प्रसन्न कुमार बराल की कहानी - घने कोहरे की माया

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कहानी - घने कोहरे की माया मूल :- डॉ॰ प्रसन्न कुमार बराल अनुवाद :- दिनेश कुमार माली अस्पताल पहुँचते-पहुँचते एक बज गया था। आउटडोर का समय ...

कहानी - घने कोहरे की माया

मूल :- डॉ॰ प्रसन्न कुमार बराल

अनुवाद :- दिनेश कुमार माली

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अस्पताल पहुँचते-पहुँचते एक बज गया था। आउटडोर का समय खत्म हो गया था, इसलिए उसे   कैजुअलिटी में ले जाना पड़ा। वहां डाक्टर ने चेक-अप किया और उसकी गंभीर हालत देखकर हृदय-रोग से संबन्धित विभाग में भर्ती करा दिया गया। और कोई साथ में नहीं होने के कारण  उसे मेडिकल कर्मचारियों के ऊपर निर्भर करना पड़ रहा था। कैजुअलिटी ग्राउंड फ्लोर पर थी, मगर हृदय विभाग तीसरे माले पर। दिन में एक बजे से ज्यादा समय होने के कारण लिफ्ट ऑपरेटर लिफ्ट छोड़कर चला गया था। स्ट्रेचर पर रोगी को ग्राउंड फ्लोर से तीसरे फ्लोर पर ले जाने का काम अगर अस्पताल के कर्मचारियों पर आश्रित हो तो इस क्षेत्र में क्या-क्या असुविधाएँ झेलनी पड़ती है, इस बात को अनुभवी लोग ही समझ सकते हैं। यद्यपि उसे कैजुअलिटी से हृदय-रोग विभाग तक लाने में काफी समय बीत चुका था,मगर तब भी  मनमोहन को होश नहीं आया था। अत्यंत पीड़ा के कारण शरीर के मांसपेशियां अकड़ गई थी, जिसका प्रभाव उसके विवर्ण चेहरे पर साफ झलक रहा था। कार्डियोलोजी डिपार्टमेन्ट के लोगों ने उसकी हालत देखकर तुरंत इलाज करना शुरू कर दिया था। वार्ड के कोने से आखरी बेड से पहले वाली खटिया पर मनमोहन निठाल होकर पड़ा हुआ था। तुरंत चारों और चार-पाँच स्टैंड लगा दिए गए। किसी स्टैंड पर सैलाईन तो किसी पर ग्लूकोज की बोतल। दूसरी तरह-तरह की बोतलों से बूंद-बूंद दवाइयाँ मनमोहन की नसों से शरीर के भीतर प्रवेश कर रही थी। बीच-बीच में कुछ इंजेक्शन भी लगाए जा रहे थे। कुछ इंजेक्शन सीधे शरीर पर तो कुछ इंजेक्शन लटकी हुई बहुत सारी प्लास्टिक की बोतलों में दिए जा रहे थे। नर्स, डाक्टर के अलावा दूसरे रोगियों के परिजन मनमोहन के चारों तरफ इकट्ठे हो गए। शायद रोगी की संभावित स्थिति को देखकर डाक्टर बार-बार मनमोहन के परिजनों को ढूंढ रहे थे, मगर कोई भी वहां नजर नहीं आ रहा था। डाक्टर की बेचैनी देखकर इधर-उधर पूछताछ कर एक आदमी को वार्ड में लाया गया। वह था, मनमोहन को कटक लेकर आया हुआ ड्राइवर। पूछने पर उसे भी भद्रक के निकट किसी घर से कटक लाने के सिवाय कुछ भी पता नहीं था। डाक्टर तथा अन्य लोगों की बेचैनी को भांपते हुए उसने  अपनी टैक्सी के भीतर से काले रंग का पोलियो-बैग लाकर दिया। बैग खोलने के लिए डाक्टर ने उसे ड्यूटी रूम में बुलाया। साथ में सिस्टर तथा दूसरे रोगियों के दो अटेंडेंट को। बैग के अंदर रखे हुए थे, बीस हजार रुपए, उसके इलाज की पर्ची, ई॰ सी॰ जी वाले दो ग्राफ पेपर, भद्रक ऑफिस का एकाध पुराना कागज और आधे प्रयोग में ली हुई टेबलेट की स्ट्रिप। इससे पता चल रहा था कि वह भद्रक में इलाज हेतु कुछ दिन एडमिट होने के बाद लौटा था अपने घर, जहां पर एक सप्ताह से ज्यादा समय बीमार रहने के कारण उसे कटक के किसी बड़े अस्पताल में रेफर कर दिया गया था।

