प्रमोद भार्गव का आलेख - आरक्षणःसियासी चालों को लगा पलीता

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संदर्भ-जाटों को नहीं मिलेगा आरक्षण आरक्षणःसियासी चालों को लगा पलीता प्रमोद भार्गव      देश के कमोवेश सभी राजनीतिक दल वोट बैंक की राजनीति के...

संदर्भ-जाटों को नहीं मिलेगा आरक्षण
आरक्षणःसियासी चालों को लगा पलीता


प्रमोद भार्गव
     देश के कमोवेश सभी राजनीतिक दल वोट बैंक की राजनीति के चलते आरक्षण का खेल खेलते रहे हैं। वर्तमान परिदृश्य में यह खेल आरक्षण के वास्तविक जरूरतमंद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के दायरे से निकलकर पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदायों को आरक्षण देने के सियासी खेलों में बदल गया है। खेल इसलिए,क्योंकि आरक्षण देने के ज्यादातर प्रयास संविधान की कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं। यही हश्र संप्रग सरकार द्वारा जाटो को दिए आरक्षण का हुआ है।

संप्रग ने लोकसभा चुनाव की आदर्श आचार संहिता लागू होने के ठीक एक दिन पहले जाट आरक्षण संबंधी अधिसूचना जारी करके की थी,जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। इस फैसले के आने से अब दिल्ली,हरियाणा,हिमाचल,उत्तराखंड,बिहार,गुजरात,राजस्थान,मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश समेत नौ राज्यों में जाटों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। दरअसल यह आरक्षण नहीं देने की दलील राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी दी थी,लेकिन मनमोहन सिंह सरकार ने वोट के सियासी खेल के दृष्टिगत इस संविधान समम्त अनुशंसा की अनदेखी कर दी थी। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इस अभूतपूर्व फैसले के आ जाने के बावजूद राजग सरकार,सप्रंग सरकार से कदमताल मिलाती दिख रही है,क्योंकि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री बीरेंद्र सिंह ने कहा है कि इस फैसले को शीर्ष न्यायालय की बड़ी खंडपीठ में चुनौती देंगे


मनमोहन सिंह सरकार द्वारा जाटों को आरक्षण देने की पारी खेलने के तत्काल बाद कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने जातिगत आरक्षण खत्म करके आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का शिगूफा छोड़ा था,जिसे सोनिया गांधी ने आरक्षण संबंधी यथास्थिति बनाए रखने का बयान देकर खारिज कर दिया था। जाहिर है, केंद्र में सरकार किसी भी राजनीतिक दल की क्यों न हो,इस खेल पर विराम लगना आसान नहीं है। गठबंधन सरकारों के दौर में ये इसलिए भी कठिन है,क्योंकि कई क्षेत्रीय दलों का राजनीतिक वर्चस्व ही जाति आधारित राजनीति पर टिका है। लालूप्रसाद,मुलायम सिंह,नीतिश कुमार,रामविलास पासवान,अजीतसिंह और मायावती के दलों का अस्तित्व ऐसे ही राजनीति की वैशाखियों पर ही टिका है। इसलिए देश की जातिगत पहचान,राजनीतिक पहचान बन गई है।

कई राजनेता तो बाकयदा जातिगत राजनीति की प्रतिस्पर्घा में शामिल हैं। यहां तक की आर्थिक रुप से संपन्न जातियों में भी खुद को पिछड़ी जाति घोषित कराने की होड़ लगी हुई है। गोया उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने तो प्रदेश विधानसभा चुनाव के ठीक पहले आर्थिक रूप से कमजोर ब्राह्मणों को भी आरक्षण देने का सियासी दांव चल दिया था। इस दांव का दायरा व्यापक करते हुए बाद में मायावती ने आर्थिक रूप से कमजोर सभी सवणों को आरक्षण देने की चिट्ठी तात्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखी थी। इसी तरह जाट गुर्जर और मीणाओं को राजस्थान में आरक्षण देने की राजनीति गरमाई थी,लेकिन नतीजा शून्य ही रहा था। अल्पसंख्यंक समुदायों को आरक्षण देने की राजनीति भी आखिरकार अब तक किसी मुकाम पर नहीं पहुंची है।

