महावीर सरन जैन का आलेख - भारत की भाषाएँ एवं देवनागरी लिपि

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भारत की भाषाएँ एवं देवनागरी लिपि प्रोफेसर महावीर सरन जैन मैं सन् 1960 ईस्वी से रोमन लिपि की अपेक्षा देवनागरी लिपि की क्षमताओं एवं वैज्ञान...

भारत की भाषाएँ एवं देवनागरी लिपि

प्रोफेसर महावीर सरन जैन

मैं सन् 1960 ईस्वी से रोमन लिपि की अपेक्षा देवनागरी लिपि की क्षमताओं एवं वैज्ञानिकता का पक्षधर रहा हूँ। अंग्रेजी के विद्वानों की इस मान्यता का खण्डन करता रहा हूँ कि हमें हिन्दी सहित समस्त भारतीय भाषाओं के लिप्यंकन के लिए रोमन लिपि को स्वीकार कर लेना चाहिए। मैंने अन्तरराष्ट्रीय धरातल पर विद्वानों को उन कारणों से अवगत कराया है जिनके कारण देवनागरी लिपि, रोमन लिपि की अपेक्षा, हिन्दी सहित समस्त भारतीय भाषाओं को अधिक संगत और वैज्ञानिक ढंग से लिखने में समर्थ है। उदाहरण के लिए, मैंने यूरोप एवं अमेरिका के विद्वानों को इस तथ्य से अवगत कराया कि भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त होनेवाले महाप्राण व्यंजनों का उच्चारण इकाई (unit) के रूप में होता है और इनको इकाई के रूप में लिखने के लिए रोमन लिपि में वर्ण (Letters) नहीं हैं। रोमन लिपि में अल्पप्राण एवं महाप्राण व्यंजनों के लिए अलग अलग लिपि चिह्न नहीं हैं। केवल हिन्दी में ही नहीं अपितु तमिल को छोड़कर शेष सभी महत्वपूर्ण भारतीय भाषाओं में अल्पप्राण एवं महाप्राण व्यंजन विषम वितरण (Contrastive distribution) में  वितरित हैं अर्थात इनका ध्वनिमिक (Phonemic) महत्व है। इनको इकाई के रूप में लिखने की व्यवस्था देवनागरी में है मगर यह व्यवस्था रोमन लिपि में नहीं है। रोमन में इनको अल्पप्राण व्यंजन के बाद 'h' लिपि चिह्न जोड़कर ही व्यक्त किया जा सकता है। मेरे इस तर्क का खण्डन अमेरिका के भाषावैज्ञानिक चार्ल्स एफ हॉकिट ने करने की कोशिश की तथा इस आधार पर अमेरिकन भाषावैज्ञानिकों ने भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में ही लिखने का तर्क दोहराया। मैंने अपने डी. लिट्. की उपाधि के लिए स्वीकृत  शोध-प्रबंध में अमेरिकन भाषावैज्ञानिक हॉकेट द्वारा महाप्राण व्यंजनों को व्यंजन गुच्छ मानने के सुझाव एवं प्रस्ताव का प्रमाण सहित खंडन किया। इस सम्बंध में यथास्थान विस्तार से विवेचन किया जाएगा। मैंने हमेशा अपने अनेक अध्ययनों द्वारा यह स्पष्ट किया कि हिन्दी को (अधिकांश अन्य भारतीय भाषाओं को भी), देवनागरी लिपि ही संगत, प्रकृति के अनुरूप एवं वैज्ञानिक ढंग से लिख सकने में समर्थ है। इसके विपरीत, रोमन लिपि द्वारा इनको वैज्ञानिक ढंग से लिप्यंकित नहीं किया जा सकता। तत्सम्बंधित प्रकाशित कुछ लेखों के संदर्भ निम्न हैं –

  • हिन्दी ः स्वरूप एवं वर्तनी (प्रकाशित मन, वर्ष 2, अंक 2, दिल्ली, पृष्ठ 11-14, जुलाई, 1975)
  • देवनागरी लिपि एवं हिन्दी की वर्तनी: क्षमताएँ, सीमाएँ, वैज्ञानिकता एवं समस्याएँ, नागरी लिपि सम्मेलन स्मारिका, नागरी लिपि परिषद्, राजघाट, नई दिल्ली, पृ0 41-46  (अप्रेल, 1977)।

 

मैंने सन् 1984 से लेकर सन् 1988 तक यूरोप में विदेशी क्षात्रों को हिन्दी पढ़ाते समय इस तथ्य को आत्मसात किया कि देवनागरी लिपि की वर्णमाला किस प्रकार अधिक सुगमता से सिखाई जा सकती है तथा उनको देवनागरी के विभिन्न वर्णो की अर्थभेदक शक्ति का संज्ञान कराने के लिए भाषा-प्रयोगशाला के लिए शिक्षण सामग्री का निर्माण किया। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक पद पर कार्य करते हुए सन् 1992 से लेकर जनवरी, 2001 तक के कार्यकाल में, मैं जहाँ एक ओर विदेशी एवं भारत के हिन्दीतर भाषी क्षात्रों की हिन्दी सीखने की समस्याओं को गहराई से जानने में समर्थ हो सका वहीं दूसरी ओर देवनागरी लिपि की क्षमताओं के प्रति मेरा विश्वास दृढ़तर हो गया।

प्रस्तुत आलेख में, हम हिन्दी के विशेष संदर्भ में विचार करते हुए समस्त प्रमुख भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि की उपयुक्तता और क्षमताओं के सम्बंध में अपने विचार व्यक्त करेंगे। संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, डोगरी,  नेपाली तथा नेपाल में बोली जाने वाली अन्य उपभाषाएँ, तामाङ भाषा, बोडो, संताली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, और उर्दू भाषाएँ भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। परम्परागत देवनागरी लिपि में किंचित संशोधन करने मात्र से उसमें भारत की अन्य प्रमुख भाषाओं को लिपिबद्ध किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, इसका प्रमाण भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा प्रकाशित ‘भारतीय भाषा कोश’ है। इस कोश में भारत की देवनागरी लिपि से भिन्न लिपियों में लिखी जाने वाली भाषाओं के शब्दों को भी देवनागरी की परम्परागत लिपि में किंचित संशोधन करके लिपिबद्ध किया गया है। इन भाषाओं के नाम हैं –

  • 1.पंजाबी 2. उर्दू 3. कश्मीरी 4. सिंधी 5. गुजराती 6. बंगला 7. असमिया 8. उड़िया (अब नाम – ओडिया) 9. तेलुगु 10. तमिळ 11. मलयालम 12. कन्नड़।

उपर्युक्त 12 भाषाओं की परम्परागत लिपियाँ निम्न हैं –

भाषा का नाम

लिपि का नाम

  • पंजाबी

गुरुमुखी

  • उर्दू

अरबी / फारसी

  • कश्मीरी

पश्तो

  • सिंधी

अरबी

  • गुजराती

गुजराती

  • बंगला

बांगला

  • असमिया

असमिया

  • उड़िया (ओडिया)

ओड़िया

  • तेलुगु

तेलुगु

  • तमिळ

तमिळ

  • मलयालम

मलयालम

  • कन्नड़

कन्नड़

देवनागरी लिपि में कुछ संशोधन करके उपर्युक्त भाषाओं का लिप्यंकन सहज सम्भव है। उपर्युक्त लिपियों में उर्दू की अरबी-फारसी, कश्मीरी की पश्तो एवं सिंधी की अरबी लिपि को छोड़कर शेष सभी लिपियों (गुरुमुखी, गुजराती, बांगला, असमिया, ओड़िया, तेलुगु, तमिळ, मलयालम, कन्नड़) का विकास देवनागरी लिपि की भाँति ब्राह्मी लिपि से ही हुआ है। एक ही लिपि से विकसित होने के कारण इनको देवनागरी लिपि में रोमन लिपि की अपेक्षा अधिक आसानी और वैज्ञानिक ढंग से लिखा जा सकता है। जहाँ तक उर्दू को देवनागरी लिपि में लिखने का सवाल है तो हिन्दी और उर्दू दोनों एक ही भाषा की दो साहित्यिक शैलियाँ हैं। अरबी-फारसी के प्रभाव से उर्दू में आगत [क़, ख़, ग़. ज़ फ़] में से ख़, ज़, फ़ का अपेक्षाकृत अधिक प्रयोग होने के कारण इनके द्योतक वर्णों को देवनागरी लिपि के अन्तर्गत स्वीकार कर लिया गया है। यद्यपि इनकी ध्वनिमिक स्थिति के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। इस सम्बंध में हमने हिन्दी के ध्वनिमिक अध्ययन के समय विचार किया है। देवनागरी लिपि में, /ख़/, /ज़/ तथा  /फ़/ को शामिल करने से  इसकी सामर्थ्य-शक्ति बढ़ गई है।

/ख/ एवं /ख़/

/खरा / (असली, अच्छा)

/ख़राद / (लेथ, सान चक्का)

/खल / (पापी, बुरा, निर्दय)

/ख़र्च / (लागत, व्यय)

/खाना / (भोजन की सामग्री, पेट भरना)

/ख़ाना / (दराज़)

 

/ज/ एवं /ज़/

/जराग्रस्त / (वृद्ध)

/ज़रा / (कम, कुछ)

/तेज / (तीव्र)

/तेज़ / (महँगा)

/राज / (शासन)

/राज़ / (रहस्य)

 

/फ/ एवं /फ़/

/फबना  / (अच्छा लगना, जँचना, भाना, रुचना)

/फ़बती / (व्यंग करना, चुगली)

/फल / (खाद्य फल), (लाभ), (परिणाम)

/फ़र्श  / (फ़्लोर), (ज़मीन)

(भूमितल)

/फावड़ा / (इमारत बनाने के लिए काम में आनेवाला)

 

/फ़ालतू / (अतिरिक्त), (बकवास)

 

 

हम हिन्दी और उर्दू के अद्वैत स्वरूप की विवेचना अलग से विभिन्न लेखों में कर चुके हैं।

इस दृष्टि से विशेष अध्ययन के लिए देखें –

1.  प्रोफेसर महावीर सरन जैन: हिन्दी-उर्दू का सवाल तथा पाकिस्तानी राजदूत से मुलाकात, मधुमती (राजस्थान साहित्य अकादमी की शोध पत्रिका), अंक 6, वर्ष 30, पृष्ठ 10-22, उदयपुर (जुलाई, 1991))।

