भावी भारत, युवा और पण्‍डित दीनदयाल उपाध्‍याय / डॉ0 सौरभ मालवीय

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1947 में जब देश स्‍वतंत्र हुआ तो देश के सामने उसके स्‍वरूप की महत्‍वपूर्ण चुनौती थी कि अंग्रेजों के जाने बाद देश का स्‍वरूप क्‍या होगा। काँ...

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1947 में जब देश स्‍वतंत्र हुआ तो देश के सामने उसके स्‍वरूप की महत्‍वपूर्ण चुनौती थी कि अंग्रेजों के जाने बाद देश का स्‍वरूप क्‍या होगा। काँग्रेसी नेता सहित उस समय के अधिकांश समकालीन विद्वानों का यही मानना था कि अंग्र्रेजों के जाने के बाद देश अपना स्‍वरूप स्‍वतः तय कर लेगा, अर्थात तत्‍कालीन नेताओं जेहन में देश के स्‍वरूप से अधिक चिंता अंग्रेजों के जाने को लेकर था, राष्‍ट्र के स्‍वरूप को लेकर गाँधी जी के बाद अगर किसी ने सर्वाधिक चिंता या विचार प्रकट किये, उनमें श्यामाप्रसाद मखर्जी के अलावा पं0 दीनदयाल उपध्‍याय का नाम उन चुनिन्‍दा चिंतकों में शामिल था, जो आजादी मिलने के साथ ही देश का स्‍वरूप भारतीय परिवेष, परिस्‍थिति और सांस्‍कृतिक, आर्थिक मान्‍यता के अनुरूप करना चाहते थे। वे इस कार्य में पश्चिम के दर्शन और विचार को प्रमुख मानने के वजाए सहयोगी भूमिका तक ही सीमित करना चाहते थे, जबकि तत्‍कालीन प्रमुख नेता और प्रथम प्रधानमंत्री पं0 नेहरू पश्चिमी खाके में ही राष्‍ट्र का ताना-बाना बुनना चहते थे। अगर हम गाँधीजी और दीनदयाल जी के विचारों के निर्मेश भाव से विवेचना करें तो दोनों नेता राष्‍ट्र के अंतिम व्‍यक्‍ति के अभ्‍युदय और उत्‍थान में ही उसका वास्‍तविक विकास मानते थे। हालांकि दोनों के दृष्‍टिकोंण में या इसके लिए अपनाये जाने वाले साधनों और दर्शन तत्त्वों में मूलभूत विभेद भी था। दीनदयाल जी इस राष्‍ट्र नव-जागरण में युवाओं की भूमिका को भी महत्त्वपूर्ण मानते थे। उनका मानना था कि किसी राष्‍ट्र का स्‍वरूप उसके युवा ही तय करते हैं। किसी राष्‍ट्र को जानना हो तो सर्वप्रथम राष्‍ट्र के युवा को जानना चाहिए। पथभ्रष्‍ट और विचलित युवाओं का साम्राज्‍य खड़ा करके कभी कोई राष्‍ट्र अपना चिरकालिक सांस्‍कृतिक स्‍वरूप ग्रहण नहीं कर सकता। दीनदयाल जी की दृष्‍टि में युवा राष्‍ट्र की थाती है, एवं युवा-युवा के बीच भेद नहीं करता वह समग्र युवाओं को राष्‍ट्र की थाती मानता है। राष्‍ट्र जीवंत और प्राणवान सांस्‍कृतिक अवधारणा है। पण्‍डित जी राष्‍ट्र को जल, जंगल, जमीन का सिर्फ समन्‍वय नहीं मानते थे।

