विश्व सिनेमा : आरंभ, बदलती तकनीक और तस्वीरें / डॉ. विजय शिंदे

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28 दिसंबर, 1895 में आयोजित पहले फिल्मी शो की देन लिमिएर बंधुओं की रही। ‘द अरायव्हल ऑफ अ ट्रेन’ उनकी पहली फिल्म बनी और सिनेमाटोग्राफी मश...

28 दिसंबर, 1895 में आयोजित पहले फिल्मी शो की देन लिमिएर बंधुओं की रही। ‘द अरायव्हल ऑफ अ ट्रेन’ उनकी पहली फिल्म बनी और सिनेमाटोग्राफी मशीन के सहारे बाद में उन्होंने कई छोटी-छोटी फिल्मों को दिखाना शुरू किया। उनके इन दृश्यों में कॅमरा एक ही जगह पर सेट करके फिल्मांकन होता था, उसमें कई कमियां थी परंतु पूरे विश्व में विविध जगहों पर हो रहे उनके प्रदर्शन और उसे देख विद्वान और लोगों के आकर्षण तथा आश्चर्य का कोई पारावार नहीं था। इन फिल्मों का प्रदर्शन होता था उससे पहले विभिन्न देशों के अखबारों और उन शहरों में उसका प्रचार-प्रसार जोरशोर से होता था कि आपके शहरों मे सदी के सबसे बड़े चमत्कार का प्रदर्शन होने जा रहा है। इसका परिणाम यह हुआ कि शौकिन, जिनके पास पैसा था वे, कौतुहल रखनेवाले, वैज्ञानिक, पत्रकार, चिंतक, साहित्यकार तथा सभी वर्गों के लोग इस चमत्कार को आंखों से देखने तथा उसका साक्षी होने के लिए उपस्थित रहा कर रहे थे और सच मायने में चकित भी हो रहे थे। तभी वैज्ञानिक, चिंतक, इस विषय में रुचि रखनेवालों के साथ बाकी सब ने भी यह पहचान लिया था कि इसतरह से परदे पर चलते-फिरते चित्रों को देखना सच्चे मायने में अद्भुत है और इस तकनीक में असीम संभावनाएं भी है, भविष्य में यह तकनीक सचमुच सदी का सबसे बड़ा चमत्कार और अद्भुत खोज साबित होगी बता रही थी। आज विश्व सिनेमा जिन स्थितियों में है उससे आरंभ के समीक्षक और विद्वानों ने कहीं बात की सच्चाई साबित भी होती है। आज सिनेमा का भविष्य और ताकतवर, उज्ज्वल होने की संभावनाएं दिख रही है। नवीन तकनीकों के चलते सामान्य लोगों तक वह और बेहतर रूप में आसानी के साथ पहुंचेगा।

