प्राची नवंबर 2015 - महावीर प्रसाद द्विवेदी का आत्म-परिचय

SHARE:

    महावीर प्रसाद द्विवेदी का आत्म-परिचय 1. सज्जनों का स्वभाव मे रे विषय में जो कुछ कहा गया, उसे सुनकर और सभा ने मेरा जो अभिनन्दन किया उस...

image

 

 

महावीर प्रसाद द्विवेदी का आत्म-परिचय

1. सज्जनों का स्वभाव

मेरे विषय में जो कुछ कहा गया, उसे सुनकर और सभा ने मेरा जो अभिनन्दन किया उसे देखकर मुझे भर्तृहरि की यह उक्ति याद आ रही है-

मानसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा

स्त्रिभुवनमुकारश्रेभिः प्रीणयन्त.

परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं

निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः

इस श्लोक में जो कुछ कहा गया है उसे मैं अब तक केवल कवि-कल्पना समझता था. मुझे बड़ा खेद, नहीं पश्चाताप है जो मैंने इस सर्वदर्शी कवि की इस उक्ति को वैसा समझा. उसके कथन की सत्यता का पूरा प्रमाण आज मुझे मिल गया. दूसरे के बड़े से भी बड़े दोषों पर, सैकडों मन धूल डालकर, उसी धूल के एक छोटे से भी छोटे कण के सदृश गुण को पर्वताकार करके संसार के सामने उपस्थित करना-और यही नहीं, ऐसा करके स्वयं भी आनंदातिरेक का अनुभव करना-महाजनों और सज्जनों ने आदर्श ही बना रखा है. वे सदा यही करते हैं. ऐसे उदारचरित्र सज्जन संसार में बहुत नहीं, थोड़े ही हैं. मेरा अभिनंदन करनेवाले इसी श्रेणी के सज्जन हैं. उनका क्रिया-कलाप तो देवों के भी आराध्य देव, महादेव, के सदृश है-

गुणदोषौ बुधो गृह्वन्निन्दुक्ष्वेडाविवेश्वरः

शिरसा श्लाघते पूर्व परं कण्ठे निपच्छति.

समुद्र-मंथन से निकली हुई चौदह चीजों में से दो चीजें बाबा विश्वनाथ के हिस्से में पड़ीं-एक तो हलाहल विष, दूसरी चीज चंद्रमा. विष को तो निगलकर उन्होंने अपने गले के भीतर छिपा लिया. मतलब यह कि कहीं उसे कोई देख न ले. पर चारुता-चक्र-चूड़ामणि चंद्रमा को सिर पर स्थान दिया. इसलिए कि दुनिया देखे कि रत्नाकर से उन्हें वह अनमोल रत्न प्राप्त हुआ. मेरा अभिनंदन करनेवाले सज्जनोें ने भी, इस विषय में, ठीक सर्वसमर्थ शंकर ही का अनुकरण किया है. उन्होंने भी मेरे दोषों का दृक्पात किया है.

आज सभा ने मुझे जो दिव्य दान दिया है वह इस जन्म में मुझे प्राप्त हुई सभी वस्तुओं से अधिक मूल्यवान और सम्मानसूचक है. उसकी प्राप्ति से मैं सर्वथा कृतार्थ हो गया. सभा ने इस ग्रन्थ का समर्पण श्रीमान् सवाई महेन्द्र महाराज वीरसिंह जू देव ओड़छा-नरेश के करकमलों से कराकर मेरे अभिनंदन की महत्ता सौगुनी कर दी है. यह मेरा परम सौभाग्य है जो पंडितों के प्रेमी, विद्वानों के आश्रय-स्थान और कवियों के कल्पवृक्ष ओड़छा-नरेश ने मेरी सम्मान वृद्धि की. क्यों न हो, ओड़छा तो चिरकाल ही से सरस्वती के साधकों और आराधकों की संवर्धना के लिए प्रख्यात है. महाराजा साहब के पूर्वज तो सदा ही अपनी गुण-ग्राहकता का परिचय देते रहे हैं. ओड़छा-राज्य के सिंहासन में कुछ ऐसी अलौकिकता है जिससे आकृष्ट होकर साक्षर जन उस राज्य की वदान्यवरिष्ठ राजधानी का आश्रय लेते ही रहते हैं, मुझे इसका प्रत्यक्ष ज्ञान है. रेलवे के काम से मैं दो दफे टीकमगढ़ गया हूं और दोनों दफे, वहां के मंदिर में राजप्रदत्त सत्कार की प्राप्ति की आशा से, दूर-दूर से आए हुए पंडितों का जमघट मैंने अपनी आंखों देखा है. महाराजा साहब ने आज, अभी-अभी, अपनी गुण-ग्राहकता, मातृभाषा भक्ति और दानशीलता का जो परिचय दिया है वह आपके राज्य की परंपरा के सर्वथा ही अनुकूल है-

कण्ठे सरस्वती तस्य राज्ञो लक्ष्मीः कराम्बुजे.

नित्यमेव वसत्वेवं प्रार्थयेऽहं सदा शिवम्.

समर्पित ग्रन्थ में जिन महानुभावों ने मेरा अभिनंदन करने के लिए मुझमें अनेक सद्गुणों की कल्पना की है उनके उन निर्देशो को मैं, आशीर्वाद समझकर, शिरोधार्य्य करता हूं और परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि अन्य संस्कारों के साथ वे भी मुझे अगले जन्म में प्राप्त रहें. ऐसा होने से, मुझे आशा है, मैं जन्मांतर में उन सभी निर्दिष्ट गुणों का पात्र अवश्य ही हो सकूंगा.