2.  प्रोफेसर महावीर सरन जैन: हिन्दी-उर्दू, Linguistics and Linguistics, studies in Honor of  Ramesh Chandra Mehrotra, Indian Scholar Publications, Raipur, pp. 311-326 (1994))।

3.  प्रोफेसर महावीर सरन जैन: हिन्दी – उर्दू का अद्वैत, संस्कृति (अर्द्ध-वार्षिक पत्रिका) पृष्ठ 21 – 30, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, (2007))।

4. हिन्दी एवं उर्दू का अद्वैतः (रचनाकार, 06 जुलाई, 2010)

5. http://www.rachanakar.org/2010/07/2.html

6.हिन्दी-उर्दू का अद्वैतः अभिनव इमरोज़, वर्ष – 3, अंक – 17, सभ्या प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 34 – 43 (जनवरी, 2014)

 

 

देवनागरी लिपि की विशेषताएँ अथवा क्षमताएँ :

(1)देवनागरी लिपि में वर्णमाला का वर्गीकरण अत्यंत संगत एवं वैज्ञानिक है।

मूल वर्णमाला –

स्वर

 

 

विदेशी भाषाओं से आगत स्वर

 

अनुस्वार (ं) एवं विसर्ग (ः) के बारे में आगे विचार किया जाएगा।

 

देवनागरी लिपि में परम्परा से व्यंजन वर्ण को अंतर्निहित स्वर वर्ण 'अ' के साथ लिखा जाता है। उदाहरण - 'क' वर्ण। इस वर्ण में दो ध्वनियाँ हैं। 'क' का विश्लेषण करने हमें दो ध्वनियाँ प्राप्त होती हैं। (क् + अ = क)। अगर अकेले व्यंजन ध्वनि को प्रदर्शित करना अभीष्ट हो तो व्यंजन वर्ण के साथ हल् चिह्न ( ्) लगाना होता है। स्वर वर्ण 'अ' के अतिरिक्त अन्य स्वरों को व्यंजन के साथ उनकी मात्रा के साथ निम्न प्रकार से लिखा जाता है। इन अन्य स्वरों की मात्राओं को "क्" के साथ निम्न तालिका में इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है।

क् + आ

= का

क् + इ

= कि

क् + ई

= की

क् + उ

= कु

क् + ऊ

= कू

क् + ऋ

= कृ

क् + ए

= के

क् + ऐ

= कै

क् + ओ

= को

क् + औ

= कौ

क् + ऑ

= कॉ

 

व्यंजन

देवनागरी लिपि में परम्परा से चूँकि व्यंजन वर्ण को अंतर्निहित स्वर वर्ण 'अ' के साथ लिखा जाता है, इस कारण हमने इस लेख में अधिकांशतः व्यंजन वर्ण को अंतर्निहित स्वर वर्ण 'अ' के साथ ही लिखा है। जहाँ व्यंजन वर्ण को हलन्त दिखाना बहुत जरूरी समझा गया है, वहीं उसे हलन्त से लिखा गया है। पाठकों से निवेदन है कि ध्वन्यात्मक संदर्भ में वे इसे केवल व्यंजन के अर्थ में ही ग्रहण करें। उदाहरण - ‘क’ का मतलब ‘क्’ समझें।

 

(क)    स्पर्श,स्पर्श-संघर्षी, नासिक्य व्यंजन

कोमल तालु स्थान

तालु स्थान

मूर्धा स्थान

दाँत स्थान

ओठ स्थान

(ख)    संघर्षी व्यंजन

तालव्य संघर्षी

मूर्धन्य संघर्षी

वर्त्स्य संघर्षी

स्वरयंत्रीय संघर्षी

ह /

अनुस्वार (ः)

विदेशी भाषाओं से आगत

ख़, ज़, फ़

 

(ग)     अन्य व्यंजन

वर्त्स्य लुंठित

वर्त्स्य पार्श्विक

मूर्धन्य उत्क्षिप्त

ड़, ढ़

तालु अर्ध स्वर

दन्त्योष्ठ्य अर्ध स्वर

 

संयुक्त व्यंजन

श्र, क्ष, त्र, ज्ञ

 

(2) देवनागरी लिपिचिह्नों के नाम कमोबेश उनके उच्चारण के अनुरूप ध्वनियों पर आधारित हैं। यथा – कंठ्य (अब कोमल तालु), तालव्य, मूर्धन्य, दंत्य, ओष्ठ्य। प्रत्येक वर्ण का उच्चारण सर्वत्र उस वर्ण के ध्वन्यात्मक मूल्य से मिलता जुलता ही होता है। उदाहरण के लिए ‘इ’ वर्ण का उच्चारण सर्वत्र अवृत्ताकार, अग्र, ह्रस्व, तथा ’ई’ की अपेक्षा जिह्वा की कम उच्च-स्थानीय एवं प्रत्याकृष्ट स्थिति के आसपास ही होता है। अंग्रेजी के ‘i’ वर्ण की तरह पाँच से लेकर सात प्रकार की सर्वथा भिन्न ध्वनियों के लिए नहीं होता। इस बारे में हम आगे उदाहरण सहित विचार करेंगे।   

(3) 'ष्' एवं 'ऋ' वर्णों का स्वतंत्र ध्वन्यात्मक मूल्य समाप्त हो गया है। 'ष' का संस्कृत के समान मूर्धन्य स्थान से उच्चारण नहीं होता। इसका उच्चारण तालव्य 'श' की ही भाँति होता है मगर संस्कृत के जिन शब्दों में 'ष' वर्ण का प्रयोग होता था, उनमें आज भी 'ष' वर्ण का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण – षट्कोण, भाषा, राष्ट्र । इसी प्रकार 'ऋ' का उच्चारण 'रि' के नज़दीक किया जाता है। शब्द की आदि स्थिति में, 'ऋषि' जैसे शब्दों में 'ऋ' वर्ण का प्रयोग होता है तथा शब्द की मध्य स्थिति में, इसकी मात्रा को 'कृपा', 'स्वीकृत' आदि शब्दों में ('क्+ऋ' = 'कृ') पहचाना जा सकता है।

(4) देवनागरी में स्वर वर्णों में 'ऋ' एवं तथा विदेशी भाषा से आगत 'ऑ' तथा मूल व्यंजन वर्णों में 'ङ', 'ञ', 'ण', 'ष', 'ड़', 'ढ़', अनुस्वार (ः) के अतिरिक्त प्रत्येक ‘वर्ण’ मिलती जुलती ऐसी ध्वनियों को व्यक्त करता है जिनका हिन्दी में  अविषम वितरण (non-contrastive distribution)  है। दूसरे शब्दों में, देवनागरी लिपि के लिपिचिह्न कुछ अपवादों को छोड़कर हिन्दी भाषा की ध्वनिमिक व्यवस्था (Phonemic system) के ध्वनिमों (Phonemes) का लिप्यंकन करते हैं। 'ण', 'ड़', तथा विदेशी भाषाओं से आगत ‘ख़’, 'ज़' एवं 'फ़' की ध्वनिमिक सत्ता के प्रश्न पर विद्वानों में मतभेद की स्थिति है।(विस्तृत अध्ययन के लिए देखें – परिनिष्ठित हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन, पृष्ठ 60- 75, जबलपुर विश्वविद्यालय की प्रथम डी. लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत “परिनिष्ठित हिन्दी का वर्णनात्मक विश्लेषण” शीर्षक शोध-प्रबंध का प्रथम खण्ड), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1974)। हिन्दी भाषा क्षेत्र के अरबी-फारसी जानने वाले व्यक्तियों के द्वारा अरबी-फारसी से आगत शब्दों में इनका उच्चारण करने के कारण अब इनका प्रयोग बढ़ गया है। 'ज़' एवं 'फ़' का प्रयोग अंग्रेजी से आगत शब्दों के कारण भी बढ़ गया है। हिन्दी भाषा क्षेत्र के अरबी-फारसी जानने वाले व्यक्तियों के द्वारा अरबी-फारसी से आगत शब्दों में 'क़' एवं 'ग़' का भी उच्चारण होता है मगर इनका प्रयोग ‘ख़’, 'ज़' एवं 'फ़' की भाँति बहुप्रचलित नहीं है।

(5) देवनागरी में पर्याप्त लिपि चिह्न हैं। देवनागरी लिपि में ह्रस्व एवं दीर्घ स्वरों के लिए अलग अलग लिपिचिह्न हैं। इसी प्रकार अघोष एवं सघोष तथा अल्पप्राण एवं महाप्राण व्यंजनों के लिए अलग अलग लिपिचिह्न हैं। इनके सम्बंध में आगे विस्तार से चर्चा की जाएगी।

(6) ह्रस्व एवं दीर्घ स्वरों का हिन्दी में ध्वनिमिक महत्व है। उदाहरण -

अ एवं आ

अब / आब, मल / माल, कल/ काल, बना / बाना

इ एवं ई

इसे / ईसा, दिन / दीन, जितना/ जीतना, कटि / कटी, जाति / जाती

उ एवं ऊ

उनको /ऊन, कुल / कूल, जुटना /जूट

 

इनको देवनागरी लिपि ही वैज्ञानिक ढंग से व्यक्त करने में समर्थ है।

(6) व्यंजनों में अघोष एवं सघोष व्यंजनों के लिए अलग अलग लिपि चिह्न हैं। हिन्दी में अघोषत्व एवं सघोषत्व के आधार पर अर्थ भेद हो जाता है। इनका वितरण विषम अथवा व्यतिरेकी है। कुछ अल्पतम युग्मों / न्यूनकल्प युग्मों के उदाहरण निम्न हैं -

क एवं ग

काल / गाल,  नाका / नागा,   रोक / रोग

ख एवं घ

खास / घास,   उखड़ा / उघड़ा,   साख / बाघ

च एवं ज

चल / जल,   बचना / बजना,   काँच / माँज

छ एवं झ

छाल / झाल,   मछली / मझली,   रीछ / रीझ

ट एवं ड

टाल / डाल,   सोटा / सोडा,   हैट / हैड

ठ एवं ढ

ठेला / ढेला,   गठन / गढ़ना,   ओठ / ओढ़

त एवं द

तान / दान,   कतर / कदर,   पात / पाद

थ एवं ध

थान / धाम,   सुथरा / सुधरा,   साथ / साध

प एवं ब

पास / बास,   उपला / उबला,   कप / कब

फ एवं भ

फाग / भाग,   सफा / सभा,   साफ / लाभ

 

(7) व्यंजनों में अल्पप्राण एवं महाप्राण व्यंजनों के लिए अलग अलग लिपि चिह्न हैं। रोमन लिपि में इनके लिए लिपि चिह्न नहीं हैं। केवल हिन्दी में ही नहीं अपितु तमिल को छोड़कर शेष सभी महत्वपूर्ण भारतीय भाषाओं में अल्पप्राण एवं महाप्राण व्यंजन मिलते हैं तथा ये विषम वितरण (Contrastive distribution) में  वितरित हैं अर्थात ये ध्वनिम (Phonemes) हैं। इनको इकाई के रूप में लिखने की व्यवस्था देवनागरी में है मगर यह व्यवस्था रोमन लिपि में नहीं है। रोमन में इनको अल्पप्राण व्यंजन के बाद 'h' लिपि चिह्न जोड़कर ही व्यक्त किया जा सकता है।

कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने ध्वनिमिक विवेचन करते समय महाप्राण ध्वनियों को 'अल्पप्राण ध्वनि + ह्' के गुच्छ (consonant cluster) में मानने का सुझाव दिया है। उदाहरण के लिए उन्होंने 'ख' का विश्लेषण 'क्+ह्' के गुच्छ रूप में किया है। चॉर्ल्स हॉकेट का सम्बंधित विचार उद्धृत है – “Sanskrit and certain modern languages such as Hindustani, are often said to have four types of stops : voiceless and voiced, intersecting un-aspirated and aspirated. But in both named cases the aspiration (be it voiceless or voiced) is rather patently simply the phoneme /h/ which recurs elsewhere: this leaves just a two-way manner contrast.”

