विनीता शुक्ला की कहानी - त्रिया चरित्तर

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त्रिया चरित्तर - विनीता शुक्ला “अरे तू?!... तू कावेरी ही है ना?” सामने वाली स्त्री की, मूक सहमति पाकर, चहक उठी कालिंदी, “बाई गॉड...कितनी...

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त्रिया चरित्तर

- विनीता शुक्ला

“अरे तू?!... तू कावेरी ही है ना?” सामने वाली स्त्री की, मूक सहमति पाकर, चहक उठी कालिंदी, “बाई गॉड...कितनी चेंज हो गयी है तू यार !!”

“और तू तो जैसे वही है! एकदम अम्मा लगने लगी है...!!”

“अम्मा हूँ... तो लगूंगी ही ना!!!” एक- दूसरे को धौल जमाते हुए, वे आगे बढीं. दोनो सखियाँ, अरसे के बाद मिल रही थीं. एक लम्बा अंतराल, जब सुधियाँ धुंधलाने लगती हैं; संवाद के जर्जरित सूत्र, टूटने को होते हैं- आपस में टकराना, सुखद संयोग जैसा था! किशोर वय की दोस्ती को, पुनर्जीवित करने का अवसर भी. कितना कुछ रीत गया, उनके बीच! वक्त के मुल्म्मों में, दबे ढंके चेहरे!! अनुभव की सीढ़ियों पर चढ़कर... संघर्षों की भट्ठी में तपकर... यौवन से प्रौढावस्था की दहलीज़ तक- बदलना ही होता है सबको. परिवर्तन की सर्पीली पगडंडियां, कहाँ से कहाँ ला पटकती हैं!!! वहां- जहां से अतीत की थाह मिलना, असम्भव जान पड़ता है. धडकनों में स्पन्दित संवेदना ही, गुम जाती है. दुनियादार बनना भी, ‘इवोल्यूशन’ की प्रक्रिया से गुजरने जैसा है. वह प्रक्रिया- जो भावुक उम्र को, बहुत पीछे धकेल देती है.

अतीत की मीठी कसक, अवचेतन में, सुगबुगा उठी. कालिंदी टॉम- ब्वाय सी खिलंदड़ी. बाल भी लड़कों से. औरतों के ‘औरतपने’ से चिढने वाली लड़की. उसके संयुक्त परिवार में, ढेर सी औरतें थीं. माँ, दादी, ताई, चाची, काकी और भाभियाँ. अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए गुटबंदी करना, एक दूजे की टांग खींचना और परिवार के पुरुष सदस्यों के कान भरना, उनकी आदत थी. किसी एक स्त्री के रूप, गुण, पाक- कला या शऊर की, जब तारीफ़ होती तो बाकियों के कलेजे पे सांप लोटता. सराहना पाने वाली स्त्री के विरुद्ध, वे षड्यंत्र बुनने लगतीं. यही त्रिया- चरित्र तो, नारीत्व को, धूमिल करता था. कालिंदी का संकल्प था कि जीतेजी, खुद पर, इसे हावी न होने देगी...वह विषबुझी सोच, वह घटियापन – उसे कभी, छू नहीं सकेगा!!

कावेरी की बात करें, तो कुछ अलग थी वो लडकी. निजी जीवन की व्यस्ताओं में उलझी, अंतर्मुखी कावेरी; अपनेआप में, सिमटी हुई सी लडकी. जो माँ को खोकर, सहसा, बड़ी हो गयी थी. पिता के साथ, घर का कामकाज, पढाई और अनुज दिनेश की देखभाल- सब उसके ही दायित्व थे. कालिदी जैसी मुंहफट तो वह बिलकुल नहीं थी. बहुत कम रिएक्ट करती. कुछ कहना भी होता तो सोच- समझकर, संतुलित ढंग से कहती. जीवन के रंगमंच पर अब, कालिंदी और कावेरी के किरदार, बदल से गये थे. घरैतिन बनकर कालिंदी, तीखे स्वभाव को, तिलांजलि दे चुकी थी. उसके बागी तेवर, कुंठा की अनगिन परतों में, दबे हुए थे. और कावेरी...उसका कुंठित व्यक्तित्व निखर आया था. आत्मविश्वास चेहरे पर झलकता था. चलने फिरने, उठने बैठने, रहन सहन – इन सबमें उभर आई थी, एक नई पहचान.