(2) आचार्य्यत्व की अनुपयुक्ति

मुझे आचार्य्य की पदवी मिली है. क्यों मिली है, मालूम नहीं. कब, किसने दी है, यह भी मुझे मालूम नहीं. मालूम सिर्फ इतना ही है कि मैं बहुधा-इस पदवी से विभूषित किया जाता हूं-

उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः.

संकल्प सरहस्यञच तमाचार्य्य प्रचक्षते.

यह लक्षण मुझ पर तो घटित होता नहीं; क्योंकि मैंने कभी किसी को इक्का एक भी नहीं पढ़ाया. शंकराचार्य्य, मध्वाचार्य्य सांख्याचार्य्य आदि के सदृश किसी आचार्य के चरणरजःकण की बराबरी मैं नहीं कर सकता. बनारस के संस्कृत-कॉलेज या किसी विश्वविद्यालय में भी मैंने कभी कदम नहीं रखा. फिर इस पदवी का मुस्तहक मैं कैसे हो गया? विचार करने पर, मेरी समझ में इसका एक-मात्र कारण मुझ पर कृपा करनेवाले सज्जनों का अनुग्रह ही जान पड़ता है. जो जिसका प्रेम-पात्र होता है उसे उसके दोष नहीं दिखाई देते. जहां दोष देख पड़ते हैं, वहां तो प्रेम का प्रवेश ही नहीं हो सकता. नगरों की बात जाने दीजिए, देहात तक में माता-पिता और गुरुजन अपने लूले, लंगडे, काने, अंधे, जन्मरोगी और महाकुरूप लड़कों का नाम श्यामसुन्दर, मदनमोहन, चारुचन्द्र और नयनसुख रखते हैं. जिनके कब्जे में अंगुल भर भी जमीन नहीं वे पृथ्वीपति और पृथ्वीपाल कहाते हैं. जिनके घर में टका नहीं वे करोड़ीमल कहे जाते हैं. मेरी आचार्य्य-पदवी भी कुछ-कुछ इस तरह की है. अतः इससे पदवीदाता जनों का जो भाव प्रकट होता है उसका अभिनंदन मैं हृदय से करता हूं. यह पदवी उनके प्रेम, उनके औदार्य्य, उनके वात्सल्य-भाव की सूचक है. अतएव प्रेमपात्र मैं अपने इन सभी उदाराशय प्रेमियों का ऋणी हूं. बात यह है कि-

वसन्ति हि प्रेम्णि गुणा न वस्तुनि

अर्थात गुणों का सबसे बड़ा आधार प्रेम होता है, वस्तु-विशेष नहीं. जो जिस पर कृपा करता है-जिसका प्रेम जिसपर होता है-वह उसे आचार्य्य क्या यदि जगद्गुरु समझ ले तो आश्चर्य की बात नहीं.

(3) अहंकार का निरसन

तथापि, मेरी धृष्टता क्षमा की जाए, मुझे ऐसी बातों से-स्तुति और प्रशंसा से-बहुत डर लगता है; क्योंकि वे अहंकार को जन्म देनेवाली ही नहीं, उसे बढ़ानेवाली भी हैं. और इस अहंकार नामक शत्रु का शिकार मैं चिरकाल तक हो चुका हूं. यह उसी की कृपा का फल था जो कभी मैंने किसी सभा की खबर नहीं ली, कभी किसी लाला या बाबू पर वचन-रूपी शर-संधान किया; कभी किसी ग्रंथकार या ग्रंथ प्रकाशक पर अपना रोब जमाया. उस जमाने में मेरी क्या हालत थी और अब क्या है, इसका निदर्शन भर्तृहरि ने बहुत पहले ही कर रखा है-

यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं

तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः.

यदा किञ्चित्किञ्चिद्बुधजनसकाशादवगतं

तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः.

जब मुझमें ज्ञान की कुछ यों ही जरा-सी झलक थी तब मैं मदांध हाथी-सा हो रहा था-तब मुझसे अहंकार की मात्रा इतनी अधिक थी कि मैं अपने को सर्वज्ञ समझता था. परंतु किसी अदृश्य शक्ति की प्रेरणा से, जब मुझे कुछ विज्ञ विद्वानों की संगति नसीब हुई और जब मैंने प्रकृत पंडितों की कुछ पुस्तकों का मनन किया तब मेरी आंखें खुल गई; तब मेरा सारा अहंकार चूर्ण हो गया. उस समय मुझे ज्ञात हुआ कि मैं तो महामूर्ख हूं. नतीजा यह हुआ कि मेरी झूठी सर्वज्ञता का वह नशा उसी तरह उतर गया जिस तरह कि 1040 दरजे तक चढ़ा हुआ ज्वर उतर जाता है.

मेरी झूठी विज्ञता के आवेश ने, मुझसे पूर्वावस्था में अनेक अनुचित काम करा डाले. उस दशा में मुझसे जो दुष्कृत्य हो गए उन्होंने मेरी आत्मा को कलुषित कर दिया. उन्होंने उस पर काला पर्दा-सा डाल रखा है. इस कारण मैं थोड़ा-सा प्रायश्चित करके उस पर्दे के बहुत न सही, थोड़े ही, अंश को हटा देना चाहता हूं. मेरी प्रार्थना है कि सभा के कार्यकर्ता और सभासद तथा अन्य भी सज्जन, इस विषय में, मेरी सहायता करें. सहायता इतनी ही कि आज से वे मुझे अपना-अपना ही क्यों, सभी का दास समझें और मुझे कोई ऐसा काम करने दें जिससे मेरा दास्यभाव सब पर प्रकट हो जाए.

