प्राची - मार्च 2016 - व्यंग्य - स्वदेशी रेल / शौकत थानवी

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व्यंग्य ‘‘जनाब, आप आंखें मुझ पर क्यों निकाल रहे हैं. मेरा क्या कसूर है? दो घंटे से लल्लू फायरमैन कोयला लेने गया हुआ है. कह दिया कि लपककर ...

व्यंग्य

‘‘जनाब, आप आंखें मुझ पर क्यों निकाल रहे हैं. मेरा क्या कसूर है? दो घंटे से लल्लू फायरमैन कोयला लेने गया हुआ है. कह दिया कि लपककर जल्दी से ले आना. अभी तक गायब है. मालूम नहीं कहां गया. पता भी बता दिया था कि रकाबगंज के चौराहे से या ऐश बाग के फाटक से ले आना. दो-चार पैसे कम-ज्यादा का खयाल न करना. मगर वह जाकर मर रहा. बताइए, मेरा क्या कसूर है.’’

स्वदेशी रेल

शौकत थानवी

दिन-भर के थके-मांदे भी थे और रात को सफर भी करना था. मगर बंदे मातरम् के नारों पर कान खड़े कर लेना हमारी हमेशा की आदत है और इन नारों को भी जिद है कि हमारा चाहे जो हाल भी हो, बीमार हों, किसी जरूरी काम से बाहर जा रहे हों या और कोई मजबूरी हो, मगर ये कुछ नहीं देखते और अपनी तरफ हमको खींचकर ही छोड़ते हैं. आज भी यही हुआ कि हुक्के का नेचा और सुराहियां एक दूकान पर यह कहकर रख दीं कि भाई अभी आते हैं और सीधे पण्डाल में घुस गए जहां एक साहब जो सूरत से लीडर मालूम होते थे, यानी सिर पर गाढ़े की गांधी कैप, दाढ़ी-मूंछ गायब, एक लम्बा-सा खद्दर का कुर्त्ता, टांगों में वहीं खद्दर की धोती और चप्पल पहने हुए थे; एक हाथ अपनी पीठ पर रखे हुए और दूसरे को भीड़ की तरफ उठाए इस तरह हरकत दे रहे थे जैसे बैंड मास्टर अपने बेंत को हिलाता है. वह कुछ कह भी रहे थे, मगर मालूम नहीं क्या. इसलिए कि कभी तो कहते-कहते दायीं तरफ घूम जाते थे, कभी बायीं तरफ और कभी-कभी एकदम से पीछे भी मुड़ जाते थे. बहरहाल यह फैसला करना कि हम उनकी पीठ की तरफ हैं या सामने की तरफ इसलिए मुश्किल था कि उनको खुद चैन नहीं था. वह तख्त जिस पर खड़े हुए वे घूम रहे थे लोगों के बीच में था और सब लोगों का रुख तख्त की तरफ. कभी किसी तरफ मुंह, कभी किसी तरफ पीठ हो जाने का सिलसिला जारी था और इसी तरह उनके शब्द कभी बिलकुल साफ, कभी दूर की आवाज की तरह और कभी बिलकुल नहीं, हमारे कानों में पहुंच रहे थे. हां, एक बात यह थी कि हमारी तरफ के लोग शोर मचाते हैं तो दक्षिण और पश्चिम के लोगों से ज्यादा माहिर मालूम होते हैं. इसलिए हम भाषण सुनने के मामले में जरा घाटे में थे. फिर भी जो कुछ सुना वह बहुत काफी था इसलिए कि शुरू से लेकर आखिर तक शब्द बदल-बदलकर कभी अंग्रेजी में, कभी उर्दू में, कभी गद्य में, कभी पद्य में, कभी हंसकर, कभी चीखकर, कभी इधर मुड़कर, कभी उधर घूमकर वही शब्द कहे जा रहे थे जो हमने सुन लिये थेः

‘‘भाइयो, अब वह वक्त नहीं है कि रेजुलेशन पास हों और रह जाएं. तजबीजें मंजूर हों और उन पर अमल न हो...सरगर्मियां...अब तैयार हो जाओ...होशियार रहो...कि तुमको...31 दिसंबर, 1929 के बाद अपना काम अपने हाथ से अंजाम देना है, अपने पैरों पर खड़ा होना है...(दूसरी तरफ घूम गये) ख्वाबे-गफ़लत...से बेदारी का वक्त यह है...और वहां तुम...ब्रिटिश गवर्नमेंट...स्वराज स्वदेशी...चर्खा खद्दर.’’ (चीयर्स के बाद भाषण खत्म हुआ.)

