मीडिया, पंचायतें और मानवाधिकार'

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राकेशरेणु लोकतंत्र की बुनियादी संकल्पना में ही इस तथ्य की स्वीकृति शामिल है कि निचले या आधार स्तर पर इस व्यवस्था में जन भागीदारी सर्वाधिक ...

राकेशरेणु

लोकतंत्र की बुनियादी संकल्पना में ही इस तथ्य की स्वीकृति शामिल है कि निचले या आधार स्तर पर इस व्यवस्था में जन भागीदारी सर्वाधिक विस्तृत और व्यापक हो ताकि बुनियादी स्तर पर रहने वाले लोगों, गांवों के निवासियों को जनतांत्रिक व्यवस्था में सहभागिता हासिल हो, उन्हें व्यावहारिक अर्थों में अधिकार प्राप्त हों और अपने गांवों, पंचायतों के विकास के लिए वे अपने निर्णय स्वयं ले पाए। जब देश आजादी का गुरूतर दायित्व संभालने की तैयारी कर रहा था, उन्हीं दिनों 28 जुलाई, 1946 को महात्मा गांधी ने भावी हिंदुस्तान में जनतांत्रिक व्यवस्था की रूपरेखा खींचते हुए अपने अखबार 'हरिजन सेवक' में लिखा.... ''हरेक गांव में जम्हूरी सल्तनत या पंचायती व्यवस्था का राज होगा। इसके पास पूरी सत्ता और ताकत होगी। इसका मतलब है कि हरेक गांव को अपने पैरों पर खड़ा होना होगा। अपनी जरूरतें खुद पूरी करनी होगी ताकि वह अपना कारोबार खुद चला सके। यहां तक कि वह सारी दुनिया से अपनी रक्षा खुद कर सके। उसे तालीम देकर इस हद तक तैयार करना होगा कि वह बाहरी हमले के मुकाबले में अपनी रक्षा करते हुए मर-मिटने के लायक बन जाए।

इस तरह हमारी बुनियाद आखिरी आदमी पर टिकी होगी।''

इन पंक्तियों के जरिए महात्मा गांधी ने आने वाले लोकतंत्र और निचले स्तर पर पंचायतों के लिए पूरा कार्यक्रम, एजेंडा तैयार कर दिया और इस एजेंडे को महात्मा, आजादी की बाट जोह रहे देशवासियों को कैसे बताते हैं ? - एक साप्ताहिक अखबार के जरिए जो वह आंदोलन की अलख जगाने और अपने सपनों के भारत हेतु रचनात्मक कार्यक्रम तैयार करने व देश के जन-जन तक प्रेषित करने के लिए निकाल रहे थे।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जो अखबार निकल रहे थे उनका एक मिशन 'कोचीन (केरल) में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया आलेख था। उस मिशन में व्यवसाय कहीं नहीं था। उनका मकसद हर हाल में देश को आजाद कराना था। और जब यह मकसद आसन्न दिखने लगा, तो एक बेहतर समाज की रचना- समानता, भाईचारे पर आधारित, आत्मानिर्भर और प्रगतिशील समाज की रचना करना उनके मकसद में शामिल हो गया। महात्मा पूरे आंदोलन के अगुवा थे, पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपने दौर में उन्होंने नेता की हैसियत से मानदंड कायम किए। मिशन और मकसद वाली यह पत्रकारिता स्वाधीनता के बाद भी वर्षों, बल्कि दशकों तक जारी रही। लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे उसकी बुनियादी संरचना और स्वरूप बदलने लगे। स्वामित्व में पूंजी का और मिशन की जगह कैरियर और नौकरी करने का भाव प्रबल हुआ जिससे उद्देश्यपरकता और मकसद दोनों क्षीण हुए।

बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशक में हिंदी और भाषायी पत्रकारिता न केवल व्यापक हुई बल्कि बाजार से प्रेरित भी हुई। अखबारों का प्रसार बढ़ा और बाजार के नियामकों ने इसे लपक लिया। इसका परिणाम बहुआयामी हुआ। अखबार धीरे-धीरे प्रभुवर्ग से निकलकर आमजन का माध्यम बन गए। समाचरों में स्थानीयता को वरीयता मिली और उनके स्थानीय संस्करण निकलने लगे। शिक्षा के प्रसार, गांवों तक सड़कों और पहुंच मार्गों के निर्माण और ग्रामीण इलाकों में आ रही जागृति ने अखबारों और समाचारों के स्थानीयकरण को सफल बनाने में सहयोग किया और गांवों में रहने वाले लोग, किसान अखबारों के नए पाठक बने तथा उनकी समस्याएं व सरोकार अखबारों की खबर बनने लगे। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में देशभर में एक किस्म की अखबारी क्रांति हो रही थी, एक सर्वथा नया, अब तक अछूता पाठक वर्ग उससे जुड़ रहा था। इसी दौरान सन् 1993 में 73वें और 74वें संविधान संशोधन के रूप में पंचायती राज संस्था को संवैधानिक मान्यता दी गई और इससे महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया। ग्रामीण और जिलास्तर पर पंचायतें स्वशासन का प्रमुख औजार बनीं। गांवों में स्थानीय शासन के जड़ पकड़ने के फलस्वरूप किसान और ग्रामीण समाज में परम्परा से स्वीकृत मानव मूल्यों, मानव अधिकारों के साथ-साथ संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रति एक नयी चेतना और समझ का विकास हुआ।

ग्रामीण जन पंचायतों को समझना चाहते थे, पंचायती राज संस्था के रूप में हासिल अधिकारों को समझना चाहते थे और इन पंचायतों में हो रही गड़बड़ियों व खींचतान को अखबारों के मार्फत शासन और जनता के सम्मुख लाना भी चाहते थे। इसीलिए वे अखबारों के नए, जिज्ञासु पाठक थे, साथ ही खबरें जुटाने वाले और खुद खबर भी थे। गांवों और कस्बों में अपनी पहुंच व पकड़ अधिक से अधिक मजबूत बनाने के लिए अखबार पंचायत कर्मियों, प्रशिक्षकों और गड़बड़ियों आदि की खबरें हासिल करने लगे। समाचारपत्रों की इस सतत उपस्थिति से गावों के प्रायः स्थिर जीवन में एक अलग किस्म की हलचल और जागरूकता आई जिसकी वजह से पंचायतों और स्थानीय स्वशासन तंत्र के क्रियाकलापों में पारदर्शिता भी आई।

लेकिन सारे अखबार एक जैसी सक्रियता दिखा रहे हों या एक जैसी जागरूकता फैला रहे हों, ऐसा भी नहीं है। बहुत सी गतिविधियां ऐसी रहीं जो उनसे छूटती रहीं अथवा जिन्हें वे किन्ही कारणों से छोड़ते रहे। ऐसी कुछ आरंभिक घटनाओं की चर्चा हर्ष मंदर अपनी किताब ''अनहर्ड वॉयसेज : स्टोरीज ऑफ फॉरगॉटन लाइव्स'' में करते हैं। यहां एक ऐसी घटना का संक्षेप में मैं उल्लेख करूंगा जिसमें दलित तबके के कमजोर और सीधे-सादे व्यक्ति को राजस्थान के एक गांव में सरपंच बना कर गांव का संपन्न और ताकतवर जमींदार अपने साथियों के साथ उससे जाली कागज़ात पर दस्तखत करा पंचायत का लाखों का कोष गबन कर जाता है। पंचायत व्यवस्था के मामले में यह संक्रमण काल ;जतंदेपजपवद च्ीेंमद्ध की घटनाएं हैं। इससे पहले कि यह फरेब ज्यादा दिनों तक जारी रहे, प्यारचंद नामक इस सरपंच को यह अहसास हो जाता है कि उसके सामने टुकड़े फेंक कर उससे जाली काम और जाली दस्तखत कराए जा रहे हैं।वह गोपनीय तरीके से राजस्थान के उसी अंचल में सक्रिय मजदूर किसान शक्ति संगठन के कार्यकताओं से संपर्क कर उन्हें समूचे घटनाक्रम से अवगत कराता हैं, मजदूर किसान शक्ति संगठन के लाग उस ग्राम पंचायत में पहुँच कर तहकीकात करते हैं। मामले की तह तक जाते हैं और वहीं जन सुनवाई कर मीडिया, जिला प्रशासन और स्थानीय लोगों के सम्मुख इस भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करते हैं।

