'सामाजिक न्याय, मानवीय संकल्पना और ऐतिहासिक चेतना'

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प्रो0 हजारीमयुग सुवदनी देवी मानव का इतिहास उसकी प्रगति की कहानी है। अपनी शरीर रचना में मनुष्य पशुतुल्य है परन्तु जहाँ एक ओर तो उसका वृहत् मस...

प्रो0 हजारीमयुग सुवदनी देवी

मानव का इतिहास उसकी प्रगति की कहानी है। अपनी शरीर रचना में मनुष्य पशुतुल्य है परन्तु जहाँ एक ओर तो उसका वृहत् मस्तिष्क और संवेदनाशील तंत्रिका तंत्र उसे अभूतपूर्व बुद्धि और क्षमता प्रदान करते हैं वहीं दूसरी ओर उसके कमजोर शारीरिक अंग बाध्य करते हैं कि जीवनयापन के संघर्ष में वह पशुओं से कुछ ऊपर उठे, समूहों में संगठित हो और अपनी संस्कृति की रचना करे। इस तरह के संगठन से समाज बनता है। पशुओं से ऊपर उठते हुए मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा गया है। यही प्रवृत्ति मनुष्य की पवित्र थाती है और इसी कारण मनुष्य मानव बन सका है। मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है मनुष्य अन्य जीवों से समर्थ, सचेत और श्रेष्ठ है अतः शेष जीवन और जगत की सुरक्षा और सम्पोषण का दायित्व भी उसी पर है। लेकिन इसके विपरीत वह अपनी श्रेष्ठता का गलत उपयोग भी करता है। जैसे प्रकृति और जीव-जगत का शोषण दोहन और दमन करने के अपने अधिकार से वह समझने लगता है कि उसका दायित्व अधिक से अधिक अपनी ही जाति के अन्य सदस्यों तक ही नहीं बल्कि धर्म या राष्ट्र के सदस्यों के प्रति भी है? यही तर्क समाज पर लागू होता है अधिक विकसित और शक्तिशाली वर्ग के लोग अपने से कमजोर और हीन लोगों का उपयोग करते हैं। यही बात राष्ट्रों पर लागू होती है कि बहुत ही विकसित और शक्तिशाली राष्ट्रों द्वारा स्वाभाविक रूप से अपने से हीन और कमजोर राष्ट्रों का उपयोग होता है।

सामाजिक न्याय से तात्पर्य है समाज में रहने वाले सभी को समानधिकार मिले। समान रूप से मानवाधिकारों की संभावना एक व्यापक जीवन दर्शन पर आधारित संकल्पना है जिस के घेरे में समूचा जीवन और समाज-व्यवस्था आ जाती है। मानवाधिकारों की संकल्पना की बुनियाद है मनुष्य को सब कुछ का पैमाना मानना। ''मेन इज दी मेजर ऑफ ऑल थिंग्ज''। इसी बात को कार्ल मार्क्स ने ''मेन इज दी रूट ऑफ मैनकाइन्ड'' कहकर व्यक्त किया है। मनुष्य मानवता की जड़ है। मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है, मनुष्य चीजों का मापदण्ड है मनुष्य ही एकमात्र सत्य है - इस तरह की बातें इस विचारधारा को मानने वाले लोगों से अक्सर सुनने को मिल जाती है।

