मंतव्य 2 - हेमा दीक्षित की कहानी : मीरा क्रिस्तान

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(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश...

(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास लालटेन यहाँ पढ़ें)

 

हेमा दीक्षित की कविताएं और टिप्पणियाँ हिन्दी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। पर यह

कहानी पहली ही है। सम्प्रति : गौरी अस्पताल कन्नौज में

कार्यरत।

कहानी

मीरा क्रिस्तान

हेमा दीक्षित

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आधी पालथी लगाये, एक पाँव मोड़े घुटने पर सर टिकाये मीरा बही जा रही थी। आँखों से, नाक से और मुँह से निकलते आधे-अधूरे शब्दों में।

वृंदा पलंग पर बैठी उसे देखे जा रही थी। वह बाहर-बाहर बह रही थी और वृंदा भीतर-भीतर। मीरा उफनाई-उफनाई बाढ़ग्रस्त धारा-सी बहकी-बहकी चली जा रही थी। बस कहे जा रही थी। ‘‘भाभी बहुतई अपमान हुआ हमारा। तीन बरसन से तुमाय साथ काम करत-करत हम भुलाय गये हते कि कऊन जात है हम। हमऊ मनई हुई गये हते। चार दिन भये तुमाओ काम छोड़े। हम्मै सब्बै याद आयी गओ। हम का है औउर का रहिये। जा चोला से मरत-मरत जनम केर खेल नाई मिटी। ऊपर से हम औरत जात हमाय कऊन जोर। हम गू की औलाद गू माय रहिये। ऊ डाक साब हम्मै सब्बै याद दिलाये दीन।’’

वृंदा को ताकते एक बार वृंदा की भाषा में बहती, फिर अपनी आंतरिक भाषा पर आ जाती। हर-हर बहती मीरा में वृंदा उतरती चली गयी लहर-दर-लहर।

वह एक बेहद व्यस्त दिन था और उसने तय कर रखा था कि आज वह अस्पताल में काम माँगने आने वाले किसी भी व्यक्ति से नहीं मिलेगी। और सिर्फ उसकी तरफ़ से बाहर दिखाई पड़ने और उसे अदृश्य रखने वाले शीशे से वृंदा को दिखाई दे रहा था कि पहले भी पाँच-छह बार जगह न होने के कारण लौटायी जा चुकी वह औरत अस्पताल की बेंच पर पाँव ऊपर कर के बैठे, कभी फ़ौज में रहे पर अब सचमुच के लाला में बदल चुके उसके मैनेजर लाला चौहान से लगभग गिड़गिड़ाने की मुद्रा में कुछ कह रही है। और लाला चौहान की हिलती तोंद और हाथों की मुद्रा से नकार और उपेक्षा का भाव स्पष्ट हो रहा था। अचानक ही वह औरत ज़मीन पर उकड़ौवा बैठ गयी और साड़ी से अपना चेहरा ढाँप लिया। उसके हिलते हुए कंधों और देह के कम्पन से वृंदा को अंदाज़ लगा कि शायद वह रो रही है। तभी जाने कहाँ से लपक कर एक सात-आठ बरस की लड़की आयी और उसके कंधे पर हाथ धर कर दूसरा हाथ माँ की मानिंद उसकी झुकी पीठ पर फिराने लगी। उसे नहीं पता कब उसका हाथ घंटी के रिमोट बटन को दबा कर उसकी गोद में वापस अपनी जगह आ गया!

घंटी के बाहर घुनघुनाते स्वर से लाला चौहान अपनी जगह से हिला और दरवाज़े से अपने को अड़ा कर बोला, ‘‘जी’’। वृंदा ने उस, अपने अंदाज़े में रोती हुई स्त्री को अन्दर भेजने को कहा। अपने पल्लू के छोर से अपना चेहरा और आँखे पोछते अन्दर आयी हुई उस स्त्री का नाम था मीरा। वो सात-आठ बरस की लड़की उसकी छोटी बेटी पिंकी थी। वृंदा कुछ पूछती, उससे पहले ही उसने दुबारा रोना चालू कर दिया, ‘‘हमें काम पे रख लो बस, कुछ भी काम कर लेंगे हम, कुछ भी पैसे ले लेंगे हम। बस हमें काम पे रख लो। हमसे जादा ज़रूरत किसी को काम की नहीं होगी।’’ वृंदा ने उसे आँख भर देखा। लगभग चार फुट की लम्बाई वाली सांवली दुबली-पतली पिचके पेट वाली स्त्री। उसने कहा, ‘‘कुछ भी काम का मतलब तुम जानती हो? तुम एक अस्पताल में काम माँगने आयी हो। क्या जानती हो इस काम के बारे में? पहले कभी किसी अस्पताल में काम किया है? कभी खून, चोट, रोग, बीमार और उल्टी-टट्टी यह सब देखा है।

कभी कोई पूरा जला आदमी देखा है? अपने सामने लोगो को दर्द में तड़पते, चीखते-चिल्लाते देखने की, संभालने की, मरते-जीते देखने की हिम्मत है या बस ऐसे ही? कुछ भी सीखा-संभाला है इस तौर-तरीके का कभी?’’ हर सवाल का जवाब, ‘‘न।’’

उसे कभी अपने लिए भी अस्पताल का मुँह देखने की नौबत तक न आई थी, फिर भी काम पर रख लो की रट। वृंदा ने उससे कहा, ‘‘फ़िलहाल तो हमें सिर्फ़ एक सफ़ाई कर्मचारी की ज़रूरत है। तुम कर सकोगी क्या...?’’ एक क्षण में उसका चेहरा उतर और लटक गया। थोड़ा रुक कर उसने कहा, ‘‘वैसे तो हम कर लेते, अब तक की पूरी जिनगी यही काम तो करते आये हैं, पर छह महीने पहले हमने अपना धरम बदल लिया। अब हम चरच में जाते हैं।’’ वृंदा के चेहरे पर उपजी चौकन को भाँपते मीरा ने आगे बोलना जारी रखा, ‘‘मेरी बड़ी बिटिया को उधर महोबा के आगे एक स्कूल है, वही रह कर पढ़ने के लिए छठी किलास में दाखिला मिल गया है। हमको एकौ पैसा नहीं देना है। खाना-कपड़ा भी वहीं मिलता है। हम देख भी आये हैं। सुबह एक गिलास दूध और एक फल भी मिलता है। बिटिया अंग्रेज़ी की किताब भी पढ़ने लगी है। बड़ी किलास में और भी बहुत दूर उसको केरल भेज देंगे। बस हमें इतवार को चरच जाना पड़ता है और हमारा नाम अब मीरा बाथम हो गया है।’’