(C. F. Hockett – A Manual of Phonology, P. 107 (1955))

हमने अपने शोध-प्रबंध में हिन्दी के महाप्राण व्यंजनों को व्यंजन गुच्छ मानने के इस प्रकार के प्रस्ताव का खंडन किया है। हमने यह सिद्ध किया है कि उच्चारण तथा अभिरचना अन्विति (pattern congruity) दोनों दृष्टियों से हिन्दी में महाप्राण ध्वनियों का अल्पप्राण ध्वनियों से व्यतिरेकी वितरण है और इनका उच्चारण गुच्छ नहीं अपितु इकाई के रूप में होता है। हॉकेट ने महाप्राण व्यंजनों को व्यंजन गुच्छ के रूप में मानने का प्रस्ताव अपने जिस ग्रंथ में किया था, उसका प्रकाशन सन् 1955 में हुआ था। उनका प्रस्ताव इतना अधिक अतार्किक, असंगत एवं अवैज्ञानिक था कि दूसरे पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक ग्लीसन ने यद्यपि हॉकेट के मत का स्पष्ट खंडन तो नहीं किया किन्तु उनको भी यह स्वीकार करना पड़ा कि "यद्यपि हिन्दी में स्पर्श महाप्राण को अल्पप्राण ध्वनि + ह् (क्+ह्) का गुच्छ माना जा सकता है तथापि महाप्राण स्पर्श व्यंजन का अल्पप्राण ध्वनि + ह् (क्+ह्) रूप में विश्लेषण करने में कोई विश्लेषणात्मक सुविधा नहीं होती। ऐसा करने पर यदि ध्वनिमिक स्तर (phonemic level) पर हम ध्वनिमों (phonemes) की संख्या कम करने में समर्थ हो भी जाते हैं तो ध्वनिम-विन्यास विज्ञान (Phonotactics) की दृष्टि से अध्ययन करते समय व्यंजन गुच्छों (consonant clusters) की विवेचना करते समय उतनी ही अधिक पेचीदगियाँ बढ़ा भी लेते हैं। व्यंजन गुच्छों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है"। सन् 1961 में ग्लीसन ने हिन्दी भाषा के संदर्भ में 20 स्पर्श व्यंजनों की सूची प्रस्तुत की और इस प्रकार महाप्राण ध्वनियों (ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ) को ध्वनिमिक इकाई के रूप में ही माना। ग्लीसन के विचार मूल रूप में उद्धृत हैं – “Hindi and many other languages of India are generally said to have four series of stops: voiceless un- -aspirate, voiceless aspirate, voiced un-aspirate, and voiced aspirate. Of course, it is obviously possible to reduce these to two series, each of which can occur in clusters with a following /h/. Linguists have disagreed as to which analysis is preferable. --- --- ---   Of course, if the number of phonemes is reduced by treating some as clusters, the differences which exist between languages are not removed. They are merely transformed from differences in the inventory of phonemes into differences in the inventory of clusters. There is little practical difference between saying that Hindi contrasts with English in having four rather two series of stops and saying that Hindi differs from English in having clusters of stops plus /h/.  - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -In English, there are numerous differences in distribution between stops and affricates. This is not true for Hindi. The two phonetic sound-types pattern alike in many respects. It is, therefore, useful to consider affricates not as a class apart, but only as a phonetically different type of stop. - - The result is a symmetrical pattern of twenty stop phonemes (in Hindi)”.

(H. A. Gleason, Jr.,  An Introduction to DESCRIPTIVE LINGUISTICS (Revised Edition) pp. 332- 335, New York, 1961)

ग्लीसन ने हिन्दी के संदर्भ में, महाप्राण व्यंजनों को भाषा की ध्वनिमिक अभिरचना अन्विति की दृष्टि से इकाई मानने को अधिक संगत बतलाया है। उनके कथन से ऐसा लगता है जैसे महाप्राण व्यंजन को दोनों तरह से माना जा सकता है। (1.अल्पप्राण + ह् 2. इकाई महाप्राण)। वस्तुतः हिन्दी में स्पर्श (स्पर्श-संघर्षी सहित) महाप्राण व्यंजनों का ध्वनिक स्तर (phonetic level) पर उच्चारण इकाई के रूप में ही होता है। दूसरे शब्दों में, हिन्दी में इन व्यंजनों (ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ) का उच्चारण अल्पप्राण + ह् रूप में नहीं होता अपितु इकाई के रूप में होता है। इस बात को निम्न उदाहरणों से समझा जा सकता है –

'खाना' में 'ख्' के उच्चारण में हकारत्व अलग से नहीं सुनाई देता जैसा कि 'कुल्हाड़ी' में 'ल्' के उच्चारण के बाद हकारत्व सुनाई पड़ता है। लेखक ने अपने डी. लिट्. की शोध उपाधि के लिए कार्य करते समय स्पर्श महाप्राण व्यंजनों से युक्त शब्दों तथा [म्ह्], [न्ह्],[ल्ह्],[र्ह् ] से युक्त शब्दों में हकारत्व की स्थिति के अंतर को ध्वनि यंत्रों की सहायता से जाना तथा इस अन्तर का प्रतिपादन किया। लेखक ने अपने शोध-प्रबंध में स्पर्श एवं स्पर्श-संघर्षी महाप्राण व्यंजनों (ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ) की इकाई स्थिति को प्रमाणित किया तथा [म्ह्], [न्ह्],[ल्ह्],[र्ह् ] को म्+ह्, न्+ह्, ल्+ह्, र्+ह् के व्यंजन गुच्छ के रूप में स्वीकार किया। (विस्तृत अध्ययन के लिए देखें – परिनिष्ठित हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन, पृष्ठ 34- 38, जबलपुर विश्वविद्यालय की प्रथम डी. लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत “परिनिष्ठित हिन्दी का वर्णनात्मक विश्लेषण” शीर्षक शोध-प्रबंध का प्रथम खण्ड), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1974)

हिन्दी में अल्पप्राण एवं महाप्राण व्यंजनों के बीच व्यतिरेक स्पष्ट है। (उदाहरणों के लिए देखें – परिनिष्ठित हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन, पृष्ठ 50- 51, जबलपुर विश्वविद्यालय की प्रथम डी. लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत “परिनिष्ठित हिन्दी का वर्णनात्मक विश्लेषण” शीर्षक शोध-प्रबंध का प्रथम खण्ड), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1974)। मैं यह रेखांकित करना चाहता हूँ कि हिन्दी में स्पर्श महाप्राण व्यंजन तथा अल्पप्राण व्यंजन + ह् के बीच भी व्यतिरेक की स्थिति है। कुछ उदाहरण देखें –

[फ्]

[प्ह्]

[उफान]

[उप्हार]

[घ]

[ग्ह् ]

[सघन]

[अग्हन]

[भ]

[ब्ह्]

[अभी]

[अब् ही]

[सभी]

[सब् ही]

[तभी]

[तब् ही]

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी की महाप्राण व्यंजन ध्वनियों को (अधिकांश अन्य भारतीय भाषाओं की भी) देवनागरी लिपि ही संगत, प्रकृति के अनुरूप एवं वैज्ञानिक ढंग से लिख सकने में समर्थ है। रोमन लिपि में इनको लिखने के लिए इकाई वर्ण नहीं हैं। हिन्दी में अल्पप्राण एवं महाप्राण के आधार पर अर्थ भेद हो जाता है। इनका वितरण विषम अथवा व्यतिरेकी है। कुछ अल्पतम युग्मों / न्यूनकल्प युग्मों के उदाहरण निम्न हैं -

क एवं ख

कान / खान,   काल / खाल,   काना / खाना

कसम / ख़सम,   पकाना / पखाना,   आँक / आँख

ग एवं घ

गोल / घोल,   गेरा / घेरा,   गिरा / घिरा,       गेरना / घेरना,   मगन / सघन,   मग / माघ,    बाग / बाघ

च एवं छ

चाल / छाल,   चंद / छंद,   चंगा / छंगा,      चक्का / छक्का,   मचली / मछली,   कीच / रीछ

ज एवं झ

जाग / झाग,   जलना / झलना,   जाल / झालर,

जर्जर / झर्झर,   रोज़ / बोझ,   जपना / झपकी

ट एवं ठ

टाट / ठाट,   टिकाना / ठिकाना,   टप्पा / ठप्पा,  काट / काठ,   कोटा / कोठा,   पाट / पाठ

ड एवं ढ

डाल / ढाल,   डाक / ढाक,   डंक / ढंग,   डोर / ढोर,

डोल / ढोल,   डेरा / ढेला,   पड़ना / पढ़ना,   कोड / कोढ़,   सीडी / सीढ़ी,   सोडा / लोढ़ा,   मेँड / मेंढक

त एवं थ

तान / थान,   ताप / थाप,   ताल / थाल,   ताली / थाली,   माता / माथा,   रात / रथ,   सात / साथ

