प्राची - दिसंबर 2015 - जड़ों से उखड़े / कहानी / अनवर शेख

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अनवर शेख (जन्मः 12 सितंबर 1969, शिकारपुर, सिंध) पढाई शिकारपुर में की और वही ं डिग्री कॉलेज से ग्रेजुएशन किया. कई कहानी-पत्रिकाओं में छपते...

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अनवर शेख

(जन्मः 12 सितंबर 1969, शिकारपुर, सिंध)

पढाई शिकारपुर में की और वही ं डिग्री कॉलेज से ग्रेजुएशन किया. कई कहानी-पत्रिकाओं में छपते हैं. एक कहानी-संग्रह ‘दर्द का अंगास’ नाम से प्रकाशित हुआ है. एक उपन्यास ‘अणसुआतल’ प्रेस में है. वे पुलिस डिपार्टमेंट में इंसपेक्टर के पद पर कार्यरत हैं और देश व जनता को ध्यान में रखते हुए अपने कर्त्तव्य का पालन कर रहे हैं.

जड़ों से उखड़े

अनवर शेख

मास्टर दीन मुहम्मद और उसकी पत्नी करीमा एक बेटा और एक बेटी औलाद के रूप में पाकर धन्य हो गए थे. दोनों बच्चे अभी प्राइमरी पढ़ रहे थे. आस-पड़ोस की तरह उनका भी पक्की छत और कच्ची ईंटों का बना हुआ मकान था. बाकी घर में सामान के नाम पर पर्याप्त रूप में चारपाइयां, एक पानी का कूलर, एक बड़ी पेटी, एक छोटी ट्रंक, एक पंखा और कुछ खाने-पीने के बर्तन के सिवाय और कुछ न था. तनख्वाह खाने-पीने व कपड़े-लत्ते में पूरी हो जाया करती थी.

रात को खाने के पश्चात दोनों पति-पत्नी एक दूसरे को लतीफे सुनाया करते थे और ऐसे ही बातचीत करते मास्टर दीन मुहम्मद पत्नी के आगोश में ही नींद की वादियों में सैर करते रहते. रोज सुबह दोनों जल्दी ही उठकर नमाज पढ़ते और फिर नाश्ते से मुक्त होकर मास्टर और बच्चों को स्कूल रवाना करके करीमा घर की सफाई और दूसरे कामों में व्यस्त हो जाती थी. मास्टर दीन मुहम्मद के घरवालों के दिन और रातें बहुत संतोष व शांति से गुजरते थे.

एक दिन आसमान में काले बादलों ने कुछ ऐसे आक्रमण किया कि संपूर्ण धरती की रूह दहशत से घिर गई. शाम के वक्त मास्टर दीन मुहम्मद का पड़ोसी बेलदार बद्राल्दीन मास्टर के घर आया और कहने लगा-‘मास्टर! आसमान पर समूचा समंदर चढ़ आया है. अल्लाह पनाह दे. आपके घर की छत तो फिर भी मजबूत है, पर मेरा छप्पर तो शायद पहला वार भी न झेल पाए.’

‘बंधु, अल्लाह खैर करेगा. बारिश बरसानेवाला भी मौला तो हम भी उसी के. हमें किस बात की परवाह. उसके संरक्षण में हैं.’ मास्टर दीन मुहम्मद ने बेलदार बद्राल्दीन को ढांढस बंधाते हुए कहा. बद्राल्दीन ने आंगन में पड़ी खाट पर बैठाकर राजदारी वाले लहजे में मास्टर से कहा.

‘भाई मास्टर तुम्हारे साथ दिल की बात करता हूं. मेरे पास कुछ पैसे हैं. वे तुम इन बारिश के दिनों में अपने पास अमानत समझकर रख लो. बारिश खत्म होते ही मैं आकर ले जाऊंगा.’

‘कितने पैसे हैं?’ मास्टर ने भी उसी राजदारी वाले लहजे में पूछा.

‘इकसठ हजार हैं.’

‘यार कमाल करते हो, इतने पैसे घर में रखकर बैठे हो?’

‘भाई क्या करूं. बैंक पर भी भरोसा नहीं. अगर मुल्क में जंग छिड़ी तो बैंकों ने भी पैसा देने से इंकार कर दिया तो मैं क्या करूंगा? इसलिए रात को सिरहाने के पास रखता हूं और दिन में जैकेट के भीतरी जेब में.’