वृंदा ने पूछा, ‘‘और तुम्हारा घरवाला?’’ मीरा का चेहरा इस सवाल पर एकदम से तन-खिंच गया, ‘‘उस हरामी की बात नहीं करते हम मैडम जी।’’ लाला चौहान ने बीच ही में घुड़का, ‘‘ए गाली नहीं।’’ उसने जीभ काटते हुए दोनों कानों को हाथ लगाया और अपनी बात जारी रखी, ‘‘हमको अपनी दूसरी बिटिया को भी वहीं भेजना है पढ़ने, पर अब वो लोग कहते हैं कि दूसरे बच्चे की स्कूल की फ़ीस हमको अपने पास से देनी होगी। इसी कर के हमको जल्दी से काम पकड़ना होगा। अम्मा के हियाँ भाई-बहन की रोटी, झाडू-बर्तन के बदिले में रोटी तो पा जाते हैं, पर पैसा वो तो हमें ही कमाना होगा न। हम कमाएंगे और इसे ज़रूर पढ़ाएंगे।’’

इतनी दृढ़ता, एक अनपढ़ औरत में कि अपनी लड़कियों की पढ़ाई के लिए अपना धरम बदल ले। वृंदा उसे अब बस बिना काम भी काम पर रख ही लेना चाहती थी, पर बावजूद इसके उसने दिखावे के तौर पर उससे कहा, ‘‘देखो काम तो सफ़ाई का ही है। करना है, तो आओ। बस इतना किया जा सकता है कि किसी को ये न बताया जाये कि तुम सफ़ाई का काम करती हो यहाँ। इसके बजाय तुम कह सकती हो कि तुम वार्ड आया का काम करती हो। ऐसा करो कि तुम आओ कल से दो दिन काम करो। सफ़ाई के अलावा भी कुछ यहाँ अस्पताल में मरीज़ सम्भालने और ऊपर का काम रहता है। वो भी कर के देखो। यहाँ का माहौल तुमसे सधे तो। और देखो, खून देख कर बेहोश होना हो, तो बिलकुल मत आना। तुमसे पहले आयी तीन बेहोश हो कर गयी है।’’ चौहान साब से उसने कहा, ‘‘देखो इसे बता दो कि सफ़ाई कर्मचारी को कुल अट्ठारह सौ तनख़्वाह मिलेगी। एक्स्ट्रा ड्यूटी का पैसा इसी हिसाब से अलग से मिलता है और हाँ छुट्टी, फिलहाल नया अस्पताल है, तो कोई नहीं है। अगर काम पसंद नहीं आया या ये नहीं कर पायी, तो सिर्फ़ दो दिन का जो भी पैसा इस हिसाब से बनेगा, इसे उसी रोज़ दे दिया जाएगा। और हाँ, ड्यूटी पर समय की पाबंदी से आना और जाना होगा। उसमें एक मिनट की भी छूट नहीं मिलेगी।’’ वृंदा की बात पूरी हो भी नहीं पायी थी कि वह लपक कर उसके पाँव छूकर वापस खड़ी हो गयी थी। रोती हुई मीरा के आँसू सूख गये थे और उन सूखी और पुछी हुई लकीरों पर एक मुस्कान बादलों के नीचे से सूरज की किरण की तरह निकल आयी थी।

तो इस तरह से मीरा वृंदा को मिल गयी थी। मीरा अगले ही दिन से चाक-चौबंद अपनी नौकरी पे मुस्तैद हो गयी। वह बेहद साफ़-सुथरी सलीक़े वाली थी। उसके सारे काम बिलकुल क़ायदे से होते थे। मीरा सुबह की पाली से पंद्रह दिनों बाद रात की ड्यूटी में आ गयी।

पाँच-छह महीने सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा। फिर एक दिन जब वृंदा सुबह दस बजे अपने चैम्बर में आयी, तो उसने देखा कि मेडिकल स्टोर के सामने वाली बेंच पर मीरा अब तक बैठी हुई है। कुछ ज़रूरी कामों के बाद लाला चौहान अंदर आये। उसने सवालिया आँखें उन पर रख दी। लाला चौहान ने अपने दोनों हाथ अपने वृहदाकार पेट की मेज़ के ठीक ऊपर हमेशा की तरह एक में एक घुमाते और मलते हुए कहा, ‘‘मैडम एक समस्या हो गयी है और ज़रा विकट वाली है।’’ वृंदा ने उनकी तरफ़ देखा

तो बोले, ‘‘रात पाली में यादव ने मीरा और शेरसिंह को वो ऑटोक्लेव रूम में एक साथ पकड़ा। वृंदा चौंकी, ‘‘क्या... वो मेडिकल स्टोर वाला शेरसिंह?’’ ‘‘जी, एक बात और है, इससे पहले भी परसों वो सबेरे की ड्यूटी वाली कमली और इसकी जम कर झोंटा-नुचौव्व्ल हुई थी।’’ लेकिन क्यों वृंदा को समझ नहीं आया कि आज के पहले तक तो सब उसकी खूब बड़ाई कर रहे थे। मीरा के बखान में जाने कहाँ से कहाँ तक की लम्बाई-चौड़ाई के पुल बाँध दिये गये थे।

ठाकुर ने बताया, ‘‘वो इसने सफ़ाई वाले ठेकेदार बल्लू के छोटे भाई मोटबुद्धि हक्कल संजुआ से कुछ सेटिंग कर ली है और अब शौचालय धोने या इस तरह की सारी सफ़ाई और बाहर कूड़ा फेंकने का काम भी इसके बदले वो ही कर आता है। और तो और, इसके लिए रोज़ सबेरे एक दुन्ने में चौरसिया की जलेबी और गुप्ता की पूड़ी भी लाता है। और तो और, वो डिलीवरी के बाद जच्चा के रिश्तेदारों से मिला खुशख़बरी सुनाने और बच्चा उन्हें देने के लिए पैसा, सख़्त मनाही के बाद भी लेती है। सिर्फ़ लेती ही नहीं है, अकेले जीम भी जाती है।’’

उसने पूछा, ‘‘आपने जाँचा कि क्या यह सब बातें सच है।’’

ठाकुर बोला, ‘‘आपसे बताने में हमें शर्म तो बड़ी आयी, पर कहना तो पड़ेगा ही। जब मालिकाना आपका है, तो बात आज नहीं, तो कल आप पे पहुँचनी ही ठहरी। है सब सोलह आने सच। आज तो मैंने शेरसिंह को भी जाने नहीं दिया है और हक्कल संजुआ को भी बैठा रखा है। यादव को फोन कर दिया है, वो भी बस पहुँचता ही होगा।’’

