महिला सशक्तीकरण, पंचायतें तथा मानव अधिकार

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डॉ. प्रतिभा   एक पतंग आकाश पर है डोलती कसे हुए तनावों का यह बंद बंद खोलती और ऊपर और ऊपर जा रही मस्त और बेहोश होकर तैरने लगती है जब क...

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डॉ. प्रतिभा

 

एक पतंग आकाश पर है डोलती

कसे हुए तनावों का यह बंद बंद खोलती

और ऊपर और ऊपर जा रही

मस्त और बेहोश होकर

तैरने लगती है जब

कोई खींच लेता डोर

वह कटी पतंग अब जाकर गिरी है यह कहाँ

पीपल की टहनी में उलझी तड़फती यहाँ-वहाँ

यह कैसे इतनी ऊँची उड़ी है।

जैसे यह पतंग न थी

कोई स्त्री की जात थी

डोर इसकी भी किसी अनचीन्हे के हाथ थी।

 

दूसरे हाथों में अपनी डोर पकड़ाने की छटपटाहाट की ओर इंगित करती यह तस्वीर है भारतीय स्त्री की।

प्राचीन युग में कभी पुरूषों के समकक्ष प्रायः सभी अधिकार भोगने वाली यह स्त्री धीरे-धीरे एक विशिष्ट दायरे में सिमट कर अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक सभी अधिकारों से वंचित होती चली गयी, जिसके विषय में पुनः चिंतन स्वातन्त्र्य आन्दोलन के साथ-साथ हुए सामाजिक-धार्मिक पुनर्जागरण आन्दोलन के समय ही हो सका।

स्वतंत्र भारत में लैंगिक भेदभाव को अवैधानिक घोषित करते हुए स्त्रियों को पुरूषों की बराबरी का दर्जा दिया गया। राजनैतिक क्षेत्र में भी उन्हें वोट देने, चुनाव लड़ने और जीतने पर ऊँचे से ऊँचा पद पाने का अधिकार दिया गया। किंतु वास्तविकता में यह मात्र सैद्धान्तिक कवायद सिद्ध हुई। व्यावहारिक स्तर पर स्त्री अभी भी घर, परिवार, समाज राजनीति और अर्थ- सभी क्षेत्रों में शोचनीय स्थिति में थी।

विशेषकर भारत के 'आत्मतत्त्व' कहे जाने वाले गांवों में अधिसंख्य स्त्रियाँ, पिता, भाई, पति, पुत्र के रूप में पुरूष पर निर्भर, निर्णयात्मक शक्ति से हीन, पौष्टिक भोजन व शिक्षा से वंचित, घरेलू और बाहरी काम का दोहरा बोझ ढ़ोती, दोहरे सामाजिक मापदण्डों को झेलती, आर्थिक-शोषण के दंश को झेलती जीने को विवश थी।

स्थापित सत्य यह है कि स्त्रियों को विकास प्रक्रिया से अलग रख किसी भी देश का विकास संभव नहीं है। कुल मानव संसाधन का अर्धांश निर्मित करने वाली भारतीय स्त्री की भी विकास की राजनैतिक प्रक्रिया में सहभागिता उतनी ही महत्वपूर्ण है, समानता और विकास दोनों ही दृष्टि से।

इसलिए नब्बे के दशक में स्त्री-सशक्तीकरण की विचारधारा ने जोर पकड़ा। स्त्री-सशक्तीकरण अर्थात् स्त्री के स्तर और आत्माविश्वास में वृद्धि। यह स्तर और आत्माविश्वास तभी बढ़ेगा जब सभी स्तरों पर निर्णय लेने में सहभागिता होगी, सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों में सहभागिता होगी, रोजगार में सहभागिता होगी। दूसरे अर्थों में, स्त्रियों के सामाजिक-सांस्कृतिक, नागरिक, राजनैतिक और आर्थिक सभी अधिकार पुरूषों के साथ समानता के स्तर पर न केवल संवैधानिक रूप से, बल्कि वास्तविकता में भी सुरक्षित हो तभी सशक्तीकरण संभव है और तभी संभव है स्त्री की अंतर्निहित असीम सम्भाव्य ऊर्जा का गतिज ऊर्जा में परिवर्तन और तभी संभव है नीति आधारित क्षेत्रीय और राष्ट्रीय विकास।

