पर्यावरण पथ के पथिक - 8 : रवि चेल्लम

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पर्यावरण पथ के पथिक पर्यावरणविदों की असली जीवन कहानियां संपादनः ममता पंडया, मीना रघुनाथन हिंदी अनुवादः अरविन्द गुप्ता   रवि चेल्लम ...

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पर्यावरण पथ के पथिक

पर्यावरणविदों की असली जीवन कहानियां

संपादनः ममता पंडया, मीना रघुनाथन

हिंदी अनुवादः अरविन्द गुप्ता

 

रवि चेल्लम

रवि चेल्लम शुरू में डाक्टर बनने या फिर इंडियन फारेस्ट सर्विस में दाखिल होने की सोच रहे थे। वनस्पतिशास्त्र मेंस्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने एक अनपेक्षित कदम उठाया और वन्यजीवों के जीवविज्ञान पर शोध शुरू किया। उन्होंने 1985 में देहरादून में स्थित वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट आफ इंडिया (डब्लूआईआई) में पीएचडी करने के लिए दाखिला लिया और तभी से एशियाई शेरों के साथ उनका संबंध स्थापित हुआ। गुजरात में गिर के जंगलों में कई रोमांचक साल गुजारने के बाद रवि अभी भी डब्लूआईआई के साथ हैं जहां वो अब पढ़ाते हैं। वो अपना समय शोध, पढ़ाने और संगठन के कामों में बिताते हैं। वर्तमान में वो जिस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं उसमें सरीसृपों औरछोटे स्तनपाई जीवों पर पश्चिमी घाट में रेनफारेस्ट के विघटन के प्रभाव का अध्ययन करना है। वो गिर के जंगलों में शेरों के सामाजिक व्यवहार, मध्यप्रदेश में तेंदुओं के परिवेश और असम में हूलौक गिबन्स के ऊपर जंगल कटाई के प्रभाव का अध्ययन करने की योजना बना रहे हैं। उनकी अन्य शौक हैं खेल (वो डब्लूआईआई की क्रिकेट टीम के कप्तान हैं) संगीत, पुस्तकें, बागबानी और पालतू जानवर। उन्होंने बहुत सी वैज्ञानिक पत्रिकाओं के लिए लेख लिखे हैं। उनके अनेकों लेख लोकप्रिय विज्ञान पत्रिकाओं और संरक्षण संबंधी पुस्तकों में छपे हैं 

शेर का पीछा और पेशा

1988 की बात है। गिर के जंगल में काला स्याह अंधेरा था। रात के तीन बज चुके थे और कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। परंतु मैं उस समय काम में व्यस्त था। मुझे बहुत से उपकरण और लोगों को दो जीपों में लादना था। इनमें मेरे प्रोजेक्ट सुपरवाइजर डा ए जे टी जौनसिंह, मेरे साथी जमाल खान, बहुत सारा उपकरण, डब्लूआईआई के पशुचिकित्सक डा पी के मलिक, कुछ सहायक, एक भैंस और एक बकरी शामिल थे। हम लोग गिर अभयारण्य के पूर्वी भाग में जंगली एशियाई शेरों को रसायनों से बेहोश करके उनके गले में रेडियो-कालर (पट्टा) डालने जा रहे थे। रेडियो-कालर शोध का एक ऐसा उपकरण है जिसमें मजबूत कपड़े के पट्टे के ऊपर एक रेडियो ट्रांस्मिटर लगा होता है। इस ट्रांस्मिटर में से लगातार कुछ संकेत निकलते रहते हैं। इससे शोधकर्ता को जानवर का ठिकाना पता लगता है और वो उसका सही तरीके से पीछा कर सकता है। रेडियो-टेलीमीटरी की इस विधि द्वारा बहुत से प्राणियों का अध्ययन किया जा चुका है। इनमें व्हेल, हाथी, शेर, बाघ, सांप से लेकर हमिंगबर्ड जैसी छोटी चिड़िय भी शामिल हैं। जंगल के पूर्वी भाग में शेरों को खोज पाना और उन्हें बंदी बनाना कोई आसान काम नहीं था क्योंकि यह जानवर इंसानों से शर्माते हैं, कभी नखरे दिखाते हैं और कभी उग्र भी हो जाते हैं।. 

