रचनाकार के पाठकों को नववर्ष का उपहार : विख्यात कथाकार हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार

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रचनाकार के पाठकों के लिए नववर्ष-उपहार स्वरूप, प्रसिद्ध कथाकार, हरि भटनागर का पहला, सद्यः प्रकाशित उपन्यास - "एक थी मैना एक था कुम्हार&q...

रचनाकार के पाठकों के लिए नववर्ष-उपहार स्वरूप, प्रसिद्ध कथाकार, हरि भटनागर का पहला, सद्यः प्रकाशित उपन्यास - "एक थी मैना एक था कुम्हार" धारावाहिक रुप में प्रस्तुत है. पेश है पहली किस्त.

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नीम का एक विशाल पेड़ है। काफ़ी घना। डालें इसकी चारों तरफ़ बाँहों की तरह फैली हैं। ऊँचाई भी इसकी देखते बनती है।

इस पेड़ के नीचे फूस का एक झोपड़ा है जिसमें एक कुम्हार अपनी पत्नी और एक बच्चे के साथ आबाद है। पास ही उसकी थोड़ी-सी ज़मीन है जिसमें वह खाने भर का अन्न उगा लेता है। खेती के काम से जो भी वक़्त मिलता, वह कुम्हारी का काम करता है, यानी घड़े बनाता है, कुल्हड़, दीये, सकोरे और गुल्लक। ज़्यादातर वह कुल्हड़ और घड़े बनाता है। इन कामों के लिए वह दूर से मिट्टी लाता। उसे कूटता, साफ़ करता, भिंगोता और फिर चाक पर धरता। इन कामों में उसकी घरवाली बराबर से उसकी मदद करती है। बच्चा, गोपी अभी छोटा है, खेल में लगा है। छः साल का बच्चा भला क्या काम करेगा! हाँ, जानवरों में उसके पास नाटे क़द का एक गधा है जिससे वह हर तरह का काम लेता है। मिट्टी काढ़ने से लेकर गलियों-बाज़ारों में माल-असबाब बेचने तक का काम। गधा इंतहा सीधा और समझदार है। ज़रा भी गधापन नहीं दिखलाता। कुम्हार ने उसका नाम ‘बड़े मियां’ रखा है जिसे वह ख़ूब अच्छे से समझता है। सिधाई का आलम यह है कि गोपी तक उसकी पूँछ से खेल लेता। गोपी जब उसके साथ खेलता, उसका समूचा शरीर रोमांच से भर उठता, आँखें चमकने लगतीं, शरीर में फुरैरी तैर जाती। सोचता, काश! बच्चे को वह अपनी टाँगों से पीठ पर बैठा पाता! कुम्हार उसे खूँटे से कभी नहीं बाँधता। झोपड़े के पीछे छोटी-सी एक सार है, वही उसका ठीहा है जहाँ घास-फूस, चोकर, रोटी जो भी चीज़ उसे दी जाती, वह उसी में मगन हो जाता। हाँ, जब चाँदनी रात अपनी जवानी पर होती या गर्मियों में धूप बौराती, वह अपनी मित्र को सी-पो, सी-पो के राग से याद करता जो कहते हैं, दूर के किसी गाँव में रहती है। हो सकता है, वह भी सी-पो, सी-पो का जवाब देती होऋ लेकिन बड़े मियां के कानों में कभी उसकी गूँजती-मीठी आवाज़ आ नहीं पाई...

कुम्हार को इधर कई दिनों से रोज़ाना अज़ीब तरह के सपने आ रहे हैं। सपने में दिखता, काले रंग की कोई गज़ब की सुंदर, चमकती आँखों वाली चिड़िया है जो नीम के पेड़ पर आई है, एक डाल से दूसरी डाल पर उड़कर बैठते हुए ऐसे कूकती कि उसे देखते रह जाने का मन होता! उसकी कूक में एक दर्द है जैसे कोई क़िस्सा सुना रही हो कि उसके साथ किसी ने ज़ुल्म किया है, उसके मैना को जो बहुत ही सुरीला गाता था, उससे छीन लिया है। ऐसा भी दिखता कि चिड़िया उसे अपने पंखों पर बैठा लेती और दूर-दूर की सैर कराती। घने जंगलों के अंदर से होते हुए वह आसमान की नीलाहट में उसे ले जाती और नदी के पारदर्शी जल में अपनी छाया के साथ उड़ती जाती। लगता एक दूसरी चिड़िया भी है जो उसके समानांतर उड़ रही है। चिड़िया उससे हिल-मिल गई है कि दूर कहीं जाना नहीं चाहती। वह कभी उसके सिर के छोटे-छोटे गझिन बालों में पंख पसार के आ बैठती, कभी कंधे पर आ बैठती, कभी हथेली पर। ऐसे बात करती मानों चिड़िया न हो, स्त्री हो।

सुबह उठते ही वह अपनी पत्नी को ये सपने सुनाता तो वह ख़ूब हँसती। कहती- कहीं कोई कुम्हारिन तो डोरे नहीं डाल रही है!

-चल हट, ठिठोली मत कर।

-क्यों? ऐसा तो तभी होता है जब आदमी किसी के चक्कर में फँसता है।

-तुझे कैसे पता? क्या तू पड़ चुकी है?

-हाँ, मैं पड़ चुकी हूँ।

-कौन है वह ख़ुशनसीब?

