प्राची - दिसंबर 2015 - सूर्योदय के पहले / कहानी / अमर जलील /

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अमर जलील (जन्मः 8 नवंबर 1936, सिंध, पाकिस्तान) सन् 1959 में नवाब शहर से बी.ए. करने के बाद अर्थशास्त्र के प्रवक्ता के रूप में कार्य आरंभ क...

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अमर जलील

(जन्मः 8 नवंबर 1936, सिंध, पाकिस्तान)

सन् 1959 में नवाब शहर से बी.ए. करने के बाद अर्थशास्त्र के प्रवक्ता के रूप में कार्य आरंभ किया. बाद में रेडियो पाकिस्तान पर रिसर्च आफिसर बने. इसके बाद अल्लामा इकबाल यूनिवर्सिटी, इस्लामाबाद में नियुक्त हुए, जहां से कुछ दिनों पहले सेनानिवृत्त हुए हैं. उनकी पहली कहानी 1954 में ‘इंदिरा’ शीर्षक से छपी. उनका पहला संग्रह ‘दिल की दुनिया’ प्रकाशित हुआ. अन्य संग्रह हैं ‘तीसरा वजूद’ और ‘मेरा पता आसमान से पूछो’. ‘आखिर गूंगी ने बात की’ उनका प्रसिद्ध उपन्यास है. कुछ

सिंधी फिल्मों की कहानियां व डायलॉग रेडियो एवं टेलिविजन के लिए लिखे. सिंधी और अंग्रेजी में कई पत्रिकाओं के लिए कॉलम लिखते हैं. वे इस समय कराची में रहते हैं.

सूर्योदय के पहले

अमर जलील

मुझे देखकर हमेशा भाग जाता था. उस दिन भी मुझ पर नजर पड़ी तो भाग खड़ा हुआ. कदम तो पहले की तरह तेज और कसा हुआ बढ़ाया था, पर तब भी मैंने लपककर उसे पकड़ लिया.

‘क्यों पहचानते हो?’ मैंने पूछा.

‘नहीं.’

‘भोले-भाले मत बनो.’

‘यकीन करो, मैं तुम्हें नहीं पहचानता.’

नफरत के जज्बे ने मेरी आवाज को कठोर बना दिया. कहा-‘पहले भी मक्कार थे. आज भी मक्कार हो.’

उसने जवाब नहीं दिया. सिर्फ अपनी जादुई निगाहों से मेरी ओर देखता रहा. आंखों में ऐसी आकर्षक कशिश रहती है कि एक ही नजर से सामने वाले को खामोश कर देता है. पर उस दिन मैं बहुत गुस्से में था.

‘तुम धोखेबाज और फरेबी हो.’

‘इसलिए तो अपनी दोस्ती खत्म हो गई.’ उसने धीमे से कहा.

‘देखो आ गए न राह पर!’ उस पर ठिठोली करते हुए कहा-‘बहुत मासूम बनते फिरते हो कि मैं तो तुम्हें पहचानता ही नहीं.’

‘जो थे, उसी को पहचानता था.’ निगाहों में सागर जैसी गहराई पैदा करते हुए कहा, ‘और अभी जो कुछ भी हो, उसे नहीं पहचानता.’

‘बहुत चालाक हो.’ उसकी निगाहों से अपनी नजरें बचाते हुए कहा-‘एक ही बात के दो अलग-अलग मतलब निकाले हैं.

‘मतलब वही है, पर तुम्हारी समझ में परिवर्तन आ गया है.’

‘वाह! कभी कहते हो, पहचानता हूं. कभी कहते हो, नहीं पहचानता. समझ तो तुम्हारी बदल गई.’

उसने झटपट जवाब दिया-‘जब रतन ताऊ स्कूल के पीछे एक झुग्गी में रहते थे, तब मैं तुम्हारा दोस्त था.’

‘और आज?’