नव सहस्राब्दी में नव-संकल्प का सूत्रपात किया भारत ने वर्ष 2001 को स्त्री- सशक्तीकरण वर्ष घोषित करके। किंतु इस दिशा में मील का पत्थर सिद्ध हुए 73 वें और 74वें संविधान संशोधन, जिनकी बदौलत आज लगभग 15 लाख स्त्रियाँ भारत की जमीनी लोकतांत्रिक संस्थाओं के सदस्य और अध्यक्ष पद पर काबिज हैं। इन संशोधनों द्वारा सुलभ किए गए आरक्षण की अनिवार्यता की मजबूरी ही है कि पंचायती राज के माध्यम से ये भारतीय स्त्रियाँ घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर वार्ड पंच, सरपंच, पंचायत समिति सदस्य, प्रधान जिला परिषद सदस्य तथा जिला प्रमुख के पदों को प्राप्त कर नेतृत्व को चुनौतियों से दो-चार हो रही हैं। और इस तरह लोकतंत्र को समाज की जड़ों तक ले जाने का गांधी का स्वप्न साकार होता नजर आ रहा है।

किंतु इस स्वप्न की राह एकदम आसान हो, ऐसा भी नहीं था। पंचायती संस्थाओं में स्त्रियों के आरक्षण के प्रारम्भिक चरण में राजनैतिक पार्टियों तथा स्त्री संगठनों सहित सभी संदेह से युक्त थे और फूँक-फूँक कर कदम रख रहे थे। राजनैतिक दलों को पर्याप्त संख्या में स्त्री उम्मीदवार प्राप्त कर पाने में भी संदेह था, जिसके लिए स्त्री-संस्थाओं और गैर सरकारी एजेन्सियों ने अनेक जन-चेतना अभियान छेड़े।

आरक्षण की क्रियान्विति में भी 'राजनीति' ने प्रवेश कर लिया। आरोप सामने आए कि अनेक स्थान पर सदस्य अथवा अध्यक्ष पद के वही स्थान स्त्रियों के लिए आरक्षित किए गए जो सत्तारूढ़ दल के लिए असुविधाजनक हो। यथा पंजाब में स्त्री-अध्यक्ष वाले पद उन्हीं पंचायत समितियों में आरााक्षित किए गए जहाँ विपक्षी दल के समर्थन का बाहुल्य था। सत्तारूढ़ दल के पुरूषों ने अपने लिए उन पंचायत समितियों में स्थान रखे जहाँ उनका बहुमत था। यही नहीं, एक तिहाई से कम आरक्षण स्त्रियों के लिए न हो, विधेयक के इस प्रावधान का लाभ उठाते हुए कुछ राज्यों ने स्त्रियों के लिए थोड़ा ज्यादा कोटा रखा जैसे- कर्नाटक ने 43.6 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल ने 35 प्रतिशत। स्पष्टतः यह अतिरिक्त आरक्षण स्त्री शक्ति और ग्रामीण भारत के सामाजिक विकास में उस शक्ति के योगदान को मान्यता देने के स्थान पर मात्र उस अनुमान के कारण था कि स्त्रियाँ आसानी से चुनाव जीत जाएंगी और तब बाद में पुरूषों, समुदायों तथा राजनैतिक दलों द्वारा उनका अपने पक्ष में मनचाहे ढ़ंग से इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसी संदर्भ में एक रोचक तथ्य यह है कि 1993 के अधिनियम के अंतर्गत पश्चिम बंगाल में स्त्री-सदस्यों के लिए ज्यादा सीटें आरक्षित की गई और तीनों स्तरों पर अध्यक्ष पद के लिए कोई स्थान ही आरक्षित नहीं किए गए। एक भ्रामक स्थिति यह भी रखी गई कि सालों तक स्त्रियों को सामान्य रूप से आरक्षित सीटों तक ही मान लिया जाता रहा। अनारक्षित सीटों पर उनके लड़ने की कल्पना ही नहीं की जाती थी। एक प्रकार से यह स्त्रियों में भ्रम उत्पन्न कर उन्हें हाशिए पर लाने का प्रयास ही कहा जा सकता है और पंचायती राज के माध्यम से सत्ता के केंद्र में आ जाने वाली स्त्रियों के लिए भी स्थितियाँ विषम ही रहीं। राजस्थान में पिछले वर्ष पंचायती राज के स्वर्ण जयन्ती के मौके पर कराए गए विभिन्न सर्वेक्षणों से सिद्ध हुआ कि अधिकांशतः प्रभावशाली व्यक्ति अपने ही परिवार की स्त्रियों को पंचायती संस्थाओं की राजनीति में लाकर कर बाद में लाभ उठाते हैं। ग्राम पंचायत में यदि सरपंच स्त्री है तो (सरपंच पति) और (सरपंच दा मुंडा) जैसे पद स्वतः ही सृजित हो जाते हैं, जिन्हें आमजन से लेकर अफसरों तक की मान्यता भी रहती है। यह भी पाया गया है कि संस्थाओं की अधिकांश बैठकों में स्त्रियाँ या तो उपस्थित नही रहतीं, या फिर घूँघट में रहती हैं।

