प्राची - दिसंबर 2015 - काला तिल / कहानी / गुलाम नबी मुगल

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  गुलाब नबी मुगल (जन्मः 12 मार्च 1944, हैदराबाद) शिक्षा के क्षेत्र में वे 1992 में सेनानिवृत्त हुए. उनकी पहली कहानी ‘तिल’ के नाम से 1965 ...

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गुलाब नबी मुगल

(जन्मः 12 मार्च 1944, हैदराबाद)

शिक्षा के क्षेत्र में वे 1992 में सेनानिवृत्त हुए. उनकी पहली कहानी ‘तिल’ के नाम से 1965 में छपी और उनका पहला कहानी-संग्रह ‘नया शहर’ 1964 में प्रकाशित हुआ. उनके शायरी व कहानियों के 18 संग्रह प्रकाशित हुए हैं. उनके कुछ संग्रह हैं-नया शहर (1964), रात के नैन (1968), रात मेरी रूह में (1978), साठ, सत्तर, अस्सी (1989), दुआ के पैर (2002), मैं कौन हूं (2004), उनका पहला उपन्यास ‘ओराह’ (1995) सिंधी के बेहतरीन उपन्यासों के रूप में पुरस्कृत है. दूसरा उपन्यास ‘कोहरे भरी रातें और रोलाक (1997), मुझे साथ लेने दो (2002 पुरस्कृत), वतन व वेला (2008 पुरस्कृत) और हुम्माह मंसूर हजार (2012) में प्रकाशित हुए हैं.

काला तिल

गुलाम नबी मुगल

खाना खाते अचानक उसकी नजर रोटी के एक जले हुए छोटे गोल दाग पर जाकर अटकी. रोटी थी गेहूं की. रंग था सफेद. यह देखकर गिल्लू के दिल में बेचैनी बढ़ने लगी. नूरी की घुटनों तक खींची हुई, गोरी-गोरी टांगें और दाईं टांग की पिछली ओर वह चमकता काला तिल उसे याद आने लगा. निवाला गले के नीचे ही नहीं उतरा...बस कल की बीती बातों की याद में खोने लगा.

नूरी के घुटनों तक चढ़ी हुई पजामी, सफेद टांग, दाईं टांग के पीछे चमकता काला तिल, उसके लेटने का अंदाज....पास में मटकी रखी हुई. एक टांग घुटने तक पानी में डूबी, दूसरे किनारे की घास पर रखी हुई. आंखों में काजल, सजे हुए बाल, लाल होंठ, उन पर थिरकती मुस्कान. बस यही बात थी जिसने गिल्लू को परेशान कर रखा था. मर्द का खाना-पीना हराम हो गया. आखिर वह था तो इंसान ही और बड़ी बात यह कि नौजवान भी था. नूरी उसे बहुत भाने लगी. गिल्लू खुद हैरान था कि ‘यह मुझे क्या हो गया है! नूरी जिसे मैं पलटकर भी नहीं देखता था, अब वह दिल में क्यों घर कर बैठी है?’

सोचते-सोचते गिल्लू इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि नूरी के काले तिल ने उसे दीवाना बना दिया है. उसे गुमसुम देखकर मां ने पूछा-‘तुझे क्या हो गया है? खाना भी ठीक से नहीं खाते.’ इतने में उसका पिता भी घर आ गया. पत्नी की बात सुनी तो कह उठे-‘पेट भरा हुआ है. मैं भी देख रहा हूं... जिस दिन इसे ये रंग-रलियां करते देख लिया तो रही-सही कसर पूरी कर दूंगा.’

बाप को जो कुछ कहना था, कहकर चला गया. पर साहबजादे की नाराजगी बढ़ गई. मां बेटा...बेटा....करती रही, पर वह किसी की न सुनता, न परवाह करता, जूती पैर में, और अंगोछा कंधे पर, कुल्हाड़ी हाथ में लेकर चल पड़ा.

घर से निकला लकड़ी लाने के लिए, पर सीने में सुलगती जो आग थी, वह आराम कहां करने देती. इतने में सामने से आती लतीफा दिखाई दी.

पांव में पड़ी पायल की छम-छम को ज्यादा छमकाती वह उसके सामने आकर खड़ी हो गई.

‘कहां जा रहे हो गिल्लू?’ लतीफा ने नाजो-अदा से पूछा.

‘शहर’ गिल्लू ने आहिस्ते से कहा.

‘मेरे लिए क्या लाओगे?’