वैज्ञानिक मनुष्य को जीवों में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं : दार्शनिक उसमें चेतना की चरम अभिव्यक्ति खोजते और सृष्टि का केन्द्रीय स्थान उसी को देते हैं। यहाँ तक कि मनुष्य के इतिहास को एक यान्त्रिक प्रक्रिया के रूप में देखने और मानवीय नियति को यान्त्रिक स्तर पर नियन्त्रित कर सकने की आशा करने वाले लोग भी अपने प्रयत्नों का प्रयोजन मनुष्य का कल्याण ही मानते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था की कसौटी और बुनियादी प्रेरणा भी यही है कि उसके अंतर्गत मनुष्य के बहुआयामी विकास को किस सीमा तक एक अनुकूल वातावरण व सुविधाएँ मिलती हैं। जो व्यवस्था मनुष्य के विकास की संभावनाओं को मानसिक, आध्यात्मिक अथवा सामाजिक-आर्थिक स्तर पर रोकती है, उसे हम मानवीय और नैतिक व्यवस्था नहीं कह सकते। इसी प्रकार यह स्वीकार करने में भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि मनुष्य जैविक विकास का सर्वश्रेष्ठ स्तर है कि उस में जीवन और चेतना की अद्यतन सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हुई है और भविष्य में इसके गुणात्मक उत्कर्ष की अपेक्षा भी मनुष्य से ही की जा सकती है। मनुष्य होने का मतलब ही उन विशेषताओं से सम्पन्न होना है जो उसे अन्य जीवों से भिन्न करती और मानवत्व के अर्जन की दिशा में प्रेरित करती हैं। मानवीय समझी जानेवाली सभी आचरणगत विशेषताओं की बुनियाद में जाकर देखें तो जो बातें मनुष्य को बुनियादी तौर पर दूसरे प्राणियों से अलग करती है वे है उसका अन्तः करण अर्थात् चेतना और उसमें निहित सर्जनशीलता। पशु और अन्य मनुष्येतर प्राणियों में इसलिए अनुप्राणित एवं अनुशासित होने लगती है क्योंकि उनकी चेतना और सर्जनशीलता मिलकर मानव जीवन के सभी पक्षों उसके प्राकृतिक कार्य-व्यापार से लेकर सामाजिक व्यवहार तक में उत्तरदायित्व बोध विकसित करती है। यह उत्तरदायित्व उन मूल्यों के प्रति होता है जिनका स्रोत मनुष्य की चेतना स्वयं है। इस प्रकार मानव होने का मतलब है चेतना सम्पन्न, सर्जनशील और उत्तरदायी होना। चेतना, स्वतन्त्रता, सृजनशीलता और सामाजिकता ऐसे पहिये हो जाते हैं जिन पर मानवीय उत्कर्ष की यात्रा होती है।

इन मूल्यों के आधार पर विकसित मानवीय आचरण का औचित्य स्वयं प्रमाण है। इन प्रवृत्तियों के पुष्ट और विकसित होने का तात्पर्य जीवन और अस्तित्व मात्र का पुष्ट और विकसित होना है क्योंकि जीवन, जो सभी मूल्यों का स्रोत है इन्हीं मूल्यगत प्रवृत्तियों में गुणात्मक उत्कर्ष प्राप्त करता है। अपने विभिन्न पक्षों में मानवीय जीवन कहाँ तक सही दिशा की ओर उन्मुख है इसकी मात्र कसौटी यही हो सकती है कि चेतना, स्वतंत्रता, सर्जनशीलता और सामाजिकता की भावनाएँ कहाँ तक पोषित होती हैं। इन प्रवृत्तियों का पोषण जितना अधिक होता जाता है मानव में निहित संभावनाएँ भी उतनी ही उजागर होती जाती हैं। सभी मानवीय रिश्तों और संस्थाओं का अंतिम उद्देश्य इन मूल्यों को उजागर करना ही है और यदि वे ऐसा नहीं करती है तो समाज का सही विकास होने के बजाय बाधा या विकृति बन जाती है। हमारी राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का औचित्य तभी समझा जा सकता है जब वे इन मूल्यों से अनुप्राणित हो और अपने आचरण द्वारा इन्हें पुष्ट करें।

