जनसँख्या के धार्मिक आंकड़े को कृपया बारूद न बनाइयेगा...

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-लोकमित्र पहले से ही लगाए जा रहे तमाम कयासों के बीच अंततःकेंद्र सरकार ने 25 अगस्त 2015 को सन 2011 में हुई जनगणना के धार्मिक आधार पर आंकड़े...

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-लोकमित्र

पहले से ही लगाए जा रहे तमाम कयासों के बीच अंततःकेंद्र सरकार ने 25 अगस्त 2015 को सन 2011 में हुई जनगणना के धार्मिक आधार पर आंकड़े पेश कर दिए.इससे अब सियासी गलियारों में अनुमानों का बाजार गर्म है कि जरूर इसके पीछे सरकार की कोई कुत्सित मंशा है.जरूर उसके कुछ नकारात्मक मकसद हैं ? हो सकता है ये तमाम आशंकाएं निर्मूल हों.नकारात्मक सोचने वालों का महज भरम हो. मगर एक फीसदी भी कहीं अगर इन आंकड़ों के पीछे वैसे ही माहौल बनाए जाने की मंशा हो,वैसे ही इन आंकड़ों का मकसद वोटों का ध्रुवीकरण करना हो जैसा कि माना जा रहा है तो ऐसी मंशा रखने वाले लोगों से निवेदन है कृपया आंकड़ों को बारूद न बनाइयेगा. तिल को ताड़ न बनाइएगा. क्योंकि इन आंकड़ों में हैरान करने वाली या डराने वाली कोई भी बात नहीं है.

भारत सरकार ने साल 2011 में हुई जनगणना के धार्मिक आधार पर जो आंकड़े जारी किए हैं उसके मुताबिक़ देश में मूलतः छह धर्मों-हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन के मानने वाले लोग हैं. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक़ देश की कुल आबादी 121.09 करोड़ थी.इस आबादी में हिंदू 79.8%, मुस्लिम 14.2%, ईसाई 2.3%, सिख 1.7%, बौद्ध 0.7% और जैन 0.4% थे । इस प्रतिशत के आधार पर 121.09 करोड़ की आबादी में हिंदुओं की संख्या 96.63 करोड़, मुस्लिमों की संख्या 17.22 करोड़, ईसाईयों की 2.78 करोड़, सिख 2.08 करोड़, बौद्ध 0.84, और जैन 0.45 करोड़ थे . इस समूचे विवरण में उकसाने की आशंका के लिहाज से जो संख्या डराती है, वह यह है कि पिछले दशक में जहां हिंदुओं की जनसंख्या में 0.7 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई , वहीं इसी दशक में मुस्लिमों की जनसंख्या 0.8% बढ़ी है.

लेकिन यकीन मानिए इन आकड़ों के मध्य इस तथाकथित बढ़ोत्तरी या घटोत्तरी को अगर हम गौर से देखें तो यह महज आंकड़ों की बाजीगरी भर है. इससे कोई निर्णायक सामाजिक अर्थ अगर निकलता है तो वह यही है कि इसमें हिंदू-मुस्लिम या किसी भी धार्मिक समुदाय की जनसंख्या को लेकर कोई भी अलग से और ध्यान खींचने वाला अच्छा अथवा बुरा पहलू नहीं है. भारत की जनसँख्या की बढ़त दर एक समान है और यह स्थिरता की दिशा में बढ़ रही है. नज़रों के भ्रम के लिए जो 0.7 या 0.8% का आंकड़ा है उसके धार्मिक नहीं बल्कि आर्थिक और शैक्षिक मायने हैं.बल्कि सच्चाई तो यह है कि सरकार ने आंकड़े पेश करके एक तरह से सही ही किया क्योंकि इनकी गैरहाजिरी में अफवाहों का बाज़ार भयानक रूप से गर्म था. माना जा रहा था कि मुसलमान रक्तबीज की तरह बढ रहे हैं. जिसे इस रिपोर्ट ने रोक दिया है.

अच्छा ये होगा अगर अब इसी क्रम में सरकार जनसँख्या के जाति संबंधी आंकड़ों को भी पेश कर दे.क्योंकि उस सन्दर्भ में भी जाति की राजनीति करने वाले लोग अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग बजा रहे हैं.ऐसे में यह मासूम सा तर्क बेकार हो जाता है कि इससे जातीय वैमनस्य बढ़ने की आशंका है. पहले ही कोई कम वैमनस्य नहीं है. हो सकता है कि वास्तविक आंकड़ो के बाद कुछ घटे ही.वैसे भी यह सोचने वाली बात है कि अगर धार्मिक आधार पर जनगणना हुई है तो फिर उसे देश के समक्ष पेश करने में क्या हर्ज़ है ? अगर सरकारें देश की सामजिक एकता को संविधान और क़ानून तथा सरकारों की दूरदर्शिता का नतीजा मान रही हैं तो मानना ही पड़ेगा कि यह सदी का सबसे बड़ा मज़ाक है.