मीरा की पेशी पहले हुई। वृंदा ने पूछा, ‘‘ये क्या चल रहा है? सब तुम्हारी शिकायत कर रहे हैं...।’’ उसने मार मोटे-मोटे आँसू गिरा-गिरा कर सुबकना शुरूकर दिया, ‘‘भाभी हमने कुछ नहीं किया। शेरसिंह भैया के घर में कुछ परेशानी है, वई वो हमें बता रहे थे...’’, पीछे से अब तक आ चुका यादव बोल उठा, ‘‘बत्ती बंद कर के, छिटकनी लगा कर, कौन बात बता रहे थे? हम तो समझते ही नहीं न! मैडम हमने कल रात रोज़ की तरह सारे इंस्ट्रूमेंट्स धो-पोंछ कर सब ट्रे और ड्रम्स भर कर तैयार किये थे और ऑटोक्लेव रूम को ठीक से लॉक किया था। रात में शेरसिंह रिसेप्शन में रहते हैं और सारी चाभियाँ वहीं तो टंगी होती है की बोर्ड पर। जे लोग अब एक कमरे का ताला खोल कर उसमें अपनी कहानी सुनावेंगे तो फिर हो चुका काम। हमारी ड्यूटी तो आपने खुद आजकल ऊपर जनरल वार्ड में लगायी है। हम तो बस अस्पताल का नाईट राउण्ड ले रहे थे। पिछले हफ़्ते एक कम्बल दो सी.एफ.एल. चोरी हुई थी, इसी करके हम जादा चौकस थे।’’

मीरा बोली, ‘‘जे जादव भैया तो वैसे ही हमसे चिढ़ते हैं। पहले ही हमें बोले थे कि ऐसी लगाएंगे तुम्हारी कि तुमसे बुझेगी नय, तुमको हम निकलवा देंगे, रहने नय देंगे इस अस्पताल में। जे सब जने हमें क्रिस्तानक्रिस्तान बोलते हैं। कोई हमें हमाय नाम से थोरे न बुलाता है। जे लोग कोई अपनी न कहेंगे। हम अकेली बिना मरद वाली औरत है न इसीलिए। आप शेरसिंह भैया को बुलाओ, उनसे ही पूछो। हम अपनी दोनों बिटियन की किरिया उठा रहे हैं, जे सब बात कुल्ल झूठ है।’’ ‘‘और संजुआ वाली, ये क्या बात है?’’

‘‘भाभी हम सुबह देर तक अस्पताल में काम करते हैं। घर जाकर खाना तो हमें ही बनाना होता है सबका। हम छुट्टम-छूटा वाली औरत, हमें कौन बना कर खिलाएगा। सोई हमने इसे कह दिया है कि हमारे लिए कछु खाय को लाय दिया करो।’’

पीछे से कब का अन्दर आ चुका हक्कल संजुआ बोल उठा, ‘‘हाँ-हाँ भाभी जे रोज़ हमें 10 रुपया देती है, तब न हम लाते हैं। अपनी ज़ेब से लावे इत्ते बड़े चूतिया हम नहीं है।’’

लाला ठाकुर ने संजुआ को धर के घुरचा। उसने गाली देने के लिए झट्ट जबान काट ली और फिर बोला, ‘‘छह जलेबिन मा से दुई हमाई होती है।’’

वृंदा ने आँख उठा कर उसे घूरा। एक बारगी वो सकपका गया, फिर सम्भला और रुक-रुक कर बोला, ‘‘भाभी जे सब जने हमें धमका रय है कि चंपा को सब बता देवेंगे। वईसे भी कमली रिश्ते में हमाई दूर की मौसिया सास लगती है। ऐसे तो फिर चंपा तक बात जावेगी, वो पंचायत बुलावेगी और अपने भाई से बीच बज़ार हमें कुटवाएगी। भाभी हम काम न करेंगे। हम तो मीरा दीदी को खाय को लाय दे रहे थे बस।’’ अपनी पेशी पर जट्ट काले पक्की रंगत और मोतियों से अक्षरों की सुघड़ अंग्रेज़ी लिखाई वाले शेरसिंह ने अपनी बिलकुल नयी गाथा खोल दी कि उनकी घरवाली खूब गोरी-चिट्टी बी.ए. पास है, जबकि वो खुद बारहवीं फेल है। वो जित्ता अंग्रेज़ी जानती है, वो उसकी चौथाई भी नहीं जानते हैं। वृंदा ने पूछा, ‘‘फिर ये बेमेल ब्याह हुआ ही क्यों?’’

शेरसिंह तन गये और चौड़िया के बोले, ‘‘हमाय बाबू तीन दाय परधानी जीते हैं। अबकि हमाई अम्मा परधानी जीती है। पचास बीघा से ऊपर खेती है। गाँव में पक्का मकान और टूब बेल भी है।’’ ‘‘फिर...?’’ वृंदा के इस सवाल पर चौड़ी छाती सिकुड़ गयी। सर झुका कर नज़र चप्पल कुरेदते अपने अँगूठे में गाड़ कर बोले, ‘‘वो हाथ नहीं धरने देती।’’

लाला चौहान चिहुके, ‘‘तो तुम मीरा पे हाथ धरोगे? जे तो हमाई-तुम्हाई बिरादरी की भी नहीं है। कहीं भी गिर पड़ोगे? और इत्ते ही बड़े खेती-पाती औउर पक्के मकान वाले हौ, तो हिया काहे अपनी मरा रय हौ।’’

अबकि वृंदा चिहुंकी, ‘‘चौहान साहब ज़रा संभल कर बोलिये।’’ लाला चौहान भी संभले कि हाँ जे मालिक नई, मलकिन हैं। हाथ बाँध कर खड़े हो गये, ‘‘जी, गलती हो गयी।’’

शेरसिंह को गुर्राते तो वृंदा ने देखा नहीं था। अलबत्ता रिरियाते ज़रूर देख लिया, ‘‘हम सिर्फ़ अपना दुःख कहि रय थे। जे भी तो अपने मरद का हमसे रोती है। हमें कौन-सा जिनगी भर हियाँ काम करना है। हम कुछ दिन अस्पताल का सब परचा देखेंगे, दवा निकालेंगे, सीख जावेंगे। फिर बाबू हमें खुदै दुकान कराय देंगे।’’

वृंदा चकरायी, ‘‘एक मिनट, सीख जावेंगे? क्या सीख जावेंगे? और किस चीज़ की दुकान करोगे?’’

