कहानी - धुंध के इस पार

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विनिता राहुरीकर अंशु के सो जाने के बाद कनु अपना फेसबुक एकाऊंट खोल कर बैठ गयी। जब से नितीश तीन माह की ट्रेनिंग पर थाइलैण्ड गये थे तब से कनु...

vinita rahurikar

विनिता राहुरीकर

अंशु के सो जाने के बाद कनु अपना फेसबुक एकाऊंट खोल कर बैठ गयी। जब से नितीश तीन माह की ट्रेनिंग पर थाइलैण्ड गये थे तब से कनु का दिन तो पढ़ने-लिखने, अंशु की देखभाल करने और घर के काम निपटाने में निकल जाता लेकिन रात में उसे देर तक नींद नहीं आती थी। यूँ भी दिन भर की भागदौड़ के बाद रात में ही तो निश्चिंतता रहती है। चाहे तो मन के भावों को कागज पर उतारना हो चाहे किताबें पढ़कर जीवन और मान मन की विवेचना करना हो रात का निःस्तब्ध, शांत, ठहरा हुआ वातावरण ही इन सबके लिये उपयुक्त होता है। रात में पूरी सृष्टी एक गहरी साँस भरकर चैन से पसरकर कौतुहल पूर्ण दृष्टि से तकती रहती है कि आप क्या कर रहे हो। दिन की तरह नित नयी मांग करके, नये-नये कामों में दौड़ा-दौड़ा कर व्यस्त नहीं रखती।

नितीश रहता है तो हर पाँच मिनट में लाईट बंद करने के लिये चिल्लाता है। लेकिन अब कनु मजे से देर रात तक पढ़ लिख सकती है। आज भी अंशु दस बजे सो गयी तो कनु देर तक अमृता प्रीतम जी की जेब कतरे पढ़ती रही। फिर फेसबुक खोल कर बैठ गयी। कभी दूरदराज के या पास के रिश्तेदार ऑनलाईन मिल जाते तो उनसे चेटिंग हो जाती। एक दूसरे के हालचाल पूछ लेते।

मैसेज बॉक्स में बहुत सारे संदेश थे। पहले पाठक पत्र लिखते थे, फिर फोन करने लगे। अब फेसबुक सबसे अच्छा माध्यम हो गया है। बस लेखक का नाम सर्च किया और मैसेज बॉक्स में रचना की प्रशंसा, आलोचना या समीक्षा टाईप करके भेज दी।

एक मैसेज मुम्बई वाली बहन का था। उसने लिखा था कि वह नये घर में शिफ्ट हुई है। घर के और पूजा के फोटो अपलोड किये हैं देख लेना। कनु ने फोटो देखे उन पर यथोचित 'कमेंट' किये और बहन को बधाई दी। बहुत ही सुंदर घर सजाया था उसने। एक-एक कमरे के हर एंगल से फोटो खींचे थे। बिना वास्तविक घर देखे ही पता चल गया किस कमरे का रंग, पर्दे, सज्जा, फर्नीचर कैसा है, कौन सी चीज कहाँ रखी है। रसोईघर की अलमारी में किस रंग और बनावट की बरनियाँ हैं।

ये फेसबुक भी कितना अच्छा माध्यम है कुछ ही पलों में सारी खबरें, फोटो सबकुछ पूरे परिवार के साथ शेयर हो जाता है। मामाजी की शादी की पच्चीसवीं सालगिरह में कनु नहीं जा पायी थी। लेकिन छोटा ममेरा भाई पूरे समय फोटो खींच कर अपलोड़ करता रहा। वह घर बैठी सब देखती रही, कौन कौन से रिश्तेदार आए, खाने में क्या बना था, मामी ने कौन सी साड़ी, गहने पहने, केक कैसा था, कितने बजे कटा। लगा ही नहीं कि वह वहाँ उपस्थित नहीं थी।

बाकी संदेश पाठकों के थे। नयी छपी कहानी के बारे में। कनु ने प्रत्युत्तर में सबको धन्यवाद दिया। उनके प्रश्नों के उत्तर दिये। पाठकों तो पहले रिस्पोन्स देना पड़ता है। वो पढ़ते हैं, पसंद करते हैं, संतुष्ट होते हैं तभी तो लेखक का लिखना सार्थक होता है।

