रोजाना कुछ नया करें / आलेख / दीपक आचार्य

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इंसानी आयु और संसार के लिए किए जाने कर्मों का अनुपात देखें तो हर इंसान की पूरी आयु भी कम पड़ती है। इंसान संसार के लिए पैदा होता है लेकिन अपन...

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इंसानी आयु और संसार के लिए किए जाने कर्मों का अनुपात देखें तो हर इंसान की पूरी आयु भी कम पड़ती है। इंसान संसार के लिए पैदा होता है लेकिन अपने संकीर्ण स्वार्थों में डूबकर खुद के लिए जीने को ही जीवन समझ लेता है और पूरी जिन्दगी खुदगर्ज होकर अपने ही अपने लिए जीने लगता है और अन्ततोगत्वा देहपात हो जाता है। 

आदमी की उपलब्धियों और समय के सदुपयोग का पक्का हिसाब लगाया जाए तो साफ-साफ यही सामने आएगा कि बहुसंख्य लोग न समय को पहचान पाए, न अपने जीवन के मकसद को समझ पाए, और न ही अमूल्य मनुष्य  देह के महत्व से भलीभांति परिचित हो पाए।

यथास्थितिवाद और वर्तमान में संतोष के साथ ही अरबों लोगों से सजे संसार और करोड़ों मीलों तक फैली पृथ्वी को देखने-जानने और समझने की बजाय अपनी जीवनयात्रा को चंद लोगों और सीमित स्थलों तक की परिधियों में कैद कर लिया करते हैं और यही समझते हैं कि संसार इससे आगे है ही नहीं।

जो कुछ है वह ये चंद लोग ही हैं चाहे जैसे हों, और दुनिया कुछ फीट से लेकर एकाध इलाके तक ही सिमट कर रह जाती है। जब इंसान अपने आपको किसी भी प्रकार की संकीर्णताओं में कैद कर लिया करता है तब वह ताजिन्दगी नज़रबंद होकर रह जाता है।

उसकी सोच का दायरा भी संकुचित हो जाता है और वह जो- जो काम करता है उसमें भी खुदगर्जी, अपने स्वार्थ और ऎषणाओं का पुट हर कर्म, स्वभाव और व्यवहार में नज़र आता है। विराट संसार के लिए भेजा गया आदमी जब चंद किरदारों के मोह में अंधा हो जाता है, चंद आकाओं की गुलामी में रम जाता है, कुछ फीट के बाड़ों और गलियारों को ही कर्मस्थली मान लेता है तब वह संसार का न होकर अपना ही रह जाता है।

और अपना भी कहाँ, जो इंसान संकीर्ण और स्वार्थी होता है वह किसी का नहीं होता क्योंकि ऎसे लोगों के लिए स्वार्थ पूर्ति करने वालों के सिवा कोई अपना नहीं होता, घर-परिवार और कुटुम्बी भी नहीं। इस आत्म नज़रबंद अवस्था में जीने को ही अपने अवतरण का सर्वोच्च लक्ष्य मान चुकने वाले लोग न अपने कर्मक्षेत्र में कुछ नया कर पाते हैं, और न ही समाज या संसार के लिए कुछ कर दिखाने की स्थिति पा सकते हैं। 

इनके जीवन का पूरा चक्र और दिन-रात रोजमर्रा के अपने चंद स्वार्थों, अपने कहे जाने वाले कुछ लोगों और लाभ देने वाले कुछेक कामों तक ही उलझा रहता है। इसके अलावा ये लोग कुछ नहीं कर पाते, न कर पाने की सोच सकते हैं।

फिर अधिकांश लोगों को इनकी तरह ही संकीर्ण सोच वाले घरवाले भी मिल जाया करते हैं जो कि उन्हें संकीर्णताओं और परिवारवाद से ऎसे कसकर बाँधे रखते हैं कि ये लोग बाहर की सोच भी नहीं  सकते। चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते। जब भी कुछ कर पाने की सोचते हैं, संगी-साथी और घर के लोगों की मोहपाशी रस्सियां इन्हें जोर से अपनी ओर खींच लिया करती हैं।

इन हालातों में दुनिया के बहुत सारे लोग यथास्थितिवादी और कछुआ छाप हो जाते हैं और अपने व्यक्तित्व को कुछ अक्सों और क्षेत्रों तक के खूंटों से बांध लिया करते हैं। ये यथास्थितिवादी लोग जड़त्व और नाकारापन को प्राप्त कर लिया करते हैं लेकिन केवल संसार और दूसरों के लिए ही।

जहाँ इनका कोई स्वार्थ सामने आएगा, कुछ लाभ पाने की स्थितियां दिखेंगी, अपनी ऎषणाओं की पूर्ति के अवसर सामने आएंगे, घर-परिवार के कोई से काम आ पड़ेंगे, ये पूरी ऊर्जा के साथ इन कामों में कोल्हू के बैलों की तरह जुट जाते हैं।

