प्राची - मार्च 2016 - कहानी - रसूल के आंसू / डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

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कहानी ‘‘कुरैशिओं ने हमें मक्के में रहने न दिया, वहां से खदेड़ा. इसीलिए हमने उनके खिलाफ लाल सागर के किनारे बदर की जंग लड़ी. मगर आज? आज तो हम ...

कहानी

‘‘कुरैशिओं ने हमें मक्के में रहने न दिया, वहां से खदेड़ा. इसीलिए हमने उनके खिलाफ लाल सागर के किनारे बदर की जंग लड़ी. मगर आज? आज तो हम भी इन आदम की औलादों को अपनी जड़ से अलग कर रहे हैं. सर्दारों ने जो कुछ किया, उसकी सजा ये मासूम बच्चे और बेगुनाह औरतें क्यों भुगतें? आखिर क्यों?’’ रसूल का गला भर आया. आयशा ने देखा रेगिस्तान की मरीचिका की तरह कुछ चमक रही है- उनकी आंखों के नीचे-

रसूल के आंसू

डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

अब

गंगा दशहरा के ठीक एक दिन पहले गांदरबल जिले के तुलमुल्ला में स्थित माता खीर भवानी मंदिर में हजारों कश्मीरी पंडित आकर जमा हुए थे. करीब इक्कीस साल बाद ये अपने घर लौटे हैं, भले ही एक या दो दिन के लिए. यहीं से कई अपने पुरखों का घर देखने अपने अपने गांव चले गये- त्राल या अनंतनाग...

हम लोग अपने दादा दादी के साथ जम्मू के बाहर रघुनाथ मंदिर के पीछे तवई नदी के किनारे एक रिफिउजी कैंप में रहते हैं...कश्मीर के विस्थापित लोगों के लिए ही यह कैंप बना था. पापा और मम्मी लुधियाना में एक कालेज में पढ़ाते हैं. वहीं रहते हैं. दद्दा हर शाम डूबते सूरज की ओर देखकर आहें भरते हैं- शायद अपने गांव के चिनार की लंबी परछाई यहां कहीं दिख जाये. जम्मू में जब ठंड का मौसम आता है तो अपनी हथेलिओं को रगड़ते हुए वे कहते हैं, ‘‘हमारे अवंतीपुरा में बर्फबारी शुरु हो गयी है!’’

बारिश के मौसम से ही कश्मीर में आग लगी हुई थी. गलियों की ओर से पत्थर और ढेले, तो सी.आर.पी.एफ. की तरफ से बुलेट. और बीच में बनिहाल की सड़कों पर बच्चे और बीस साल के आसपास के नौजवानों की लाशें...ऐसे में मैं दद्दा के साथ खीर भवानी के मंदिर के मेले में गया हुआ था. और वहीं उनके बचपन के दोस्त गुलाम वलीउल्लाह ने आकर उनसे भेंट की. दोनों पुराने दिनों की यादों में गोते लगाते रहे. बचपन का हंसना, रोना, रूठना, मनाना, सब साथ साथ. वलीउल्लाह बार बार कहते रहे, ‘‘चल काके, हमारे साथ अपने घर चल-!’’

‘‘घर?’’ दद्दू उदास हो गये, ‘‘हम तो अपनी ही जड़ से कट चुके है.’’

गुलाम वलीउल्लाह अपने सफेद सिर को हिलाते रहे, ‘‘लोगों को उनकी सरजमीं से अलग करना तो रसूलुल्लाह को भी मंजूर न था. मगर सुनता कौन है? उन्हें खुद मक्के से विदा होकर याथरीब में पनाह लेनी पड़ी. इसकी कसक सभी को सालती रही. फिर भी...’’

मेले में आये मुसलमान हिन्दुओं को खाना खिला रहे थे. इधर वलीउल्लाह हमें पैगंबर की यह दास्तान सुनाते रहे...जड़ से अलग होने के गम की कहानी...