‘क्यों न... कॉफ़ी हाउस में चलकर, कॉफ़ी पी जाये” कावेरी ने प्रस्ताव रखा और कालिंदी झट से मान गयी. औपचारिक वार्ता के बाद, सुख दुःख की बातें होने लगीं, “कावेरी...” कालिंदी ने भूमिका बनाते हुए कहा, “मुझे, मेरी मर्जी के खिलाफ, एक भरे पूरे परिवार में ब्याहा गया... और मैं... कालिंदी वर्मा से, कालिंदी लाल बन गयी” कहते कहते उसने, सहेली को गहन दृष्टि से निहारा. कावेरी के मुख पर, कई रंग आये और गये. कालिंदी की दुश्चिंता, समझती थी वह. जानती थी कि साझा गृहस्थी से, चिढ़ थी उसको... चार बर्तन हो तो, खटकते ही हैं! वहीं एकल परिवार की स्वतन्त्रता, आकर्षित करती थी. कालिंदी, अपना अलग आशियाना बनाना चाहती थी... उसे पर्सनल-स्पेस चाहिए था; वह पति मकरंद पर दबाव बनाने लगी. नई- नवेली पत्नी के, दैहिक आकर्षण के समक्ष, विवश हो गया मकरंद.

संयोग से उन्हीं दिनों, उसे एक नये प्रोजेक्ट से, जुड़ने का ऑफर मिला- जो आगरा में था. ऑफिस सामान्य परिस्थितियों में, ट्रान्सफर नहीं देता. प्रोजेक्ट के बहाने, पति पत्नी आगरा शिफ्ट कर गये. कालिंदी को उसका पति, कभी क्षमा नहीं कर पाया. वह यही मानता आया है कि पत्नी के त्रिया- हठ ने, उसे अपनों से तोड़ दिया; जड़ों से अलग कर दिया!! वह आज तक, इस बात का प्रतिशोध ले रहा है. उसने ऐसे अवांछित सम्बन्ध पाल रखे है, ऐसे ऐसे दोस्त बना रखे हैं- जो पत्नी को, फूटी आँख नहीं सुहाते.

कावेरी की कहानी, कुछ दूसरी थी. बताने से पहले, उसने पूछा, “कालिंदी, कॉफ़ी का एक और दौर हो जाये?” हलकी स्मित के साथ, कालिंदी की स्वीकृति मिल गयी. तब कावेरी ने, कहना शुरू किया, “मैके में मेरा जीवन कठिन था...तुम जानती ही हो. दिनेश का जब, सैनिक स्कूल में दाखिला हुआ; उसकी जिम्मेदारी, भी हट गयी. अब बोर्डिंग में रहना था उसको. मुझे अपने लिए, समय मिलने लगा. फिर नौकरी की सोची. पिताजी की मंजूरी पाकर एक प्राइवेट कोचिंग इंस्टिट्यूट ज्वाइन कर लिया- कोऑर्डिनेटर के तौर पर. उसे एक माँ- बेटा चलाते थे. अच्छी साख थी उन लोगों की. माँ सुनयना शर्मा और बेटा सुदर्शन शर्मा.” कालिंदी ने देखा कि सुदर्शन का नाम लेते लेते, कावेरी का मुख, आरक्त होने लगा था.

