दीपक आचार्य का प्रेरणादायी आलेख - भाड़े के टट्टू करते हैं इधर की उधर

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आजकल भारवाहक, मालवाहक आदि से भी अधिक संख्या में वे लोग हैं जो इधर की उधर, उधर की इधर करने के आदी हैं। अपने आप को किसी छोटे-मोटे कियोस्क से ...

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आजकल भारवाहक, मालवाहक आदि से भी अधिक संख्या में वे लोग हैं जो इधर की उधर, उधर की इधर करने के आदी हैं। अपने आप को किसी छोटे-मोटे कियोस्क से लेकर हाथगाड़ी और ठेलागाड़ी के रूप में ढाल चुके ये लोग हमेशा वाहक, संवाहक और मालवाहक की भूमिका में हुआ करते हैं।

इन बिना दिमाग की दुकानों में अपना कोई माल नहीं होता बल्कि हमेशा पराये माल को अपने में जमा करते हैं और इसमें नमक-मिर्च लगाकर और बहुधा फ्रॉय कर दूसरों तक पहुंचाते हैं और इस पूरी यात्रा में आवागमन, गंध और क्रिया-प्रतिक्रियाओं का आनंद पाते हैं।

कहने को भगवान ने इन्हें दुर्लभ और बेशकीमती देह से नवाजा है लेकिन अपनी देह की कीमत ये मरते दम तक नहीं समझ पाते। इनकी देह का मूल्य दूसरे लोग अच्छी तरह आँक लिया करते हैं और उसी हिसाब से इनका बेचान और खरीदी कर लिया करते हैं।

इन्हें कैसे, कब और कहाँ बेचना है, इनका खरीदार कौन होगा, यह बेचने वाले सब कुछ जानते हैं और बेचान-खरीद का समय और ठीक-ठाक घड़ी भी इन्हें अच्छी तरह पता होती है।

आजकल बहुत सारे लोग इसी प्रकार के हो गए हैं। अब समय बहुद्देश्यीय व बहुआयामी परिवहन का है। सब लोग इधर से उधर कर रहे हैं अथवा करना चाहते हैं। सब के पीछे अपने ही अपने नाम, काम और संसाधनों का मोह व्याप्त है और मोह के घने बादलों के बीच जीते हुए सभी अपनी ही अपनी मान-बड़ाई में रमे हुए हैं।

इन दिनों इधर से उधर करने वाले लोगों की प्रजाति सर्वाधिक प्रचलन में है। पहले केवल वाणिक विलास और अफवाहों के भरोसे ही इधर-उधर करने की परंपरा चल रही थी। अब संचार क्रांति ने हमें बहुत सारे संसाधन दे दिए हैं जिनका इस्तेमाल हम कहीं भी बैठे कर सकते हैं।

इससे बड़ी सुविधा हमें और कोई नहीं दे सकता। हमारे लिए कितना अधिक आसान हो गया है इधर की उधर करना। हममें से अधिकांश लोगों का रोजमर्रा का काफी हिस्सा इसी में गुजर रहा है।

हमारी पूरी की पूरी दिनचर्या और रात्रिचर्या अब मैसेज पढ़ने, फोटो एव वीडियो देखने का आनंद पाने और दूसरों तक पहुंचाकर स्वर्ग समान सुख प्राप्त करने, अपने आपको सबसे पहले जागरुकता का पहरूआ सिद्ध करने, महान आविष्कारक, चिन्तक, कल्पनाशील और विद्वान सिद्ध करने के सदुपयोग में ही काम आ रहा है।

अब तो लगता है कि हमारा जन्म ही इधर से उधर करने के लिए हुआ है। हमारा अपना कुछ नहीं, जो आ रहा है, उसे ही दूसरों के पास भेजा जा रहा है। हम जो कुछ ले रहे हैं, यहीं से ले रहे हैं, जो दे रहे हैं यहीं दूसरों को दे रहे हैं। इससे बड़ा गीता का कर्मयोग अपनाने वाला हमारे सिवा और कौन हो सकता है।

धन्य हैं वे लोग जो इधर की उधर करते हुए जमाने भर में हलचल बनाए रखते हैं और अपना वजूद भी सिद्ध करते हैं, साथ ही अपनी तरह के दूसरे संवाही और मालवाही लोगों के अस्तित्व को परिपुष्ट करते रहते हैं।

हम सभी को पूरी ईमानदारी के साथ यह स्वीकार करना ही होगा कि जो लोग इधर-उधर की करने में माहिर हैं वे अपने पिछले जन्म में जरूर भाड़े के टट्टू ही रहे होंगे। और इनमें भी जो लोग अभिजात्यों की बस्तियों में रहने वाले हैं वे केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, वैष्णोदेवी, अमरनाथ सहित पर्वतीय तीर्थों में या तो खच्चरों की भूमिका में रहे होेंगे या फिर बिजनैसी टट्टूओं के रूप में भाड़ा लेकर इधर का उधर करने के आदी रहे होंगे। और इसी तीर्थ यात्रा के पुण्य की बदौलत  अभिजात्य परिवारों में पैदा हो गए हैं। 

पर भाड़े के टट्टूओं के पुराने संस्कार कहाँ जाएं। अब भार पीठ पर न सही, अपने दिमाग और दिल में सारी दुनिया का बोझ उठा कर चलते हैं और यहाँ-वहाँ इसे उतारते-लादते रहते हैं। यही उनका जीवन हो गया है, जीवन का लक्ष्य हो गया है।

