प्राची - दिसंबर 2015 - रिश्ता / कहानी / तारिक आलम अबरो

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तारिक आलम अबरो जन्म 10 अप्रैल 1958 में कम्बर में लारकाणे 1962 में सिन्धी यूनीवर्सिटी से सिन्धी में एम.ए. की. उनका पहला कहानी संग्रह ‘राज...

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तारिक आलम अबरो

जन्म 10 अप्रैल 1958 में कम्बर में लारकाणे

1962 में सिन्धी यूनीवर्सिटी से सिन्धी में एम.ए. की. उनका पहला कहानी संग्रह ‘राज शांत और सोचें’ और उनका नॉवल, ‘रह गए वो मंजर’ 1984 में प्रकाशित. इस नावल पर इंस्टीट्यूट ऑफ सिन्धीयोलॉजी की तरफ से उन्हें बेहतरीन अदब के अवार्ड से निवाजा गया. 1998 में उनका कहानी संग्रह ‘पहचान की तलाश’ प्रकाशित हुआ. इस वक्त वह सिन्ध यूनीवर्सिटी कॉलोनी जामशोरो में रहते हैं.

रिश्ता

तारिक आलम अबरो

पानी की चुस्की भरते हुए महसूस हुआ, ख्वाब जहन में आने की बजाय ग्लास में उतर आया हो, ऐसा ख्याल आते ही मसूर के होंठ ग्लास के शिष्ट किनारे पर थम गए.

‘ख्वाब का कोई जायका भी होता है?’ मसूर ने सोचा. उसके होंठ जवाब की तलाश में ग्लास के किनारे को चूमने लगे, ‘ख्वाब का भी पानी की तरह बेनाम जायका होता है. ख्वाब का तो कोई रंग भी नहीं होता है. ख्वाब, पानी की तरह पारदर्शी होता है, जिसकी सतह पर बेपनाह ख्वाहिशों की रोशनी जब भी अपनी उंगलियों से छूती है, तो ख्वाब पानी में कितने ही अलग रूपों में उभरता है, ख्वाब पानी जैसा ही कुछ है या शायद सहरा में पानी के घूंट के लिये छलांग भरते हिरन की नाभि में छुपी खूशबू की सुगंध है!

ख्वाब जीवन का हिस्सा रहे हैं, या उसका जीवन किसी मुसलसल ख्वाब का हिस्सा, दोनों एक दूसरे में घुले मिले हैं.

बचपन में मां के चेहरे को हाथों में पकड़कर आशिक की तरह देखने लगा था. मां ने पूछा था-‘‘क्या देख रहे हो राणा?’’

‘‘तुम ख्वाब हो क्या?’’ फिर पूछ बैठा था. मां मसूर के मासूम सवाल पर मुस्करा उठी. मुस्कराते जवाब दिया था-‘‘मैं ख्वाब नहीं तुम्हारी अम्मा हूं.’’

सालों बाद...जब घर के आंगन में मसूर की हम-उम्र नीम के पेड़ ने अट्ठारह साल की चौखट छुई, तो उसकी नन्हीं नाजुक डालियों पर लगी निमोड़ियां आंगन के कूएं को ढांप लेती. गर्मियों में गूंगी हो गई दुपहरी में, रोशनदान पर खेलते पक्षियों की चर-चर पूरे घर में गतिमान हो रही थी. कुछ दूर ही खेत के किनारे पर उग आई बेरों की फसल की हलचल, वरांडे में खाट पर लेटी अम्मा के सोए सीने में दर्द की लहर बनकर उभर आई और मसूर से मां छीनकर चली गई. मसूर ने, मां के पाक चेहरे को जवान हाथों में पकड़कर भोलेपन के साथ अपना सवाल दोहराया-

‘‘अम्मा, तुम ख्वाब हो क्या...?’’