(4) सेवाभाव की यांचा

मैं सभा के प्रधान मंत्री जी को यह लिफाफा दे रहा हूं. इसके भीतर कुछ धन है. वह इतना थोड़ा है कि उसका उल्लेख करते मुझे लज्जा मालूम होगी. खैर, जो कुछ है, हाजिर है. मैं चाहता हूं कि छह महीने या साल भर, जब तक के लिए वह काफी हो, सभा के दो मुलाजिमों को उसी से तनख्वाह दी जाए और वह दोनों ही मेरे प्रतिनिधि समझे जाएं-एक तो सभा का एक चपरासी, दूसरा वह आदमी जो सभाभवन के भीतर और बाहर प्रांगण में झाडू लगाता हो. आशा है, इससे मेरी आत्मा कुछ तो जरूर ही निर्मल हो जाएगी और मुझमें यह धारणा जागृत होने लगेगी कि मुझसे सभी बड़े, मैं सभी से छोटा ही नहीं, सभी का सेवक भी हूं-

शठ सेवक मैं, चर अचर आप सभी भगवान.

दीन-हीन मुझको अधम समझो दयानिधान.

अब मेरी आत्म-शुद्धि के लिए आप भी मुझे आज्ञा दीजिए-

अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु हित्वा

सेवासुधारसमहो नितरां पिब त्वम्.

अहंकार की व्याप्ति से बचने ही के लिए मैंने आज तक, आमंत्रित होने पर भी, साहित्य-सम्मेलन के सभापति पद को स्वीकार किया. अनेक महानुभावों ने जिस आसन की शोभा बढ़ाई उसी पर बैठना मेरे लिए बहुत बड़ी गुस्ताखी भी होती.

(5) जीवन-कथा

मैं क्या हूं, यह तो प्रत्यक्ष ही है. परंतु मैं क्या था, इस विषय का ज्ञान मेरे मित्रों और कृपालु हितैषियों को बहुत ही कम है. उन्होंने मुझे अनेक पत्र लिखे हैं; अनेक उलाहने दिए हैं, अनेक प्रणयानुरोध किए हैं. वे चाहते हैं कि मैं अपनी जीवन-कथा अपने ही मुंह कह डालूं. पर पूर्ण रूप से उनकी आज्ञा का पालन करने की शक्ति मुझमें नहीं. अपनी कथा कहते मुझे संकोच भी बहुत होता है. उसमें कुछ तत्व भी तो नहीं. उससे कोई कुछ सीख भी तो नहीं सकता. तथापि जिन सज्जनों ने मुझे अपना कृपापात्र बना लिया है उनकी आज्ञा का उल्लंघन भी धृष्टता होगी. अतएव, इस अवसर पर, मैं अपने जीवन से संबंध रखनेवाली कुछ बातें, सूत्ररूप में सुना देना चाहता हूं. बड़े-बड़े लोगों ने, इस विषय में, मेरे लिए मैदान पहले ही से साफ भी कर रखा है. मेरी इस कथा से यह फल प्राप्ति भी हो सकती है कि आज आप जिसका इतना अभिनंदन कर रहे हैं वह उस अभिनंदन का कहां तक पात्र है.

मैं एक ऐसे देहाती का एकमात्र आत्मज हूं जिसका मासिक वेतन सिर्फ 10रु. था. अपने गांव के देहाती मदरसे में थोड़ी-सी उर्दू और घर पर थोड़ी-सी संस्कृत पढ़कर, 13 वर्ष की उम्र में, मैं 36 मील दूर, रायबरेली के जिला-स्कूल में अंग्रेजी पढ़ने गया. आटा-दाल घर से पीठ पर लादकर ले जाता था. दो आने महीने फीस देता था. दाल ही में आटे के पेड़े या टिकियाएं पकाकर पेटपूजा करता था. रोटी बनाना तब मुझे आता ही न था. संस्कृत भाषा उस समय उस स्कूल में वैसी ही अछूत समझी गई थी जैसी कि मद्रास के नम्बूदरी ब्राह्मणों में वहां की शूद्र जाति समझी जाति है. विवश होकर अंग्रेजी के साथ फारसी पढ़ता था. एक वर्ष किसी तरह वहां कटा. फिर पुरवा, फतेहपुर और उन्नाव के स्कूलों में चार वर्ष काटे. कौटुम्बिक दुरवस्था के कारण मैं उससे आगे न बढ़ सका. मेरी स्कूली शिक्षा भी वहीं समाप्त हो गई.

(6) रेलवे में नौकरी

एक साल अजमेरी में 15 रु. महीने पर नौकरी करके, पिता के पास बंबई पहुंचा और तार का काम सीखकर जी.आई.पी. रेलवे में, 20 रु. महीने पर तार बाबू बना. बचपन ही से मेरी प्रवृत्ति सुशिक्षित जनों की संगति करने की ओर थी. दैवयोग से हरदा और हुशंगाबाद में मुझे ऐसी संगति सुलभ रही. फल यह हुआ कि मैंने अपने लिए चार सिद्धांत या आदर्श निश्चित किए. यथा (1) वक्त की पाबंदी करना, (2) रिश्वत न लेना, (3) अपना काम ईमानदरी से करना, (4) ज्ञान-वृद्धि के लिए सतत प्रयत्न करते रहना. पहले तीन सिद्धांतों के अनुकूल आचरण करना तो सहज था; पर चौथे के अनुकूल सचेत रहना कठिन था. तथापि सतत अभ्यास से उसमें भी असफलता होती गई. तारबाबू होकर भी, टिकटबाबू, मालबाबू, स्टेशन मास्टर, यहां तक कि रेल-पटरियां बिछाने और उसकी सड़क की निगरानी करनेवाले प्लेट-लेयर तक का भी काम मैंने सीख लिया. फल अच्छा ही हुआ. अुसरों की नजर मुझ पर पड़ी. मेरी तरक्की होती गई. वह इस तरह कि एक दफे छोड़कर मुझे कभी तरक्की के लिए दरख्वास्त नहीं देनी पड़ी. जब इंडियन मिडलैंड रेलवे बनी और उसके दफ्तर झांसी में खुले तब जी.आई.पी. रेलवे के मुलाजिम जो साहब वहां के जनरल ट्राफिक मैनेजर मुकर्रर हुए थे; मुझे भी अपने साथ झांसी लाये और नए-नए काम लेकर मेरी पदोन्नति करते गए. इस उन्नति का नामकरण मेरी ज्ञानलिप्सा और गौण कारण उन साहब बहादुर की कृपा या गुण-ग्राहकता थी. दस-बारह वर्ष बाद मेरी मासिक आय मेरी योग्यता से कई गुनी अधिक हो गई.