मूक फिल्मों से सवाक फिल्मों तक का सफर तय करते तथा आरंभिक सिनेमाई विकास की गति धीमी थी। इसके तकनीकों को लेकर शोध जारी था। आरंभिक तीस-पैंतीस सालों तक इसके विकास और तकनीक परिवर्तन की गति भी धीमी थी पर लोगों में उत्साह ज्यादा था। जैसे ही फिल्मों में कहानी ढली तथा आवाज के साथ संगीत जुड़ा और वह रंगीन हो गया तब मानो सिनेमा में चार चांद लग गए। इसके बाद सिनेमा के विकास और तकनीकों में भी अद्भुत परिवर्तन आ गया। आज विश्व सिनेमा में जितनी भी बड़ी खोज हो चुकी वह सारी भारतीय सिनेमा जगत में देखी जा सकती है। उससे हम कल्पना कर सकते हैं कि 1895 से 1930 तक का सिनेमाई सफर धीरे-धीरे और वहां से आगे आज-तक 85 वर्षों में कितना परिवर्तित हो गया। सरसरी नजर से कहे तो केवल पचास वर्षों में इसमें इतना परिवर्तन आ गया कि जिससे पूरी दुनिया चकित है। मनुष्य की ज्यादा से ज्यादा लंबी जिंदगी सौ वर्ष भी मानी जाए तो सिनेमा निर्माण और उसका चरम पर पहुंचना एक इंसान के लिए उसकी आंखों देखी है। आज-कल तो यह तकनीकें इतनी आसान हो गई है कि आप केवल कॅमरे और कंप्युटर के बलबूते पर बहुत और बहुत अच्छी फिल्म बना सकते हैं। ईरानी नव सिनेमा के प्रणेता जाफर पनाहिने इसका उदाहरण है। ‘द व्हाईट बलुन’ (1995), ‘द सर्कल’ (2000), ‘ऑफसाईड’ (2006) जैसी ईरानी फिल्में उन्होंने बनाई तो न केवल उनके देश में तो विश्व सिनेमा में मानो धमाका हो गया। जिन विषयों और तकनीकों को उन्होंने उठाया उससे उनकी सरकार परेशान हो गई उन पर फिल्में बनाने के लिए पाबंदी लगवाई गई। फिर भी नए तकनीकों के सहारे बिना पैसा लगाए उन्होंने पाबंदी के बावजूद भी इसे बनना जारी रखा। ‘दिस इज नॉट अ फिल्म’ (2011), ‘क्लोज्ड कर्टन’ (2013) जैसी फिल्मों ने इनके दिमाग के तारों को खोल दिया। 2015 में आयोजित कॉन फिल्म समारोह में इनकी फिल्म ‘टॅक्सी’ (2015) को पुरुस्कृत किया जाना बताता है कि दुनिया की कोई भी ताकत किसी को भी फिल्में बनाने से और उसे प्रदर्शित करने से रोक नहीं सकती। कुछ ही दिनों में बिल्कुल कम लागत में केवल एक कॅमरे से और कंप्युटर तकनीक से बनी ‘टॅक्सी’ सम्मानित हो सकती है तो यह बहुत छोटा सिनेमाई इतिहास बहुत बड़ी ताकत दिखा देता है साथ ही निकट भविष्य में प्रत्येक व्यक्ति के लिए निर्माण क्षेत्र खुलने का भी संकेत देता है।

विश्व में कई देश हैं और कई भाषाएं भी है। फिल्म इंडस्ट्री भी इस तरह से विस्तृत और व्यापक है। फिल्म मनुष्यों के लिए मानो भूतकाल को दुबारा जीवंत करना, यथार्थ से परिचित होना और भविष्य में ताक-झांक करने जैसा है। अपने ही जीवन से जुड़ी घटनाएं एक साथ दो-ढाई घंटे मे परदे पर दृश्य रूप और ध्वनि के साथ साकार होना तीनों लोकों (भूत-वर्तमान-भविष्य) का सफर करने जैसा ही है। इंसान ने सिनेमा को जादू-सा पाया और दुनिया की वास्तविकताओं, कल्पनाओं को एक ही जगह पर देख लिया और उसमें से बहुत कुछ अपनी झोली में भरना चाहा।

सिनेमा का आरंभ 28 दिसंबर, 1895 लिमिएर बंधुओं की फिल्म ‘द अरायव्हल ऑफ अ ट्रेन’ है। उसी दौरान जॉर्ज मेलिएस जैसे कई विद्वान इस नई तकनिक को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। जॉर्ज मेलिएस को भी इसमें सफलता मिल गई वैसे कइयों के हाथों में यह तकनीक आती गई और सबके रुचि के चलते इसमें बड़ी गति के साथ कार्य और फिल्म निर्माण होने लगा। शुरुआती दौर में कॅमरा को एक जगह पर सेट करके दृश्यों को फिल्माया जाता था और एक ही फिल्मांकन पूरी फिल्म माना जाता रहा। दो दृश्यों को जोड़ने का सफल प्रयोग रॉबर्ट डब्ल्यू पॉल की फिल्म ‘कम अलांग डू!’ में किया गया। फिल्मों में कहानी का समावेश करने का पहला सफल प्रयास एडविस पोर्टर और जॉर्ज मेलिएस ने किया। एडविस पोर्टर की फिल्म ‘द ग्रेट ट्रेन रॉबरी’ (1903) का प्रभाव दर्शकों पर बड़े पैमाने पर पड़ा। फिल्म के भीतर एक डकैत सामने बंदूक करके जब गोली चलाते हुए देखा तो दर्शक अपने-आपको बचाते भागने-बचने लगे। वहीं ‘ द अरायव्हल आफ ट्रेन’ को लेकर हुआ गाड़ी अपने तरफ आते देख दर्शक घबराते हुए छिपने लगे थे। आज थ्री डी तकनीक से जो परिर्तन आया उससे भी दर्शकों ने कुछ ऐसा ही अनुभव लिया। पोर्टर द्वारा बनाई फिल्म ‘द ग्रेट ट्रेन रॉबरी’ और ‘लाईफ ऑफ अमेरिकन फायर मॅन’ कई दृश्यों को जुड़कर कहानी बताने में सफल हुआ।