-है कोई बुद्धू, घने काले बालोंवाला जो सुंदर-सुंदर घड़े बनाता है और बड़े मियां की सवारी करता है।

-चल हट, झूठी कहीं की। तू मुझे प्यार नहीं करती- यह बात मेरी समझ में आ गई है।

-जब तू किसी के चक्कर में आ गया है तो मैं भी किसी के जादू में हूँ- वह हँसी-बात बराबर हो गई।

कुम्हार गहरे सोच में डूब जाता। उसका तो किसी से कोई चक्कर नहीं, फिर ये सपने क्यों?

ऐसी ही एक सुबह जब वह गहरे सोच में डूबा था, उसे किसी चिड़िया की गूँजदार कूक सुनाई दी। उसे अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ क्योंकि ऐसी कूक तो उसे सपने में सुनाई पड़ी थी, कहीं यह सपना तो नहीं? लेकिन यह सपना नहीं, हक़ीक़त था। एक काले रंग की बड़ी-सी चिड़िया थी जो नीम के इस घने पेड़ पर कई दिनों से बसेरा डाले थी और इस डाल से उस डाल पर उड़ते हुए गूँजती आवाज़ में कूकती जाती। उसकी कूक ऐसी जैसे कोई शोकाकुल कण्ठ हो।

कुम्हार ने काफ़ी ग़ौर से देखा इस चिड़िया को। अरे, यह तो मैना है! मैना!!! और वह ख़ुशी से चहक उठा। उसने पत्नी को आवाज़ दी। गोपी को आवाज़ दी। बड़े मियां को आवाज़ दी। पत्नी दौड़ी आई और बच्चा। बड़े मियां खाने में लीन थे। वे टस से मस न हुए।

-तो ये है मामला!-पत्नी हँसी।

वह भी हँसा।

-मुझे तो लगा किसी आसेब में तो नहीं फँस गया। गाँव में तो जादू-टोने और चुड़ैलों का कोहराम मचा है। मैं तो सच में डर गया था...

सुबह का समय था यानी भारी काम का वक़्त। पत्नी को कुएँ से पानी खैंचना था, गोपी को कंचे खेलने थे पड़ोसी श्यामल के साथ। रहा कुम्हार, उसे घड़ों-कुल्हड़ों के लिए मिट्टी लानी थी, सो उसकी तैयारी में लग गया वह।

दोपहर को भारी धूप के बीच वह बड़े मियां की पीठ पर मिट्टी लेकर आया तो पत्नी झोपड़े में बैठी खाने पर उसका इंतज़ार कर रही थी। चूल्हे की म(िम आँच में दाल पक गई थी, अंगारों पर चावल की पतीली रखी थी। बस गर्मागर्म रोटियाँ सेंक के देनी थीं।

कुम्हार कुएँ से पानी खैंच के बदन पर डाल रहा था।

उसके रसोई में आते ही, कुम्हारिन ने चूल्हे पर तवा रख दिया। रोटियाँ सिंकने लगीं।

कुम्हारिन ने जब थाली में दाल, चावल और रोटी सजाकर दी और कुम्हार ने पाँव के पंजे पर थाली रखके रोटी का पहला कौर दाल में डुबोकर मुँह में रखा- वह काली चिड़िया यानी मैना नीम से उड़कर झोपड़े के बाहर आ बैठी, झप्प-से।

पत्नी ने कुम्हार को देखा और कुम्हार ने पत्नी को देखते हुए मैना पर नज़र टिका दी। दोनों को ऐसा लगा जैसे कोई पाहुना आया हो।

कुम्हार ने पाहुने के लिए थाली सजाई। मतलब एक ताज़ा सकोरे में चावल रखे और कुल्हड़ में ठण्डा पानी। थाली मैना के आगे रखी गई।

मैना ने प्यार भरे अंदाज़ से थाली देखी। एक-एक कर सारे चावल खा लिये। अब पानी की बारी थी। पानी में चोंच डाली तो उसे पानी मनमाफिक न लगा। उसने पानी नहीं पिया।

कुम्हार ने कहा- अरबा चावल थे, बढ़िया वाले, आज ही घरैतिन ने निकाले हैं और प्यार से बनाए हैं, थोड़े और खा लो मैना?

कुम्हारिन बोली- तू तो ऐसे कह रहा है जैसे तेरी बात वह समझती हो!

-आदमी से ज़्यादा पंछी समझदार होते हैं, यह तुम जान लो। मैना समझ गई है जो मैंने कहा।

-अच्छा, तू फिर चावल के लिए बोल।

-मैना रानी, कुम्हार ने दूसरे सकोरे में चावल परोसते हुए कहा- दो-चार दाने और खा लो।

मैना ने इसरार का आदर किया। चावल खा लिये। पानी में दुबारा चोंच नहीं डुबोई जैसे कह रही हो, पानी ज़रा भी ठण्डा नहीं, कैसे बर्तन बनाते हो?