जब इंडिया मिडलैंड रेलवे जी.आई.पी. रेलवे से मिला दी गई तब कुछ दिन बंबई में रहकर मैंने अपना तबादला झांसी को करा लिया. वहीं रहना मुझे अधिक पसंद था. पांच वर्ष मैं वहां डिस्ट्रिक ट्राफिक सुपरिंटेंडेंट के दफ्तर में रहा. वे दिन मेरे अच्छे नहीं कटे. लार्ड कर्जन का देहली-दरबार उसी जमाने में हुआ था. मेरे गौरांग प्रभु अपनी रातें अपने बंगलों या क्लब में बिताते थे. मैं दिन भर दफ्तर का काम करके रात भर, अपनी कुटिया में पड़ा हुआ, उनके नाम आए हुए तार लेता और उनके जवाब देता था. ये तार उन स्पेशल रेलगाड़ियों के संबंध में होते थे जो दक्षिण से देहली की ओर दौड़ा करती थीं. उन चांदी के टुकड़ों की बदौलत जो मुझे हर महीने मिलते थे, मैंने अपने ऊपर किए गए इस अत्याचार को महीनों बरदाश्त किया.

(7) नौकरी से इस्तीफा

मैं यदि किसी के अत्याचार को सह लूं तो उससे मेरी सहनशीलता तो अवश्य सूचित होती है, पर इससे मुझे औरों पर अत्याचार करने का अधिकार नहीं प्राप्त हो जाता. परंतु कुछ समयोत्तर बानक कुछ ऐसा बना कि मेरे प्रभु ने मेरे द्वारा औरों पर भी अत्याचार कराना चाहा. हुक्म हुआ कि तुम इतने कर्मचारियों को लेकर रोज सुबह 8 बजे दफ्तर में आया करो और ठीक दस बजे मेरे कागज मेरे मेज पर मुझे रखे मिलें. मैंने कहा-मैं आऊंगा, पर औरों को आने के लिए लाचार न करूंगा. उन्हें हुक्म देना हुजूर का काम है. बस बात बढ़ी और बिला किसी सोच-विचार के मैंने इस्तीफा दे दिया. बाद को उसे वापस लेने के लिए इशारे ही नहीं; सिफारिशें तक की गईं. पर सब व्यर्थ हुआ. क्या इस्तीफा ले लेना चाहिए, यह पूछने पर मेरी पत्नी ने विपण्ण होकर कहा, ‘‘क्या थूककर भी कोई उसे चाटता है?’’ मैं बोला, ‘‘नहीं, ऐसा कभी न होगा; तुम धन्य हो. तब उसने तो पप) रोज तक की आमदनी से भी मुझे खिलाने-पिलाने और गृह-कार्य चलाने का दृढ़ संकल्प किया और मैंने ‘सरस्वती’ की सेवा से मुझे हर महीने जो (20) उजरत, और (3) डाकखर्च की आमदनी होती थी उसी से संतुष्ट रहने का निश्चय किया. मैंने सोचा-किसी समय तो मुझे महीने में (15) ही मिलते थे; (23) तो उसके ड्योढ़े से भी अधिक है. इतनी आमदनी मुझ देहाती के लिए कम नहीं.

(8) मेरे पूर्वज

मेरे पिता ईस्ट इंडिया कंपनी की एक पलटन में सैनिक या सिपाही थे. मामूली हिन्दी पढ़े थे. बड़े भक्त थे. सिपाहियाने काम से छुट्टी पाने पर राम-लक्ष्मण की पूजा किया करते थे. इसी से साथी सिपाहियों ने उनका नाम रखा था-लछिमन जी! गदर में पिता की पलटन बागी हो गई. जो बच निकले वे बच गए; बाकी जवान तोपों से उड़ा दिए गए. पलटन उस समय होशियापुर (पंजाब) में थी. पिता ने भागकर अपना शरीर सतलज की वेगवती धारा को अर्पण कर दिया. एक या दो दिन बाद, बेहोशी की हालत में, सैकड़ों कोस दूर, आगे की तरफ, कहीं वे किनारे लग गए. होश आने पर संभले और हरी-हरी मोटी घास के तिनके चूस-चूसकर कुछ शक्ति संपादन की. मांगते-खाते, साधु-वेश में, कई महीने बाद, वे घर आए. घर पर कुछ दिन रहकर, इधर-उधर भटकते हुए, वे बंबई पहुंचे. वहां बल्लभ-संप्रदाय के एक गोस्वामी जी के यहां वे नोकर हो गए. इस तहर वहां भी उन्हें ठाकुर जी की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. मेरे सामर्थ होने तक वे इसी संप्रदाय के गोस्वामियों की मुलाजिमत में रहे. फिर सदा के लिए उसे छोड़कर घर चले आए.