‘इस बार पैसे पर्याप्त नहीं हैं...फिर कभी...’

‘फिर नहीं, सिर्फ एक रेशमी रूमाल, इत्र की शीशी और कुछ सुपारी जरूर ले आना.’

इतना कहकर वह अपनी बकरियों के झुंड की ओर चली गई, क्योंकि गिल्लू की मां भी वहां पर आ गई थी.

‘रूमाल और इत्र. सूरत भी है रूमाल और इत्र जैसी!’

गिल्लू खुद से बातें करता हुआ हंस रहा था.

जैसे-जैसे उसके कदम आगे बढ़ते रहे, वैसे उसके ख्याल तेज भागते रहे. गिल्लू को फिर नूरी की याद सताने लगी-काला तिल! गिल्लू को एक बात का रंज हुआ. शायद नूरी उससे बात करना भी पसंद न करे. उसने भी तो बहुत बुरी तरह से डांटा था. बिचारी ने कितने संदेश भेजे, पर उसने मुड़कर भी नहीं देखा. उसे तो बस लतीफा ही लतीफा नजर आती थी. दिल में लग गई थी. लतीफा!

‘लतीफा नूरी से

अधिक सुंदर है. लतीफा के होंठों पर गुलाब के फूल-सी ताजगी है. उसकी बड़ी-बड़ी गोल आंखें, चौड़ी पेशानी, गुलाबी चेहरे पर दाएं गाल पर तिल..! पर नूरी की गोरी-गोरी दाईं टांग पर चमकता काला तिल, लतीफा के चेहरे के तिल से ज्यादा पुरकशिश था. नूरी का तिल, तिल नहीं था, जैसे किसी रेगिस्तान के बीचोबीच एक मीठे पानी का चश्मा!’

लतीफा को गिल्लू से मुहब्बत थी और मुहब्बत भी क्यों न हो. दोनों की शादी की बातचीत चल रही थी और लगभग तय ही थी, पर गिल्लू को अफसोस होने लगा था.

इन्हीं ख्यालो में गिल्लू आगे बढ़ता रहा. कुल्हाड़ी कंधे पर, अंगोछा कमर में बंधा हुआ था, पर सभी ख्यालों का बिंदु रहा नूरी का काला तिल!

चलते-चलते गिल्लू को बेर की झाड़ियों के पास नूरी नजर आई. गिल्लू तो जैसे उसके इश्क में दीवाना हो गया था. उस तरफ वह भी झाड़ी को टेक दिए, कच्चे बेर तोड़ती रही और मुंह में इस अंदाज में उछालकर खाती रही कि गिल्लू उसकी ओर खिंचता ही चला गया. मन को बहुत समझाया, खुद को फिर भी उसके पास जाने से रोक न पाया.

‘कौन, गिल्लू! यहां आए हो? लतीफा तबेले में है.’

‘तुम अब मुझे ताने दे रही हो.’

‘मैं कौन होती हूं, जो तुम्हें ताने मारूं?’

यह सुनकर गिल्लू ने एक ठंडी सांस ली.

‘ठंडी आहें भर रहे हो, क्यों? क्या लतीफा ने कोई और ढूंढ़ लिया है क्या?’

‘बार-बार लतीफा का नाम क्यों ले रही हो?’

‘तो और किसका नाम लूं?’

‘उसका, जो मेरी आंखों में तुझे दिखेगी.’

इतने में एक बछड़ी आकर नूरी से खेलने लगी. खेलते-खेलते उसकी पजामी घुटनों तक खिंचती गई. यही तो गिल्लू की चाहत थी. गोरी टांग पर चमकता काला तिल देखना. उसे अपनी टांगों की ओर देखता देखकर नूरी शरमा गई और उसने जल्दी से अपनी पाजामी नीचे खींच ली.

शाम होती गई. गिल्लू भी लकड़ियों की गठरी लेकर घर पहुंचा. बस आते ही मां से आग्रह करने लगा कि किसी भी तरह उसकी शादी नूरी से करा दे.

‘मुर्दार, क्या मुझे बस्ती में बदनाम होना है? अभी कल ही लतीफा की मां ने इस बात को छेड़ा था!’

‘कहो कि बेटी को अपने पास रखे, हमें उसकी जरूरत नहीं. तुम आज ही नूरी के घर चली जाओ.’

‘पागल हो गए क्या?’

‘बस, जो मैं कहता हूं वही पत्थर की लकीर है.’

