दीपक आचार्य का प्रेरक आलेख - खुल गई मुट्ठियाँ ....

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इंसान जब जन्म लेता है तब मुट्ठियाँ बंद होती हैं फिर भी सारा जहाँ उसे प्यार करता है, ममत्व और वात्सल्य से नहलाता है और उस पर इतना कुछ लुटाता...

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इंसान जब जन्म लेता है तब मुट्ठियाँ बंद होती हैं फिर भी सारा जहाँ उसे प्यार करता है, ममत्व और वात्सल्य से नहलाता है और उस पर इतना कुछ लुटाता है कि जिसका कोई पार नहीं होता।

जब तक अपनी मुट्ठियाँ बंद होती हैं तब तक हमें जमाने भर का भरपूर प्यार मिलता है। यह बंद मुट्ठी  का कमाल ही है कि बच्चों के बारे में कहा जाता है कि बच्चे मन के सच्चे होते हैं, बच्चे भगवान का रूप होते हैं और बच्चों में भगवान बसता है। 

बालपन वह अवस्था है जिसमें हम संसार की माया और दूसरे सभी प्रकार के विकारों से परे रहते हैं और यही कारण है कि हम शुद्ध, शुचितापूर्ण एवं कोमल हृदय वाले होते हैं और यही निर्मलता हमें ईश्वरीय धाराओं के समकक्ष स्वरूप व दर्जा प्रदान करती है।

बच्चों का मन निर्मल और कोमल होता है और इस वजह से संसार भर में बच्चे आकर्षण, प्यार और आत्मीयता का केन्द्र बने रहते हैं चाहे वह किसी भी वर्ग के इंसान के हों अथवा अन्य प्राणियों के।

बच्चों के प्रति सर्वत्र एक अजीब सा मोहपाश होता है जिसके मारे हम उन्हें भरपूर प्यार देते हैं और उन्हें अपना मानकर संरक्षण भी करते हैं, उनके पल्लवन के प्रति भी हर क्षण सजग और समर्पित होते हैं।

कहा भी जाता है कि बाल सुलभ स्वभाव होना अपने आप में ईश्वरीय वरदान है तथा हर मनुष्य के लिए यही ध्येय होना चाहिए कि वह बच्चों की तरह निश्छल, निष्कपट और निरहंकारी भाव रखे जहाँ संसार के समस्त प्राणी और वस्तुएं प्रिय होती हैं और सभी के प्रति आत्मीयता और माधुर्य भरा भाव होना चाहिए।

चित्त की निर्मलता ही है कि बच्चों के प्रति सभी का व्यवहार मधुरतापूर्ण होता है और उसे सभी पसंद करते हैं। सद्यः प्रसूत होने से लेकर शैशव काल तक यह बंद मुट्ठियाँ प्रकारान्तर रूप में इस बात को भी संकेतित करती है कि जीवात्मा परमात्मा की शपथ लेकर मुट्ठी बंद करके इन संकल्पों के साथ जन्म लेता है कि वह मनुष्य जीवन में श्रेष्ठतम कर्मों के माध्यम से अपना नाम करेगा, दुनिया के लिए उपयोगी सिद्ध होगा और ऎसा काम करेगा कि भगवान को भी गर्व होगा कि उसके द्वारा भेजे गए प्रतिनिधि ने ऎसा काम करके दिखा दिया है कि जिससे पूरी सृष्टि उपकृत हुई है।

पर जैसे-जैसे संसार की माया और परिवेशीय आडम्बरों के संपर्क में आता है उसकी शुचिता का ग्राफ कम होता जाता है और निर्मलता का स्थान ले लेती हैं वे बुराइयां जिनकी वजह से व्यक्तित्व में मौलिकता की गंध गायब होने लगती है और उसका स्थान कृत्रिमता ले लेती है।

जीवन के परम सत्य को जानने वाले लोग पारिवारिक और आनुवंशिक संस्कारों की वजह से इन सम सामयिक और सांसारिक बुराइयों से बचे रहते हैं। या यों कहें कि सांसारिक मलीनताएं उन्हें छू तक नहीं पाती। इस वजह से ये पूरी मौलिकता के साथ जीवनयापन करते हैं।