मेरे पितामह अलबत्ते संस्कृतज्ञ थे और अच्छे पंडित भी थे. बंगाल की छावनियों में स्थित पलटनों को वे पुराण सुनाया करते थे. उनकी एकत्र की हुई सैकड़ों हस्तलिखित पुस्तकें बेच-बेचकर मेरी पितामही ने मेरे पिता और पितृव्य आदि का पालन किया. वयस्क होने पर दो-चार पुस्तकें मुझे भी घर में पड़ी मिलीं.

मेरे पितृव्य दुर्गादास नाम-मात्र को हिन्दी क्या कैथी जानते थे. पर उनमें नए-नए किस्से बनाकर कहने की अद्भुत शक्ति थी. रायबरेली जिले में दीनशाह के गौरा के तत्कालीन तअल्लुकेदार, भूपालसिंह के यहां किस्से सुनाने के लिए वे नौकर थे.

मेरे नाना और मामा भी संस्कृतज्ञ थे. मामा की संस्कृतज्ञता का परिचय स्वयं मैंने, उनके पास बैठकर, प्राप्त किया था.

(9) साहित्य-प्रेम

नहीं कह सकता, शिक्षाप्राप्ति की तरफ प्रवृत्त हेाने का संस्कार मुझे किससे प्राप्त हुआ-पिता से या पितामह से या मातामह से या अपने ही किसी पूर्व-जन्म के कृतकर्म से. बचपन ही से मेरा अनुराग तुलसीदास की रामायण और ब्रजवासीदास के ब्रजविलास पर हो गया था. फुटकर कवित्त भी मैंने सैकड़ों कंठ कर लिए थे. हुशंगाबाद में रहते समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कवि वचनसुधा और गोस्वामी राधाचरण के एक मासिक पत्र ने मेरे उस अनुराग की वृद्धि कर दी. वहीं मैंने बाबू हरिश्चन्द्र कुलश्रेष्ठ नाम के एक सज्जन से, जो वहीं कचहरी में मुलाजिम थे, पिंगल का पाठ पढ़ा. फिर क्या था, मैं अपने को कवि ही नहीं, महाकवि समझने लगा. मेरा यह रोग बहुत समय तक ज्यों का त्यों बना रहा. झांसी आने पर जब मैंने, पंडितों की कृपा से, प्रकृत कवियों के काव्यों के काव्यों का अनुशीलन किया तब मुझे अपनी भूल मालूम हो गई और छंदोबद्ध प्रलापों के जाल से मैंने सदा के लिए छुट्टी ले ली. पर गद्य में कुछ-न-कुछ लिखना जारी रखा. संस्कृत और अंग्रेजी पुस्तकों के कुछ अनुवाद भी मैंने किए.

(10) इंडियन प्रेस से परिचय

जब मैं झांसी में था तब वहीं के तहसीली स्कूल के एक

अध्यापक ने मुझे कोर्स की एक पुस्तक दिखाई. नाम था तृतीय रीडर. उसने उसमें बहुत से दोष दिखाए. उस समय तक मेरी लिखी हुई कुछ समालोचनाएं प्रकाशित हो चुकी थीं. इससे उस

अध्यापक महाशय की शिकायत को ठीक पाया. नतीजा यह हुआ कि उसकी समालोचना मैंने पुस्तकाकार में प्रकाशित करने का आग्रह किया. मैंने रीडर पढ़ी और अध्यापक महाशय की शिकायत को ठीक पाया. नतीजा यह हुआ कि उसकी समालोचना मैंने पुस्तकाकार में प्रकाशित की. इस रीडर का स्वत्वाधिकार था, प्रयाग का इंडियन प्रेस. अतएव इस समालोचना की बदौलत इंडियन प्रेस से मेरा परिचय हो गया और कुछ समय बाद उसने ‘सरस्वती’ पत्रिका का संपादक कार्य मुझे दे डालने की इच्छा प्रकट की. मैंने उसे स्वीकार कर लिया. यह घटना रेल की नौकरी छोड़ने के एक साल पहले की है.

नौकरी छोड़ने पर मेरे मित्रों ने कई प्रकार से मेरी सहायता करने की इच्छा प्रकट की. किसी ने कहा-आओ, मैं तुम्हें अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बनाऊंगा. किसी ने लिखा-मैं तुम्हारे साथ बैठकर संस्कृत पढूंगा. किसी ने कहा-मैं तुम्हारे लिए एक छापाखाना खुलवा दूंगा-इत्यादि. पर मैंने सबको अपनी कृतज्ञता की सूचना दे दी और लिख दिया कि अभी मुझे आपके साहय्यदान की विशेष आवश्यकता नहीं. मैंने सोचा-अव्यवस्थित-चित्त मनुष्य की सफलता में सदा सन्देह रहता है. क्यों न मैं अंगीकृत कार्यो ही में अपनी सारी शक्ति लगा दूं? प्रयत्न और परिश्रम की बड़ी महिमा है. अतएव ‘सब तज, हरि भज’ की मसल को चरितार्थ करते हुए, इंडियन प्रेस के प्रदत्त काम ही में मैं अपनी शक्ति खर्च करने लगा. हां, जो थोड़ा बहुत अवकाश कभी मिलता तो उसमें अनुवाद आदि का कुछ काम और भी करता. समय की कमी के कारण मैं विशेष अध्ययन न कर सका. इसी से संपत्तिशास्त्र नामक पुस्तक को छोड़कर और किसी अच्छे विषय पर मैं कोई नई पुस्तक न लिख सका.