इतनी जानकारी मिलने के बाद अस्पताल के डाक्टर व स्टाफ कुछ हद तक आश्वस्त हो गए थे।    `भद्रक फोन लगाने पर मनमोहन के घर के बारे में कुछ जानकारी मिल गई थी और उनके नजदीक का एक टेलीफोन नंबर भी। कटक अस्पताल से यह खबर मिलने के बाद ऑफिस वालों ने उसकी बिगड़ती हालत की खबर उसके गाँव भेज दी।

इलाज की अच्छी व्यवस्था होने के बाद भी मनमोहन का स्वास्थ्य पहले की तरह चिंताजनक था। बेड पर बेहोशी हालत में वह केवल इंतजार कर रहा था अपनी अंतिम विदाई के क्षणों की। शाम होने लगी थी। बाहर हो रहा था अनवरत वर्षा का तांडव। तीन-मंजिला वार्ड की खिड़की से नीचे झाँकने पर लग रहा था, मानो एक विशाल जलाशय के मध्य किसी द्वीप पर बनी हुई है यह कोठरी।

रात के सात बजने वाले होंगे। बारिश में भीगा हुआ एक युवक ढूंढ़ते-ढूंढ़ते पहुँच गया कार्डियोलोजी वार्ड में । ड्यूटी रूम में मनमोहन का नाम पूछकर उसका बेड नंबर पता कर लिया। बेड के पास जब उसने जाकर देखा तो मनमोहन पहले की तरह निश्चल पड़ा हुआ था। दवाइयां वैसे ही चल रही थी स्टैंड पर लटकी हुई बोतल के माध्यम से। बहुत धीमी गति से उसकी सांस चल रही थी। उसे देख मनमोहन के पास खड़े आदमी की आँखों के आंसू गिरने लगे।

एक सिस्टर आकर उसे बुलाकर ले गई ड्यूटी रूम में, मनमोहन के घर-परिवार के बारे में पूछताछ करने के लिए। फिर उसका मनमोहन के साथ अपने संबंध के बारे में। वह युवक मनमोहन के घर के पास रहता रहा, उसका पड़ोसी रमाकांत। इसके सिवाय उसका कोई रिश्ता-नाता नहीं। मनमोहन के गांव का था वह। बीस साल पहले उसने वहां जमीन खरीदकर घर बनाया था। बहुत समय से पड़ोसी होने के कारण वह आदर से मनमोहन को मनुभाई कहकर बुलाते थे। मनुभाई का अपना कोई परिवार नहीं था और न ही उसके वंश का कोई इतिहास। देर से सही, उसका घर परिवार बसा था, मगर वह भी असमय टूट गया था। अनाथाश्रम में पला-बढ़ा था मनमोहन। यही था उसका जीवन परिचय। मनमोहन का स्वयं पता नहीं होगा कि उसे किसी पेड़ के नीचे, पूल के नीचे से अथवा अस्पताल के बरामदे से कौन कब उठाकर लाया था। उसे तो यह भी पता नहीं होगा कि वह किसकी अवैध संतान थी अथवा नहीं। हो सकता है,वह किसी युवती का शारीरिक आकर्षण, विवाह और पवित्र प्रेम की मिथ्या दुहाई देने वाले किसी लंपट पुरुष की हवस की अंतिम परिणति है, अन्यथा सामूहिक बलात्कार की शिकार किसी असहाय युवती की निष्ठुर निष्पत्ति,या फिर किसी अभिजात्य परिवार की उच्छृंखल कन्या के लिए तथाकथित सभ्य-समाज में कौमार्य मोह का मोह-भंग। 

