कहा गया है-
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी
तो वह शास्त्रों की बात मानता था
मेरी बेरहमी से पिटाई करता था।

बड़ी-बूढ़ी कहती हैं-
घर पर मर्द का साया हो तो
औरत की लाज-शरम ढंकी रहती है
किन्तु जो नशे में बेहोश रहे
अपने चेहरे की मक्खियां तक न उड़ा सके
वह क्या किसी की लाज शरम बचायेगा!

उस दिन
लाज-शरम का पल्लू कमर में खौंसकर
सास की गोदी में
डेढ़ साल के मटरू को देकर
निकल गई थी मैं भी बाहर
कामवाली बनकर
सास भी कभी काम वाली थी
बहू भी काम वाली बन गई
सुना है मटरू का निकम्मा बाबा
मरते समय भी नशे में धुत था
उसके बेटे के भी वही हालात बन रहे हैं।

रिश्ते दोनों तरफ की समझदारी से दृढ़ होते हैं
बेमन एकतरफा रिश्ता ढोना
आत्महत्या है
दीमक खाई जड़ों वाला पेड़
सूखता ही सूखता है।
जब मुझे काम वाली बनकर ही जीना था
तो निकम्मे शराबी पति के लिए क्यों जीती
उस सास के लिए क्यों जीती
जिसने अपने बेटे को आदमी बनाने की जिम्मेदारी नहीं निभाई
मैंने अपने मटरू के लिए स्वच्छंद जीना स्वीकारा।

आज मेरा बेटा एम. लाल
नेवी में चुन लिया गया है
धन्य हो गई मैं
मेरा घर छोड़ने का निर्णय
एकदम सही रहा
बच्चों को संस्कार देने के लिए
संस्कारी नकर जीना पड़ता है
निकम्मे शराबी पति का मुझे
कोई अता-पता नहीं
पर मैं वचन तोड़ चंपा आज खुश हूं
बहुत खुश।
 
 
 
चिरनिद्रा से पूर्व
 
चिरनिद्रा से पूर्व
अर्द्धचेतन अवस्था
पलंग से मुझे जमीन पर उतारा गया
गवाक्ष में बैठा कबूतर गुटरगूं में लीन था
पंडित गरुड़ पुराण का पाठ कर रहा था
मुझे कुछ-कुछ गुनगुनाहट-सी सुन पड़ रही थी
कबूतर उड़ गया
मैंने हाथ और पैर की अंगुलियां चला कर देखीं
कोई हरकत नहीं हुई
मैं अपलक देखे चले जा रहा था
यकायक मेरे सामने परिवारजनों की भीड़ लग गई
भाई-भतीजे, बहुएं
लड़के-लड़कियां, भांजे-भांजियां
सब लोग हाथ जोडे़ खडे़ थे
जैसे मूर्ति विसर्जित करने आए हों
पत्नी ने मेरे मुंह को गंगाजल से धोया-पौंछा
दूल्हे को मोहर पहनाने की प्रक्रिया में यही होता है
दो चम्मच गंगाजल मेरे मुंह में भी डाला गया
मैंने गंगाजल गटक लिया
मुझे आश्चर्य हुआ
मेरे अंग तो काम ही नहीं कर रहे थे!
शायद ठस्के के डर से
शरीर की बची-खुची ऊर्जा
गंगाजल को गटक गयी थी
डब-डब आंखों से पत्नी बोली--
गैया दान कर दई है....
कछू और इच्छा हो तौ बोलौ...
पहुंच कैं मेरौ हू बुलउआ भिजवइयौं....
मैंने कहा था--
मृत्यु के बाद हम
किसी के लिए कुछ नहीं कर सकते
दुआ तक नहीं
चूंकि हम हम नहीं रहते
क्षार-क्षार होकर
विलीन हो जाते हैं
भूमंडल के पंचभूत तत्वों में
पर यह क्या!
मेरे तो होंठ ही नहीं हिले
मुख ही नहीं खुला
कोई आवाज ही नहीं निकली
गवाक्ष खाली था
मेरी आंखें निद्रा से बोझिल होकर मुंद गईं
मुझे सामूहिक रुदन का स्वर सुनाई पड़ने लगा
और जैसे मैं उस स्वर से दूर और दूर होता चला गया।
 