चौड़ा, मोटा, खुला जवाब आया, ‘‘डाक्टरी की दुकान करेंगे, परचा लिखेंगे और पुडिया बांधेंगे।’’ उन्होंने आगे शान बघारी, ‘‘आपको पता नहीं, हमने विगो डारना औउर सुईऔ लगाना सीख लिया है, बोतलौ चढ़ाए लिये हम। आधे से जादा दवाई जानते हैं हम।’’

भौंचक्की वृंदा ने अपना कपाल ठोंका और सबको बाहर निकाल दिया। पेशी हुई किसी और लिए थी। पेशी किसी की थी। कार्यवाही होनी किसी पे थी, हुई किसी पे। पेशी की गाज गिरी परचूनिए डाक्टर शेरसिंह पे।

मीरा को बाद में फिर बुला कर समझाया था वृंदा ने, ‘‘देखो, तुम अकेली औरत हो। सावधानी से रहो। दुनिया और समाज का चलन ठहरा, कोई भी तुम पर, कभी भी उँगली उठा सकता है।’’

मीरा बोली, ‘‘हम सब जानते हैं भाभी, बिना छत की टपरिया औऊर बिना मरद की मेहरिया बरब्बर है। कौनो हाथ डार देवेगा, कोई रोक थोरी हय।’’

वृंदा के मन में मीरा के लिए मौजूद कोमल कोना थोड़ा-सा और बड़ा हो गया था। उसने कहा, ‘‘कमली कल कह रही थी कि तुम रोज़ ड्यूटी पर देर से आने लगी हो।’’

मीरा बोली, ‘‘भाभी ऑटो नहीं मिलता, देर हो जाती है। पैदल आते हैं, तो पौन घंटा लगता है।’’ उसने कहा, ‘‘सुनो एक साइकिल क्यों नहीं ले लेती तुम?’’ ‘‘भाभी, पैसे कहाँ है हमपे साइकिल लेने के लिए?’’ ‘‘कुछ बिटिया पे लग जाते हैं, बाकी आने-जाने और...’’ ‘‘और कहाँ जाते हैं?’’

‘‘भाभी अम्मा ले लेती है कि का तुमको जिनगी भर मुफत में सर पे बैठा के खिलाएंगे और हगाएंगे।’’ उसने कातर निग़ाहों से वृंदा को देखा और चली गयी।

उसकी कातर दृष्टि वृंदा के मन में कहीं फँसी रह गयी। दूसरे दिन शाम को उसने मीरा के हाथ में पच्चीस सौ रुपये रखे और कहा कि साइकिल ले लो और पैसे हर माह की तनख़्वाह में थोड़ा-थोड़ा कर के कटा देना। वो फिर पाँव छूने को झुकी, तो वृंदा ने रोक दिया। मीरा पैसे लेकर चली गयी।

वृंदा ने उसी रोज़ लाला ठाकुर को कहा कि बाहर दरवाज़े के शीशे पर नोटिस लगाओ कि पैर छूना सख्त मना है। हालांकि बाद में पता चला कि सारी ऐसे प्रतिबन्ध वाली नोटिसों का वही हाल होता है जो ‘थूकना मना है’ या ‘पेशाब करना मना है’ जैसी चेतावनियों के साथ होता है। लोग उस नोटिस के ठीक सामने उसे पढ़ने के बाद जानबूझ कर उसके पाँव छूते थे। खैर।

दो-तीन दिन बाद से मीरा नयी चमचमाती साइकिल पर अस्पताल आने लगी। साइकिल पर चढ़ कर नौकरी पर आने वाली धरम बिगड़ी क्रिस्तान मीरा चर्चा-ए-आम थी। दो-एक हफ़्ते तो वह समय से आयी, फिर वापस उसी ढर्रे पर। अब स्टाफ़ उसकी शिकायत भी कम करता था। सब समझने लगे थे कि वृंदा उसे निकालेगी नहीं।

खैर, समझा यह गया था कि शेरसिंह का किस्सा यहीं तमाम हुआ, पर ये हो न सका।

लगभग चार-पाँच माह बाद दो अज़नबी एक तक़रीबन बेहोश बुरी तरह घायल व्यक्ति को अस्पताल लेकर आये। बोले, ‘‘ये हमाय टिरेक्टर के नीचे आये गये। बिहोश होन के पहिले इनने आपके अस्पताल का नाम लओ और कहिन् कि बस हुअईं पहुँचाय देओ। सो हम हियाँ लई आय।’’ उस आदमी को देखते ही ड्यूटी पर मौजूद मीरा ने धाड़ मार कर रोना शुरूकर दिया। ये घायल परचूनिये डाक्टर शेरसिंह थे।

बीच-बीच में वृंदा के पास उड़ते-उड़ते बात पहुँचाने का प्रयास किया गया था कि शेरसिंह अक्सर लंच टाइम में मीरा की ड्यूटी में ही अस्पताल में आते हैं, पर वृंदा ने अनसुना कर दिया था। वो मीरा के बाबत शायद कोई भी शिकायत सुनना ही नहीं चाहती थी।

ख़बर करने पर शेरसिंह का पूरा कुनबा अस्पताल में हाज़िर हो गया। तीन बार के भूतपूर्व परधान बाबू और वर्तमान परधानिन माता जी खुद नंबर प्लेट पर ‘प्रधान’ लिखी बुलेट पर चढ़ कर आये और अपने साथ दो टिरेक्टर भर आदमी-औरतें भी लाये थे। पूरे अस्पताल में शेरसिंह लल्ला का हल्ला था।

अगले रोज़ पूरे तीन महीने से अपने मायके गयी हुई शेरसिंह की हाथ न धरने देने वाली बी.ए. पास गोरी-चिट्टी घरवाली अपने एक हाथ के घूँघट के साथ वापस आ गयी। दिन भर वो अस्पताल में रहती और रात घर चली जाती। राम-जाने उस बी.ए. पास को बारहवीं फेल शेरसिंह ने क्या पट्टी पढ़ाई कि वो तीसरे रोज़ वृंदा से मिलने आयी और कहने लगी, ‘‘मैडम जी, वो जो मीरा दीदी हैं न, उनकी ड्यूटी रात की लगा दो, तो बड़ी किरपा होगी आपकी। दिन को हम रहते ही हैं। रात में दीदी अपने भैया को देख लेवेंगी।’’

पीछे से भूतपूर्व प्रधान ने भी हाँ में हाँ मिला दी, ‘‘जी वो परधानिन न आ पावेंगी। इस कर के जे ज़रूरी है...’’ और वोट माँगने के अंदाज़ में हाथ जोड़ दिये।

मज़बूरी में सब समझते हुए भी चौहान साब को ड्यूटी बदलने को कह दिया गया। डाक्टर शेरसिंह पूरे डेढ़ माह अस्पताल में रहे और मीरा सबसे चिरौरी-सेटिंग करके पूरे समय रात की पाली में बनी रही।

