राजेश कुमार पाठक का आलेख - नोटा : चुनाव और मतदान के परिपेक्ष्य में एक विश्लेषण

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    क्या कभी ऐसा प्रचारित किया जाता है, जो कि नियम है कि अगर कोई उम्मीदवार पसंद नहीं है तो उसके लिए नोटा (None of the above) बटन दबाएं परंत...

    क्या कभी ऐसा प्रचारित किया जाता है, जो कि नियम है कि अगर कोई उम्मीदवार पसंद नहीं है तो उसके लिए नोटा (None of the above) बटन दबाएं परंतु याद रहे आपके इस वोट की गिनती तो की जाएगी परंतु वह परिणाम को प्रभावित नहीं करेगा क्योंकि अभी भी आम लोगों में यह धारणा बनी है कि 'नोटा बटन' दबाने से उनकी पसंद की न केवल गिनती होगी वरन् चुनाव परिणाम को प्रभावित करने वाला होगा।
    परंतु यह सत्य नहीं है। अगर नोटा में कुल वैद्य मतों में 50 प्रतिशत से अधिक मत पड़ते भी हैं तो वहां चुनाव में नोटा को सर्वाधिक प्राप्त मतों के आधार पर चुनाव को रद्द न कर द्वितीय स्थान प्राप्त उम्मीदवार को वास्तव में प्रथम स्थान मानते हुए विजयी घोषित कर दिये जाने का प्रावघान है। इसे दूसरे रूप में कह सकते है कि नोटा में प्राप्त मत की 'वैधानिक भार' (legal weightage) शून्य है। मतदाता जब मतदान केन्द्र पर पहुंच कर सभी औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद भी अपना मत देने से इंकार कर जाता था (धारा 49 (0) ) तो वैसी परिस्थिति से निबटने के लिए प्रेसाइडिंग आफिसर उसके नाम /हस्ताक्षर के समीप अभियुक्ति स्तंभ में 'refused to vote' अंकित कर देता था और फिर उसी कमांड पर वोटिंग लाइन में खड़े अगले व्यक्ति को मत देने के लिए औपचारिकता पूरी करता था। कहा जाता है कि इस कमी को दूर करने के लिए ही नोटा लाया गया क्योंकि उसकी व्यवस्था उसी धारा 49 (0) में 'refused to vote' को हटा कर नोटा की व्यवस्था की गयी है।
    क्या यह सहज भाव से हम स्वीकार करने की स्थिति में है कि किसी मतदाता को बैलेट कमांड मिल जाए और वह आज की वर्तमान चुनाव व्यवस्था / कानून में वह बटन दबाने से इंकार नहीं करें ? ऐसी स्थिति तो सदैव बनी रहती है जिन्होंने यह मान लिया है कि उन्हें ऐसा करना (voting refuse) करना है। सच कहा जाए तो 'refused to vote' का विकल्प नोटा नहीं हो सकता।
    वास्तव में हमें 'refused to vote' करने वाले मतदाताओं का चुनाव बाद observation करना चाहिए कि आखिर वह कौन से कारक है जब एक मतदाता मतदान करने के लिए बूथ पर तो पहुंचता है, सारी औपचारिकताएं भी पूरी करता है परंतु बैलेट का कमांड मिलते ही मत देने से ही इंकार कर जाता है, यद्यपि ऐसे मतदाताओं की संख्या नगण्य या नहीं के बराबर है तथापि अगर चुनाव प्रक्रिया के सुधार के अंतर्गत हम वोटर च्वाइस को सीमित करते हुए उन्हें मतदान में वस्तुतः भाग लेने हेतु नोटा का विकल्प प्रदान करते भी है तो उन्हें तो यह ज्ञात होने ही लगा है कि नोटा में मत देना तो मूल्यहीन और प्रभावहीन है। ऐसी स्थिति में यह सवाल सर्वदा अनुत्तरित रह जाता है जिसको मुख्य आधार मानकर 'refused to vote' के विकल्प के स्थान पर नोटा की व्यवस्था की गई कि कोई मतदाता बैलेट कमांड मिलने पर भी प्रेस बटन दबाएगा ही। वस्तुतः देखा जाए तो 'refused to vote' का विकल्प नोटा नहीं हो सकता।
    यहां यह उल्लेखनीय है कि मतदाताओं के मतदान प्रक्रिया में वस्तुतः भागीदारी के लिए उन मतदाताओं का  विशेष observation एवं साक्षात्कार करना चाहिए एवं उनके द्वारा अपनायी जानी वाली उस नकारात्मक प्रवृत्ति पर एक संक्षिप्त ही सही पर शोध किया जाना चाहिए एवं उन वास्तविक कारणों को ढूंढ़ा जाना चाहिए, जो उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य करते है, तदुपरांत एक सर्वमान्य मानक तय करके तदनुसार निर्वाचन प्रक्रिया में आवश्यक सुधार पर संवैधानिक मुहर लगायी जानी चाहिए।
