दीपक आचार्य का आलेख - पुण्य वही जो प्रकट न हो

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पु ण्य कमाना हर कोई चाहता है लेकिन पुण्य किनसे प्राप्त होता है और पुण्य का संचय कैसे होता है, इस बारे में लोगों की धारणाएं भिन्न-भिन्न ही ह...

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पुण्य कमाना हर कोई चाहता है लेकिन पुण्य किनसे प्राप्त होता है और पुण्य का संचय कैसे होता है, इस बारे में लोगों की धारणाएं भिन्न-भिन्न ही हैं, इनमें कहीं कोई एकरूपता है ही नहीं।

पुण्य का संबंध न किसी देवी-देवता से है, न किसी वस्तु, संसाधन या व्यक्ति से। पुण्य वह कर्म है जिसके माध्यम से उदारतापूर्वक जरूरतमन्द तक उसके उपयोग की वस्तु, विचार या मार्गदर्शन पहुंच जाए और इसके बदले में दाता की कोई अपेक्षा नहीं रहे, न दाता होने का भाव मन में आए और न ही किसी भी प्रकार के प्रतिफल की किंचित भी कामना का अस्तित्व हो। 

पाप और पुण्य का संबंध जीवात्मा से सीधा जुड़ा हुआ रहता है और मृत्यु के बाद भी इसका प्रभाव जन्म-जन्मान्तरों तक रहता है।

मनुष्य जन्म के बाद मृत्यु पर्यन्त जो कर्म करता है उसमें पुण्यार्जन करने के लिए हर कोई प्रयत्नशील रहता है और इसके लिए भिन्न-भिन्न उपायों का सहारा लेता है।

दान-पुण्य और इससे जुड़े सारे आयामों में देश, काल, परिस्थितियों और पात्रता की परीक्षा जरूरी है। अपात्रों को किया गया दान पुण्य की श्रेणी में शुमार नहीं होता।

इसी प्रकार उस दान का कोई उपयोग नहीं है जो मृत पड़ा रहे, किसी के काम न आए और मात्र किसी के भण्डार की शोभा बढ़ाता रहे। 

पुण्य वही है जो सामने वाली की जरूरतों को पूरा कर उसे संतोष प्रदान करे और उसके जीवन निर्वाह को आसान करे।

इस दृष्टि से हमारा किसी भी प्रकार का वही कर्म पुण्य के रूप में संचित होता है जो कि निरपेक्ष और निष्काम भाव से किसी की भलाई के लिए किया गया हो तथा इसकी एवज में हमारी कोई कामना न हो।

दुनिया में कोई सा अच्छा कर्म हो, गरीबों और जरूरतमन्दों की मदद हो, सेवा का कोई सा अनुष्ठान हो अथवा परोपकार की भावना से किया गया किसी भी प्रकार का कर्म हो, यह सब पुण्य प्रदान करने वाला है और यही पुण्य हमारे खाते में संग्रहित होता है।

श्रेष्ठ, निष्काम और निरपेक्ष कर्म कर देना और इसे अपने पुण्य के खाते में चढ़ा हुआ मान लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि जीवन में हम जो पुण्य कमाते हैं उसे मरते दम तक गोपनीय बनाए रखना भी जरूरी है।

हम जो कुछ पुण्य कार्य करें उसका पूरा-पूरा अंकन तभी होता है जबकि हम इसे गुप्त रखें। मरने के बाद हमारे मूल्यांकन के लिए पुण्य के लेखे-जोखे की जरूरत पड़ती है और उस समय वे ही पुण्य प्रभावी रहते हैं जिनकी चर्चा हमने पूरी जिन्दगी किसी से नहीं की हो अथवा किसी को हमारे पुण्य कर्म की भनक तक नहीं लगी हो।

संसार से जो कुछ पाया है उसे यहीं रखे जाने का विधान है लेकिन पुण्य के मामले में ऎसा नहीं है। पुण्य के रूप में वही कर्म जीवात्मा के साथ जाते हैं जिनका प्राकट्य किसी के समक्ष नहीं हुआ हो।

हालांकि हर अच्छे कार्य का अंकन पुण्य में होता है लेकिन इसके अंशों में कमी आ जाती है। शत-प्रतिशत उसी पुण्य का अंकन होता है जिसे जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त हम सभी से छिपाए रखें। 

सूक्ष्म रूप में आत्मा के साथ जाने वाला पुण्य ही जीव के लिए निर्णायक होता है और इसी से उसे स्वर्ग-नरक तथा अगले जन्मों की प्राप्ति होती है।

इसीलिए कहा गया है कि नेकी कर दरिया में डाल।  अधिकांश लोग अपनी वाहवाही, प्रतिष्ठा और प्रचार के लिए दान-पुण्य करते हैं लेकिन वो सब कुछ यहीं रह जाता है क्योंकि जो कुछ किया होता है वह सब कुछ यहीं प्रकट हो जाता है।

इसलिए जीवन में पुण्य कमाना चाहें तो सेवा, परोपकार और श्रेष्ठ कर्म चुपचाप करें और इन्हें हमेशा गुप्त रखने का यत्न करें।

जो पुण्य प्रकट हो गया उसका कोई प्रभाव नहीं होता। सेवा-परोपकार और जरूरतमन्दों को सहायता के जो भी कर्म हों, वे चुपचाप करें, इसके प्रचार के मोह से दूर रहें और पुण्य करने के बाद उसे भूल जाएं, दूसरे श्रेष्ठ कर्मों का आश्रय प्राप्त करें।

हालांकि जो लोग श्रेष्ठ कर्म करते रहते हैं उनके पुण्यों को क्षीण करने के लिए प्रकृति कई लुभावने प्रचार माध्यम भेजती है, सम्मानों, अभिनंदनों और पुरस्कारों का प्रलोभन रह-रहकर देती रहती है और यही प्रयास करती है कि मनुष्य के पुण्यों का प्राकट्य होकर ये धरती पर ही जीते जी क्षीण हो जाएं ताकि वह साथ कुछ न ले जा सके।

प्रकृति की इस माया को समझ पाना सामान्य इंसान के बूते में नहीं होता लेकिन भगवद कृपा से जो लोग इस रहस्य को जान जाते हैं वे निहाल हो जाते हैं।  पर ऎसे लोग बिरले ही होते हैं जो किसी के झाँसे में नहीं आते हैं और गुप्त रूप से पुण्यार्जन के कर्म में दिन-रात लगे रहते हैं।

समाज को श्रेष्ठ कर्म की आवश्यकता है, अनगिनत जरूरतमन्दों को हमारी जरूरत है, उनकी पीड़ाओं और अभावों को दूर करने में आगे आएं, चुपचाप काम करें, सेवा और परोपकार का प्रतिफल न चाहें।

कई लोगों को यह मलाल रहता है कि वे खूब सेवा एवं परोपकार करते हैं फिर भी लोग उन्हें सराहना तो दूर, भला-बुरा कहते हैं।

किसी भी श्रेष्ठ सेवाकर्म का प्रतिफल मनुष्य से प्राप्त हो जाता है तब इंसान ईश्वरीय कृपा और प्रसाद से दूर हो जाता है। और जिसका श्रेय मनुष्यों से प्राप्त नहीं होता उसके बदले भगवान की ओर से हजार गुना फल भी प्राप्त हो जाता है और उस कर्म का रूपान्तरण हमारे पुण्य में भी हो जाता है, जहाँ दोहरा फायदा होता है।

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- डॉ. दीपक आचार्य

9413306077

dr.deepakaacharya@gmail.com

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