जबसे उसने होश संभाला, वह अनाथ आश्रम में था। मगर मनमोहन दूसरे बच्चों से एकदम अलग था, आचार,व्यवहार और बातचीत में मार्जित और पढ़ाई में तेज था वह। सातवीं कक्षा पार करने के बाद हाईस्कूल की पढ़ाई के हेतु रोजगार के लिए उसे छोटे-मोटे काम करने पड़े। कॉलेज के पढ़ाई के समय वह ट्यूशन किया करता था। इधर-उधर से कुछ मदद और ट्यूशन से मिले कुछ पैसों से उसका बी॰ए॰पूरा हो गया। बी॰ए॰ पास करने के बाद एक साल नौकरी नहीं लगने तक उसने शार्टहैंड और टाइप सीख लिया था।

अंत में, उसे एक सरकारी नौकरी मिल गई, जूनियर क्लर्क के रूप में। जिले के दूसरे कार्यालय के तुलना में वह अधिक समय बिताता था अपने ब्लॉक और तहसील में। तहसील की इस नौकरी ने मनमोहन के जीवन का मोड़ बदल दिया। इस ऑफिस में मनमोहन की मुलाक़ात हुई सुरमा के साथ। जाति-प्रमाणपत्र और वार्षिक आय प्रमाणपत्र लेने के लिए तहसील ऑफिस आने के कारण सुरमा की बार-बार उससे मुलाकाते होने लगी। पहले मनमोहन के साथ परिचय, फिर अंतरंग आलाप और बाद में धीरे-धीरे यह परिचय  प्यार में बदल गया। मनमोहन का अहंकार-शून्य व्यक्तित्व, विनम्रता और दूसरे के प्रति आदर-सत्कार आदि गुणों की खूब तारीफ किया करती थी सुरमा।  आखिरकर सुरमा ने अपनी तरफ से मनमोहन को शादी का प्रस्ताव दिया। यद्यपि मनमोहन को यह बात सहज नहीं लगी, मगर तनिक अनिच्छा होने के बावजूद भी वह सुरमा को मना नहीं कर पा रहा था। मनमोहन के भय का कारण था, उसका गुमनाम अतीत। अगोचर जन्म-वृतांत से वह टूट चुका था। विवाह की तरह एक सामाजिक शृंखलित बंधन और फिर भविष्य के वंशधर का नजदीकी से सामना कर पाने का वास्तव में उसमें साहस नहीं था। कुछ दिन चुप्पी साधने के बाद बहुत सोच-विचार कर एक दिन उसने सुरमा को मना कर दिया। मगर सुरमा कहां हार मानने वाली थी। उसने मनमोहन को समझाया  कि वह ऐसे सामाजिक नियमों, रीति-रिवाज व प्रतिबंधों के खिलाफ है। उसके लिए ये सारी चीजें कोई मायने नहीं रखती हैं।

सही में, मनमोहन में हिम्मत का संचार हुआ, मगर जन्म, जाति, वंशावली, मानवीय मनुष्यकृत विधि-विधान को जाने बिना सुरमा क्यों सीधे-सादे जीवन व्यतीत कर रहे आदमी को अपना जीवन देना चाहती है, यह सोचकर मन ही मन उसे डर लग रहा था। इस तरह लगभग छ महीने बीत गए, मगर एक दिन सच में सुरमा की मनमोहन के साथ शादी हो गई। एक रजिस्टर्ड मैरिज। अनेक जगह पर उनके हस्ताक्षर और दो वर-मालाएँ ही इस विवाह का अहम हिस्सा बने।