और हर रोज़ वृंदा ने टोकरे भर-भर मीरा और शेरसिंह के इश्क़ के परवाने सुने।

पर इस पर भी मीरा को काम से निकालने की किसी भी नैतिकतावादी सलाह पर वृंदा अपने कान न धर पायी। फिर पता नहीं, एक रोज़ किस बात पर झंझट शुरूहुआ और एक हाथ का घूँघट काढ़े हुई उस बी.ए. पास स्त्री ने शेरसिंह और उसके पूरे खानदान को बिना एक घूँट भी पानी का अपने हलक से नीचे उतारे अपने उसी घूँघट के नीचे से ही अपनी जिनगी एक बारहवीं फेल के हाथों बर्बाद कराने के लिए जम कर गालियाँ दी। समझाने और बीच-बचाव में उतरी मीरा की भी माँ-बहन एक हुई और उसके भी सारे पुरखे सात पुश्तों तक तार दिये गये और मीरा दीदी के शेरसिंह भईया के कमरे में घुसने पर भी पाबंदी लगा दी गयी। सेवा-टहल तो बहुत दूर की कौड़ी थी। जो हुआ, सो हुआ कि तर्ज़ पर इस घटना के बाद शेर सिंह अपने घर छुट्टी करा कर चले गये। अपने पैर की गहरी चोट से चलने-फिरने में लाचार वो लम्बे वक़्त तक बिस्तर पर पड़े रहे। फिर वृंदा के पास भी शेरसिंह और मीरा के परवानों के टोकरे या टोकरियाँ कुछ भी नहीं आयी। ये एक और बात थी कि शेरसिंह की जगह अब संजुआ के बड़े भाई ठेकेदार बल्लू का नाम मीरा से जुड़े किस्सों में आ गया था।

एक रोज़ सब्ज़ी खरीदते समय सड़क से गुज़रती, नंबर प्लेट पर नंबर की जगह पत्रकार लिखी एक डग्गामार बोलेरो वृंदा को पीछे से उड़ा कर भाग गयी। इस टक्कर में अन्य छोटी-मोटी चोटों और टूट-फूट के साथ वृंदा के दोनों पाँव भी घुटने से नीचे टूट गये। चलती-फिरती, काम करती-कराती वृंदा एक झटके में अस्थाई अपाहिज़ बन बिस्तर पर आ गयी।

दो-चार रोज़ जैसे-तैसे घिसट-घिसटा कर गुज़रे पर सबसे बड़ी समस्या, घर में उसकी देखभाल कौन करे... खाना बनाने वाली लड़की कभी वक़्त पर पहले ही नहीं आती थी, तो अब क्या आती? आने पर भी आधे समय तो कुरते में ठुंसे अपने मोबाइल से ही उलझी रहती। खैर, जैसे-तैसे एक नर्स से बात हो ही गयी थी। उसे अगले रोज़ सुबह से आना था। ये तय हुआ कि बाक़ी समय कोई न कोई स्टाफ़ फोन करने पर मौज़ूद हो जाया करेगा।

मीरा उसी शाम को ही दो दिन की छुट्टी के बाद लौटी थी। सुनते ही भागती चली आयी। उसके पलंग के सिरहाने ज़मीन पर बैठी वह उसका सिर दबाने लगी। करवट बदलने पर पीठ सहलाने लगी, ‘‘भाभी, तुम तो इत्ती अच्छी हौ तुमे काय जे बिपद परी!’’ मीरा पता नहीं क्यों अक्सर उससे अपने ठेठ देसीपन में बात करती थी। वृंदा ने इसका कोई जवाब न दिया, फिर कहा, ‘‘मीरा ज़रा एक प्याला चाय बना दे। दूध फ्रिज में है और चीनी-चायपत्ती वो गैस के ठीक ऊपर स्टील के छोटे-बड़े डिब्बों में है। अलग ही दिखेंगे। कुटनी में अदरख होगी, वो भी कूच कर डाल देना।’’ वह अपनी जगह से रत्ती भर भी नहीं हिली, बस उसे ताके जा रही थी। ‘‘जा, जाती क्यों नहीं?’’ ‘‘भाभी आप भुलाय गयी, हम कऊन कुजात है, हम थोरय भुलाय जईये।’’

वृंदा चौंकी। उसने तो सोचा ही नहीं इस बाबत। उसे निर्णय करने में एक सेकेण्ड भी नहीं लगा। उसने कहा, ‘‘जाओ और चाय बनाओ।’’

मीरा अभी भी वहीं थी, ‘‘भाभी फिर सोच लेवो एक बारि, हमाई जुठत्तर हमेशा की जुठत्तर, गले परि जाई।’’ वृंदा ने कहा, ‘‘बातें मत बना, उठ चाय बना।’’ चाय पीकर उसने कहा, ‘‘कल सुबह सात बजे आ जाना। हम जल्दी चाय पीते हैं और पानी भी गरम करना रहता है। फिर मुझे बाथरूम तक भी ले जाना रहेगा। ठीक?’’ वो बस आँखों में आँसू भरे वृंदा को ताके जा रही थी। वृंदा ने कहा, ‘‘मीरा मुझे छूकर जुठार दिया है न तुमने। अब क्या बाकी बचा? चलो अब भागो यहाँ से। सबेरे समय पर आना। कोई बहानेबाज़ी नहीं।’’ वो बिना कुछ भी बोले चली गयी। लाला चौहान को फोन पर सूचित किया गया कि कल से मीरा घर पर उसके पास रहेगी। बचे समय में अस्पताल में जो कर सकेगी, करेगी। उसकी तनख्वाह अब दूनी होगी। लाला ठाकुर ने दबी जबान में कहा, ‘‘मैडम मीरा...आपके घर पे???’’ वृंदा ने कोई भी उत्तर नहीं दिया।

पूरे अस्पताल में मीरा के घर पर काम करने और रसोई छूने को लेकर खूब खौलन और खदबदाहट मची पर किसकी मजाल कि मलकिन वृंदा के गले में घंटी पहनावे। सो खौल-खौल सब ठंडा गये। सबकी पकाई-धकाई ये घंटी अंततः कूड़े के ढेर में ही बजी होगी। साहब-बहादुर ने कहा, ‘‘तुम्हारी रसोई और घर, तुम जानो।’’ उन्हें कुछ करना नहीं पड़ रहा था, बस। मीरा उनकी निश्चिन्तता की चाभी थी। वृंदा ने पहली बार सच में जाना कि मालिक होना, कितनी बड़ी ताकत है। अब हर सुबह उठने से रात सोने तक वृंदा का संसार मीरामय था। मीरा का बस चलता, तो वो वृंदा को छोड़ कर अपने घर भी न जाती। वृंदा को जागना न पड़े और किसी तरह की तकलीफ़ न हो, इसलिए साहब-बहादुर दरवाज़े की कुंडी बाहर से लगा जाते थे।