(11) मेरी रसीली पुस्तकें

हरे! हरे! मैंने भूल की. और भी नई पुस्तकें मैंने जरूर लिखीं. उस समय तक मैंने जो कुछ लिखा था, उससे मुझे टकों की प्राप्ति तो कुछ हुई ही न थी. हां, ग्रंथाकार, लेखक, समालोचक और कवि की जो पदवियां मैंने स्वयं अपने ऊपर लाद ली थीं उनसे मेरे गर्व की मात्रा में बहुत कुछ इजाफा जरूर हो गया था. मेरे तत्कालीन मित्रों और सलाहकारों ने उसे पर्याप्त न समझा. उन्होंने कहा-अजी कोई ऐसी किताब लिखो जिससे टके सीधे हों. रुपये का लोभ चाहे जो करावे. मैं उनके चकमे में आ गया. योरप और अमेरिका तक में प्रकाशित पुस्तकें मंगाकर पढ़ीं. संस्कृत भाषा में प्राप्त सामग्री से भी लाभ उठाया. बहुत परिश्रम करके कोई दो सौ सफे की एक पुस्तक लिख डाली. नाम उसका रखा, तरुणोपदेश. मित्रों ने उसे देखा. कहा, अच्छी तो है, पर इसमें काफी सरसता नहीं. पुस्तक ऐसी होनी चाहिए जिसका नाम ही सुनकर और विज्ञापन-मात्र ही पढ़कर खरीदकर पाठक उस पर इस तरह टूटें जिस तरह गुड़ नहीं, बहते हुए व्रण या गंदगी पर मक्खियों के झुंड के झुंड टूटते हैं. कामकला लिखो, कामकिल्लोल लिखो, कंदर्पदर्पण लिखो, रति-रहस्य लिखो, मनोज-मंजरी लिखो, अनंगरंग लिखो. मैं सोच-विचार में पड़ गया. बहुत दिनों तक चित्त चलायमान रहा. अंत में जीत मेरे मित्रों ही की रही. उनके प्रस्तावित नाम मुझे पसंद न आए. मैं उनसे भी बांस भर आगे बढ़ गया. कवि तो मैं था ही, मैंने चार-चार चरणवाले लंबे-लंबे छंदों में एक पद्यात्मक पुस्तक लिख डाली. ऐसी पुस्तक जिसके प्रत्येक पद्य से रस की नदी नहीं तो बरसाती नाला जरूर बह रहा था. नाम भी मैंने ऐसा चुना जैसा कि उस समय तक उस रस के अधिष्ठाता को भी न सूझा था. मैं तीस-चालीस साल पहले की बात कर रहा हूं, आज कल की नहीं. आज-कल तो वह नाम बाजारू हो रहा है. और अपने अलौकिक आकर्षण के कारण

निर्धनों को धनी और धनियों को धनाधीश बना रहा है. अपने बूढ़े मुंह के भीतर धंसी हुई जबान से, आपके सामने, उस नाम का उल्लेख करते मुझे बड़ी लज्जा मालूम होगी. पर पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए, आप, पंचसमाजरूपी परमेश्वर, के सामने, शुद्ध हृदय से, उसका निर्देश करना ही पड़ेगा. अच्छा तो उसका नाम था या है सोहागरात. उसमें क्या है, यह आप पर प्रकट करने की जरूरत नहीं, क्योंकि-

मेरे मित्रों ने इस पिछली पुस्तक को बहुत पसंद किया, उसे बहुत सरस पाया. अतएव उन्होंने मेरी पीठ खूब ठोंकी. मैंने भी अपना परिश्रम सफल समझा. अब लगा मैं हवाई किले बनाने. पुस्तक प्रकाशित होने पर उसे युक्तिपूर्वक बेचूंगा. मेरे घर रुपयों की वृष्टि होने लगेगी. शीध्र ही मैं मोटर नहीं, तो एक विक्टोरिया खरीदकर उस पर हवा खाने निकला करूंगा. देहात छोड़कर दशाश्वमेध घाट पर कोई तिमंजिला मकान बनवाकर या मोल लेकर वहीं काशीवास करूंगा. कई कर्मचारी रखूंगा. अन्यथा हजारों वेल्यू-पेएबिल कौन रवाना करेगा.

परन्तु अभागियों के सुखस्वप्न सच्चे नहीं निकलते. मेरे हवाई महल एक पल में ढह पड़े. मेरी पत्नी कुछ पढ़ी-लिखी थी.उससे छिपाकर ये दोनों पुस्तकें मैंने लिखी थीं. दुर्घटना कुछ ऐसी हुई कि उसने ये पुस्तकें देख लीं. देखा ही नहीं, उलट-पलटकर उसने उन्हें पढ़ा भी. फिर क्या था, उसके शरीर में कराला कली का आवेश हो उठा. उसने उन दोनों पुस्तकों की कापियों को आजन्म कारावास या कालेपानी की सजा दे दी. वे उसके संदूक में बंद हो गईं. उसके मरने पर ही उनका छुटकारा उस दायमुल्हब्स (आजन्म कारागार का दंड) से हुआ. छूटने पर मैंने उन्हें एकांत-सेवन की आज्ञा दे दी है. क्योंकि सती की आज्ञा का उल्लंघन करने की शक्ति मुझमें नहीं है. इस तरह मेरी पत्नी ने तो मुझे साहित्य के उस पंक-पयोधि में डूबने से बचा लिया, आप भी मेरे उस दुकृत्य को क्षमा कर दें तो बड़ी कृपा हो. इसी से मैंने इस बहुत कुछ अप्रासंगिक विषय के उल्लेख की यहां, इस विद्वत्वसमाज में जरूरत समझी.