शादी के बाद सुरमा मनमोहन के घर से सीधे अपनी स्कूल जाया करती थी। लगभग एक-डेढ़ साल बीत जाने पर सुरमा का मनमोहन के प्रति व्यवहार धीरे-धीरे बदलने लगा। मनमोहन को मन ही मन अहसास होने लगा कि सुरमा के साथ शादी करना उसके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी। बातों-बातों में घरेलू समस्याओं, पेशेवर जिंदगी को लेकर सुरमा दिन-ब-दिन कठोर होती जा रही थी, और मनमोहन भीतर ही भीतर आहत। कुछ दिनों के बाद उसके घर नियमित रूप से बहुत सारे लोग आने लगे। उनमें से एक आदमी का सुरमा ने दूर के मामा का बेटा अर्थात भाई के रूप में परिचय करवाया।

एक बार मनमोहन ने ऑफिस से लौटते समय सुरमा के साथ इस युवक को देखा था और इसीलिए उसे बहुत कष्ट होने लगा। इस बात को लेकर दोनों के बीच में बार-बार क्लेश पैदा होने लगा, जिससे मनमोहन की मानसिक शांति खत्म होने लगी थी।

इस बीच सुरमा ने ठेके पर अपनी कोन्सोलिडेटेड वेतन वाली शिक्षिका की नौकरी छोड़कर दस किलोमीटर दूर एक एनजीओ में काम करना शुरू किया। नौकरी छोडने के बारे में ऐसा निर्णय लेते समय मनमोहन से सलाह-मशविरा नहीं करने के कारण उसे बहुत दुख लगा था। पहले स्कूल की नौकरी में समय निर्दिष्ट हुआ करता था। दस बजे घर से बाहर निकली सुरमा शाम को सीधे घर आ जाती थी। एनजीओ में काम करने से सब-कुछ बदल गया था। जिले में बहुत दूर-दूर जगहों पर कार्यक्रमों का आयोजन होने के कारण सुरमा बीच-बीच में एक दो दिन बाहर रहने लगी थी। एक बार तो किसी काम को लेकर ऑफिस के कर्मचारी के साथ पूरा एक सप्ताह भुवनेश्वर में रहने के बाद वह घर वापस लौटी थी। इस बात का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं देने के कारण मनमोहन चुपचाप रहने लगा था।

अब जिले के भीतर या भुवनेश्वर ही नहीं, वरन दिल्ली तक जाने की योजना बनाने लगी थी वह। एक रात सोने से पूर्व सुरमा ने मनमोहन से कहा था, “मुझे और एनजीओ के मेम्बर सेक्रेटेरी को इस सप्ताह दिल्ली जाना है। राजधानी में रिज़र्वेशन करवा लिया है। वहां पहुंचकर काम की प्रोग्रेस जानने के बाद रिटर्न टिकट बनाएगी, इसलिए कब लौटेगी, ठीक से नहीं बता पाऊँगी।“ 

इतना कहकर सुरमा मनमोहन की तरफ देखने लगी। मनमोहन ने कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई केवल इतना ही कहा “दिल्ली जाने बारे में बताकर तुम मुझे इंफर्म कर रही हो या मेरी परमीशन मांग रही हो।

“तुमसे परमीशन ?” कहकर सुरमा विद्रूप हंसी हंसने लगी, “तुम सोचते क्या हो ? अगर तुम मुझे माना कर दोगे तो मैं अपना दिल्ली जाने का प्रोग्राम कैंसिल कर दूंगी। हमारे डायरेक्टर पहले से ही वहां पर है । मेरे और सेक्रेटेरी के वहां पहुँचने के बाद ही हमारे स्टेट प्रोजेक्ट पर डिटेल डिस्कशन होगा। हम इसी काम के लिए केन्द्रीय मंत्री से भी मिलेंगे। लगभग तीन करोड़ का प्रोजेक्ट है, किसी भी तरह हमें पास करवाना ही होगा।” एक ही सांस पर इतना कहकर सुरमा दूसरे कमरे के भीतर चली गई, मनमोहन की किसी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किए बगैर।