और फिर तत्काल कुछ सोचते हुए दोनों हाथ जोड़ते हुए मास्टर से कहा-‘बंधु, अल्लाह का वास्ता है, तुम्हें भला समझकर ऐतबार किया है. राज को राज ही रखना.’

‘नहीं, नहीं दिलासा रखो. इतना कच्चा समझा है क्या?’ मास्टर ने ढांढ़स बंधाया तो बद्राल्दीन को शांति मिली.

‘तुम्हें अगर कच्चा समझता तो भला यहां आता? पड़ोसी और भी बहुत हैं. तुम अपने हो, बड़ी बात यह कि नेक भी हो. इसीलिए तो सीधा तुम्हारे पास आया हूं.’

अचानक आसमान में जोरदार कड़कती बिजली ने तड़पना शुरू किया तो दोनो चौंक पड़े. करीमा ने, सिवाय उस खाट के जिस पर दोनों बैठे थे, बाहर रखा सारा सामान कोठी के अंदर ले लिया. बद्राल्दीन ने जैकेट की भीतरी जेब से प्लॉस्टिक की काले रंग की लाली से बंधी थैली निकालकर मास्टर को देते हुए कहा-‘बंधु, गिन लो.’

मास्टर ने घर की दीवारों और पड़ोस की छतों की ओर जल्दी से नजर फिराई और उठकर बाहरवाला दरवाजा बंद करके वापस खाट पर बैठकर सारा पैसा गिन लिया. गिनकर वापस उसी थैली में उसी अंदाज से लपेटकर थैली कुर्ते की जेब में रख ली.

बद्राल्दीन ने उठते हुए कहा-‘अब मैं चलता हूं. राजी अकेली है. दुकान से चावल लेकर दूं तो बारिश से पहले ही पका ले.’

मास्टर दीन मुहम्मद, ब्रदाल्दीन के साथ दरवाजे तक आया.

‘मास्टर, हम दोनों पति-पत्नी के पीछे तो कोई है नहीं, न कोई औलाद हुई. मैं अगर मर जाऊं तो पैसे मेरी पत्नी राजी को दे देना.’

बद्राल्दीन ने मायूस चेहरे से दरवाजे के पास खड़े होकर मास्टर दीन मुहम्मद से कहा-‘भाई, खैर मांगो, अल्लाह तुम्हें लंबी उम्र देगा. पहले क्या कभी बारिश नहीं हुई क्या? जो इतना उदास हो रहे हेा.’

मास्टर दीन मुहम्मद ने बद्राल्दीन को रवाना करके दरवाजा बंद किया. करीमा आंगन में पड़ी खाट को पीठ पर लादे अंदर रख रही थी. उसके बाद चूल्हे पर पक रहे चावल को धीमी आंच पर रखा और आकर मास्टर के सामने पड़ी खाट पर बैठते हुए कहा-‘पराए पैसे लिए तो हैं, पर रखोगे कहां?’

‘क्यों इतने ज्यादा हैं क्या, जो घर में नहीं समा सकते?’

‘छोटी ट्रंक में रख दो.’

मास्टर दीन मुहम्मद ने पैसों वाली थैली पत्नी को दी, जिसने उठकर बड़ी संदूक पर रखी छोटी ट्रंक में कपड़ों की तहों के बीच पैसे संभालकर रखे और ट्रंक को ताला मार दिया.

बाहर बारिश की हल्की बूंदाबांदी शुरू थी. सबने मिलकर तांबे को थाल में चावल के ऊपर मिठाई डाली. उसमें दूध डालकर खा लिया. बच्चे चावल खाकर सो गए. धीरे-धीरे बारिश में तेजी आती गई. काला आसमान भूखे शेर की तरह गर्जना कर रहा था. बिजली बंद थी. धरती पर रोशनी का नामोनिशान न था. बिजली बंद थी. घरों के भीतर व बाहर एक जैसा अंधेरा था. गर्मी इतनी ज्यादा न थी, फिर भी कमरों में घुटन थी. दीन मुहम्मद ने लालटेन जलाकर चबूतरे के कोने में रख दी. हल्की रोशनी कोठरी में सहमी-सहमी लग रही थी. पैरोें की ओर खुले दरवाजे पर दीन मुहम्मद की नजर थी. सिरहाने पड़ी बड़ी संदूक पर छोटी ट्रंक रखी थी, जिसमें बद्राल्दीन की अमानत के रूप में इकसठ हजार रुपये रखे थे.