    मत देने से इंकार कर गए मतदाताओं का सही-सही पर्यवेक्षण, साक्षात्कार एवं शोध किये जाने पर निम्न चार स्थितियां सामने प्रकट होती है जो उन्हें मतदान कक्ष में पहुंचकर भी मतदान करने की अनिच्छा का भाव प्रदर्शित करता है-
    प्रथम, अत्यधिक चिंतनशील परंतु भ्रमित होने के कारण किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में अंतिम फैसला नहीं कर पाने की स्थिति में।
    दूसरे, मतदाता की लगभग मानसिक दिवालियापन की अवस्था ।
    तीसरे, मतदाता को सरकारी एवं संवैधानिक व्यवस्था में अवरोध डालकर अपने व्यक्तित्व की प्रधानता दिखाना ।
    चौथा, वास्तविक व्यवहारिक ज्ञानानुभवों के कारण वे अंतिम घड़ी में यह निर्णय ले पाते है कि मतदान हेतु उम्मीदवारों के एक भी विकल्प सुग्राह्य नहीं है।
    उपर्युक्त प्रथम और अंतिम कारणों से उत्पन्न संकट को निबटाने हेतु नोटा भले ही 'refused to vote' का विकल्प हो सकता है परंतु दूसरे एवं तीसरे कारणों से प्रभावित मतदाताओं की स्थिति में हम नोटा को उसका विकल्प कैसे मानें ?
    यहां यह उल्लेखनीय है कि दूसरे और तीसरे कारणों से प्रभावित व्यक्तियों द्वारा अगर बिना कोई तार्किक एवं सदाशयता के मतदान केन्द्र पर मत डालने से पूर्व सारी औपचारिकताएं पूर्ण करने के बाद मत देने से इंकार करने की बात की जाती है तो उसकी इस गतिविधि को मतदान प्रक्रिया में बाधा पहुंचाना मानते हुए दंड का प्रावधान तय हो एवं यह निर्णयण का अधिकार गश्ती दल के दंडाघिकारी /माइक्रो ऑव्जर्बर आदि को प्रत्यायोजित की जा सकती है जिनके प्रतिवेदन के आधार पर दंड संबंधी कार्रवाई की जा सके और तब पीठासीन पदाधिकारी द्वारा उनके हस्ताक्षर / नाम के सामने अभ्यिुक्ति वाले स्तंभ में 'refused to vote without any explicit and bonafide ground अंकित कर दिया जाना चाहिए। इतना ही नहीं ऐसी भी परिस्थिति आ सकती है जबकि किसी गर्भवती महिला का मात्र प्रेस बटन से ठीक प्रेस करने से पहले miscarriage हो जाए और वह मत देने की स्थिति में न रह जाये या फिर वैसे कोई अन्य bonafide आधार जिसके चलते मत डालना या मत डालने के लिए अन्य विकल्पों की इच्छा प्रकट करना भी असंभव हो जाय तो जैसी वास्तव में अवस्था दृष्टिगोचर होती हो वैसी ही अभ्यिुक्ति संबंधित स्तंभ में दर्ज की जानी चाहिए, जो आगे चलकर चुनाव प्रक्रियाओं में सकारात्मक शोध का आधार बन सके। उदाहरणार्थ unable to vote due to miscarriage इत्यादि जैसी अभ्यिुक्ति।
    ऐसी अवस्था में किसी भी परिस्थिति में उनके परिजनों / आत्मजों से उनकी इच्छा प्रकट किये बिना, मत डलवाने से निर्वाचन आयोग के पदाधिकारियों को बचना चाहिए एवं वास्तविक स्थिति को कलमबद्ध किया जाना चाहिए। अतः Election Conduct Rule 1961 की धारा   49 (0) में 'refused to vote' को नोटा से replace नहीं कर नोटा को उसी धारा के Sub Section में स्थान मिलना चाहिए।
    अब तो सही मायने में जनमानस में यह सवाल उठने लगा है वैद्य मतों में 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त होते भी हैं तो उस निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवारों को बहुसंख्यक मतदाताओं ने reject कर दिया ऐसा मानकर उस निर्वाचन क्षेत्र के लिए दुबारा मतदान का ही प्रावधान क्यों नहीं किया जाता है ? और अगर ऐसा नहीं है तो उनके समग्र मतों का मूल्य क्या रह गया जब बहुसंख्यक लोगों ने सही मायने में नोटा को वोट करके अन्य उम्मीदवारों को reject कर दिया हो ?