यकायक पंखों की हवा करती वह उड़ी और नीम के पेड़ में कहीं जा बैठी।

-यह तो गजब की चिड़िया है- कुम्हारिन बोली-ऐसी चिड़िया तो मैंने कभी नहीं देखी।

-कहीं चिड़िया के भेष में कोई देवी तो नहीं- कुम्हार बोला- जरूर कहीं ऐसा ही रहस है।

***

दूसरे दिन मुँहअँधेरे जब बड़े मियां सी-पो सी-पो की लम्बी टेर देकर चुप हो गए थे, ठीक उसी वक़्त मैना ने मीठे स्वर में गाना शुरू किया। जादुई संगीत था बिल्कुल।

कुम्हार बिस्तर में था, मैना की मीठी तान ने उसे दीवाना बना दिया। पत्नी से वह बोला -सुन रही है तू, मैना कितना मीठा गा रही है कि मन के पंख लग जाएं।

-तो उड़ जा कहीं। पत्नी हँसी।

-बाद में शिकायत मत करना-इसके जवाब में पत्नी कुछ नहीं बोली। कुम्हार ने भी आगे कुछ नहीं कहा।

थोड़ी देर बाद उसने नीम के नीचे दाने छींटे। दो-तीन मटकियों में पानी भरा।

-ताज़ा बर्तनों को क्यों खराब कर रहे हो? इतने तो बर्तन पड़े हैं, किसी में भी भर दो पानी।

कुम्हार ने पत्नी की बात की अनसुनी की। मटकियों में पानी भरने के बाद वह सोचने लगा कि दाने किस बर्तन में रखे जाएँ ताकि मैना सुभीते से चुग ले। ज़मीन में छींटना अच्छा नहीं। वह यह सोच ही रहा था कि उसे दीवाल पर टँगा सूप दिख गया- यह अच्छा रहेगा, आगे से वह इसी में रखेगा।

दाना छींटा हुआ है, मटकियों में पानी भरा है- कब उतरेगी मैना-सोचते हुए कुम्हार ने जब नीम की ओर ऊपर देखा- मैना लहराकर उड़ती चली आ रही थी।

एक-एक कर बहुत सारे दाने मैना ने चुग लिए। पानी के लिए चोंच मटकी में डाली- ओह! गरम पानी! मैना ने जैसे यह उच्चारित किया और मटकी से चोंच हटा ली।

कुम्हार ने ग़ौर किया- ओह! गरम पानी!

-सुन रही है, मैना ने कहा- ओह! गरम पानी! - कुम्हार चाक के पास मिट्टी साफ़ कर रही पत्नी से यह कहना चाह रहा था, लेकिन उसने यह बात नहीं कही। मन में सोचा, इतने ग़ज़ब के मटके बनाने वाला वह क्या ऐसा मटका नहीं बना सकता जिससे इस परिंदे की प्यास बुझे? इसकी शिकायत दूर हो।

-निरा पागल है तू- पत्नी ने झिड़की दी।

-समझा नहीं- कुम्हार ने पत्नी को देखा।

-इसमें समझने की बात क्या है? - पत्नी बोली- शिकायत की बात किससे कर रहा है।

-किसी से नहीं, तूने सुना क्या?

-हाँ, मैंने सुना, तू खड़ा-खड़ा बकबका रहा है, पानी, मटका, परिंदा पता नहीं क्या- क्या!

कुम्हार सिर खुजलाने लगा। ओह!

कुम्हारिन ने माटी साफ़ कर दी थी। उसके आगे का काम यानी माटी रौंधने और चाक पर रख के बर्तन निकालने का काम कुम्हार के मत्थे है। अलाव लगाकर पकाने का काम भी वही करता है।

माटी रौंधकर वह जंगल निकलेगा माटी काढ़ने के लिए। इस काम की ख़ातिर बड़े मियां पहले से तैयार खड़े थे। वह माटी रौंधने लगा। रौंधते-रौंधते ख़्याल आया कि अभी तक वह जंगल से जितनी चाहे मिट्टी काढ़ लाता था, इधर दो माह से बंदिश लग गई है। तहसील के पटवारी ने उसे सख़्त हिदायत दे रखी थी कि कानून के हिसाब से चलो, नहीं, बड़े घर की हवा के लिए तैयार रहो।

यह कानून खदान महकमे का नहीं, स्वयं पटवारी का बनाया हुआ था। एक दिन जब उसे पता चला कि पास के गाँव का पटवारी माटी का पैसा वसूल रहा है, वही नहीं, हर-दूर यही सब चल रहा है तो उसका माथा ठनका- वह इस नेक काम में पीछे क्यों रहे? बस उसने भी माटी पर टैक्स वसूलने की कार्रवाई शुरू कर दी। किसमें हिम्मत है जो पैसा देने से मना कर दे! सरकारी काम है। कोई हँसी-ठट्ठा नहीं- यह काम उसे सौंपा गया है- अब यह उसकी ज़िम्मेदारी है। कोई रसीद-कोई पर्ची नहीं- यह काम विश्वास पर चलता है। पैसा दो, अँगूठा लगाओ और जाओ। इस काम के लिए उसने अपने महकमे के एक बाबू को जोड़ लिया है। बाबू ढीला है, ठेले-ठेले काम करता है, कोई बात नहीं, वह उसे रास्ते पर ले आएगा- मँजा खिलाड़ी बना देगा।

-ऐसे क्या झकलेट की तरह ताक रहा है, बात समझ में आई या नहीं? - पटवारी ने अभी कुछ दिन पहले ही कुम्हार को घेरकर कहा था।

कुम्हार जंगल से माटी काढ़कर लौट रहा था। धूल से लथपथ था और धूप से परेशान। पटवारी की बात उसकी समझ में नहीं आई थी, सिर झटककर बोला -मेरे समझ में कुछ नहीं आ रहा है मालिक, साफ़ बताएँ।

पटवारी ने बाबू को इशारा किया कि वह उसे नये कानून के बारे में समझा दे। बाबू अपनी आदत के मुताबिक पीछे हटने लगा। पटवारी ने उसे आँखें दिखलाईं जिसका मतलब था कि उल्लू तू सुधरनेवाला नहीं। सरकारी काम है इसमें काहे की हिचक।

मन में ग़ुस्सा आया कि बाबू को दो लपाड़े लगाए लेकिन ज़ब्त किया। शांत भाव से कुम्हार को समझाया- अब तक तू यहाँ का राजा था, जितनी चाहता था, माटी काढ़ ले जाता था, अब कानून बन गया है, मतलब महीने-महीने पैसे लगेंगे, समझा?