मनमोहन सब-कुछ सुनता रहा। चश्मा खोलकर आंखें और काँच दोनों पोंछने लगा। सुरमा का इस तरह कठोर व्यवहार दिन-ब-दिन असह्य होता जा रहा था, मगर मनमोहन कुछ कर भी तो नहीं सकता था। इतनी बड़ी दुनिया में सिवाय उसके कोई नहीं था। इस सुरमा ने ही उसे पति स्वीकार किया था। उसका एक सपना था, एक दिन कभी न कभी मेरे सारे अभाव खत्म हो जाएंगे। चिरकाल किसी बंधन के भीतर बांधकर रखने वाली ग्लानि से वह मुक्त हो जाएगा और यह सब संभव होगा सुरमा के माध्यम से। इसलिए सारे अत्याचार और निर्यातना को वह बर्दाश्त कर रहा था, केवल एक संभाव्य सुख की अभिलाषा में। यह सोचकर मनमोहन अपने मन को आश्वासन दे रहे थे, मगर उनका शरीर इसमें सहयोग नहीं कर पा रहा था। जाने-अनजाने भीतर ही भीतर वह खुद टूटते जा रहा था। कुछ दिनों बाद उसमें नजर आने लगा, उच्च रक्तचाप और बाद में डायबिटीज़ का शिकार हो गया वह। इधर अस्वस्थ शरीर और अशांत मन के कारण अंदर ही अंदर छटपटाहट अनुभव करने लगा वह, मगर सुरमा को कह नहीं पा रहा था। उधर वह व्यस्त रहने लगी थी अपनी सभा, समितियों, टूर, ट्रेनिंग, प्रोजेक्ट, भुवनेश्वर और दिल्ली को लेकर। धीरे-धीरे सुरमा के क्रियाकलाप बढ़ने लगे थे विभिन्न दिशाओं में, सुरमा स्कूटी से कम जाने लगी, ऑफिस की गाड़ी अधिकतर उसे लेने आती थी। इस बीच उसने साड़ी पहनना भी छोड़ दिया, सलवार कमीज ही नियमित रूप से पहनने लगी थी। घर में एक लैंडलाइन फोन तथा दो मोबाइल दे रखे थे उस एनजीओ ने। केवल मनमोहन को छोड़कर, सभी के लिए वह बन गई मैडम।

कुछ दिनों बाद सुरमा के एनजीओ का एक राज्यस्तरीय ऑफिस भुवनेश्वर में खुल गया था। अगर वह इस दिशा में निर्णय लेती है तो ऑफिस की महत्ता के कारण उसे यह जगह छोड़कर भुवनेश्वर जाना पड़ेगा। वहां के सारे महत्त्वपूर्ण कार्य उसे ही संभालना पड़ेंगे।

सच में, एक दिन ऑफिस की गाड़ी में घर से सुरमा का बेडिंग, टीवी, फ्रिज,वाशिंग मशीन, गैस-चूल्हा सारा सामान चला गया। दो दिन बाद सुरमा स्वयं चली गई, कपड़ों से भरा अपना सूटकेस लेकर। जाते समय मनमोहन को यह कहते हुए वह गई, “मैं भुवनेश्वर जा रही हूं। बीच-बीच में आती रहूँगी, क्योंकि यहाँ हमारे तीन प्रोजेक्ट चल रहे हैं।”  

मनमोहन चुपचाप सब-कुछ सुन रहा था, मगर मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला। सुरमा गाड़ी में बैठकर चली गई। पीछे छोड़कर मनमोहन को अपने नौकरी के साथ। उनका साथ-साथ रहना बंद हो गया। तलाक लेने के लिए कई बार सीने पर पत्थर रखा, मगर किसी अदृश्य आकर्षण की वजह से वह यह कदम नहीं उठा पा रहा था। आखिरकार तलाक नहीं हुआ। मगर मनमोहन फिर से एकाकी हो गया। यह था मनमोहन के जन्म का ब्योरा और उसके पारिवारिक जीवन की संक्षिप्त रूपरेखा।