पदासीन स्त्रियों को अपने संवैधानिक अधिकारों का उपभोग करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। संबद्ध कानून की कुछ कमियां भी उनके विपक्ष में हैं। पंचायती राज अधिनियम में स्त्रियों के लिए आरक्षण, अविश्वास प्रस्ताव, धारा 40 के अंतर्गत भ्रष्टाचार को रोकने के लिए प्रावधान तो हैं, किंतु स्त्री-प्रतिनिधियों को कोई विशेष सुरक्षा नहीं। उन्हें पंचायतों में अपना दायित्व निभाने में बाधा उत्पन्न करने वालों के विरूद्ध किसी कार्रवाई का प्रावधान नहीं। उन्हें स्वयं पर हिंसा होने की स्थिति में फौजदारी कानून के अंतर्गत न्याय मांगना होता है। परिणामस्वरूप आए दिन जुझारू और कर्मठ स्त्री-पंचों, सरपंचों के विरूद्ध हिंसा और प्रताड़ना की घटनाएं होती है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत है हरियाणा के पानीपत जिले के कच्छखो गांव में दलित स्त्री सरपंच जिंदन बाई को एक जमीन के सौदे के बारे में पूछताछ करते हुए मार खानी पड़ी।

पंचयती राज के पहले कार्यकाल में मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले की अम्बा ग्राम पंचायत में स़्त्री सरपंच की उसके पति द्वारा ही हत्या कर दी गई, कारण कि वह ग्राम पंचायत मीटिंग में जाकर ग्राम विकास के प्रश्न उठा रही थी। मध्य प्रदेश के भिंड जिले के हरपुरा के ग्राम में एक स्त्री के दोनों हाथ तोड़ दिए गए। मध्य प्रदेश के बैतूल जिले की डुगारिया ग्राम पंचायत में कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ स्त्री पंच द्वारा आवाज उठाए जाने पर उसे मीटिंग में बुलाया जाना ही बंद कर दिया गया। पंचायत दस्तावेजों में सरपंच द्वारा जाली हस्ताक्षर ले लिए गए। उसके साथ दुराचार हुआ, जिसकी रिपोर्ट नहीं लिखी गयी। कलेक्टर, एस.पी. और मुख्यमंत्री को पत्रों के बावजूद सुनवाई नहीं हुई तो उसने 20 नवम्बर 2007 को बैतूल के कलेक्टर कार्यालय में आत्महत्या कर ली।

स्त्री संरपचों को भ्रष्टाचार के झूठे मामलों में फँसाकर उपसरपंचों द्वारा स्वयं सरपंच बन जाने की घटनाएं भी सामने आई हैं।

रोटेशन व्यवस्था के कारण जब स्त्रियों के लिए आरक्षित सीटें सामान्य हो जाती हैं, तो स्त्रियाँ पुनः उन सीटों पर चुनाव लड़ने का साहस नहीं दिखा पाती। कारण पारिवारिक-सामाजिक दबाव कुछ भी हों। 2008 के एक सर्वेक्षण के अनुसार मात्र 11 प्रतिशत स्त्रियों ने यह साहस दिखाया और वे भी हार गई। एक तिहाई स्त्रियों ने माना कि उनके पतियों ने उन्हें दुबारा चुनाव लड़ने के लिए हतोत्साहित किया। किंतु तस्वीर के इसी धुंध से उम्मीद की किरण फूटती है और उजास की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। कहा जाता है कि सशक्तीकरण की प्रक्रिया सबसे पहले स्वयं से शुरू होती है और तब समूह, समाज और राष्ट्र सशक्त होते हैं। पंचायती राज आरक्षण से भी सबसे पहले स्वयं स्त्रियों को उनके अस्तित्व का आभास हुआ। वर्जनाएं टूटीं, परम्पराओं में परिवर्तन हुए और घूँघट में ही सही, स्त्रियाँ चुनाव लड़कर पंच-सरपंच पद पर पहुँची। समाज में परिवर्तन की बयार बही, सामाजिक बंधन ढीले पड़े। पिता अपनी पुत्रियों को ही नहीं, पति अपनी पत्नियों और सास-ससुर अपनी बहुओं को भी शिक्षित करने लगे।

निसंदेह इस सारी प्रक्रिया में स्त्रियां स्वयं में सशक्त हुई हैं और हो रही हैं जिसका प्रमाण है स्त्रियों में आत्मविश्वास बढ़ा है, उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली हुआ है, लिंग भेद में कमी आई है और स्त्री साक्षरता में वृद्धि हुई है। स्त्रियों में सामाजिक जागरूकता आई है, वे स्वास्थ्य और स्वच्छता के प्रति सजग हुई हैं, उनके रहन-सहन के स्तर और और सत आय में वृद्धि हुई है, घरेलू बचत और जमा-राशि पर उनकी पहुँच बढ़ी है, पारिवारिक बजट और आय-व्यय के प्रबन्ध में भी उनकी भागीदारी बढ़ी है और उद्यमियों की संख्या भी बढ़ी है।