दो घंटों में सिर्फ हमने यही सुना और समझ गये कि 31 दिसम्बर, 1929 को स्वराज जरूर मिल जाएगा. शायद इससे ज्यादा उन्होंने कुछ कहा भी नहीं होगा. और अगर कहा भी हो तो हम क्या करें, हमारे लिए यही बहुत था कि 31 दिसम्बर को स्वराज मिलेगा. हम इसी ख्याल में डूबे लोगों को धकेलते, खुद धक्के खाते, किसी न किसी तरह बाहर निकल आए. दूकानदार से हुक्के का नेचा लिया. सुराहियां इक्के पर लादीं और घर पहुंच गये. सामान बांधा, खाना खाया, हुक्का भरा. आरामकुर्सी पर लेटकर शौक फरमाने लगे. गाड़ी के वक्त में अभी पूरे दो घंटे थे इसलिए इत्मीनान भी था. मगर एहतियात के लिए शेरवानी नहीं उतारी थी कि जैसे ही डेढ़ घंटा बाकी रह जाएगा, स्टेशन रवाना हो जायेंगे.

लैक्चर का ख्याल और 31 दिसंबर के बाद स्वराज का मिल जाना दिमाग में चक्कर लगा रहा था. मगर हमारी समझ में किसी तरह यह बात नहीं आती थी कि आखिर स्वराज के लिए 31 दिसम्बर क्यों निश्चित किया गया. अगर आज 31 दिसंबर होती तो हम अपनी रेल पर सफर करते. न विदेशी गार्ड होता न फॉरन ड्राईवर, न एंग्लो-इंडियन का अलग दर्जा होता. हम खुद ही रेल के मालिक होते, चाहे थर्ड में बैठते, चाहे फर्स्ट में, हमसे कोई पूछनेवाला न होता. हम खुद फर्स्ट में बैठते और अंग्रेजों को थर्ड में बिठाकर खुश होते हुए सफर करते. हम यह सोच रहे थे कि एकदम से कानों में फिर वही बंदे मातरम् की आवाज आयी. और हम एकदम से खड़े हो गए. घर से बाहर निकले...देखते क्या हैं कि एक बड़ा जुलूस झंडों, झंडियों और गैसों से सजा हुआ बंदे मातरम् के नारों से आसमान और जमीन से टकराता गौर से उलट-पलटकर देखने के बाद बाबू साहब का मुंह देखने लगे. बाबू साहब हमारी इस हरकत से हमारा मतलब समझ गए और मुसकराकर कहने लगे-

‘‘जनाबवाला, रात को स्वराज मिला है. अभी नये टिकट नहीं छपे हैं. दो-तीन दिन में छप जाएंगे. आपको टिकट से क्या मतलब, आप सफर कीजिए. अब आपसे कोई कुछ न पूछेगा, इत्मीनान रखिए.’’

बाबू साहब ने तसल्ली तो दे दी मगर हम देख रहे थे टिकट पर न तारीख है, न किराया, न, फासला. और हो तो तो कहीं से-उन्होंने तो यह भी नहीं लिखा कि हम सफर आखिर कर कहां से रहे हैं. बहरहाल यह समझकर कि या तो यह रुपया गया या हम तेरह आने के फायदे में रहे, हम स्टेशन में दाखिल हो गए.

स्टेशन में हालांकि सबकुछ वही था जो आज से पहले हम देख चुके थे. मगर इस सबके बावजूद यह मालूम होता था कि किसी ने स्टेशन की कालाबाजी खिला दी है, या उल्टा बांधकर टांग दिया है. वही घड़ी थी और वही घड़ियाल मगर दस बजने में चालीस मिनट बाकी थे जबकि अब ग्यारह का वक्त था. सामान के ठेले पर पानवाला अपनी दुकान लगाए बैठा था. कुलियों का कहीं पता न था. हमारी समझ में न आता था कि सामान किस तरह रेल में पहुंचाएं. बड़ी मुश्किल से एक कुली मिला. लेकिन जैसे ही हमने उससे सामान उठाने को कहा, उसने गुस्से से जवाब दिया-

‘‘अंधे हो गए हो! दिखायी नहीं देता कि हम कुली हैं या असिस्टेंट स्टेशन मास्टर!’’