पर बहुधा ऎसा होता नहीं है। आजकल माहौल हर मामले में प्रदूषित होता जा रहा है। सत्संग का वातावरण समाप्त होता रहा है, खान-पान और रहन-सहन से लेकर लोक व्यवहार सब कुछ प्रदूषित होता जा रहा है। इंसान की वृत्तियां परमार्थ की बजाय स्वार्थपरक हो गई हैं जहाँ दूसरों के बारे में सोचना और उनके लिए कुछ करना तक कोई नहीं चाहता। सभी को सिर्फ अपनी ही अपनी पड़ी है।

जिन संकल्पों को लेकर इंसान पैदा होता है, बचपन के बाद वह सब भूल जाता है और दूसरी प्रकार की गतिविधियों में लिप्त होने लगता है। उस अवस्था में उसके लिए अब तक लिए गए संकल्प गौण हो जाते हैं और संकल्पों की सुदृढ़ मुट्ठी खुलकर हथेली सपाट हो जाती है। बस यहीं से आरंभ हो जाती है हाथ की तमाम कलाएं और करतब।

अपने स्वार्थ और कामों को पूरा करने के लिए कभी इंसान हाथ फैलाने लगता है, कभी कहीं हाथ मारता है, कभी कहीं। कभी हाथ मलने लगता है, हाथ साफ करने लगता है और कभी हाथ जोड़ने।

जिन हाथों से वह चरण स्पर्श करता है उन्हीं हाथों को दिखाने या इन्हीं से टांग खिंचने तक में परहेज नहीं करता। हाथ का कमाल और उपयोग दर्शाने की इन कलाओं के बारे में आदमी को अब कुछ भी समझाने की जरूरत नहीं पड़ती।

आदमी के चारों ओर का माहौल उसे अपने आप सब कुछ सिखा देता है।  और तो और अब थोड़े से समझदार हो जाने वाले बच्चे भी इन तमाम करतबों में माहिर नज़र आते हैं। बहुत सारे ऎसे हैं जो इन हस्त-कलाओं से हस्ती होने का सफर पा चुके हैं।

इंसान की फितरत को अब कोई नहीं पहचान पाता। कौन आदमी किसका है, कितने समय तक किस का रहेगा और कब साथ छोड़ कर तीर-कमान लेकर सामने वाले पाले में आ खड़ा होगा, यह कोई नहीं जान सकता।

मुखौटा संस्कृति में रमा हुआ आदमी बहुरूपियों से लेकर हर तरह के स्वाँग रचने में माहिर हो गया है।  इस अभिनय को अब न घर-परिवार वाले जान सकते हैं, न कुटुम्बी या क्षेत्रवासी। इस मामले में आदमी अब किसी भी मामले में भरोसे के काबिल नहीं रह गया है।

इन विश्वासघाती और विश्वासहीन आदमियों की जात के कारण से उन लोगों को बदनामी और अविश्वास का दंश झेलना पड़ रहा है जो आदमियत की मौलिक संस्कृति को किसी भी तरह जिन्दा रखे हुए हैं।

अब नहीं दिखती कहीं भी बंद मुट्ठियाँ, जो किसी दृढ़ संकल्प की प्रतीक हुआ करती थीं। सारी की सारी मुट्ठियाँ खुली हुई हैं। अब तो मुट्ठी कभी भींचती भी है तो किसी से प्रतिशोध और प्रतिकार के लिए, वरना अब किसी की मुट्ठी में उतना दम ही नहीं रहा कि वह तनी हुई रह सके।

मुट्ठियों से अब सब कुछ रिसने लगा है, संस्कारों और अदब से  लेकर जो कुछ अब तक था वह मुट्ठियों से सरक कर जाने कहाँ चला जाने लगा है। खुल चुकी हैं ये सब। और इसके साथ ही यह कहावत भी सार्थक हो गई है - बंधी मुट्ठी लाख की, खुल जाए तो खाक की।

फिर अब न लोगों में माद्दा रहा है, न वे भारी लोग ही रहे हैं जो कि अपनी मुट्ठी बाँधे रखा करते थे। कोई लोभ-लालच, दबाव या पद-प्रतिष्ठा का कोई सा प्रलोभन भी उनकी मुट्ठी को खुलवा नहीं सकता था। अब तो बात-बात में मुट्ठियां या तो भींच जाती हैं अथवा हाथ दिखाने लगते हैं।

 

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दीपक आचार्य के प्रेरक आलेख inspirational article by deepak aacharya

- डॉ0 दीपक आचार्य

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