इस प्रक्रिया में सरपंच को अपने पद से हाथ धोना पड़ा, उसे निलंबित कर दिया गया, क्योंकि दस्तखत उसी ने किए थे सबूत उसके खिलाफ थे। लेकिन मीडिया ने इसे महज एक तात्कालिक खबर की तरह नहीं कवर किया, उसके भीतर के विचार को, सरपंच प्यार चंद की मूल भावना को पकड़ा और तवज्जो दी। जिससे न केवल सरपंच की एक जिम्मेदार ग्रामीण नागरिक की हैसियत से विश्वसनीयता बढ़ी, बल्कि उस पद की गरिमा बढ़ी और पंचायती राज व्यवस्था को मजबूती मिली। संक्रमण काल में इस तरह की अनेक घटनाएं घटीं, आज भी घट रही हैं। लेकिन उनका प्रतिशत कम हुआ है।

मित्रो, याद दिलाना चाहूंगा कि यह वही मजदूर किसान शक्ति संगठन है जिसका नेतृत्व दशकों से प्रसिद्ध सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता अरूणा राय कर रही हैं और जिसने नागरिकों के सूचना पाने के अधिकार को उनका मौलिक अधिकार माना, गांव-गांव घूम कर इस बारे में जागृति पैदा की और अंततः सरकार को विवश कर दिया कि कानून बना कर यह अधिकार, सूचना का अधिकार जनता को सौंपे। मजदूर किसान शक्ति संगठन राजस्थान के गांव-गांव में अलख जगाता रहा है। पंचायतों द्वारा विधि द्वारा सौंपे गए विकास गतिविधियों की सूची के तहत चलाए जा रहे कार्यक्रमों, वित्तीय गतिविधियों, स्वास्थ्य रक्षा और बच्चों की शिक्षा से जुड़ी गतिविधियों, मनरेगा जैसे कार्यक्रमों के क्रियान्वयन से जुड़ी शिकायतों की जांच कर, सूचना के लिए अधिकार के तहत खाता बहियों की जानकारियां हासिल कर मजदूर-किसानों के अधिकार के लड़ता रहा है और पंचायतों के क्रियाकलापों को पारदर्शी तथा भ्रष्टाचार मुक्त बनने के लिए प्रयासरत रहा है। राजस्थान में मजदूर-किसान शक्ति संगठन की कार्यवाहियों में स्थानीय समाचार पत्र हमेशा उसके साथ रहे और जनसुनवाइयों सहित उसके समस्त क्रिया-कलापों को कवरेज प्रदान करते रहे। कहना न होगा कि मजदूर किसान शक्ति संगठन के अभियानों की सफलता में ग्रामीण लोगों की सक्रिय भागीदारी के अलावा स्थानीय समाचारपत्रों की सक्रियता एक बड़ा कारक है।

मामला चाहे नरेगा में मजदूरों के भुगतान और खातों में हेराफरी का हो, या ग्राम पंचायतों की वित्तीय अथवा राजनीतिक उठा-पठक का, स्थानीय समाचारपत्रों ने उसकी भरपूर कवरेज की। लेकिन जैसा हम ऊपर देख चुके हैं, कवरेज केवल गडबड़ियों की ही नहीं हो रही थी, इस प्रक्रिया में गांववासी, किसान-मजदूर धीरे-धीरे पंचायती राज व्यवस्था के रूप में हासिल अपने हकों-अधिकारों और उसकी कार्यविधि की सूक्ष्मताओं से भी अवगत हुए।