पंचायती राज व्यवस्था से उभरे नए स्त्री नेतृत्व अर्थात् सशक्त स्त्री- समूह ने शनैः-शनैः ही सही, पंचायती कार्यों के जिम्मेदारीपूर्ण निर्वहन से समाज पर गुणात्मक प्रभाव डालना प्रारम्भ किया है। स्वाभाविक तौर पर उत्साह, निष्ठा, कर्मठता और धैर्य आदि के गुणों से युक्त स्त्री- प्रतिनिधि अपने क्षेत्रीय परिवेश, उसके सुख-दुख और नकारात्मक-सकारात्मक प्रभावों से गहराई से जुड़ी होती हैं। अतः आश्चर्य नहीं कि गाँवों में पेयजल, स्वास्थ्य, परिवार कल्याण स्वच्छता, निरक्षता, लॉटरी, मदिरापान, अंधविश्वास आदि से संबद्ध समस्याओं पर पहले की अपेक्षा तीव्र गति से तथा तुलनात्मक दृष्टि से अधिक आत्माविश्वासपूर्ण निर्णय स्त्रियाँ ले रही हैं। और जातीय तथा लैंगिक समानता के भी नए प्रतिमान भी उपस्थित हो रहे हैं। पंचायतों में लड़ाई-झगड़े की आशंकाए कम हो गई हैं। आशय यह कि पूरा परिदृश्य बदलने लगा है।

धीरे-धीरे दिन प्रतिदिन की समस्याएँ सुलझाते और लघु स्तर की योजनाएं बनाते-बनाते बड़े और पेचीदा मसले उठाने और सुलझाने में ये स्त्रियां कब सक्षम हो गयी, पता ही नहीं चला।

भ्रष्टाचार में गुणात्मक कमी देखने में आयी है। राजस्थान में अलवर जिले के नीमूचाना ग्राम पंचायत की सरपंच कोयली देवी ने अपने ही ससुर और पति को नोटिस जारी किया कि वे बताएं कि पंचायत की जमीन हड़पने की वजह से उनके विरूद्ध कार्रवाई क्यों न की जाए।

आर्थिक सबलीकरण की दिशा में भी पर्याप्त काम हुआ है। हरियाणा की खोबी ग्राम पंचायत की सरपंच ने सबसे पहले सार्वजनिक जमीन को दो वर्ष के लिए रु0 60,000 के पट्टे पर दिया जो पहले पांच वर्ष के लिए मात्र रु0 20,000 पट्टे पर थी। स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से लघु-वित्त कार्यक्रमों को क्रियान्वित कर वित्त के विकेन्द्रीकरण जैसी पेचीदा गतिविधियाँ भी अत्यन्त सहजता से पूरी की जा रही है। इस प्रकार पंचायती राज की आरक्षण प्रक्रिया से सशक्त स्त्री ने क्रमशः राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ की है। 4 जून 2009 को संसद के संयुक्त अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रपति ने पंचायत में स्त्रियों के आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तक करने के लिए संवैधानिक संशोधन की घोषणा की। कुछ राज्यों में पहले से ही ऐसा है, सम्पूर्ण स्त्री पंचायतों का प्रयोग भी सफलतापूर्ण कुछ राज्यों में चल ही रहा है, जहाँ पंच-संरपंच सभी स्त्रियाँ निर्विरोध निर्वाचित हैं।

कुछ प्रयास केंद्र तथा राज्य सरकारों और संबद्ध सरकारी- गैरसरकारी एजेन्सियों को भी करने होगें। यथा-

० प्रत्येक वर्ष विभिन्न रिफ्रेशर पाठ्यक्रमों के द्वारा प्रतिनिधियों को अधिक योग्य और सक्षम बनाया जाए।

० पंचायती राज अधिनियम में स्त्रियों को विशेष सुरक्षा प्रदान करने वाले संशोधन किए जाएं। ऐसा हो कि उनके विरूद्ध हिंसा होने पर विशेष धाराओं के तहत अपराधियों पर मुकदमे हों।

निःस्संदेह इन प्रयासों से सशक्तीकरण की यह प्रक्रिया पूर्णता को प्राप्त कर सशक्त भारत के निर्माण में सहायक होगी।

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' राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, भारत, मानवाधिकार संचयिका से साभार

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रचनाकार: महिला सशक्तीकरण, पंचायतें तथा मानव अधिकार
महिला सशक्तीकरण, पंचायतें तथा मानव अधिकार
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