आगे की कथा तो, अनाड़ी भी समझ सकता था. इतना स्पष्ट था कि सुदर्शन और कावेरी के बीच, कोई सिलसिला चला होगा. कहानी में, सुदर्शन की ममा भी थी. पर वह खलनायिका नहीं थी. उसने बेटे के प्रेम पर, स्वीकृति की मुहर लगा दी. बहू ने, ‘मम्मी जी’ के रूप में; दिवंगत माता को, पा लिया. वे एक स्नेहमयी महिला थीं; अपनों ही क्या, परायों के लिए भी! पुत्रवधू को उन्होंने, इंस्टिट्यूट का महत्वपूर्ण कार्यभार सौंप दिया. गृहिणी के कर्तव्यों से इतर, जीवन का रचनात्मक पहलू, संवारने का योग!! इंसानी शख्सियत जब पनपती है, उसे सहारों की दरकार होती है. औरत के लिए, सबसे बड़ा सहारा, उसका परिवार होता है. कावेरी का भाग्योदय भी, सुनयना और सुदर्शन के हाथों हुआ.

उन दोनों की रामकहानी, दुनियां की ऊंच- नीच, संजोये हुए थी. एक ज़िन्दगी का ग्राफ, नेगेटिव से पॉजिटिव की तरफ और दूसरी का- पॉजिटिव से नेगेटिव! कावेरी के बारे में जानकर, कालिंदी ने ख़ुशी प्रकट की. किन्तु जल्दी ही मोहभंग सा हो गया. दार्शनिक की तरह, विचारते हुए बोली, “कावेरी तू खुशनसीब है कि तुझे ऐसा जीवनसाथी, ऐसा पारिवारिक माहौल मिला...पर तेरी तरह, किस्मतवाले, सब नहीं...”

“पॉइंट पे आ कालिंदी. घुमाकर बात करना, अब तक नहीं छोड़ा!!!!!” कालिंदी विस्मित हुई. इतने सालों बाद भी, मन को पढ़ लिया, कावेरी ने. वह अनुभूतियाँ- जो उसका पति, न तो समझता था और न समझना ही चाहता था. पत्नी होने की सार्थकता, मात्र इसमें नहीं कि वह पति को रिझाकर, उसे अपने पल्लू से बांधे रहे. न ही इसमें कि उसमें कोल्हू के बैल जैसी प्रतिबद्धता हो; जो प्रायः, ग्रामीण औरतों में होती है- पति और ससुरालवालों को लेकर. हरेक स्त्री के मन में, एक अनछुआ कोना होता है; जहाँ उसकी अमूर्त संवेदनाएं दबी रहती है. सही अर्थों में, सहचर वही, जो उन संवेदनाओं को अनुभूत कर सके. जो यह समझे कि पत्नी मात्र, उसके अहम को सहलाने के लिए नहीं; कि पति की जी- हजूरी या चापलूसी उसका फर्ज नहीं; कि वह भी मनुष्य है, उसकी भी वैयक्तित आवश्यकताएं हैं.

अंतस का निर्वात, खोखलेपन का एहसास, अनकही वेदना- सब मिलकर, लावे की भाँति फूट पड़े, “ मकरंद मेरे आधुनिक विचारों से चिढ़ते रहे. सच कहो तो; उनके संस्कार ही ऐसे हैं. औरतें उन्हें, दोयम दर्जे की जीव लगती है. जन्म से, यही घुट्टी पिलाई गयी है! मेरी जैसी स्त्री का व्यक्तित्व और उच्च शैक्षणिक योग्यता, कहीं न कहीं, खटकती रहीं उनको...” कहते कहते गला भर आया तो रुकना पड़ा कालिंदी को. कावेरी का स्नेहिल स्पर्श, सहसा कंधे पर महसूस हुआ. आँखों की आँखों से बात हुई. मानों मौन ही, मुखर होकर, भावनाओं को बांच रहा हो. अब कालिंदी ने, बोलना मुनासिब समझा, “कावेरी... मेरे अंदर, इतना विष भर गया है कि...कि मैं चाहकर भी, उसे गटक नहीं सकती! आखिर हम इंसान हैं; कोई नीलकंठ नहीं!! उगलना ही पड़ता है उसको; वह विषवमन की प्रक्रिया जो- हम स्त्रियों को कटघरे में खडा करती है, लांछित करती है- ‘त्रिया चरित्तर’ का इलज़ाम देती है!!!”