राजनैतिक या सामाजिक - आर्थिक प्राणी होने के साथ-साथ मनुष्य एक नैतिक प्राणी भी है। कोई राजनीति या सामाजिक आर्थिक शक्ति यदि मानव-समाज में बेहतर बदलाव के लिए प्रयत्नशील है तो वह एक नैतिक कोशिश है। एक ऐसी नैतिक कोशिश जिसकी प्रेरणा मनुष्य के अस्तित्व में ही निहित है जिससे जीवन की मूल प्रेरणा और सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आचरण में संगति रख पाते हैं। ऐतिहासिक चेतना पर आप लोगों का ध्यान मणिपुर की तरफ खींचना चाह रही हूँ। प्राचीन काल में मणिपुर की सामाजिक स्थिति क्या थी, अब क्या स्थिति है? इसके बारे में बताना चाहूँगी। मणिपुर भारत की उत्तर-पूर्वी सीमा पर स्थित एक छोटा-सा पर्वतीय राज्य है। इसके उत्तर में नागालैण्ड, दक्षिण में मिजोरम एवं म्यांमार देश है। पश्चिम में असम का कछार जिला है और पूर्व में म्यांमार देश के सोमराह प्रदेश एवं उच्च चीनद्विन जिले हैं। भौगोलिक दृष्टि से मणिपुर को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक पर्वतीय भाग और दूसरा घाटी का भाग। घाटी का भाग मणिपुर राज्य का केन्द्रीय भाग है, जहाँ मैतै जाति के लोग बसते हैं। इसको घेरते हुए चारों तरफ पर्वतीय क्षेत्र फैले हुए हैं, जहाँ विभिन्न प्रकार की जन-जातियाँ बसती हैं। इनमें मुख्यतः ताङ्खुल, कबुई, जौ, सिमते, गाङ्ते, कोइरेङ्, कुकी, पाइते, मरिङ्, थादौ, मोयान आदि जन जातियाँ हैं। ये विभिन्न जन-जातियाँ मणिपुर के विभिन्न पहाड़ों में बसती हैं। इनकी अलग संस्कृति है और अलग-अलग भाषाएँ हैं जो एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न हैं। इन विभिन्न जन-जातियों के बीच संप्रेषण का एकमात्र माध्यम मणिपुरी भाषा है। सन् 1891 के पहले तक मणिपुर में राजा द्वारा शासन किया जाता था।

मणिपुर के विभिन्न पहाड़ों में बसनेवाली जन-जातियों के भी अपनी-अपनी बस्तियों में एक-एक राजा हुआ करता था। वे सब घाटी में राज्य करने वाले मैतै राजा के आधीन थे। क्योंकि मैतै राजा के पास ज्यादा शक्ति थी। कभी-कभी मैतै राजा पहाड़ी जन-जातियों को घाटी में बुलाकर सफाई का काम करवाते थे। इनका काम गन्दगी से जुड़ने के कारण इनको अछूत या अपवित्र मानते थे। मणिपुरी लोगों में वही भेद जन-जाति और मैतै के बीच दिखाई देता था। लेकिन भारत के स्वतंत्र होने के बाद मणिपुर भी भारत में शामिल कर दिया गया। जन-जातियों के जीवन में परिवर्तन आया। क्योंकि संविधान ने इन लोगों की रक्षा की। संविधान सामाजिक क्रांति की अपेक्षा रखता है और यह क्रान्ति निर्दिष्ट सामाजिक परिवर्तन के एक साधन के रूप में विधि के प्रयोग के माध्यम से ही लाई जाती है। सच बात तो यह है कि मणिपुर की जन जातियाँ मैतै लोगों से अब ज्यादा शाक्तिशाली एवं समृद्ध बन गयी हैं। मैतै जाति के भीतर वर्ग के अनुसार भेद भाव नहीं है। राजा और ब्राह्मण को पूज्य मानते थे, इसलिए सामान्य लोगों से कुछ ऊपर रखते थे। अन्य राज्यों की तुलना में मणिपुर की महिलाएँ अधिक स्वतंत्र है। राज्य के आर्थिक विकास में भी मणिपुरी महिलाओं का काफी योगदान रहा है।

दूसरी तरफ मणिपुरी समाज को सुचारू रूप में (व्यवस्थित रूप में) रखने में भी महिलाओं का विशेष योगदान रहा है। फिर भी बच्चों की परवरिश में लड़की और लड़के के आधार पर कहीं भेद भाव दिखाई देता है। माँ, लड़की और लड़के को खाना खिलाती है। खाना खाने के बाद माँ लड़की से झूठा बर्तन साफ करने को कहेगी। दूसरी तरफ लड़के से कुछ नहीं कहेगी। लड़की और लड़का कभी-कभी बचपन में लड़ाई-झगड़ा करते हैं, माँ लड़के का पक्ष लेती दिखाई देती है और उसे 'दस के स्वामी' कहकर लड़कों को एक से ज्यादा लड़कियों से संबंध बना लेने का रास्ता भी तैयार करवाती है। इसका दुष्परिणाम ही निकलता है। लड़कों को बहुत छूट मिल जाती है। या तो वे आवारा होकर भटक जायेंगे या नशे के शिकार हो जायेंगे। कुछ अच्छे निकल आते हैं, अधिकांश बुरी संगति में फँस जाते हैं। जब कोई लड़का पैदा होता है, खुशी से नाच उठता है, पर जब लड़की पैदा होती है, तब मातम मनाता है। इस तरह मणिपुरी समाज में भी पुरूष की तुलना में नारी हमेशा एक हीन अवस्था में रही है। जबकि इस समाज को हर तरह का योगदान महिलाओं ने दिया है।