तब

उन दिनों की बात है जब नये नये इस्लाम धर्म को माननेवाले अपने अनुयायिओं को लेकर मुहम्मद साहब मक्का से दो सौ पचास मील उत्तर में स्थित याथरीब यानी मदीने में आ चुके थे. पहला हिजरी सन् के सात महीने पूरे होते होते इस्लाम की पहली मस्जिद बन चुकी थी. मगर मदीने के बीचों-बीच बाजार में एक चौंकानेवाली आंधी आने की सुगबुगाहट होने लगी.

मदीने के केन्द्र में स्थित बाजार पर क्वेनुका यहुदिओं का वर्चस्व था. मगर मुसलमानों के आ जाने से वे परेशान थे. मुसलमानों में कुछ तो सौदागर और कारीगर थे. वे लेनदेन का कारोबार करते भी थे, तो सूद नहीं लेते थे. इससे क्वेनुकाओं को और भी चिढ़ होती. इनके खरीदार धीरे धीरे मुसलमान व्यापारियों के यहां खिसकने लगे. जेवरात के व्यापारी बेन मुस्साफ तो क्वेनुका सर्दारों से कहने लगा, ‘‘मुसलमानों के साथ किये गये किसी करार को हम नहीं मानते. ये तो छाती पर बैठ कर मूंग दल रहे हैं. मक्का से मदीना आये ही क्यों?’’

बात बढ़ने लगी, तो एक शाम रसूल सर्दारों के पास पहुंचे, ‘‘हम सभी इब्राहीम की औलाद हैं. हजरत इब्राहीम के बड़े बेटे इस्माइल से ही हमारी कौम बनी है. तो फिर क्यों आपस में यह झगड़ा?’’

मगर वहां तो रेत गरम थी. समझौता होता कैसे? सर्दारों ने मुंह फेर लिया, ‘‘बद्र की लड़ाई में मक्का के कुरैशिओं को हरा कर यह खुशफहमी मत पालना कि बाजी तुम्हारे ही हाथों में होगी. हम भी तलवार पकड़ना जानते हैं.’’

चारों ओर ज्वालामुखिओं से घिरा याथरीब नखलिस्तान की हवा यूं ही गरमाने लगी. तभी एक दिन शाम को...

‘‘अरी ओ बीबी, तुम तीन जोड़ी चूड़ियां देख रही थी. बाकी दो कहां गईं? यहां तो बस चार ही हैं.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो, मुस्साफ भाई? मैं तो तब से इन दो जोड़िओं को ही देख परख रही हूं.’’

‘‘अरे भाई वाई का बहाना छोड़ो, बीबी. तुम मुसलमान तो हो ही ऐसे. अरे तुम तो सगे के भी नहीं होते. कुरैशी कबीले के होकर मक्का के कुरैशिओं से ही लड़ाई की. कायदे से अपने कपड़ों के भीतर से उन्हें निकालो, वरना मैं प्यादे को बुलाऊंगा.’’

‘‘हाय अल्लाह! यह क्या कह रहे हो?’’ उम्म जैअद ने अपने बेटे जैअद के नन्हें हाथों को कस कर पकड़ लिया. उस जमाने में अरबी लोग पहला बेटा पैदा होने के बाद ‘कुन्या’ का रश्म अदा करते थे. एक प्रकार से अब्बा अम्मीं का नामकरण. अबु बकर यानी बकर का अब्बा, और उम्म बकर- बकर की अम्मा...

‘‘अब तू बाहर निकालती है कि-?’’ बेन मुस्साफ की ऊंची आवाज से बाकी दुकानदार भी झांकने लगे, ‘‘बात क्या है, मुस्साफ भाई?’’

‘‘अरे मत कहो. जब से ये मुसलमान मक्का छोड़ मदीने में आये हैं, जीना हराम कर दिया है.’’

उम्म जैअद रोती जा रही थी. क्वेनुका व्यापारिओं की जमात फिकरे कस रही थी...रेगिस्तान की हवा तप गई.