-यह तो अनर्थ है मालिक? मिट्टी का क्या मोल?

-मिट्टी का क्या मोल! -पटवारी हँसा-तो तू मिट्टी के बर्तन क्यों बेचता है? उससे फ़ायदा क्यों उठाता है?

-मालिक, उस पर तो हम ख़ून-पसीना बहाते हैं। हम तो सिर्फ़ उसका पैसा लेते हैं।

-जब पैसा लेता है तो उसका कुछ महसूल तो भरना होगा। - पटवारी ने कहा- अगर तू बात नहीं मानेगा तो रोएगा, फिर हमसे आगे मत कहना। हम तेरे हितू हैं इसलिए सरेख रहे हैं, समझ गया। दूसरा कोई होता, हम कुछ नहीं बताते, चुप रहते, पुलिस अपने आप सब समझा देती।

पुलिस का ज़िक्र आते ही कुम्हार ने हाथ जोड़ लिए, विनीत भाव में कहा-मालिक, आप जो कहें, हमें मंजूर है, सुभीते का रास्ता सुझाओ न।

-हाँ, अब आए रास्ते पर - पटवारी ने हँसकर कहा- जो कहूँ उस रास्ते पर चलते जाओ...

उस दिन की बात याद करके कुम्हार ने गहरी साँस छोड़ी, बाल्टी में हाथ साफ़ करती पत्नी से कहा- ये पटवारी और बाबू दोनों बहुत बदमाश हैं, पैसा चाहते हैं, इसके लिए गला पकड़ना जानते हैं। ख़ैर, पैसा तो देना होगा, दे देंगे- थोड़ा रुककर उसने आगे कहा- मैंने माटी रौंध दी है, अब जंगल के लिए निकलता हूँ। तू यहाँ का काम देख ले, गोपी को खाना खिला देना...

कहता वह बड़े मियां को चलने के लिए जीभ से चटकारा देने लगा।

बड़े मियाँ आगे बढ़े।

पीछे कुम्हार था, हाथ में पैना लिये जिसे शायद ही कभी उसने चलाया हो।

कुम्हार के बग़लवाला झोपड़ा श्यामल के बाबू का था। टटरा खुला था। झोपड़े में धुआँ भरा था। शायद चूल्हा जल रहा था। झोपड़े के बग़लवाली ख़ाली जगह में गोपी श्यामल के साथ कंचे खेल रहा था। इस वक़्त खेल में दोनों इतने डूबे थे कि कुम्हार की हाँक का उन पर कोई असर न हुआ। कुम्हार ने सोचा, बच्चे हैं खेलने दो, वह भी तो ऐसे ही खेलता था - जब वह यह सोच रहा था तभी श्यामल का बाबू तेज़ी से ऑटो चलाता आता दिखा। शायद वह बहुत जल्दी में था, उसके ‘जय राम’ का उसने जवाब नहीं दिया, ऑटो खड़खड़ाता बग़ल से निकला और अपने झोपड़े के आगे स्टार्ट ऑटो छोड़कर झोपड़े में घुस गया...

कुम्हार ने आगे की राह ली। बाएँ हाथ पर एक लाइन में बीसों झोपड़े थे जिनमें इस वक़्त ताले पड़े थे। चारों तरफ़ गहरा सन्नाटा था। पहले यह जगह कितनी गुलज़ार हुआ करती थी- कुम्हार सोचने लगा- लोग अपने-अपने धंधे में लगे थे और ख़ुश थे और यहाँ डटे हुए थे। इधर आठ-दस साल से पता नहीं क्या हो गया कि लोग झोपड़ों में ताले डालके शहर में छिटक गए। यहाँ बस तीज-त्योहार पर दीये रखने आते हैं। बच्चू, गुड्डू, परसादे, लीला, अरविंद, किसन, बूढ़े काका-काकी सब अब सपने होते जा रहे हैं।

कुम्हार जब-जब यहाँ से गुज़रता, उसका मन भारी हो जाता। इस वक़्त भी उसका मन भारी हो गया। यकायक दो तोते उसके सिर के ऊपर से टाँय-टाँय करते उड़ते निकले कि वह मैना के ख़्याल में डूब गया... उदासी जाती रही।

वह काफ़ी आगे बढ़ आया था और औंधक-नीचे रास्ते पर चल रहा था। रास्ता मैदा होती धूल से भरा था। सीवान से निकलकर वह तकरीबन सूख चुके पानी के गढ़ों के किनारे-किनारे चलने लगा और सोचने लगा कि ऐसा सूखा तो कभी नहीं पड़ा! तीन साल में तो सब सत्यानाश हो गया। ऐसे में क्या खेती हो और क्या लोग पानी पिएं! यहाँ झिरी से छोटे-छोटे गढ़े बन जाते थे- अब झिरी भी सूख गई है, गढ़े ख़तम हो रहे हैं... ख़ैर, बड़े मियां अब आगे बढ़ने वाले नहीं। वे यहाँ जैसा भी है, थोड़ा बहुत पानी पिएँगे, सुस्ताएँगे, फिर आगे बढ़ेंगे। आप उन पर ज़ोर-जबरदस्ती नहीं कर सकते। जानवर भी अपने तरह से ज़िन्दगी जीना चाहता है- यह सोचकर उसने रस्सी छोड़ दी।

बड़े मियां को यह जगह बहुत अच्छी लगती है। छोटे-छोटे पानी के गढ़े जिनमें वह अपने अक्स को देखकर अक्सर सोचते कि उनकी मित्र है जो उनके पीछे आ खड़ी हुई है। धीरे-धीरे वे गढ़े में उतरते -अक्स टूटता दिखता...