हमारी योजना जंगल में भोर से पहले पहुंचने और वहां पर शेरों की दहाड़ सुनने की थी। हमें एक नर, वयस्क शेर को पकड़ना था। नर शेर सुबह से शाम तक दहाड़ते रहते हैं। हमें सड़क पर ही कोई शेर दिखायी पड़ जाए इस बात की भी संभावना थी। जीप में कुछ घंटे चलने और इंतजार करने के बाद मुझे निराशा ही हाथ लगती नजर आयी। हमें न तो कोई शेर दिखा और न ही कोई दहाड़ सुनायी पड़ी। उसके बाद हमने एक दूसरे इलाके में खोजने की ठानी। कोई सात बजे होंगे। सूरज की किरणों ने आसमान पर उजाला बिखेरना शुरू ही किया था। तभी हमने अपनी जीप को कच्ची सड़क पर रोका और पास की पहाड़ी पर शेरों की दहाड़ को सुनने के लिए चढ़े। हमें ज्यादा देर प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। थोड़ी ही देर बाद हमें दो नर शेरों की दहाड़ें सुनायी दीं। शेर हमसे बहुत अधिक दूरी पर नहीं थे। हम आशा कर रहे थे कि वो हमारी ओर आयें। पहली दहाड़ों के दस मिनट के अंदर ही हमें शेरों की दूसरी दहाड़ भी सुनायी दी। दहाड़ों से ऐसा लगा जैसे शेर हमारे करीब आ रहे हों। हमने तत्काल उन्हें पकड़ने का निर्णय लिया। भैंस को जीप से उतार कर सड़क के पास के एक पेड़ से बांध दिया गया। एक विशेष बंदूक को तैयार किया गया। इसमें रसायन से भरा एक तीर था। उसका निरीक्षण किया गया। फिर डा जौनसिंह पहाड़ी के ऊपर पेड़ों के एक झुरमुटे के पीछे छिप गये जिससे कि वो भैंस के चारे को ठीक प्रकार देख सकें। सारे जरूरी सामान को उतारने के बाद जीप वापिस चली गयी। हम सभी लोग ठीक ठिकानों पर छिप गये।

शेरों की दहाड़ों से ऐसा लग रहा था जैसे वो हमारे करीब आ रहे हों। परंतु जल्द ही हमारी उत्तेजना चिंता में बदल गयी। दहाड़ों से ऐसा लगने लगा जैसे शेरों ने उस रास्ते को छोड़कर हमसे दूर जाने वाली पगडंडी पकड़ ली हो। हमने फौरन आपस में चर्चा की और मेरे सहायक मुराद ने सुझाया कि अगर हम बकरी को मिमियाने के लिए विवश करें तो शायद शेर वापिस हमारी ओर चले आयें। मुराद बकरी को पकड़ कर डा जौनसिंह के पीछे आ गया। उसने बकरी को मिमियाने के लिए विवश करने के उसके कान उमेंठे। बकरी जोर से मिमियाई। सूने जंगल में उसकी आवाज बहुत तेज सुनायी दी। कुछ ही देर में हमें पत्तों के खड़कने की आवाज सुनायी दी। इसका मतलब था कि कुछ बड़े जानवर हमारी ओर आ रहे थे। एक भीमकाय नर शेर जंगल के सायेदार झुरमुटे में से बाहर निकला और उसे तुरंत पेड़ से बंधी भैंस दिखायी दी। उसने इंसानों की गैरमौजूदगी को सुनिश्चित करने के लिए एक बार चारों ओर देखा और फिर वो भैंस को मारने के लिए कूदा। शेर ने अपने जबड़ों को भैंस की गर्दन में धंसा दिया। शेर अब पास था और साफ दिखायी पड़ रहा था।