गौरतलब है कि देश की कई राजनीतिक पार्टियां जिनमें राजद, जदयू, सपा और द्रमुक शामिल हैं,लंबे अरसे से जाति आधारित जनगणना के आंकड़ों को सरकार से उजागर किये जाने की मांग करते रही हैं . मालूम हो कि जनसंख्या के सामाजिक आर्थिक स्तर पर आंकड़े 3 जुलाई 2015 को जारी किये गये थे. बहरहाल ये विषयांतर था,फिलहाल धार्मिक आधार पर पेश किये गए जनसंख्या के आंकड़ों पर जरा समग्र दृष्टि डालते हैं.इनके यानी इन आंकड़ों के मोटे निष्कर्ष के मुताबिक़ साल 2001 से 2011 के बीच मुस्लिम आबादी में बढ़ोतरी हुई और हिंदू जनसंख्या घटी .सिख समुदाय की आबादी में 0.2 प्रतिशत बिंदु (पीपी) की कमी आई और बौद्ध जनसंख्या भी 0.1 पीपी कम हुई.

अब इन आंकड़ों से न दिखने वाले आंकड़ों को भी समझिये. देश में करीब 28 करोड़ के आस पास खाती पीती स्थिति से भी ऊपर के मजबूत मध्य वर्ग के लोग हैं. इनमें मुस्लिमों की हिस्सेदारी लगभग न के बराबर है. आनुपातिक नजरिये से इनमें सबसे ज्यादा भागीदारी सिखों और जैनों की है.दूसरे सरल शब्दों में अनुपात के हिसाब से देखें तो जैन और सिख सबसे ज्यादा समृद्ध कौमें हैं .इनका आर्थिक स्तर तो उंचा है ही,शैक्षिक और सामाजिक स्तर भी सबसे ऊँचा है. जाहिर है जीवन और सपनों के प्रति चेतना भी इन्हीं वर्गों में बाकियों से ज्यादा है.इसलिए जनसँख्या नियंत्रण के प्रति भी यही सबसे ज्यादा सजग हैं.इन दो कौमों के बाद आनुपातिक स्तर पर तमाम बेहतरी के पैमाने हिदुओं के पक्ष में बनते हैं.

मगर ध्यान देने वाली बात है कि हिन्दुओं का मतलब सभी हिन्दुओं के पक्ष में नहीं .जाहिर है उन्हीं के पक्ष में जो आर्थिक और शैक्षिक स्तर पर दूसरों से बेहतर हैं.मुसलामानों का आर्थिक और शैक्षिक स्तर हिन्दुओं में दलितों के समकक्ष है. इसलिए उनकी उनकी जनसँख्या दर भी दलितों,वंचितों जैसी ही है.अब चूंकि धर्मों के अंदर जातियों के आधार पर तो आंकड़े उजागर नहीं हुए लेकिन अगर हों तो निश्चित रूप से बड़े पैमाने पर मुसलमान और दलित एक ही पटरे पर खड़े नज़र आयेंगे.कहने का मतलब यह है कि जनसँख्या दर में घटत या बढ़त का ज्यादा मज़बूत रिश्ता धर्म से नहीं बल्कि आर्थिक और शैक्षिक स्तर से है.इसलिए ऐसा सोचना या मानना कि किसी छिपे मकसद के चलते मुसलामान अंधाधुंध बच्चे पैदा कर रहे हैं, अपनी अक्ल पर सरेआम कुल्हाड़ी चलाने जैसा है.

अठारहवीं सदी में मशहूर अर्थशास्त्री थॉमस माल्थस ने निष्कर्ष निकाला था कि जनसँख्या वृद्धि में किसी तरह की लगाम न लगाईं गयी तो तमाम विकास बेमानी हो जायेंगे और गरीबी तथा अकाल का प्रकोप सब तहस नहस कर देगा . उनके इस निष्कर्ष का प्रभाव दहशत के रूप में दुनिया में हमेशा मौजूद रहा है.लेकिन गुजरी दो सदियों के अनुभव भी हमारे सामने हैं कि किस तरह माल्थस की भविष्यवाणियों के विपरीत विकास और महत्वाकांक्षी मकसदों ने अंततः जनसँख्या की वृद्धि दर में नियंत्रण कर लिया है. जो देश आज की तारीख में समृद्ध है,शत प्रतिशत साक्षर है, वहां जनसँख्या न सिर्फ नियंत्रण में है बल्कि नकारात्मक हो चली है .

बस थोड़ा धीरज धरिये भारत में भी यही होने वाला है . आबादी के बड़े हिस्से को रोटी कपड़े से निश्चिंत तो होने दीजिये . अधिकतम लोगों को भविष्य का सपना देखने की हैसियत तो पाने दीजिये फिर देखिएगा जनसँख्या कैसे नियंत्रण में रहती है. हो सकता है वो दिन भी आयें जब ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले देश के हीरो बन जाएँ. विश्वास न आये तो पारसियों से पूछिए .

 

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