इतने में खबर पाकर उसका शौहर थाकीफ दौड़ता हुआ आया, ‘‘चोरी! मेरी घरवाली ने की? तुम लोग झूठ बोल रहे हो.’’

‘‘क्या?’’ वहां खड़े दुकानदार और दूसरे क्वेनुका के लोग तैश में आ गये, ‘‘हां, हां, आदम और इब्राहीम के बाद तो एक तुम्ही लोग हो- सच्चाई के पुतले!’’

‘‘अजी सुना नहीं तुमने? ये शराब नहीं पीते. सूद लेना इनके लिए हराम है. मगर चोरी कर सकते हैं क्यों?’’

‘‘झूठ मत बोलो!’’ थाकीफ के मुंह से ये शब्द निकले ही थे कि-

‘‘क्या चोरी, ऊपर से सीना जोरी? मार स्साले के.’’ सभी उस पर पिल पड़े.

ऐसे में अरबी औरतों के रिवाज के मुताबिक उम्म जैअद भी छाती पीट पीट कर गला फाड़ कर रोने लगी. हिजरा करनेवाले यानी मक्का से याथरीब आये मुहाजिर मुसलमानों में यह खबर आग की तरह फैल गयी.

‘‘तो बुलाओ अपने हकम {पंच} को!’’ बेन मुस्साफ का साला हुऐ ने हुंकारा.

उस जमाने में मदीने के सारे यहूदी कबीले आपस में वर्चस्व के लिए लड़ते थे. मुहम्मद साहद को याथरीब में इसलिए भी पनाह मिल सकी कि वे बिना लाग लपेट के मध्यस्थता कर पायेंगे. वे मस्जिद से दौड़े दौड़े आये, ‘‘अरे भाई, बात क्या है?’’

हुऐ और मुस्साफ वगैरह चिल्लाते रहे. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या उम्म जैअद के कपड़ों से तुम्हें चूड़ियां मिलीं?’’

‘‘नहीं!’’

‘‘तो फिर किसी क्वेनुका औरत को बुलाओ. वह आकर इसकी तलाशी लें.’’

बेइज्जती के आंसू उम्म जैअद के गालों से टप टप चू रहे थे. रसूल ने समझाया, ‘‘बीबी, तुम्हारी ईमानदारी साबित करने का और कोई चारा नहीं है.’’

‘‘अजी छोड़ो. अब तक तो माल कहां से कहां खिसका दी होगी.’’ वे इस पर भी तैयार न थे. उन्हें एक मौका मिल गया था मुहाजिरों को याथरीब से खदेड़ने का.

इधर इनके ओर से भी कई अंसार (मददगार) यानी मदीने के मुसलमान और खजराज कबीले के यहूद आ धमके. हर एक की आंखों में शोले धधकने लगे. मुहम्मद साहब सबको शांत करते रहे.

मगर बेन मुस्साफ तैश में था, ‘‘एक एक को पकड़ कर सल्लाखी कर देनी चाहिए!’’ उस जमाने में सल्लाखी की सजा अरब में प्रचलित थी. इसमें जिंदा आदमी की खाल उतरवा ली जाती थी.

आखिर शाम होते होते वे अपने किले में घुस गये. सामने की सड़क बंद कर दी. उम्म जैअद और चूड़िओं की बात पीछे रह गई.

याथरीब के यहूदिओं के आपसी झगड़े में क्वेनुका कबीले के साथ खजराज यहूद थे. इसीलिए क्वेनुका के सर्दारों ने उन्हें बुला भेजा. मगर उन्होंने इंकार कर दिया. क्योंकि खजराज का मुखिया बरा-इब्न मरार ने अकबाह में शपथ ली थी कि जरूरत पड़े तो वे मुसलमानों के लिए हथियार उठा लेंगे. नादिर और कुरैजा के साथ रहनेवाले औस के यहूद भी उन्हीं के साथ थे.