अब डा जौनसिंह आसानी से उसे निशाना बना सकते थे। तीर सीधा शेर के नितंब में जाकर लगा। बंदूक की आवाज से शेर चौंका और झट से अपने शिकार को छोड़कर जंगल में कूदा। हम दस मिनट रुके जिससे कि रसायन को अपना असर करने का समय मिल सके। फिर बड़ी सावधानी से हमारी टीम तीर लगे शेर को तलाशने निकली। शेर बहुत अधिक दूर नहीं गया था। वो भैंस के शिकार से केवल सौ मीटर दूर जमीन पर पड़ा था। शेर चल-फिर सकता है या नहीं यह आंकने के लिये मैंने उसकी ओर कुछ सूखी लकड़ियों के टुकड़े फेंके। शेर ने बहुत हल्के से अपना सिर उठाया। दवाई ने अपना असर किया था इससे यह साफ जाहिर था। परंतु जानवर के साथ सुरक्षित काम कर पाने के लिये उसे दवाई की एक और खुराक देना जरूरी थी। मैं अपने दो सहायकों के साथ धीरे से शेर के पास गया और जल्द ही हम बेहोश शेर के सिर और नितंब पर बैठ गए जिससे कि वो बिल्कुल हिल-डुल नहीं सके। दवा की दूसरी खुराक उसे अब आसानी से इंजेक्शन द्वारा दी जा सकी। जब शेर पूरी तरह निश्चल हो गया तो हमने रेडियो-कालर को उसके गले में बांधा। उसके बाद हमने शेर के सभी जरूरी मापों को नापा, उसकी शरीर की बाहरी चोटों पर दवाई लगायी, उसका वजन किया और फिर उसे छांव में दुबारा स्वस्थ्य होने के लिये छोड़ दिया। मैं सुरक्षित दूरी पर बैठकर उसके ठीक होने की प्रक्रिया का अध्ययन करता रहा।

1988 में, वाइल्डलाइफ इंस्ट्टियूट आफ इंडिया, देहरादून में शोध करते समय मेरा यह एक सामान्य अनुभव था। उस समय मैं एशियाई शेरों के जीवन और उनके परिवेश के संबंध में डाक्टरेट की डिग्री के लिए शोध कर रहा था। साथ में मैं वो जानकारी और आंकड़ें भी इकट्ठे कर रहा था जिससे गिर के शेरों का बेहतर प्रबंधन हो सके और लंबी अवधि में उनका संरक्षण सुनिश्चित हो सके। मैंने जंगलों में वन्यजीवन के संरक्षण के लिए शोधकार्य काफी देरी से करना शुरू किया। दरअसल मैं एक शहर में बड़ा हुआ था, मुझे क्रिकेट का शौक था और बड़े होकर मैं एक डाक्टर बनना चाहता था। मैं पहली बार किसी वन अभयारण्य में, एक स्वयंसेवी की हैसियत से प्रकृति शिक्षण शिविर में भाग लेने के लिए गया। जनवरी 1983 में, यह शिविर पाइंट कैलीमीर वाइल्डलाइफ सैंक्चुरी में तमिलनाड राज्य डब्लूडब्लूएफ के सदस्यों के लिये आयोजित किया गया था। मैं इसमें शिविर के संचालक, प्रेस्टन अहिमाज की सहायता कर रहा था। वैसे जीवविज्ञान और वन्यजीवन से मेरा दिली लगाव बचपन से ही शुरू हो गया था।

यह शौक मेरी तमाम रुचियों और कामों में साफ झलकता थाः बागवानी, पालतू जानवर और प्रकृति और वन्यजीवों के बारे में पढ़ायी आदि में। मेरे पालतू जानवरों में कुत्ते, बिल्लियां, मछलियां और पक्षी थे। इन्होंने मेरे जीवन को समृद्ध किया और मुझे जानवरों के व्यवहार की अच्छी समझ प्रदान की। मैंने वन्यजीवन संरक्षण का पेशा ही क्यों चुना इसके के पीछे कई कारण थे। जीवविज्ञान और जानवरों से मुझे खास लगाव था। मुझे लगातार भारत के अद्भुत वन्यजीवों को देखने का मौका भी मिला। मुझे जंगलों से बहुत प्यार था। धीरे-धीरे मुझे यह भी समझ में आने लगा कि भारत के वन्यजीव और उनका परिवेश गंभीर खतरे के दौर से गुजर रहे हैं। मेरे लिये यह निर्णय लेना बहुत आसान नहीं था। शुरू में मैंने इंडियन फारेस्ट सर्विस में दाखिल होने की सोची।

परंतु अंत में मैंने उच्च शिक्षा की राह ली, जिसमें एमए करने के बाद डाक्ट्रेट की डिग्री हासिल करनी थी - और इनके लिये मुझे बहुत शोधकार्य भी करना पड़ा। मुझे इसमें अधिक स्वतंत्र काम करने की संभावनायें दिखाई पड़ीं। इसके द्वारा मैं जंगलों में शोधकार्य के साथ-साथ, संरक्षण संबंधी मुद्दों पर हो रही बहसों में भाग भी ले सकता था। दूसरी ओर जंगल अधिकारियों को कई जिम्मेदारियां संभालनी पड़ती हैं और इसमें वन्यजीवन से संबंधित काम न मिलने की भी काफी संभावना थी।