पर जवाब में मां को लाजवाब देखकर बेचैन हो गया था. उतावली में मां के गालों पर हाथों की पकड़ पुख्ता करके आंसुओं को रोकते हुए चीखा था-

‘‘तुम ख्वाब हो क्या अम्मा, ओ मेरी अम्मा...मां’’

बड़ा भाई दुलार करते हुए उसे बाहर ले गया था. बाहर आकर भाई के आगोश से खुद को आजाद करवाकर टूटी हुई सुमिरनी की तरह कालीन पर बिखर गया. सिसकियां, आंसू और मसूर घुल मिल गए थे.

शाम को सिसकियों और आंसुओं से जुदा हुआ तो डायरी में लिखा था-हम मुसलसल ख्वाब में जी रहे हैं, जिसमें से जब भी कुछ लम्हों के लिये जागते हैं, तो किसी न किसी को खो बैठते हैं.

कभी अगर ख्वाबों के बीच में से जागा तो महसूस हुआ था, जैसे किसी ने उसके होंठों से लगे ग्लास को छलका दिया हो. ऐसे छलके हुए ख्वाबों से चौंककर जागने पर वह तुरंत कपड़े झटकने लगता था. रात को छलकते ख्वाब से जागने पर कमीज झटकने की बजाय, वह जैसे ही बेडरूम का दरवाजा खोलकर बाहर जाने लगा था, रूप जागकर मसूर की नंगी पीठ पर पल भर के लिये हैरान निगाह से देखते हुए उनींदे लहजे में पूछ बैठी-

‘‘कहो?’’

‘‘ख्वाब कमीज पर छलक गया है.’’ उन्मादी आवाज में कहा था-‘‘टांगने जा रहा हूं.’’

‘‘कमीज को या ख्वाब को?’’ निद्रालू मुस्कान से पूछा था, और मसूर के जवाब के इंतजार के बिना चादर लपेटकर सो गई थी, शायद वह पहले दिन से ऐसी हालात की आदी हो चुकी थी.

जिस दिन रूप की गाड़ी शहर का जटिल मोड़ पार करते सुनसान रास्ते के बीच अचानक झुककर कुछ उठाते हुए मसूर से टकरा गई थी, हैरत से ब्रेक लगाकर, स्विच ऑफ करके उसकी ओर बढ़ी थी. वह उस वक्त घुटनों के बल बैठने की कोशिश कर रहा था. सर से खून की लकीर दायें भौंह से रास्ता बदलकर गाल की ऊपरी हड्डी के पास आकर विरामी हुई.

‘‘ये आप बीच राह में क्या कर रहे थे?’’ सब ने आगे बढ़कर उठाने में मदद करते हुए पूछा. उसने खुद को संभालते हुए रूप की ओर देखे बिना कहा था-‘‘तितली’’

‘‘जी.’’ रूप ने नासमझी में कहा था.

‘‘उठा रहा था कि कहीं किसी पहिये के नीचे न आ जाय.’’ कहते हुए मसूर ने पूरी तरह से अपनी मुट्ठी खोल दी. रूप ने मसूर के दायें हाथ की खुली हुई हथेली पर रखी एक तितली की ओर निहार कर विस्मित होते हुए कहा-

‘‘पर यह तो मरी हुई है.’’

‘‘हां, पर फिर भी है तो तितली ही ना!’’ मसूर जवाब देकर कुछ ढूंढ़ने लगा, तो उसकी नजर कार के आगे वाले पहिये के पास पड़ी डायरी पर ठहर गई. रूप ने डायरी उठाकर उसकी ओर बढ़ा दी थी.

‘‘मेहरबानी!’’ उसने कहा था और तितली को डायरी में संभाल कर रखा और चलने को हुआ.

‘‘आपके सर पर चोट लगी है.’’ कहते हुए रूप ने ड्राइविंग सीट पर रखे टिशू बॉक्स से कुछ टिशू निकालकर मंसूर की ओर बढ़ाये. उसने आगे बढ़कर टिशू पेपर लेते हुए रूप के चेहरे पर लहराती सफेद बालों की लट देखी और मेहरबान आंखों में झांका तो पल भर के लिये उनमें अपनी मां की परछाई पाई.

‘‘आओ, आपकी मरहम पट्टी करवा दूं.’’ रूप ने कहा था.