 
 
डिंपल वाली वह लड़की
 
पहले उठान की उम्र में
सबकुछ मीठा-मीठा लगता है
गीत-संगीत
किस्से-कहानियां
चुहलबाजी करना
नई-नई कल्पनाएं करना
किसी की छुअन से देह का पुलकना
सपने बहुत मीठे-मीठे आना
साफ-सुथरापन मन को भाना
सुन्दर-सुन्दर चीजें संग्रह करना
इस उम्र में
तन बसंती, मन बसंती, मौसम बसंती लगता है।
 
मेरे पहले उठान की उम्र की ही बात है
घर के सामने के मकान में
रहने आया था एक विस्थापित परिवार
बड़ी लड़की प्रोमिला थी मेरी हमउम्र
उसे देखते ही
तन बसंती, मन बसंती, मौसम बसंती हो जाता।

एक दिन मां के आग्रह पर
परीक्षा के  लिए उसे स्कूल छोड़ने जाना पड़ा
रिक्शे पर साथ बैठने पर यूं महसूस हुआ
जैसे समुद्र की लहरों पर सर्फिंग कर रहा होऊं
बाद में उससे बातचीत का सिलसिला चल निकला
एक दिन उसने मुझे एक रंगीन पंख गिफ्ट देकर कहा-
इसे अपनी किताब में रख लेना
इससे विद्या आती है
सुनकर तन बसंती महक उठा
मन बसंती चहक उठा
मौसम बसंती दमक उठा।
 
कालेज में पढ़ने तक वह पंख मेरी किताबों में सुरक्षित रहा
प्रोमिला के परिवार को राजधानी में फ्लैट एलाट हुआ
वे शहर छोड़कर चले गये
प्रोमिला के गालों के डिंपल
आवाज की कशिश
उसके कान के नीचे का काला मस्सा
मेरी यादों में बस गये
जब भी उसकी स्मृति आती
तन गुलाबी मन गुलाबी मौसम गुलाबी हो जाता।
 
एक लंबे अर्से बाद
मैं अपने परिवार के साथ ट्रेन से
पर्यटन से लौट रहा था
टेन में पत्नी
एक हाकर महिला से कंघा खरीद रही थी
मैं सन्न रह गया
वह विभिन्न सामान बेचने वाली औरत प्रोमिला ही थी
पत्नी से पैसे लेकर वह चली गयी
उसने मुझे नहीं पहचाना
मोटा चश्मा और उसके खिचड़ी बाल
मुझसे उसकी पहचान नहीं छुपा सके
उसे देख मेरा तन उदास
मन उदास
और मौसम उदास हो गया।
 
 
मृगया दीदी
 
मृगया दीदी!
तुम इस धरा पर अब किस रूप में हो?
मानवी रूप तो तुम्हारा
जिंदगी की महाभारत लड़ते-लड़ते
अपने परिवार पर खेत हो गया था।
परिवार में तुम बड़ी थीं
कद भी तुम्हारा ताड-वृक्ष की तरह था
तुम्हारे वृद्ध पिता
कविराज सुबोध बनर्जी
हर समय छाती से कफ-गान बजाते रहते
जब तक उनके शरीर में था दमखम
बंगाली समाज में जिजमानी करके
लाते रहे पुष्प भेंट
अशक्त होने पर स्थाई हो गया
बिस्तर और कफ-धुन।

उन्हीं दिनों अध्यापकी में तुम्हारा नंबर आ गया
तुम घर की रिंग मास्टर बन गयीं
जिसका राशन
उसका शासन
तुम्हारे चार छोटे भाई थे
चार छोटी बहनें थीं
बड़ा वाला भाई
रांची में बुआ के यहां चला गया
दूसरे नंबर का भाई
आवारा हो गया
वह छठे-चौमासे
एक-दो दिन के लिए आता
सौ-पचास रुपये खर्च करके
अपनी शहंशाही दिखाता
चला जाता
कलह से बचने को
तुम भीगी चुहिया-सी
उसे देखती-सहती रह जातीं।
 