मनमोहन का निश्चल शरीर ऐसा ही पड़ा हुआ था बेड पर। डाक्टर ने रमाकांत को बैग, पैसे और सारे कागजपत्र दे दिए।

जैसे-जैसे रात गहराती जा रही थी, वैसे-वैसे वार्ड के अंदर लोगों की चहलकदमी कम होती जा रही थी। नाइट शिफ्ट शुरू हो जाने की वजह से स्टाफ नर्स और डाक्टर बदल गए थे। रमाकांत के जान-पहचान के लोगों के जगह आ गए थे कुछ नवागन्तुक। मनमोहन को बेड पर ऐसे पड़ा देखकर रमाकांत मन ही मन बुरी तरह से भयभीत हो गया था और वह समझ नहीं पा रहा था ऐसी परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिए। डाक्टरों से बातचीत के दौरान मनुभाई के विपन्न भविष्य जानने के बारे में उसे कुछ भी परेशानी नहीं हुई। सोचते-सोचते कब उसे नींद लग गई उसे खुद पता नहीं।

एक निस्तब्ध परिवेश में वार्ड पूरी तरह खामोश लग रहा था। एक शोकाकुल विचित्र नीरवता वास्तव में जैसे संकेत दे रही हो किसी विपर्यय के आगमन की। निशब्द नीरवता इतने भय का संचार कर पाती है! वार्ड के किसी कोने में चल रहे पुराने पंखे की कर्कश ध्वनि बीच-बीच में सुनाई दे रही थी, जो वातावरण में और भी भय पैदा कर रही थी। अचानक रामाकांत की नींद खुल गई, वार्ड में क्रंदन और कोलाहल से। कोई नया रोगी कैजुअलिटी में भर्ती हुआ था, बेड की व्यवस्था को लेकर रोगी के परिजनों और स्टाफ के बीच बहस अत्यंत ही खराब लग रही थी। कुछ समय के व्यवधान के बाद वातावरण फिर सामान्य हो गया। रमाकांत की नजरें घड़ी की और गई, समय हो रहा था रात के चार बजकर पंद्रह मिनट। भोर होने लगी थी। महेंद्र वेला शुरू हो गई थी। रामाकांत ने मनमोहन की तरफ ध्यान से देखा। चेहरे पर दिखाई दे रहे थे, गहरी निद्रा में सोए हुए किसी आदमी के प्रगाढ़ शांति के चिन्ह। रमाकांत को मन ही मन लगने लगा, एक दो दिन के अंदर मनुभाई ठीक हो जाएगा। विगत शाम को उसने उसे जिस अवस्था में देखा था, उससे कई गुना बेहतर लग रहा था वह। शायद ट्रीटमेंट ठीक चल रहा है और दवाइयां भी काम करने लगी है। शायद अनिश्चितता के सारे लेखे-जोखे को लांघकर अनायास वह ठीक होकर अपनी निःसंग कोठरी में फिर से लौट जाएंगे।

अंधेरा धीरे-धीरे हटने लगा था। वार्ड के बड़े-बड़े झरोखों से मेघाच्छादित आकाश दिखाई देने लगा। कमरे में सुनाई देने लगे थे फुसफुसाहट के कुछ स्वर। बरामदे में रात को अखबार बिछाकर सोए हुए रोगियों के परिजनों में से एक-एक कर उठ रहे थे, फिर से एक नए दिन के संग्राम हेतु। सब-कुछ ठीक ठाक लगते समय रमाकांत ने देखा कि मनुभाई का सिर अचानक थोड़ा-थोड़ा हिलने लगा। एकीभूत शारीरिक पीड़ा के कारण चेहरे की मांसपेशियाँ तनने लगी। निस्तेज शरीर पर बंद आंखें ऐसे लग रही थी मानो पीड़ा कई गुना बढ़ गई हो। दिन होते-होते साधारण चहल-पहल धीरे-धीरे सक्रिय होने लगी थी। अचानक मनमोहन ने अपनी बची-खुची सारी ताकत लगाकर दर्द भरी चीत्कार की। यह दर्दनाक चीत्कार सारे वार्ड में संचरित हो गई, अंतिम वार्ड तक। चीत्कार की तीव्रता से ही ऐसा लग रहा था की उसके बाद और कोई आवाज नहीं निकलेगी।