सतीश नामक एक पाठक ने बहुत लम्बा चौड़ा संदेश लिखा था। कहानियों की और उन्हें लिखने के लिये कनु की ढ़ेर सारी तारीफ करके बड़े आग्रह से लिखा था कि फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी है कृपा करके स्वीकार कर लें। आग्रह करने का ढंग इतना अनोखा था कि कनु को हँसी आ गयी। सतीश की प्रोफाईल खोल कर देखने लगी। फोटो अगर व्यक्ति का स्वयं का हो तो फोटो से भी काफी कुछ पता चल जाता है। फोटो पर से तो ठीक ठाक व्यक्ति लगा। शादीशुदा भी लिखा था स्टेटस में। अब कनु ने उसकी दूसरी एक्टिविटीज देखी मसलन उसके दोस्त कैसे हैं, उसकी पसंद क्या है। फेसबुक पर व्यक्ति के दोस्त और उसकी पसंद की पड़ताल करने पर उसके चरित्र का नब्बे प्रतिशत खुलासा हो जाता है। कनु दोनों चीजों को भलीभांती देखने से पहले कभी भी किसी की रिक्वेस्ट को स्वीकार नहीं करती।

सतीश की प्रोफाइल की भलीभांति जाँच करने के बाद कनु ने उसकी रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली। फिर कनु भी लॉग आउट करके सो गयी। दूसरे दिन सुबह कनु सोकर उठी तो देखा अखबार वाला तीन-चार पत्रिकाएँ भी डाल गया है। कनु ने अखबार और पत्रिकाएँ संभालकर टेबल पर रख दिये और अंशु के लिए टिफिन तैयार करने लगी।

अंशु को स्कूल भेजकर कनु ने जल्दी-जल्दी घर के बाकी काम निपटाने और फुरसत होकर पत्रिकाएँ पढ़ने बैठ गयी। पहली पत्रिका के कुछ ही पन्ने पलटे थे कि वह एक सुखद आश्चर्य से पुलक उठी। पत्रिका में उसकी कहानी प्रकाशित हुई थी। अब तक कनु की चालीस-पचास कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी थी। अन्य लेख तथा स्तम्भ आदि की तो गिनती ही नहीं थी। लेकिन पत्रिका में अपना नाम और कहानी देखकर आज भी उतना ही प्रसन्न और उत्साहित हो जाता है मन जितना पहली रचना के प्रकाशन के समय हुआ था। नितीश हमेशा उसके इस तरह बच्चों जैसी प्रसन्न हो जाने पर हँसता है ''खुश तो ऐसे हो रही हो जैसे पत्रिका में पहली बार अपना नाम देख रही हो।''

अब कनु नितीश को कैसे समझाए जैसे हर बच्चा, नौ महीने माँ की कोख में रहता है, दर्द सहकर जन्म लेता है और माँ को समान रूप से प्रिय होता है वैसे ही हर रचना, रचनाकार को समान रूप से प्रिय होती है क्योंकि हर रचना के माध्यम से रचनाकार अपने अंतर्मन के अनुभव और गहनतम भावों, संवेदनाओं को अभिव्यक्त करता है। अपने ही हाथ से लिखी, अक्षर-अक्षर जानी-पहचानी हुई रचना को किसी पत्रिका में छपा हुआ पढ़ने में क्या और कैसा अवर्णनीय सुख मिलता है ये कनु नितीश को कैसे समझाए।

रात में अंशु को सुलाकर थोड़ी देर तक एक नयी कहानी लिखती रही कनु फिर थक कर फेसबुक खोल कर बैठ गयी। नयी कहानी प्रकाशित होने की सूचना भी तो 'अपलोड़' करनी थी न।

जिन पाठकों ने पहले ही कहानी पढ़ ली थी उनकी बधाइयों के ढ़ेर सारे संदेश थे। सबको यथोचित प्रत्युत्तर देती जा रही थी कनु। सतीश का भी संदेश था। ढ़ेर सारे ग्रीटिंग्स, बधाईयों वाले फोटो, कहानी की ढ़ेर सारी प्रशंसा, प्रशंसा क्या प्रशंसात्मक समीक्षा ही कर डाली थी उसने कहानी की। उसके संदेश और बधाईयाँ खत्म ही नहीं हो रही थी।