अचानक वे दुःखी हो गये - अब पानी ही नहीं रहा, तो काहे के गढ़े और काहे के अक्स!

उन्होंने मुँह चलाकर थोड़ा-सा पानी सोखा-मुँह में मिट्टी ही मिट्टी थी। मुँह बनाकर उन्होंने पानी उगल दिया। आसमान की ओर देखा जैसे कह रहे हों, जानवरों को कहीं तो पीने का पानी दो... फिर उन्हें पता नहीं क्या सूझा, कीचड़ से बाहर निकल आए और जंगल चलने के लिए कुम्हार के पास आ खड़े हुए।

जैसे ही कुम्हार आगे बढ़ने को हुआ, लगा किसी ने उसे आवाज़ दी। आवाज़ बहुत ही मधुर थी। मानो किसी स्त्री ने उसे पुकारा हो- भोला! भोला!! भोला!!!

उसने पलट कर पीछे देखा, कोई नहीं, मैना थी।

-भोला! भोला!! भोला!!! -मैना की ही आवाज़ थी यह!

आश्चर्य-मिश्रित ख़ुशी में बहते हुए कुम्हार ने कहा- अरे, तुम तो इंसानों की तरह बोलती हो!

मैना बड़े मियां की पीठ पर बैठ गई और बोली-हाँ, मैं बोलती हूँ ... हम बहुतेरे पंछी इंसानों की तरह बोलते हैं- दहियल, चंडूल, तोता! इन्हें तो तुम अच्छे से जानते हो।

पता नहीं कैसे यकायक उसे बाज़ दिख गया जो ठूँठ पेड़ के खोखल में घुसा बैठा उसे शिकारी नज़रों से ताक रहा था।

मैना ने तनिक भी देर न की, सपाटे से उड़ी और घनी अमराइयों में खो गई। बाज़ भी बिजली की तरह उसकी तरफ़ लपका।

कुम्हार की जान-सी निकल गई।

***

कुम्हार मिट्टी जरूर काढ़ रहा है, लेकिन दिमाग़ मैना में उलझा है। उसे भय है कि कहीं बाज़ ने उसे दबोच तो नहीं लिया। अक्सर यही होता है कि बाज़ जिसके पीछे लग जाता है उसे किसी न किसी तरह से हासिल कर ही लेता है। भगवान करे बाज़ की मंशा पूरी न हो -गहरी साँस भरता वह सोचता और फिर मिट्टी काढ़ने लग जाता। आख़िर में उसने बहुत थोड़ी-सी मिट्टी ली और झोपड़े की तरफ़ तेज़ी से बढ़ने लगा। वह जल्द से जल्द पहुँच जाना चाहता था ताकि मैना को सकुशल देख सके।

कुम्हार को दरवाज़े पर हैरान-परेशान खड़ा देख कुम्हारिन घबरा-सी गई - अभी तो गए थे, इतनी जल्द कैसे लौट आए, सब कुशल तो है?

कुम्हार हाँफता-सा बोला -मैना!

-क्या हुआ मैना को? -पत्नी शंकित निगाहों से उसे देखती बोली।

-बाज़ था, उसके पीछे लग गया था, मैंने देखा!

-अरे, ऐसे बाज-फाज तो उसे रोज़ घेरते होंगे लेकिन वे उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते!

-तेरी सौंह, मैंने देखा, बाज़ उसकी तरफ़ तूफान की तरह लपका था।

-चिंता न करो, उसको कुछ नहीं होगा। वह जहाँ भी होगी, अच्छी होगी।

-मेरा तो काम में मन ही न लगा, भागा चला आया- एक पल को रुककर कुम्हार आगे बोला-तुम्हें यहाँ दिखी क्या?

-नहीं, मुझे तो नहीं दिखी, कहीं पत्तों में छिपी बैठी होगी- कुम्हारिन ने नीम पर खोजी निगाह डालते हुए कहा।

बड़े मियां की पीठ पर लदी मिट्टी एक तरफ़ गिराकर कुम्हार बिना मुँह-हाथ धोये खाट पर बैठ गया। मैना की चिंता में डूबा।

कुम्हारिन बोली- ऐसे क्यों बैठ गए, जाओ कुएँ की जगत पर पानी धरा है, मुँह-हाथ धो, मैं चबेना लाती हूँ।

कुम्हार कुएँ की ओर बढ़ा तब तक कुम्हारिन ने मौनी में चबेना निकाल लिया था। नमक मिर्च की डिबिया मौनी में रखे जब वह आई, कुम्हार खरैरी खाट पर चित लेटा मैना को खोज-सा रहा था।

जब उसने चबेना मुँह में डाला, बड़े मियां ने ज़ोरों की सी-पो की गुहार लगाई जिसका मतलब था कि क्या मैं बेवक़ूफ हूँ जिसे पानी तक के लिए नहीं पूछा और ख़ुद चबेना झाड़ रहा है... मैं भी तो धूप में तपा हूँ, माटी ढो के लाया हूँ...