द एवं ध

दान / धान,   दस / धस,   उदार / उधार,   गदा / गधा,   दाम / धाम,   खाद / साध

प एवं फ

पल / फल,   पालक / फ़ालतू,   पागना / फागुन, अपरा / अफ़रा,   कॉपी / कॉफी,   कप / कफ़

ब एवं भ

बाग / भाग,   बाल / भाल,   बात / भात,   बुलाना / भुलाना,   बोला / भोला,   बजना / भजना,  उबरना / उभरना,   कब / कभी,   सब / सभा

 

(8) दाँतों एवं मूर्धा स्थान से बोले जाने वाले व्यंजनों के लिए देवनागरी लिपि में अलग अलग वर्ण अथवा चिह्न हैं। हिन्दी में ये व्यतिरेकी हैं। उदाहरण -

 

 

त एवं ट

ताल / टाल,    कात / काट

थ एवं ठ

थाली / ठाली,   नाथ / काठ,   साथ / साठ

द एवं ड

दाल / डाल,    खोद / कोड

ध एवं ढ

धान / ढाल,    साध / साढ़े

 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी की (अधिकांश अन्य भारतीय भाषाओं की भी) दन्त्य एवं मूर्धन्य व्यंजन ध्वनियों को  देवनागरी लिपि ही संगत, प्रकृति के अनुरूप एवं वैज्ञानिक ढंग से लिख सकने में समर्थ है। रोमन लिपि में इनको लिखने के लिए अलग अलग वर्ण नहीं हैं। हिन्दी के ‘तल’, ‘ताल’, ‘टल’, ‘टाल’ - इन चार शब्दों को रोमन लिपि में "Tal" रूप में लिखा जाता है। इस कारण अंग्रेजी की रोमन लिपि में हिन्दी के (अधिकांश अन्य भारतीय भाषाओं के भी) उन शब्दों को वैज्ञानिक ढंग से लिप्यंकित नहीं किया जा सकता जिसमें दाँत और मूर्धा से उच्चारित ध्वनियों का प्रयोग होता है।

(9) हिन्दी में कोमल तालु (परम्परागत नाम कंठ्य) नासिक्य [ङ], तालु स्थान (वर्त्य्य-तालव्य) से उच्चारित नासिक्य [ञ], मूर्धा स्थान से उच्चारित नासिक्य [ण] एवं दन्त्य नासिक्य [न] के लिए अलग अलग वर्ण हैं। रोमन लिपि में केवल एक वर्ण है जिससे चारों को लिखा जाता है।

(10) हिन्दी में दन्त्य संघर्षी [स], तालव्य संघर्षी [श] एवं मूर्धन्य संघर्षी [ष] के लिए अलग अलग वर्ण हैं जो इकाई के रूप में इनको व्यक्त करते हैं। रोमन लिपि में इनके लिए अलग अलग इकाई वर्ण नहीं है।

(11) हिन्दी में सघोष संघर्षी काकल्य व्यंजन [ह] एवं अघोष संघर्षी काकल्य विसर्ग [ः] हैं। रोमन लिपि में इनके लिए अलग वर्ण नहीं है।

 

(12) हिन्दी में अनुनासिकता का ध्वनिमिक (phonemic) महत्व है। इसका अर्थ यह है कि हिन्दी में निरनुनासिक स्वरों को अनुनासिक रूप में बोलने से व्यतिरेक हो जाता है। उदाहरण –

निरनुनासिक अथवा केवल स्वर

अनुनासिक स्वर

सास,  बास, आधी,  दाता

साँस,  बाँस,  आँधी,  दाँता

आँ

काटा,  मास, काजी,  खास,  नाद

काँटा,  माँस,  काँजी,  खाँस,  नाँद

ईँ

कही,  दाई

कहीँ,  दाईँ

ऊँ

पूछ,  कूड़ा,  कूचा

पूँछ,  कूँड़ा,  कूँजा

 

हिन्दी में प्रत्येक स्वर के निरनुनासिक एवं अनुनासिक रूप मिलते हैं। (विस्तृत अध्ययन के लिए देखें – परिनिष्ठित हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन, पृष्ठ 81- 89, जबलपुर विश्वविद्यालय की प्रथम डी. लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत “परिनिष्ठित हिन्दी का वर्णनात्मक विश्लेषण” शीर्षक शोध-प्रबंध का प्रथम खण्ड), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1974)  

अनुनासिकता नासिक्य व्यंजन नहीं है। यह स्वरों का ध्वनिगुण है। निरनुनासिक स्वरों के उच्चारण में फेफड़ों से आगत वायु केवल मुखविवर से निकलती है। अनुनासिक स्वरों में वायु का अंश नासिका विवर से भी निकलता है जिसके कारण स्वर अनुनासिक हो जाता है। अनुनासिकता का लिपि चिह्न चंद्रबिन्दु है। ( ँ )। व्यावहारिक कारणों से शिरोरेखा के उपर जुड़ने वाली मात्रा के साथ चन्द्रबिन्दु ( ँ ) के स्थान पर केवल बिन्दु (अनुस्वार चिह्न ं ) के प्रयोग का चलन बढ़ गया है। बहुत से लोग अनुस्वार और चन्द्रबिन्दु में भेद नहीं करते। यह गलत है। हिन्दी शिक्षण आरम्भ करते समय भाषा अध्यापक को शब्द में जहाँ भी अनुनासिकता हो वहाँ चन्द्रबिन्दु ( ँ ) का ही प्रयोग करना सिखाना चाहिए। बाद में यह बताया जा सकता है कि इ, ई, ओ, औ की मात्रा जहाँ हो वहाँ चन्द्रबिन्दु ( ँ ) के स्थान पर केवल बिन्दु (अनुस्वार चिह्न ं ) का प्रयोग कर सकते हैं।

अनुस्वार कोई एक व्यंजन ध्वनि नहीं है। यह विशेष स्थितियों में पंचमाक्षर ( ङ, ञ, ण, न, म ) को व्यक्त करने के लिए लेखन का तरीका है। संस्कृत शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग य, र, ल, व, श, स, ह के पूर्व नासिक्य व्यंजन को प्रदर्शित करने के लिए तथा संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचमाक्षर के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो विकल्प से पंचमाक्षर को प्रदर्शित करने के लिए लेखन का तरीका है। उदाहरण -

कवर्ग के पूर्व

अंग, कंघा

ं = ङ

चवर्ग के पूर्व

अंचल, पंजा

ं = ञ

टवर्ग के पूर्व

अंडा, घंटा

ं = ण

तवर्ग के पूर्व

अंत, बंद

ं = न

पवर्ग के पूर्व

अंबा, कंबल

ं = म

 

 

रोमन लिपि में अनुनासिकता [ँ ] को व्यक्त करने के लिए कोई लिपिचिह्न नहीं है। रोमन लिपि ‘हँसना’ और ‘हंस’ के व्यतिरेक को स्पष्ट नहीं कर सकती।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि रोमन लिपि की अपेक्षा देवनारी लिपि भारतीय भाषाओं की ध्वनिमिक व्यवस्था (Phonemic system) को अधिक वैज्ञानिक ढ़ंग से लिपिबद्ध करने में समर्थ है।

भाषाओं की परम्परागत लिपियाँ एवं अंतर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला (I.P.A.)

संसार की भाषाओं की परम्परागत लिपियों के संदर्भ में, मैं यह रेखांकित करना चाहता हूँ कि किसी भी भाषा की कोई भी परम्परागत लिपि पूर्णरूपेण ध्वन्यात्मक लिपि नहीं होती। व्यवहार में पूर्णरूपेण ध्वन्यात्मक लिपि की जरूरत भी नहीं होती। प्रत्येक भाषा में सभी ध्वनियाँ व्यतिरेकी अथवा विषम वितरण में वितरित नहीं होतीं। जो ध्वनियाँ व्यतिरेकी अथवा विषम वितरण में वितरित होती हैं, उनके लिए अलग अलग वर्ण जरूरी होते हैं। दो भाषाओं में दो ध्वनियों का प्रयोग हो सकता है मगर उन भाषाओं में उनका वितरण भी व्यतिरेकी अथवा विषम हो, यह जरूरी नहीं है। उदाहरण के लिए हिन्दी और तमिल में ’क’ और ’ग’ दोनों ध्वनियों का प्रयोग होता है, (वर्णों का नहीं)। हिन्दी की देवनागरी लिपि की वर्तनी में ‘क’ एवं ‘ग’ भिन्न वर्ण हैं मगर तमिल की लिपि में इनके लिप्यंकन के लिए केवल एक वर्ण है। हिन्दी में दोनों वर्णों का होना जरूरी है, तमिल में ऐसा नहीं है। इसका कारण यह है कि हिन्दी एवं तमिल में इनका वितरण समान नहीं है। इनका प्रकार्यात्मक मूल्य समान नहीं है। हिन्दी में इनका वितरण व्यतिरेकी अथवा विषम है। इसी कारण हिन्दी की लिपि में इनके लिए अलग अलग वर्णों का होना जरूरी है। तमिल में इनका वितरण व्यतिरेकी अथवा विषम नहीं है। तमिल में इनका वितरण परिपूरक है। इसी कारण तमिल में एक वर्ण  ‘क’ एवं ‘ग’ के अघोषत्व तथा सघोषत्व को लिप्यंकित कर देता है। हिन्दी में यदि हम ’क’ और ’ग’ दोनों का प्रयोग नहीं करेंगे तो फिर ‘काल’ एवं ‘गाल’ शब्दों की अर्थ प्रतीति किस प्रकार सम्भव हो सकेगी। कहने का अभिप्राय यह है कि परम्परागत लिपियाँ पूर्णरूपेण ध्वन्यात्मक लिपियाँ नहीं होती हैं। इनके लिए ऐसा होने की कोई आवश्यकता और सार्थकता भी नहीं है। परम्परागत लिपि अपनी भाषा में बोली जाने वाली समस्त ध्वनियों (sounds) को अंकित करने के लिए नहीं होती। इसका प्रयोजन अपनी भाषा के ध्वनिमिकों (phonemes) को अंकित करना होता है। जो लिपि इस आधार को जिस मात्रा में पूरा कर पाती है, वह लिपि उसी मात्रा में उस भाषा को लिपिबद्ध करने का दायित्व पूरा करने में समर्थ होती है। किसी भाषा की ध्वनिमिक व्यवस्था (phonemic system) के अध्ययन का सबसे अधिक महत्व इसमें है कि इस कारण हम उस भाषा के लिए न्यूनतम वर्णों का निर्धारण कर सकते हैं।

ध्वनिविज्ञान (Phonetics)  विषय में सबसे पहले अध्येता को अंतर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला के प्रत्येक वर्ण और उसके ध्वन्यात्मक मूल्य का ज्ञान कराया जाता है। इसको अंतर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला (आईपीए) के नाम से जाना जाता है। जो अध्येता अंतर्राष्ट्ररीय वर्णमाला (I.P.A.) के सम्बंध में जानना चाहते हैं, वे मेरे आलेख को निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं।

महावीर सरन जैन का आलेख - अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला (आईपीए)

http://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_80.html#ixzz3KHZP8sub

 

देवनागरी लिपि की हिन्दी वर्तनी की सीमाएँ –

किसी भाषा की लिपि के लिए आदर्श यह है कि वह अपनी भाषा के ध्वनिमों (Phonemes) को व्यक्त करने में समर्थ हो।

अंग्रेजी के शब्दों की परम्परागत रोमन लिपि के हिज्जों में और उनके ध्वनिमिक प्रतिलेखन के अन्तर को जो अध्येता समझना चाहें, वे निम्नलिखित लिंक पर जाकर अध्ययन कर सकते है।

Phoneme Spelling Frequency in Terms of Popularity in US English Text

The popularity of words in text needs to be considered for phonetic or phonics representation. See the phoneme spelling frequencies for the top 5k words of US English. https://www.screenr.com/V0ZNClick the expand box at lower right. Note ...