दीदी!
तुम्हारी मां
थीं तो अनपढ़ पर कुलीन और उदार थीं
तुम उन्हीं की प्रतिमूर्ति गाय बन गई थीं।
 
यकायक
तुम्हारे परिवार में एक सदस्य बढ़ गया
रिश्ते के चटर्जी परिवार का एक युवा
विपिन चटर्जीं
जो उम्र में तुमसे बड़ा था
आकर रहने लगा
वह हमेशा
नौकरी की तलाश में ही व्यस्त रहता
धीरे-धीरे विपिन चटर्जी
परिवार के खास सदस्य हो गये
तुम कोल्हू का बैल बन गईं।
 
तुम्हारे परिवार में दो मरीज थे
एक तुम्हारे बाबा कविराज सुबोध बनर्जी
और दूसरी तुम
तुम टीबी के लक्षणों से ग्रस्त थीं
मरियल चुटैल घोड़ी-सी हिनहिनातीं
फिर मन मसोसकर रह जातीं।
 
दो भाइयों और चार बहनों की पढ़ाई
दस लोगों के परिवार का खर्च
मकान का किराया बिजली का बिल
अपने स्कूल जाने का भाड़ा
तुम हमेशा
तंगहाथ फटीचर भिखारी बनी रहीं।
 
यकायक एक दिन
तुम्हारी मांग में सिंदूर देखकर
हम चौंक गये थे दीदी
हमारी अधेढ़ रूखी-सूखी दीदी
उस दिन तरोताजा
गुलाब-सी
गुलाबी-गुलाबी लग रही थीं
तुम्हारे भाई-बहन
जो विपिन चटर्जी को दादा कहते थे
यकायक उन्हें जीजू कहने लगे थे
सचमुच तुम लजीली दुल्हन बन गई थीं।
 
दो कमरे का किराये का मकान
अंदर वाला कमरा
रसोई के बाद रात को बनता
बहनों का शयनकक्ष
बाहरी कमरे में दोनों भाई और मां-बाबा सोते
बाहरी कमरे के पीछे थी सींखचाबंद बालकनी
तीन फीट चैड़ी और पन्द्रह फीट लंबी
सबने मिलकर
सींखचों को ढका
सजाया बनाया
मिसेज और मिस्टर चटर्जी का हनीमून पिंजरा
दीदी तुम थीं
उस पिंजरे में रहने वाली सोनचिरैया।

उन्हीं दिनों थोड़े अंतराल बाद
तुम्हारे बाबा और मां स्वर्गवासी हो गये
दोनों भाई कमाने लगे थे
आय बढ़ी तो सुख-सुविधा की चाह बढ़ी
वह मकान छोड़ बड़ा मकान किराये पर लिया
तब तुमने बहनों और भाइयों की
शादी करने की जिम्मेदारी संभाली
तुम परिवार के लिए मां कल्याणी बन गयीं।
 
दोनों भाई शादी के बाद
अपनी-अपनी गृहस्थी लेकर अलग हो गये
बहनें शादी के बाद अपने-अपने घर चली गईं
तुम्हारी कोख फल नहीं पाई
इसी बीच तुम भी रिटायर हो गईं
खुल्ल-खुल्ल बीमारी ने
तुम्हें खिसयानी बिल्ली बना दिया।
 
अपने घरौंदे का आनंद लेने को
फंड के पैसे से तुमने जनता फ्लैट लिया
कुछ साल ही सही दीदी
तुमने उस फ्लैट को मन से जीया
कुछ अंतराल बाद दीदी
तुम खांसते-खांसते अपलक हो गईं....
सोनचिरैया-सी फुर्र हो गईं।
 
मृगया दीदी!
तुम इस धरा पर अब किस रूप में हो?
 
