सामाजिक अपराधी हैं ये इनका सहयोग न करें कभी / डॉ. दीपक आचार्य

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सामाजिक अपराधी हैं ये इनका सहयोग न करें कभी - डॉ. दीपक आचार्य 9413306077 dr.deepakaacharya@gmail.com इंसान वही है जो समाज और देश के काम ...

सामाजिक अपराधी हैं ये

इनका सहयोग न करें कभी

- डॉ. दीपक आचार्य

9413306077

dr.deepakaacharya@gmail.com

इंसान वही है जो समाज और देश के काम आए। जिस मिट्टी ने हमको पाल-पोस कर बड़ा किया, जिस समाज और क्षेत्र के लोगों ने जीना, रहना और आगे बढ़ना सिखाया। जिन गरीब-अमीर लोगों द्वारा चुकाए गए करों की बदौलत हमने अनुदानित संसाधनों और शैक्षिक-प्रशैक्षिक सुविधाओं का लाभ पाया, जिस मातृभूमि के आँचल में रहकर हम योग्य और बड़े हुए, उन सभी के प्रति हमारा कर्तव्य है कि उनके काम आएं।

उन सभी लोगों के प्रति जीवन भर कृतज्ञ बने रहकर उनकी जरूरतों, सेवा-सुश्रुषा और मदद में आगे आकर भागीदारी निभाएं और अपने क्षेत्र से लेकर देश तक के प्रति वफादार रहकर देशभक्ति का परिचय दें।

इस मायने में हम सभी लोग हर मामले में समाजजनों, क्षेत्रवासियों और देश के प्रति ऋणी हैं और यह ऋण चुकाए बिना हमें आनंद पाने का कोई अधिकार नहीं है।

हम सभी लोग विचित्र मनःस्थिति और अजीबोगरीब स्वभाव में जीते हैं। जब तक हम कुछ बन नहीं जाते, तब तक औरों का सहारा पाने की कोशिश करते हैं। और जैसे ही किसी मुकाम पर पहुंच जाते हैं, हम सभी को भुला देते हैं ।

इतने अधिक खुदगर्ज और मतलबी हो जाते हैं कि हमें किसी से कोई मतलब नहीं रहता। हमें अपने स्वार्थों और कामों से ही सरोकार रहता है। इसके सिवा जो कुछ है वह हमारे काम का नहीं रहता।

लोक जीवन में ऎसे लोगों का बाहुल्य होता जा रहा है जो समाज और देश के लिए किसी काम के नहीं होते लेकिन दूसरों से यह अपेक्षा करते हैं कि उन्हें वे लोग भरपूर मदद दें ताकि उनके काम आसानी से निकल सकें और स्वार्थ पूरे होते रहें।

एकतरफा लाभ पाने वाले और अपने स्वार्थ पूरे करने के लिए दूसरे लोगों को औजार समझने वाले लोग सभी स्थानों पर हैं जिनके जीवन का एकसूत्री एजेण्डा अपने लिए जीना ही है, सेवा और परोपकार के भाव इनमें अंश मात्र भी नहीं रहते।

इस किस्म के लोगों के साथ व्यवहार के मामले में भी दूसरे लोगों को सतर्क रहना चाहिए। खुदगर्ज लोगों के लिए काम करना अपने आप में पाप है क्योंकि जो लोग समाज और देश के लिए जीने का माद्दा नहीं रखते, उनके लिए किसी प्रकार की मदद करना अपराध है।

जो खुद सामाजिक नहीं है उसके प्रति सामाजिकता का बर्ताव नहीं किया जाना चाहिए। ऎसे लोगों को उपेक्षित किया जाना चाहिए ताकि सबक मिले।

सामाजिक दुरावस्था के लिए हम लोग भी जिम्मेदार हैं जो ऎसे लोगों की मदद करने को तैयार रहते हैं जिनका समाज व देश तथा दूसरे नागरिकों के प्रति कोई कर्तव्य भाव नहीं होता, किसी के काम नहीं आते।

उन सभी खुदगर्ज लोगों के साथ खुला व घोषित असहयोग करें जो केवल अपने ही अपने लिए जी रहे हैं, अपना ही पेट और घर भर रहे है, औरों के लिए किसी काम के नहीं। समाज सेवा का यही अर्थ नहीं है कि हम लोगों की सेवा और क्षेत्र के विकास का उद्देश्य लेकर काम करते चले जाएं। खुदगर्जों को भी किसी न किसी रूप में सहयोग करते हुए उन्हें पल्लवित करते हुए समृद्धिशाली बनाते जाएं और वे दूसरों के किसी काम न आएं। 

समाजसेवा का स्पष्ट पैमाना होना चाहिए कि जो समाज के काम का नहीं, अपने क्षेत्र के जरूरतमन्दों के लिए नाकारा है, देश के लिए जिसका कोई उपयोग नहीं, उसे किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं किया जाए।

हालांकि ऎसे लोग पूरी जिन्दगी इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि औरों को उल्लू बनाते हुए उनका सहयोग पाते रहें लेकिन दूसरों के लिए कुछ न करें, कोई कुछ करने के लिए कहे भी तो टाल जाएं और बहानेबाजी करते हुए साफ  बच निकलें।

इनकी पूरी जिन्दगी एकतरफा लाभान्वित होने में लगी रहती है। इन लोगों के लिए अपने परिवारजन, कुटुम्बी, आस-पडोस में रहने वाले, मोहल्लेवाले, समाजजन, क्षेत्रवासी और देशवासी कोई वजूद नहीं रखते क्योंकि इन लोगों की जिन्दगी अपने आप तक सिमटी रहती है।

इनमें इतनी संवेदना भी नहीं होती कि औरों का दुःख-दर्द समझ सकें, अभावों में जीने वाले लोगों के लिए सहारा बन सकें, गरीबों के लिए किसी न किसी रूप में मददगार साबित हो सकें।

इनकी पूरी जिन्दगी में कोई ऎसा उदाहरण देखने में नहीं आता जो इन्हें सामाजिक और संवेदनशील साबित कर पाए। इस मायने में ये लोग किसी काम के नहीं होते। इस किस्म के लोगों को सहयोग करना बेमानी है।

इन्हें सहयोग करने का सीधा अर्थ है मानवता की हत्या में हाथ बंटाना। असल में ये ही वे लोग हैं जो इंसान के रूप में हैवान हैं और बस्तियों में रहने वाले हिंसक और क्रूर जानवर की तरह हैं जिनमें कोई नर-नारी भक्षी है तो कोई सर्वभक्षी।

हम कुछ बन न पाएं तो कोई बात नहीं, इन खुदगर्जों जैसे बनें ताकि मानवता कलंकित न हो, और हर इंसान एक-दूसरे के काम आता रहे,  एक-दूसरे के लिए जीने का भाव प्रगाढ़ होता रहे। जियो और जीने दो का मूल मंत्र साकार होता रहे।

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