मसूर, टिशू लेकर चेहरे से लगभग जम गए खून को पोंछते हुए कहता रहा-‘‘मेहरबानी. मेरे जख्मों को तुम्हारे दिये हुए टिशूज से ज्यादा किसी भी फर्स्ट एड की जरूरत नहीं.’’

रूप को वह किसी दीवाने जैसा लगा, कुछ देर वह उसके लापरवाही से उठते कदमों को निहारती रही. रूप की निगाह मसूर के कदमों को निहारती रही. रूप की निगाह मसूर के कदमों से लिपट गई थी. उसने अपनी जागरूक नजरों का

ध्यान रोड की ओर मोड़ा और कार स्टार्ट करके मसूर के रोड क्रॉस करते ही आगे बढ़ी थी. उसकी निगाह बैक मिरर में दुबारा उसके कदमों में लिपट गई थी. वह चाहने पर भी बैक मिरर पर से अपनी नजर हटा न पाई थी. कार को एक तरफ पार्क करके मसूर को बैक मिरर से अपनी ओर आते देखती रही. मसूर, रूप की कार के पास आने लगा. वह दरवाजा खोलकर बाहर निकली, उसकी ओर मुड़ी और कहने लगी-

‘‘सुनिये!’’

मसूर रुककर खड़ा रहा.

‘‘आप कहां जाएंगे?’’

‘‘आप चलेंगी?’’ जवाब देने की बजाय मसूर ने सवाल किया था. वह लम्हे के लिये ठिठकी थी, फिर दूसरे लम्हे न जाने किस यकीन के तहत कहा था-‘‘जी.’’

‘‘मसूर ने फ्रन्ट सीट पर बैठते हुए कहा था-फ्रेयर हॉल.’’

रूप ने गियर बदलकर क्लच पर से पैर हटा दिया था. गाड़़ी के बदलते गियर के साथ बातों का गियर भी बदलने लगा.

‘‘मेरा नाम रूप है.’’

‘‘मैं मसूर हूं! तस्वीरें बनाता हूं.’’ कुछ रुककर फिर कहा-‘‘जानकारी बेचा करता हूं.’’

‘‘मसलन?’’

‘‘कितने ही डायरेक्टर्स की सीरियल्स की लाइटिंग और खूबसूरत फ्रेमिंग में मेरी आंख का सौंदर्य शामिल है. कुछ नाम वाले किरदारों के अहम परिदृश्य मेरी फोटोग्राफी की पैदाइश हैं.’’

‘‘फ्रेयर हॉल ही क्यों चल रहे हो?’’

‘‘बहार के फूलों की पहली नुमाइश है.’’

‘‘वहां फोटोग्राफी करोगे?’’

‘‘नहीं, तवील नाटक की चरमावस्था वाले सीन के लिए कैमरा स्थापित करने के लिये पहले से परियोजना करनी है.’’

‘‘आप मुझसे नहीं पूछेंगे कि मैं क्या करती हूं?’’

‘‘मेरा विचार है आप प्रसाधिका हो.’’

रूप अविश्वसनीय निगाहों से मसूर को घूरने लगी.

‘‘इस तरह क्यों देख रही हैं?’’

‘‘आपने कैसे जाना?’’

‘‘आपकी गाड़ी की विंडस्क्रीन के कोेने पर चिपके हुए स्टिकर को देखकर.’’

‘‘ओ...हो...’’ रूप तनाव मुक्त हंसी हंसते हुए कहने लगी-‘‘आप जाहिरी तौर पर इतने हाजिर दिमाग नजर नहीं आते जितने हो.’’

‘‘जिसे आप हाजिर दिमागी समझ रही हैं, वह तो मेरे व्यवसाय का हिस्सा है.’’

‘‘मेरे ख्याल से आप की उम्र मुश्किल से तीस साल

होगी.’’

‘‘पर मेरा तजुर्बा आपकी उम्र से दुगुना है.’’ बात कहने के दौरान मसूर ने उसके चेहरे पर लहराती दूधिया लट की ओर देखा और फिर विंड स्क्रीन में देखने लगा था.