 
 
 
बेटियां होती हैं मां की लाड़ली
 
नानी बहुत प्यार करती थीं मां को
हम दोनों बहनों को भी
बचपन में मां की अंगुली पकडे़
चार-पांच बार गयी थीं हम नानी के यहां
नानी हम दोनों बहनों को
विशिष्ट पकवान-मिठाइयां खिलातीं
सहलाकर-पुचकारकर हम पर बहुत लाड़ लुटातीं
मां के बालों में गोले के तेल से चंपी करतीं
घंटों मां के साथ बतियाती रहतीं
तीन-चार दिन बाद जब मां वापस लौटतीं
दाल, चावल, दलिया, गुड़, कपड़े-लत्ते
सौगात के रूप में बांध देतीं
ढेर सारे रुपये भी देतीं
मां हम दोनों बहनों को लेकर
अश्रुपूरित नेत्रों से विदा होतीं।
 
मां जब नानी की उम्र की हुईं
हम शादी-शुदा दोनों बहनें
अपने दो-दो बच्चों के साथ
मां के यहां आतीं
मां भांजे-भांजियों की विशेष खातिर करतीं
विशेषकर दोनों लड़कियों की
बच्चों को रात को मजेदार कहानियां सुनातीं
दोनों लड़कियों को
थपकार-दुलारकर अपने पास सुलातीं
दोनों लड़के हमारे पास सोते
सुबह बच्चों को पार्क टहलाने ले जातीं
मंदिर ले जातीं
लौटते में उन्हें खेल-खिलौने खरीदवातीं
अपने जोड़े गये पैसों से
हम बहनों को खूब शापिंग करातीं
हमारे साथ सिनेमा हाल में एकाध पिक्चर भी देखतीं
तीन-चार दिन बाद जब बहनें लौटतीं
हमारी बिदा के लिए
पिताजी से मां दो हजार रुपये
दोनों भाइयों से पांच-पांच सौ रुपये झटकतीं
हम दोनों बहनों को गद्गद् करके विदा करतीं।
 
पिता और मां की मृत्यु के बाद
बंद हो गया हम बहनों का पीहर आना-जाना
छोटी बहन इंगलैंड जाकर बस गयी
साल छह महीने के अंतराल वाला
टेलीफोनिक संबंध ही रह गया है उससे।
अब मैं नानी की उम्र की हूं
मेरी लड़की स्वीटी
बैंक में मैनेजर है बैंगलूरू में
पति की बैगलूरू में ही
कंप्यूटर हार्डवेवेर की दूकान है
स्वीटी जब कभी
एक दिन को आती है मेरे पास
एक दिन पहले से मैं
तरह-तरह के पकवान बनाने लगती हूं
अफसोस! वे आकर कुछ खाते ही नहीं
जब विदा होती है स्वीटी
मेरी छाती फटने लगती है
रुआंसीं हो जाती हूं मैं
स्वीटी कहती है, मम्मा!....डोंट वीपिंग
मैं जानती हूं
उसका भी हृदय रोता होगा मेरे लिए।
 
विस्थापित होने का दर्द
 
जब कोई दिलों से
घर से
बस्ती से
नगर से
देश से विस्थापित होता है
तो उसके अंतर की नदी में उबाल आता है
उफान आता है
नदी का तरल
भाप होते हुए बादल बन जाता है
नयनों के आकाश में मंडराता है
अंत में वह नयन झील में बरस जा़ता है।
 
अंतर की सूखी नदी
एक बड़ी दरार की तरह रह जाती है खाली
विस्थापित
कभी उस बड़ी खाली दरार को नहीं भर पाता
उस बड़ी और खाली दरार को भरने का मतलब
अंतर की नदी को तरल से फिर लबालब करना
जबकि नदी को लबालब करने के लिए
आंखों में वाष्पीकरण की वही
उल्टी प्रक्रिया अपनानी होगी
जो संभव नहीं।
 