कनु अभी संदेश पढ़ ही रही थी कि सतीश ऑनलाईन आ गया। फिर हॉय हैलो के बाद दुबारा तारीफों के पुल बंधने शुरू हो गये। सतीश की बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। सुबह अंशु को स्कूल भी भेजना था। बड़ी मुश्किल से कनु ने उससे पीछा छुड़ाया और लॉग आउट करके लैपटॉप बंद करके सो गयी।

फिर तो यह सिलसिला चल ही निकला। कनु जब भी ऑनलाईन आती सतीश हाजिर रहता। बातों का लम्बा पिटारा लिये। कभी-कभी कनु को कोफ्त भी होती उसकी न खत्म होने वाली बातों से। लेकिन वह अपने एक प्रशंसक और जागरूक पाठक को नाराज भी नहीं करना चाहती थी। सतीश उससे उसकी पहले छपी हुई रचनाओं और पुस्तकों की जानकारी मांगता, उन्हें ढूंढता पढ़ता और फिर उन पर चर्चा के लिये हाजिर हो जाता। कभी कनु उस पर झुंझला भी जाती कि वह सारा दिन ही क्या ऑनलाईन रहता है। तब सतीश ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि हाँ वह कनु से बात करने की ख्वाहिश में सारा दिन ऑफिस का नेट और अपना फेसबुक एकाउंट ऑन ही रखता है।

कनु को हँसी आ गयी। उसने आज तक ऐसा दीवाना प्रशंसक नहीं देखा था। सतीश लेकिन उसकी कहानियों की बड़ी गहरी और सटीक विवेचना करता था। कई बार तो उसकी विवेचना पढ़कर कनु अपनी रचना पर नये सिरे से सोचने पर मजबूर हो जाती थी। धीरे-धीरे कनु को भी सतीश की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहने लगी। रात में नींद आने तक या दिन भर काम करते समय उसकी की हुई विवेचना या समीक्षा मन में घुमड़ती रहती। कुछ नया लिखते हुए हाथ अचानक ठिठक जाता और मन में अनायास ही विचार आ जाता, अगर इस स्थिति पर या संदर्भ में सतीश से राय मांगी जाती तो वह क्या कहता, या फिर कहानी के इस मोड़ के बारे में सतीश के क्या विचार होते। अब कनु ही बड़ी उत्कण्ठा से राह ताकती रहती कि कब काम खत्म हो और कब सतीश से बात हो। कई बार घण्टों हो जाते नई कहानी की विषयवस्तु पर चर्चा करने अथवा कहानी के अंत या पात्रों के बारे में उसके विचार जानने में। एक नशा सा छाने लगा था कनु पर, इस धुंध का जिसके उस पार दूर एक शहर में सतीश नामक कोई व्यक्ति है जो उसकी रचनाओं को पढ़ता है, समझता है उन पर अपनी सटीक और स्पष्ट राय देने लायक बौद्धिकता भी रखता है।

और शायद रचनाओं के माध्यम से कनु को भी समझने, जानने लग गया था। तभी आजकल रचनाओं के साथ ही साथ कनु के व्यक्तित्व, सोच और इच्छाओं पर भी दबी-छुपी एक टिप्पणी कर देता था। अभी परसों रात की ही तो बात है कनु ने अपनी एक नयी कविता पोस्ट की थी उसे पढ़कर तुरंत ही सतीश ने बता दिया कि कनु आज तक 'न समझे जाने' की पीड़ा सह रही है। आज भी उसे एक ऐसे रिश्ते की कामना है जो उसके अंतर में बहुत गहरे में स्थित 'इस कनु' को पहचाने, सराहे और प्यार करे।

कनु तो सिहर गयी उसके इस बेबाक सत्य को सुनकर। देर तक वह सोचती रही क्या सचमुच उसके शब्दों में स्पष्ट तौर पर उसके अंतर्मन की एक दबी हुई लालसा व्यक्त हो गयी है या सैकड़ों मील दूर बैठा एक व्यक्ति दिल के इतने करीब आ चुका है कि उसने मन के अंदर झांककर कई परतों के नीचे दबी इच्छा को भी इतनी सहजता से पढ़ लिया, जान लिया। सच में कई बार नितीश को बहुत मनुहार करती है कनु कि वह उसकी लिखी कहानी पढ़े, अपनी राय दे ढ़ेर सारे लोग कनु की तारीफों के पुल बांधते नहीं थकते लेकिन कनु के कान और मन तरसते रहते हैं अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति और रिश्ते की ओर से की जाने वाली प्रशंसा सुनने के लिये। लेकिन नितीश को साहित्य में जरा भी रूची नहीं थी और समझ भी नहीं। अगर वह कनु की रचना पढ़ भी लेता मजबूरी में तो इतनी बचकानी सी राय देता या प्रशंसा करता कि कनु झुंझलाकर उसके हाथ से रचना छीन लेती और कहती -