हम-‘माफ़ कीजिएगा गलती हुई’-कहकर पूरे एक गज पीछे हट गए. असिस्टेंट स्टेशन मास्टर साहब को सिर से पैर तक गौर से देखकर सोचने लगे कि या अल्लाह, यह क्या इन्किलाब है? पहले तो इस सूरत के कुली हुआ करते थे. अब अगर इस सूरत के असिस्टेंट स्टेशन मास्टर होने लगे हैं तो कुली किस सूरत का होगा. मजबूरन हमने अपना सामान खुद उठाया और दो बार करके सैकिण्ड क्लास के डिब्बे में रखा, जहां पहले से एक जैन्टलमैन बैठे चिलम पी रहे थे. सामान ठीक से रखकर जब जरा इत्मीनान हुआ तो हमने सोचा कि यह जांच कर लेनी चाहिए कि यही गाड़ी कानपुर जाएगी या कोई और. सबसे पहले तो हमने इन्हीं हजरत से पूछा जो हमारे डिब्बे में तशरीफ रखते थे. लेकिन रेल के सैकिण्ड क्लास के इज्जतदार पैसेंजर थे. इनसे भला क्या मालूम हो सकता था. मजबूरन हम प्लेटफार्म पर आए और दो-एक आदमियों से पूछने के बाद यह मालूम हुआ कि मुसाफिर अगर कानपुर के ज्यादा हुए तो वहां जाएगी वर्ना जहां के मुसाफिरों की तादाद ज्यादा होगी वहां चली जाएगी. इसीलिए अभी तक इंजिन नहीं लगाया गया है कि खुदा को मालूम ट्रेन को पूर्व की तरफ जाना पड़े या पश्चिम की तरफ. हमने घबराकर पूछा-

‘‘लेकिन यह फैसला कब होगा?’’

जवाब मिला कि जब गाड़ी भर जाएगी, उसी वक्त फैसला हो सकता है.

हमने फिर पूछा-‘‘लेकिन गाड़ी का वक्त तो हो चुका?’’

जवाब मिला-‘‘हो जाया करे. जब तक रेल भर न जाए, किस तरह छोड़ी जा सकती है. क्या खाली रेल छोड़ दी जाए?’’

अब हम बिलकुल अपनी किस्मत पर राजी होकर खामोश हो गए. इस इंतजाम को बुरा इसलिए नहीं कह सकते थे कि हमारी ही दुआ थी. अच्छा इसलिए नहीं कह सकते थे कि हमें आज ही कानपुर पहुंचना था, जिसकी अब कोई उम्मीद नजर नहीं आती थी. कभी अपने डिब्बे में बैठकर, कभी लोटे में पानी लाकर, कभी इंजिन को पूर्व और पश्चिम की तरफ दूर तक नजर दौड़ाकर ढूंढ़ने की कोशिश करके, कभी मुसाफिरों की तादाद का अंदाजा लगाकर वक्त काटने लगे. ग्यारह से बारह, बारह से एक, एक से दो बजे मगर न घड़ी की सुई हटी और न ट्रेन अपनी जगह से हिली. सिर्फ हम टहलते रहे. खुदा-खुदा करके एक आदमी ने ऊंची आवाज में चीखना शुरू किया-‘‘बैठने वाले मुसाफिरों, बैठो, गाड़ी छूटती है.’’