(12) सरस्वती के संपादन में मेरे आदर्श

सरस्वती के संपादन का भार उठाने पर मैंने अपने लिए कुछ आदर्श निश्चित किए. मैंने संकल्प किया कि (1) वक्त की पाबंदी करूंगा (2) मालिकों का विश्वास-पात्र बनने की चेष्टा करूंगा (3) अपने हानि-लाभ की परवाह न करके पाठकों के हानि लाभ का ख्याल रखूंगा और (4) न्याय-पथ से कभी न विचलित हूंगा. इसका पालन कहां तक मुझसे हो सका, संक्षेप में, सुन लीजिए-

1. संपादक जी बीमार हो गए, इस कारण ‘स्वर्ग समाचार’ दो हफ्ते बंद रहा. मैनेजर महाशय के मामा परलोक-प्रस्थान कर गए; लाचार ‘विश्वमोहिनी’ पत्रिका देर से निकल रही है. ‘प्रलयंकारी’ पत्रिका के विधाता का फौंटैनपेन टूट गया. उसके मातम में 13 दिन काम बंद रहा. इसी से पत्रिका के प्रकटन में विलंब हो गया. प्रेस की मशीन नाराज हो गई. क्या किया जाता. ‘त्रिलोकमित्र’ का यह अंक, इसी से समय पर न छप सका. इस तरह की घोषणाएं मेरी दृष्टि में बहुत पड़ चुकी थीं. मैंने कहा-मैं इस बातों का कायल नहीं. प्रेस की मशीन टूट जाए तो उसका जिम्मेदार मैं नहीं. पर कापी समय पर न पहुंचे तो उसका जिम्मेदार मैं हूं. मैंने अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह जी-जान होमकर किया. चाहे पूरा का पूरा अंक मुझे ही क्यों न लिखना पड़ा हो, कापी समय पर ही मैंने भेजी. मैंने तो यहां तक किया कि कम से कम छः महीने आगे की सामग्री सदा अपने पास प्रस्तुत रखी. सोचा कि यदि मैं महीनों बीमार पड़ जाऊं तो क्या हो? सरस्वती का प्रकाशन तब तक बंद रखना क्या ग्राहकों के साथ अन्याय करना न होगा? अस्तु, मेरे कारण सोलह सत्रह वर्षों के दीर्घ काल में, एक बार भी सरस्वती का प्रकाशन नहीं रुका. जब मैंने अपना काम छोडा़ तब भी मैंने संपादक को बहुत से बचे हुए लेख अर्पण किए. आप विश्वास कीजिए, उस समय के उपार्जित और अपने लिखे हुए कुछ लेख अब भी मेरे संग्रह में सुरखित हैं.

2. मालिकों का विश्वासभाजन बनने की चेष्ठा में मैं यहां तक सचेत रहा कि मेरे कारण उन्हें कभी उलझन में पड़ने की नौबत नहीं आई. सरस्वती के जो उद्देश्य थे उनकी रक्षा मैंने दृढ़ता से की. एक दफे अलबत्ते मुझे इलाहाबाद के डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट को चेतावनी देनी थी. वह और किसी को मिली. क्योंकि विज्ञापनों की छपाई से मेरा कोई सरोकार न था.

मेरी सेवा से सरस्वती का प्रचार जैसे-जैसे बढ़ता गया और मालिकों का मैं जैसे-जैसे अधिकाधिक विश्वासभाजन होता गया वैसे ही वैसे मेरी सेवा का बदला भी मिलता गया और मेरी आर्थिक स्थिति प्रायः वैसी ही हो गई जैसी कि रेलवे की नौकरी छोड़ने के समय थी. इसमें मेरी कारगुजारी कम, दिवंगत बाबू चिंतामणि घोष की उदारता ही अधिक करणीभूत थी. उन्होंने मेरे संपान स्वातंत्र्य में कभी बाधा नहीं डाली, वे मुझे अपना कुटुंबी-सा समझते रहे; और उनके उत्तराधिकारी अब तक भी मुझे वैसा ही समझते हैं.

3. इस समय तो कितनी ही महारानियां तक हिन्दी का गौरव बड़ा रही हैं. पर उस समय एकमात्र सरस्वती ही पत्रिकाओं की रानी नहीं, पाठकों की सेविका थी. तब उसमें कुछ छपाना या किसी के जीवन-चरित्र आदि प्रकाशन कराना जरा बड़ी बात समझी जाती थी. दशा ऐसी होने के कारण मुझे कभी-कभी बड़े-बड़े प्रलोभन दिए जाते थे. कोई कहता-मेरी मौसी का मरसिया छाप दो; मैं तुम्हें निहाल कर दूंगा. कोई लिखता-अमुक सभा में दी गई, अमुक सभापति की ‘स्पीच’ छाप दो; तुम्हारे गले में बनारसी दुपट्टा डाल दूंगा. कोई आज्ञा देता-मेरे प्रभु का सचित्र जीवन-चरित्र निकाल दोे तो तुम्हें एक बढ़िया घड़ी या पैरगाड़ी नजर की जाएगी. इन प्रलोभनों का विचार करके मैं अपने दुर्भाग्य को कोसता और कहता कि जब मेरे आकाश महलों को खुद मेरी पत्नी ने गिराकर चूर कर दिया तब भला ये घड़ियां और गाड़ियों को कैसे हजम कर सकूंगा. नतीजा यह होता कि बहरा और गूंगा बन जाता और सरस्वती में वही मसाला जाने देता जिससे मैं पाठकों का लाभ समझता. मैं उनकी रुचि का सदैव ख्याल रखता और यह देखता रहता कि मेरे किसी काम से उनको, सत्पथ से विचलित होने का साधन न प्राप्त हो. संशोधन द्वारा लेखों की भाषा अधिसंख्यक पाठकों की समझ में आने लायक कर देता. यह न देखता कि यह शब्द अरबी का है या फारसी का या तुर्की का. देखता सिर्फ यह कि इस शब्द, वाक्य या लेख का आशय

अधिकांश पाठक समझ लेंगे या नहीं. अल्पज्ञ होकर भी किसी पर अपनी विद्वता की झूठी छाप लगाने की कोशिश मैंने कभी की नहीं.