Screenr - tzurinskas: Summary of spellings of the 40 US English phonemes by text frequency,see... screenr.com

 

देवनागरी लिपि की क्षमताओं के विवरण के समय हमने यह स्पष्ट किया है कि देवनागरी में स्वर वर्णों में 'ऋ' एवं तथा विदेशी भाषा से आगत 'ऑ' तथा मूल व्यंजन वर्णों में 'ङ', 'ञ', 'ण', 'ष', 'ड़', 'ढ़', अनुस्वार (ः) को छोड़कर प्रत्येक लिपि वर्ण मिलती जुलती ऐसी ध्वनियों को व्यक्त करता है जिनका हिन्दी में  अविषम वितरण (non-contrastive distribution) है। दूसरे शब्दों में, देवनागरी लिपि के लिपिचिह्न कुछ अपवादों को छोड़कर हिन्दी भाषा की ध्वनिमिक व्यवस्था (Phonemic system) के ध्वनिमों (Phonemes) का लिप्यंकन करते हैं। यह देवनागरी लिपि की हिन्दी वर्तनी की सीमा है। यह कहना अतिश्योक्ति ही होगी कि कि हिन्दी की देवनागरी वर्तनी में उच्चारण के अनुरूप लिखा जाता है। लिखा जाता है - ‘राम’। बोला जाता है - ‘राम्’। इसका अर्थ यह है कि बहुत सी स्थितियों में वर्ण के अन्तर्निहित ‘अ’ का उच्चारण नहीं होता। (विस्तृत अध्ययन के लिए देखें – परिनिष्ठित हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन, पृष्ठ 19- 22, जबलपुर विश्वविद्यालय की प्रथम डी. लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत “परिनिष्ठित हिन्दी का वर्णनात्मक विश्लेषण” शीर्षक शोध-प्रबंध का प्रथम खण्ड), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1974)। इसी प्रकार शब्द की अलग अलग स्थितियों (आदि, मध्य, अन्तिम) में तथा परिवेशों में एक वर्ण के उच्चारण भेद भी मिलते हैं। मगर ये भेद ध्वनिमिक (phonemic) नहीं हैं। इनके अन्तर को एक ध्वनिम (phoneme) के   के उपस्वनों (allophones) के रूप में ग्रहण करना अधिक उचित होगा। इसका अर्थ यह है कि प्रायः हम यह बता सकते हैं कि हिन्दी में अमुक वर्ण का उच्चारण शब्द की किस स्थिति में एवं / अथवा परिवेश में किस प्रकार का होगा। उदाहरण के लिए शब्द की आदि स्थिति में ‘अ’ वर्ण के उच्चारण के दो रूप मिलते हैं। ‘अनार’ के ‘अ’ वर्ण का जो उच्चारण हो रहा है उससे कुछ भिन्न उच्चारण ‘अहमक’ अथवा ‘अहसान’ के ‘अ’ वर्ण का हो रहा है। मगर हम बता सकते हैं कि किस वर्ण का उच्चारण किस ध्वन्यात्मक परिवेश में किस प्रकार होगा। (विस्तृत अध्ययन के लिए देखें – परिनिष्ठित हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन, स्वरों के लिए पृष्ठ 09- 30 एवं व्यंजनों के लिए पृष्ठ 60-75, जबलपुर विश्वविद्यालय की प्रथम डी. लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत “परिनिष्ठित हिन्दी का वर्णनात्मक विश्लेषण” शीर्षक शोध-प्रबंध का प्रथम खण्ड), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1974)।

वस्तुतः संसार की कोई भी परम्परागत लिपि भाषा की समस्त ध्वनियों (Speech sounds) को न तो व्यक्त करती है और न उसे ऐसा करना चाहिए। जैसा हम कह चुके हैं, यह काम ध्वनिवैज्ञानिक का है जो अन्तरराष्ट्रीय ध्वनि वर्णमाला का उपयोग विशेष कार्यों के निष्पादन के लिए करता है। यह किसी भाषा विशेष की लिपि नहीं है। संसार की परम्परागत लिपियों में देवनागरी लिपि एवं हिन्दी वर्तनी अपेक्षाकृत सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि है। अंग्रेजी की वर्तनी से तुलना करने पर हमारे कथन की प्रमाणिकता सिद्ध हो जाती है।

अंग्रेजी भाषा की रोमन लिपि की वर्तनी की अनियमितताएँ एवं अवैज्ञानिकता

मैंने बहुत से लेख पढ़े हैं, जिनमें देवनागरी की वैज्ञानिकता का प्रतिपादन करते हुए रोमन लिपि की अराजकता, अनियमितता एवं अवैज्ञानिकता का विवेचन किया गया है। मैं अपने हिन्दी के मित्रों से निवेदन करना चाहता हूँ कि रोमन लिपि की अपेक्षा हमें अंग्रेजी भाषा की रोमन लिपि की वर्तनी की कमियाँ और त्रुटियाँ विवेचित करनी चाहिए। संसार की अनेक भाषाएँ लिप्यंकन के लिए रोमन लिपि का प्रयोग करती हैं। मगर ऐसी सभी भाषाओं की रोमन लिपि अंग्रेजी के शब्दों के हिज्जों की तरह अनियमित नहीं है।

इसके अतिरिक्त अंग्रेजी की रोमन वर्णमाला में केवल 26 वर्ण हैं जो निम्न हैं –

(uppercase or capital letters)

A

B

C

D

E

F

G

H

I

J

K

L

M

N

O

P

Q

R

S

T

U

V

W

X

Y

Z

( lowercase or small letters)

a

b

c

d

e

f

g

h

i

j

k

l

m

n

o

p

q

r

s

t

u

v

w

x

y

z

   यूरोप की अन्य भाषाएँ इनके अलावा अन्य वर्णों का भी प्रयोग करती हैं।

उदाहरण –

1.जर्मन में अभिश्रुति की ध्वनियाँ –

ä, öü, ß,  Ä, Ö, Ü

 

2.फ्रांसीसी में -








àâçéèêëîïôùûüÿ

3.रोमानियन में -

Ă,  â,  î,  ș,  ț,  și,  Ă,  Â,  Î,  Ș,  Ț

 

 

मेरे उद्देश्य विभिन्न भाषाओं में प्रयुक्त रोमन वर्णों की विवेचना करना नहीं है। सम्प्रति, यह कहना अभीष्ट है कि अंग्रेजी की रोमन लिपि की वर्तनी एवं रोमन लिपि समानार्थक नहीं हैं। संसार में जब कोई अंग्रेजी की वर्तनी सीखने के बाद शब्दों के हिज्ज़े सीखना शुरु करता है तो उसे पग पग पर असमंजस का सामना करना पड़ता है। अंग्रेजी वर्तनी की अराजकता, अनियमितता, अवैज्ञानिकता का बोध प्रायः प्रत्येक अंग्रेजी शब्द के हिज्ज़े सीखते समय होता है। "put" का उच्चारण यदि ‘पुट’ होता है तो "but"  का उच्चारण ‘बुट’ क्यों नहीं होता। "but"  का उच्चारण  ‘बट’ क्यों होता है। अंग्रेजी भाषा की रोमन लिपि की वर्तनी की अनियमितताओं के मुख्य कारण निम्न हैं –

  1. एक वर्ण के अनेक उच्चारण
  2. एक ध्वनि के लिए अनेक वर्णों का प्रयोग
  3. अनेक स्थानों पर वर्ण का उच्चारण नहीं होना। वर्ण का मौन होना।

उपर्युक्त कारणों को कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करने का प्रयास किया जाएगा।

  1. एक वर्ण के अनेक उच्चारण

अंग्रेजी शब्द

अंग्रेजी की रोमन

लिपि का वर्ण

वर्ण का ध्वनिक मूल्य

Abandon, Adduct, Adobe

A

Abolition, Add, Adamant

A

Air, Aim, Ailment, Album

A

Alter, Already, Almost

A

Charm, Charge, Charter

    a

 

2.एक ध्वनि के लिए अनेक वर्णों का प्रयोग

(क) ‘इ’ स्वर ध्वनि के लिए अंग्रेजी रोमन लिपि के अनेक वर्णों का प्रयोग

अंग्रेजी शब्द

अंग्रेजी भाषा का उच्चारण

‘इ’ स्वर ध्वनि के लिए अंग्रेजी रोमन लिपि का वर्ण

bill, fit, silk, silt, sin

बिल, फिट, सिल्क, सिल्ट, सिन

i

symbol, sympathy

सिम्बल, सिम्पैथी

y

because, become, before

बिकाज़, बिकम, बिफोर

e

varieties

वैराइटिज़

ie

minute

मिनिट

u

women

विमेन

o

three

त्रि

ee

 

(ख) ‘क’ व्यंजन के लिए अंग्रेजी रोमन लिपि के अनेक वर्णों का प्रयोग

अंग्रेजी शब्द

अंग्रेजी भाषा का उच्चारण

‘क’ व्यंजन के लिए अंग्रेजी रोमन लिपि का वर्ण

keen, keep, kite, king

कीन, कीप, कॉइट, किंग

k

cat, case, cash, come

कैट, केस, कैश, कम

c

qualify, queen

क्वालिफ़ाइ, क्विन

q

duck, luck, suck

डक, लक, सक

ck

chemist, school

केमिस्ट, स्कूल

ch

 

3.अनेक स्थानों पर वर्ण का उच्चारण नहीं होना। वर्ण का मौन होना।

अंग्रेजी शब्द

अंग्रेजी भाषा का उच्चारण

अंग्रेजी रोमन लिपि का मौन रहने वाला वर्ण

Psychic, Psychology

साइक, साइकॉलोज़ि

P

Knife, know

नाइफ़, नो

k

talk

टॉक

l

often

ऑफ़िन

t

 

अंग्रेजी भाषा की रोमन लिपि की अनियमितता सर्वविदित है। अंग्रेजी भाषा की ध्वनिमिक व्यवस्था (phonemic system) का अध्ययन करते समय, रोमन लिपि के परम्परागत अंग्रेजी शब्दों के हिज्ज़ों से सावधान रहने के सम्बंध में ऑर्किबाल्ड ए. हिल के विचार उल्लेखनीय हैं –

“Some appreciation of the difficulties is necessary, since otherwise even simply stated phonemic groupings will be misunderstood. We can, however, leave the subject of problems and method by outlining some of misconceptions and inconsistencies which are apt to plague, not the serious analyst, but the beginning student. The most disastrous type of misconception is to allow phonemic classification to be influenced by spelling, with which it has little to do and which it often contradicts.”