''रहने दो जी, साहित्य आपके बस के बाहर की बात है।'' नितीश तब बहुत शर्मिंदा होकर माफी मांगता रहता। लेकिन अब.................। जो चाहत उसे नितीश को लेकर थी वही सतीश पूरी कर रहा था। जीवन की यह भी एक कैसी विडंबना है हम जिसके द्वारा समझा जाने चाहते है वह हमें समझ नहीं पाता और हम एक अव्यक्त, अधूरेपन की पीड़ा में छटपटाते हुए अपने आहत व्यक्तित्व और भावनाओं को सहलाते, जीवन ढोते रहते हैं।

लेकिन कभी सुदूर में बैठा एक अनजान हमारे उसी अव्यक्त को कितनी सरलता से जान और समझ लेता है। हमारी पीड़ा पर मरहम लगा देता है और हमें एक चैन और सुकून से भर देता है 'चलो कोई तो है जो हमें इतने गहराई से पहचानता, समझता है।' तब वो दिल के कितने पास महसूस होने लगता है।

हाँ सतीश भी तो कनु को आजकल कितना अपना सा लगने लगा था। उसकी बातों से जैसे कनु अब अपने आप को और जानना चाहती है, जानना चाहती थी कि इस धरा पर कौन है जो उसे अधिक से अधिक समझ सकता है। सतीश की बातों से कनु के सामने उसके स्वयं के व्यक्तित्व के नये-नये रंग खुलने लगे थे। कितना रोमांचक है किसी दूसरे की बातों से अपने आप को जानना, समझना, पहचानना। कई बार दूसरों की बातों से हमें पता चलता है हमारे मन की कौन सी छुपी ग्रंथी की वजह से हमने क्या कहा या क्या प्रतिक्रिया की। कितना नया और अलग अनुभव है ये। नया आकर्षण था।

और इसी अनुभव में देर रात तक डूबती उतराती रहती कनु और दिन भर भी एक स्वप्नलोक में विचरती रहती। अंशु पांचवीं में ही पढ़ती थी सच तो नहीं जान सकी मगर इतना देख रही थी कि माँ आजकल कुछ खोई-खोई सी रहती है, ना अंशु पर उतना ध्यान दे पाती है और ना ही पहले की तरह उत्साह और आनन्द से पिताजी से बात करती है। अंशु चुपचाप अपनी पढ़ाई और काम करती रहती।

एक दिन रात में देर से सोई कनु की जब नींद खुली तो काफी देर हो गयी थी। अंशु चुपचाप उठकर यूनीफॉर्म पहन चुकी थी उसने पानी की बॉटल भर ली थी। उसकी वेन आने में पाँच ही मिनट शेष थे। कनु हड़बड़ा गयी कि अब टिफिन में क्या दे उसे।

''तुम परेशान मत हो माँ मैंने ब्रेड पर जैम लगाकर टिफिन में रख लिया है। तुम आराम करो। तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है।'' अंशु ने दिलासा देने वाले स्वर में कहा और वेन में बैठकर स्कूल चली गयी।

कनु अपराधबोध जैसी स्थिति में बैठी रह गयी। सचमुच में कुछ दिनों से वह ये कैसी भावनाओं के आकर्षण में उलझती जा रही है। पहली बार ऐसा हुआ कि बेटी को उसने टिफिन बनाकर नहीं दिया और पिछले कितने दिनों से अंशु के साथ ठीक से समय भी नहीं बिताया, ना बातें की, ना पढ़ाई में ही मदद की उसकी, कनु तो पता नहीं किस दुनिया और भावनाओं में खोई रही। फिर भी उस नन्ही सी बच्ची ने माँ से कोई शिकायत नहीं की उल्टा माँ के लिए परेशान होकर अपने काम जैसे-तैसे स्वयं करके माँ का बोझ ही हल्का करती रही। कनु की आँखे भर आयी। मन स्वयं को धित्कारने लगा। क्या 'उस' तरह से समझा जाना इतना अधिक जरूरी है कि हम अपनी वास्तविकता अपने यथार्थ को ही भुला बैठें।