राष्‍ट्र और युवा के सम्‍बन्‍ध में दीनदयाल जी की मान्‍यता थी कि राष्‍ट्र का वास्‍तविक विकास सिर्फ उसके द्वारा औद्योगिक जाना, और बड़े पैमाने पर किया गया पूँजी निवेश मात्र नहीं है। उनका स्‍पष्‍ट मानना था कि किसी राष्‍ट्र का सम्‍पूर्ण और समग्र विकास तब तक नहीं जब तक कि राष्‍ट्र का युवा सुशिक्षित और सुसंस्‍कृत नहीं होगा। सुसंस्‍कृत से पण्‍डित जी का आशय सिर्फ धार्मिक अनुष्‍ठान तक नहीं था, बल्‍कि वह ऐसी युवा शक्ति निर्माण की बात करते थे जो राष्‍ट्र की मिट्‌टी और सांस्‍कृतिक विरासत से जुड़ाव महसूस करता हो, उनके अनुसार यह तब तक सम्‍भव नहीं था, जब तक युवा, देश की संस्‍कृति और उसकी बहुलतावादी सोच में राष्‍ट्र की समग्रता का दर्शन न करता हो। अगर इसे हम भारत जैसे बहुलवादी राष्‍ट्र के संदर्भ में देखें तो ज्ञात होगा कि उसकी सांस्‍कृतिक बहुलता में भी एक समग्र संस्‍कृति का बोध होता है। जो उसे अनेकता में भी एकता के सूत्र में पिरोये रखने की ताकत रखता है। यही वह धागा है, जिसने सहस्‍त्रों विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण के बाद भी राष्‍ट्र को कभी विखंडित नहीं होने दिया, और एक सूत्र में पिरोए रखा। पश्चिमी दार्शनिक मनुष्‍य के सिर्फ शारीरिक और मानसिक विकास की बात करते हैं। वहीं अधिकांश भारतीय दार्शनिक व्‍यक्‍ति के शारीरिक, मानसिक विकास के साथ ही धार्मिक विकास पर भी जोर देते हैं। पण्‍डित दीनदयाल उपाध्‍याय एकात्‍म मानव दर्शन की बाद करते हैं, तो उनका भी आशय यही होता है कि पूर्ण मानव बनना तभी सम्‍भव है, जब मनुष्‍य का शारीरिक और बौद्धिक विकास के साथ-साथ उसका आध्‍यात्‍मिक विकास भी हो। इस एकात्‍म मानव दर्शन में व्‍यष्‍टि से समष्‍टि तक सब एक ही सूत्र में गुंथित है युवा व्‍यक्‍तित्‍व का विकास होगा तो समाज विकसित होगा, समाज विकसित होगा तो राष्‍ट्र तो राष्‍ट्र की उन्‍नति होगी, और राष्‍ट्र की उन्‍नति होगी तो विश्व का कल्‍याण होगा। राष्‍ट्र के सम्‍बन्‍ध में दीनदयाल जी का विचार था कि जब एक मानव समुदाय के समक्ष, एक वृत्‍त-विचार आदर्श रहता है और वह समुदाय किसी भूमि विशेष को मातृ भाव से देखता है तो वह राष्ट्र कहलाता है, अर्थात पण्‍डित जी के अनुसार देश के युवा राष्‍ट्र के सच्‍चे सपूत तभी कहलायेंगे जब वे भारत माँ को मातृ जमीन का टुकड़ा न समझें, बल्‍कि उसे सांस्‍कृतिक माँ के रूप में स्‍वीकार करें। उनका विचार था कि राष्‍ट्र की भी एक आत्‍मा होती है जिसे चिती रूप में जाना जाता है। प्रसिद्ध विद्वान मैक्‍डूगल के अनुसार किसी भी समूह की एक मूल प्रवृत्‍ति होती है, वैसे ही चिती किसी समाज की मूल प्रवृत्‍ति है जो जन्‍मजात है, और उसके होने का कारण ऐतिहासिक नहीं है। इसी क्रम में वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य के भौतिकवादी स्‍वरूप को देखते हुए एवं युवाओें के मौजूदा स्‍थिति और स्‍वभाव के बारे में चिंता प्रकट करते हुए एक बार अपने उद्‌बोधन में पण्‍डित दीनदयाल जी कहा था कि किसी भी राष्‍ट्र का युवा का इस कदर भौतिकवादी होना और राष्‍ट्र राज्‍य के प्रति उदासीन होना अत्‍यन्‍त घातक है। दीनदयाल जी का युवाओं के लिए चिंतन था कि भारत जैसा विषाल एवं सर्वसम्‍पन्‍न राष्‍ट्र जिसने अपनी ऐतिहासिक तथा सांस्‍कृति पृष्‍ठभूमि के आधार पर सम्‍पूर्ण विष्‍व को अपने ज्ञान पुंज के आलोकित कर मानवता का पाठ पढ़ाया तथा विश्व में जगत गुरू के पद पर प्रतिष्‍ठापित हुआ। ऐसे विशाल राष्‍ट्र के पराधीनता के कारणों पर दीनदयाल जी का विचार और स्‍वाधीनता पश्चात समर्थ सशक्त भारत बनाने में युवाओं के योगदान को महत्त्वपूर्ण माना है।

पं0 दीनदयाल उपध्‍याय के मन में जो मानवता के प्रति विचार थे, उसे गति 1920 में प्रकाशित पण्डित बद्रीशाह कुलधारिया की पुस्तक ‘दैशिक शास्त्र’ से मिली। दैशिक शास्त्र की भावभूमि तो दीनदयाल जी के मन में पहले से ही थी और एक नया विचार उनके मन में उदित हुआ कि सम्पूर्ण विश्व का प्रतिनिधित्व युवा ही करते हैं | अतः युवाओं के विचारों का अध्ययन करके मानवता के लिए एक शास्वत जीवन प्रणाली दी जाए, जो कि युवाओं के लिए प्रेरक तो ही साथ ही साथ युवाओं के माध्यम से भारत एक वैश्विक शक्ति बन सके|

लेखक- सहायक प्राध्यापक

माखनलाल चतुर्वेदी

राष्‍ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय, भोपाल

मो. +919907890614

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रचनाकार: भावी भारत, युवा और पण्‍डित दीनदयाल उपाध्‍याय / डॉ0 सौरभ मालवीय
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