शैक्षिक दायित्व के निर्वाह में महिलाओं की भूमिका

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 सर्वमित्रा सुरजन  शैक्षिक दायित्व के निर्वाह में महिलाओं की भूमिकाएं आज इस विषय पर अपने विचार आपके समक्ष प्रस्तुत करने का मुझे सुअवसर प्...


 सर्वमित्रा सुरजन

 शैक्षिक दायित्व के निर्वाह में महिलाओं की भूमिकाएं आज इस विषय पर अपने विचार आपके समक्ष प्रस्तुत करने का मुझे सुअवसर प्राप्त हुआ है। सबसे पहले  मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहती हूं कि इस वर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर दो महिलाओं शमशाद बेगम और फूलबासन यादव को साक्षरता के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया। मुझे यह कहते हुए अति प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि ये दोनों विभूतियां मेरे अपने प्रदेश छत्तीसगढ़ से हैं। इन दोनों महिलाओं ने अपनी सामाजिक, जातीय व आर्थिक बाधाओं को पार करते हुए अक्षर का दीपक उन अंधेरे कोनों में प्रकाशित किया, जहां असाक्षरता की सीलन जीवन को लील रही थी। इन्हें आज के जमाने की सावित्रीबाई फुले कहना उचित होगा। जैसा कि आप जानते ही होंगे कि सावित्रीबाई फुले ने तमाम विरोध और बाधाओं के बावजूद भारतीय समाज में स्त्री की शिक्षा की अलख जगाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1840 में मात्र 9 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह पूना के ज्योतिबा फुले के साथ हुआ। सावित्री बाई की स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी और ज्योतिबा तीसरी कक्षा तक पढ़े थे। लेकिन उनके मन में सामाजिक परिवर्तन की तीव्र इच्छा थी। इसलिये इस दिशा में समाज सेवा का जो पहला काम उन्होंने प्रारंभ किया वह था अपनी पत्नी सावित्रीबाई को शिक्षित करना।

 ज्योतिबा फुले ने स्कूली शिक्षा प्राप्त की और अध्यापन का प्रशिक्षण लिया। फुले दम्पति ने इसके बाद 1848 में पूना में पहला बालिका विद्यालय खोला। फिर उस्मान शेख के बाड़े में प्रौढ़ शिक्षा के लिए एक दूसरा स्कूल खोला। दबी, पिछड़ी जातियों के बच्चे, विशेषरूप से लड़कियाँ बड़ी संख्या में इन पाठशालाओं में आने लगीं। इससे उत्साहित होकर देख फुले दम्पति ने अगले 4 वर्षों में ऐसे ही 18 स्कूल विभिन्न स्थानों में खोले। महिला होकर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सावित्री बाई फुले ने काम किया। आज उन्हीं के पदचिन्हों पर चलते हुए शमशाद बेगम और फूलबासन यादव जैसी न जाने कितनी महिलाएं इसी तरह अपने घर.परिवार और समाज को शिक्षा का महत्व समझाने के लिए संघर्षरत होंगी। शैक्षिक दायित्व के निर्वाह में महिलाओं की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, यह उपरोक्त महिलाओं के उदाहरण से समझा जा सकता है।

 गांधीजी का कहना था कि एक आदमी को पढ़ाओगे तो एक व्यक्ति शिक्षित होगा और एक स्त्री को पढ़ाओगे तो पूरा परिवार शिक्षित होगा। यंग इन्डिया में 23 मई 1929 को लिखे गांधीजी के एक लेख से पता चलता है कि उन्हें निरक्षरता स्कूल सुविधाओं का अभाव, भूस्वामियों के शोषण का शिकार होने और ऐसी ही अन्य सामाजिक आर्थिक अक्षमताओं की कितनी जानकारी थी जिनका सामना ग्रामीण महिलाओं को करना पड़ता है। उन्होंने लिखा था जरूरी यह है कि शिक्षा प्रणाली को दुरुस्त किया जाये और उसे व्यापक जनसमुदाय को ध्यान में रखकर तय किया जाये। गांधीजी के अनुसार शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो लड़के.लड़कियों को स्वयं के प्रति अधिक उत्तरदायी बना सके और एक.दूसरे के प्रति अधिक सम्मान की भावना पैदा कर सके। महिलाओं के लिए ऐसा कोई कारण नहीं है कि वे अपने को पुरुषों का गुलाम अथवा पुरुषों से घटिया समझेंगे। उनकी अलग पहचान नहीं है बल्कि एक ही सत्ता है।

