भारतीय सिनेमा और हिन्दी

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- गोवर्धन यादव भारत विश्व का एक अद्भुत देश है, जहां बहुजातीय, बहुभा‍षीय, बहुनस्लीय और बहुधर्मी मानव-समुदाय परस्पर प्रेम-मिलाप और सौहार्द स...

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- गोवर्धन यादव

भारत विश्व का एक अद्भुत देश है, जहां बहुजातीय, बहुभा‍षीय, बहुनस्लीय और बहुधर्मी मानव-समुदाय परस्पर प्रेम-मिलाप और सौहार्द से मिलजुल कर रहते हुए एक गौरवशाली रा‍ष्ट्र का निर्माण करते हैं. मिली-जुली सामाजिक संस्कृति ही भारत की आन्तरिक शक्ति है. हमारी भा‍षाएं न केवल हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम है, बल्कि वे हमारी संस्कृति की संवाहक भी है. अनेक भा‍षाएं होने के बावजूद भी हर भारतवासी, प्रत्येक भा‍षा का सम्मान करता है,जितना सम्मान वह अपनी मातृभा‍षा से करता है. सभी भा‍षाओं में हिन्दी ही एकमात्र ऎसी भा‍षा है, जो उत्तर से लेकर कश्मीर तक, सुदूर दक्षिण में कन्याकुमारी तक, पूर्व में कामाख्या से लेकर पश्चिम में कच्छ तक बोली और समझी जाती है. यह गौरव का विषय है कि हिन्दी आज भारत की सीमा लांघकर विश्व के हर कोने तक जा पहुँची है. विश्व के करीब 192 देशों में हिन्दी न केवल पढाई जा रही है,बल्कि शान से बोली भी जा रही है. इस व्यापकता के पीछॆ अन्य कारकों के अलावा सिनेमा भी एक कारक है,जिसके माध्यम से हिन्दी विश्व में सिरमौर बन पायी है.

भारत की गौरवशाली परम्परा, उसका स्वर्णिम इतिहास और सामाजिक संस्कृति की अनुगूंज, विश्व के कोने-कोने में हिन्दी के माध्यम से प्रसारित-प्रचारित करने में भारतीय सिनेमा के योगदान को कैसे विस्मृत किया जा सकता है ?. भारत के पहले प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरु के परामर्श को शिरोधार्य करते हुए उस दशक के जादुई करिशमा के धनी और अपने समय के सबसे बडॆ स्टार, निदेशक राजकपूर ने “श्री 420” का निर्माण किया था. उस फ़िल्म में एक गाना था “ मेरा जूता है जापानी, पतलून इंग्लिशतानी, सिर पर लाल टॊपी रूसी, फ़िर भी दिल है हिन्दुस्थानी” आज भी रूस में लोग बडॆ चाव के साथ गाते-नाचते देखे जा सकते है.

सिनेमा अपनी प्रारम्भिक अवस्था से ही भारतीय समाज का आइना रहा है. भारतीय सिनेमा ने पिछले पांच-सात दशक पूर्व से ही शहरी दर्शकों के साथ-साथ सुदूर ग्रामीण अंचलों तक गहरे तक प्रभावित किया और आज भी अपना प्रभाव बनाए हुए है. टेलिविजन के आश्चर्यजनक खोज के साथ ही उसने समूचे विश्व में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है. इसी क्रम में आज भारत के गांव-कस्बों तक के सामान्य परिवारों के बीच इसकी पहुँच हो गई है. बुद्धिबक्सा कहलाए जाने वाले इस टेलीविजन के माध्यम से हिन्दी फ़िल्में तथा हिन्दी गाने धमाल मचा रहे हैं, आज हिन्दी की व्यापक लोकप्रियता और इसे संप्रेषण के माध्यम के रूप में मिली आत्म-स्वीकृति किसी संवैधानिक प्रावधान या सरकारी दवाब का परिणाम नहीं है. मनोरंजन और फ़िल्म की दुनिया ने इसे व्यापार और आर्थिक लाभ की भाषा के रूप में जिस विस्मयकारी ढंग से स्थापित किया है, वह लाजवाब है. अपने सामर्थय से जन-जन को जोडने वाली हिन्दी की स्वीकारिता जहाँ एक ओर बढी है, वही वह संचार माध्यम की भाषा के रूप में प्रयुक्त होने वाले समस्त ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक विषयों से सहज ही जुड गयी है. वह अदालतों में और प्रशासन से जुडती हुई बुद्धिजीवियों और जनता के विचारों के प्रकटीकरण और प्रसारण का आधार भी बनती है..सच्चाई का बयान कर समाज को अफ़वाहॊं से बचाती है, विकास योजनाओं के संबंध में जन शिक्षण का दायित्व भी भली-भांति निभाती है. घटनाचक्रों और समाचारों का जहाँ वह गहन विश्लेषण करती है,तथा वस्तु की प्रकृति के अनुकूल विज्ञापन की रचना करके उपभोक्ताओं कॊ उसकी अपनी भाषा में बाजार से चुनाव की सुविधा मुहैया कराती है. आज हिन्दी इन्हीं संचार माध्यमों के सहारे अपनी संप्रेषण क्षमता का बहुमुखी विकास कर रही है..