मीरा सुबह-सवेरे खुली पड़ी खिडकियों से आयी हवा की मानिंद घर में घुस आती। सोते हुए उसकी आवाज़ से हुई चौकन वृंदा को हल्की नम हवा-सी झुरझुरी देती। उसे अपने गुनगुने माथे पर मीरा की ठंडी हथेली की फिरन अच्छी लगती थी। उन दिनों वैसे भी उसके माथे के अन्दर रात-रात भर अवसादी स्वप्न उठते और टहलकदमी किया ही करते थे। यह स्वप्नों की टहल उसे बेहद अस्त-व्यस्त कर डालती थी। मीरा की आवाज़ जैसे उस अँधेरी खोह में पड़ी वृंदा को हाथ खींच कर बाहर निकाल लाती। मीरा की, ‘हम आयी गये’ की मुस्कान जैसे उसका चाय का ताज़ा प्याला थी।

वृंदा किसी भी कोने में लेटे-बैठे मलकिन मीरा को देखती रहती। इस बीच घर में उसका हाल-चाल पूछने की फ़र्ज़ अदायगी में आने वाले बहुत से मेहमान बिना चाय-पानी के ही लौट गये। वृंदा ने किसी की बातों पर कान और ध्यान न धरा कि इन्हें भी और कोई न मिला-पुसाया... यही टट्टी ‘कमानेवालों’ के घर की मिली।

यह नवंबर का दूसरा हफ़्ता था। आज दिवाली का दिन था। मीरा रोज़ की अपेक्षा आज थोड़ी देर से आयी। वृंदा ने कहा, ‘‘क्यों री कहाँ रह गयी थी? आज त्यौहार के रोज़ मुझे उपवास कराएगी? चल अपनी मेरी दोनों की चाय बना जल्दी से।’’ इतना सुनते ही उसने बुक्का फाड़ कर रोना और सारी दुनिया को कोसना शुरूकर दिया। वृंदा के बहुत पूछने पर बताया कि कल रात वह बाज़ार से होते हुए आयी थी, तो गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियाँ और वस्त्रादि खरीदे थे और अपने साथ ही यहाँ ले आयी थी कि सुबह घर ले जाएगी। ‘‘तो फिर...?’’

‘‘भाभी नीचे बल्लू और मुन्नव्वा ने छिना लिये हमसे। छीना-झपटी करी हमें दीवार पर पटक दौ।’’

वृंदा चौंकी, ‘‘छिना लिये...? मतलब... क्यों... ये झगड़ा क्यों?’’ ‘‘भाभी हम अब धरम बाहर हैं न... क्रिस्तान... पर भाभी हमाई अम्मा-भाई-भाभी-बहन थोड़ी न धरम बदले हैं... भाभी हम तो मजबूरी में बदले हैं। कौनो शौक़ में नाई बदले हैं। बिटियन की खातिन... ई भगवान है केहिके? कुच्छो पता नाई। उने कछु दिखातौ नाई का? कऊनों के पास होवे, हमाय तो सगे नाय भये। जाऊ नाई, वाओ नाय।’’

वृंदा की लाख कोशिशों के बाद भी मूर्तियाँ मीरा को वापस नहीं मिली। सारा स्टाफ इस मुद्दे पर एक हो गया। अंत में थक-हार कर वृंदा ने मीरा को अलग से पैसे दिये मूर्तियाँ और सामान खरीदने के लिये। उसके पास भी इसका कोई हल नहीं था।

इतने खानों में बँटी थी मीरा... विवाहित... छूटी हुई... दो बेटियों वाली... एक धर्म भ्रष्ट कुजात हिन्दू...

अंग्रेज़ी न जानने वाली, चर्च में प्रार्थना न कर पानी वाली, भुग्गा बन कर बैठी रहने वाली क्रिस्तान... माँभाई-भाभी के घर मुफ़्त की नौकरानी और ख़र्चों की पूर्ति करने वाली दुधारूगाय... सबकी नज़रों में अपनी माँग में और ललाट पर खुद अपने हाथों करखा पोतने वाली... घाट-घाट का पानी पी और हज़ार नाव चढ़ी और हज़ार बार पार उतरी हुई, बेहाथ मीरा... अब भी बीस-तीस रुपये का नकली चमक वाला मंगल सूत्र लटकाने वाली मीरा... पैरो में पूरा तीन जोड़ की बड़ी-बड़ी बेनामी बिछिया पहनने वाली मीरा... साड़ी छोड़ वृंदा के दिये सलवार-कुरते पहनने वाली... जाने किस दम पे बिरादरी बाहर जा बैठी अकेली मीरा...

इस घटना और मीरा के दुःख की समझ और साझे ने उन दोनों को एक-दूसरे से और गहरे से जोड़ दिया। करीने से सजी-सँवरी सबेरे से मालिक-सी घूमती मीरा। बिस्तर बिछाती। अलमारी खोलती। कपड़े निकालती। बाथरूम तक ले जाती। ब्रश-मंजन आदि सब कुछ हाथ पर रखना। पानी गरमाना। रखना। नहाने के पहले स्नानघर में कुर्सी और पैरों के लिए स्टूल रखना, पैरों पर पालीथिन बाँधना, टेप लगाना।

सारी व्यवस्था किसी चौकस अंगरक्षक की भांति देखना। फिर उस सुरक्षा व्यवस्था के बीच वृंदा को छोड़ना। इन सब पर भी भारी उसकी ज़िद, ‘‘दरवाज़ा खुला राखो, हम छिटकनी नाइ लगाये दिये।’’

दरवाज़े के बाहर अपने पाँव की अड़ लगाये खड़ी रहती कि सांकल मती लगावो। फिर स्नानघर के बाहर चौकीदार की तरह पाँव-पोंछ पर बैठी मीरा दस बार गुहारती, ‘‘हुई गओ...??? भाभी हुई गओ...???’’