हमने जल्दी से पहले पूर्व की तरफ इंजिन ढूंढ़ा, फिर पश्चिम की तरफ. मगर दोनों तरह इंजिन गायब था और हमारी समझ में बिलकुल न आया कि बगैर इंजिन के गाड़ी किस तरह छूट सकती है. मगर इन शब्दों पर शक करना इसलिए कुफ्र समझते थे कि इसके कहनेवाला कोई गैर-जिम्मेदार आदमी नहीं था बल्कि वह असिस्टेंट स्टेशन मास्टर साहब थे जिनको हम कुली समझते थे. खैर, बगैर कुछ सोचे-समझे हम अपने डिब्बे में बैठ गए. हमारे बैठते ही दो-तीन दर्जन लट्ठबंद गंवार हमारे दर्जे में घुस आए. इनसे हमने लाख कह़ा-‘‘अरे, सैकण्ड क्लास है. अमां, सैकण्ड क्लास है! भाई, सैकण्ड क्लास है.’’ मगर उन्होंने एक न सुनी और यही कहते रहे कि हम जानत हैं, डेवढ़ा है. हम टिकस लिया है. खैर साहब, चुप हो गए और प्लेटफार्म पर इसलिए आए कि किसी से कह दें. मगर गार्ड-वार्ड नजर न आया. मजबूरन इन्हीं असिस्टेंट स्टेशन मास्टर से अर्ज कर दिया. जिसका जवाब उन्होंने अपनी स्वदेशी शान से सिर्फ यह दिया-‘‘बैठिए जनाब, सब हिन्दुस्तानी बराबर हैं, सब भाई हैं, सब भारत माता के सपूत हैं, कोई किसी से बड़ा या छोटा नहीं है; अब सैकण्ड क्लास और थर्ड क्लास के फर्क को भूल जाइए. सबको बराबर का समझिए. जाइए, तशरीफ रखिए, नहीं तो थर्ड क्लास में भी जगह न मिलेगी.’’ हम यह खरा जवाब सुनकर मुंह लटकाए हुए अपने दर्जें में आ गए जहां हमारी जगह पर कब्जा हो चुका था और हमको यह तय करना था कि खड़े-खड़े सफर करना होगा या गुसलखाने में जगह मिलेगी. मजबूरन अपना ट्रंक घसीट उस पर बैठकर गाड़ी छूटने का इंतजार करने लगे.

हमको बैठे-बैठे भी एक घंटे के करीब हो गया, गाड़ी उसी तरह खड़ी रही. घबराकर हम प्लेटफार्म पर आए तो देखा कि इंजिन गाड़ी में लगाया जा रहा है और खुदा का शुक्र है कि कानपुर की ही तरफ लगाया जा रहा है. लेकिन इंजिन लगने के बाद जब गाड़ी देर तक न छूटी तो हमने इस देर की वजह पूछी. मालूम हुआ कि अभी सेक्रेटरी साहब टाउन कांग्रेस कमेटी का इंतजार है. वे कानपुर जाएंगे. उन्होंने कहला भेजा था कि बारह बजे आ जाएंगे. लेकिन अभी तक नहीं आए. आदमी लाने के लिए गया हुआ है.

यह पहला मौका था कि हमारे मन में यह सवाल पैदा हुआ कि हम कानपुर जाएं या एक रुपए पर सब्र करके इरादा छोड़ दें. काम बड़ा जरूरी था इसलिए जाना जरूरी था. गाड़ी छूटी न थी, इसलिए सफर करने का इरादा खत्म हो रहा था. अजीब कशमकश में जान थी. मालूम नहीं कौन-सा वक्त था जब हमारे मुंह से यह दुआ निकली थी. अब तो इसको वापस भी लेना मुश्किल था. हम इस सोच में गर्दन झुकाए अपने ट्रंक पर बैठे थे कि एकदम से वंदे मातरम् के आसमान छूनेवाले नारों से उछल पड़े. मालूम हुआ कि सेक्रेटरी साहब टाउन कांग्रेस कमेटी तशरीफ ले आए. हमने भी खिड़की में से झांककर देखा तो एक भीड़ में वहीं लीडर साहब दिखाई दिए जिन्होंने रात को भाषण करके स्वराज दिलाया था और अब हमको मालूम हुआ कि वही सेक्रेटरी टाउन कांग्रेस कमेटी हैं. सो इनके तशरीफ लाने के बाद हर आदमी अपनी-अपनी जगह पर बैठ गया और इंजिन भी सुन-सुन करने लगा. एक खद्दरपोश बुजुर्ग लाल और हरे गाढ़े की झंडियां लिये हुए भी नजर आए और हमने अपनी जगह समझ लिया कि यह गार्ड है. इन गार्ड साहब ने कुर्ते की जेब से एक सीटी निकालकर बजाई और पहले सुर्ख और फिर जल्दी से हरी झंडी इस तरह हिलाने लगे जैसे पहले गलती से लाल झण्डी हिला दी थी. दो-तीन बार सीटी बजाकर और झण्डी हिलाकर आखिर गुस्से में इंजिन की तरफ झपटे और ड्राइवर को डांटना शुरू कर दिया-‘‘घंटे भर से सीटी बजा रहा हूं, मगर तुम्हारे कान में आवाज ही नहीं आती और आंखें भी फूट गयी हैं कि झण्डी भी नहीं देखते.’’ ड्राइवर ने भी उनके बेजा गुस्से का जवाब कड़ककर दिया-‘‘जनाब, आप आंखें मुझ पर क्यों निकाल रहे हैं. मेरा क्या कसूर है? दो घंटे से लल्लू फायरमैन कोयला लेने गया हुआ है. कह दिया कि लपककर जल्दी से ले आना. अभी तक गायब है. मालूम नहीं कहां गया. पता भी बता दिया था कि रकाबगंज के चौराहे से या ऐश बाग के फाटक से ले आना. दो-चार पैसे कम-ज्यादा का खयाल न करना. मगर वह जाकर मर रहा. बताइए, मेरा क्या कसूर है.’’

