पितृसत्तात्मक समाज में ‘फादर्स-डे‘ की अवधारणा

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‘फादर्स-डे‘(21 जून) पर विशेष कृष्ण कुमार यादव माँ और पिता ये दोनों ही रिश्ते समाज में सर्वोपरि हैं। इन रिश्तों का कोई मोल नहीं है। ये सि...

‘फादर्स-डे‘(21 जून) पर विशेष

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कृष्ण कुमार यादव

माँ और पिता ये दोनों ही रिश्ते समाज में सर्वोपरि हैं। इन रिश्तों का कोई मोल नहीं है। ये सिर्फ एक शब्द भर नहीं हैं, बल्कि ऐसे रिश्ते हैं जिनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। दुनिया के तमाम देशों में इन रिश्तों के लिए अलग-अलग शब्द हो सकते है, पर भाव-पक्ष में साम्यता है। भारतीय संस्कृति में माता-पिता को देवता कहा गया है-मातृदेवो भव, पितृदेवो भव। भगवान गणेश माता-पिता की परिक्रमा करके ही प्रथम पूज्य हो गये। श्रवण कुमार ने माता-पिता की सेवा में अपने कष्टों की जरा भी परवाह न की और अंत में सेवा करते हुए प्राण त्याग दिये। देवव्रत भीष्म ने पिता की खुशी के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया और विश्वप्रसिद्ध हो गये। माता-पिता की सेवा के तमाम् दृष्टान्त हैं जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता। जो बच्चे अपने माता-पिता का आदर-सम्मान नहीं करते, वे जीवन में अपने लक्ष्य को कभी प्राप्त नहीं कर सकते।

फिलहाल यहाँ बात पिता की। भले ही पिता एक माँ की तरह अपने कोख से बच्चे को जन्म न दे पाए, अपना दूध न पिला पाए, लेकिन सच तो यह है कि एक बच्चे के जीवन में पिता का सबसे महत्वपूर्ण स्थान होता है। हम सभी को बचपन में अनुशासनप्रियता व सख्ती के चलते पिता क्रूर नजर आते हैं। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है और हम जीवन की कठिन डगर पर चलने की तैयारी करने लगते हैं, हमें अनुभव होता है कि पिता की वो डाँट और सख्ती हमारे भले के लिए ही थी। पापा बाहर से जितने सख्त दिखाई पड़ते हैं, अंदर से उतने ही कोमल हैं। वज्रादपि कठोर, बिल्कुल नारियल की तरह। उनकी हर एक सीख जब हमें अपनी मंजिल की ओर बढ़ने में मदद करती है, तब हमें मालूम पड़ता है कि पिता हमारे लिए कितने खास थे और हैं। कहते भी हैं कि माँ का प्यार नजर आता है पर पिता का प्यार नजर नहीं आता है क्योंकि पिता का प्यार इतना गहरा होता है कि उस प्यार को देखने के लिए नजरों की जरूरत नहीं होती है केवल दिल से ही पिता के प्यार को महसूस किया जा सकता है।

जिस घर में बच्चों की देखरेख करने के लिए अगर पिता नहीं है तो उन मासूम बच्चों के सारे लाड़-प्यार, दुलार, पिता की छाँव सबकुछ अधूरा रह जाता है। ऐसा कहा जाता है कि अगर किसी के घर में माँ नहीं है तो बच्चों की देखरेख ठीक से नहीं हो पाती। ठीक उसी तरह पिता के न होने पर भी बच्चों का वही हाल होता है। याद कीजिए बचपन के वो दिन जब माँ बड़े प्यार से आपके सिर पर हाथ फेरकर आप से प्यार करने का अहसास कराती होंगी पर आपके पिता बस आपकी तरफ देखकर केवल यही पूछते होंगे कि, “मेरे बेटे को किसी चीज की जरूरत तो नहीं है न।” सोचिए जरा पिता का यह सब पूछना, उनकी बातों और आँखों में कितना प्यार दिखाता है पर पिता कभी भी अपना प्यार जता नहीं पाता है। इस दुनिया जहान में बिना पिता के जीवनयापन करना बहुत मुश्किलों भरा काम है। बच्चों को हर उस जरूरत के लिए तरसना पड़ता है, जिसके वे हकदार होते हैं।

