रचना और रचनाकार (१३)-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना / डॉ. सुरेन्द्र वर्मा

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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की रचना धर्मिता नई कविता के समर्थ कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एक ऐसे संवेदनशील रचनाकार हैं जो एक ओर अपनी निजी कोमल भा...

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की रचना धर्मिता

नई कविता के समर्थ कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एक ऐसे संवेदनशील रचनाकार हैं जो एक ओर अपनी निजी कोमल भावनाओं को अपनी कविताओं में अभिव्यंजित करते हैं वहीं दूसरी और आम जन की पीड़ा, आर्थिक विषमता से छटपटाते उनके दु:ख दर्द और अपने समय के यथार्थ को भी अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं. वस्तुत: वे एक ऐसे युग-चेता कवि के रूप में उभरे हैं जिनका भारत की स्वतंत्रता के उपरांत अन्य बुद्धिजीवियों की तरह भारत की सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था के प्रति पूरी तरह मोह भंग हो गया था. वे व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन चाहते थे और इसके लिए वे अपने काव्य में जनता का आह्वाहन करते रहे.

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म १५ सितम्बर १९२७ को बस्ती (उ.प्र.) में हुआ था. उनकी आरंभिक शिक्षा बस्ती में ही हुई, किन्तु उन्हें उच्च शिक्षा वाराणसी और इलाहाबाद में मिली. उन्होंने अपनी आजीविका के लिए कई धंधे अपनाए. अध्यापिकी भी की और क्लर्की भी. आकाशवाणी में वे सहायक प्रोड्यूसर रहे. “दिनमान” के उपसंपादक रहे तो “पराग” के सम्पादक भी बने. “दिनमान” के स्तम्भ ”चरचे और चरखे” में उन्होंने मार्मिक लेखन किया. “पराग” में बालोपयोगी साहित्य परोसा. सर्वेश्वर दयाल, अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरे “सप्तक” के कवि हैं. “प्रतीक” में भी वे लिखते रहे. कविता के अतिरिक्त कहानी, नाटक और बाल साहित्य में उनका महत्वपूर्ण योगदान है. सन १९७३ में वे सोवियत संघ के निमंत्रण पर पुश्किन समारोह में सम्मिलित हुए. २४ जनवरी १८८३ को उनका केवल छप्पन वर्ष की अवस्था में आकस्मिक निधन हो गया.

सर्वेश्वर दयाल सदैव एक परिवर्तन-कामी कवि रहे हैं. इसके लिए, ज़ाहिर है, वे आत्मविश्वास को आवश्यक गुण मानते हैं. लीक पर चलना उन्हें पसंद नहीं है. वे कहते हैं –

 

लीक पर वे चलें जिनके / चरण दुर्बल और हारे हों

हमें तो हमारी यात्रा से बने / ऐसे अनिर्मित पथ प्यारे हैं.

वे कभी हार मानने वाले नहीं रहे. पराजय उन्हें कभी पस्त नहीं कर सकी. वे दोबारा शक्ति अर्जित करने के लिए कटिबद्ध रहे. “प्रार्थना” में कहते हैं –

नहीं, नहीं प्रभु तुमसे / शक्ति नहीं मांगूंगा / अर्जित करना है इसे

मारकर बिखरकर / आज नहीं ,कल सही / लौटूंगा उभरकर.

वे यह भी प्रार्थना करते हैं कि –

अपनी दुर्बलताओं का मुझे अभिमान रहे /

अपनी सीमाओं का / नित मुझे ध्यान रहे,

परन्तु

चरणों पर गिरने से मिलता है / जो सुख वह नहीं चाहिए

कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना अपने समय की बदहाली के लिऐ पूंजीपतियों और सरकारी कर्मचारियों के अतिरिक्त मूलत: राजनेताओं को दोषी मानते है. उनकी कविताओं में वे “भेड़िए” की तरह डरावने और खूंखार हैं तथा “गौबरैला” की तरह गलीज़ हैं. लेकिन इनसे खौफ खाने की ज़रूरत नहीं है. बेशक, “भेड़िए की आँखें सुर्ख हैं”, लेकिन वे कहते हैं

 

उसे तबतक घूरो / जबतक तुम्हारी आँखें / सुर्ख न हो जाएं.

ज़रुरत इस बात की नहीं है कि हम भेड़ियों से भयभीत हो जाएं बल्कि आवश्यकता यह है कि हम भी अपने क्रोध और गुस्से को वाणी दें. –

 

भेड़िया गुर्राता है /तुम मशाल जलाओ / उसमें और तुममे

यही बुनियादी फर्क है / /भेड़िया मशाल नहीं जला सकता

करोड़ों हाथों में मशाल लेकर / एक झाड़ी की ओर बढ़ो

सब भेड़िए भागेंगे.

ज्ञान और एकता की जो रोशनी है वही अंतत: हमें शोषण से बचा सकती है. हमें इस मशाल को बराबर जलाए रखना है क्योंकि—

 

भेड़िए फिर आएँगे / फिर इतिहास के जंगल में / हर बार

भेड़िया माद से निकाला जाएगा/ आदमी साहस से एक होकर

मशाल लिए खडा होगा.

कितनी ही विषम परिस्थिति क्यों न हो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना कभी उम्मीद नहीं छोड़ते. बस हमें “अभी और यही” कुछ न कुछ कर गुज़रना है.

 

इंतज़ार शत्रु है / उसपर यकीन मत करो / उससे बचो

जो पाना फ़ौरन पा लो / जो करना है फ़ौरन करो.