 अतः महिलाओं को सलाह है कि वे सभी अवांछित और अनुचित दबावों के खिलाफ विद्रोह करें। इस तरह के विद्रोह से कोई क्षति होने की आशा नहीं है। इससे तर्कसंगत प्रतिरोध होगा और पवित्रता आयेगी। इसे विरोधाभास ही कहना होगा कि जिस भारत में करोड़ों लोग अर्धनारीश्वर की पूजा करते हैं और जहाँ मनु ने यह घोषणा की कि जहाँ नारी का सम्मान होता है वहाँ देवता प्रसन्न रहते हैं। उसी भारत की बहुतेरी भारतीय महिलाएँ आज भी अशिक्षित हैं तथा वांछित रूप में अपनी आवाज संसद या विधान मण्डलों में उठाने में असमर्थ हैं। ग्रेट वीमेन ऑफ  इण्डिया की भूमिका में महान् चिन्तक, राजनेता, शिक्षक एवं भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. एस. राधा.ष्णन ने कहा है यह तथ्य अधिक महत्त्वपूर्ण है कि हम मनुष्य हैं न कि वे भौतिक विशेषताएँ जो हमें एक. दूसरे से अलग करती हैं। अफसोस कि आज भी समाज मनुष्यता से ज्यादा भौतिक एवं शारीरिक आधार को तवज्जो देता है।

 ब्रिटिश काल में राजा राममोहन राय और ईश्वरचंद विद्यासागर ने महिलाओं की उन्नति के लिए आवाज उठाई।  राजा राममोहन राय ने मैकाले की शिक्षा नीति का विरोध किया तो दूसरी ओर महिलाओं की उन्नति के लिए आवाज बुलंद भी की। ब्रह्म समाज और उसके बाद आर्य समाज ने भी महिलाओं की उन्नति के रास्ते खोले। महिलाओं को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया गया। हमारे मनीषियों ने शिक्षा को विकास, सभ्यता, संस्.ति, सहिष्णुता व प्रगति का पुरोधा माना है। फिर भी यहां व्यापक सामाजिक व आर्थिक जीवन की वास्तविकताएं कुछ ऐसी कठोर और विषम रहीं कि बहुत से लोगों, विशेषकर लड़कियों के लिए शिक्षा दिवास्वप्न बन कर रह गई। स्त्री के जीवन की सभी समस्याओं की जड़ अशिक्षा है। आज प्रत्येक क्षेत्र में अपनी क्षमता सिद्ध करने के बावजूद स्त्री जीवन की राहें आसान नहीं हैं। गाँवों व कस्बों में बालिकाओं की अशिक्षा के लिए प्राचीन मान्यताएँ दोषी हैं। वहाँ अभिभावकों को जागरूक कर पाना कठिन कार्य है। भारतीय समाज में आमतौर पर लड़कियों के लिए विकास का मतलब गृहकार्य में दक्षता, सभ्यता अर्थात निज आजादी को त्याग कर पिता, भाई, पति व पुत्र के संरक्षण में मुस्कुराते हुए रहना, संस्.ति अर्थात अपनी गृहस्थी का सुघड़तापूर्वक संचालन, सहिष्णुता के मायने गाय की तरह खूंटे से बंधकर शांतिपूर्वक रहना और प्रगति जैसे शब्द लड़कियों के लिए गढ़े ही नहीं गए हैं।

 इस व्याख्या में अतिशयोक्ति का अनुभव हो सकता है। किंतु यह तथ्य है कि रूढिवादी भारतीय समाज अमूमन ऐसी ही धारणा रखता है। लड़कियों की शिक्षा के नाम पर बस उसे साक्षर बनाया जाता है लोगों का नजरिया अभी भी स्त्री शिक्षा के प्रति बहुत ही पिछड़ा हुआ है। लड़कियां पढ़ रही हैं, बढ़ रही हैं, राजनीति, प्रशासन, सेना, विज्ञान, चिकित्सा, कानून, कला, साहित्य, संस्.ति, मीडिया आदि तमाम क्षेत्रों में पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रही हैं, लेकिन उनके लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर बनी निषेधाज्ञा यही साबित करती हैं कि लड़कियों के लिए प्रगति जैसे शब्द को अर्थहीन बनाने की साजिश जारी है।