कावेरी जड़ हो गयी! जिस बात से, कालिंदी को, घृणा थी; आखिर वही...!! कैसा यह खेल, नियति का?! दुनियावी व्यूह में उलझे, क्लांत मन और शरीर!!! कालिंदी की दशा, ऐसी ही कुछ थी. कावेरी ने बोलने दिया, अपनी सखी को. उसके मन की गाँठ, जो खोलनी थी. कहती गयी कालिंदी, “मकरंद, स्वार्थी और गरजमंद लोगों से, घिरे रहते हैं. अपना हित साधने के लिए, वे उसकी खुशामद तक, कर लेते हैं. दोस्तों की बीबियाँ, उन्हें हमेशा, मुझसे बेहतर नजर आती हैं. यदि वो मॉड हो तो उनके लुक्स की तारीफ और गंवार हों तो उनके घरेलू कामकाज की तारीफ”

“मैं सुन रही हूँ कालिंदी...तुम बस कहती रहो”

“ उनके भीतर, अपनी पर्सनैलिटी को लेकर हीनभावना है. अच्छा खाते कमाते हैं पर ‘एक्स फैक्टर’ की कमी, उन्हें कचोटती है. छोटे कसबे में पले- बढे हैं; फैशन और मॉडर्न तौर- तरीकों से नावाकिफ. ऐसे में, किसी की झूठी प्रशंसा, उन्हें बहुत भाती है. इसी बात का फायदा उठाकर, लोग उन्हें एक्सप्लॉइट करते हैं. मैं जब भी घर में, किटी पार्टी या कोई दूसरा फंक्शन करती हूँ; सजावट, एपीटाइजर्स , टेबल- अर्रेंजमेंट- सब कुछ परफेक्ट होता है; लेटेस्ट और इनोवेटिव. जहां दूसरे लोग, इसे एप्रीशियेट करते हैं, मकरंद जलन महसूस करते हैं....भला कोई अपनी ही पत्नी से जलता है?”

“पुरुष जाति का झूठा अहम, स्त्री की श्रेष्ठता स्वीकार नहीं कर पाता...खासकर जब वो पुरुष, पिछड़े बैकग्राउंड से हों” हतप्रभ होकर कावेरी ने कहा. “मैं क्या करूं कावेरी?! आई हैव ऑलमोस्ट किल्ड माइसेल्फ, फॉर दिस मैन!!! अब न कोई मॉड ड्रेस पहनती हूँ और न फर्राटेदार इंग्लिश बोलती हूँ ताकि इसे काम्प्लेक्स नहीं हो पर...”

“पर??”

“इनके एक दो परिचित ऐसे हैं, जिनसे ज्यादा प्रॉब्लम है. एक रंजन राव जिनकी बीबी कम पढ़ी- लिखी है; इस बात से रंजन और उनकी पत्नी पारो को शर्म महसूस होती है. उस हीनता से उबरने के लिए रंजन, हमेशा बीबी के गुण गाते रहते हैं. उन्होंने मकरंद का भी ब्रेनवाश कर दिया है, जिसके चलते वे, उस अपढ़ औरत से, मेरी तुलना करने लगे हैं.

मैंने मकरंद को समझाने की कोशिश की पर बेकार! उन्हें लगता है कि मुझे भी, अपनी बेकार हॉबीज छोड़कर, घर के प्रति समर्पित हो जाना चाहिए. यह कैसे संभव है? पारो नौकरों के बिना, घर चला रही है- यह अच्छी बात है. लेकिन घर के कामकाज के अलावा, उसे आता ही क्या है? मेरी पियानो प्रैक्टिस और पेंटिंग्स, मकरंद को इरिटेट करते हैं. मेरा सोशल एक्टिविटीज को समय देना, उन्हें खटकता है. मेरा दमकता हुआ अस्तित्व, उन्हें लज्जित करता है. और फिर, रंजन की बीबी, छा जाती है- हमारे बीच. पतिदेव की चर्चा का केंद्रबिंदु...! बारम्बार, उसी पर अटक जाती है- बातों की सुई. कहाँ तक सुनूँ?! कोई रास्ता न देख, उन्हें पारो की कमियां गिनवाईं. यह भी बतलाया कि रंजन को सर चढाने के कारण, पारो अकड़ने लगी है”

“क्या कहा उन्होंने?”