‘आज तुम वो रहे ही नहीं हो, तो भला हमारी दोस्ती कैसे रहेगी.’ आगे कहा-‘मैंने तो पहले ही बता दिया था कि मैं फकत उनका दोस्त हूं. जिनके पास...’

‘बंद करो बकवास’ उसे गर्दन से पकड़ते कहा. ‘सारी दुनिया को बेवकूफ बनाया है.’

वह खामोश रहा.

मैंने बात की, ‘उन पेचीदा बातों से दुनिया को उलझाया

है.’

जवाब मिला-‘जब जुल्म और अंधेरे का पर्दा इंसान की अक्ल पर पड़ जाता है, तब इंसान इंसानियत को भूल बैठता है. बिल्कुल तुम्हारी तरह.’

‘फरेबी, इंसानियत का झूठा ढोंग रचाया है.’ मैंने उसे दीवार की ओर धकेल दिया.

‘इन्हीं बातों से दुनिया को ठगा है.’

बिना हिले-डुले उसने जवाब दिया-‘मेरी बातों से बेजार थे, तभी तो तुम्हारे पास आना छोड़ दिया.’

‘मुझे भी तो तुम्हारी दोस्ती की जरूरत नहीं है.’ उसकी गर्दन पर पकड़ और मजबूत करते कहा.’

‘तो फिर रोका क्यों?’

‘यह बताने के लिए कि मैंने नहीं, तुमने इस दोस्ती का अंत किया.’

‘जानता हूं.’

‘और आगे सुनो, पहले तुम्हारी दोस्ती में मैं, ग्रेजुएट होते हुए भी बेरोजगार रहता था. भूखा मरता था. अब मैंने डिग्री सर्टिफिकेट को बेकार रद्दी कागज की तरह फाड़ दिया है. आजकल हमारे पास भूख नहीं है. सुखी और आबाद हूं.’ उसे उसी लहजे में सुना दिया है.’

‘यूं कहो न कि फकत भूखे और बेरोजगार लोगों के दरवाजे पर धक्के खाते हो.’

मेरा वाक्य उसे शूल की तरह लगा. आंखें चमकने लगीं.

कहा-‘जैसा समझो, पर चोर के साथ दामन नहीं उलझाऊंगा.’

अपनी तेज आंखों से मेरा हृदय जख्मी कर दिया. उसके शब्द भाले की तरह दिल में चुभने लगे. मैंने उसे छोड़ दिया. वह जैसे अचानक ही प्रकट हो जाता था, वैसे ही गुम भी हो जाता था. उस दिन भी पास वाली अंधेरी गली में गायब हो गया.

मैं हैरान हो रहा था कि उसे कैसे मालूम हुआ कि मैं चोर था. जिस राज से मेरी मां और बहन बेखबर थीं, जिस राज से पड़ोसी अनजान थे, जिस राज से पुलिस नावाकिफ थी, उस अज्ञात राज की उसे कैसे जानकारी मिल गई. उस वक्त महसूस किया दुनिया में फकत वो ही मेरे गुनाह का जानकार है या मैं खुद था. मैंने उसे खत्म करने का फैसला कर लिया. ऐसे खतरनाक गवाह का जिंदा रहना मेरे लिए मौत के बराबर था. वह मेरी खुशियों का दुश्मन था. सोचा, मैं उसे जिंदा नहीं छोड़ूंगा.

मैंने रूमाल निकालकर हाथ पर लपेट लिया और फिर चाकू खोलकर मुट्ठी में कसकर पकड़ा. हाथ ओवरकोट के बड़े जेब में डाल दिया. रात का पहला पहर था. वो जिस अंधेरी गली में गायब हो गया था, मैं उस गली में चल पड़ा. वह मुझसे थोड़े फासले पर पैदल जा रहा था. मैंने उसका पीछा किया. पेड़ों की ओट में और दीवारों की परछाइयों में छिपता-छिपाता मैं उसके पीछे चलता रहा. फैसला किया कि उसे सूर्योदय के पहले कत्ल कर दूंगा.