सारा वार्ड सचेतन हो उठा था। गत रात से टेबल पर चेहरा झुकाकर सोई हुई दो स्टाफ नर्सें और हाफ-पेंट व गंजी पहिना अटेंडेंट तुरंत दौड़कर मनु भाई के बेड के पास पहुँच गए। वार्डरूम के आखिर में बाथरूम से सटे रेस्ट-रुम से किसी डॉक्टर को बुलाया गया। देखते-देखते सारा वार्ड हरकत में आ गया था। मनुभाई के बेड के चारों तरफ लोग इकट्ठे हो गए। विरक्तभाव से डॉक्टर लोगों को दूर हटाकर स्टेथो-स्कोप लगाने के बाद उसके सीने पर ज़ोर-ज़ोर से मालिश करने लगा। मगर कुछ नहीं- कुछ समय पूर्व हुई मनु भाई की दर्द भरी चीत्कार ही इस पृथ्वी पर उसके प्रस्थान की अंतिम घोषणा थी। हाथ-पाँव की धमनियों से सुइयां निकाल दी गई। चारों तरफ रखे स्टैंड हटा दिए गए और उसके शरीर पर ओढा दी गई हल्की गंदी सफ़ेद चादर।

आधे घंटे के भीतर ही मेडिकल स्टाफ लाश को उठाने के लिए तागिद करने लगे। मनुभाई के जीवित रहते समय जो लोग उसके प्रति संवेदनाएँ प्रदर्शित कर रहे थे उसके मर जाने के बाद, पता नहीं क्यों इतने निष्ठुर हो उठे थे। लाश को स्ट्रेचर पर लाद कर नीचे ले जाने के लिए मेहतर लोग भी प्रोफेशनल ढंग से भाव-तौल करने लगे थे। किसी ने रमाकांत को लाश ढोने वाली गाड़ी की व्यवस्था करने  का भरोसा दिया और इस हेतु उसे कितना कमीशन चुकाना पड़ेगा, वह भी बता दिया।

भद्रक तो काफी दूर है। कोई भी गाड़ी वाला इतनी आसानी से तैयार नहीं होगा। इसके अलावा, गाड़ी और है कहां ? एक-दो टूटी फूटी अंबेसेडर पड़ी हुई है। वह कटक या भुवनेश्वर की लोकल ट्रिप भी कर ले तो बहुत है। पूरे दिन की कमाई मिल जाने पर कौन भद्रक जाना पसंद करेगा। रमाकांत समझ गया था आने वाली जटिल समस्या के बारे में। तभी गाड़ी आकर नीचे खड़ी हो गई। मनमोहन की लाश को स्ट्रेचर पर लेटाकर नीचे लाया गया,मगर उसके बाद का घटना-क्रम अत्यंत ही अमानवीय और दुखद था।

गाड़ी वाला लाश को पीछे की सीट पर ले जाने के लिए राजी नहीं हो रहा था। यह देख एक मेहतर कहने लगा “चिंता को कोई बात नहीं। मैं बोरा  बना दूंगा। आप सुतली के दो बंडल ले आइए। डिक्की के अंदर लाश आराम से चली जाएगी।”

