जुलाहे का कैनवस : अर्पणा कौर / वीणा भाटिया

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  अर्पणा कौर देश की जानी-मानी चित्रकार हैं। समकालीन भारतीय कला में इनका अपना ख़ास स्थान हैं। इनकी पेंटिग्स दुनिया की प्रमुख आर्ट गैलरियों म...

 

अर्पणा कौर देश की जानी-मानी चित्रकार हैं। समकालीन भारतीय कला में इनका अपना ख़ास स्थान हैं। इनकी पेंटिग्स दुनिया की प्रमुख आर्ट गैलरियों में प्रदर्शित हो चुकी हैं। मॉडर्न आर्ट में वैसे तो कई भारतीय चित्रकारों ने अपनी पहचान बनाई, पर अर्पणा कौर का काम विशिष्ट है। उनकी पेंटिग्स अन्य महत्त्वपूर्ण मॉडर्निस्ट चित्रकारों की तरह सिर्फ़ अब्सट्रैक्ट ही नहीं है, बल्कि उनमें जो यथार्थ सामने आया है, वह दिखलाता है कि उनका उस मनुष्य के भाव-जगत से गहन तादात्म्य है, जो हाशिये पर है। मनुष्य के मन के अंधेरे कोनों में झांकना और उसकी पीड़ा को कैनवस पर रेखाओं-रंगों से इस तरह उकेरना कि वह कविता का रूप ले ले, अर्पणा कौर की अपनी ख़ासियत है। उनकी कला तल्ख़ सच्चाइयों को सामने लाती हैं। वे अब्स्ट्रैक्शन में भी यथार्थ के रंग उकेर देती हैं। भारतीय महिलाओं की उपेक्षित दशा ने उनकी संवेदना को गहराई से प्रभावित किया है। यह उनके काम में अक्सर दिखाई पड़ता है। उन्होंने वृन्दावन की विधवाओं के हालात पर 'विडोज ऑफ वृन्दावन' सीरीज की पेंटिंग्स बनाई, जो दुनिया भर में चर्चित रही। इसी प्रकार, 1984 के सिख दंगों ने उनकी संवेदना को झकझोर कर रख दिया। इसके दर्द और दंगों की भयावहता-विडम्बना को उन्होंने ‘वर्ल्ड गोज ऑन’ नाम की चित्र-श्रृंखला में उकेरा। यह चित्र-श्रृंखला दुनिया भर में प्रशंसित हुई।

अर्पणा कौर का जन्म दिल्ली में 4 सितंबर, 1954 को सिख परिवार में हुआ। उनकी मां अजीत कौर पंजाबी की मशहूर साहित्यकार हैं। अर्पणा कौर ने दिल्ली विश्वविद्यालय से साहित्य में एमए किया। वे स्व-प्रशिक्षित कलाकार हैं। उन पर पहाड़ी मिनियेचर ट्रेडिशन और लोक परंपरा का काफी प्रभाव है। दार्शनिक स्तर पर वे नानक, कबीर, बुद्ध, योगी-योगिनी और सूफी परंपरा से भी प्रभावित रही हैं। समय, जीवन और मृत्यु उनकी कलाकृतियों में मुखर है। जापान पर हुए परमाणु बम विस्फोट की 50वीं बरसी पर उन्होंने एक बड़ी कृति की रचना की, जिसे हिरोशिमा आधुनिक कला संग्रहालय में स्थायी रूप से रखा गया। दरअसल, कला के संस्कार उन्हें अपने घर के माहौल में ही मिले। जब वे बच्ची थीं, तभी अपनी मां को हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए परमाणु बम विस्फोट में मृत लोगों के लिये प्रार्थना करते देखा करती थीं। इससे उनमें उस हॉलोकास्ट में मारे गए लोगों के प्रति संवेदना जागृत हुई और उन्होंने कला के उस रूप का सृजन किया, जो आज विश्व शांति आन्दोलन की धरोहर बन चुका है। अर्पणा कौर ने 1980 में ‘धरती’ नाम की चित्र-श्रृंखला बनाई। इसमें उन्होंने नानक, कबीर, बुद्ध और भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के नायकों - भगत सिंह, उधम सिंह और महात्मा गांधी को चित्रित किया।