 लड़कियां पढऩे में अच्छी होती हैं। 10 वीं व 12वीं क्लास के नतीजे हर वर्ष बताते हैं कि लड़कियां परीक्षा में अव्वल रहतीं हैं। परंतु फिर भी पहली से लेकर बारहवीं कक्षा तक पहुंचने में उनकी संख्या में तेजी से गिरावट आती है। अधिकतर लड़कियां आठवीं क्लास के बाद पढ़ाई छोड़ बैठती हैं। पुराने रीति.रिवाज उनका जल्दी पीछा नहीं छोड़ते हैं।  गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी कहानी समाप्ति में लिखा है कि महिलाओं की दो ही श्रेणियां होती हैं. एक कुमारी और एक शादी.शुदा। अफसोस कि आज एक सदी बीत जाने के बावजूद लड़कियों के लिए ये दो श्रेणियां पूर्ववत हैं, उन्हें इन्हीं दो में विभक्त हो कर रहना है। इन दो श्रेणियों में कोई बुराई नहीं है, बुराई इस सोच में है कि लड़कियों का वजूद इनका ही मोहताज होकर रह गया है। सुशिक्षित नारी अपनी शिक्षा, ज्ञान का लाभ समाज को अगर देना चाहे तो उसे लाख बाधाओं का सामना करना पड़ता है। शैक्षिक दायित्व के निर्वाह में महिलाओं की भूमिका को इस पृष्ठभूमि में समझना होगा।

 भारत के विकास में महिला साक्षरता का बहुत बड़ा योगदान है। पिछले कुछ दशकों से ज्यों.ज्यों महिला साक्षरता में वृद्धि होती आई है, भारत विकास के पक्ष पर अग्रसर हुआ है।  हालाँकि इसमें और प्रगति की गुंजाइश है। महिला सशक्तिकरण की जब भी बात की जाती है। तब सिर्फ राजनीतिक एवं आर्थिक सशक्तिकरण पर चर्चा होती है पर सामाजिक सशक्तिकरण की चर्चा नहीं होती। ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है।  महिलाओं को ऐतिहासिक रूप से शिक्षा से वंचित रखने का षडयंत्र इसलिए किया गया कि न वह शिक्षित होंगी और न ही वह अपने अधिकारों की मांग करेंगी। यानी उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाये रखने में सहूलियत होगी। इसी वजह से महिलाओं में शिक्षा का प्रतिशत बहुत ही कम है। खैर अब बालिका.शिक्षा का महत्व केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों की समझ में आ गया है। और इस दिशा में दोनों के द्वारा महत्वपूर्ण क़दम उठाये जा रहे हैं। यह एक शुभ संकेत है।

 देश की सर्वांगीण प्रगति में एक सजग, सफल, सुयोग्य नागरिक के रूप में अपनी भूमिका सुनिश्चित करने हेतु भी प्रत्येक बालिका, स्त्री का शिक्षित होना अनिवार्य है। संविधान ने महिलाओं को अनेक अधिकार प्रदान किये हैं, सरकार ने भी उन्हें कागज़ों पर अनेक सुविधाएँ सुलभ करवायी हैं परन्तु व्यावहारिक जगत् में उन सबकी प्राप्ति शिक्षा के माधयम से ही सम्भव है। महिलाओं के कल्याण के लिए बने तमाम क़ानून और लाभकारी योजनाएँ तब तक बेमानी हैं जब तक बालिका शिक्षा का समुचित प्रसार पूरे देश में नहीं हो जाता। सरकार ने लड़कियों के हकों की खातिर सशक्तिकरण के लिए शिक्षा का नारा दिया हैए लेकिन नारा जितना आसान है लक्ष्य उतना ही मुश्किल हो रहा है। चाईल्ड राईटस एण्ड यू क्राई के मुताबिक भारत में 5 से 9 साल की 53 फीसदी लड़कियां पढऩा नहीं जानती इनमें से ज्यादातर रोटी के चक्कर में घर या बाहर काम करती हैंए यहां वह यौन उत्पीडऩ या दुर्व्यवहार की शिकार बनती हैं।