वह तमाम दिन रूप, ब्यूटी पॉर्लर को अपने सहयोगी के हवाले छोड़कर, शहर की गगनचुंबी इमारतों, बाजारों, बगीचों, पटरियों को बदलते कोणों की रोशनी में मसूर की निगाह से देखती रही और हैरान होती रही. पैंतालीस सालों से रूप ने अपने शहर को इतना अलग, इतना हसीन पहली बार देखा था. उसे पहली बार अहसास हुआ था कि रंगों का, रोशनी से कितना गहरा संबंध है. कितने थोड़े-थोड़े समय में भी परछाइयों का बढ़ना और घटना, शहर के बाजारों और बस्तियों के मूड बदलने में अपना असर दिखाता है. रूप को शहर की अलग-अलग बस्तियों और बाजारों का निरीक्षण करते अपनी प्रोफेशनल जिंदगी में आए कितने ही चेहरे यादों में आते रहे. उसने सोचा-‘कुछ चेहरे सरसब्ज बागों की तरह होते हैं, कुछ ऊंची इमारतों की तरह, कुछ मस्जिदों जैसे पाक, तो कुछ कच्ची मिट्टी से जुड़े हुए सादा मगर पुरकशिश. नेपियर रोड की खिड़कियों को देखते उसे एक से कितने चेहरे याद आ गए थे जिनके चेहरों को मेकअप करते औरत होने के बावजूद उसने अपने वजूद में खून के प्रवाह को तेज होते हुए महसूस किया था.

उसी शाम मैरियट में बैठकर कॉफी और सिगरेट पीते हुए मसूर ने रूप के चेहरे पर झूमती सफेद बालों वाली लट को उंगलियों में पकड़ कर उसके नयनों में दूरबीन से देखते हुए कह दिया-

‘‘तुम कोई ख्वाब तो नहीं हो?’’

रूप, मसूर के सवाल से ज्यादा उसके लहजे की मासूमियत पर मां की तरह मुस्करा उठी थी, जिसकी छांव में खाट रखकर उसकी मां बीड़ी के कश लेकर, पड़ोस की औरतों के साथ कचहरी करती थी और वह उसके पास बैठ कर उस धुएं में से मां की सांसों और उसके जिस्म की खुशबू को अपने सीने में संजोता था.

रूप, कॉफी का मग टेबल पर रखकर पता नहीं कौन-सी सोच में खो गई थी. मसूर ने अपने दोनों हाथ रूप के हाथ पर रखकर धीरज के साथ कहा था-

‘‘रूप, मुझसे शादी करोगी?’’

रूप के सर से बिजली की गड़गड़ाहट जैसे पार होकर पांव के तलवों से निकल कर कॉफी हॉल के कालीन में गायब हो गई थी. वह कुछ देर टेबल पर रखे गुलदान के फूलों की ओर बिना सोच के देखती रही और फिर असामान्य हंसी हंस दी.

रूप को उस पल अपने वो दोनों पति याद आए थे, जिनमें से पहले वाले ने उसे इसलिये छोड़ दिया था, क्योंकि वह उसे बच्चा नहीं दे सकी थी और दूसरे ने उसके साथ इसलिये शादी की थी क्योंकि उसकी पहली पत्नी, बच्चे के जन्म के बाद गुजर गई, जिसे संभालने के लिये एक अच्छी मां की जरूरत थी. बच्चा, जो जहनी तरह से असामान्य पैदा हुआ था, उसे