चाकू पर मेरी पकड़ और मजबूत होती गई और मैं किसी ऐसी जगह की ताड़ में था, जहां उसकी आखिरी हिचकी वीरानों में दफन हो जाए. वह बेखबर चलता रहा और मैं परछाई की तरह उसका पीछा करता रहा. रह-रहकर अफसोस भी हो रहा था कि बेवजह उसकी मौत मेरे हाथों हो रही है. अफसोस इसलिए हो रहा था कि एक बार मुझे खुदकुशी करने से रोककर, जिंदगी का उद्देश्य समझाया था. उन दिनों मैं बेहद मुश्किल हालात से घिरा हुआ था. भटक रहा था. आखिर वह मनहूस घड़ी भी आ पहुंची, जब भूख और बेरोजगारी ने हमसे सुख चैन छीन लिया. पहाड़ जैसे वे दिन मुझे हमेशा याद रहेंगे और वह दिन भी हर्गिज भूल न पाऊंगा, जब दो दिनों की भूख ने हमें पागल कर दिया था. मरने के जो भी तरीके हैं, उन सबमें सबसे भयानक नमूना है भूख की यातना. मैं भूख के अजाब में सब-कुछ भूल बैठा था. सब-कुछ.

जब अम्मा ने लाचारी-भरे स्वर में पूछा-‘अब (बेटे), अब क्या होगा?’

तब इंतहाई मायूसी और बेजारी की हालत में उसे फटकारते हुए कहा था-‘क्या से क्या मतलब? तुम जरीना से कहो हार-श्रृंगार करके बैठे. मैं ग्राहक लेकर आता हूं.’

‘बेगैरत, बेहया.’ अम्मा मरी हुई आवाज में चीखीं.

‘हां अम्मा, ‘उत्तर दिया था-‘जवान औरत धंधा करके पेट पाल सकती है, पर मर्द कहां जाए. कहो मर्द कहां जाए?’

जरीना और अम्मा हैरत से मेरी ओर ताकने लगीं. उनके खाली और परेशान जहन के लिए मेरा वाक्य बर्दाश्त के बाहर था. जरीना तो अपनी बुझी आंखें मेरी आंखों से हटा ही न पाई. जैसे उन निगाहों से वह मेरी रूह छेद देगी. मुझे आकर बांह से पकड़़ा था. मैंने उसे घायल करते हुए कहा था- ‘तुम्हें वेश्या बनना पड़ेगा जरीना. इस दुनिया में जिंदा रहने के लिए तुम्हें यह कर्ज चुकाना पड़ेगा. मुझ-जैसे बेगैरत भाई के लिए तुम यह कर्ज सदियों से चुकाती आ रही हो.’

‘शर्म नहीं आती बेगैरत.’ अम्मा ने फटकारा.

‘भूख का भूत गैरत को निगल जाता है अम्मा.’

‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है.’

‘अम्मा सुना नहीं है.’ मैं रो पड़ा था.

‘भूख बुछड़ो टोल, दाना दीवाना करे.’

(भूख निगोड़ी डायन, दाने पर दीवानी)