अर्पणा कौर कहती हैं कि बचपन में जब उनके दिलो-दिमाग में रंगों और रेखाओं की भाषा विकसित हो रही थी, तो उन्होंने एक मां को एक बेटी के लिए और पुरुष-प्रधान मानसिकता वाले समाज में खुद के लिए लड़ते देखा था। अपनी मां के जीवन-संघर्षों और रचनात्मक संघर्षों से अर्पणा कौर को प्रेरणा तो मिली ही, साथ ही स्त्री के जीवन के सच को समझने की दृष्टि भी। तभी औरतें उनकी पेंटिंग्स का अहम किरदार बन गईं। दबी-कुचली, मज़लूम औरतों की जीवन स्थितियों और उनके संघर्षों को अर्पणा कौर ने अपनी पेंटिंग्स में स्वर दिया है।

अर्पणा कौर ने 1975 में अपनी पहली एकल प्रदर्शनी का दिल्ली में आयोजन किया था। तब से लेकर आज तक सिर्फ भारत ही नहीं, दुनिया के तमाम बड़े शहरों में उनकी प्रदर्शनियां आयोजित हो चुकी हैं। 1981 में उन्होंने ‘लापता दर्शक’ नामक प्रदर्शनियों की श्रृंखला आयोजित की। ये प्रदर्शनियां बहुत सफल रहीं। 1984 में दिल्ली में हुये सिख विरोधी दंगों को उन्होंने प्रत्यक्ष देखा था। इस दंगे की भयावहता ने उनके मन को इस कदर झकझोरा कि उन्होंने ‘दुनिया चलती रहेगी’ श्रृंखला के तहत कई पेंटिंग्स बनाई। इसका प्रदर्शन 1986 में किया गया। इन दंगों के बारे में अर्पणा कौर कहती हैं कि इस तरह की हिंसा का सामना उन्होंने पहले कभी नहीं किया था। तब उन्होंने अपने साथ काम कर रहे एक बढ़ई की जान बचायी थी, जिसे दंगाई मारने पर उतारू थे। इस श्रृंखला पर उन्हें 1986 में ट्राइनाले अवॉर्ड मिला।

अर्पणा के चित्रों में रंगों की आभा, टेक्‍स्‍चर और पूरी बुनावट खादी या सूती सरीखी है। एक भारतीय पहचान जैसी। आत्मीय भी और उपयोगी रूप से विलग भी। सूत से कता-बुना ताना-बाना यानी जुलाहे का कैनवस। चित्रकला और साहित्‍य का अंतरंग रिश्‍ता है। अर्पणा कौर की पेंटिंग्‍स में कबीर तथा अन्‍य संतों और भक्त कवियों का कथ्‍य और दर्शन उतना ही स्‍पष्‍ट है, जैसा चित्रभाषा के माध्‍यम से व्‍यक्‍त किया जा सकता है। माटी के पुतले, सफेद वस्त्र और जीवन के सारे रंग जो पृष्‍ठभूमि में हैं, मानो कैनवस की चौहद्दी से बाहर निकलने को छटपटाते-से दिखते हैं।