(Archibald A. Hill: Introduction to Linguistic Structures from sound to sentence in English, P. 56, New York, 1958)

 

इसी से सम्बंधित, 28 अक्टूबर, 2014 को प्रकाशित एक लेख की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैं –

English is an uncommonly tricky language to spell. Every rule seems to have an exception and homophones (for example “rough” and “ruff”) abound. English has a complicated history, influenced structurally by many other languages and keen on borrowing words from yet more. As a result, it is very tolerant of illogical spellings (“receipt” anybody?). It is also spoken with a large variety of accents, so it would be difficult to come up with a good English phonemic orthography (where a system of signs corresponds exactly to sounds).

http://www.theguardian.com/education/2014/oct/28/-sp-spelling-language-learning-english

 

केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा प्रकाशित 'देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण'

भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय (उच्चतर शिक्षा विभाग) के केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने 'देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण' शीर्षक पुस्तक का अनेक वर्षों की सतत साधना और तथाकथित भाषाविदों, विभिन्न विश्वविद्यालयों, संस्थाओं के भाषा विशेषज्ञों, पत्रकारों, हिन्दी सेवी संस्थाओं तथा विभिन्न मंत्रालयों के सहयोग से सन् 2010 में संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण प्रकाशित किया है। इसमें बढ़चढ़कर दावा किया गया है कि यह संस्करण हिन्दी भाषा के आधुनिकीकरण, मानकीकरण और कंप्यूटीकरण के क्षेत्र में नई दिशा प्रशस्त करेगा।

मगर जब मैंने इस पुस्तिका का आद्योपांत अध्ययन किया तो इसमें अनेक गलतियाँ, अतार्किकताएँ एवं अन्तर्विरोध नज़र आए। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा प्रकाशित 'देवनारी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण' शीर्षक पुस्तक में निर्धारित कुछ नियमों का हिन्दी के विद्वान विरोध करते रहे हैं और इस बारे में समय समय पर लेख प्रकाशित होते रहे हैं। अभी हाल में इस पुस्तक के कुछ नियमों की असंगतियों के सम्बंध में, दैनिक जनसत्ता के दिनांक 2 नवम्बर, 2014 के अंक में योगेन्द्रनाथ मिश्र का 'भ्रामक मानकीकरण' शीर्षक से लेख प्रकाशित हुआ है। इस लेख में निदेशालय द्वारा निर्धारित हिन्दी की वर्तनी के कुछ अतार्किक नियमों को उदाहरण सहित स्पष्ट किया गया है। मैं लेख की अधिकांश स्थापनाओं से सहमत हूँ। जो विद्वान केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा प्रकाशित 'देवनारी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण' शीर्षक पुस्तक के नियमों की अतार्किकता और परस्पर विरोधी वक्तव्यों के बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं, वे उपर्युक्त लेख का अध्ययन कर सकते हैं।

मैं सम्प्रति, सी-डैक द्वारा हिन्दी सहित भारत की प्रमुख भाषाओं के लिए ‘इंडियन स्टैण्डर्ड कोड फॉर इंफ़ॉर्मेशन इंटरचेंज’ (संक्षेप में ‘इस्की’ (ISCCI)) नामक मानक कोड निर्मित करने के सम्बंध में हिन्दी के अध्येताओं का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। इसके कारण हिन्दी को भी यूनिकोड मिल गया है। यूनिकोड (Unicode) के कारण हिन्दी टाइपिंग को नई गति मिली है। अब हम इसका उपयोग करके किसी भी यूनिकोड फॉण्ट एवं किसी भी कीबोर्ड लेआउट का प्रयोग करके हिन्दी टाइप कर सकते हैं। यूनिकोड फॉण्ट में लिखी हिन्दी देखने के लिये उस फॉण्ट विशेष का कम्प्यूटर में होना जरुरी नहीं है। किसी भी यूनिकोड हिन्दी फॉण्ट के होने पर हिन्दी देखी जा सकती है। अधिकतर नये ऑपरेटिंग सिस्टमों में यूनिकोड हिन्दी फॉण्ट बना-बनाया आता है। दूसरे शब्दों में, नए कम्प्यूटरों एवं लैपटॉपों के ऑपरेटिंग सिस्टम हिन्दी यूनिकोड समर्थित हैं। उदाहरण के लिए माइक्रोसॉफ़्ट के नए विंडोज़ों के ऑपरेटिंग सिस्टम हिन्दी यूनिकोड समर्थित हैं। माइक्रोसॉफ़्ट ने देवनागरी यूनिकोड आधारित जो डिफ़ॉल्ट फॉण्ट दिया है, उसका नाम ‘मंगल’ है। इनपुट लैंग्वेज़ में तीर के निशान पर क्लिक करके भाषाओं की सूची में से ‘हिन्दी’ का चयन करने पर की-बॉर्ड के अंतर्गत देलनागरी इंस्क्रिप्ट चुनकर ‘ओके’ पर क्लिक करने से हिन्दी यूनिकोड फॉण्ट सक्रिय हो जाता है। इससे पहले यह धारणा बन गई थी कि कम्प्यूटर पर केवल रोमन में ही काम हो सकता है। हमें हिन्दी को भी अंग्रेजी की रोमन लिपि में लिखना पड़ता था। हिन्दी यूनिकोड में कम्प्यूटर पर वह सब काम किया जा सकता है जो अंग्रेजी में होता रहा है। इसके कारण हम देवनागरी में, किसी भी वर्ड प्रोसैसर में, ईमेल में, वैबसाइट पर, मैसेन्जर आदि जगहों पर कहीं भी लिख सकते हैं। किसी भी यूनिकोड श्रेणी के फॉण्ट से लिख एवं पढ़ सकते हैं। देवनागरी में लिखने के लिए एक स्थायी उपाय इनस्क्रिप्ट कुञ्जीपट का प्रयोग है। इन्स्क्रिप्ट एक टच टाइपिंग कुञ्जीपटल है जो भारतीय भाषाओं की लिपियों में कम्प्यूटर पर लिखने हेतु प्रयुक्त होता है। यह भारतीय लिपियों के लिये भारत सरकार द्वारा मानक के रूप में स्वीकृत है।

Centre for Development of Advanced Computing  (सी-डैक) ने इनस्क्रिप्ट कीबोर्ड का विकास किया है। आजकल के नये प्रचालन तंत्रों, जैसे - विंडोज़ -2000, विंडोज़ ऍक्सपी, लिनक्स एवं मॅकिण्टोश पर इनस्क्रिप्ट अन्तर्निर्मित (इन-बिल्ट) है। इससे हिन्दी टाइपिंग की सभी समस्याओं का समाधान हो गया है। यूनिकोड के इनस्क्रिप्ट की बोर्ड पर हिन्दी में हम अपने बोलने के क्रम के वर्ण टाइप करते जाते हैं। यूनिकोड उस टाइप की हुई सामग्री को परम्परागत देवनागरी लिपि के अनुरूप स्वतः बदल देती है। इसके परिणामस्वरूप विगत दशक में ई-मेल, ब्लॉग, सोशल नेटवर्किंग साइटों (फेसबुक, ट्विटर, लिंकडन आदि), माइक्रोब्लॉगिंग, प्रकाशन, कार्यालयीन कामकाज आदि पर देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी का प्रयोग हो पा रहा है और इसके विकास की गति तेज़ होती जा रही है।

रोमन लिपि वर्ण लेखन (alphabetic writing)  पद्धति की लिपि है। इसमें स्वर और व्यंजन के प्रत्येक वर्ण अलग अलग लिखे जाते हैं। देवनागरी लिपि आक्षरिक लेखन (syllabic writing) पद्धति की लिपि है। दोनों की पद्धतियाँ भिन्न हैं। विगत 50 – 60 वर्षों से रोमन लिपि के समर्थक विद्वानों का पहले यह आग्रह रहा कि समस्त भारतीय भाषाएँ रोमन लिपि को अपनालें। जब वे अपने मिशन में सफल नहीं हो सके तो वे लगातार दबाब बनाते रहे हैं कि हम देवनागरी लिपि की वर्तनी को जितना सम्भव हो उतना वर्ण लेखन के निकट बनाने की कोशिश करें। देवनागरी चूँकि आक्षरिक लेखन (syllabic writing) पद्धति की लिपि है, इस कारण देवनागरी में व्यंजन अथवा संयुक्त व्यंजन के साथ स्वर मिलकर आता है। देवनागरी लिपि व्यंजन अथवा संयुक्त व्यंजन को अकेले नहीं छोड़ती। हम पहले कह चुके हैं कि देवनागरी लिपि में परम्परा से व्यंजन वर्ण को अंतर्निहित स्वर वर्ण 'अ' के साथ लिखा जाता है। उदाहरण - 'क' वर्ण। इस वर्ण में दो ध्वनियाँ हैं। 'क' का विश्लेषण करने हमें दो ध्वनियाँ प्राप्त होती हैं। (क् + अ = क)। अगर अकेले व्यंजन ध्वनि को प्रदर्शित करना अभीष्ट हो तो व्यंजन वर्ण के साथ हल् चिह्न ( ्) लगाना होता है। स्वर वर्ण 'अ' के अतिरिक्त अन्य स्वरों की मात्राओं को "क्" के साथ लेख में एक तालिका में प्रदर्शित किया जा चुका है। देवनागरी लिपि में स्वरों की मात्राएँ व्यंजन अथवा संयुक्त व्यंजन के पूर्व, बाद, नीचे, ऊपर, तथा बाद और ऊपर लगकर आती हैं और ऐसा करके अक्षर का निर्माण करती हैं। अपने इस लेखन के कारण देवनागरी कम जगह घेरती है। अपने इस लेखन के कारण देवनागरी आक्षरिक रचना का निर्माण करती है। हिन्दी में एक अक्षर का स्वरूप कुछ अपवादों को छोड़कर, निम्न प्रकार में से कोई एक हो सकता है –