कुम्हार बोला- अरे भाई, इसे भी तो दे, देखो कैसी शिकायत कर रहा है, नाराज हो रहा है।

कुम्हारिन ने बड़े मियां को डाँट लगाई- देती हूँ, थोड़ा सबर तो कर। ज़रा भी देर हुई नहीं कि लगता है सिपियाने। इसकी इस आदत से रिस छूटती है।

कुम्हार ने जीभ पर अंगूठे से नमक का स्वाद लेते हुए कहा- आज तो गज़ब हो गया। मैं गढ़ों से आगे बढ़ा ही था कि मैना मेरा नाम लेते हुए बड़े मियां के ऊपर आ बैठी और लगी बतियाने...

कुम्हारिन बड़े मियां के आगे चबेना की डलिया रखती कुम्हार की बात ग़ौर से सुनने लगी।

- मुझे तो लगता है नज़र लग गई उसे। -कुम्हार ने गीली आवाज़ में कहा और सिर थाम लिया। काफ़ी देर तक वह इसी मुद्रा में बैठा रहा, फिर खाट पर लेट गया। हाथ मोड़कर सिर के नीचे रख लिया। उसने कई बार मैना-मैना की गुहार लगाई जिस पर कुम्हारिन नाराज़ भी हुई। उसे समझाया कि वह चिंता न करे, मैना आ जाएगी। पंछी अक्सर संकट में इधर-उधर हो जाते हैं। और फिर जबसे मैना आई है तुम पगला-से गए हो-इतना पागलपन भी अच्छा नहीं। लेकिन कुम्हार की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।

मैना के रंज में वह ऐसा डूबा कि पत्नी के लाख आवाज़ देने पर भी खाब के लिए नहीं उठा। बस ऐसई पड़ा रहा। यहाँ तक कि रात को ठीक से सो नहीं पाया। रह-रह वह घबरा के उठ बैठता और मैना-मैना की हाँक के बाद लेट जाता।

सुबह हुई, फिर शाम। दूसरा दिन हुआ, फिर शाम। इस तरह कई दिन निकल गए। मैना नहीं दिखी तो नहीं दिखी। मैना के ग़म में कुम्हार इस तरह ग़मगीन हुआ कि उसका किसी काम में मन न लगता। न ठीक से खाता न पीता। सारा काम अब कुम्हारिन के मत्थे आ लगा। कुम्हार से कितना बोले, कितना समझाए- सब बेकार था। बड़े मियां का हाल ये था कि जब कुम्हार ग़मगीन था तो वे उससे एक क़दम आगे ही थे। उन्होंने कई दिनों से पानी तक न पिया, चोकर, रोटी-चबेना की बात ही अलग थी।

एक दिन कुम्हारिन रुँधे कण्ठ से कुम्हार से बोली-लगता है, बड़े मियां कहीं निबट न जाएँ। तुमने खाना-पीना क्या छोड़ा, उसने भी छोड़ दिया। वह तो उठ-बैठ भी नहीं पा रहे हैं।

कुम्हारिन की बात का असर था कि कुम्हार जैसे तंद्रा से जागा। वह दौड़ा हुआ बड़े मियां की सार में गया। उनके गले से लिपट गया, रोनी आवाज़ में बोला-बड़े मियां, ऐसा क्या, तूने खाना-पीना क्यों छोड़ दिया?

बड़े मियां के आँसू बह रहे थे गोया भारी दुःख में हों। उन्होंने उसके मुँह पर गर्म साँस छोड़ी।

-हाँ, मैं समझ रहा हूँ, तुझे भी मैना का कलक है लेकिन तू अब ज़रा भी बदमाशी नहीं करेगा, ले, मेरे हाथ से रोटी खा।

जब कुम्हार ने चुमकारते हुए उन्हें अपने हाथ से रोटी खिलाना चाही तो उन्होंने गर्दन झटकी जिसका आशय था कि तू पहले खा फिर मैं खाऊँगा!

अचानक सार के दरवाज़े पर झप्प से मैना आ बैठी और भोला-भोला की टेर लगाने लगी।

बड़े मियां सी-पो, सी-पो की लम्बी गुहार लगाने लगे और ख़ुशी में ज़ोर-ज़ोर से पैर पटकने लगे।

भोला की आँखों में आँसू थे। कुम्हारिन और गोपी भी अपने आँसू रोक न सके।

***

सुबह का वक़्त है। चारों तरफ़ हल्की पीली-पीली धूप फैली है। ठण्डी हवा बह रही है। कुम्हार चाक चला रहा है। कुम्हारिन ने आज मिट्टी रौंधी है और इतनी अच्छी कि मज़ा आ गया। वह बहक-सा रहा है। अभी चाक चलाने से कुछ देर पहले वह नीम से टिककर दो बीड़ियाँ फूँक चुका है। बीड़ी में पता नहीं ऐसा क्या है कि उसका क़श अंदर जाते ही ताक़त-स्फूर्ति आ जाती है। एक बीड़ी ख़त्म की तो दूसरे की तबियत होने लगी। वह दूसरी जला बैठा कि झोपड़े के अंदर से कुम्हारिन की आवाज़ आई- बीड़ी ही सूटता रहेगा कि काम भी कुछ करेगा?