यह आकस्मिक नहीं है कि अपने प्रदर्शित चित्रों के मध्‍य अर्पणा फर्श के ऊपर गुलाब अबीर के मूल रंगों के वृत्‍ताकारों में मिट्टी के बने खोखले चरणों को जैसे सभी अज्ञात दिशाओं की ओर अग्रसरित करते हुए रखती हैं। मिट्टी के रंगों के बीच मिट्टी के पांव आत्‍मपदी सरीखे लगते हैं और दीवारों के ऊपर लटके चित्रों को नयी अर्थ-भंगिमा से आप्‍लावित कर देते हैं। आत्‍म-दीक्षित कलाकार की संभावना और उलपब्धि के आड़े जो प्रचलित कला मुहावरे आते रहते हैं, अर्पणा उनसे बेखबर नहीं हैं, बल्कि उन्‍होंने एक सुनिश्चित शैलीगत पद्धति के अंतर्गत उन प्रभावों से मुक्ति पा ली है। अलिपुक मायने हु प्राथकिय बन्‍नस सबद मीरस क्‍या हूं परवाह (उस्‍ताद के पास सीखने गया-अलिफ का मतलब तो समझाया। अलिफ का मतलब सब कुछ बन जायेगा। उसके आगे किसे परवाह! उस्‍ताद ने अलिफ सिखाया, बे नहीं सिखाया) सबद मीर, बाहब खार, हब्‍बा खातून, कबीर, नानक और गीता की वाणियों की अंतर्ध्‍वनियां अर्पणा के चित्रों की बुनावट का मूल ताना-बाना हैं। अर्पणा यदि अपने विषयों का सटीक और प्रासंगिक चुनाव न करतीं तो उनके चित्रों का ड्राइंगरूम पेंटिंग्‍स हो जाने का सबसे बड़ा खतरा था। उनके कैनवस के रंग जहां एक ओर आक्रामक किस्‍म के हैं, वहीं उनके भीतर एक व्‍यापक शक्ति है जो बाहर छलक-छलक पड़ती है। बड़े आकार का होने से उनके चित्रों का असर भी 'बड़ा' होता है। मुख्‍य 'बड़ी' आकृति अथवा आकृतियों के बीच कई 'छोटे-छोटे' प्रसंग या एपिसोड हैं और ये एक अकेले कैनवस को किसी धारावाहिक में बदल देते हैं।

अर्पणा कौर के चित्रों की शैलीगत विशेषताओं, विषय और सरोकार पर पत्र-पत्रिकाओं में काफी कुछ लिखा जा चुका है और अब आधुनिक भारतीय चित्रकला के परिदृश्‍य में उनकी उपस्थिति अपना अलग महत्त्व रखती है। अर्पणा का काम 'अलिफ' की श्रेणी में आता है, 'बे' (दूसरे, तीसरे चौथे) की श्रेणी में नहीं। आज कला की दुनिया में तरह-तरह की प्रवृत्तियां हावी हैं, जिनमें सबसे नकारात्मक है आत्मप्रचार और कला को बिकाऊ माल बना देने की प्रवृत्ति। कला का जो बाज़ार विकसित हुआ है, वह कहीं न कहीं कला-विरोधी हो गया है। अर्पणा कौर इस बात को स्वीकार करती हैं, यद्यपि व्यवसायिक दृष्टि से भी उनकी कला कम सफल नहीं रही। अर्पणा कौर बाजार के सच को पहचानती हैं, पर कभी भी उन्होंने उन खरीददारों के लिए अपने कैनवस पर स्त्री को जगह नहीं दी, जिनके लिए औरत एक उपभोक्ता सामग्री से ज्यादा कुछ नहीं है। कुछ समय पहले उनकी कलाकृतियों की नकल दिल्ली में बरामद हुईं तो इससे दुखी अर्पणा ने इतना भर कहा था, "कला की दुनिया में नैतिकता न बची रहे तो फिर कला की परिभाषा बदलनी होगी।" बहरहाल, अर्पणा कौर की आस्था पूरी तरह से मनुष्य और उसके संघर्षों में है। वे खुद कहती भी हैं, "मुझे लगता है कि चित्रों में आम आदमी आए और आम आदमी को समर्पित चित्र आम आदमी तक भी पहुंचे।"

Email- vinabhatia4@gmail.com

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: जुलाहे का कैनवस : अर्पणा कौर / वीणा भाटिया
जुलाहे का कैनवस : अर्पणा कौर / वीणा भाटिया
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रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2016/03/blog-post_54.html
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