बावजूद महाराष्ट्र की कांग्रेस और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी सरकार ने विधानसभा चुनाव के ठीक पहले मराठों को 16 फीसदी और मुस्लिमों को पांच फीसदी आरक्षण देने का खेल खेला था। यही नहीं इस आरक्षण की सुविधा अर्द्ध-सरकारी नौकरियों में भी कर दी गई थी। अब महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की गठबंधन सरकार भी इस फैसले को आगे बढ़ाकर कानूनी स्वरूप देने में लगी है। जबकि 2014 का आम चुनाव इस राजनैतिक सत्य को स्थापित कर चुका है कि मतदाता ने धर्म और जाति आधारित दुराग्रहों को ठुकरा दिया है।


    आरक्षण के टोटके जातिगत हों अथवा आर्थिक,राजनीतिक दलों को इतना तो गौर करने की जरूरत है कि आरक्षण की मौजूदा प्रणाली बदलाव की मांग कर रही है ? बदलाव भी इसमें तार्किक ढ़ंग से लाना जरूरी है,जिससे जातिगत आरक्षण भी एकाएक खत्म न हो और नए पात्रों को लाभ भी मिलने लगे ? एक समय आरक्षण का सामाजिक न्याय से वास्ता जरूर था,लेकिन सभी जाति व वर्गों के लोगों द्वारा शिक्षा हासिल कर लेने के बाद जिस तरह से देश में शिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गई है,उसका कारगर उपाय आरक्षण जैसे चुक चुके औजार से संभव नहीं है ? लिहाजा सत्तारुढ़ दल अब सामाजिक न्याय से जुड़े सवालों के समाधान आरक्षण के हथियार से खोजने की बजाय रोजगार के नए अवसरों का सृजन कर निकालेंगे तो बेहतर होगा ?


क्योंकि यदि वोट की राजनीति से परे अब तक दिए गए आरक्षण के लाभ का ईमानदारी से मूल्यांकन किया जाए तो साबित हो जाएगा कि यह लाभ जिन जातियों को मिला है,उनका समग्र तो क्या आशिंक कयाकल्प भी नहीं हो पाया ? भूमण्डलीकरण के दौर में खाद्य सामग्री की उपलब्धता से लेकर शिक्षा,स्वास्थ्य और आवास संबंधी जितने भी ठोस मानवीय सरोकार हैं,उन्हें हासिल करना इसलिए और कठिन हो गया है,क्योंकि अब इन्हें केवल पूंजी और अंग्रेजी शिक्षा से ही हासिल किया जा सकता है ?

ऐसे में आरक्षण लाभ के जो वास्तविक हकदार हैं,वे जरूरी योग्यता और अंग्रेजी ज्ञान हासिल न कर पाने के कारण हाशिए पर उपेक्षित पड़े हैं। अलबत्ता आरक्षण का सारा लाभ वे लोग बटोर ले जा रहे हैं,जो आरक्षण का लाभ उठाकर आर्र्थिक व शैक्षिक हैसियत पहले ही हासिल कर चुके हैं। लिहाजा आदिवासी,दलित व पिछड़ी जातियों में जो भी वास्तविक जरूरतमंद है,यदि उन्हें लाभ देना है तो क्रीमीलेयर को रेखांकित करके इस दायरे में आने वाले लोगों को आरक्षण लाभ से वंचित करना जरूरी है ? अन्यथा यह लाभ चंद परिवारों में सिमटकर रह जाएगा। मसलन सामाजिक न्याय की अवधारणा एकांगी होती चली जाएगी ? फिलहाल इसकी शुरूआत आरक्षण कोटे से प्रशासनिक पदों पर बैठे अधिकारियों की संततियों और सांसद व विधायकों को लाभ से वंचित करके की जा सकती है ?


    मौजूदा आरक्षण प्रणाली में समावेशी उपायों के अंतर्गत राजनीतिक दलों में यदि इच्छाशक्ति है तो वह यह भी कर सकते हैं कि राज्य स्तर पर केवल सरकारी पाठशालाओं में मातृभाषा के माध्यम से पढ़े छात्र ही सरकारी नौकरी के पात्र हों ? इस उपाय से देशहित में दों बातें एक साथ कारगर सिद्ध होंगी। एक सरकारी शिक्षा व्यवस्था में उम्मीद से कहीं ज्यादा सुधार आएगा,दूसरे,आरक्षण का लाभ गरीब से गरीब व्यक्ति के द्वार तक पहुंच जाएगा। जाहिर है,धनवान और अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित लोग आरक्षण के दायरे से आप से आप बाहर होते जाएंगे। चूकिं वे अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित हैं,इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विदेशो में नौकरियों के द्वार उनके लिए खुले ही रहेंगे। भारतीय प्रशासनिक,पुलिस,वन और विदेश सेवा के अवसर भी इनके पास सुरक्षित रहेंगे।