रूप अपनी जिन्दगी का मकसद समझकर पालती रही, पर आखिर वह बच्चा भी दस साल की उम्र का होकर उससे जुदा हो गया था. ऐसी हालात में रूप जहनी दवाब का शिकार बन गई थी. उन दिनों रूप को कुदरत से हर वक्त एक ही शिकायत रहने लगी थी कि आखिर उसने इस मासूम बच्चे के पालन में कौन सी कमी की थी जो वह सहारा भी उससे छीना गया था, जो रूप की खुशियों और व्यस्त रहने का सबब था. रूप की बच्चे के लिये इतनी चाह देखकर, उसका दूसरा पति भी उससे दूर होकर दूसरी औरतों में व्यस्त रहने लगा था. हर वक्त मानसिक दबाव की शिकार हुई औरत के साथ रह नहीं सका. रूप को उसके भाइयों ने वापस लंदन बुला लिया. लंदन पहुंचकर रूप धीरे-धीरे सामान्य लाइफ शुरू करने के लिये ‘बूट्स’ के मॉल में कास्मेटिक शॉप में नौकरी करते हुए उसने ब्यूटिशियन का कोर्स पूरा किया और दोबारा पाकिस्तान आकर मेन तारिक रोड पर ब्यूटी पार्लर खोला था. आते ही रूप ने अपने पार्लर के हवाले से कराची में बेमिसाल फैशन शो करवाकर शहर की पॉश सोसाइटी में अपनी पहचान बना ली. एक साल में ही मुल्क के जानी-मानी अंग्रेजी पत्रिकाओं में छपने वाली मॉडल का मेकअप उसकी ही मेहरबानी से पत्रिकाओं की खूबसूरत छवि बनने लगी. रूप के लिये व्यस्तता जीने का बहाना बन गई. वह बिना आराम के यूं ही जीना चाहती थी, पर मैरियट के कॉफी हॉल में अट्ठाइस साल के गबरू नौजवान के वाक्य ने एक बार फिर रूप को अशांत कर दिया. उसे मंसूर की नीम दीवानगी में प्यार से पाली अपने दूसरे पति की औलाद के एबनार्मल जुनून की झलक दिखाई दी थी. लम्हे के लिये उसने सोचा था-वह अगर जवान होता तो दुनिया को मसूर की दृष्टि जैसा सुंदर ही देखता.

लम्बी सांस लेकर रूप ने सिगरेट को ऐश-ट्रे में फेंक दिया और नेल पॉलिश लगे नाखूनों से टेबल पर बेख्याली में जलतरंग बजाने लगी थी.

वह रात, मसूर उसके बेडरूम में सोया था. रूप उस रात मसूर में मौजूद मर्द का समस्त रूप देखती रही थी. एक मजबूत नौजवान, एक परिपक्व शख्स, और एक बिल्कुल ही मासूम बालक जो आखिर में उसके वजूद में सिकुड़ता रहा.

सुबह हुई. मंसूर उसकी सफेद लट को चूमकर चला गया था. रूप ने समझा, अब मंसूर नहीं आएगा, पर ऐसा नहीं हुआ. वह तब तक आता रहा जब तक रूप ने उसके साथ शादी नहीं की थी. उस रात को मिलाकर मंसूर के साथ गुजारी एक हजार पचानवें रातों और दिनों में रूप ने उसके हजारों पहलू देखे थे, पर उनमें कई मंजरों में मदरलेस चाइल्ड वाली झलक पाई थी. यही कारण था कि तन्हाइयों में वह रूप को मासूम बच्चे की तरह बेजार करता रहता था. उसके अधिक मित्र शहर के बागों में दौड़ते गिलहरी कौवे, बत्तख और पड़ोस के कुत्ते थे. रूप जब जब भी मसूर के साथ उन बागों में गई थी तो उसे हमेशा महसूस हुआ, जैसे ये सभी पक्षी और नन्हें जानवर उसकी राह तकते रहे हों! उसे देखते ही शाखों से उतरकर, बेझिझक आकर उसके आस-पास फैल जाते, और मंसूर लिफाफों में लाई चीजें उनकी ओर बढ़ाता रहता था. यह सब तो अपनी जगह मगर मंसूर बाग के कुछ पेड़ों से ताल मिलाकर, हंसते-हंसते उनसे बतियाता. रूप को इस बात पर तो यकीन नहीं हो रहा था, जब पेड़ की शाखों से कुछ परिंदे उड़कर, मंसूर की खुली हथेली पर रखी ब्रेड के टुकड़ों को चुगने लगे थे.