-काम भी करूँगा, तू चिंता क्यों करती है- धुएँ में डूबे हुए उसने ज़ोर से कहा।

-चिंता इसलिए करती हूँ कि तेरी लापरवाही से नुकसान हो जाता है। पिछली दफा गणेश हलवाई ने प्लास्टिक के मग्गे ख़रीद लिए थे, तुझे साफ़ मना कर दिया था कि टाइम पे नहीं आओगे तो नुकसान झेलो।

बात तो सही कह रही है... कुम्हार सोचने लगा, फिर उसने आख़िरी क़श लेते हुए कहा-जान रहा हूँ महारानी, अब ऐसी गलती कभी नहीं होगी, समय से चार दिन पहले काम पूरा हो जाएगा...

-अब तू जान, तेरा काम, मैंने तो सरेख दिया।

चाक के सामने पटे पर बैठकर कुम्हार ने पहले चाक को नमन किया, फिर लकड़ी फँसाकर तेज़ गति से घुमाना शुरू किया।

-ये हुआ कुछ काम- कुम्हारिन की हँसी गूँजी।

वह भी हँस पड़ा। थोड़ी देर बाद जब मैना कूकी, उसने लोकगीत की यह कड़ी गुनगुनाई :

बर जाए जे पन्नो को बजार सखी,

मोरी ननद हिरानी बटुआ-सी।

;अर्थात् पन्ना क़स्बे का यह बाजार जल जाए, फुँक जाए क्योंकि इसमें हमारी बटुआ जैसी ननद खो गई है।द्ध

कुम्हारिन यकायक पास आकर, चुटकी लेती बोली- अब तो तुम्हारी बो आ गई है, अब पन्नो को बजार काहे को जला रहे हो।

कुम्हार हँसता हुआ बोला- बजार रहेगा तो कोई न कोई हिराएगा ज़रूर, इसलिए यह जल जाए तो अच्छा। टंटा तो टूटे।

-बिल्ली के कोसे कहीं छींका टूटता है- कुम्हारिन हँसी।

-बिल्ली कोशिश तो करती है, छींका टूटे न टूटे, यह बात अलग है।

-बिल्ली कोशिश नहीं करती, कोसती भर है।

-तूने देखा है कभी।

-ये लो...

इस बीच रोनी शकल लिए कहीं से गोपी आ खड़ा हुआ।

कुम्हारिन ने पूछा-क्या हुआ? रोनी शकल क्यों बनाए है?

-मैं श्यामल के साथ कभी नहीं खेलूँगा!

-क्या हो गया? उसने तुझे मारा-पीटा क्या?

-नहीं, बो बोलता है मेरे बाबू के पास तो ऑटो है, तुम्हारे पास क्या है?

कुम्हार हँसता बोला-तूने कहा क्यों नहीं कि हमारे पास तो बड़े मियां हैं।

वह बोला- मैंने कहा था तो बो बोला- गधा कहीं आटो का मुकाबला कर सकता है। आटो तो सर्र से दौड़ता है।

-क्या बड़े मियां सर्र से नहीं दौड़ते? ऐसे दौड़ के और सी-पो की आवाज़ आटो निकाल दे तो जो कहे सो हार जाऊँ।

कुम्हारिन बोली- ऊबड़-खाबड़ जगह में, कुलियों में से निकल के दिखाए आटो तो मानूँ?

-मैंने कहा था तो बो मूँ बिराने लगा।

-तू भी मूँ बिरा देता।

-मैंने भी बिराया था, बो बोला कि आज गधे को कोई पसंद नहीं करता, आटो को तो सब पसंद करते हैं।

-अच्छा, तू श्यामल से कह कि ऐसा गधा लाकर दिखा दे तो जानूँ- कुम्हार ने तर्क दिया।

-हेरे नहीं मिलेगा- कुम्हारिन ज़ोरों से बोली- आटो तो बहुत मिल जाएँगे!

गोपी को यह बात जँच गई थी, वह श्यामल को जवाब देने के लिए दौड़ गया।

सहसा बड़े मियां ज़ोरों से सी-पो, सी-पो की गुहार लगा उठे।

-अब इसे क्या हो गया?- कहती कुम्हारिन सार की तरफ़ दौड़ पड़ी।

बहुत देर तक कुम्हार चाक चलाते हुए ताज़ा नरम-नरम कुल्हड़ों की पाँत सजाता रहता। बीस कुल्हड़ों की पन्द्रह पाँत दाईं ओर और पन्द्रह की पन्द्रह पाँत बाईं ओर वह सजा चुका था। इस बीच पेड़ में कहीं छिपी बैठी मैना कई बार तराने छेड़ चुकी थी और कुम्हार का रह-रह मन होता कि उसे हाँक लगाकर बुलाए और पूछे कि तेरे कण्ठ में इतना दर्द क्यों है कि जी रोने-रोने का होने लगता है। मन होता है कि जान दे दें।

सहसा कुम्हार को अपने सिर पर हवा का अहसास हुआ। देखा तो मैना थी जो उसके सिर पर डैना फड़फड़ा के चाक के पास आ बैठा थी। मैना उसे देखते हुए इस तरह बैठी मानों अपने अण्डे पर बैठी हो।

कुम्हार अपने जी की बात पूछना चाह रहा है और मैना है कि आँखें बंद किए चोच डैनों में दुबकाए है। मानों निधड़क हो वह आराम करना चाहती हो।

कुम्हारिन दबे पाँव मुँह पर उँगली रखे आई और आहिस्ते से मैना के आगे अनाज डाल गई। गोपी भी अनाज डालने के लिए कसमसा रहा था लेकिन वह उसे किसी तरह खींचकर ले गई।

दूर पीपल की पुलुई पर बैठी चील जब टिंहिकारी मार के उड़ी, मैना जैसे नींद से जागी। सचेत हुई और पंजों के बल उठ बैठी और टिंहिकारी की ओर गर्दन उठा-उठाकर देखने लगी जैसे कुम्हार से शिकायत कर रही हो कि दुश्मनों को उसका चैन से बैठना भी गवारा नहीं। सब ओर से उस पर निगाह रखे रहते हैं। अब इस दुष्ट चील को देखो। घण्टों से उस पर नज़र रखे होगी। सोच रही होगी कि कब ठण्डी हो, कमज़ोर हो तो उसका ग्रास बने। तुम्हारे पास बैठना तो उसे और भी खल रहा होगा कि यहाँ कैसे आ बैठी। टिंहिकारी से जतला रही है कि मैं तेरे आस-पास ही हूँ, बचके कहाँ जाएगी...