अन्यथा ये गलीज़ “गुबरैले” हमें चैन से जीने नहीं देंगे

 

वे आश्चर्य करते हैं—

यह क्या हुआ / देखते देखते / चारों तरफ गुबरैले छा गए

गौबरैले – काली चमकदार पीठ लिए / गंदगी से अपनी दुनिया रचाते

धकेलते आगे बढ़ रहे हैं / कितने आत्मविश्वास के साथ ...

देखने, सुनने समझने के लिए / अब यहाँ कुछ नहीं रहा

सत्ताधारी, बुद्धिजीवी / जननायक, कलाकार सभी की

एक जैसी पीठ / काली चमकदार / सभी की एक जैसी रचना

एक जैसा संसार...

गुबरैले बढ़ रहे हैं / गौबरैले चढ़ रहे है / और हम सब /

गंभीर इश्तहारों से लदी दीवार की तरह निर्लज्ज खड़े हैं.

हालात नाकाबिले बर्दाश्त हैं. इन्हें बदलना होगा. कुछ न कुछ उपाय करना ही होगा. लड़ो, शोषण के विरुद्ध, अत्याचार के विरुद्ध, भूख के विरुद्ध – लड़ो. प्रयत्न करना, संघर्ष करना ही एकमात्र रास्ता है. चुप रहना, यथास्थिति को स्वीकार कर लेना, कभी मूल्यवान नहीं हो सकता. विषम परिस्थितियों में डटकर खडा रहना और उनका सामना करना ही श्रेयस्कर है. खूबसूरती इसी में है. सर्वेश्वर दयाल कहते हैं -

 

जब भी भूख से लड़ने / कोई खडा हो जाता है / सुन्दर दीखने लगता है

झपटता बाज़ / फेन उठाए सांप / दो पैरों पर ख़डी

काँटों से नन्हीं पत्तियां खाती बकरी / दबे पाँव

झाड़ियों में चलता चीता / डाल पर उलटा लटक

फल कुतरता तोता / या, उसकी जगह / आदमी होता.

 

सर्वेश्वर की कविताओं की एक विशेष पहचान उनमें कभी व्यक्त, कभी निहित व्यंग्य का स्वर है. किसी भी कीमत पर अत्याचार और शोषण करने वालों को वे भेड़िया और गुबरैला तो कहते ही हैं, पर अपनी एक कविता “व्यंग्य मत बोलो” में यथा स्थितिवादियों पर भी जम कर कटाक्ष करते हैं. –

व्यंग्य मत बोलो .

काटता है जूता तो क्या हुआ / पैर में न सही

सर पर रख डोलो / व्यंग्य मत बोलो

अंधों का साथ हो जाए तो / खुद भी आँखें बंद कर लो

जैसे सब टटोलते हैं / राह तुम भी टटोलो

व्यंग्य मत बोलो .

क्या रखा है कुरेदने में / हर एक का चक्रव्यूह भेदने में /

सत्य के लिए / निरस्त्र टूटा पहिया ले

लड़ने से बेहतर है /जैसी है दुनिया / उसके साथ हो लो

व्यंग्य मत बोलो /

कुछ तो सीखो गिरिगिट से / जैसी शाख वैसा रंग

जीने का यही है सही ढंग / अपना रंग दूसरों से

अलग पड़ता है तो / उसे रगड़ धो लो/ व्यंग्य मत बोलो

बाहर रहो चिकने / यह मत भूलो / यह बाज़ार है

सभी आए हैं बिकने / राम राम कहो और

माखन मिश्री घोलो / व्यंग्य मत बोलो

व्यंग्य और कटाक्ष के बावजूद सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एक अत्यंत मार्मिक और संवेदनाओं से परिपूरित कवि हैं. उनकी कविताओं में हमें प्यार और प्रकृति के घुले-मिले चित्र मिलते हैं. “रात की वर्षा” ,”जाड़े की धूप” “चंचल बयार” “हवा बसंत की” ये सभी उनकी कोमल भावनाओं को स्पंदित करने वाली कवितायेँ हैं. वे अपनी कविता समर्पण में “घास की एक पत्ती के सम्मुख” झुक जाते हैं

 

और मैंने पाया कि / मैं आकाश छू रहा हूँ.

बच्चों के प्रति उनकी सुकुमारता और क्रीडाभाव देखते ही बनाता है. इब्न-बतूता इसका एक अनूठा उदाहरण है! –

 

इब्नबतूता पहन के जूता /निकल पड़े तूफ़ान में

थोड़ी हवा नाक में घुस गयी / थोड़ी घुस गई कान में

कभी नाक को कभी कान को / मलते इब्नबतूता

बीच में से निकल पडा / उनके पैरों का जूता

उड़ते उड़ते जूता उनका / जा पहुंचा जापान में

इब्नबतूता खड़े रह गए / मोची की दूकान में

 

और अंत में हमें उनकी कविताओं में मौन,या कहें वाणी से परे एक आध्यात्मिक स्वर भी देखने को मिलता है – “सब कुछ कह लेने के बाद / कुछ ऐसा है जो रह जाता है” वह पीड़ा है... सच्चाई है ....

वह यति है- हर गति को नया जन्म दे अंतराल है वह – नया सूर्य उगा देती है

 

वह मेरी कृति है

पर मैं उसकी अनुकृति हूँ

तुम उसको वाणी मत देना

 

surendraverma389@gmail.com

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रचनाकार: रचना और रचनाकार (१३)-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना / डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
रचना और रचनाकार (१३)-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना / डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
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