अम्मा की और मेरी आंखों से आंसू बह निकले. जाने कहां से इतना पानी हमारी आंखों में आकर जमा हुआ था. जरीना विस्मित आंखों से मुझे घूर रही थी-अचानक घृणा-भाव से मेरे मुंह पर थूक फेंका था और फिर मेरी कमीज को चिंदी-चिंदी करते हुए मेरे मुंह पर अनगिनत खराशें कर दीं. दोनों मुट्ठियां मेरे बालों में डालकर विलाप करते हुए रोने लगी. यह वही जरीना थी, मेरी छोटी बहन, जिसे मैं कंधे पर बिठाकर घुमाने ले जाया करता था. अपनी जेबखर्ची से तिल के लड्डू लेकर दिया करता था और जिसके एक-एक आंसू पर खुद भी बैचेन हो उठता था. उस दिन उसी जरीना के हाथ मेरे बालों में थे और सुबक रही थी. मैंने उसे खुद से दूर किया और स्काउट के दिनों वाला चाकू लेकर बाहर निकल गया था. मुझे अंधेरे की तलाश थी. मुझे वीरानों की तलाश थी. जहां मैं आसानी से चाकू की तेज नोक उसके सीने में उतार सकता था. जरीना की सिसकियां और अम्मां की आहें मेरा पीछा करती आईं. दूर-दूर तक मुझे अंधेरे और वीरानी वाला मकाम मिल गया था और मैंने चाकू खोलकर सीने पर रखा था. चाकू को दिल में उतारने वाला ही था कि वह भी आकर वहां प्रकट हो गया. मेरा दामन पकड़ते हुए पूछा था-

‘इस चाकू के बारे में कुछ जानते हो?’

मैंने विस्मय से उसकी ओर निहारा था. हालांकि अजनबी था, पर तब भी लग रहा था जैसे मेरा जाना-पहचाना था.

‘हां.’ जवाब दिया था. ‘बहुत पैना है जल्दी मौत लाएगा.’

‘पर जिस कारीगर ने यह चाकू बनाया था, उस कारीगर के तसव्वुर में मौत नहीं, जिंदगी थी.’ उसने चुंबकीय निगाहों से मुझे देखते हुए कहा.

मैं आश्चर्य से उसकी सागर जैसी गहरी और अगाह करती आंखों में देखता रहा.

पूछा था-‘नौजवान हो. मेहनत-मजदूरी क्यों नहीं करते?’

जवाब दिया था-‘मैं ग्रेजुएट हूं.’

‘तालीम को पेट पालने का जरिया समझते हो? पेट तो कुत्ते भी पाल लेते हैं.’ उसने आकर्षक लुभावनी आवाज में कहाः

‘इलम है रोशनी और हाथों की मेहनत दुनिया का महान काम.’

उसकी आवाज बुलंद और स्पष्ट थी, जो काफी देर तक मेरे जहन में प्रतिध्वनि होती रही. मुझे मौन में डूबा देखकर कहा था-‘वो जिंदगी ही कैसी जिसमें जद्दोजहद न हो. दोस्त जद्दोजहद जिंदगी की देन है. हकीकत में आज सिर्फ वे ही इंसान जिंदा हैं, जिन्होंने जद्दोजहद की थी.’

मेरे पास उसकी बातों का जवाब नहीं था. उसने तब कहा था-‘कितने सुडौल मांसपेशियां और चौड़ा सीना है! उनसे काम लो, मेरे दोस्त!’

और फिर वह मुझे हैरान और परेशान हालत में छोड़कर चला गया.

खुला चाकू हाथ में धरा रह गया. हालांकि मेरे मन से मरने की ख्वाहिश उसकी बातों से स्थगित हो गई. पर उसके बावजूद भूख की अग्नि भीतर भड़कती रही. उसके आखिरी वाक्यांश की गूंज मुझे बैचेन करती रही.

‘कितने सुडौल मांसपेशियां और चौड़ा सीना है. उनसे काम लो. मेरे दोस्त.’

यहां-वहां देखकर, तुरंत पैडल पर पैर रखते हुए, साइकिल चलाता हुआ तीर की तरह वहां से गुम हो गया था. किसी ने भी मुझे साइकिल लेते हुए नहीं देखा था और यही मेरी जिंदगी की पहली चोरी थी. साइकिल एक कबाड़ी वाले को पचास रुपये में बेचकर होटल से नॉन, कबाब, कोरमा और बिरयानी लेकर जब घर के दरवाजे पर पहुंचा था, तब उसे दरवाजे के पास खड़ा देखकर हैरान हुआ था. कुछ देर पहले मुझे जिंदगी का पाठ सुनाते जो रोशनी उसकी आंखों में प्रकाशमान हुई थी, वह बुझी हुई थी.

