सामाजिक न्याय, प्रशासन तथा मानवाधिकार'

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राजेश प्रताप सिंह वर्तमान समय में वैश्वीकरण एवं निजीकरण के चलते तमाम परिभाषाएं एवं मान्यताएं बदल गई हैं। समाज में नई-नई चुनौतियों के कारण ...

राजेश प्रताप सिंह

वर्तमान समय में वैश्वीकरण एवं निजीकरण के चलते तमाम परिभाषाएं एवं मान्यताएं बदल गई हैं। समाज में नई-नई चुनौतियों के कारण नई-नई समस्याएं आ रही हैं और उनका समाधान भी सामान्य तरीके से होना असम्भव है।

सामान्य तौर पर सामाजिक न्याय का अर्थ है पूरे समाज में न्याय की परिकल्पना। यह व्यक्ति एवं समूह सभी के साथ न्यायोचित व्यवहार एवं समाज के फायदे में सभी की न्यायोचित भागीदारी के विचार पर आधारित है। यह सही है कि चन्द शब्दों में सामाजिक न्याय को परिभाषित नहीं किया जा सकता परन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि सामाजिक न्याय का कोई अर्थ ही नहीं है। यह उसी तरह से है जैसे कि नदियों को उसके किनारों से नहीं बांधा जा सकता परन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि नदियों का कोई अस्तित्व नहीं है। सामाजिक एवं आर्थिक समानता ही विधि के नियम की भावना है। यह गतिशील व परिवर्तनीय आदर्श एवं बहुआयामी विचार का प्रतीक है। जस्टिस के0 सुब्बाराव ने कहा है कि सामाजिक न्याय सभी के प्रति न्यायसंगत व निष्पक्ष होता है न कि किसी व्यक्ति विशेष के प्रति।

सामाजिक न्याय समाज के कमजोर वगरें के प्रति बेहतर बर्ताव की मांग कर सकता है परन्तु यह सिर्फ समाज में व्याप्त असंतुलन को दूर करने के लिए है न कि किसी को प्रताड़ित करने या किसी के प्रति अन्याय के लिए। सामाजिक न्याय प्रमुख रूप से वह आचार संहिता है जिसे समाज बहुआयामी विकास के लिए लागू करता है और पालन करता है। क्रमिक विकास में मनुष्य अपनी बुद्धि से सर्वजेता होने का प्रयास करता है परन्तु अन्तर्ज्ञान उसे समाज में अन्य लोगों के प्रति जिम्मेदारी के बारे में बताता है जिसे वह नैतिकता के नाम से जानता है। नैतिकता और मनुष्य के सर्वजेता की इच्छा का अन्तर्द्वन्द ही मनुष्य के सामाजिक व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करता है। न्याय इन दोनों अन्तर्विरोधी बलों में सामांजस्य बिठाने का नाम है, यह मनुष्य की स्वार्थपरता एवं उसके सामाजिक उत्तरदायित्वों का सामंजस्य है। सामाजिक न्याय मनुष्य के अधिकार एवं कर्तव्य, उसकी स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व का संतुलन है तथा इस संतुलन को लागू करने के लिए समाज ने राज्य की स्थापना की और राज्य को यह अधिकार दिए कि वह इनको लागू करे।

सामाजिक न्याय का अर्थ एक ऐसे समूह से है जो मनुष्य को मनुष्य होने के नाते पवित्रता का घर मानता है और उसे पूर्ण मानवता प्राप्त करने में सहायता देता है और उन्हें एक दूसरे के प्रति प्यार, सम्मान, दया, सहिष्णुता के साथ बर्ताव करने तथा पूरे विश्व को एक अद्भुत कृति मानते हुए उसका सम्मानपूर्वक एवं पर्यावरणीय एवं नैतिक दायित्वों के प्रति सजग रहते हए उपयोग की अनुमति देता है। सामाजिक न्याय के अन्तर्गत नागरिक अधिकार, मानवाधिकार, समानाधिकार सभी सन्निहित हैं।

वर्ष 1995 में कोपेनहेगेन में हुए सामाजिक विकास पर यू0एन0 का घोषणा पत्र एक ऐसा मसौदा है जो सामाजिक न्याय और मानवाधिकार तथा उसे सही सोच के साथ समाज में लागू करने के लिए प्रजातन्त्रात्मक ढांचे एवं उसे चलाने के लिए प्रशासन का लेखा जोखा प्रस्तुत करता है।