यह पहली रात थी. दीन मुहम्मद और करीमा खाट पर सीधे सोए हुए थे. वर्ना वो अक्सर सांप की तरह एक-दूसरे से लिपटे रहे होते थे. नींद आने तक लतीफों के साथ हल्की हंसी उनके कमरे में बरकरार रहती थी. बाहर गर्जना और भीतर खामोशी थी. दीन मुहम्मद अचानक ख्याल आते ही उठा और जल्दी से कोठरी का दरवाजा बंद करते हुए लौटा तो करीमा ने कहा-‘ये क्या करते हो, कमरे में पहले से घुटन है, मारोगे क्या?’

‘खैर करो, एक रात में क्या होगा, मरेंगे क्या?’

‘पर आखिर क्यों, कोठरी का दरवाजा क्यों बंद करते हो? बाहर वाला तो बंद है.’

‘बाहर वाला तो बंद है, पर फिर भी मुसीबत क्या पूछकर आती है?’

करीमा चुप हो गई. दीन मुहम्मद को नींद आ गई.

बद्राल्दीन के कच्चे मकान में बारिश गजब ढा रही थी. कड़कती बिजली की आवाज जंग के जहाजों की तरह गरज रही थी. कोठी की छत का एक हिस्सा यूं टपक रहा था जैसे उस जगह पर कोई छत ही न थी. टपकती छत के नीचे बद्राल्दीन की पत्नी ने बाल्टी रखते हुए कहा-‘बारिश से तो सामना कर लेंगे, पर अगर कल मास्टर ने मानने से इंकार कर दिया तो तुम्हारे पास कौन से गवाह हैं, जो तुम सामने लाओगे.’

बेलदार बद्राल्दीन, जो कोठी के भीतर मजबूत छत की ओर खाट पर बैठा था, वह पत्नी की बात पर गौर करने लगा. राजी बाल्टी रखकर आकर जब पास में बैठी तो उसके मुंह की तरफ देखते हुए कहा-‘यह तुम्हारा बेकार का भरम है. तुम मास्टर को नहीं जानती. पराई चीज से दूर रहता है.’

‘अरे बद्राल्दीन, इंसान को बदलने में देर तो नहीं लगती?’

‘नहीं, नहीं, तू चिंता न कर. मैं नहीं समझता कि मास्टर ऐसा करेंगे.’

‘करीमा, करीमा, ओ करीमा! अरे उठो तो गजब हो गया?’

मास्टर दीन मुहम्मद जोर से चिल्लाने लगे.

‘क्या हुआ, क्या हुआ?

करीमा ने हैरान नजरों से पति की ओर देखा. बच्चे पिता के चिल्लाने पर उठकर रोने लगे.

‘अरे वह देखो, पेटी नहीं है. चोर ले गए.’

पति की इस बात से करीमा की सांसों में राहत आई. ठंडी सांस लेते हुए कहा-‘पता है, मैंने उठाकर खाट के नीचे रख दी है.’

परेशानी में पसीने से तर दीन मुहम्मद ने लालटेन उठाकर खाट के नीचे रख दी’. करीमा ने बच्चों को उनकी खाट पर सुलाते हुए कहा.

दीन मुहम्मद ने दरवाजा खोलकर आंगन में लालटेन की रोशनी से जांच की. बारिश बंद हो चुकी थी. आसमान चुप था, पर धरती पर मेढ़कों की टां...टां...और छप्परों के झूलने की आवाज जारी थी, जैसे उन्होंने बारिश और गर्जना का भार ले लिया हो. दरवाजा बंद करके चबूतरे पर रखे ताले को उठाकर दीन मुहम्मद ने घर के भीतर देखा. करीमा जम्हाई लेते हुए उसे देख रही थी. पर कहा कुछ नहीं. दोनों फिर आकर खाट पर साथ सो गए. छत की ओर निहारते दीन मुहम्मद ने कहा-‘जब से ये कमबख्त आए हैं, नींद ही उड़ गई है. मुझे याद नहीं कि कभी इस वक्त भी मेरी नींद खुली हो.’

‘पराई अमानत है न, इसलिए चिंता हो गई है.’

दीन मुहम्मद ने भी उसी परेशानी वाले अंदाज में कहा-‘अपने होते तो क्या चिंता न होती?’

‘अपने तो बैंक में रखते, घर में क्यों रखते?’

