अमानवीय और शोषक होते हैं जो अकेले रहते हैं / आलेख / दीपक आचार्य

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भारतीय परंपरा में गृहस्थ और पारिवारिक समूहों में रहने वाले लोग ही वास्तव में गृहस्थाश्रम के सिद्धान्तों का पालन करते हैं, गृहस्थ की तरह रहत...

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भारतीय परंपरा में गृहस्थ और पारिवारिक समूहों में रहने वाले लोग ही वास्तव में गृहस्थाश्रम के सिद्धान्तों का पालन करते हैं, गृहस्थ की तरह रहते हैं और इनमें पूरे परिवार को साथ लेकर चलने की क्षमताएं होती हैं। इन्हीं लोगों में वे सारी खासियतें होती हैं जो सज्जनों की पारिवारिक और सामाजिक गुणधर्मिता का प्रमाण देती हैं।

जो लोग परिवार से विमुख रहते हैं, जिनके अपने कोई परिवार नहीं होकर ऎकान्तिक जीवन जीने की विवशता है, जो परिवार को त्याग चुके हैं अथवा जिन्हें परिवार ने त्याग दिया है, जिनका अपना कोई परिवार नहीं है अथवा जो लोग नौकरी या काम-धंधों की वजह से अलग और एकान्त में जीवन जीने को मजबूर हैं उनकी मनःस्थिति का अध्ययन किया जाए तो यह साफ-साफ सामने आएगा कि अकेले रहने वाले निम्न और मध्यम वर्ग के लोग दूसरों के प्रति सहानुभूति रखते हैं, उनके दुःख-दर्द को समझते हैं और हरसंभव पारिवारिक माहौल देते हुए यह प्रयास करते हैं कि उन लोगों को किसी प्रकार से यह अहसास न हो कि वे परिवार से दूर हैं।

जबकि दूसरी ओर बड़े और प्रभावशाली कहे जाने वाले, अभिजात्य वर्ग के जो लोग परिवार से पृथक रहते हैं, माता-पिता से जिनकी कोई आत्मीयता या श्रद्धा नहीं होती, पाश्चात्य संस्कारों में पले-बढ़े और पढ़े हैं, जिनका कोई परिवार नहीं है अथवा जिन्हें किसी परिवार ने अपने में शामिल करना उचित नहीं समझा है, या कि जिनका परिवार-परंपरा, कुटुम्ब और सामाजिकता में किसी भी प्रकार का विश्वास नहीं है, भारतीय परंपराओं, स्वधर्म, संस्कृति, सभ्यताओं और देशज संस्कारों को भुलाकर सिर्फ पैसे और प्रतिष्ठा कमाने निकले लोगों के बारे में साफ सुना जाता रहा है कि ये लोग मानवताहीन, असामाजिक, शोषक और दूसरों को तंग करने वाले होते हैं, अपने अधिकारों और शक्तियों का उपयोग दूसरों को बिना किसी कारण परेशान करने में करते हैं और जब तक ये लोग किसी न किसी प्रभाव में रहते हैं या किसी के अनुचर बनकर जीते हैं तब तक घोर शोषक, संवेदनहीन, दुष्टताओं से परिपूर्ण और अमानवीय बने रहते हैं।

ये लोग इतने संवेदनहीन होते हैं कि इन्हें औरों की समस्याओं, मजबूरियों और अभावों से कोई सरोकार नहीं होता। जब तक ये जीते हैं तब तक औरों को हैरान-परेशान और तंग करते हुए तनाव देते रहते हैं। लोेक धाराओं को कान लगाकर सुना जाए तो बहुत सारे लोगों के बारे में माना जाता है कि इनकी जिन्दगी के तनावों और घातक बीमारियों के मूल में वे ही लोग हैं जो असामाजिकता और अमानवीयता का बर्ताव करते हुए  शोषक और संवेदनहीन की भूमिकाओं में होते हैं।

इस मामले मेंं लोक मनोविज्ञान और यथार्थ से जुड़े तमाम पहलुओं का सिलसिलेवार अध्ययन किया जाए तो यही निष्कर्ष सामने आता है कि परिवारहीन या परिवार से दूर अकेले रहने वाले अभिजात्य और अधिकारसम्पन्न लोग आमतौर पर शोषक की भूमिका में होते हैं और इनकी वजह से इनसे जुड़े हुए सारे के सारे लोग हमेशा परेशान रहा करते हैं।

औरों को बेवजह तंग करने में ही इन्हें आनंद की अनुभूति होती है और इनका अहंकार इसी से पुष्ट-परिपक्व होता है कि ये कितने अधिक लोगों का शोषण कर पाते हैं, कितने अधिक लोगों पर गुस्सा करते हुए गुर्राते रहते हैं, बिना कारण तंग करते हैं और तनाव देते हैं।