भाषा प्रचार की संस्कृति और जातीय प्रश्नों के साथ सिनेमा हमेशा से गतिमान रहा है. उसकी यह प्रक्रिया अत्यंत सहज, बोधगम्य, रोचक, संप्रेषणीय और ग्राह्य है. जब हम भारतीय सिनेमा का मूल्यांकन करते हैं तो पाते हैं कि भाषा का प्रचार-प्रसार, सहित्यिक कृतियों का फ़िल्मी रूपान्तरण, हिन्दी गीतों की लोकप्रियता, हिन्दी की अन्य उपभाषाएं/बोलियों का सिनेमा और सांस्कृतिक एवं जातीय प्रश्नों को उभारने में भारतीय सिनेमा का योगदान जैसे मुद्दे महत्वपूर्ण ढंग से हमारे सामने आते हैं. सिनेमा ने हिन्दी भाषा की संचारात्मकता, शैली, कथन- बिंब धर्मिता, प्रतीकात्मकता, दृष्य विधान आदि मानकॊं कॊ गढा है. आज भारतीय सिनेमा हिन्दी भाषा, साहित्य और संस्कृति का लोकदूत बनकर चहुं ओर पहुंचने की दिशा में अग्रसर है.

भारतीय सिनेमा के अपने शैशवकाल में जितनी भी फ़िल्में बनी उनमें भारतीय संस्कृति की महक रची-बसी होती थी. उन्नीसवीं सदी के पांचवे-छटवें दशक में अपने समय के सबसे चर्चित कलाकार साहू मोडक, मनोहर देसाई ,पृथ्वीराज, भगवान, भारतभूषण, सप्रु, रज्जन, के.एन.सिंह, गुरुदत्त, जीवन, अशोककुमार, राजकपूर, दिलीपकुमार, देवानंद, बलराज साहनी, शम्मीकपूर, शशि कपूर, गुलजार. पी.कैलाश,(हमारे गांव मुलताई के ही रहने वाले थे) आदि. महिला कलाकारॊं में सुरैया, निरूपा राय, कामिनी कौशल, मधुबाला, नरगिस, नूतन, वैजंतीमाला, सरोजादेवी, पद्मिनी, मालासिन्हा, आशा पारेख, सायरा बानू, शर्मिला टैगोर, राखी,आदि का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है. .इन कलाकारों ने अपने जानदार अभिनय के बल पर अनेकानेक पारिवारिक, राजनीतिक, ऎतिहासिक, धार्मिक फ़िल्में कीं. और इन्हें यादगार फ़िल्मीं की श्रेणी में ला खडा किया. कवि प्रदीप, कमाल अमरोही, शैलेन्द्र,आदि जैसे सिद्ध-हस्त कवियों ने देशभक्ति सहित अनेकानेक गीतों की रचनाएं की, जिसे सी,रामचन्द्र, नौशाद, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, एस.डी.बर्मन, पंकज मलिक, अनिल विश्वास, रविशंकर, रोशन, के.सी.डॆ, आदि जैसे प्रख्यात संगीतकारों ने अपनी संगीतरचना के जरिए फ़िल्मों में जान फ़ूकीं, वहीं स्वरकोकिला लता मंगेशकर, आशा भोंसले, रफ़ी, किशोरकुमार, मधुबाला जैसी गायिकाओं ने अपनी खनकती आवाज से दुनिया को दिवाना बना दिया था. भले ही आज वे फ़िल्में इतिहास की वस्तु बन कर रह गई हों, लेकिन उन फ़िल्मों के नायक-नायिकाओं को आज भी याद किया जाता है और उन तमाम गानों को लोग आज भी भूले नहीं हैं. भूले-बिसरे गीत के माध्यम से आकाशवाणी आज भी इन गीतों को प्राथमिकता के आधार पर रोज प्रस्तुति दे रहा है. ये सारे कलाकार/ संगीतकार/लेखक/कवि ,जिसे आज की पीढी भले ही न जानती हो, लेकिन पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से उन्हें पढती और याद करती है.