इस घोषणा पत्र में सामाजिक विकास के लिए नीतियों के निर्धारण में मानवाधिकार को केन्द्र विन्दु में रखने की बात कही गई है। इसके अनुसार प्रमुख सामाजिक समस्या जैसे गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक बहिष्कार सभी राज्यों को प्रभावित करती है और प्रत्येक सरकार का यह कर्तव्य है कि वह इनके कारणों और उनसे उत्पन्न विषमताओं दोनों का निवारण करे। सामाजिक विकास का तात्पर्य व्यक्ति, परिवार एवं समाज के भौतिक एवं आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरी करना है। यह तभी सम्भव है जब हम समाज एवं व्यक्ति केन्द्रित विकास को अपनाएं। सामाजिक विकास में तमाम बाधाएं जिनमें प्रमुख भुखमरी, नशा, संगठित अपराध, भ्रष्टाचार, अवैध मानव एवं शस्त्र व्यापार, आतंकवाद, जातिवाद, धर्मवाद आदि हैं। इनमें से तमाम मानवाधिकारों के उल्लंघन से जुड़ी हैं इसीलिए घोषणा पत्र में मानवाधिकार एवं प्रजातन्त्र पर विशेष बल दिया गया है, क्योंकि बिना मानवाधिकारों की रक्षा किये प्रजातन्त्र के सामाजिक विकास होना लगभग असम्भव है। वास्तव में प्रजातन्त्र, पारदर्शी तथा जवाबदेह सरकार एवं प्रशासन समाज एवं व्यक्ति केन्द्रित विकास की नींव हैं। बिना इसके हम सामाजिक विकास की कल्पना नहीं कर सकते।

सामाजिक न्याय की परिणिति सामाजिक विकास में होती है। इसके लिए समाज को और विशेष रूप से शासन को एक ऐसी राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक आदर्श की परिकल्पना करनी होगी जो मानव-सम्मान, मानवाधिकार, समानता, इज्जत, शान्ति, प्रजातन्त्र, पारस्परिक उत्तरदायित्व एवं सहयोग तथा विभिन्न सांस्कृतिक एवं धार्मिक रूप से अलग रहने वाले समूहों का पूर्ण सम्मान पर आधारित हो। उन्हें सभी वगरें के और विशेष रूप से सामाजिक रूप से पिछड़े एवं समाज के अशक्त वर्ग जैसे बच्चे, बूढ़े, औरत, अपंग के समस्त मानवाधिकारों और विशेष रूप से विकास के अधिकारों का सम्मान एवं संरक्षण करना होगा तथा यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी सामाजिक विकास में भागीदारी हो।

सामाजिक विकास या दूसरे शब्दों में सामाजिक न्याय तभी सम्भव है जब हम विकास का ढांचा मानवाधिकारों पर आधारित कर बनाएं। सामाजिक न्याय प्रजातंत्र पर टिका है। प्रजातंत्र ही एक मात्र ऐसी व्यवस्था है जिससे सबसे ज्यादा एवं लगभग अहिंसक तरीके से मानवाधिकारों की रक्षा होती है। शुरू में आत्म निर्णय के अधिकार से विदेशी शासकों से मुक्ति तो मिल जाती थी पर आन्तरिक शासकों या राज्यों के द्वारा सम्प्रभुता के नाम पर लोगों का शोषण जारी रहता था। आत्म निर्णय सीधे प्रजातन्त्र तक नहीं जा पाता था परन्तु वर्तमान में आत्म निर्णय का अर्थ लोगों द्वारा सरकार के स्वरूप को चुनना और उसमें पूर्ण भागीदारी करना हो गया है। अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर बहस एवं उनके संरक्षण का मुद्दा प्रजातंत्र का एक अहम् पहलू है। सामाजिक विकास के विश्व सम्मेलन ने गरीबी उन्मूलन के मानवाधिकार केन्द्रित नीतियों पर अपनाने के लिए कहा है। मानवाधिकारों का संरक्षण शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व सुनिश्चित करता है जिसके फलस्वरूप सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिरता बनती है। प्रजातंत्रात्मक समाज मानवाधिकारों का सम्मान करता है। जो समाज सामाजिक न्याय पाना चाहता है, उसे प्रत्येक व्यक्ति के सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों को सुनिश्चित करना होगा।

मानवाधिकारों की व्यापकता सिर्फ राज्यों तक सीमित न होकर निजी समूहों पर भी लागू होना चाहिए। वर्तमान में निजी अन्तर्राज्यीय समूहों की नीतियाँ समाज के एक बड़े वर्ग को प्रभावित करती हैं। आज सभी धनी एवं गरीब राज्यों पर सामाजिक न्याय तथा मानव के सम्मान हेतु दबाव बनाने की जरूरत है तभी हम गरीबी से लड़ सकेंगे और एक संतुलित समाज की स्थापना कर सकेंगे।