एकाक्षर में स्वर अथवा स्वर के साथ व्यंजन /संयुक्त व्यंजन

एकाक्षर के उदाहरण ( शब्द में एकाधिक अक्षरों की सीमा का निर्धारण ‘/’ चिह्न से किया जाएगा।

V

आ औ/ रत्

VC

अब्, आज़्, एक्, ईख्, ओस्,

CV

जा, खा, माँ, जा/ ता

CCV

क्या, क्यों, श्री,

CVC

काल्, कील्, खोल्, गोल्, खिल्/ ना

CCVC

त्याग्, स्वर्, प्रिय्, द्वार्, स्यार्

 

अपनी आक्षरिक लेखन की पद्धति के कारण देवगागरी लिपि में ‘इ’ स्वर की मात्रा व्यंजन अथवा संयुक्त व्यंजन के पूर्व लगती है किन्तु उसका उच्चारण व्यंजन अथवा संयुक्त व्यंजन के बाद होता है।

(विस्तृत अध्ययन के लिए देखें – परिनिष्ठित हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन, पृष्ठ 175- 188, जबलपुर विश्वविद्यालय की प्रथम डी. लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत “परिनिष्ठित हिन्दी का वर्णनात्मक विश्लेषण” शीर्षक शोध-प्रबंध का प्रथम खण्ड), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1974)

निदेशालय ने मानक हिन्दी की वर्तनी का नियम निर्धारित किया है कि 'इ' की मात्रा संयुक्त व्यंजन के पहले न लगाई जाए। केवल एक व्यंजन के पहले ही लगाई जाए। निदेशालय की पुस्तक में पृष्ठ 22 पर तत्सम्बंधित नियम इस प्रकार है-

3.1.2.5 हल् चिह्न युक्त वर्ण से बनने वाले संयुक्ताक्षर के द्वितीय व्यंजन के साथ ‘इ’ की मात्रा का प्रयोग सम्बंधित व्यंजन के तत्काल पूर्व ही किया जाएगा, न कि पूरे युग्म से पूर्व। निदेशालय के नियम के अनुसार ‘कुट्टिम’, ‘चिट्ठियाँ’, ‘द्वितीय’, ‘बुद्धिमान’, ‘चिह्नित’ जैसे रूप लिखना गलत है। निदेशालय के अनुसार यदि कोई ऐसा करेगा तो वह अशुद्ध होगा, अमानक होगा। पुस्तक में संयुक्ताक्षर के पहले ‘इ’ की मात्रा लगाने का निषेध है। निदेशालय ने अपनी पुस्तक में नमूने (SPECIMENS)  दिए हैं। इन नमूना की व्याख्या इन शब्दों में की गई है (The specimen given in Fig. 3 are only as a guide to illustrate the principles established in 3 and 4)। नमूने का उदाहरण है – बच्चियाँ। नियम बनाया गया है कि संयुक्ताक्षर के पहले ‘इ’ की मात्रा लगाना निषिद्ध है, गलत है, अमानक है, अशुद्ध है। मगर अपनी ही पुस्तक में जो नमूना प्रस्तुत है उसमें संयुक्ताक्षर के पहले ‘इ’ की मात्रा है। हिन्दी की वर्तनी में  व्यंजन अथवा संयुक्त व्यंजन के पहले ‘इ’ की मात्रा लगाने का विधान रहा है। निदेशालय के अधिकारियों की दलील है कि संयुक्त व्यंजन (दो व्यंजन) की अपेक्षा बाद वाले व्यंजन के पहले ‘इ’ की मात्रा लगाने से लिखने में सरलता होगी। इस संदर्भ में, मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि यूनिकोड ने हिन्दी की वर्तनी को इतना आसान बना दिया है कि हम जिस ध्वनियों के जिस क्रम से बोलते हैं, उसी क्रम के वर्णों को टाइप करते जाते हैं किन्तु यूनिकोड उसे परम्परा से लिखी जाने वाली वर्तनी के नियमों के हिसाब से ढाल देता है। उदाहरण के लिए हम "न्+इ+श्+च्+इ+त" के क्रम से टाइप करते हैं। निर्मित शब्द बन जाता है = निश्चित।

इस संदर्भ में, मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि यूनिकोड ने हिन्दी की वर्तनी को इतना आसान बना दिया है कि हम किसी शब्द में जो ध्वनियाँ जिस क्रम से  प्रयुक्त होती हैं, हम उसी क्रम से बोली जाने वाली ध्वनियों के वर्णों को टाइप करते जाते हैं किन्तु यूनिकोड उसे परम्परा से लिखी जाने वाली वर्तनी के नियमों के हिसाब से ढाल देता है।

मेरा स्पष्ट मत है कि देवनागरी लिपि की वर्तनी के नियमों का निर्धारण करने के लिए सरलता के आधार की अब कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। हिन्दी के विद्वान हिन्दी को, देवनागरी लिपि के आक्षरिक लेखन (syllabic writing) की पद्धति के अनुरूप, जिस प्रकार से लिखते आए हैं तथा जिस प्रकार से हिन्दी के ग्रंथों एवं समाचार पत्रों में लिखा जा रहा है उसको ध्यान में रखकर वर्तनी के लिखने के मानक नियमों का निर्धारण होना चाहिए। उदाहरण के लिए परम्परा से 'हिन्दी' लिखा जाता है मगर निदेशालय की पुस्तक का नियम है कि यदि आप हिन्दी लिखेंगे तो वह गलत माना जाएगा। सही रूप केवल हिंदी होगा। लगभग 70 वर्षों से भारत प्रकाशन (दिल्ली) लिमिटेड से हिन्दी की पत्रिका निकल रही है जिसका शीर्षक है – पाञ्चजन्य। निदेशालय की देववनागरी की वर्तनी के नियमों के हिसाब से यह शीर्षक अशुद्ध माना जाएगा। निदेशालय के हिसाब से मानक और शुद्ध रूप होगा – पांचजंय। हम पहले कह चुके हैं कि अनुस्वार (ं) कोई एक व्यंजन ध्वनि नहीं है। यह विशेष स्थितियों में पंचमाक्षर ( ङ, ञ, ण, न, म ) को व्यक्त करने के लिए लेखन का तरीका है। संस्कृत शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग य, र, ल, व, श, स, ह के पूर्व नासिक्य व्यंजन को प्रदर्शित करने के लिए होता है। संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचमाक्षर के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो विकल्प से पंचमाक्षर को प्रदर्शित करने के लिए लेखन में अनुस्वार की छूट है। अनुस्वार (ं) का पंचमाक्षर के लिए प्रयोग करना वैकल्पिक रहा है। निदेशालय ने केवल अनुस्वार (ं) प्रयोग को ही शुद्ध ठहराया है। इस कारण निदेशालय की दृष्टि से 'हिन्दी' जैसे रूप में लिखना गलत है, अमान्य है, अशुद्ध है।

हिन्दी में परम्परागत दृष्टि से तवर्ग एवं पवर्ग के पूर्व नासिक्य व्यंजन ध्वनि [ न्, म्, ] को अनुस्वार [ं] की अपेक्षा नासिक्य व्यंजन से लिखने की प्रथा अधिक प्रचलित रही है। उपर्युक्त स्थितियों में, सिद्धांततः  दोनों प्रकार से लिखा जा सकता है। मगर कुछ शब्दों में नासिक्य व्यंजन के प्रयोग का चलन अधिक रहा है। उदाहरण के लिए केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के दशकों तक मार्गदर्शक डॉ. नगेन्द्र अपने नाम को 'नगेंद्र' रूप में न लिखकर 'नगेन्द्र' ही लिखते रहे। विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग के नामपट्ट में भी 'हिंदी' रूप का नहीं अपितु 'हिन्दी' रूप का ही चलन रहा है। बहुत से ऐसे शब्द हैं जिनमें [ न्, म्, ] को अनुस्वार [ं]  से लिखना गलत माना जाता है। उदाहरण – सन्मति। सम्मति। [ न्, म्, ] को अनुस्वार [ं]  से लिखने के चलन के कारण आजकल सन्मति और सम्मति दोनों शब्दों को ‘संमति’ रूप में लिखने का चलन देखने में आ रहा है, जो गलत है। सन्मति और सम्मति के अर्थ भिन्न हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि [ न्, म्, ] को अनुस्वार [ं]  से लिखने के चलन से किस प्रकार भ्रम पैदा हो सकता है। देवनागरी लिपि की विशेषता है कि इसको लिखने के लिए आपको कोई अपवाद याद नहीं करने पड़ते। मगर निदेशालय के [ न्, म्, ] को केवल अनुस्वार [ं] से लिखने के नियम के कारण हमको अनेक नियम याद करने पड़ेंगे। मैं अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा। तत्सम्बंधित वर्तनी के दो नियम हो सकते हैं।

(1)    एक नियम के अनुसार हिन्दी की वर्तनी सिखाते समय शिक्षार्थी को केवल  यह बताना पर्याप्त है कि संयुक्त व्यंजन के रूप में यदि पहला व्यंजन [ न्, म्, ] हो तो उसे [ न्, म्, ] रूप में लिखा जा सकता है। उदाहरण –

(क)    [ न् ]  सन्त, मन्दिर, हिन्दी, अन्य, चिन्मय, उन्मुख, अन्न, सन्मति

(ख)    [ म् ] सम्पादक, सम्बंध, सम्मति।

(2)    केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने तत्सम्बंधित जो नियम निर्धारित किए हैं, वे ‘देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण’ शीर्षक पुस्तक के पृष्ठ 25 पर 3.6.1.2, 3.6.1.3, 3.6.1.4 में इस प्रकार निर्दिष्ट हैं।