इस प्रकार जहाँ जहाँ मणिपुर समाज की विशिष्टता दिखाई देगी वहाँ-वहाँ इस समाज की महिलाओं की शानदार एवं सुकोमल प्रतिमाएँ दिखाई देती है। मणिपुरी इतिहास इस बात का साक्षी है कि आदि काल से लेकर आज तक के इतिहास में इस समाज को सुचारू रूप में रखने में महिलाओं का विशेष योगदान रहा है। वे समाज के हर कार्य में सक्रिय रूप में भाग लेती आयी है। जैसे शादी-विवाह, श्राद्ध-कर्म, पूजा-पाठ आदि में महिलाएँ ही सारी व्यवस्था करती हैं। इनकी देखरेख में सभी काम संपन्न होते हैं। इन सभी सामाजिक कार्यो का सूक्ष्मतिसूक्ष्म ज्ञान इन्हें रहता है और साथ ही घरेलू सभी काम तो महिलाओं का ही है। जैसे खाना बनाना, कपड़े धोना, सीना, पिरोना, बर्तन माँजना, घर की सफाई करना आदि काम भी महिलाओं का ही है। मणिपुर में नौकर की व्यवस्था का पूर्णतः अभाव है। अतः सभी कामकाजी महिलाएँ सभी घरेलू काम निपटाने के बाद दफ्तर जाती हैं दफ्तर देर से पहुँचती हैं उसकी भी अलग समस्याएँ हैं।

खेती बाड़ी के क्षेत्र में भी महिलाएँ पीछे नहीं रहती हैं। बोआई, कटाई, निराई आदि काम तो महिलाओं का ही हैं। इतना ही नहीं, जब-जब मणिपुरी समाज में भ्रष्टाचार और अन्याय की ज्वाला भड़क उठती है तब यहाँ की महिलाएँ रण-देवी दुर्गा का रूप धारण करती हैं। वे अन्याय को चुपचाप सहेंगी नहीं बल्कि साहस -पूर्वक सामना करेंगी। इस बात का प्रमाण है कि मणिपुरी इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों से अंकित ''नुपी लाल'' (महिला युद्ध) का आन्दोलन। यह आन्दोलन 12 दिसम्बर 1939 से लेकर 15 जून 1940 तक चला। इस आन्दोलन में था केवल म़हिलाओं ने ब्रिटिश शासक के अन्याय, अनीति और भ्रष्टाचार के विरूद्ध कृत्रिम अकाल से पीड़ित जन-समाज के लिए आवाज उठाई थी। उस समय लोग चावल के एक दाने के लिए तरस रहे थे। उधर ब्रिटिश सरकार सहित कई कारोबारी अपने गोदाम में चावल और धान इकठ्ठा कर रहे थे। कई चावल की मिलों के माध्यम से ऊँचे दाम पर मणिपुर के बाहर भेज रहे थे। इसको रोकने के लिए किया गया यह आन्दोलन था। आखिर महिलाओं की जीत हुई। सरकार को बाहर चावल भेजना रोकना पड़ा। इतना बहुत करने पर भी महिलाओं जो अधिकार मिलना चाहिए था उसे नहीं मिल पाया। कानून के आधार पर उसे माँ-बाप की सम्पत्ति का हकदार पुरूषों के बराबर मिलना चाहिए था। उसे नहीं मिल पाया। समान स्तर मिलने का अधिकार समाज नहीं देता है।