4. सरस्वती में प्रकाशित मेरे लघु लेखों (नोटों) और आलोचनाओं ही से सर्वसाधारण जन इस बात का पता लगा सकते हैं कि मैंने कहां तक न्यायमार्ग का अवलंबन किया है. जान-बूझकर मैंने कहीं भी अपनी आत्मा का हनन नहीं किया. न इस प्रांत के कितने ही न्यायनिष्ठ सामाजिक सत्पुरुषों ने सरस्वती का जो ‘बायकाट’ कर दिया था वह मेरे किस अपराध का सूचक था, इसका निर्णय सुधीजन ही कर सकते हैं.

(13) उपसंहार

मैं जानता हूं कि आत्म-कथा से संबंध रखनेवाली मेरी यह विकत्थना, उपस्थित सज्जनों की विरक्ति और अरुचि का हेतु हो रही होगी. परंतु मेरे इस प्रलाप की आवश्यकता का कारण है. मैं आपके इस आयोजन और अभिनंदन का कहां तक पात्र हूं, यह बात मेरे कृतपूर्व कथन से आपको अच्छी तरह ज्ञात हो गई होगी. मुझ तुच्छ ने किया ही क्या है. न बड़े मोल की कोई पुस्तक ही लिखी और न कोई और ही अभिनंदनीय काम किया. जो कुछ किया, साफ-साफ मैंने कह दिया. मेरे कृत कार्यों का संबंध केवल मेरी उदरपूर्ति से रहा है. इस दशा में भी आप मुझे जो दाद दे रहे हैं वह एकमात्र आपकी महत्ता और औदार्य का सूचक है. हिन्दी भाषा के साहित्य की उन्नति और देवनागराक्षरों के प्रचार के लिए आज तक इस सभा ने जो प्रयत्न और व्यय किया है और उसे अपने इस काम में जो सफलता मिली है वह सर्वश्रुत है. मेरा यह अभिनंदन, जो आज हो रहा है, उसी उद्योग का द्योतक है जो मातृभाषा की उन्नति के लिए वह कर रही है. मेरे हिन्दी-प्रेम की प्रवर्तक, बहुत अंशों में, स्वयं यह सभा ही है. मेरे सदृश आत्मम्भरि के सत्कार से मानो वह यह साबित कर रही है कि जिन्होंने अन्य कारणों से भी हिन्दी भाषा को अपनाया उन्होंने भी किसी अंश तक सभा के उद्देश्य की सिद्धि कर दी. सज्जन और महाजन स्वभाव ही से उदार होते हैं. वे औरों के यत्किचिंत् अथवा नगण्य कामों को भी बहुत अधिक महत्व दिया करते हैं. इसका उल्लेख मैं पहले कर चुका हूं.

आपके आदर-सत्कार ने मेरे हृदय पर कृतज्ञता की इतनी गहरी छाप लगा दी है कि वह आमरण मिटने या धूमिल होने की नहीं. मैं तो चाहता हूं कि अन्य संस्कारों के साथ वह जन्मांतर में भी वैसी ही बनी रहे. मुझे तो उसने इतना मोह लिया है कि मेरा मन अब तुझे छोड़कर यहीं रह जाना चाहता है. मैं अब बे-मन ही अपने घर लौटूंगा. पर आप सज्जनों का मन आप ही के पास, आप ही के कब्जे में रहेगा. और स्मरण करना मन ही का धर्म है. अतएव हाथ जोड़कर मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे भूल ना जाइएगा. यदा-कदा मुझ दीन, अनात्मनीन, सुतदाराविहीन, और क्षीण प्राण का स्मरण कर लिया कीजिएगा, और यदि कष्ट न हो तो भूले-भटके, छठे-छमासे, परमात्मा से मेरी कल्याण-कामना भी कर दिया कीजिएगा. मेरी इस प्रार्थना की स्वीकृति में मुंह से नहीं तो मन ही मन दया करके कह दीजिए-तथास्तु.

श्रेयः प्रयच्छतु परं सुविशुद्धवर्णा

पूर्णाभिलाषविबुधाधिपवन्दनीया.

पुण्या कविप्रवरवागिव बालचन्द्र

चूड़ामणेश्चरणरेणुकणावली वः.

(2 मई, 1933 में नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा अभिनन्दन ग्रंथ प्रदानोत्सव के समय दिया गया वक्तव्य.

मई, 1933 की सरस्वती में प्रकाशित)

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: प्राची नवंबर 2015 - महावीर प्रसाद द्विवेदी का आत्म-परिचय
प्राची नवंबर 2015 - महावीर प्रसाद द्विवेदी का आत्म-परिचय
https://lh3.googleusercontent.com/-GfDXHZM4pb4/Vo43UX-H-kI/AAAAAAAAqBw/rhoRf1rsFns/image_thumb%25255B4%25255D.png?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-GfDXHZM4pb4/Vo43UX-H-kI/AAAAAAAAqBw/rhoRf1rsFns/s72-c/image_thumb%25255B4%25255D.png?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2016/01/2015.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2016/01/2015.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content