कल्याणकारी राज्य, जैसाकि हम लोग हैं, का यह उत्तरदायित्व होता है कि सामाजिक हितों की सभी तरह से रक्षा करे। इन राज्यों में कानून की योजना इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए की जाती है। कल्याणकारी राज्य समस्त सामाजिक समस्याओं को एक व्यावहारिक समाधान देने का प्रयास करता है। सामाजिक न्याय सभी समस्याओं को सामाजिक कल्याण के माध्यम से सुलझाने का एक प्रयास है। सामाजिक कल्याण एक प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य है सामाजिक न्याय की प्राप्ति। समाज कल्याण साधन है जबकि सामाजिक न्याय साध्य है।

भारत वर्ष के सन्दर्भ में सामाजिक न्याय हमारे संविधान की धुरी है। संवैधानिक रूप से राज्य समाज के सभी वगरें का जीवन स्तर एक सामान्य स्तर तक लाने के लिए बाध्य है। सामाजिक न्याय की अवधारणा हमारे लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि हमारी एकता अनेकता के आधार पर टिकी है और यहाँ पर ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। सामाज का एक बड़ा वर्ग आज भी रोटी, कपड़ा और मकान के लिए चिन्तित है। तमाम लोग ऐसे हैं जो न्यूनतम मानवीय सुविधाओं के अभाव में जीवनयापन कर रहे हैं। जस्टिस कृष्णा अय्यर (सामाजिक न्यायः सूर्यास्त या भोर) ने सही कहा था कि भारत वर्ष में क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद आदि ऐसी मिसाइलें हैं जो हमारे सामाजिक न्याय रूपी जहाज को मारकर गिराती रहती हैं।

हमारे संविधान की आमुख, भाग-3 और भाग-4 भारत में सामाजिक न्याय की व्याख्या करती हैं। धर्म, जाति, रंग, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर हमारे देश में भेदभाव नहीं किया जा सकता। सार्वजनिक स्थानों पर जाने का सभी को अधिकार है। कानून के अनुसार सभी को न्याय देना, इस कानून के पीछे राज्य का अधिकार होना और न्यायालयों का यह अधिकार होना कि वह इसे उद्घोषित कर सके तथा कार्यपालिका का यह कर्तव्य होना कि इन निर्णयों को सही ढंग से अनुपालन सुनिश्चित कर सके, यह किसी भी न्यायिक समाज के प्रमुख चिन्ह हैं। सामाजिक न्याय को सभी लोगों को, सभी वगरें को प्रदान करने के लिए सामाजिक विधिकार की परिकल्पना की गई है। भारत वर्ष में सामाजिक विधिकार निम्न प्रकार के हैं :-

1. वे कानून जो सामाजिक बुराइयों के विरूद्ध हैं जैसे अस्पृश्यता अधिनियम आदि।

2. वे कानून जो आर्थिक बुराइयों के विरूद्ध हैं जैसे जमींदारी उन्मूलन अधिनियम।

3. वे कानून जो समाज की सेवा के लिए हैं जैसे जन स्वास्थ्य एवं शिक्षा, आवास व शहरों की योजना सम्बन्धी नियम।

4. सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी कानून जैसे कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम।

5. समाज कल्याण अधिनियम जैसे घरेलू हिंसा अधिनियम, मद्यनिषेद्य अधिनियम इत्यादि।

यह सभी कानून संविधान द्वारा स्थापित उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए बनाए गए हैं। आमुख (च्तमंउइसम) में जिन लक्ष्यों और उद्देश्यों की विस्तार से विवेचना की गई है वे पूर्ण रूप से संविधान के भाग-3 जो कि मूल अधिकार और भाग-4 जो कि नीति निर्देशक सिद्धान्त (डायरेक्टिव प्रिन्सिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी) में है, पूरी तरह से व्याख्यायित की गयी है। आमुख, मूल अधिकार एवं नीति निर्देशक तत्व यह तीनों मिलाकर समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए न्याय सुनिश्चित करते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक न्याय के जिस आदर्श रूप की अवधारणा संविधान में की गई थी उसको तमाम कानूनों के बावजूद, यहां तक कि न्यायालयों के निर्णयों में बार-बार दोहराये जाने के बावजूद अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे हैं। समाज के सामान्य आदमी की भलाई के लिए जो नियम बनाये गये हैं वे ज्यादातर किताबों की शोभा बढ़ा रहे हैं, ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि सामान्य आदमी में सामाजिक जागृति का अभाव है और दूसरा, समाज के उन लोगों में जिनका स्तर बहुत ऊपर है और जिन्हें समाज के अन्य वगरें को आगे बढ़ाने में मदद करनी चाहिए, उनमें नैतिक शिक्षा का अभाव है।