रूप ने बीते तीन सालों में यह भी साफ-साफ महसूस किया था कि शहर के पक्षी और जानवरों में जितने मसूर को प्यार करने वाले थे वह खुद भी उनके बीच खुश रहता था, उतना ही वह रोज मिलने वाले आदमियों और मेहमानों से घबराता और कतराता था.

ख्वाब से अचानक चौंक कर उठने वाली रात को रूप ने उसे बेडरूम से बाहर जाते देखा था. उसकी सोच में विघ्न डालने की बजाय कुछ हल्के से कहते वह चादर ओढ़कर सो गई थी. उसे लगा कि मसूर ख्वाब में अपने टी.वी. नाटक के सीन को किसी नए कोण में फ्रेमिंग करते हुए जाग उठा होगा, क्योंकि वह जब भी किसी नाटक पर काम करता था, तो नींद में उसकी सोच अपने सतत काम के बारे में ख्वाब की सूरत अख्तियार कर लेती थी. वह सचेत जागरण व निंद्रा के बीच में बेडरूम से निकलकर स्टडी रूम में चला जाता था, और अपनी निजी डायरी में ख्वाब में उभरी अद्भुत कल्पना लिख देता था. सुबह होने के बाद यह बात उसे याद नहीं रहती थी. मसूर अगस्त में बरसते आसमान में धुले हुए सितारों के झुरमुट तले, कमीज को तार पर टांगने की बजाय, हाथों में मरोड़कर, बारिश से भीगे टेरेस पर आकर रॉकिंग चेयर पर बैठ खुद भी झलक पड़ा था. समुद्री हवा रात की रानी की महक से नहाई, पता नहीं मसूर के सचेत जहन को किस दिशा में ले गई थी. उसकी सिसकियों से रॉकिंग चेयर भी आगे पीछे हिचकोले खाने लगी थी.

ऐसा बहुत कम हुआ था, कि ख्वाब से जागकर सितारों भरे आसमान के नीचे आकर सिसक उठा हो, पर उस रात पता नहीं उसने ख्वाब में ऐसा क्या देखा जो उसे निरंतर रुलाता रहा.

कितनी देर मसूर और रॉकिंग चेयर रोते रहे, पर उसकी सिसकियां कम होने की वजह रॉकिंग चेयर ने भी हिचकोले खाने बंद कर दिये.

सुबह जब वह नींद से जागा था तो रूप ने निचले होंठ को बीच रंग भरती भूरे रंग की लिपस्टिक वाला हाथ रोककर, ड्रेसिंग टेबल के आइने से उसकी ओर देखते हुए करुणामयी मुस्कान से पूछा था-‘‘प्यारे, रात तारों की तपिश में तुमने छलके ख्वाब से नम कमीज को सुखाया था, या कमीज पर छलका हुआ ख्वाब तुम्हें सुखाने में कामयाब हुआ था?’’

‘‘क्यों रात फिर कुछ हुआ था क्या?’’ मंसूर अज्ञानता से ड्रेसिंग टेबल के आइने में नजर आते रूप के मेहरबान चेहरे की ओर रिक्त चेहरे से तकने लगा.

‘‘नहीं! रूप ने होंठ के बाकी हिस्से को भूरे रंग से रंगते हुए कहा-‘‘रात मैंने ख्वाब में देखा था, कोई ख्वाब तुम्हारी कमीज पर पानी की तरह छलका था और तुम नींद से जागकर अपनी ख्वाब से भीगी कमीज को उतारकर सुखाने के लिये टेरेस की ओर चले गए थे.’’

‘‘अच्छा!!’’ वह पलंग पर पलथी मारकर अजब से रूप को देखने लगा था. रूप ने कार्नर टेबल से चाबियों का गुच्छा उठाया, दरवाजे की ओर जाते हुए कहती गई-‘‘नाश्ता टेबल पर रखा है. चाय बनाकर पी लेना, अगर थर्मस में रखी हुए पसंद न आए तो! कार छोड़कर जा रही हूं, आज आपको रिकार्डिंग के लिये ग्यारह बजे पहुंचना है और इस वक्त दस बजे हैं. जाने के पहले फ्लैट के दरवाजे को खुला नहीं छोड़ना प्लीज, प्लीज, प्लीज,’’ कहते हुए रूप बेडरूम से निकल गई थी.