   बचपन में जब कोई बच्चा चलना सीखता है तो सबसे पहले अपने पिता की उँगली थामता है। नन्हा सा बच्चा पिता की उँगली थामे और उसकी बाँहों में रहकर बहुत सुकून पाता है। बोलने के साथ ही बच्चे जिद करना शुरू कर देते हैं  और पिता उनकी सभी जिदों को पूरा करते हैं। बचपन में चॉकलेट, खिलौने दिलाने से लेकर युवा होने तक बाइक, कार, लैपटॉप और उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने तक सभी माँगों को पिता पूरा करते रहते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि अपनी जरूरतों को कम करके एवं अपनी अभिरुचियों को तिलांजलि देकर भी बच्चों  के लिए पिता दिन-रात मेहनत करते हैं । अगर घर में पिता होते है तो तमाम जिम्मेदारियों से बच्चों को काफी हद तक मुक्ति मिल जाती है। फिर उन पर किसी तरह का कोई अतिरिक्त दबाव नहीं रहता। वो अपनी मर्जी से घूम-फिर सकते हैं। अपने दोस्तों के साथ पार्टियों में शामिल हो सकते हैं और सारी दुनिया की फिक्र छोड़कर पिता के गोद में सिर रखकर आराम से सो सकते हैं। 

पिता की उपस्थिति ही हमें काफी सुकून और आश्वस्ति देती है। हमें पिता से मिलता है एक सुरक्षा का वादा, एक प्यार का एहसास, जो बिना किसी शर्त से बँधा है। यह उम्मीद भी कि वो हमें कभी नहीं नकारेंगे। हमारी हर खुशी व हर जीत में ही नहीं बल्कि सबसे बुरे वक्त में भी संबल बनकर खड़े रहेंगे। पिता के लिए हमारी और परिवार की खुशी सर्वोपरि है, उनकी खुद की खुशी से भी ज्यादा। आज भी बचपन के वो दिन याद  हैं  कि कैसे हर साल  पिताजी अपने कांधे पर बिठाकर रावण दहन दिखाने के लिए ले जाया करते थे। कितने सुनहरे दिन थे, जब पिताजी उंगली पकड़कर मेला घुमाया करते थे और हर जिद बड़ी आसानी से पूरी कर दिया करते थे। उनसे हम अपने दिल की हर छोटी बात भी बिना किसी हिचकिचाहट के साथ बाँट सकते थे। 

     जब बच्चे छोटे होते हैं तो उनसे अधिकतर यह पूछा जाता है कि उन्हें ज्यादा प्यार कौन करता है मम्मी या पापा तो अधिकांश बच्चे माँ का नाम ही लेते हैं। वो इसलिए क्योंकि वे माँ के साथ ही ज्यादा समय व्यतीत करते हैं और उन्हें पता ही नहीं होता है कि पिता का प्यार क्या होता है। कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो माता-पिता दोनों के साथ एक जैसा समय व्यतीत करते हैं और उनसे पूछे जाने पर वो बच्चे यही कहते हैं कि पिता ज्यादा प्यार करते हैं और साथ ही उन बच्चों को ज्यादा खुश देखा गया जो पिता के साथ ज्यादा समय व्यतीत करते हैं।

एक शोध के मुताबिक आज भी दुनिया भर में बच्चे सर्वप्रथम आदर्श के रूप में अपने पिता को ही देखते हैं। माँ उनकी पहली पाठशाला है तो पिता पहला आदर्श। वे अपने पिता से ही सीखते हैं और उनके जैसा ही बनना चाहते हैं। इसलिए जीवन में जितना मां का महत्व होता है, उतना ही पिता का भी है। हमें यह नही भूलना चाहिए कि माता-पिता ने हमारे पालन-पोषण में कितने कष्ट सहे हैं। भूलकर भी कभी अपने माता-पिता का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। वे हमारे लिए सदैव आदरणीय हैं। उनका मान-सम्मान करना हमारा पुनीत कर्तव्य है। 