बिचारी मां विचलित व परेशान हो गई. अब करे तो क्या करे? जान पर बन आई. पति से बात छेड़ी. वह तो पहले ही अपना संतुलन खो बैठा था. कुल्हाड़ी कंधे पर रखी और घर से बाहर निकलते हुए कहा, ‘अभी तो दिल्ली दूर है... गठरी भी भारी है. कल तुमसे कहेगा पूरे गांव से शादी करवा दो. मैं तो कहता हूं, उस हरामी को घर से ही निकाल दूं! बेकार की चार लोगों के बीच शर्र्मसार हो जाओगी!’ सुनकर मां को तो जैसे लकवा मार गया. यहां गुल्लू भी उठते-बैठते लड़ता-झगड़ता. आखिर ममता ने छीली मारी और एक दिन चली गई नूरी के घर. कुछ देर बाद घर लौटी तो गुल्लू को देखते ही कहा, ‘बेटा मुबारक हो, अगले बुधवार को तेरी मंगनी तय की है नूरी के साथ.’ यह सुनते ही गुल्लू खुशी से नाच उठा. ‘वाह रही अम्मा, वाह!’ कहकर उसे गले लगाता रहा.

लतीफा ने जब मंगनी की खबर सुनी तो उसका माथा चकराने लगा. बहुत कोशिशें की, गुल्लू को समझाती रही. अनुनय-विनय करती रही, पर गुल्लू ने मुंह फेर लिया. कोई उत्तर नहीं दिया.

अभी मंगनी को एक महीना भी नहीं बीता कि गुल्लू मां के पीछे पड़ गया कि अगली पूर्णमासी पर उसकी शादी हो जाए.

शादी को दो हफ्ते गुजर चुके थे. दूल्हा और दुल्हन दोनों खुश थे. मां बेटे को खुश देखकर सदका उतारती रही. गुल्लू के दिन ईद की तरह और रातें उसके ख्वाबों की तामीर थीं.

नूरी की गोरी-गोरी टांगों पर चमकता काला तिल, तिल तो क्या, नूरी ही हमेशा के लिए उसकी हो चुकी थी. कई बार उसे देखता और मन-ही-मन बहुत खुश होता. कभी वह नूरी से कहता-‘नूरी बचपन में मैने जो पत्थर तुम्हारी दाईं टांग पर मारा था, उसका निशान तो दिखाओ!’

नूरी मुस्कराकर बड़ी नजाकत के सथ पजामा ऊपर की ओर उठाती गुल्लू पत्थर के निशान को तो देखता ही न था, पर उस चमकते हुए काले तिल को वह देखता ही रहता. उसे यूं घूरते हुए देखकर पूछती, ‘क्या देख रहे हो?’

गुल्लू जैसे नींद से जाग उठता और जल्दी में कहता, ‘नहीं नहीं, ऐसे ही देख रहा था.’ यह सुनकर नूरी चुप हो जाती और हैरत से उसकी ओर देखती.

एक दिन गुल्लू खाट पर बैठा था. बाजरे की रोटी और लस्सी का गिलास उसके सामने था. नूरी नीचे बैठकर हाथ-मुंह धो रही थी और फिर वह पैर धोने लगी.

गुल्लू ध्यान से उस काले तिल को देखता रहा था. इतने में उसकी मां आ गई और उसका ध्यान बंट गया. शायद वह न आती तो वह उठकर नूरी के उस चमकते तिल को चूम लेता.

इस बीच नूरी ने घुटनों तक अपनी टांगों को मल-मलकर धोया. गुल्लू को यह देखकर हैरानी हुई कि पानी पड़ने पर वह दाग की तरह मिटता गया.

‘अरे ये क्या हुआ?’

‘जी’ नूरी ने उसकी ओर देखकर कहा.

‘यह तिल कहां गया?’

‘तिल! ये तो बनावटी है. लतीफा की ठोढ़ी के पास मैंने तिल देखा था. वह देखकर मैं भी बनाने लगी.’

यह सुनकर गुल्लू के तो जैसे होश उड़ गए. उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? अभी वह वहीं बैठा था कि उसने देखा नूरी सामने की खाट पर बैठकर, काजल से अपनी गोरी-गोरी टांग पर वही तिल बनाने लगी.

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रचनाकार: प्राची - दिसंबर 2015 - काला तिल / कहानी / गुलाम नबी मुगल
प्राची - दिसंबर 2015 - काला तिल / कहानी / गुलाम नबी मुगल
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