मसूर बेड से उठा, तैयार होकर डाइनिंग टेबल के पास आया. दो उबले अंडों में से एक पर काली मिर्च और नमक छिड़ककर रात वाले ख्वाब के बारे में सोचने लगा. उसने अंडा खाकर खत्म कर दिया था, पर ख्वाब उसके चित्र में नहीं आ पाया. उसने बाथरूम में शेव करते, शॉवर लेते, कपड़े बदलते हुए उस ख्वाब को याद करना चाहा. अंडा खत्म करते उसने संतरे का जूस ग्लास में भरा, पर फिर जाने क्या सोचकर जूस का ग्लास वापस रखकर, सादे पानी का ग्लास भरकर जब लबों से लगाया तो उसे महसूस हुआ जैसे ख्वाब जहन में आने की बजाय ग्लास में उतर आया हो. पर पानी का ग्लास खाली हो जाने के बाद भी प्यास जैसे उसकी जबान पर तपती रेत की तरह उड़ने लगी थी और ख्वाब जहन की सहरा में सरसब्ज हरित भूमि बनकर उसका मजाक उड़ाता रहा.

मसूर चाहता था कि किसी तरह ख्वाब को ग्लास में उतार ले. उसने सोचा-‘कभी-कभी कुछ याद करने के बावजूद कुछ भी याद नहीं आता है तो दिमाग को जबान के साथ एक पदग्रहण (कंठ) भी हो जाता है, जिसमें याद न आने वाली बात, प्यास की तरह कांटा बनकर चुभने लगती है, और यह चुभन याद करने की ख्वाहिश को और बढ़ा देती है.

ऐसा कम ही हुआ होगा कि उसके जहन में एक आंकड़ा उत्पन्न हुआ हो और वह उसी नपे-तुले ख्वाब के व्याख्यान को ग्लास में न उतार पाया हो. पर कल रात वाले ख्वाब ने उसे ज्यादा परेशान कर रखा था.

क्या था? क्या था? क्या था? मंसूर ने याद करने की कोशिश में संतरे की जूस के घूंट भरे. अचानक डायरी का ख्याल आते ही समूरी जूस पीकर खाली ग्लास रखा. स्टडी रूम में आकर डायरी में ताजी तारीख के पन्ने पलटे और कुछ खाली पन्नों को देखने लगा. उसे समझ नहीं आ रहा था कि ख्वाब क्यों नहीं लिखा था. वह बालकनी से स्टडी रूम में से निकल कर टेरेस पर आ गया. आसमान मटमैले बादलों से लदा था. सातवें फ्लोर से विशाल समुद्र का मंजर और शोर हमेशा की तरह वही रहा. मसूर ने समुद्र से निगाह हटाई तो रॉकिंग चेयर की ओर उसकी नजर गई, जहां उसकी कमीज पड़ी थी. तभी उसे कुछ-कुछ याद आया. उसने झट से अपनी कमीज उतार दी थी और इससे ज्यादा उसके जहन में कुछ नहीं आ पाया था. तब बेचैनी से उसने गर्दन को हिलाया और कमरा क्रास करते ड्राइंग रूम में रखा अपना जरूरी सामान उठाया, दरवाजे के पास टंगी फ्लैट और कार की चाबियां जेब में डालीं और दरवाजा खोलकर बाहर निकल आया. उसने फ्लैट का दरवाजा बंद करने के पहले एक बार जेब में चाबियां हैं, इस बात की तसल्ली की और दरवाजा बंद करके दो बार हिलाकर यकीन कर लिया कि इन्टरलॉक मुकम्मिल तरह से बंद हो चुका था. लिफ्ट से नीचे पहुंचकर पार्किंग लॉट में खड़ी कार की तरफ बढ़कर ड्राइविंग करके लोकेशन पर पहुंचने तक उसका दिमाग रोड की तरफ कम ख्वाब की तरफ ज्यादा था.