    जातीय कुच्रक को तोड़ना है तो केंद्र सरकार ठोस कदम उठाने की दृष्टि से अंतरजातीय विवाहों को आरक्षण के लाभ से जोड़ देना चाहिए ? जिससे जन्म के आधार पर बहिष्कृत जिंदगी जी रहे लोगों को सम्मान से जीने का अधिकार प्राप्त हो ? राजनीतिक दल यदि ऐसा कानून बनाने की इच्छाशक्ति जताते हैं तो उन्हें कानून के प्रारूप में यह प्रावधान भी रखने की जरूरत है कि आरक्षण का यह लाभ सवर्ण और पिछड़ी तथा अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के युवक युवतियों के बीच विवाह संबंध बनाने पर ही मिले। तलाक की स्थिति निर्मित होने पर नौकरी से बर्खास्तगी का प्रावधान भी जरूरी है ?


    दरअसल हमारे यहां जातिगत आरक्षण की शुरूआत 1950 से हुई थी। अनुसूचित जाति को 15 और अनुसूचित जनजाति को 7.5 फीसदी पद आरक्षित किए गए थे। 1990 में प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने सरकार बचाने के लिए ठंडे बस्ते में पड़े मंडन आयोग की सिफारिशों को संविधान में संशोधन कराकर लागू कर दिया। इन सिफारिशों के तहत पिछड़े वर्ग से जुड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत पद सुरक्षित कर दिए गए। 1991 में पीवी नरसिंह राव सरकार ने सवर्ण जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को 10 फीसदी आरक्षण देने के प्रयास किए थे,लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रयास को संविधान की भावना के विरूद्ध मानते हुए खारिज कर दिया था।

मनमोहन सिंह सरकार ने भी अल्पसंख्यक समुदायों को 15 फीसदी आरक्षण देने की बहुत कोशिशें कीं,लेकिन संवैधानिक रोड़े के चलते वह किसी मुकाम पर नहीं पहुंच पाई। हालांकि कई राज्य सरकारों ने पिछड़े वर्ग के कोटे में मुस्लिम अल्पसंख्कों को आरक्षण दिया हुआ है। केरल में 12, पश्चिम बंगाल में 10, तमिलनाडू में 3.5, कर्नाटक में 4, बिहार में 3 और आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा 4 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मुस्लिमों को दिया जा रहा है। बरहहाल सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से स्पष्ट हो गया है कि आरक्षण की मौजूदा सरंचना को एकाएक बदलना किसी भी सत्ताधारी राजनीतिक दल के लिए मुमकिन नहीं है, लेकिन आरक्षण को समावेशी बनाए जाने और जातीय जड़ता तोड़ने के नजरिए से मौजूदा आरक्षण प्रणाली में बदलाव का सिलसिला तो शुरू होना ही चाहिए ? जिससे इसके महत्व की व्यपकता परिलक्षित हो और कमजोर जाति व वर्गों के नए-नए लोग इससे लाभान्वित हों ?

 

प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224
फोन 07492 232007
   
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. प्रमोद जी आपको अच्छी खुशफहमी हो रही है किआरक्षण में कोई पलीता लग गया है और वोह निकट या दूर भविष्य में ख़त्म होने वाला है ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला .....क्योकि सभी राजनीतिक शक्तियां वोट बैंक राजनीती के चलते इसकी पोषक और संरक्षक बन गयीं है उन्हें आपनी कुर्सी और सत्ता में जमें रहना है अनादी काल से अनंत काल तक सामाजिक न्याय की बात कौन सोंचता है......?
    यह सच है कियह आकलन होना ही चाहिए किआजादी के इतने सालों बाद भी तमाम आरक्षण के बाद भी आखिर वोह वर्ग तरक्की क्यों नहीं कर पाया जिसके लिए आरक्षण लागू किया गया था आज भी लोग जंगलों में घास फूस कीड़े मकोड़े खाकर जीते हैं गरीब और गरीबी बुरे हालमें है
    आरक्षण की बीमारी बढती ही जा रही है बिना रोकटोक लेकिन इसमें साथ सवर्ण लोग भी दें रहें है ,याद रखिये कुल्हाड़ी तब तक लकड़ी नहीं काट सकती जब तक उसके हैंडल के रूप में लकड़ी साथ न दे
    दुनिया के हर देश में एक ही कानून सारी जन ता के लिए होता है और सबको मानना ही पड़ता है पर हमारे देश में बांटो और राज करो के सिद्धांत पर अमल कर कोटा सिस्टम लागू है जो न्याय सांगत नहीं है

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