उसे यूं खड़ा देखकर कहा था-‘तुम्हारे कहे अनुसार सुडौल मांसपेशियों और चौड़े सीने से काम लिया है.’

‘मुझे पता है मेरे दोस्त,’ उसने धीरे से जवाब दिया था. उसकी आंखों से नाराजगी जाहिर हो रही थी. फिर आहिस्ते-आहिस्ते गर्दन झुकाए जाने कहां चला गया.

मैं फौरन घर के भीतर दाखिल हुआ था. दिये का तेल खत्म होने को था. नॉन, कबाब के पैकेट जब खाट पर रखे तब अम्मा और जरीना हैरानी से कभी मुझे और कभी पैकेट को देखने लगीं. पैकेट चिकनाई से सना हुआ था. कबाबों और कोरमों की खूशबू भूख को और भड़का गई. फिर अचानक अम्मा एक कदम आगे बढ़ आईं और उसने अपने कमजोर हाथों से मेरे गाल पर एक जोरदार तमाचा दे मारा.

‘बेहया अपनी बहन का सौदा करके ये हराम ले आए हो?’

‘नहीं, नहीं मैं तो मरने गया था, पर रास्ते में नौकरी मिल गई.’ जवाब दिया.

‘नौकरी’

‘हां, नौकरी.’

फिर हम खाने पर झपट पड़े. खाते-खाते अम्मा ने नौकरी के बारे में पूछा था, और मैंने उससे कहा था-‘तुम कोई और चिंता मत करो, चुपचाप बैठकर खाना खाओ.’

उसके बाद मैंने और कई साइकिलें चुराईं और देखते ही देखते मैं शहर की चुराई गई साइकिलों का सबसे बड़ा ‘डीलर’ बन गया. मेरा कारोबार जैसे-जैसे बढ़ता गया, वैसे-वैसे वह मुझसे दूर होता गया. उस पूरी अवधि में मैंने कभी भी न सोचा था कि मेरे सिवाय कोई दूसरा भी मेरे गुनाह से वाकिफ था और मुझ पर नजर रखे हुए था. फिर जब वह यूं कहकर चला गया कि ‘चोर से दामन नहीं उलझाऊंगा.’ तब मैंने उसका खून करने का फैसला किया और उसका पीछा भी.’

रात का पहला पहर खत्म होने को था. मेरी बेचैनी बढ़ती रही. मैंने उसे सूर्योदय के पहले खत्म करना चाहा. वो चलता रहा और मैं परछाई की तरह उसका पीछा करता रहा.

आखिर वह एक गंदी गली की ओर मुड़ गया. मैंने भी मुबारक मौका समझा. चाकू को मुट्ठी में खींच लिया. वह चलते-चलते एक कच्चे घर के बाहर खड़ा हो गया. दरवाजा खटखटाया. मैं पेड़ की आड़ में खड़ा रहा. सोचा, जब लौटेगा तब पीठ में चाकू खोंप दूंगा. मैं आड़ से उसकी ओर देखता रहा. विश्वास था कि वह किसी गरीब के घर के बाहर आकर खड़ा होगा, क्योंकि वह सिर्फ मुसीबत के मारों के दरवाजे पर दस्तक देता है. कुछ देर बाद दरवाजा खुला और एक नौजवान बाहर आया. नौजवान की वेशभूषा सादी थी, पर दरवाजा बंद करने के लिए एक वृद्ध औरत आई जिसने नौजवान से कहा-

‘बेटे, भाई के लिए किताब और एक टेबल-लैंप ले आना.’

‘हां, अम्मा...’ नौजवान ने शांत स्वर में जवाब दिया.

मुझे उसकी आवाज सुनकर हैरत हुई, क्योंकि नौजवान की आवाज उस जैसी थी, और आत्मविश्वास से भरपूर थी.