“कहना क्या था, हाँ हूँ करके चुप हो गये..तब उनको मैंने बताया, पारो ससुर से दुर्व्यवहार करती है. गाली गलौज वाली भाषा का प्रयोग करती है. यह सुनकर उन्होंने, हल्की सी सहमति जताई लेकिन फिर भी पारो की तारीफ करना नहीं छोड़ा. अब मेरा, किसी बात में, दिल नहीं लगता कावेरी. मैं भी जाहिल औरतों की तरह, पारो के दोष ढूँढने में लगी रहती हूँ ताकि उसमें कोई ऐसी खोट ढूंढ पाऊं –जिससे उनकी जबान बंद हो जाये”

“यहीं तू गलती कर रही है कालिंदी. वह तेरे साथ, खेल खेल रहे हैं. वे खुद भी जानते हैं कि तू पारो से कहीं ज्यादा अच्छी है लेकिन तुझे भड़काकर एन्जॉय करते हैं. इससे मकरंद का ईगो सैटिसफाई होता है, हीनभावना दूर होती है. लोगों को हैंडल करते करते, ये बातें समझने लगी हूँ कालिंदी और उनकी साईकॉलजी भी...तू चिंता न कर. तुझे ऐसी ऐसी टिप्स दूँगी कि उनकी बोलती बंद हो जायेगी पर पति की भावनाओं का भी, ख़याल रख. उनके साथ ससुराल आया जाया कर. फोन पर भी, ससुरालवालों से, बतिया लिया कर. यही तो वे चाहते हैं. प्रेम एकतरफा नहीं होता. दोनों तरफ से कोशिश करनी पड़ती है. मकरंद में कुछ अच्छे गुण भी होंगे, उनकी प्रशंसा करना सीख. याद रखना; तारीफ दिल से निकलती है और खुशामद जीभ से.”

पारो के बाद, कतार में नंदा थी. मकरंद की कलीग नंदा, जो उसे मक्खन लगाकर, अपना उल्लू सीधा करती है. पति के साथ, आउटिंग हो; तो बिटिया इनके मत्थे. कहती है, “मेरी परी तो लाल अंकल के नाम की रट लगाये रहती है. कह रही थी, अंकल के यहाँ ले चलो. वे चॉकलेट लाकर देते हैं” मकरंद तो चॉकलेट लाने बाहर चले जाते हैं और परी के नखरे- ‘आंटी’ उठायें! नंदा भी, पारो की तरह, कालिंदी को इगनोर करती है; मुफ्त की नौकरानी समझती होगी!!

मकरंद का जूनियर समर भी, परेशान करता है. जब देखो, खाना खाने, आ धमकता है. कहता है, “सर जैसा दिलदार कोई नहीं, इसलिए बेखटके चला आता हूँ”

कुल मिलाकर, यह निष्कर्ष निकला कि उनके घर संसार में, जिसे सेंध लगानी होती है, वह कालिंदी को ही मोहरा बनाता है. वे जानते हैं कि मकरंद का ‘इम्फीरियोरिटी काम्प्लेक्स’ ही, उसकी कमजोर रग है. कालिंदी के जीवन में उनका बेजा दखल, उसे तोड़ रहा है. वे परोक्षतः, पति के सामने ही; उसे नीचा दिखाते हैं. मकरंद इसी में खुश हो जाते हैं; पत्नी के आगे, बौना पड़ता हुआ वजूद, सर उठाने लगता है! कालिंदी विरोध करे तो त्रिया- चरित्र की दोषी बनती है और छटपटाये तो पति को, हिंसक आनंद का अनुभव होता है!!