    पाकिस्तान में तो right to reject को अपना लिया गया है यद्यपि इस आधार पर वहां पर अब तक एक भी मतदान संपन्न नहीं हुआ है।
    अब जबकि राजनीति में अपराधियों एवं अपराधियों के राजनीतिकरण जैसे विषय को समाज एवं नागरिक का एक बड़ा समूह कुछ वर्षों से उम्मीदवारों के चुनने के सीमित अधिकारों का प्रयोग करते-करते थक चुका हो, तब ऐसी परिस्थिति में नोटा के विकल्प 'राजनीति के शुद्धिकरण' एवं उसे मूल्य आधारित बनाने में मील का पत्थर साबित हो सकता है, शर्त यह है कि इसे परिणामदायी एवं प्रभावी घोषित करना होगा।
जो व्यक्ति या समूह यह तर्क देते हैं कि इस व्यवस्था को परिणामदायी बना दिये जाने से देश की राजनीति एवं प्रशासनिक व्यवस्था में अस्थितरता आ जाएगी, तो मैं उनके तर्क को अत्यधिक अतिवादी मानता हूँ क्योंकि कारण स्पष्ट है कि पिछले चुनावों में इसका प्रयोग हो चुका है एवं मात्र एक निर्वाचन क्षेत्र (छतीसगढ़) में ऐसी स्थिति आयी जहां कि नोटा को 50 प्रतिशत से अधिक मत पड़े।
यहां यह भी ध्यान देने योग्य बातें है कि अधिकांश नागरिक किसी न किसी राजनीतिक दल के विचार धाराओं से प्रभावित एवं उससे संबंद्ध होते है जिसके चलते भी आमतौर पर अपने उम्मीदवारों को मत देना मुनासिब एवं उचित समझते हैं। परंतु यह विकल्प, नोटा, निश्चित रूप से rarest of the rare cases में मतदाताओं का एक शक्तिशाली जनतांत्रिक हथियार के रूप में काम करेगा एवं सभी राजनीतिक दलों द्वारा कोशिश की जा सकेगी कि नागरिकों से क्यों नहीं Pre consent ले लिया जाय ताकि rejection का दंश नहीं झेलना पड़े। ऐसा करने से तब जाकर नये राजनीतिक अधिकार “ Right to consent of voters in selecting candidates”  का भी उदय हो सकेगा जो निश्चित रूप से लोकतंत्र की जड़ को और भी गहरा करने में अपनी प्रभावी भूमिका निभा सकेगा।
नोटा को प्रभावी मात्र बना देने से हर राजनीतिक दल हर संभव यह प्रयास करेंगे कि दल के उम्मीदवार खड़ा करने से पहले बहुसंख्यक लोगों की राय जान लें एवं अपने स्तर से भी वे चाहेंगे कि उम्मीदवार स्वच्छ छवि, ईमानदार छवि, नये विजन, संवेदनशील आदि गुणों से युक्त हों ताकि मतदाता को मत डालने में समुचित निर्णय लेने में परेशानी ना हो।
इस प्रकार हम कह सकते है कि नोटा को प्रभावकारी बना देने से अर्थात मतदाताओं को Right to reject प्रदान कर देने से राजनीति के शुद्धिकरण का एक नया दौर शुरू हो जाएगा जो देर या सबेर राजनीतिक, प्रशासनिक संवेदना एवं प्रजातांत्रिक संरचना को मजबूती प्रदान कर सकेगा अन्यथा नोटा जैसी यह प्रभावहीन व्यवस्था भारत जैसे सबसे बड़े लोकतांत्रिक दश के लिए प्रजातांत्रिक हास्य (Democratic Laughter) या (Democaratic ridiculism) ही कहलायेगा।


राजेश कुमार पाठक
सांख्यिकी पर्यवेक्षक, सदर प्रखंड़ गिरिडीह
सह निदेशक कार्मिक, साहित्य दर्पण तंत्र, गिरिडीह
गिरिडीह-815301
झारखंड़

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: राजेश कुमार पाठक का आलेख - नोटा : चुनाव और मतदान के परिपेक्ष्य में एक विश्लेषण
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