पुरानी आदतों से लाचार इन लोगों को यह तक पता नहीं है कि आखिर इस जनम में जो कुछ ये लोग कर रहे हैं, वह उनकी पूर्वजन्म की आदत है जो अभिजात्यों के संग रहते हुए पॉवर और मनी का खाद-बीज पाकर पल्लवित और पुष्पित हो रही हैं तथा यही कारण है कि सब कुछ होते हुए भी ये अपनी इधर से उधर करने की आदत को छोड़ नहीं पा रहे हैं।

इनकी इसी आदत की वजह से दुनिया में बहुत सारे लोग रोजाना परेशान हो रहे हैं और इनका किसी न किसी प्रकार से खामियाजा भुगत रहे हैं। पूर्व जन्म के संस्कार जाएं तो कहाँ जाएं?  बरसों तक भाड़े के टट्टूओं की तरह चाबुक खा-खाकर सामान और इंसानों का भार ढोने वाले इन भाड़ाई टट्टूओं के भरोसे बहुत सारे लोग जी रहे हैं, आगे बढ़ते जा रहे हैं।

इस प्रकार सब तरह के टट्टू परस्पर एक-दूसरे के काम आ रहे हैं, अहो रूप - अहो ध्वनि के साथ आगे बढ़ रहे हैं और पूरी दुनिया में इधर से उधर करने के तमाम तिलस्मों का सहारा लेकर अपना वजूद सिद्ध कर रहे हैं।

हर तरफ इन्हीं का बोलबाला है। लोग-बाग भी इनसे हैरान हैं क्योंकि इस प्रजाति का कहीं कोई भरोसा नहीं होता। कब किसके बारे में क्या कान भर दें, कौन सा मंत्र फूूंक डालें, किस बात पर किसी को भरमा डालें, कुछ नहीं कहा जा सकता है।

असल में ये ही वे लोग हैं जो कि समाज और देश के लिए किसी भी समय घातक हो सकते हैं, जब कहीं इनका कोई सा स्वार्थ जग जाए, ये न देश की परवाह करते हैं, न समाज की।

एक बार जब कोई इंसान बिकाऊ हो जाता है, जिसका मोल-भाव तय हो जाता है, उसे कोई भी खरीद सकता है। ऎसे लोग स्वामीभक्त नहीं हो सकते, किसी के वफादार नहीं हो सकते, और इन्हें किसी भी प्रकार से भरोसेमंद नहीं माना जा सकता।  सवाल इस बात का नहीं है कि कौन कितने मूल्य में बिकने वाला है।

बात इसी पर आधारित है कि बिकना शुरू हो जाना अपने आप में बिकाऊ हो जाने की यात्रा का शुभारंभ है फिर चाहे मूल्य कुछ भी क्यों न हो। अमूल्य का जब मूल्य निर्धारण हो जाता है तब वह मूल्यहीन हो जाता है। हमारे आस-पास भी ऎसे खूब सारे लोग हैं जो धडल्ले से बिक रहे हैं, और अपने आपको बिकाऊ मान कर भी स्वाभिमानी और सम्मानित कहने लगे हैं। इन्हें शर्म भी नहीं आती अपने आप पर।

यह जरूरी नहीं कि कोई वैभवशाली इंसान ही खरीद सकता हो। ऎसे बिकने वालों की कीमत कोई भी लगा सकता है। कोई अपराधी भी इन्हें खरीद सकता है और कोई दलाल भी, कोई हैवान भी खरीद सकता है और दूसरों का कोई सा गुलाम भी।

बाजार भरे पड़े हैं बिकने वालों से और खरीदने वालों से।  एक बार जब मण्डी में किसी ने अपना मोल लगा लिया, फिर क्या फर्क पड़ता है, एक बार बिके या बार-बार बिकता चला जाए। जो एक बार बिकाऊ हो जाता है, उसकी सारी लाज-शरम टूट जाती है।

वह सैकड़ों-हजारों और लाखों बार बिक जाने को सदैव तैयार रहता है। बिकाऊ किसी के यहाँ टिकाऊ नहीं हुआ करते। ये बिकने के लिए ही पैदा हुए हैं और मरते दम तक बिकते रहेंगे।  ये न पूछो कि कितनी बार यों ही बिकते रहेंगे, कितने में  बिकते रहेंगे और इन्हें बिकने की क्या जरूरत है। 

इंसान के कुछ शौक ऎसे होते हैं जिनका कोई सामाजिक, प्राकृतिक और वैज्ञानिक आधार नहीं होता, एक बार कुछ अच्छा लग जाए, मन-तन को भा जाए, तो फिर सारी लाज-शरम छोड़ कर वह उसे अपनाएगा ही।

उसका अपना आनंद है, औरों को इससे दुःखी  या परेशान होने की जरूरत नहीं है। ये ही अप्राकृतिक चरित्र वाले लोग हैं जिन्हें इधर-उधर की करने में मजा आता है। इनसे दूरी बनाए रखें और इनकी अस्वाभाविक हरकतों से बेफिक्र होकर आगे बढ़ते रहें।

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दीपक आचार्य के प्रेरक आलेख inspirational article by deepak aacharya

- डॉ0 दीपक आचार्य

dr.deepakaacharya@gmail.com

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(ऊपर का चित्र - कृष्ण कुमार अजनबी की कलाकृति)

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