 4 से 8 साल के बीच 19 फीसदी लड़कियों के साथ बुरा व्यवहार होता है। इसी तरह 8 से 12 साल की 28 फीसदी और 12 से 16 साल की 35 फीसदी लड़कियों के साथ भी ऐसा ही होता हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो से मालूम हुआ कि बलात्कारए दहेज प्रथा और महिला शोषण से जुड़े मुकदमों की तादाद देश में सालाना 1 लाख से ऊपर है। देश में महिलाओं की कमजोर उपस्थिति मौजूदा संकटों में से एक बड़ा संकट है।

 सरकार ने लड़कियों की शिक्षा के लिए तमाम योजनाएं बनायी हैं, जैसे घरों के पास स्कूल खोलना, छात्रवृत्ति देना, मिडडेमील चलाना और समाज में जागरूकता बढ़ाना। राष्ट्रीय बालिका शिक्षा कार्यक्रम के तहत 31 हजार आदर्श स्कूल खुले जिसमें 2 लाख शिक्षकों को लैंगिक संवेदनशीलता में ट्रेनिंग दी गई इन सबका मकसद शिक्षा व्यवस्था को लड़कियों के अनुकूल बनाना है। ऐसी महत्वाकांक्षी योजनाएं सरकारी स्कूलों के भरोसे हैं। लड़कियों की बड़ी संख्या इन्हीं स्कूलों में हैं। इसलिए स्कूली व्यवस्था में सुधार से लड़कियों की स्थितियां बदल सकती हैं। लेकिन समाज का पितृसत्तात्मक रवैया यहां भी रूकावट खड़ी करता है। एक तो कक्षा में लड़कियों की संख्या कम रहती है और दूसरा उनके महत्व को भी कम करके आंका जाता है। हर जगह भेदभाव की यही दीवार होती है। दीवार के इस तरफ खड़ी भारतीय लड़कियां अपनी अलग पहचान के लिए जूझती है। अब महिलाओं ने इस बात को समझना शुरू कर दिया है कि उनके वास्तविक सशक्तिकरण के लिए शिक्षा एक कारगर हथियार है। शिक्षा को अपनी प्राथमिकता सूची में पहले स्थान पर रखने वाली महिला सरपंचों एवं पंचों का स्पष्ट कहना है कि शिक्षा में ही गांव का विकास निहित है और सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाली महिला सरपंचों एवं पंचों को ही वास्तविक रूप से सशक्त माना जा सकता हैं।

 इस देश में समाज के निम्न वर्ग की औरतें तो हमेशा से ही मजदूरी करती रही हैं, किन्तु उच्च वर्ग की महिलाएँ अधिकतर अपने घरों तक ही सीमित रही हैं। स्वतंत्र भारत में अब महिलाएँ घर की चहारदीवारी से निकलकर अधिकाधिक संख्या में वैतनिक एवं लाभपूर्ण व्यवसायों और काम.धन्धों में आने लगी हैं, जिन पर अब तक पुरुषों का अधिपत्य था। यह एक अपूर्व घटना है और एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत की विशेषता भी है। संविधान में यद्यपि सिद्धान्त रूप में स्त्री और पुरुष को समान अधिकार दिये गये हैं। पर व्यवहार में वह बात नहीं है और अनेक सामाजिक बाधाएँ उनके विकास में बाधक हैं। अतः नारियों को व्यावहारिक रूप से समान अधिकार मिलना चाहिये। भारतीय नारी परिवार, समुदाय और समाज में तभी उत्साहपूर्वक अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकती है, जब सामाजिक जीवन में उसके काम और जीवन की दशाओं में सुधार होगा और वह स्वयं को सामाजिक, आर्थिक व मानसिक रूप से बन्धनमुक्त कर पायेगी।

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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, मानवाधिकार संचयिका से साभार

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रचनाकार: शैक्षिक दायित्व के निर्वाह में महिलाओं की भूमिका
शैक्षिक दायित्व के निर्वाह में महिलाओं की भूमिका
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