‘बैंक में रखती! अगर जंग छिड़ जाती और बैंक पैसा न देता तो?’

करीमा खाट पर उठकर बैठी. पति के चेहरे को देखने लगी. कमरे में नींद की खुमारी छाई थी. हल्की रोशनी परेशानी की तरह कांप रही थी.

‘ये तो दौलत में खतरे होते हैं?’ दीन मुहम्मद ने जवाब दिया. करीमा फिर खाट पर लेट गई और फुसफुसाहट भरे अंदाज में कहने लगी-‘जाने क्या चक्कर है. हमारे पास तो इतनी बड़ी रकम कभी आई नहीं, जो कुछ आता है, वह तो महीने में ही पूरा हो जाता है.’

‘अब चुप करके सो जाओ.’

अभी आंख भी न लगी थी, दीन मुहम्मद के कानों पर कमरे की दीवार के पीछे कुछ आवाजें सुनाई दीं. वह उठकर बैठा और पत्नी को भी जगाते हुए कहा-‘लगता है, चोर दीवार में ठोक रहे हैं.’

‘उस तरफ है भी खाली...!’ करीमा ने भयभीत स्वर में कहा.

‘फिर क्या करें, हमारे पास तो कोई हथियार भी नहीं है.’

दीन मुहम्मद भी डर से कांपने लगा.

‘बाहर का दरवाजा खोलकर पड़ोसी को जाकर

उठाओ.’

‘दरवाजे पर खड़े हों तो?’ दीन मुहम्मद ने अपना शक जाहिर किया तो करीमा का वजूद डगमगाने लगा.

‘अरे हमारे तो छोटे बच्चे हैं. अगर वे अंदर आएंगे तो हम क्या करेंगे?’

करीमा रोने लगी तो दीन मुहम्मद को एक तरकीब सूझी. उसने कहा-‘कोठे पर चढ़ जाता हूं. ऊपर से देखकर तसल्ली करूं, फिर वहीं से ‘चोर-चोर’ पुकारूंगा.’

यह तरकीब सोचकर दीन मुहम्मद धीरे से खाट से उठकर दरवाजा खोलकर दबे पांव आंगन से होते हुए लकड़ी की सीढ़ी पर चढ़ता हुआ कोठे पर पहुंचा. पीछे की तरफ पहुंचकर खबरदारी से सिर उठाकर नीचे की ओर देखा जहां सिर्फ

अंधेरा था. गौर से देखने पर समझ आया कि दीवार के पास होती हरकतों की परछाइयां दो गधों की थीं, जो आपस में दीवार की ओट में अपना बदन एक-दूसरे से घिस रहे थे. मास्टर सुकून की सांस लेकर नीचे उतरा. बारिश बिल्कुल बंद थी. काले आसमान में कहीं-कहीं सितारे जाहिर हो रहे थे. कोठरी में पहुंचकर सारी बात करीमा को सुनाई तो करीमा की कंपकंपाहट कम हुई और उसने इत्मीनान की सांस ली.

बेलदार बद्राल्दीन अपने आंगन में बिछी खाट पर सोया हुआ था. नींद, उससे कोसों दूर थी. कोेने में रखी बाल्टी में किसी वक्त छत से पानी की बूंद लरजकर गिर जाती. बारिश बंद थी, पर छत के उस कोने में शायद पानी ठहर गया था.

अजीब किस्म का ख्याल बद्राल्दीन को मथ रहा था. जबसे उसकी पत्नी ने इशारा किया था, तब से उसे नींद नहीं आ रही थी. वह सोचता रहा. ‘ईमान मेहमान है. मेरा तो कोई गवाह भी नहीं है. और वह बेईमान हो जाता तो क्या किया जा सकता है?’ फिर पलटकर सोने की कोशिश की. उसे खुद पर गुस्सा आने लगा. सोते में खुद से बतियाता रहा.

‘ये क्या कर बैठे हो? इतनी बड़ी खता, इतनी नासमझी! मास्टर की कितनी आमदनी है जी? मैं भी तो इतने पैसे बगैर किसी सबूत के उसे दे आया? अब क्या वह मुझे लौटा देगा?’