कुम्हार ने जैसे उसका आशय ताड़ लिया, आँखों में सख़्ती लाकर बोला- मैना रानी, तुम निश्फिकर होकर यहाँ बैठो। कोई डरने की बात नहीं। जब तक मैं हूँ, तुम्हें कोई छू नहीं सकता। ये चील खेत ;मृतद्ध जानवरों पर ही मँडराएगी, यहाँ आने की हिम्मत नहीं...

यकायक मैना इत्मीनान से, पसरकर बैठ गई। कुम्हार चाक चलाने लगा। सहसा बाल्टी में हाथ डालकर मिट्टी छुड़ाते हुए उसने मैना से पूछा- कहो तो तुम्हारे लिए बड़ा-सा पिंजरा बनवा दूँ, तुम आराम से उसमें बनी रहो और चहको...

मैना ने कोई जवाब नहीं दिया जिसका मतलब था कि पिंजरा मेरे लिए मौत का बहाना होगा। अगर तुम मुझे मारना चाहते हो तो पिंजरा बनवा दो।

कुम्हार हाथ जोड़ता करुणार्द्र स्वर में बोला- न-न, मेरा मतलब ये ज़रा भी नहीं है। मैंने तो तुम्हारे लिए छाँव चाही थी।

मैना बोली- खुला आसमान मेरी छाँव है, वही सबसे बड़ा पिंजरा है मेरा!- यकायक उसने आसमान की नीलाहट को ग़ौर से देखा, फिर गहरी साँस छोड़ती बोली- हम कभी इस नीलाहट को दूर तक भेद देते थे- कहते-कहते वह अचानक सुस्त-सी पड़ गई जैसे उसे किसी आतंक ने जकड़ लिया हो।

कुम्हार समझ रहा था कि इसके साथ ज़रूर कोई जुल्म हुआ है तभी इसकी आवाज़ दर्दीली और दिल को रुला देने वाली है। नहीं, कण्ठ में ये बात कभी आ ही नहीं सकती! दर्द तो इसकी आत्मा में है जो बेचैन कर डालता है।

यकायक उसका मन हुआ कि पूछे आसमान की नीलाहट को भेदने का रहस। लेकिन वह पूछ नहीं पाया। शब्द जैसे हलक में आकर जकड़ गए थे, बाहर निकल ही नहीं पाए।

धूप तेज़ हो गई थी और नीम के नीचे सिकुड़ रही थी।

-कैसी भी चिलचिलाती धूप हो, हम अगर ज़िद कर लेते तो दूर तक सूरज की ओर बढ़ते जाते, लेकिन सूरज की तरफ़ कभी कोई बढ़ पाया है... मैना ने तेज़ धूप की तरफ़ देखते हुए कहा, फिर यकायक चुप हो गई। थोड़ी देर बाद बोली- मेरा मैना कभी हार मानने वाला पंछी नहीं था और उसने कभी हार मानी भी नहीं- कैसी भी कठोर स्थिति हो, वह उससे जूझता ही था।

कुम्हार चाक रोके, मैना की तरफ़ एकटक देखता उसकी बातों को ग़ौर से सुन रहा था। उसे यक़ीन था कि मैना एक न एक दिन अपने आप उसे मन की बात ज़रूर बताएगी।

-बारिश में उसने कभी ताल-तलैया या गढ़े से पानी नहीं पिया। वह आसमान में उड़ता और धारदार पानी से अपनी प्यास बुझा लेता था।

कुम्हार ने आसन बदला और पालथी मारके बैठ गया।

-और वह इतनी तरह की आवाज़ें निकालता कि संगीत उसका मुक़ाबला नहीं कर सकता था!

कहते-कहते मैना यकायक रुआँसी हो आई। मैना की याद ने उसे अंदर तक भिंगो दिया था। वह आगे कुछ न बोल सकी। एकांत चाहती थी वह जहाँ जी भर के रो ले ताकि जी जुड़ा जाए। इस लिहाज़ से वह उठी, उसने डैने फड़फड़ाए और उड़कर नीम में कहीं खो गई।

दोपहर का खाना कुम्हार ठीक से खा नहीं पाया।

***

(क्रमशः अगले अंक में जारी...)

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. हरि भटनागर के उपन्यास " एक थी मैना एक था कुम्हार" के अंश को प्रस्तुति करने हेतु आभार!
    आपको नए साल की हार्दिक शुभकामनायें!

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुंदर रचना| क्या आप इस उपन्यास की PDF प्रति भेज सकते है ? (shankar_kumawat@rediffmail.com)
    शंकर

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: रचनाकार के पाठकों को नववर्ष का उपहार : विख्यात कथाकार हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार
रचनाकार के पाठकों को नववर्ष का उपहार : विख्यात कथाकार हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार
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