       पिता एक रिश्ता है तो जिम्मेदारी का भी नाम है। अपने बड़े होते बच्चों की परवरिश के साथ-साथ उनके सुनहले भविष्य के लिए भी पिता सदैव सजग रहता है। इन सबके पीछे एक सुखद अहसास छिपा होता है कि बड़े होकर बच्चे उनका ध्यान रखेंगे और फिर वे अपने अधूरे अपने सपने जी सकेंगे। पर कई बार ये सपने अधूरे ही रह जाते हैं और फिर शुरू होता है वह दौर, जब भागदौड़ भरी इस जिंदगी में बच्चों के पास अपने पिता के लिए समय नहीं मिल पाता है। पाश्चात्य देशों में इसी को ध्यान में रखकर ‘फादर्स डे‘ या ‘पितृ दिवस‘ मनाने की परंपरा का आरम्भ हुआ।

‘फादर्स डे‘ पिताओं के सम्मान में एक व्यापक रूप से मनाया जाने वाला पर्व है, जिसमें पितृत्व, पितृत्व-बंधन तथा समाज में पिताओं के प्रभाव को समारोह पूर्वक मनाया जाता है। इस दिवस की शुरुआत बीसवीं सदी के प्रारंभ में पिता धर्म तथा पुरुषों द्वारा परवरिश का सम्मान करने के लिये मातृ दिवस के पूरक उत्सव के रूप में हुई। यह हमारे पूर्वजों की स्मृति और उनके सम्मान में भी मनाया जाता है। पितृ दिवस को विश्व में विभिन तारीखों पर मनाते है- जिसमें उपहार देना, पिता के लिये विशेष भोज एवं पारिवारिक गतिविधियाँ शामिल हैं। विश्व के अधिकतर देशों में इसे जून के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। कुछ देशों में यह अलग-अलग दिनों में मनाया जाता है।

    फादर्स डे मनाने के पीछे भी कई दिलचस्प किस्से हैं । एक मान्यता के अनुसार वास्तव में यह सबसे पहले पश्चिम वर्जीनिया के फेयरमोंट में 5 जुलाई, 1908 को मनाया गया था। 6 दिसम्बर, 1907 को मोनोंगाह, पश्चिम वर्जीनिया में एक खान दुर्घटना में मारे गए 210 पिताओं के सम्मान में इस विशेष दिवस का आयोजन श्रीमती ग्रेस गोल्डन क्लेटन ने किया था। ‘प्रथम फादर्स डे चर्च‘ आज भी सेन्ट्रल यूनाइटेड मेथोडिस्ट चर्च के नाम से फेयरमोंट में मौजूद है।

        फिलहाल प्रचलित लोकप्रिय अवधारणा के अनुसार माना जाता है कि फादर्स डे सर्वप्रथम 19 जून 1910 को वाशिंगटन में मनाया गया। इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है- सोनेरा डोड की। सोनेरा डोड जब नन्ही सी थीं, तभी उनकी माँ का देहांत हो गया। पिता विलियम स्मार्ट ने सोनेरो के जीवन में माँ की कमी नहीं महसूस होने दी और उसे माँ का भी प्यार दिया। एक दिन यूँ ही सोनेरा के दिल में ख्याल आया कि आखिर एक दिन पिता के नाम क्यों नहीं हो सकता? इस तरह 19 जून 1910 को पहली बार फादर्स डे मनाया गया। 1924 में अमेरिकी राष्ट्रपति कैल्विन कोली ने फादर्स डे पर अपनी सहमति दी। फिर 1966 में राष्ट्रपति लिंडन जानसन ने जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाने की आधिकारिक घोषणा की। 1972 में अमेरिका में फादर्स डे पर स्थायी अवकाश घोषित हुआ। फिलहाल पूरे विश्व में जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाया जाता है। 