रमाकांत के समझने से पहले ही कोई पुरानी सुतली की बंडल ले आया। मनु भाई के सोए हुए शव को उठाकर उसने बैठा दिया। पहले दोनों घुटने मोड दिए गए, फिर कमर और सिर को नीचे झुकाकर दोनों घुटनों के बीच में रखकर सफ़ेद कपड़े में लपेट दिया गया। फिर कमर और घुटनों के पास मजबूती से बांध दिया गया। अब लंबी होकर सो रही लाश का आकार बादल गया था एक वृत्ताकार बोझ में।  यह देख रमाकांत के मुंह से आवाज तक नहीं निकल पा रही थी। निश्चल भाव से वह खड़ा होकर देखने लगा, मारे हुए मनुष्य पर जीवित मनुष्य का अत्याचार, फिर भी वह चुप था। मरने के बाद भी अत्याचार से मुक्ति नहीं। मृत्यु प्रमाण पत्र लेते ही वहां से जाने के लिए रमाकांत व्यग्र हो उठा। देखते–देखते डिक्की खोली गई और मनु भाई की लाश के बोझ को हिला-डुलाकर तेजी से उसके अंदर फेंक दिया।

“अरे, इसे उस कोने में रख। साइड में स्टेपनी रख दे। पास में जैक रखकर साले को डिक्की में बंद कर दो । भद्रक तो क्या कलकत्ता जाने पर भी हिलेगा-डुलेगा नहीं।“

मेहतर के मुँह से ऐसी बातें सुनकर रमाकांत रूआँसा-सा हो गया। जब उसने उन्हें सौ रुपये दिए तो उन लोगों ने लेने से इंकार कर दिया। एक आदमी पर सौ रुपए के हिसाब से दो सौ रुपए और सुतली के तीस रुपए अलग से उन्होंने वसूल कर लिए। ड्राइवर के पास की सीट पर बैठते समय तेज बारिश होना शुरू हो गई थी। गाड़ी के शीशों पर वाइपर नहीं होने के कारण ड्राइवर भीतर से गमछे से उसे साफ करने लगा। यहीं से शुरू हो गया था, मनमोहन के शव की शोभा-यात्रा का पहला पड़ाव। ठीक समय पर भद्रक में मनु भाई के घर के सामने उसकी लाश को कार वाले ने पहुंचा दिया। मनमोहन के लिए इस संसार में सिर पटक-पटक कर रोने वाला कोई नहीं था, इसलिए शुद्धि क्रिया और पारंपरिक रीति-रिवाजों की अंत्येष्टि कर्म के लिए कोई जरूरत नहीं पड़ी। मनुभाई के पोलियो बैग में मिले पैसों से वहां के नवयुवक-संघ के तरफ से उसकी लाश का अग्निदाह कर दिया गया। उस समय किसी ने सुरमा की बात छेड़ दी। मगर किसी के पास भी कोई खबर न होने के कारण सभी चुपचाप थे। अंतिम दाह-संस्कार पूरा होने के बाद किसी उत्साही युवक की सहायता से गाँव में सभा का आयोजन किया गया और सभी ने मिलकर यह निर्णय लिया कि रमाकांत का हिसाब चुकता करने के बाद उसका बचा हुआ पैसा किसी अनाथाश्रम को दान कर मनुभाई के घर को बच्चों की स्कूल में तब्दील कर दिया जाएगा।

यह निष्पत्ति लिए हुए एक सप्ताह भी नहीं बिता होगा कि गाँव में सुरमा का अचानक आगमन हो गया । एक महंगी कार में बैठकर। रमाकांत को ढूंढ़ते हुए। कटक मेडिकल से उसने सारी जानकारी इकट्ठी कर ली थी। वह पाई-पाई का हिसाब लेने लगी । सुरमा ने अपने साथ में लाया था लीगल हेअर सर्टिफिकेट, मनमोहन कि पत्नी होने का। कानून की दृष्टि में वह उसकी सारी स्थावर-जंगम संपत्तियों की लीगल उत्तराधिकारी है। सुरमा के वहां पहुँचने कि खबर सुनकर आस-पास के लोग इकट्ठा होने लगे। गाँव की  कुछ औरतें सुरमा का सधवा वेश देखकर अचरज करने लगी। मगर किसी के मुँह से कोई शब्द नहीं निकल रहे थे।

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: प्रसन्न कुमार बराल की कहानी - घने कोहरे की माया
प्रसन्न कुमार बराल की कहानी - घने कोहरे की माया
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