1980 के शुरुआत में, वन्यजीवन पर शोध करने का विषय, छात्रों में कोई खास लोकप्रिय नहीं था। मैं खुशनसीब था कि मुझे एक ऐसे कालेज का पता चल पाया जहां से मैं वन्यप्राणियों के जीवविज्ञान पर अपना एमए कर सकता

था। साथ ही इस काम में मुझे लगातार अपने माता-पिता का प्रोत्साहन भी मिलता रहा। मेरे माता-पिता चाहते थे कि मैं स्नातन की डिग्री के बाद भी अपनी पढ़ाई जारी रखूं। उन्होंने मुझे खुद अपना पेशा चुनने की भी पूरी आजादी दी। उनका यह सहयोग बहुत महत्वपूर्ण था। 1981 में मैंने वनस्पतिशास्त्र में स्नातन की डिग्री हासिल की। परंतु इस विषय में आगे पढ़ाई करने में मेरी बिल्कुल भी रुचि नहीं थी। डिग्री मिलने के उपरांत मुझे अच्छी तनख्वाह वाली एक सेल्समैन की नौकरी मिल गयी। उससे मुझे जिंदगी काफी हसीन लगने लगी। मैं अपने माता-पिता के साथ रह रहा था, अच्छी कमाई कर रहा था, नौकरी में भी मजा आ रहा था और मैं खूब क्रिकेट खेल रहा था। परंतु दो साल की इस छोटी अवधि में मुझे वन्यजीवन को करीबी से देखने का मौका मिला और इसने मेरी जिंदगी और पेशे को सदा के लिये बदल दिया। कुछ मित्रों को मेरे इस निर्णय पर आश्चर्य और उत्सुकता भी हुयी। आज भी उनमें से कईयों को मेरे काम के बारे में बहुत कम ही पता है। इसे समझना आसान है क्योंकि उनमें से बहुत से लोग बड़े महानगरों में रहते हैं और उन्हें वन्यजीवन को पास से देखने का कभी भी मौका नहीं मिला है। इन सालों में मैंने अपने मित्रों और परिवार के सदस्यों को, जंगल के अपने अनुभवों को सुनाने का आनंद लिया है।

इन्हें सुनने के बाद मुझे कुछ अधिक सम्मान मिलने लगा है और मेरे काम की प्रशंसा होने लगी है। ज्यादातर लोगों को यह कहानियों बेहद रोचक लगी हैं और उनमें से कुछ लोग मेरे आनंददायी स्वस्थ्य जंगली जीवन और अद्भुत अनुभवों से ईर्ष्या भी करने लगे हैं।

शेरों पर डाक्ट्रेट के लिए शोध के बाद मैं अब कई सरकारी विभागों और अन्य संस्थाओं के साथ शेरों के विस्थापन का कार्य कर रहा हूं। इस प्रकार शायद हम पहली बार एशिया में, किसी दूसरे स्थान पर जंगली शेरों को आबाद करने में सफल होंगे। ऐतिहासिक रूप से शेर हमेशा ही भारत के उत्तरी और मध्य इलाकों में पाये गये हैं। परंतु मनुष्यों द्वारा बड़े पैमाने पर विनाश क कारण यह शेर अब केवल गुजरात के गिर जंगल में ही सिमट कर रह गये हैं। इस स्थिति में खतरे की तमाम संभावनाएं हैं क्योंकि एक लुप्त होती प्रजाति के सभी सदस्य एक जंगल के छोटे से हिस्से में ही सीमित है। कोई भी बीमारी या अन्य कोई खतरा शेरों की इस पूरी आबादी का एक साथ सफाया कर सकता है और इससे यह दुर्लभ प्रजाति सदा के लिए लुप्त हो सकती है।