गार्ड साहब भी ड्राइवर को बेकसूर समझकर चुप हो गए और कोयले के इंतजार में गाड़ी रोकने पर मजबूर हो गए. इंजिन में यह बुरी बात है कि वह बगैर कोयले के चल ही नहीं सकता. जिस तरह घोड़े के लिए दाना-घास जरूरी है, बिलकुल इसी तरह जब तक कोयला भर न दिया जाए इंजिन चलने का नाम नहीं लेता. घोड़ा बेचारा तो थोड़ी देख भूखा भी चल सकता है, मगर यह इतना भी काम नहीं दे सकता. अब बताइए कि रेल भी थी, इंजिन भी, मुसाफिर भी, गार्ड भी, सेक्रेटरी साहब टाउन कांग्रेस कमेटी भी आ गए थे और ड्राइवर भी था, मगर एक कोयले के न होने से सबका होना-न होना बराबर था. पूरे डेढ़ घंटे बाद लल्लू फायरमैन कोयले की गठरी लिये यह कहता हुआ आ पहुंचा-

‘‘आधी रात को कोयला मंगाने चले हैं. सब दुकानें बंद हो चुकी थीं. एक दूकान पर इतना-सा कोयला था, वह भी बड़ी मुश्किल से एक रुपया नौ आने में मिला है. भागता हुआ आ रहा हूं. रास्ते में गिर भी पड़ा था. तमाम घुटने छिल गए, कोयला वगैरह दिन में मंगा लिया करो.’’

ड्राइवर ने जल्दी से कोयला डाला और सीटी बजाकर गाड़ी छोड़ दी. गाड़ी चली ही थी कि एक शोर मच गया-‘‘रोको, रोको, गार्ड साहब रह गए.’’ गाड़ी रुकी और गार्ड साहब को सवार करके चली. अभी दो फर्लांग मुश्किल से चली होगी कि गाड़ी फिर रुकी और गार्ड साहब ने ड्राइवर से चिल्ला-चिल्लाकर पूछना शुरू किया-‘‘अरे, लाइन क्लियर भी ले लिया था?’’ ड्राइवर ने भी चिल्लाकर जवाब दिया-‘‘ले लिया था, ले लिया था.’’ गार्ड साहब ने जब इस तरफ से भी इत्मीनान कर लिया तो फिर फरमाया-‘‘अच्छा तो छोड़ो गाड़ी, मैं सीटी बजाता हूं.’’ गाड़ी फिर चली अब गाड़ी की रफ्तार के बारे में हमने सोचना शुरू किया कि यह मेल है या एक्सप्रेस. इसलिए कि इससे ज्यादा तेज शायद हम खुद चल लेते और अगर अभी भी शर्त लगाकर दौड़ें तो इस गाड़ी से पहले कानपुर पहुंचने का वायदा करते हैं. हम से आखिर न रहा गया और अपने एक हमसफर से पूछा-‘‘क्यों साहब, यह मेल है या एक्सप्रेस?’’ वे पहले ही कुछ खफा बैठे थे. शायद गाड़ी पर खफा होंगे. गुस्सा हम पर उतारा और झिड़ककर फरमाने लगे-‘‘मियां, खुदा का शुक्र करो कि यह गाड़ी ही है, तुम मेल एक्सप्रेस लिये फिर रहे हो.’’ उनका जवाब सुनकर हमने खिड़की में गर्दन डालकर जंगल की सैर करना शुरू कर दी. मगर सैर से ज्यादा दिलचस्प दृश्य यह था कि रास्ते के नये मुसाफिर चलती गाड़ी पर सवार होते जाते थे और गाड़ी छक-छक चल रही थी. इसी रफ्तार से चलकर गाड़ी अमौसी के स्टेशन पर रुकी. अब वहां एक नया झगड़ा यह शुरू हो गया कि स्टेशन मास्टर अमौसी ने ड्राइवर पर खफा होना शुरू किया कि जब तक मैंने सिगनल नहीं दिया, तुमको स्टेशन में गाड़ी लाने का हक कौन-सा था.