पंचायती राज संस्थाओं के अस्तित्व में आने के बाद का काल, यानी 1993 और उसके बाद का काल इस लिहाज़ से भी महत्त्वपूर्ण है कि इस दरम्यान गरीबों, किसानों, पंचायतों को सशक्त बनाने वाले कई कानून और नियम अस्तिव में आए। पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण आरंभिक 33 प्रतिशत से बढा कर 50 प्रतिशत कर दिया गया, वन अधिकार अधिनियम 2006, शिक्षा का अधिकार अधिनियम और ग्राम- न्यायालय कानून अस्तित्व में आए और इन सबसे ग्राम पंचायतों को पहले से ज्यादा शक्ति व मजबूती हासिल हुई। अखबारों ने इन सबको अपना विषय बनाया, उनकी खूबियों और खामियों की चर्चा की, मूल्यांकन किए तथा उन पर रायशुमारी की। इनके फलस्वरूप पंचायतों के लिए अधिनियम में पहले से सूचीबद्ध 29 विषयों सहित इन नए कानूनों से हासिल अधिकारों के बारे में न केवल ग्रामीणजन बल्कि खुद पंचायत प्रतिनिधियों की भी जागरूकता बढ़ी। आज स्वास्थ्य, शिक्षा, बुनियादी ढांचागत विकास, रोजगार जैसे तमाम विषय पंचायतों की देखरेख में संचालित होते हैं।

लेकिन स्थानीय समाचारपत्रों की सक्रियता के इस आख्यान से यह नहीं समझना चाहिए कि समाचारपत्रों में पंचायत, गांव-कस्बे और स्थानीयकरण की जिस प्रवृत्ति ने बीसवीं सदी के आखिरी दशक में जोर पकड़ा वह किसी किस्म के पत्रकारी मिशन का हिस्सा था, नहीं। इसकी वजह शुद्ध रूप से बाजार की प्रतियोगिता में बने रहने के लिए अपना अधिक प्रसार करना था ताकि न केवल अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंचा जाए बल्कि अधिक से अधिक विज्ञापन हासिल किए जाए और इस तरह अखबार निकालने के धंधे से मुनाफे को अधिकाधिक बढ़ाया जाए। इसीलिए अखबारों के अधिकाधिक स्थानीय संस्करण निकालने के चलन ने जोर पकड़ा। उन संस्करणों का पेट भरने के लिए जो भी खबर स्थानीय थी, उनका ग्राह्य बनीं। चाहे वह किसान-मजदूरों की गरीबी हो या आत्महत्या, चाहे समाज में व्याप्त जातीयता हो या सांप्रदायिकता, चाहे पंचायतों की अंदरूनी राजनीति हो या उनके विकास कार्यक्रम, सभी अखबारों के पन्नों पर साया हुए। इस तरह पंचायतों और उसकी गतिविधियों की कवरेज समर्पित और मिशनरी भावनाओं के साथ नहीं हो रही थी, बल्कि तरह-तरह की अन्य खबरों के साथ एक पूरक खबर के तौर पर हो रही थी। इसका हासिल क्या हुआ ?

पहला यह कि अखबारों की प्रसार संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। स्थिति यह बनी कि पिछले दस सालों से भारत में सर्वाधिक प्रतियां बेचने वाले अखबारों में हिंदी और भाषायी समाचारपत्रों का बोलबाला है। हिंदी इनमें शीर्ष पर है जबकि अंग्रेजी अखबार कहीं दूर पीछे छूट गए हैं।

दूसरा, प्रसार बढ़ाने से समाचार समूहों को विज्ञापनों से होने वाली आय में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई। वर्ष 2004-05 में अखबारों की विज्ञापन-वृद्धि ने टीवी को भी पीछे छोड़ दिया।