अपनी डाक्ट्रेट के शोधकार्य के आधार पर मैंने उन संभावित इलाकों का सर्वेक्षण किया जहां पर इन शेरों को उचित तरीके से दुबारा बसाया जा सके। जनवरी 1995 में, मैंने अपनी रपट भारत सरकार को सौंपी। तब से मध्यप्रदेश के कुनो-पालपुर जंगलों में, शेरों के व्यवस्थित रूप से जीवनयापन करने की तैयारियां की जा रही हैं। अगर इस प्रकार शेरों का प्रतिस्थापन किया जाता है और सफल होता है तो यह शेरों की लंबी अवधि के संरक्षण में एक महत्वपूर्ण कदम होगा और इससे मुझे व्यक्तिगत सफलता का अपार संतोष मिलेगा। इन बड़े मांसाहारी जानवरों को किसी दूसरे स्थान पर ले जाना और सफलतापूर्वक उन्हें नये परिवेश में आबाद करना कोई आसान काम नहीं है। जंगलों में रह रहे लोग और आसपास बसे गांवों में लोग इन शेरों क आ जाने से अपने जीवन और अपने जानवरों के जीवन की सुरक्षा के बारे में चिंतित होंगे। साथ इस बात का भी पूरा ख्याल रखा जाना चाहिए कि जानवरों को पकड़ने में और दूर स्थान तक उन्हें ले जाने में उन्हें कहीं चोट और नुकसान न पहुंचे। समस्या के कई राजनैतिक पक्ष भी हैं जिनपर भी विचार करना होगा। वन्यजीवन संरक्षण के काम में अक्सर इस प्रकार की चुनौतियां आती हैं।

शेरों के संरक्षण के काम के अलावा मैंने अपने शोधकार्य में पश्चिमी घाट के जंगलों में जलथली, सरीसृपों और छोटे स्तनपाई प्राणियों के संरक्षण, मध्य भारत के जंगलों में तेंदुआं का परिवेश अध्ययन और कुछ अन्य रोचक प्रजातियों और परिवेशों के संरक्षण के काम को भी जोड़ा है। वन्यजीवन और संरक्षण के शोधकार्य में उच्चस्तरीय प्रेरणा और फील्ड में जाकर काम करने की ललक बेहद जरूरी है। साथ में जिज्ञासु दिमाग, सच्चाई के ऊंचे मानक और शोध के परिणामों को किसी प्रजाति या इलाके के संरक्षण की सहायता के लिये प्रयोग कर पाना भी आवश्यक है। वन्यजीवन में शोधकार्य, संरक्षण और प्रबंधन के काम में बहुत से प्रशिक्षित और प्रेरित लोगों को आगे आने की जरूरत है।

1980 में, मेरे छात्र दिनों में, लोग वन्यजीवन संबंधित पेशे चुनने में कम रुचि रखते थे। परंतु अब बहुत सारे युवा इस पेशे को अपनाने में रुचि जाहिर कर रहे हैं। भारत में वन्यजीवन का संरक्षण प्रभावशाली हो इसके लिये बहुत से युवा लोगों को इसके शोधकार्य में जुटना चाहिये। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें हम अपने सहयोग तथा कार्य द्वारा स्थितियों को बदलने का असर अपने ही जीवनकाल में देख सकते हैं। संकट में पड़ी और लुप्त होती प्रजातियों और उनके परिवेशों में काम करने से इसलिये अपार संतोष मिलता है क्योंकि आप अपने कार्य से स्थिति को बेहतर बना सकते हैं। वन्यजीवन संरक्षण करने के संतोष के साथ-साथ मुझे अपने पेशे में बहुत प्रेरित और कार्यकुशल युवाओं के साथ काम करने का अवसर भी मिलता है। संक्षिप्त में मैं बस इतना ही कहूंगा कि फील्ड शोधकार्य और वन्यजीवन संरक्षण का पेशा संतोषप्रद और चुनौतियों से भरा है। बीहड़ जंगलों, दूर-दराज के सुंदर स्थलों में सक्रिय होकर घूमने-फिरने और अध्ययन का भी इस पेशे में बहुत मौका है। मैं जंगली जीवों के साथ काम कर पाने के लिए अपने आपका बेहद भाग्यशाली मानता हूं। मुझे पूरी उम्मीद है कि आने वाले निकट भविष्य में युवा पीढ़ी के बहुत से लोग इस रोचक पेशे को अपनायेंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि हमारी मूल्यवान प्राकृतिक संपदा सदा के लिए संरक्षित रहे।

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(अनुमति से साभार प्रकाशित)

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रचनाकार: पर्यावरण पथ के पथिक - 8 : रवि चेल्लम
पर्यावरण पथ के पथिक - 8 : रवि चेल्लम
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