इस किस्म के लोग अपने बाड़ों और गलियारों में इसी फिराक में रहते हैं कि इनका तथा इनके संसाधनों का अपने लिए, परिवार के लिए और अपने से जुड़े हुए लोगों के लिए किस तरह उपयोग कर सकते हैं। इस मामले में वे कभी किसी से कोई समझौता नहीं कर पाते। जब भी कहीं कोई रुकावट आती है या लाभ छीन जाने के संकेत प्राप्त होने लगते हैं, वे पूरी ताकत के साथ उत्तेजित हो जाते हैं और संघर्ष पर ऎसे उतारू हो जाएंगे जैसे कि जो कुछ ये चाह रहे हैं वह इनका अधिकार ही हो, इनके लिए ही हो।  फिर इनकी ही तरह इनके कतिपय संगी-साथी और विघ्नसंतोषियों की भी इनके साथ भरपूर संगत बैठ जाती है और इन्हें प्रश्रय मिलने लगता है।

आजकल हर आदमी अपने दायरों से बाहर के संसाधनों, सुख-सुविधाओं तथा प्रतिष्ठा पाने के लिए बरसों से भूखे और प्यासे भिखारियों की तरह टूट पड़ता है। उसे वह सब कुछ चाहिए होता है जो अपने डेरों में उपलब्ध है, भले ही इनके लिए वह कतई पात्रता नहीं रखता हो, अधिकार नहीं रखता हो।

आज की सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि हर आदमी मुफत की सुख-सुविधाओं, पराये संसाधनों और बिना मेहनत की कमाई पर मौज उड़ाना चाहता है और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए भण्डार को निरन्तर बढ़ाये रखना भी चाहता है। आदमी का बस चले तो सब कुछ बाहरी भरोसे ही रहे, खुद का धेला खर्च न करे।

इस दो तरफा लक्ष्य को पाने के लिए आदमी पूरी तरह बेशर्म और नंगा होकर हीन हरकतें करता है, छीनने-झपटने पर आमादा हो जाता है और उन तमाम षड़यंत्रों के ताने-बाने बुनने लगता है जो आदमी को इंसानियत से दूर करती हैं।

समाज और देश की जड़ता के लिए यही यथास्थितिवादी, हताश और निराश लोग जिम्मेदार हैं जो जैसे हैं वैसे ही बने रहता चाहते हैं, कुछ नया नहीं करना चाहते। नये की बात छोड़ दें, इन्हें अपने कर्तव्य कर्म ही ढंग से निभाने के लिए कह दिया जाए तो नानी मर जाती है, साँप सूंघ जाता है और हजार बहाने बनाने लग जाएंगे या अपने कामों को टालने के लिए बिन मांगी और बेतुकी राय देकर भरमाने लगेंगे।

इन लोगों से अपने लाभ या स्वार्थ का कोई सा काम करा लो, राजी-राजी करते रहेंगे, चूँ तक भी नहीं करेंगे लेकिन अपने निर्धारित बाड़ों और डेरों का कोई काम हो तो वहां कामचलाऊ बनकर टाईमपास बने रहते हैं और हर काम को भार समझकर जैसे-तैसे निपटा दिया करते हैं या टाल देने के आदी होते हैं।

हर इंसान कर्मयोग के शिखर स्थापित करने के लिए ही पैदा हुआ है। जो समय हमें मिला है उसका पूरा-पूरा उपयोग करने में रमे रहना चाहिए। भगवान ने जो असीम क्षमताएं नवाजी हैं उनका भरपूर उपयोग करना हर इंसान का कर्तव्य है।  हर दिन कुछ नया और अच्छा करने की कोशिश करनी चाहिए ताकि अगले दिन जगने पर पुराने दिन की उपलब्धियों का सुकून और संतोष प्राप्त हो सके।

बहुत सारे लोग हैं जो रोजाना कुछ न कुछ नया करते रहते हैं, घर-परिवार से लेकर अपने बाड़ों और डेरों को अपना समझ कर इनके विकास, सौंदर्यीकरण और इनके उत्थान के लिए नित नवीन पहल करते हैं, कुछ करके दिखाते हैं और जमाने भर में अपना नाम करते हुए अपने माँ-बाप, गुरु और अपने क्षेत्र का नाम रौशन करते हुए देश-दुनिया में गौरव प्राप्त करते हैं, इतिहास में स्थान पाते हैं।  रोजाना कुछ नया करें, कोई न कोई एक काम ऎसा करें कि जिसके लिए वह दिन सार्थक हो सके।

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दीपक आचार्य के प्रेरक आलेख inspirational article by deepak aacharya

- डॉ0 दीपक आचार्य

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रचनाकार: रोजाना कुछ नया करें / आलेख / दीपक आचार्य
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