       भारत में भी धीरे-धीरे इसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है। इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढती भूमंडलीकरण की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है और पिता के प्रति प्रेम के इजहार के परिप्रेक्ष्य में भी। पिता द्वारा अपने बच्चों के प्रति प्रेम का इजहार कई तरीकों से किया जाता है, पर बेटों-बेटियों द्वारा पिता के प्रति इजहार का यह दिवस अनूठा है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि स्त्री-शक्ति का एहसास करने हेतु तमाम त्यौहार और दिन आरंभ हुए पर पितृसत्तात्मक समाज में फादर्स डे की कल्पना अजीब जरुर लगती है। पाश्चात्य देशों में जहाँ माता-पिता को ओल्ड एज हाउस में शिफ्ट कर देने की परंपरा है, वहाँ पर फादर्स-डे का औचित्य समझ में आता है। पर भारत में कहीं इसकी आड़ में लोग अपने दायित्वों से छुटकारा तो नहीं चाहते हैं, इस पर भी विचार करने की जरुरत है। जरुरत फादर्स-डे की अच्छी बातों को अपनाने की है, न कि पाश्चात्य परिप्रेक्ष्य में उसे अपनाने की जरुरत है।

कोई भी पिता अपने बच्चों से क्या चाहता है- प्यार का सच्चा इजहार, बच्चों का साथ, मान-सम्मान और यह आश्वस्ति कि बुजुर्ग होने पर बच्चे उनका भी पूरा ख्याल रखेंगे। बच्चों की हर सफलता के साथ पिता गौरवान्वित होता है। उन्हें लगता है कि जिन आदर्शों  के लिए उन्होंने  दिन-रात एक किया, बेटे-बेटियों ने उसे साकार किया। ऐसे में सिर्फ एक दिन ‘फादर्स डे‘ मना कर अपने दायित्वों से इतिश्री नहीं किया जा सकता। माता-पिता ही दुनिया की सबसे गहरी छाया होते हैं, जिनके सहारे जीवन जीने का सौभाग्य हर किसी के बस में नहीं होता। इसलिए माता-पिता का आशीर्वाद लेकर सिर्फ एक दिन ही उन्हें याद ना करते हुए प्रतिदिन उन्हें नमन कर अपना जीवन सार्थक करना चाहिए। 

कृष्ण कुमार यादव

निदेशक डाक सेवाएं

राजस्थान पश्चिमी क्षेत्र, जोधपुर -342001 

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कृष्ण कुमार यादव : एक परिचय

सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक. प्रशासन के साथ-साथ साहित्य, लेखन और ब्लागिंग के क्षेत्र में भी प्रवृत्त। जवाहर नवोदय विद्यालय-आज़मगढ़ एवं तत्पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1999 में राजनीति-शास्त्र में परास्नातक. देश की प्राय: अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर वेब पत्रिकाओं व ब्लॉग पर रचनाओं का निरंतर प्रकाशन. व्यक्तिश: 'शब्द-सृजन की ओर' और 'डाकिया डाक लाया' एवं युगल रूप में सप्तरंगी प्रेम, उत्सव के रंग और बाल-दुनिया ब्लॉग का सञ्चालन. इंटरनेट पर 'कविता कोश' में भी कविताएँ संकलित. 50 से अधिक पुस्तकों/संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित. आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण. कुल 7 कृतियाँ प्रकाशित -'अभिलाषा' (काव्य-संग्रह, 2005), 'अभिव्यक्तियों के बहाने' व 'अनुभूतियाँ और विमर्श'(निबंध-संग्रह, 2006 व 2007), 'India Post : 150 Glorious Years'(2006),'क्रांति-यज्ञ : 1857-1947 की गाथा', 'जंगल में क्रिकेट' (बाल-गीत संग्रह,2012) व '16 आने 16 लोग'(निबंध-संग्रह, 2014).विभिन्न सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा शताधिक सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त. व्यक्तित्व-कृतित्व पर 'बाल साहित्य समीक्षा'(सं. डा. राष्ट्रबंधु, कानपुर, सितम्बर 2007) और 'गुफ्तगू' (सं. मो. इम्तियाज़ गाज़ी, इलाहाबाद, मार्च 2008 द्वारा विशेषांक जारी. व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक 'बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव' (सं0- दुर्गाचरण मिश्र, 2009) प्रकाशित.

संपर्क: कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवाएँ, राजस्थान पश्चिमी क्षेत्र, जोधपुर -342001 

  ई-मेलः kkyadav.t@gmail.com

ब्लॉग : http://kkyadav.blogspot.in/

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रचनाकार: पितृसत्तात्मक समाज में ‘फादर्स-डे‘ की अवधारणा
पितृसत्तात्मक समाज में ‘फादर्स-डे‘ की अवधारणा
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