कैनुका के पास सात सौ सिपाही थे. अपने दूसरे अरब साथिओं को वे खबर भिजवाते रहे, ‘‘यारों, जल्दी आओ. मदद करो. इन मुसलमानों को मदीने से खदेड़ो.’’

मगर दांव उल्टा पड़ गया. वे तो आये ही नहीं, बल्कि औस और खजराज यहूद पैगम्बर के साथ हो गये.

दो हफ्ते तक यह तमाशा चलता रहा. अरब की लड़ाई में घेरे बंदी की लड़ाई नहीं होती थी. मारो, काटो, लूटो और चलता बनो. रेगिस्तान में इतना पानी और रसद कहां कि लोग शिविर बना कर झंडा गाड़ कर पड़े रहें...

इधर मुहम्मद साहब का जानी दुश्मन अबदुल्ला-इब्न-उबै भी परेशान था. वह था तो खजराज अरबिओं का एक सर्दार, मगर पैगंबर के याथरीब आने के पहले यह संभावना थी कि वही वहां का बेताज बादशाह बना दिया जायेगा. वैसे अरबिओं को राजतंत्र से काफी घृणा थी. तो पैगम्बर के आने से उसके मंसूबों पर पानी फिर गया. उसने इस्लाम तो कबूल कर लिया था, मगर था एक मुनाफिक. यानी जिसके दिल में कुछ होता है और जबान में कुछ. वह हर बात पर रसूल का विरोध करता रहा. यहां तक कि जब महिलाओं के अधिकारों के लिए पैगंबर की पत्नी उम्म सलामाह बिंत अबी उमैयाह रोज आकर मुहम्मद साहब से फरियाद करतीं और महिलाओं से संबन्धित कुरान की नई नई आयतों की वाणी सुनाई देतीं, वह अपनी गुलाम बांदिओं से गलत काम करवाता था, और उनकी कमाई से अपने थैले भरता था. जब सारे मुसलमान परेशान हो उठे तो मौका पाकर वह चिल्लाने लगा, ‘‘देखो, मुहम्मद साहब ने फिर से हम लोगों को मुसीबत में डाल दिया है.’’ दिल से वह यही चाहता था कि खजराज या औस के अरब आकर क्वेनुकाओं की मदद करें...

मगर हुआ ऐसा कुछ नहीं. आखिर कैनुका सर्दारों को भी समझ में आ गया कि टकराने से कोई फायदा नहीं. समझौते की बातचीत शुरु हो गई. खून तो एक बूंद भी नहीं बहा, मगर इस रोग का इलाज क्या है? क्योंकि क्वेनुका के यहूद फिर से अगर ऐसा ही करें तो?

इब्न उबै दौड़ा दौड़ा मुहम्मद साहब के पास पहुंचा, ‘‘आप उन्हें याथरीब से बाहर निकल जाने दें बस, वे और कुछ नहीं चाहते हैं.’’

क्वेनुका ने हार मान ली थी. ऐसे में अरब की परंपरा तो यही थी कि हारे हुए कबीले के लोगों के सिर कलम कर लिए जाएं, उनकी दौलत लूट ली जाये, उनकी औरतों को बंदी बना लिया जाए और बच्चों को गुलाम बाजार में बेच दिया जाए. मगर पैगम्बर तो अपने दोनों हाथों से अरब के आसमां में नये आफताब को लाना चाहते थे. उन्होंने ऐसा कुछ होने न दिया. उधर क्वेनुका बस्ती में और किले के अंदर रोना धोना शुरू हो गया था, ‘‘हम तो बर्बाद हो गये. अब तो हमें बाजारों में बेच देंगे-!’’

‘‘बेन मुस्साफ की वजह से हम अपने वतन से उजड़ गये.’’ सारी औरतें पानी पी पी कर उसे कोस रही थीं, ‘‘क्या जरूरत थी झूठे इल्जाम लगाने की?’’