उस वक्त रात के तीन बजे थे, शायद जब ख्वाब के बीच से वह जाग उठा था उसने सोचा-रात के उस पहर में अक्सर ख्वाब आते हैं. रात का यह पहर कितना प्रभावी होता है, वीराने में अंधी गहरी गुफा जैसा किसी धनाढ्य के भीतर जैसा पुरइसरार, हठीला, बेअंत गहरे राजों से भरा हुआ. रात के उसी पहर में आने वाले ख्वाब दिमाग की भीतरी तहों में उतर जाते हैं, जो सुबह को हजार चाहने पर भी याद नहीं आते. ये वही पहर हैं, जिसमें चोर रोजगार के लिये तैयार होकर निकलते हैं, और सिन्ध के गावों में आशिक महबूबाओं से मिलने के लिये यही पहर चौकीदारों के इम्तहानों का होता है. उस पहर में तो सितारों पर भी नींद की मदहोशी छाई रहती है, पर इस पहर में ये कौन सा ख्वाब था जो मसूर सोचते-सोचते शहर के चौक, सिग्नलस लांघता रहा. इस दौरान कई जगहों पर क्रास करती गाड़ियां, सामने आती ट्रैफिक हॉर्न बजाकर उसकी गलत ड्राइविंग का उसे अहसास दिलाती रही.

रात के नौ बजे थे. रूप ने डाइनिंग टेबल पर रखे, फ्रूट बासकेट में से सेब निकालकर काटना चाहा. फोन की घंटी बजी, उसने छुरी और सेब टेबल पर रखकर फोन उठाया.

‘‘हैलो...जी, जी...मिसिज मसूर ही बात कर रही हूं.’’

उसके बाद रूप ने दूसरी ओर से जो सुना वह उसे झकझोरने के लिये काफी था. वह रिसीवर को रखने की बजाय दोनों हाथों में पकड़े, छाती से लगाकर ड्राइंग रूम के बीचों बीच पालथी मारकर बैठी रही थी, जैसे कोई घर में घुस आए दहशतगारों से बचने के लिये, घर को कोने में सिमट कर बैठने के बावजूद असुरक्षित महसूस करता हो.

किसी ने घर की कॉल बेल बजाई थी. एक बार, दो बार और कई बार, तब रूप को अहसास हुआ था कोई दरवाजे पर मौजूद है. उसने खौफ की चादर ओढ़कर दरवाजा खोला था, सामने मसूर का डाइरेक्टर दोस्त गर्दन झुकाकर खड़ा था.

‘‘कैसे हुआ?’’ रूप ने बात करने की कोशिश की.

वह जवाब देने की बजाय, रूप को सहारा देकर नीचे ले आया अब उनकी गाड़ी सिविल अस्पताल की ओर दौड़ने लगी.

‘‘वह जैसे ही आया था, कुछ बेचैन सा था.’’ डाइरेक्टर ने कहा-‘‘उसने काम तो हमेशा की तरह मुकम्मिल रूप में किया, पर बात बहुत कम शब्दों में की. साढे आठ बजे हमने पैक अप किया था. मैंने उससे बैचेनी का सबब पूछा तो हंस के कहा-‘ख्वाब गुम हो गया है’ लोगों ने बताया कि बिल्ली के बच्चे को बचाते उसकी गाड़ी आउट ऑॅफ कंट्रोल हो गई थी.

सिविल अस्पताल पहुंचकर कांपते हाथों, थरथराते होंठों और लुढ़कते आंसुओं से रजिस्टर पर हस्ताक्षर करते रूप को लगा जैसे वह अपने पति की नहीं, पर अपने जवान बेटे की लाश लेने आई हो जो उसके जीने का आखिरी सहारा था.

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: प्राची - दिसंबर 2015 - रिश्ता / कहानी / तारिक आलम अबरो
प्राची - दिसंबर 2015 - रिश्ता / कहानी / तारिक आलम अबरो
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