नौकरी
 
बारह हजार वेतन चाहिए!
कहीं तुम नींद में तो नहीं हो?
बारह हजार के कितने पैसे हुए जानते हो?
बारह हजार रुपये मैं जूनियर इंजीनियर को देता हूं
तुम बीकाम पास ही तो हो
तुम्हें करना भी कुछ नहीं है
बस रोजनामचे में खर्चों की एंटरी करनी है
सीए तो तुम हो नहीं! जो आडिट करोगे
अरे भई! बड़ा कौर खाने के लिए
बड़ा मुंह भी तो चाहिए
भई साफ सुन लो मैं तुम्हें आठ हजार दे सकता हूं
काम अच्छा करते रहो आगे तरक्की के रास्ते खुले हैं
मेरे यहां पचास हजार रुपये महीने के भी वर्कर हैं
जैसा काम वैसा दाम
जल्दी बोलो मेरे पास समय नहीं है
मुझे तुम ईमानदार और मेहनती लगते हो
मेरी कसौटी पर खरे उतरे तो
छह माह बाद पांस सौ रुपये बढ़ा दूंगा
जल्दी बोलो करूं फाइनल?
हां, यह बात हुई न समझदारी वाली
बैठे से बेगार भली
तुम्हें यदि कहीं ज्यादा की नौकरी मिले
तो एक दिन का नोटिस देकर छोड़ देना
बताओ और क्या कर सकता हूं मैं
ठीक है तो कल से तुम ड्यूटी पर मुस्तैद हो जाओ
देखो, वर्करों का ड्यूटी चढ़ने का समय सुबह नौ बजे से है
तुम ड्यूटी पर साढ़े आठ बजे आ जाना
सबका टाइम नोट करना
यह बहुत बहुत जरूरी है
इसमें चूक नहीं होनी चाहिए।
 
सर!
ड्यूटी पर रहकर कल मैंने जान लिया
छोटे बड़े कितने वर्कर हैं आपके यहां
सबके नाम और काम का भी पता कर लिया
नान स्किल्ड, स्किल्ड
कमाडिंग और एडमिनिस्ट्रेटिव वर्कर
किसको कितना वेतन देते हैं आप
कितने बैंकों में खाते हैं
कितना काला धन छिपा रखा है
यह सब जानने के लिए
तीन विभागों की संयुक्त टीम
आ चुकी है आपके द्वार पर
संस्थान के अलावा आपके घर पर भी
टीम पहुंच गई है
मैं भी उसी टीम का हिस्सा हूं।
 
 
 
डर
 
कुछ विद्वानों का मानना है
हमारे अंदर एक डर है जो हमें  डराता है
कुछ विद्वान डर की संख्या अनेक बताते हैं।
दूसरे वर्ग के विद्वान कहते हैं
कुछ डर जन्म के साथ आते हैं
अन्य डर जीवन में जुड़ते चलते हैं।
 
उनका मानना है
हमारे कुछ डर हमें नहीं औरों को डराते हैं
हमारे मुखौटे को अत्यंत भयग्रस्त बनाकर
सामने वाला
हमारी निरीहता और भयभीतपन का
खुद को जिम्मेदार मान लेता है
हमें कुछ कहने की बजाय
हमारी तीमारदारी में लग जाता है
ये नकली डर होते हैं
इन्हें परिस्थिति अनुसार प्रयोग किया जाता है।
कुछ डर असली होते हैं
जो हमारे आंत्रिक तंत्र को प्रभावित करते हैं
और कभी-कभी मृत्यु के द्वार तक ले जाते हैं
कुछ डर फसली होते हैं
जैसे बरसात में
मेंढक-सांप, कीड़े-मकोड़ों का डर।
कुछ डर रीजनल होते हैं
जैसे किसी विशेष जीव-जंतु की बहुतायत का आतंक
मौसम का कहर
इस तरह कुछ विद्वान
भिन्न प्रकार के डर बताते हैं।
सवाल यह है
आदमी सर्वाधिक डरता किस डर से है?
यहां लोगों का कहना है
यह आदमी की क्षमता पर निर्भर है
कभी किसी छोटे से डर से बहुत ज्यादा डर जाता है
कभी किसी बड़े डर से बहुत कम डरता है।
यहां मेरा मानना है
हर आदमी मुखौटा पहने हुए है
हर आदमी को अपना मुखौटा
उतर जाने का सर्वाधिक डर रहता है।
 