इधर रसूल ने यह शर्त मान ली. औरत मर्द बच्चे सभी मदीने से सकुशल बाहर जा सकते हैं. उन्हें कोई कुछ नहीं कहेगा. इब्न उबै दौड़ा कैनुका सर्दारों के खेमे में.

नबी के चलते कोई दूसरा कबीला भी उनके लिए कुछ कहने नहीं आया. याथरीब में उनकी इतनी प्रतिष्ठा थी.

अपने घर दुआर, बरतन भांड़े, बिछौना ओढ़ना, ऊंट और भेंड़ सबकुछ छोड़कर कैनुका यहूद याथरीब से चले जा रहे थे. औरतें रो रही थीं. उनकी गोद में बच्चे कलप रहे थे. बूढ़े अपने कांपते हाथों से अपनी आंखें पोंछ रहे थे. सयाने लोगों के सर झुके हुए थे. नन्हा हारेत्ज बार बार अपनी मां से जिद कर रहा था, ‘‘अम्मा, मेरी गाड़ी तो ले चलो.’’

दोपहर ढल चुकी थी. असर की नमाज जमीं से उड़ कर सातवें आसमां में लहरा रही थी. मुहम्मद साहब मस्जिद के सामने चबूतरे पर बैठे हुए थे. कैनुका कबीले का काफिला मुड़ मुड़ कर पीछे देखते हुए चला जा रहा था. औरतें छाती पीट पीट कर रो रही थीं, ‘‘हाय अल्लाह, हम तबाह हो गये.’’

मां का हाथ थामे जाते हुए नन्हे बच्चे पूछ रहे थे, ‘‘अम्मा, हम कहां जा रहे हैं? क्यो जा रहे हैं? अब हमारा घर कहां

होगा?’’

रसूल के कानों तक सारे सवाल आ रहे थे. वह उदास बैठे थे. खजूर के पेड़ों के पीछे सूरज भी शायद अपना मुंह छुपाने की कोशिश कर रहा था. इतने में अबु बकर की बेटी, नबी की सबसे प्यारी पत्नी आयशा उनके पास आकर खड़ी हो गयी, ‘‘आपको क्या हो गया? उदास क्यों हैं?’’

‘‘कुरैशिओं ने हमें मक्के में रहने न दिया, वहां से खदेड़ा. इसीलिए हमने उनके खिलाफ लाल सागर के किनारे बदर की जंग लड़ी. मगर आज? आज तो हम भी इन आदम की औलादों को अपनी जड़ से अलग कर रहे हैं. सर्दारों ने जो कुछ किया, उसकी सजा ये मासूम बच्चे और बेगुनाह औरतें क्यों भुगतें? आखिर क्यों?’’ रसूल का गला भर आया. आयशा ने देखा रेगिस्तान की मरीचिका की तरह कुछ चमक रही है- उनकी आंखों के नीचे-

उधर लाल सागर के ऊपर मदीने के पश्चिम में बदर के आसमान में एक लाल गोला डूबता जा रहा था- शायद रसूल के आंसुओं का जबाब को ढूंढ़ने....

आगे

तो दद्दा के दोस्त गुलाम वलीउल्लाह ने उनसे कहा, ‘‘अब मैं तेरा एक न सुनूंगा. चल, तेरी जन्मभूमि- तेरा गांव तुझे बुला रहा है!’’

शाम तक वे हम दोनों को लेकर अवन्तीपुरा की बस में सवार हो गये. कभी सीधी कभी टेढ़ी राहों से होकर बस चल पड़ी.

आभारः मुहम्मद, लेखिकाः कारेन आर्मस्ट्रांग

सम्पर्कः सी, 26/35-40,ए,

रामकटोरा, वाराणसी-221001

मोः 9455168359 फोः 0542-2204504

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रचनाकार: प्राची - मार्च 2016 - कहानी - रसूल के आंसू / डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी
प्राची - मार्च 2016 - कहानी - रसूल के आंसू / डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी
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