सोचा, आज कमबख्त ने बड़ा हाथ मारा है.

वह नौजवान के साथ वापस लौटने लगा. मैं उस पर हमला करने के लिये तैयार रहा. दोनों जब मेरे करीब आए. तब गौर से देखा तो पाया कि वह नौजवान अंधा है. वह नौजवान के कंधे से कंधा मिलाकर चल रहा था. जाने क्यों, उस वक्त उसके कत्ल करने के इरादे को टालकर, दोनों का पीछा करने लगा.

रात का पिछला पहर भी बीत गया और पूरब से रोशनी की किरणें उभरने लगीं. अंधेरा विलोप होने लगा. वह दोनों फर्नीचर की एक दुकान के बाहर आकर खड़े रहे. नौजवान क्षण भर में दुकान में चला गया. वह दरवाजे के पास खड़ा होकर नौजवान को दुकान में दाखिल होते देख रहा था और उसकी परेशानी से जैसे नूर के प्रकाश की धारें निकल रही थीं. सोचा, यह जरूर कोई जादूगर है.

मैं दीवार की ओट में छुपा हुआ था. मेरे बाजू से गुजरते कहा-‘जो चाकू जेब में पड़ा है, वो लोहार ने खून-खराबे के लिए नहीं बनाया था.’

मैं सचमुच ही कांप गया.

मेरे सामने आकर खड़ा हुआ. कहा-‘वह नौजवान अंधा है, पर तब भी कुर्सियां बुनकर अपना, अपनी मां और भाई का इज्जत के साथ पेट पालता है.’

मैं खामोश, लाजवाब खड़ा रहा.

कहा-‘मेहनतकशी की कमाई, दुनिया की सबसे महान पेशे की कमाई है.’

जब कोई भी जवाब नहीं सूझा तब बेशर्र्मी से जवाब दिया-‘मैं भी तो मेहनत करता हूं?’

‘वह पेशा ही जलील है, जिसमें खौफ, भय, निराशा, त्रास ही हासिल होे.’ उसकी सागर जैसी नीली आंखें मेरे अंदर में उतर गईं.’ कह रहा-‘इस नौजवान की आंखें नहीं हैं, पर उसके भीतर रोशनी है. इज्जत से कमाता है और गर्व के साथ जीवन बसर करता है.’

मेरी गर्दन झुक गई. झुकी नजरों से दुकान की ओर देखा, जहां अंधा नौजवान सच में कुर्सियां बुन रहा था.

उसकी आवाज पर मेरा ध्यान उसकी ओर गया.

‘मैं इस इंसान का और दुनिया के हर मेहनती इंसान का दोेस्त हूं.’

और फिर अचानक मेरी निगाहों से ओझल हो गया.

उस दिन के पश्चात मैंने, खौफ, त्रास, गुनाह और भय से मुंह मोड़ लिया. शहर में साइकिल के एक मशहूर कारखाने में फिटर बनकर रोजगार कमाने लगा.

एक दिन जब चिकनाई से लदे कपड़ों और थकान से चूर बदन से कारखाने से काम के बाद बाहर निकला, तब उसे अपने पास खड़ा पाया. चेहरे से नूर छलक रहा था.

कहा, ‘आज मैं बेहद खुश हूं.’

उससे पूछा-‘पर तुम हो कौन? कहां से आते हो, कहां गुम हो जाते हो.’

उसने बांहें आगे करके मेरे हृदय के स्थान पर हाथ रखा और देखते ही देखते आंखों से ओझल हो गया. मैंने उसके वजूद को महसूस कर लिया और महसूस करता आ रहा हूं.

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: प्राची - दिसंबर 2015 - सूर्योदय के पहले / कहानी / अमर जलील /
प्राची - दिसंबर 2015 - सूर्योदय के पहले / कहानी / अमर जलील /
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