इतिहास
 
इतिहास
गूंगा-बहरा बेजान होता है
वह खुद निर्मित नहीं होता
उसे दबंग लोग निर्मित करते हैं
उसके खांचे में
कभी झूठ
कभी सच भरते हैं।
 
इतिहास का चेहरा
बनता-बिगडता रहता है
कभी बदसूरत
कभी खूबसूरत होता है
दरअसल वह
बदले हुए शासक की मूरत होता है।
 
इतिहास बोलता नहीं
कोई राज खोलता नहीं
जैसा गढ़ा जाता है
वैसा पढ़ा जाता है
कोई पढ़कर हर्षाता है
कोई गरियाता है।
 
इतिहास समय को ढोता है
अंतराल इतिहास में भ्रामकता बोता है
सुपात्र हाशिये पर ढकेल दिए जाते हैं
कुपा़त्र महिमा मंडित हो जाते हैं
यह सत्ता का खेल है
सच बोलने की सजा जेल है।
 
इतिहास में कभी कौम का मान होता है
कभी शासक का गुणगान होता है
जैसे पतझर के पत्तों का कोई इतिहास नहीं होता
ऐसे ही आदमी के इतिहास में आम आदमी नहीं होता।
 
इतिहास में असली इतिहास लापता है
अध्ययनकर्ता थोथे इतिहास से समाज नापता है
खेमेबाजी है भिन्न इतिहासज्ञों में
हर कोई एकदूसरे पर तेग भांजता है
इंतजार होता है उन्हें अपने विचार की सत्ता का।
 
लोगों ने उसे भगवान बना दिया
 
वह
संकोची, दयालु और सनकी था
घूमता ही रहता था
इस गांव से उस गांव
उस गांव से दूसरे गांव
उसकी चकफेरी
तीसरे-चैथे दिन लग जाया करती
क्षेत्र के हर गांव में
वह न किसी से कुछ बोलता था
न किसी से कुछ मांगता था
किसी ने कुछ दे दिया तो खा लिया
जहां थकान हुई वहीं विश्राम कर लिया।
 
वह किसी को घायल-असहाय देखता
तो जुट जाता उसकी तीमारदारी में
चाहे वह पक्षी हो
जानवर हो या आदमी
मन लगा कर उसकी सेवा करता
आगे की यात्रा कर देता स्थगित
घायल-असहाय के लिए जरूरत की चीजें
आसपास के घरों से मांगने में वह संकोच न करता।
 
वह गांवों के लोगों को
गांवों के घर-दरवाजों को
गांवों के गली-कूंचों को पहचान गया था
क्षेत्र के पक्षी, जानवर, आदमी भी उसे पहचान गये थे
कुछ लोग उसे अर्द्धविक्षिप्त-सनकी मानते
कुछ उसे सूफी-संत मानते
कुछ उसे अघोरी बाबा मानते
दुखदायी उसे कोई नहीं मानता था।
 
उसकी सज्जनता को मान देने के लिए
एक वृद्ध महिला ने उसे अपना बेटा मान लिया
कई और परिवारों ने मिलकर
एक सूनी पड़ी सार्वजनिक जगह को उसका डेरा बना दिया
उसके भोजन-पानी का भार उठाना स्वीकार लिया।
 
डेरे पर वह अधिकतर शांत ही बैठा रहता
गांव के लोग उसे देखते तो जुहार करते
हर रोज शाम को ग्रामीण डेरे पर जुटते
तरह-तरह की चर्चा करते
गांव में किसी हादसे
किसी के हारी-बीमारी से ग्रसित होने
गमी होने की खबर मिलती
तो वह बहुत चिंतित होता
संबंधित परिवार को
यथासंभव उपचार बताता, दिलासा देता
ग्रामीण उसे अपना हितैषी मानते
उसे अपनी व्यथा-कथा बताते
अपने कल्याण की उससे अपेक्षा करते/आशीर्वाद चाहते
उसका बस यही जवाब होता
सबका मालिक एक
साईं सब पर करम करता है।
 