ऎसे लोगों अपने आपको भले ही श्रेष्ठ व्यक्तित्व मानें, इनके आस-पास वाले और इनके संपर्क में आने वाले लोग इनसे जबर्दस्त चिढ़ते हैं, दूरी बनाए रखने में अपना भला समझते हैं और इनकी हरकतों और करतूतों को देखकर इनके ढेरों नाम प्रचलन में आ जाते हैं। कोई इन्हें कुत्ता आदमी कहता है, कोई कहता है हरामखोर, भ्रष्ट और बेईमान है, कोई इन्हें नरपिशाच, कंस, शकुनि, रावण, महिषासुर और राक्षसों के नाम दे डालता है। समझदार लोग इनके इंसान होने पर भगवान पर अंगुली उठाते हैं और स्पष्ट कह डालते हैं - एक भी लक्षण इंसान का नहीं दिखता, पता नहीं भगवान ने कैसे इन्हें आदमी बना डाला।

इन लोगों के आस-पास रहने वाले सारे के सारे लोग इनसे हैरान-परेशान रहते हैं और गालियां बकते हुए भड़ास निकालते हैं। बहुत सारे लोग इनके मरने की दुआएं रोजाना करते हैं, खूब सारे लोग बददुआएं देते हुए कहते हैं कुत्ते की मौत मरना चाहिए, खूब सारे लोग इनके लिए ढेरों असाध्य बीमारियों को न्यौता देते अनुभवित होते हैं। ऎसे ही इनके लिए ढेरों लोग बुरा ही बुरा कहते हुए इनके माता-पिता को भी कोसते रहते हैं।

आजकल इस प्रजाति के खूब लोग हैं जो अपने वजूद को बचाए, बनाए रखने और दिखाने के लिए अपने आस-पास और साथ वालों का खूब शोषण कर रहे हैं और खुद बगुला भगतों और चार्वाक की तरह अपने आपको महान संवेदनशील, लोक कल्याणकारी और डेरों के बेहतर संचालन के लिए जाने जाते हैं। 

इन अकेले रहने वालों के लिए टाईमपास करना सबसे बड़ी समस्या रहता है और इसका हल उन्हें अपने मातहतों में दिखाई देता है।  यहां तक कि छुट्टी के दिनों, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक कार्यक्रमों के दौरान भी ये शोषक लोग दूसरों का खून पीने में कोई कंजूसी नहीं करते।

टाईमपास न होने की स्थिति में ये लोग जिन रास्तों का सहारा लेते हैं उसके बारे में कुछ भी बताने की जरूरत नहीं है, पूरी दुनिया को पता है इनके बारे में। अकेले रहने वाले इन लोगों के लिए दो-तीन ही रास्ते बचे होते हैं। एक तो अपने डेरों को अवकाशकालीन खुले रखकर मजमा जमाए रखना और दूसरा फील्ड में भ्रमण करते हुए अपने क्षेत्र के उन सारे लोगों को छुट्टी के दिन तंग करना जो हमसे संबंधित हैं। 

इस भ्रमण का सबसे बड़ा फायदा यह भी है कि चाय-पानी से लेकर दोनों वक्त के भोजन का मुफतिया इंतजाम कहीं न कहीं से हो ही जाता है। चाहे चेले-चपाटी और मातहत प्रसन्नता से करें या कुढ़ते हुए करें। पूरी दुनिया में अकेले रहने वाले अभिजात्यों की यही धमाल और धींगामस्ती है।

अपने-अपने क्षेत्रों में भी इन अकेले रहने वाले अभिजात्यों और महान लोगों के जीवन के बारे में थोड़ा सा चिन्तन करें तो पाएंगे कि वाकई जो लोग अकेले रहते हैं वे दूसरों को किस प्रकार परेशान करने के आदी होते हैं। सब लोग भीतर ही भीतर इनसे खफा और दुःखी हैं पर निर्भीकता की कमी और इनके भय के मारे कुछ नहीं कह पाते। फिर पूरी की पूरी श्रृंखला उन लोगों से भरी पड़ी है जो इसी मनःस्थिति के हैं इसलिए कोई कहे भी तो किससे। 

लगता है आने वाले समय में एक लड़ाई इनसे आजादी पाने के लिए हम सभी को लड़नी पड़ेगी। और कुछ न कर सकें तो भगवान से अनुनय करें कि ऎसे संवेदनहीन, असामाजिक, शोषक और घातक लोगों को बनाने की फैक्ट्री बंद कर दे और जो बचे-खुचे ऎसे लोग धरती पर हैं उन्हें ठिकाने लगा कर कहीं ओर पैदा कर दे। या ऎसे लोगों को पाबंद करे कि परिवार के साथ रहें, ताकि मानवीय संवेदनाओं और संस्कारों की थोड़ी-बहुत समझ विकसित हो सके। भारतीय परंपरा में ऎसे लोगों का कोई स्थान नहीं है। ( मानवता के लिए कलंक बने उन सभी अभिजात्यों और श्रेष्ठियों से क्षमायाचना सहित जो अकेले रहकर अपने सच्चे-झूठे सिक्के और चवन्नियां चला रहे हैं। )

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दीपक आचार्य के प्रेरक आलेख inspirational article by deepak aacharya

- डॉ0 दीपक आचार्य

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रचनाकार: अमानवीय और शोषक होते हैं जो अकेले रहते हैं / आलेख / दीपक आचार्य
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