दिन भर कनु आत्मग्लानि में डूबी रही। आज उसने तय किया वह अपना समय, पूरा समय बस अपनी बेटी को देगी। स्कूल से आने के बाद कनु ने अंशु को अपने हाँथ से खाना खिलाया, उसका होमवर्क कराया, उसे पार्क में घुमाने ले गयी। रात में अंशु कहानी सुनकर खुश होकर चैन से सो गयी तो कनु के मातृत्व को एक गहरी पूर्णता और संतोष का अनुभव हुआ। तभी नितीश का फोन आया। वह बहुत परेशान था।

''क्या बात है कनु कितने दिन हो गये बस अंशु ही फोन पर बात करती है तुमने कब से बात नहीं की। तबियत तो ठीक है न तुम्हारी, कोई परेशानी तो नहीं.............. ''नितीश के स्वर की विव्हलता और चिंता ने कनु के दिल को छू लिया। कोई शक नहीं शुबहा नहीं बस कनु की चिंता। क्या हुआ गर नितीश उसके शब्दों को, कहानियों को समझ नहीं पाता, मगर वह अपनी पत्नी 'कनु' को तो समझता है और बहुत प्यार करता है। देर तक नितीश से बात करके जब कनु ने फोन रखा तो नितीश के प्यार की उष्मा ने कनु के मन पर पिछले महीनों से छाई हुई उस आभासी धुंध को पूरा साफ कर दिया था नहीं नितीश अपनी पत्नी को समझता है, अंशु अपनी माँ को समझती है, इसके अलावा किसी तीसरे द्वारा समझे जाने की गुंजाइश या इच्छा नहीं है कनु के मन में धुंध के उस पार आभासी काल्पनिक दुनिया है, धुंध के इस पार ही यथार्थ है, सच्चाई है, वास्तविकता है जो भले ही थोड़ी रूखी हो पर प्यार भरी है। अंशु के माथे पर एक प्यार भरा चुंबन लेकर नितीश के वापस आने की प्रतीक्षा मन में भर कर कनु भी सो गयी। सुबह उठ कर अंशु के लिए टिफिन में भाजी पूरी बनानी है 

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BLOGGER: 1
  1. बेनामी11:09 am

    'क्या बात है कनु कितने दिन हो गये बस अंशु ही फोन पर बात करती है तुमने कब से बात नहीं की। तबियत तो ठीक है न तुम्हारी, कोई परेशानी तो नहीं.............. ''नितीश के स्वर की विव्हलता और चिंता ने कनु के दिल को छू लिया। कोई शक नहीं शुबहा नहीं बस कनु की चिंता। क्या हुआ गर नितीश उसके शब्दों को, कहानियों को समझ नहीं पाता, मगर वह अपनी पत्नी 'कनु' को तो समझता है और बहुत प्यार करता है। देर तक नितीश से बात करके जब कनु ने फोन रखा तो नितीश के प्यार की उष्मा ने कनु के मन पर पिछले महीनों से छाई हुई उस आभासी धुंध को पूरा साफ कर दिया था नहीं नितीश अपनी पत्नी को समझता है, अंशु अपनी माँ को समझती है, इसके अलावा किसी तीसरे द्वारा समझे जाने की गुंजाइश या इच्छा नहीं है कनु के मन में धुंध के उस पार आभासी काल्पनिक दुनिया है, धुंध के इस पार ही यथार्थ है, सच्चाई है, वास्तविकता है जो भले ही थोड़ी रूखी हो पर प्यार भरी है। अंशु के माथे पर एक प्यार भरा चुंबन लेकर नितीश के वापस आने की प्रतीक्षा मन में भर कर कनु भी सो गयी। सुबह उठ कर अंशु के लिए टिफिन में भाजी पूरी बनानी है। vaah bahut achchi likhi kahani


    kamoma

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रचनाकार: कहानी - धुंध के इस पार
कहानी - धुंध के इस पार
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