हिन्दी के अलावा और भी अन्य भारतीय भाषाओं में फ़िल्में बनाई गई,,लेकिन हिन्दी की लोकप्रियता का ग्राफ़ इन सबसे ऊपर रहा. जिसकी प्रसिद्धि विश्व के कोने-कोने में फ़ैलती चली गई. पाकिस्तान की फ़िरकापरस्ती के चलते वहां हिन्दुस्थानी फ़िल्मों को न तो वहां दिखाया जाता है और न ही उनके गानों को सुनने दिया जाता है. दृष्य़ और श्राव दोनो पर प्रतिबंध है, बावजूद इसके लोग भारतीय सिनेमा और फ़िल्मी गानो के दिवाने बडी संख्या में देखे जा सकते हैं.

 

स्व.श्री धुंडीराज गोविंद फ़ालके.(1870-1944)

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(बात फ़िल्मों की हो और फ़िल्म के संस्थापक की बात न की जाए, तो बात अधूरी रहेगी. इस छॊटॆ से आलेख के माध्यम से उन्हें श्रद्धांजलि)

भारतीय दृष्य कला की शुरूआत स्व.श्री फ़ालकेजी ने की थी. 1870 में एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने वाले और मुंबई के जे.जे.स्कूल आफ़ आर्ट्स और वडौदरा के कला भवन से शिक्षा ग्रहण करने वाले फ़ालके ने लोनावाला में राजा रवि वर्मा के प्रेस से जुडने से पहले ड्राइंग, फ़ोटोग्राफ़ी, लिथोग्राफ़ी और ड्रामा का अध्ययन किया, उन्होंने जादू भी सिखा और बाद में इसे फ़िल्मकारों के लिए जरूरी शिक्षा भी बताया. जन्मजात उद्यमी होने के नाते उन्होंने जल्द ही छपाई और नक्काशी का छापाखाना खोला और क्रोमोलिथोग्राफ़ और चित्रमय बुकलेट प्रकाशित की जो कि उनकी शुरुवाती मिथकीय फ़िल्मों के आधार बने.

फ़िल्मी निर्माण का अध्ययन करने के बाद फ़ालके उपकरण खरीदने और फ़िल्म निर्माण से रू-ब-रू होने के लिए इंगलैंड गए थे. मुंबई लौटने के बाद उन्होंने अपनी फ़ालके फ़िल्म कंपनी शुरू की और राजा हरिश्चन्द्र बनाई जो 1913 में रिलीज हुई. उसे भारत की पहली फ़िचर फ़िल्म माना जाता है. लंका दहन (1917) की महान सफ़लता के साथ 19 वीं सदी के आखिर की यह अवधारणा एक दार्शनिक ताकत बन गई.

आज भारतीय सिनेमा में जीवन भर की उपलब्धियों पर जो सबसे बडा पुरस्कार है वह दादा साहेब फ़ालके पुरस्कार ही है और यह भारत रत्न जैसा है. संस्कृति के इतिहासविदों के लिए यह फ़ालके की अंतिम विरासत है, तो अन्य लोगो के लिए लोकप्रिय भारतीय दृष्य कला की शुरूआत.