लोग मानते थे कि वह मुसलमान था
उसके संस्कारों में इसकी झलक मिलती थी
कर्म से वह न हिन्दू था
न मुसलमान
सिर्फ इंसान था
वह सबको दिलासा देता
सबका मालिक एक
सबको इंसाफ देता है वह
लोगों ने उसे नाम दे दिया
साईं बाबा।
विभिन्न संयोगों से
लोगों में साईं बाबा के प्रति आस्था बढ़ गयी
लोग उसे सिद्धपुरुष मानने लगे
हर जीव का शरीर क्षय होता है
साईं बाबा का भी हुआ
वे गोलोकवासी हो गये।
 
श्रद्धालुओं ने साईं बाबा की स्मृति में
डेरे को स्मृति स्थान बना दिया
कुछ लोगों ने गणित फैलाकर
समीकरण मिलाकर
उस स्मृति स्थान को मंदिर बना दिया
साईं बाबा को भगवान बना दिया
संबंधित कहानियां गढ़वा दीं
आरती-चालीसा लिखवा दीं
साईं बाबा अवतार घोषित कर दिये गये
गणित फैलाने वालों के परिवार
इस भवसागर से
स्वर्ण-तरी पर बैठकर तर गये
जो मौजूद हैं वे मौज ले रहे हैं।
 
प्रभुजी!
 
प्रभुजी!
मेरे द्वारे से कोई याचक वापस न जाये
सभी को मैं कर्ज दे सकूं
ऐसी कृपा बनाये रखो
याचक के वापस जाने पर
आपके प्रति मेरा
विश्वास डगमगाने लगता है
प्रायश्चित रूप में
मुझे विस्मरण के लिए बैठना पड़ता है।
 
प्रभुजी!
आपसे झूठ नहीं बोलूंगा
हेराफेरी मैं सिर्फ अनपढ़ों के साथ करता हूं
साक्षर लोग तो जितना कर्ज मांगते हैं
आग्रह करके उससे अधिक ही देता हूं उन्हें
कर्ज का मकड़जाल
घनीभूत और मजबूत करने के लिए
बहुत जरूरी है यह सब करना।
 
प्रभुजी!
यकीन करें
प्रायश्चित में मैं
किसी प्रकार की कोताही नहीं करता
नियमित रूप से प्रातः चार बजे
श्यामजी के मंदिर में दीपक जलाता हूं।
 
प्रभुजी!
आप महान हैं, दयालु हैं
मेरी गलतियों को
क्षमा करते आये हैं
करते ही रहियेगा।
 
प्रभुजी!
मुझे निरोगी रखिये
जिससे मैं गाय को रोटी
कुत्ते को बोटी
नियमित खिला सकूं
स्थानीय रामलीला का अध्यक्ष पद
चिरकाल तक सुशोभित कर सकूं
धार्मिक संस्थाओं के चंदे नियमित पहुंचा सकूं।
 
प्रभुजी!
पत्नी का ध्यान धर्म-कर्म में ही लगा रहे
ऐसी कृपा बनाये रखिये
बेटे को नये जमाने की हवा न लगे
उसे मेरा कर्ज का मकड़जाल भाये
वह मेरे हुनर को आगे बढ़ाये।
 
प्रभुजी!
साष्टांग प्रणाम
संध्या-बाती कर ही चुका हूं
बाहर दरवाजे पर कोई याचक आया है शायद
सुबह चार बजे श्यामजी के मंदिर में
आपसे पुनः भेंट करूंगा।

COMMENTS

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: राजेन्द्र सारथी की कविताएँ
राजेन्द्र सारथी की कविताएँ
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