अंदर से ऐसे ख्यालों का तहलका मचा हुआ था. इस बार खाट पर उठकर बैठने की बजाय सीधा जमीन पर खड़ा हो गये. दरवाजे के बाहर झांका. बारिश बंद हो चुकी थी. उसने सोेचा-

‘वह ऐसे कैसे कर सकता है? मेरे हराम के पैसे नहीं हैं. मैंने पेट काटकर पैसा जमा किया है. अगर उसने कुछ खयानत की तो मैं उसका खून कर दुंगा. फिर भले ही मैं जेल चला जाऊं, पर मास्टर को पैसे पचाने नहीं दूंगा.’ कोठरी के भीतर हल्की रोशनी बद्राल्दीन के गुस्से की तरह फड़क रही थी.

कुछ देर ये ख्याल उसके मन को घेरे रहे. जब मन कुछ शांत हुआ तो उसने अपने भ्रम को बेमतलब समझा.

‘नहीं, नहीं, मैं गलत समझ रहा हूं. मास्टर ऐसा आदमी नहीं है. यह तो एकसठ हजार हैं. पर अगर इकसठ लाख भी होते तो भी मास्टर ऐसा नहीं करते. मैं अरसे से उन्हें जानता हूं.’

इस विचार से उनके मन में कुछ चैन आया. राजी जो खाट पर सोई अपने पति को देख रही थी, उसने जब बद्राल्दीन को इतना परेशान देखा तो उठकर खाट पर बैठते कहा-‘हम भी तो परेशान हैं ना. वो अगर हमारे पास होते तो क्या इतनी चिंता होती हमें?’

बद्राल्दीन ने दरवाजे के पास खड़े होकर कहा-‘एक महीना पहले चोर कादन वालों के घर से बारिश में ही तो ले गए थे! दूसरी बात बारिश में भीग न जाएं, इसी ख्याल ने मुझे दूसरी ओर सोचने ही न दिया.’

‘चोर क्या मास्टर के घर नहीं जा सकते? हम अपनी दौलत चोरों को क्या आसानी से देते? मास्टर तो चोरोें को कुछ कहेंगे भी नहीं. कौन सी अपने खून-पसीने की कमाई है उनकी?’

पत्नी की इस बात ने बद्राल्दीन के हृदय में घाव कर दिए. भीतर की आशाओं को सहारा की खुश्क रेत की तरह महसूस किया. एक इसी बात ने सभी अंगों की शक्ति ही छीन ली. उफ कहकर वहीं खाट पर पत्नी के पास बैठ गया.

रात के तीन बज रहे थे. मास्टर दीन मुहम्मद ने पत्नी से कहा-‘पेटी की चाबी तो दो’.

‘क्यों?’

‘तुम दे दो!’

करीमा ने उठकर चाबी दी. दीन मुहम्मद ने खाट के नीचे से पेटी हटाई, खोलकर उसमें से पैसों वाली थैली निकालकर पेटी बंद की. थैली को तकिये के गिलाफ में अंदर रखकर, तकिया सिर के साथ सटकाकर सोया ही था कि इतने में बाहर दरवाजे पर ठक-ठक की आवाज हुई. करीमा खाट पर उठकर बैठ गई. दीन मुहम्मद कोठी के घर के पास खड़े होकर आहट टटोलने लगा.

‘कौन है?’

‘मैं हूं बद्राल्दीन.’

दीन मुहम्मद ने आंगन से होते हुए जाकर दरवाजा खोला. बद्राल्दीन को लेकर भीतर आया. करीमा खाट पर बैठी थी.

‘पैसे संभालकर तो रखे हैं न?’ बद्राल्दीन ने डूबती आवाज में कहा. करीमा ने तकिये में से पैसों की थैली निकालकर बद्राल्दीन को देते हुए कहा-‘भैया, अपने पास जाकर संभालकर रखो.’

बद्राल्दीन ने जल्दी से पैसे लिए और रोशनी में जाकर उन्हें गिना. फिर हंसते हुए करीमा से कहा-‘बहन माफ करना. बस आदत पड़ गई है इनको सीने से लगाकर सोने की. आज इनके सिवा नींद नहीं आ रही थी.’

करीमा ने बैठे-बैठे ही पति की ओर देखा. फिर मुस्कराते हुए कहा-‘भाई, ये जड़ों से उखड़े जिसके पास हैं, उन्हें भी नींद नहीं है. जिसके पास नहीं हैं, उन्हें भी नींद नहीं.

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: प्राची - दिसंबर 2015 - जड़ों से उखड़े / कहानी / अनवर शेख
प्राची - दिसंबर 2015 - जड़ों से उखड़े / कहानी / अनवर शेख
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