दोनों सखियों ने मिलकर, एक रणनीति बनायी. उस रणनीति पर, ५-६ महीने अमल करने के बाद, मिलना तय हुआ. ५ महीने भी न बीते कि कालिंदी ने कावेरी कॉल किया, “ कमाल कर दिया यार तुमने! तू ग्रेट और तेरी टिप्स...माइंड ब्लोइंग!!!”

“सच! पूरी बात बता...”

“इनकी बड़ी भाभी, दवाई के लिए, पास वाले शहर आ रहीं थीं. मैंने आग्रह करके उन्हें यहाँ बुला लिया. खूब मान-सम्मान दिया उनको. वे बहुत खुश हो गयीं...”

“फिर??”

“फिर क्या! पारो का तो बैंड बजा दिया उन्होंने, ’बुरा न मानो भई; पर रंजन जी के साथ, तुम्हारी जोड़ी कुछ जमती नहीं. वे तो नये जमाने के और तुम...!!’ पारो अपना सा मुंह लेकर रह गयी. अब जब भी वे, पारो के गुण गाते हैं, मैं किसी और के हसबैंड की तारीफ करती हूँ और मजे की बात- भाभी भी मुझे सपोर्ट करती हैं!! सच कहा था तुमने; वक्त पड़ने पर, अपने ही, काम आते हैं...उन्हें साथ लेकर चलना जरूरी है”

“कालिंदी, आई एम सो ग्लैड फॉर यू...और अपने समर महराज का, क्या हाल है?”

“उसकी खूब चलाई! मैंने तो बता दिया कि तुम बेटे की तरह हो. तुम्हारी यह माँ, ४० की हो चली है. अब उसे सेवा की जरूरत है. सर के साथ मिलकर, बनाओ खाओ...कुछ मदद हो जाएगी. कभी कभी, पूछ लेती हूँ कि अपने घर कब बुला रहे हो? कुछ पकाओ तो हम भी खाएं. ट्रीट देने के लिए भी, इंसिस्ट करती हूँ. सच पूछो तो उसके मिजाज बिलकुल दुरुस्त हो गये हैं...”

“गुड गुड, वैरी गुड!!!”

“ नंदा से भी, साफ़ कह दिया- ‘ मेरा स्वास्थ्य, ऐसा नहीं कि बच्ची को, देख सकूं.’ हालांकि इसके बाद, बहुत गरम हुए थे ये”

“तो?! क्या किया तूने?”

“करना क्या था! अंतिम अस्त्र चला दिया. यह कि- सेवा सत्कार से, थक चुकी हूँ; खुद को समय भी, देना है. तेरी कंपनी का अपॉइंटमेंट लैटर दिखा दिया. बोला- पास वाले शहर में नौकरी है. आना जाना लगा रहेगा. घर तो तुम देख ही लोगे...बच्चे बोर्डिंग में हैं सो उनकी भी चिंता नहीं. जब चाहूं यहाँ रहूँ; जब चाहूँ वहां... काम ज्यादा होगा तो वहीं रुक जाऊंगी- वर्किंग लेडीज हॉस्टल में. बस फिर क्या था...सब कुछ ‘फिटफाट’ हो गया- अपुन की लाइफ में!”

“और सबसे बड़ी बात- तू उस ‘त्रिया- चरित्तर’ वाली इमेज से निकल गयी...!!”

“एग्जैक्ट्ली माय डिअर!!!” उनकी सम्मलित हंसी में, मलाल धुल गये और उम्मीद, करवटे लेने लगी.

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नाम- विनीता शुक्ला

शिक्षा – बी. एस. सी., बी. एड. (कानपुर विश्वविद्यालय)

परास्नातक- फल संरक्षण एवं तकनीक (एफ. पी. सी. आई., लखनऊ)

अतिरिक्त योग्यता- कम्प्यूटर एप्लीकेशंस में ऑनर्स डिप्लोमा (एन. आई. आई. टी., लखनऊ)

कार्य अनुभव-

१- सेंट फ्रांसिस, अनपरा में कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य

२- आकाशवाणी कोच्चि के लिए अनुवाद कार्य

सम्प्रति- सदस्य, अभिव्यक्ति साहित्यिक संस्था, लखनऊ

 