ड्राइवर-जब आपने गाड़ी आते देख ली थी तो सिगनल क्यों नहीं दिया?

स्टेशन मास्टर-एक तो गाड़ी आया, ऊपर से जबान लड़ाता है! अभी निकलवा दूंगा. दूसरा ड्राइवर रख लूंगा जो मुझसे गुस्ताखी की. अगर गाड़ी लड़ जाती तो तुम्हारा क्या जाता. आयी-गयी सब हम पर आती.

ड्राइवर-देखिए, जबान संभालकर किसी शरीफ आदमी से बातें किया करें. नौकरी की है, इज्जत नहीं बेची है. बड़े आए वहां से निकालने वाले जैसे हम इन्हीं के नौकर हैं. अच्छा किया गाड़ी लाए. खूब किया गाड़ी लाए. अब इस जिद पर तो हजार बार लायेंगे. देखें, हमारा कोई क्या करता है.

स्टेशन मास्टर-देखिए गार्ड साहब, मना कर दीजिए इसको, कैसी कमीनेपन की बातें कर रहा है. अफसरी-मातहती का कुछ खयाल नहीं. मैं छाती पर चढ़कर खून पी लेता हूं.

गार्ड-जाने भी दो, अमां जाने भी दो, हाय-हाय क्या करते हो. अमां, तुम्हीं हट जाओ. भाई, तुम्हीं हट जाओ. और अरे, छोड़ो, भी, हटो भी, सुनो तो सही. अरे यार, सुनो तो....

स्टेशन मास्टर ने ड्राइवर को और ड्राइवर ने स्टेशन मास्टर को धूंसे, लातें, थप्पड़, जूते रसीद करना शुरू कर दिए और सब मुसाफिर यह झगड़ा देखने खड़े हो गए. बड़ी मुश्किल से गार्ड ने बीच-बचाव किया और समझा-बुझाकर दोनों को ठंडा किया. अभी बेचारा समझा ही रहा था कि किसी ने आकर बड़ी घबराई हुई आवाज में कहना शुरू किया-

‘‘गार्ड साहब, ए गार्ड साहब! अजी, वह मालगाड़ी सामने से आ रही है और इसी पटरी पर आ रही है. गजब हो गया.’’ गार्ड भी यह सुनते ही बदहवास हो गया और चीखना शुरू कर दिया- ‘‘मुसाफिरों, जल्दी उतरो, जल्दी उतरो, गाड़ी लड़ती है, गाड़ी लड़ती है, जल्दी उतरो.’’

सब मुसाफिर घबराकर अपना सामान कुछ लेकर, कुछ छोड़कर गाड़ी से निकल आए और देखते ही देखते मालगाड़ी जिसका ड्राइवर सो गया था, इसी गाड़ी से इस बुरी तरह टकराई कि खिड़की का एक शीशा टूटकर मेरे मुंह पर आ गिरा. मैं एकदम से चौक पड़ा. हुक्के की नै मेरे ऊपर आकर गिरी थी. हुक्का जल चुका था. आरामकुर्सी भी ओस से भींग चुकी थी और घड़ी में अभी दो बजने के करीब थे. मैं कुर्सी से उठकर चारपाई पर लेट गया क्योंकि अब गाड़ी तो सोने की वजह से छूट ही चुकी थी. अब हो ही क्या सकता था सिवाय आराम से सोने के.

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: प्राची - मार्च 2016 - व्यंग्य - स्वदेशी रेल / शौकत थानवी
प्राची - मार्च 2016 - व्यंग्य - स्वदेशी रेल / शौकत थानवी
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