सामान्य रूप से कार्यपालिका का समाज के सामान्य लोगों को न्याय दिलाने में बहुत ही प्रमुख भूमिका एवं उत्तरदायित्व है तथा वे तभी सफल हो सकती हैं जबः

1. उनका सामाजिक न्याय की अवधारणा में विश्वास हो जो संविधान का प्राण है।

2. इन सिद्धान्तों को लागू करने में उनके अन्दर धर्म प्रचारक भाव हो, जो लोगों में विश्वास पैदा कर सके।

3. जो लोग इन सामाजिक मूल्यों को लागू कर रहे हैं उनका अपना चरित्र हो क्योंकि भले ही वे संविधान के प्रति निष्ठावान हों और उच्च शिक्षित हों परन्तु यदि वे भ्रष्ट हैं तो वे अन्य लोगों से ज्यादा खतरनाक साबित हो सकते हैं।

4. उनमें एक स्तर की योग्यता एवं उत्तरदायित्व की भावना हो।

5. समाज के पिछड़े वर्गों के प्रति सहानुभूति और संवेदना हो तथा साथ ही साथ ऐसे लोग जो भ्रष्ट हैं उनके प्रति उनको कठोर होना आवश्यक है।

हम सभी जानते हैं कि संवेदना के बिना ज्ञान उसी तरह से है जैसे कि अमार्गदर्शित मिसाइल एवं कुपथगामी मन। जब तक यह पंचशील समाज के जिम्मेदार लोगों में नहीं आएगा तब तक समस्त कानून कागजी शेर रहेंगे।

समाज के सभी वगरें विशेष रूप से महिलाएं, बच्चे, वृद्ध, अल्पसंख्यक, पिछड़े वर्ग व निःशक्त जनों के साथ आचरण करते समय हमें सिर्फ इन कानूनों और संविधान को अपने दिमाग में नहीं रखना है वरन् उन्हें प्राप्त मानव अधिकारों को भी अच्छी तरह से संरक्षित करना होगा क्योंकि ये सभी अधिकार एक सामान्य जीवन बिताने के लिए मूलभूत तत्व है। यह कार्य इतना आसान नहीं है, अत्यंत दुष्कर है। इसके लिए अत्यंत उच्चस्तरीय अनुशासन, धैर्य, राष्ट्रीयता की भावना एवं जनसेवा की भावना आवश्यक है। सार्वजनिक सेवाओं को गरीब के दृष्टिकोण से व्याख्यायित करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि वस्तुतः गरीब एवं कमजोर लोगों की सत्ता में कोई भागीदारी नहीं होती।

प्रशासनिक न्याय यदि देर से दिया गया तो यह सामाजिक न्याय की समस्त अवधारणा को ही खत्म कर देता है। सामाजिक न्याय प्रशासनिक प्रक्रिया से तभी संभव है जबकि इसे लागू करने वाले सभी लोग अंत्योदय की भावना से अपने कार्य को पूरा करें। इस समाज के विभिन्न वगरें से आचरण करते समय सिर्फ हम विधिक एवं नैतिक अधिकारों के बारे में ही नहीं सोचें परन्तु उनकी जो सामाजिक गरिमा है उसका भी ध्यान रखें। सही कार्य सिर्फ कानून के मापदण्ड पर ही खरा नहीं होना चाहिए वरन् इन्हें जनता के न्यायोचित निर्णय की अपेक्षा पर ही खरा उतरना चाहिए।

सामाजिक न्याय एवं मानवाधिकार एक दूसरे के पूरक हैं और इन्हें समाज में सही ढंग से लागू करने की जिम्मेदारी एक प्रजातंत्रात्मक राज्य में शासन की होती है चाहे वह विधायिका हो या कार्यपालिका। जब तक दोनों एक समन्वयात्मक रूप से कार्य नहीं करेंगे तब तक सामाजिक विकास होना असम्भव है। यदि कार्यपालिका संविधान के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए अपने कर्तव्यों को पूरा करे तभी हम अपने पूर्वजों की इस अवधारणा को पूरा करने में समर्थ होंगे जिसमें उन्होंने कहा है कि सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद दुःख भाग भवेत ।

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