मणिपुरी लोगों में हिन्दू होने के नाते मनुस्मृति में 'नारी' के बारे में जो लिखा था उसकी छाया अभी तक बनी हुई है। जैसे कहा गया है कि ''अपने घर में भी उसे कुछ भी स्वाधीन होकर नहीं करना चाहिए, बचपन में उसे अपने पिता के, यौवन में अपने पति के और पति के निधन के बाद अपने बेटों के अधीन होना चाहिए।'' इस तरह एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर इस तरह अधिक निर्भर हो तो उसे क्या मिलेगा। उसके कहीं भी स्वतंत्र अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं उठता है। अभी भी रूकी नहीं महिलाओं की लड़ाई। समाज सुधार की लड़ाई, समाज बचाव की लड़ाई।

21वीं शताब्दी के नौजवान अपना मूल्यवान समय गँवाकर शराब, नशीली दवाओं आदि भयानक नशे के मुँह में कूद रहे हैं। अगर एक बार कोई इन दानवों के मुँह में कूद गया तो मौत का नाम लेकर निकल सकता है, अन्यक्षा नहीं। इन जहरीले नशे से शिकार हुए नौजवानों को बचाने के लिए हाथ में मशाल लेकर ''मैरा पाइबी'' अर्थात मशाल पकड़ने वाली के नाम से एक सामाजिक आन्दोलन हुआ। इसकी शुरूआत 1975 के आस पास हुई। अब इस आन्दोलन का उद्देश्य नशे विरोध करना भी शामिल है। 1978-79 से लेकर मणिपुर में insurgency का प्रभाव समाज में पड़ने लगा था। इसके परिणाम स्वरूप भारत सरकार ने पूर्वाचल में विशेष रूप से मणिपुर को अशांत क्षेत्र घोषित किया। परिणाम स्वरूप मणिपुर में AFSPA लागू किया था। इसके परिणाम स्वरूप किसी भी व्यक्ति को डपसपजंद शंका होने पर उसे मारने और पकड़ने का अधिकार army को रहता है। कभी-कभी निरपराध लोगों को army पकड़ लेती है, मार भी देती है। कभी-कभी army द्वारा सीधी-सादी गाँव की महिलाओं के साथ अत्याचार भी होता है। उदाहरण के तौर पर 'मनोरमा' के साथ जो हुआ था कोई नहीं भूल सकता। असम राइफल्स द्वारा उसकी इज्जत लूटने के बाद जुलाई 11, 2004 में उसकी हत्या भी कर दी गयी।

आज कल मणिपुर में insurgency के नाम के उग्रवाद का काम भी होता रहा। कभी-कभी बाजार में बम फटना, रास्ते पर बम फटना आदि काम तो आम बात हो गई। इससे आम आदमी की ही मृत्यु होती है। कुछ दिन पहले पाओना बाजार में बम फटने से दो आदमी की मृत्यु हुई, पुल के रास्ते बम फटने से बस में बैठी 8 सवारी की मृत्यु घटना स्थल पर हुई। पैसे की मांग पर लोगों को पकड़ना, मारना आदि मणिपुर में आम बात हो गई है। सभी लोग डरे हुए हैं। ऐसा लगता है कि लोगों से जीने का अधिकार छीन लिया गया हो।

कविता का शीर्षक है : ''अपने में सिमटे हुए लोग'' क्यों डर कर आभास मन में सदा? आधी-रात में चली, गोली की आवाज, सुबह होते ही मिली, लावारिस लाश। जिसको पूछनेवाला कोई नहीं, अपना बतानेवाला कोई नहीं, जी रहे हैं सभी लोग, अपने में सिमटे हुए, बनकर गूँगे, बनकर अँधे हृदय को करके मौन, शायद .......... उस अनचाही प्रतीक्षा में .... -अपनी बारी की- अधमरे होकर जी रहे हैं सभी। मन में लिए भय, मन में लिए डर, स्वयं को भी मालूम नहीं, कब लावारिस लाश बन जाय। ' ' ' '

(मानवाधिकार संचयिका, मानवाधिकार आयोग से साभार)

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रचनाकार: 'सामाजिक न्याय, मानवीय संकल्पना और ऐतिहासिक चेतना'
'सामाजिक न्याय, मानवीय संकल्पना और ऐतिहासिक चेतना'
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