प्रकाशित रचनाएँ-

१- प्रथम कथा संग्रह’ अपने अपने मरुस्थल’( सन २००६) के लिए उ. प्र. हिंदी संस्थान के ‘पं. बद्री प्रसाद शिंगलू पुरस्कार’ से सम्मानित

२- ‘अभिव्यक्ति’ के कथा संकलनों ‘पत्तियों से छनती धूप’(सन २००४), ‘परिक्रमा’(सन २००७), ‘आरोह’(सन २००९) तथा प्रवाह(सन २०१०) में कहानियां प्रकाशित

३- लखनऊ से निकलने वाली पत्रिकाओं ‘नामान्तर’(अप्रैल २००५) एवं राष्ट्रधर्म (फरवरी २००७)में कहानियां प्रकाशित

४- झांसी से निकलने वाले दैनिक पत्र ‘राष्ट्रबोध’ के ‘०७-०१-०५’ तथा ‘०४-०४-०५’ के अंकों में रचनाएँ प्रकाशित

५- द्वितीय कथा संकलन ‘नागफनी’ का, मार्च २०१० में, लोकार्पण सम्पन्न

६- ‘वनिता’ के अप्रैल २०१० के अंक में कहानी प्रकाशित

७- ‘मेरी सहेली’ के एक्स्ट्रा इशू, २०१० में कहानी ‘पराभव’ प्रकाशित

८- कहानी ‘पराभव’ के लिए सांत्वना पुरस्कार

९- २६-१-‘१२ को हिंदी साहित्य सम्मेलन ‘तेजपुर’ में लोकार्पित पत्रिका ‘उषा ज्योति’ में कविता प्रकाशित

१०- ‘ओपन बुक्स ऑनलाइन’ में सितम्बर माह(२०१२) की, सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरस्कार

११- ‘मेरी सहेली’ पत्रिका के अक्टूबर(२०१२) एवं जनवरी (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित

१२- ‘दैनिक जागरण’ में, नियमित (जागरण जंक्शन वाले) ब्लॉगों का प्रकाशन

१३- ‘गृहशोभा’ के जून प्रथम(२०१३) अंक में कहानी प्रकाशित

१४- ‘वनिता’ के जून(२०१३) और दिसम्बर (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित

१५- बोधि- प्रकाशन की ‘उत्पल’ पत्रिका के नवम्बर(२०१३) अंक में कविता प्रकाशित

१६- -जागरण सखी’ के मार्च(२०१४) के अंक में कहानी प्रकाशित

१८-तेजपुर की वार्षिक पत्रिका ‘उषा ज्योति’(२०१४) में हास्य रचना प्रकाशित

१९- ‘गृहशोभा’ के दिसम्बर ‘प्रथम’ अंक में कहानी प्रकाशित

 

संपर्क - vinitashukla.kochi@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 4
  1. विनीताजी ..आपकी कहानी 'त्रिया चरित्तर' पढ़ी ..बहुत पसंद आयी. अक्सर जीवन में हम अपनी समस्याओं में इतने उलझे रहते हैं कि इमीडियेट समस्याओं को सम्पूर्णता में नहीं देख पाते ..बिलकुल ऐसे जैसे आँखों के बहोत पास कोई चीज़ हो तो ठीक से दिखाई नहीं देती ..ऐसे में कोई एक सही पर्सपेक्टिव सामने रखने दे तो सब कुछ कितना सरल सीधा लगने लगता है ......और हर समस्या कितनी आसन हो जाती है ....एक पॉजिटिव एप्रोच दिखाई दिया आपकी कहानी में ...बधाई

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  2. काफी रोचक कहानी विनीता जी।

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  3. सरस जी, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से, मन को बहुत संबल मिला; उतरोत्तर लेखन की प्रेरणा भी. आपका हार्दिक धन्यवाद.

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  4. कोटिशः धन्यवाद विकास जी.

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: विनीता शुक्ला की कहानी - त्रिया चरित्तर
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