3.6.1.2 संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचम वर्ण (पंचमाक्षर) के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए।

3.6.1.3 यदि पंचमाक्षर के बाद किसी अन्य वर्ग का कोई वर्ण आए तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में परिवर्तित नहीं होगा।

3.6.1.4 पंचम वर्ण यदि द्वित्व रूप में (साथ-साथ) आए तो पंचम वर्ण अनुस्वार में परिवर्तित नहीं होगा।

बिना विकल्प के सीधा सादे एक नियम से यदि काम चलता आया है तो उसके स्थान पर क्लिष्ट तीन नियमों को रटना कहाँ तक संगत और उचित है – यह विचारणीय है।

निदेशालय ने हिन्दी में प्रचलित ऐसे शब्दों पर विचार किया है जिनकी वर्तनी के दो-दो रूप बराबर चल रहे हैं। इनमें ‘बर्फ’ अथवा ‘बरफ़’ की वर्तनी पर भी विचार किया गया है। मानकीकरण के सिद्धांत के लिए एक रूप को लिखने का निर्देश निश्चित किया गया है। पुस्तक में पृष्ठ 31 के 3.1.4.3 में ‘बरफ़ / बर्फ़’ में से पहले रूप को प्राथमिकता देने का निर्देश है अर्थात ‘बरफ़’ रूप को प्राथमिकता देने का निर्देश है किन्तु पुस्तक के पृष्ठ 32 पर 3.1.5.2 में ‘बरफ़’ रूप को नहीं अपितु ‘बर्फ़’ रूप में लिखने का निर्देश है। जिस पुस्तक (देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण) के वर्तमान संस्करण के पुनरवलोकन में देश के जाने माने 21 बाह्य विशेषज्ञों का सहयोग रहा हो, उसमें परस्पर विरोधी निर्देशों का औचित्य मेरी समझ के परे है।

निदेशालय ने हिन्दी वर्तनी के जिन नियमों का निर्धारण किया है, उनके अनुसार  हिन्दी के विद्वानों द्वारा सदियों से लिखे जाने वाले बहुप्रचलित निम्न शब्द रूप गलत, अमान्य एवं अशुद्ध ठहराए जाएँगे  –

(1)मुद्रित (2) विज्ञप्ति (3) वृद्धि (4) सम्पत्ति (5) सुनिश्चित (6) व्यक्ति (7) बच्चियाँ (8) हिन्दी (9) सम्पादक। उपर्युक्त सभी शब्द मैंने यूनिकोड में शब्द के उच्चारण में आई हुई ध्वनियों के वर्णों को टाइप करके टंकित किए हैं और यूनिकोड ने स्वतः ये शब्द रूप बनाए हैं। हिन्दी के करोड़ों प्रयोक्ता सैकड़ों वर्षों से जिस रूप में हिन्दी लिखते आए हैं, उसे सरकार का एक विभाग सरकारी धन का दुरुपयोग कर कुछ तथाकथित विद्वानों को बुलाकर अपने नियमों पर मोहर लगवाकर करोड़ो प्रयोगकर्ताओं को अपने अतार्किक, अवैज्ञानिक एवं अप्रचलित नियमों के अनुरूप लिखने के लिए विवश और बाध्य करे, यह लोकतंत्र का मजाक होगा। नियमों का निर्धारण हमेशा परम्परा और प्रचलन को ध्यान में रखकर होना चाहिए। निदेशालय पुस्तक में एक ओर यह स्वीकार करता है कि ‘हिन्दी एक विस्तृत भू-खंड में और बहुभाषी समाज के लोगों के द्वारा व्यवहार में लाई जाती है और यह कि एक विस्तृत भू-खण्ड में और बहुभाषी समाज के बीच व्यवहृत किसी भी विकासशील भाषा के उच्चारणगत गठन में अनेकरूपता मिलना स्वाभाविक है, उसे व्याकरण के कठोर नियमों में जकड़ा नहीं जा सकता; उसके प्रयोगकर्ताओं को, किसी ऐसे शब्द को जिसके दो या अधिक समानांतर रूप प्रचलित हो चुके हों, एक विशेष रूप में प्रयुक्त करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता किन्तु दूसरी ओर ‘पंचों की राय सरमाथे, पर मेरा पतनाला यही गिरेगा’ के भाव से एकरूपता के नाम पर नियम बनाए गए हैं और वे भी परस्पर विरोधी।

देवनागरी लिपि में लिखने के अपने नियम रहे हैं। निदेशालय की पुस्तक के नियमों को रटने के बाद, हिन्दी के अध्येता जब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र जैसे विद्वानों के साहित्य का अवलोकन करेंगे तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी। जब पाठक गीता, रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों को पढ़ेगा तो उनके लिखित शब्द रूपों को देखकर असमंजस में नहीं पड़ जाएगा। पिछले चार पाँच वर्षों से करोड़ों व्यक्ति यूनिकोड के वर्तमान नियमों के अनुरूप टाइप करने के अभ्यस्त हो गए हैं। मेरा सुझाव है कि केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय यूनिकोड के देवनागरी लिखने के वर्तमान नियमों को ध्यान में रखकर वर्तनी के नियम बनाने की दिशा में पहल करे जिससे परम्परागत और बहुप्रचलित नियमों के आलोक में नियम बनाए जा सके। हमारा लक्ष्य हिन्दी के विकास की धारा को आगे बढ़ाना होना चाहिए, न कि हिन्दी के विकास की धारा में रोड़े अटकाना।

देवनागरी लिपि पर आधारित अंतरराष्ट्रीय फोनिकोड का विकास

अंतर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला (आईपीए) का विकास लैटिन वर्णमाला के आधार पर किया गया है। इसी प्रकार सबसे पहले यूरोप की भाषाओं के लिए रोमन लिपि के आधार पर यूनिकोड का विकास हुआ। सी-डैक ने भारतीय भाषाओं के लिए यूनिकोड बनाने का स्तुत्य काम किया। मैं उनके इस कार्य की प्रशंसा करता हूँ। मगर मेरी इससे अधिक अपेक्षाएँ हैं।

मैं भारत सरकार को यह सुझाव देना चाहता हूँ कि भाषाविज्ञान, कम्प्यूटर, गणित, सांख्यिकी, संचार-अभियांत्रिकी, मशीन लर्निंग आदि विषयों के विशेषज्ञों का एक दल मिलकर निम्न दिशाओं में कार्य निष्पादित करे –

  1. देवनागरी लिपि के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय वर्णमाला का विकास करे जिससे संसार की सभी भाषाओं का ध्वनिक लेखन (phonetic writing) वर्तमान आईपीए की अपेक्षा अधिक तार्किक ढंग से सम्भव हो सके।
  2. यूनिकोड  (Unicode) की इकाई वर्णिम या लेखिम (grapheme) है जिसमें प्रत्येक इकाई के लिए एक विशेष संख्या प्रदान की जाती है। यूनिकोड का मतलब है भाषा के लिपि चिह्नों के लिए समान मानकीकृत कोड। पहले यह सोचा गया था कि 16 बिटों के द्वारा संसार की भाषाओं के सभी लिपि चिह्नों को अलग अलग कोड प्रदान किए जा सकेंगे। अब इसे 32 बिटों का कर दिया गया है। 16 बिटों से 65536 और 32 बिटों से 4294967296 भेदक बाइनरी संख्याएँ बन सकती हैं। भविष्य ‘स्पीच टू टैक्स्ट’ (speech to text) का है। भविष्य मनुष्य की भाषा की आवाज़ के आधार पर कार्य निष्पादन का है। इन बातों के संदर्भ में, मेरा यह मत है कि यूनिकोड के स्थान पर  देवनागरी लिपि आधारित ‘फोनीकोड’ का विकास होना चाहिए। फोनीकोड वर्णिम या लेखिम (grapheme) पर नहीं अपितु भाषाओं के अपने अपने ध्वनिमिकों (phonemes) पर आधारित होगा। ध्वनिमिकों (phonemes) को आधार बनाने से इकाइयों की सेख्या कम हो जाएगी।

यह आपत्ति उठाई जा सकती है कि प्रत्येक भाषा की अपनी ध्वनिमिक व्यवस्था (phonemic system) होती है। इस कारण, संसार की समस्त भाषाओं का फोनीकेड बनाने के लिए उन समस्त भाषाओं की अलग अलग ध्वनिमिक व्यवस्था (phonemic system) का ज्ञान जरूरी है। यह व्यावहारिक कठिनाई अवश्य है। इस सम्बंध में, मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि यूनिकोड का आरम्भ केवल लैटिन लिपि में लिखी जाने वाली पश्चिम यूरोप की भाषाओं के लिपि चिह्नों के लिए समान मानकीकृत कोड से हुआ था। भारत की जिन भाषाओं की ध्वनिमिक व्यवस्थाओं (phonemic system)  के अध्ययन सम्पन्न हो चुके हैं, उनको आधार बनाकर फोनीकोड बनाने का काम शुरु किया जा सकता है। भारत की भाषाओं में ध्वनिक समानताएँ और विशिष्टताएँ मौजूद हैं। इस कारण यूरोप में जिस मॉडल पर फोनीकोड विकसित किया जा रहा है और उसके निर्माताओं को जिन जटिलताओं का सामना करना पड़ रहा है, भारत की भाषाओं का फोनीकोड बनाना अपेक्षाकृत आसान होगा। यह फोनीकोड संसार के भाषिक-प्रौद्योगिकी के लिए वरदान सिद्ध होगा। इसका कारण यह है कि देवनागरी लिपि के वर्ण उच्चारणानुरूप अधिक हैं। भारत में विकसित ‘फोनीकोड’ भारतीय भाषाओं की ध्वनिमिक व्यवस्था (phonemic system) की ध्वनियों (speech sounds) को देवनागरी में अधिक सरल, सुगम, तार्किक और वैज्ञानिक ढंग से लिप्यंतरित करने में समर्थ होगा। कम्प्यूटर का परिचालन तंत्र आवाज़ के अर्थ को ग्रहण कर, तदनुसार आसानी से कार्यों को निष्पादित कर सकेगा।

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प्रोफेसर महावीर सरन जैन

(सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)

123, हरि एन्कलेव, बुलन्द शहर – 203001

mahavirsaranjain@gmail.com

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रचनाकार: महावीर सरन जैन का आलेख - भारत की भाषाएँ एवं देवनागरी लिपि
महावीर सरन जैन का आलेख - भारत की भाषाएँ एवं देवनागरी लिपि
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