आहट लेने में इतनी पक्की मीरा कि इधर स्नान-ध्यान ख़त्म और उधर वो चट्ट से अन्दर। वृंदा चिड़चिड़ाती, ‘‘थोड़ा तो सब्र कर लिया कर।’’

मीरा अपनी धुन की पक्की। वह पोछा लिये गीली ज़मीन का तेल निकाल डालती... पोछे से राई-रेशारेशा ज़मीन सुखा डालती। पन्नी खोलती और विजयी भाव से अपनी बेहद सुखी मीठी मुस्कान से वृंदा को उठा कर बाहर ले आती।

कुछ दिनों बाद जब वृंदा को कुर्सी पर बैठा कर तीन मंज़िल नीचे उसके चैम्बर तक लाया जाता, तो वह कुर्सी उठा कर ले जाते आदमियों को गरियाते वृंदा को पिछियाती...। वृंदा ने कहानियों में पढ़ा था कि कोई जादूगर होता था, उसकी जान बड़ी क़ीमती होती थी। सो वह उसे चिड़िया या तोते में डाल कर पिंजरे में रख देता था। फिर उसका सारा ध्यान और व्यवस्था उसकी सुरक्षा की व्यूह रचना में लगा रहता था।

कुछ ऐसा ही हाल जैसे मीरा का था। उसने जैसे अपनी जान निकाल कर वृंदा की टूटी-फूटी चोटिल देह में डाल दी थी। अब वह दिन भर अपने को पूरा का पूरा अपनी ही हथेलियों में उठाये वृंदा के आगे-पीछे तिरती रहती थी। मीरा की आँखों में वृंदा बसी थी। कानों में वृंदा पिघली हुई थी। वृंदा की आवाज़ के सिवा उसे कुछ भी सुनाई नहीं देता था। उसकी आवाज़ की मिठास में वृंदा घुली थी।

वृंदा के पीछे हर किसी से लड़ती-भिड़ती मीरा। खाना बनाने वाली रोज़ ही लातियाई जाती, ‘‘काय भाभी इत्ती परेशानी मा हय, तुमका जरसो दया-मया छुई नाई गई हय... तुम रोजय-रोज़ देर से अवती हौ... भाभी तुमाय रस्ता मा भुखाय जऊती हय। आंते कंडा बिनन लग जऊती है।’’ वह इसे और छेड़ती, ‘‘तुम काय नाइ पका देती। खिला दिया करो न...।’’

वृंदा उनके झगड़े में दखल देती, ‘‘अब बस चलो पत्ता गोभी, प्याज, गाजर, मलाई वाले सैंडविच बनाओ...। रेखा तुम आज फिर मिलने गई थी उसे न...। तुम उससे दोपहर बाद क्यों नहीं मिलती? ...और वो तो रोज लंच टाइम में तुम्हें मिलने भी आता ही है न! तुम समय से आया करो।’’

प्लास्टर कट जाने के बाद मीरा के हाथों ने वृंदा के दोनों पैरों पर पड़ी मैली-कुचैली झुर्रियाँ मिटाने और मरी खाल उतारने में जैसे तेल के साथ अपनी सारी जान निचोड़ दी थी। वक़्त ने गुज़रना ही होता है, सो ये बुरा वक़्त भी गुज़र गया। मीरा के साथ ने जैसे वृंदा को दुगनी तेज़ी से अपने पैरों पर वापस खड़ा कर दिया था।

तो हुआ यूँ कि मीरा की घर पर ज़रूरत ख़त्म हो गयी। वृंदा अपने सारे काम खुद ही निपटाने में सक्षम हो चुकी थी। सो मीरा वापस सिर्फ़ अस्पताल के कामों पर आ गयी। और तनख्वाह भी घट गयी। इधर तनख़्वाह घटी और उधर मीरा की बेचैनी बढ़ी।

उस दिन जैसे ही वृंदा चैम्बर में पहुँची, पीछे से झट से मीरा घुस आयी और उसी के पीछे-पीछे अब के नाफ़ौजी फिर भी आजीवन फ़ौजी लाला चौहान। वृंदा ने पूछा, ‘‘क्या बात है।’’

मीरा के बजाय लाला चौहान ही बोल उठे, ‘‘ये आज पाँच रोज बाद आयी है और अपने बारह दिन किये काम की तनख्वाह माँग रही है। कह रही है कल से काम पर नहीं आएगी।’’ ‘‘काम पर नहीं आएगी मतलब...?’’

अब मीरा के बोलने की बारी थी, ‘‘भाभी हमें आपकी तनख्वाह से पुरता नहीं है। हमें वो चौराहे वाले नये गुप्ता जी के अस्पताल में काम मिल गया है। हम पाँच रोज़ से वही काम कर रहे थे। उन्होंने हमें आधी तनख्वाह का एडवांस भी दिया है। हमने पिछले महीने आपसे तनख्वाह बढ़ाने को कहा भी था, पर आप ही ने कहा कि आप अकेले हमारी तनख्वाह नहीं बढ़ा सकतीं। आप जब बढ़ोत्तरी करेंगी, सबकी तनख्वाह में एक साथ करेंगी। काहे कि आपके लिए सब बराबर है। हम कल से काम पर नहीं आवेंगे। हमाई जगह संजुआ की घरवाली चंपा काम कर लेगी।’’

वृंदा को उसकी बातों से बेहद दुःख और चिढ़ दोनों एक साथ हुई। वृंदा ने बस इतना कहा, ‘‘तुम जाओ मीरा, हम देख लेंगे हमें किसको काम पर रखना है। ठाकुर साहब इसका हिसाब कर दीजिये।’’ ‘‘पर मैडम इसने एक माह पहले नहीं बताया कि काम छोड़ेगी।’’

वृंदा ने हाथ के इशारे से उन्हें बाहर जाने को कह दिया। उसकी बर्तन और कपड़े धोने वाली ठीक काम नहीं कर रही थी। नागे भी बहुत ले रही थी, तो उसने सोचा था कि वह मीरा को इस काम पर रख लेगी। मीरा का काम भी बन जाएगा। पर वृंदा समझ ही नहीं पायी थी कि मीरा की पैसे की ज़रूरत वृंदा के लिए उसके लगाव-जुड़ाव से कहीं ज्यादा बड़ी थी। वह दुःख में थी। उसे पता था कि काम तो कोई भी कर लेगा पर मीरा की जगह कोई नहीं ले सकेगा।

मीरा चली गयी। फिर नहीं आयी।

और आज अचानक भरी दुपहरी, पूरे साल भर बाद भरी हुई मीरा, वृंदा के सामने बैठी इस कदर बहे जा रही है...। वृंदा ने उसे बहने और बोलने दिया और खुद को भी। मुरझाई हुई मीरा का रोना कुछ थम जाने पर उसने उससे पूछा, ‘‘चाय पियोगी?’’ मीरा ने कहा, ‘‘हम बनाई देते हैं।’’

चाय पीते हुए वृंदा ने पूछा, ‘‘क्या हुआ है...अब बताओ मीरा बात क्या है?’’