फ़िल्में तो आज भी बडी संख्या में बन रही हैं लेकिन उनमें पारिवारिकता, सह्विष्णुता, देशभक्ति के जज्बात आदि का दूर-दूर तक वास्ता नहीं रहा. पूरी फ़िल्मी दुनिया पश्चिमी रंग में रंगी नजर आती हैं. संगीत में न तो वह मिठास नजर आती है, जैसे की कभी पुराने संगीतकार संगीत की रचना किया करते थे. उस जमाने में हिन्दी-उर्दू के नामी-गिरामी रचनाकार पहले गीत लिखते थे. उसमे अपनी आत्मा तक उतार कर रख देते थे, बाद में संगीतकार उस रचना के आधार पर मनमोहक संगीत की रचना किया करते थे. अब धुन तैयार रहती है और गीत बाद में लिखा जाता है. आधुनिक समय में फ़िल्मों में बडी चकाचौंध है. अरबों-खरबों का खर्च इन पर होता है. और उस फ़िल्म ने कितने करोड कमाये, इस बात पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है. खैर. समय परिवर्तनशील है. अतः इसमें आश्चर्य नहीं देखा जाना चाहिए.

जो भी हो ,लेकिन इतना तो तय है कि आज फ़िल्मों के माध्यम से हिन्दी को वैश्विक स्तर पर सम्मान प्राप्त हो रहा है. हमारे फ़िल्मकार भारत ही नहीं युरोप, अमेरिका और खाडी देखों के अपने दर्शकों को ध्यान में रखकर फ़िल्मों का निर्माण कर रहे हैं. यह गौरव का विषय है कि हमारी फ़िल्में आस्कर-अवार्ड तक अपनी पहुँच बना रही है. समूचे विश्व को और ज्यादा निकट लाने के लिए, निश्चित ही इस क्षेत्र में आज भी बेहतर ढंग से काम किए जाने की आवश्यक्ता है. संचार माध्यम का योगदान इसमें लिया जा सकता है. फ़िल्मों में मनोरंजन और अर्थ उत्पादन के साथ-साथ इनकी सार्थकता का भी ध्यान रखा जाए तो हिन्दी सिनेमा सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम सिद्ध हो सकता है. इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि सिनेमा ने हिन्दी की लोकप्रियता में जहाँ चार चांद लगाए हैं, वहीं उसकी व्यवहारिकता को भी बढाया है.

ग्लोबल होती इस दुनिया में मोबाईल और कंप्युटर की संचार क्रान्ति ने हिन्दी को विश्व की सिरमौर भाषा बना दिया है. शायद आपको याद होगा कि अमेरिका के राष्ट्रपति ओबाना ने अमेरिकी नागरिकों को संबोधित करते हुए कहा था कि वे जितनी जल्दी हो सके हिन्दी सीखें, अन्यथा सारे कामकाज हिन्दुस्थानी हथिया लेंगे. लेकिन दुर्भाग्य कि हम हिन्दी के बढते महत्त्व को भली-भांति समझ नहीं पा रहे हैं. यह भूल कोई छॊटी सी भूल नहीं है. अगर यह क्रम जारी रहा तो संभव है कि हमें इसकी बडी कीमत चुकानी पड सकती है. लेकिन यह ध्यान में जरूर रखा जाना चाहिए कि हिन्दी आज विश्व की अन्य भाषाऒं को पीछॆ छॊडते हुए दूसरे पादान पर खडी है. पहले नम्बर पर चीन की भाषा मन्दारिन है. बहरआल ,हिन्दी आज भले ही भारत की राष्ट्रभाषा न भी बन पायी हो,लेकिन यह विश्व-भाषा जरूर बन गई है.

गोवर्धन यादव
103,कावेरी नगर,छिन्दवाडा (म.प्र.) 480001
07162-246651,9424356400

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. अच्छा लेख है। हिंदी भाषा को मारने वाले तथाकथित भाषा के पैरोकार ही सबसे जिम्मेदार हैं।

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रचनाकार: भारतीय सिनेमा और हिन्दी
भारतीय सिनेमा और हिन्दी
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