तीसरा, (इसे आप पहले स्थान पर भी रख सकते हैं) गांवों में मानवाधिकार को लेकर, मौलिक अधिकारों को लेकर चेतना बढ़ी, ग्राम पंचायतों की भूमिका को लेकर चेतना बढ़ी। दलितों और महिलाओं जैसे वंचित तबकों में एक किस्म का आत्माविश्वास पनपा और आरंभिक संकोच के बाद अधिकाधिक महिलाएं ग्राम पंचायत की गतिविधियों में शरीफ होने लगी। बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, केरल और उत्तराखंड जैसे राज्यों ने 33 प्रतिशत से आगे बढ़कर पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50 आरक्षण देना आरंभ किया। इन सकारात्मक घटनाओं को न केवल स्थानीय वरन राष्ट्रीय संस्करणों में भी समुचित जगह मिली जिसका परिणाम यह हुआ कि केंद्र सरकार ने 27 अगस्त, 2009 को स्त्री अधिकारिता की दिशा में मजबूत और ऐतिहासिक पहल करते हुए पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण 33 प्रतिशत से बढ़ा कर 50 प्रतिशत कर दिया। इस समय देशभर के पंचायतों में करीब 28 लाख निर्वाचित पंचायत, प्रतिनिधि हैं जिसका प्रायः 37 प्रतिशत महिलाएं हैं। बिहार में तो सन् 2006 हुए पंचायत चुनाव में राज्य के 38 जिला परिषदों में से 21 की कमान महिलाओं के साथ में आ गई। समाचारपत्रों ने परोक्ष-अपरोक्ष रूप से महिला अधिकारिता, चाहे वह गांव की महिलाएं हों या शहरों की, को मजबूत करने की दिशा में जितना व्यापक योगदान किया हैं उसका बयान आसानी से नहीं किया जा सकता।

बता चुका हूँ कि व्यावसयिकता के दबाव में अखबारों के लिए कुछ भी अग्राह्य नहीं रहा। बिना विचार को तवज्जो दिए, हर तरह की घटनाएं जो उन्हें व्यापक पाठक वर्ग तक ले जाए प्रसार बढ़ाए उनको वे आगे बढ़कर थामते, छापते, फैलाते गए। इसलिए समाचारपत्रों के स्थानीयकरण के परिणामस्वरूप समाज में जाति आधारित और सांप्रदायिक भावनाओं ने जोर पकड़ा। समाज को बांटने वाली जो ताकतें और विचार स्वतंत्र भारत के आरंभिक दशकों में कमजोर पड़ गए थे, उन्हें दुबारा मजबूती और स्वीकृति मिलने लगी।

दरअसल पूंजी और व्यावसायिक दृष्टि समाचार को ऐसी वस्तु की तरह देखती है जिसे बेचा जा सके। उसे समाचार और विचार में कोई अंतर्संबंध नहीं दिखाई देता। लेकिन सच्चाई यह है कि अच्छी और स्तरीय पत्रकारिता का आधार सिर्फ तात्कालिक खबरें नहीं होतीं, बल्कि उसमें निहित विचार होता है। इसीलिए बकौल मृणाल पांडे 'एक अच्छा पत्रकार या तो किसी विचार को अपनी रपट या विश्लेषण के मार्फत प्रतिष्ठित करता है या फिर किसी स्वीकृत विचार के स्तर पर उसका सफलतापूर्वक तर्कसंगत विरोध। दोनों ही स्थितियों में वह लोकतंत्र में विचारों की सार्थक केंद्रीयता को बहाल करता है।' कहना न होगा कि पंचायतों, स्थानीय स्वाशासी निकायों आदि से जुड़ी खबरों में जहां कहीं तात्कालिकता से ऊपर वैचारिकता को जगह दी गई, और ऐसा सभी समझदार अखबार और उनके संपादकों ने किया, उदाहरण मैं पहले दे चुका हूँ, वहां खबरों ने पंचायतों, स्वशासी निकायों सहित समूचे ग्रामीण समाज की अधिकारिता को मजबूत किया है, किसान-मजदूरों को जाग्रत और चेतना संपन्न बनाने में मदद की है।

मित्रो, अपनी बात समाप्त करने से पहले एक बार दुहराना चाहूंगा कि जो बातें मैंने कही हैं वह हिंदी और भाषायी समाचारपत्र-पत्रिकाओं के हवाले से और उनके संदर्भ में ही हैं। अंग्रेजी समाचार पर और इलेक्ट्रानिक मीडिया को इस लेख में शामिल नहीं किया गया है। इसकी मूल वजह यह है कि मेरा मानना है कि अंग्रेजी अखबार और इलेक्ट्रानिक मीडिया इन दोनों का बुनियादी चरित्र शहरी है। गांव और गांवों की संवेदनाएं, समस्याएं, मुद्दे और ग्रामीण जीवन इनके सॉफ्टवेयर का हिस्सा नहीं हैं।

 

(मानवाधिकार संचयिका, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से साभार)

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