मीरा ने उसे बड़ी कातर निग़ाहों से देखा और बताना शुरूकिया, ‘‘भाभी सब ठीक चल रहा था। हम ठीक से काम कर रहे थे। कुछ ऊपर से मिल जाता था। सब अच्छा था। तनख्वाह आपके हियाँ जैसे तारीख़ पर तो नहीं, पर एकाध हफ़्ते आगे बढ़ कर ज़रूर मिलती थी पर कोई दिक्कत नहीं थी। ठीक पंद्रह दिन पहले तक। पुराना सफ़ाई वाला वहाँ का, सरजू वो सरकारी नौकरी पा गया। सो चला गया। उसकी जगह एक नया सफ़ाई वाला आया। हमने उसके साथ काम करने से मना कर दिया।’’ वृंदा ने पूछा, ‘‘क्यों, तुमने क्यों मना किया?’’

मीरा एक मिनट चुप रही, फिर बोली, ‘‘भाभी मेरा मरद था वो। अब जिसे छोड़ कर आये, उसी के साथ में कन्धा मिला कर काम थोड़ी न करेंगे। भाभी, दो-चार दिन काम किया उसने, पर हमने भी काम बंद कर दिया कि या तो ये करेगा या हम। हमने तय कर लिया था, अपनी जगह हम किसी को आने नहीं देंगे और इसे करने नहीं देंगे। जो भी आयी, डाक साब जिसे भी बुलाये, हमने सबसे बैर मोल लिया।

बल्लू और संजुआ भी हमारा साथ दिये। हार कर डाक साब ने उसको निकाल दिया। फिर, भाभी कल वो फिर आ गया। इस बार मेरी सास को भी साथ लाया था। मेरी सास ने मेरी जगह काम पकड़ लिया। मैंने डाक साब से कहा, तो उन्होंने मेरे आदमी और सास को बुला कर कहा कि तेरे से तेरी औरत और तुम्हारी बहू ही नहीं संभलती, अस्पताल की सफ़ाई क्या ख़ाक करोगे।...इस दो कौड़ी की छुट्टा छिनार ने जीना हराम कर दिया है। पूरा अस्पताल हिला कर रख दिया है...। तुम लोग कुछ करोगे या हमें ही दारोगा को बुलाना पड़ेगा। दारोगा का नाम सुनते ही हमारा आदमी और सास दोनों हम पे जुट पड़े। बाल पकड़ कर खींच कर सड़क पर ले आये और लातों-घूँसों दोनों जनिन ने बहुत मारा। भाभी बेदम हुई गये मार खात-खात हम। कौनो बचावे नई आवा। घर वाले से रार में पुलिस-वुलिस भी काम नाइ आवे है। भाभी कल दिन भरे परे रहे। आज हिम्मत करी के, भैय्या की साइकिल पे आये हैं।....भाभी तुम हमें काम पे फिरि रखि लेव, जिनगी भर तुमाई गुलामी करिहे। अबती दाय धोखा नाय दिये।’’

वृंदा ने कहा, ‘‘ठीक है मीरा, रख लेंगे। तुम परेशान मत हो, पर मीरा अगर तुम उसके साथ काम करती रहती, तो क्या बिगड़ जाता? उसको अपना काम करना था, तुम्हें अपना। तुम्हारा उससे क्या लेना-देना जब तुमने उसे छोड़ ही दिया है तो?’’

मीरा ने मुझे देखा, यह बेइंतेहा नफ़रत और क्रोध की मिली-जुली दृष्टि थी। उसने कहा, ‘‘भाभी हमाई बिटिया न होती, तो इन दोनों को मिट्टी का तेल डार बार देते और फाँसी पर चढ़ जाते। बस बिटियन का मुँह देख कर गम खाई गये।’’ मैंने उसे देखा। उसने खिड़की से बाहर देखते हुए बोलना जारी रखा, ‘‘ब्याह के बाद ही से हमारा आदमी हमसे कम ‘बोलता-बतियाता’ था। हमाय पास ही कमती आता था। भाभी हमने इत्ता ध्यान भी नाइ किया। घर में कुल्ल जने औऊर कुल्ल काम हतो। फिर साल भीतर, बड़ी वाली बिटिया पेटे मा आई गयी। आदमी औरो कम बोलने-बताने लगा। फिर ताके, दुई बरस बाद छोटी वाली भई। हम संवर मा हते भाभी। कोई हमाय पास झकनेव नाय आओ। सब कुछ हम खुदही करि रहे हते। फिर एक दिन राति मा हम पानी पियन उठे, तो हमें लगा हमाई सास के कमरा मा कउनो है। हमने झाँकि के देखो भाभी, हमाई सास और हमाय आदमी एक पे एक बिलकुल नंगे परे हते।’’

मीरा रुकी और उसने वृंदा को देखा। वृंदा का पीला बेआवाज़ चेहरा देख कर उसने बोलना जारी रखा, ‘‘हमें भी पहिले नै पता था कि हमाय ससुर ने हमाई सगी सास के ख़तम होने पे इने ऐसे ही बिना बियाह के बैठाय लिया था। बैठान के समय हमाय आदमी दस बरस के हते। फिर पाँच बरसन बाद हमाय ससुर ख़तम हुई गये। हमाई सास नौकरी करती थी। पैसा-कौड़ी सब उनी की गाँठ में था। सो हमाय आदमी को भी उनने तभही से साधि लौ।....भाभी हमने जब हल्ला मचाओ, तो दोनों जनी ने बहुत मारो हमें। फिर कहा कि दोनों बच्चों को मार डालेंगे। अगर हमने किसी से कुछ कहा तो। भाभी हम चुप्पे रहे, पर फिर तो नंग-नाच शुरूहो गया साल भर हमाई आँखिन के आगे... सब देखा हमने रोजहि... रोज जौन मिलो ताहि से झोरे गये हम, हम मनई नई रय गये हते... जनावर से बुरी जिनगी थी हमाई...। एक दिन हमने सोच लिया कि बस अब औउर नाई...औऊर हम गहना-गुरिया, कपरा-लत्ता सब हुऐं छोड़ बिटियन को उठाई के भाजि आये। बकिया सब आप जानती हो।...अब बताओ हम कैसे करि सकेंगे ऐसे आदमी के संग काम जाको हमें क़तल करे को मिले, तो हम खुशी-खुशी करि देवे...’’

हतप्रभ बैठी वृंदा के पास मीरा के सवाल का कोई जवाब हो भी कैसे सकता था...

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रचनाकार: मंतव्य 2 - हेमा दीक्षित की कहानी : मीरा क्रिस्तान
मंतव्य 2 - हेमा दीक्षित की कहानी : मीरा क्रिस्तान
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