जॉर्ज मेलिएस ने अपनी जिंदगी में लगभग पांच सौ लघु फिल्में बनाई जो कई विषयों से जुड़ती गई। अर्थात् मेलिएस का सिनेमाई दुनिया के लिए बड़ा योगदान कथा संरचना (नॅरेटिव्ह स्ट्रक्चर) को लेकर रहा है। उनके कई चर्चित फिल्मों में ‘ए ट्रिप टू द मून’ सबसे ज्यादा लोकप्रिय हो गई। जो कथा संरचना का अच्छा नमुना तो थी ही परंतु कल्पना की उड़ान भी थी जो लोगों को चांद पर ले जाने का एहसास करवा रही थी। जॉर्ज मेलिएस मूलतः कार्टुनिस्ट थे। उन्होंने फिल्मों में यथार्थ की अपेक्षा कल्पना, चमत्कार और संभावनाओं को तलाशना शुरू किया अर्थात् इससे कथा संरचना का विकास होते गया। मेलिएस ने सिनेमा को तकनीक परिवर्तन के लिए भी योगदान दिया है। स्लो मोशन, मल्टीपल एक्सपोजर, टाइम-लैप्स फोटोग्राफी और डिजाल्व जैसे साधन मेलिएस की देन रहे और इससे कहानी कहने की कला में गति आती गई।

जॉर्ज मेलिएस ने फिल्म स्टूड़ियो का निर्माण किया और इससे फिल्में बनाने के लिए आसानी तो हो गई परंतु उसमें जो कमियां थी वह भी हटती गई। प्रकाश योजना का सफल इस्तेमाल स्टूड़ियो के निर्माण से ही संभव हुआ। ‘द केव ऑफ डिमोन्स’, ‘ए ट्रिप टू द मून’, ‘द हाऊस दॅट जॅक बिल्ट’ जैसी फिल्में मेलिएस की तकनीक, प्रकाश योजना और स्टूड़ियो का ही कमाल था।

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‘ए ट्रिप टू द मून’ (1902)

पहला कॅमरा मूवमेंट का अनुभव देने की देन लुमिएर बंधुओं की है। उन्होंने एक फिल्म के दौरान ट्रेन के पीछले हिस्से में कॅमरे को बिठा दिया और फिल्मांकन किया। आज फिल्मों के शूटिंग के दौरान इसे आधुनिकता के साथ बड़ी सफलता से उपयोग में लाया जा रहा है। कॅमरा का मूवमेंट करवाना मानो दर्शक को खुद इधर-उधर घूम-फिरकर दृश्यों को देखने का एहसास देने लगा। कॅमरा सबके लिए आंखें साबित हुआ और उसमें परिवर्तन और विकास के लिए तथा अँगल बनाने में महारत हासिल करने में निर्माता और कॅमरामन जुट गए।

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लिमिएर द्वारा निर्मित सिनोमाटोग्राफी मशीन

दर्शक और फिल्मी दुनिया को जोड़ने का अहं काम कॅमरा ही करता है। हमारे सामने परदे पर जो दिखता है वह उस कॅमरा और कॅमरामन का कमाल होता है। फिल्मों का पहला अच्छा दर्शक कॅमरामन ही होता है।

संदर्भ ग्रंथ सूची

1. पश्चिम और सिनेमा – दिनेश श्रीनेत, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012.

2. सिनेमा की सोच – अजय ब्रह्मात्मज, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, आवृत्ति 2013.

3. सिनेमा के चार अध्याय – डॉ. टी. शशिधरन्, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014.

डॉ. विजय शिंदे

देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद - 431005 (महाराष्ट्र).

ब्लॉग - साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे

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रचनाकार: विश्व सिनेमा : आरंभ, बदलती तकनीक और तस्वीरें / डॉ. विजय शिंदे
विश्व सिनेमा : आरंभ, बदलती तकनीक और तस्वीरें / डॉ. विजय शिंदे
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